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बहिस्साक्ष्य - रविषेण स्वयंके उल्लेखोंके अतिरिक्त समकालीन और उत्तरवर्ती आचार्याक निर्देश भी रावण के समयपर प्रकाश पड़ता है।
इनके उत्तरवर्ती उद्योतनसूरिने अपनी कुवलयमालामें रविषेणको पद्मचरितके कर्ताक रूपमें स्मरण किया है। उद्योतनसुरिका समय ई० सन् ७७८ (वि० सं० ८३५) है ! प्रतीत होता है कि रविषणको ख्याति १०० वर्षों में ही पर्याप्त विस्तृत हो तुको थी। उद्योतनसूरिने लिखा है
जेहि कए रमणिज्जे बरंग-पउमाणरिय विस्थारे ।
कब ण सलाहिज्जे ते कइणो जडिय-रविसेणे' । जिन्होंने रमणीय एवं विस्तृत वरांगचरित और पारित लिखे, वे जडित तथा रविषेण कवि कैसे श्लाघ्य नहीं, अपितू श्लाघ्य हैं। हरिवंशपुराणके रचयिता प्रथम जिनसेनने भी रविणका पद्मचरितके कर्ताक रूपमें स्मरण किया है---
कृतपद्मोदयोद्योता प्रत्यहं परिवत्तिता ।
मूत्तिः काव्यमयी लोके रवेरिव रवेः प्रिया || आचार्य रविषेणको काव्यमयी मूर्ति सूर्यको मूतिके समान लोकमें अत्यन्त प्रिय है । यतः सूर्य जिस प्रकार कमलोंको विकसित करता है उसी प्रकार रविषेणने पद्म-रामके चरितको विस्तृत किया है। आचार्य जिमसेनने हरिवंशपुराणकी रचना वि० सं० ८४०में की है। इससे स्पष्ट है कि रविषेण वि० सं० ८४० से पूर्ववर्ती हैं और यशस्वी कवि हैं। अतः बहिःसाक्ष्य भी रविणद्वारा स्वयं सूचित समयके साधक हैं। रचना-परिचय और काव्य-प्रतिभा
पश्चचरितमें पुराण और काव्य इन दोनों के लक्षण सम्मिलित हैं । विमलसूरिकृत प्राकृत पउमरियमका आधार रहनेपर भी इसमें मौलिकत्ताकी कमी नहीं है | कथानक और विषयवस्तुमें पर्याप्त परिवर्तन किया है। वस्तुतः इस ग्रन्थका प्रणयन उस समय हुआ है जब संस्कृतमें चरित-काव्योंको परम्पराका पूर्ण विकास नहीं हुआ था। इसमें वन, नदी, पर्वत, ग्राम, ऋतु-वर्णन, संध्या, सूर्योदय आदिका चित्रण महाकाव्यके समान ही किया गया है । कथाका आयाम पर्याप्त विस्तृत है । पद्म--रामके कई जन्मोंकी कथा तथा उनके परिकर में निवास १. कुवलयमाला-अनुच्छेद-६, पृ०-४ । २. हरिवंशपुराण, भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण, ११३४ ।
२७८ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा