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अर्थात् यह पद्मचरित समस्त शास्त्रोंके ज्ञाता उत्तम मुनियोंके मनकी सोपान - परम्परा के समान नाना की परम्परासे युक्त है, सुभाषितों परिपूर्ण है, सारपूर्ण है तथा अत्यन्त आश्चर्यकारी है । इन्द्रगुरुके शिष्य श्रीदिवाकरयति थे । उनके शिष्य अर्हयति हुए । उनके शिष्य लक्ष्मणसेन मुनि थे और उनका शिष्य में रविषेण हूँ ।
मेरे द्वारा रचित यह 'पद्मचरित' सम्यग्दर्शनको शुद्धताके कारणोंसे श्रेष्ठ है, कल्याणकारी है, विस्तृत है, अत्यन्त स्पष्ट है, उत्कृष्ट है, निर्मल है, श्रीसम्पन्न है, रत्नत्रयरूप बोधिका दायक है, तथा अद्भुत पराक्रमी पुण्यस्वरूप श्रीरामके माहात्म्यका उत्तम कीर्तन करनेवाला है, ऐसा यह पुराण आत्मोपका के इच्छुक विद्वज्जनोंके द्वारा निरन्तर श्रवण करने योग्य है ।
उपर्युक्त पद्योंसे रविषेणकी गुरु-परम्पराका परिज्ञान तो हो जाता है, पर उनके जन्मस्थान, बाल्यकाल, विवाहित जीवन आदिके सम्बन्ध में कुछ भी जानकारी नहीं हो पाती ।
रविषेणने पद्मचरित ४२ वें पर्व में जिन वृक्षों का वर्णन किया है वे वृक्ष दक्षिण भारतमें पाये जाते हैं । कविका भौगोलिक ज्ञान भी दक्षिण भारतका जितना स्पष्ट और अधिक है उतना अन्य भारतीय प्रदेशोंका नहीं । अतएव कविका जन्मस्थान दक्षिण भारतका भूभाग होना चाहिए ।
समय-1
य-निर्धारण
आचार्य रविषेणके समय निर्धारण में विशेष कठिनाई नहीं है, क्योंकि रविघेणने स्वयं अपने पद्मचरितकी समाप्ति समयका निर्देश किया है
द्विशताभ्यधिके समासहस्रे समतीतेऽद्धं चतुर्थवषंयुक्ते । जिनभास्करवर्द्धमानसिद्धेश्चरितं पद्ममुनेरिदं निबद्धम् ॥
जिनसूर्य -- भगवान् महावीरके निर्वाण प्राप्त करनेके १२०३ वर्षं छः माह बीत जानेपर पद्ममुनिका यह चरित निबद्ध किया । इस प्रकार इसकी रचना वि० सं० ७३४ (ई० सन् ६७७ ) में पूर्ण हुई है। बोर निर्वाण सं० कार्तिक कृष्णा ३० वि० सं० ४६९ पूर्व से ही भगवान् महावीरके मोक्ष जानेकी परम्परा प्रच लित है । इस तरह छ: मासका समय और जोड़ देने पर वैशाख शुक्ल पक्ष वि० सं० ७३४ रचना - तिथि आती है ।
१. पग्रचरितम् १२३३१८२ ।
घर और सारस्वताचार्य : २७७