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विनय, तप विनय और उपचार विनयोंका विशद वर्णन है । कृतिकर्म नामक अंगबाह्यमें अरहन्न, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधुकी पूजाविधिका वर्णन है। दशवेकालिक अंगबालने साधुओं आचार, निहार पर्यटन आषिका वर्णन है। उत्तराध्ययनमें चार प्रकारके उपसर्ग और बाईस परिषहोंके सहन करनेका विधान एवं उनके सहन करनेवालोंके जीवनवत्तका वर्णन रहता है। ऋषियोंके करने योग्य जो व्यवहार है उस व्यवहारसे स्वलित हो जानेपर प्रायश्चित्त करना होता है । इस प्रायश्चित्तका वर्णन कल्पव्यवहारमें रहता है । कल्प्याकल्प्यमें साधु और असाधुओंके आचरणीय और त्याज्य व्यवहारका वर्णन पाया जाता है। दीक्षाग्रहण, शिक्षा, आत्मसंस्कार, सल्लखना और उत्तम स्थापना रूप आराधनाको प्राप्त हए साधनोंके जो करने योग्य है उसका द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावका आश्रय लेकर महाकल्प्य कथन करता है । पुण्डरीक अंगबाह्यमें भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी, कल्पवासी एवं वैमानिक सम्बन्धी देव, इन्द्र, सामानिक आदिमें उत्पत्तिके कारणभूत दान, पूजा, शील, तप, उपवास और अकामनिर्जराका तथा उनके उपपाद-स्थान और भवनोंका वर्णन रहता है। महापुण्डरीकमें भवनवासी, व्यन्तर आदि देवों और देवियोंमें उत्पत्तिके कारणभूत तप और उपवास आदिका वर्णन है। निर्षािद्धकामें अनेक प्रकारकी प्रायश्चित्त-विधियोंका कथन आया है ।
इस प्रकार अंगप्रविष्ट और अंगबाह्यके अन्तर्गत आधुनिक सभी विषयोंका समावेश तो होता ही है, साथ ही आध्यात्मिक भावना, कर्मबन्धकी विधि और फल, कोंके संक्रमण आदि करण, विभिन्न दार्शनिक चर्चाएं, मतमतान्तर, ज्योतिष, आयुर्वेद, गणित, भौतिकशास्त्र, आचारशास्त्र, सृष्टि-उत्पत्ति विद्या, भूगोल एवं पौराणिक मान्यताओंका परिज्ञान भी उक्त श्रुत या आगमसे प्राप्त होता है आगमका यह विषय-विस्तार इतना सघन और विस्तृत है कि इसको जानकारीसे व्यक्ति श्रतकेवली पद प्राप्त करता है | ज्ञान या आगमके विषयका परिज्ञान किस प्रकार और किस विधिसे संभव होता है, इसका वर्णन भी पूर्वोक्त आगमग्रन्थों में आया है। श्रुत या आगमज्ञानसे सम्बद्ध आचार्य-परम्परा
दिगम्बर पट्टालियों और प्रशस्सियोंसे अवगत होता है कि श्रुतको सुनकर कंठस्थ कर लेनेकी परम्परा तीर्थकर महावीरके निर्वाणलाभके पश्चात् कई शतक सक चलती रही । द्रव्य, गुण, पर्याय, तत्त्वज्ञान, कमंसिद्धान्त एवं आचार सम्बंधी मौलिक मान्यताओंको परम्परासे प्रासकर स्मरण बनाये रखनेको प्रथा धारावाहिक रूपमें चलती रही। नन्दोमंघ-बलात्कारगण-सरस्वतीगच्छकी
श्रुतधर और सारस्वताचार्य : १५