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५. तस्वार्थवातिक सभाध्य
इस ग्रन्थके मंगा चतुर्ग नाणो 'न ततावासिद' लिखकर अकलंकदेवने इस ग्रन्थको 'तत्त्वार्थवार्तिक' कहा है। तत्त्वार्थसूत्रके प्रत्येक सूत्रपर वात्तिकरूपमें व्याख्या लिखे जाने के कारण यह तत्त्वार्थवात्तिक कही गयी है। बात्तिक श्लोकात्मक भी होते हैं और गद्यात्मक भी। कुमारिलका मीमांसाश्लोकवात्तिक और धर्मकीतिका 'प्रमाणवातिक' पद्यों में लिखे गये हैं। पर न्यायदर्शनके सूत्रोंपर उद्योतकरने जो वात्तिक रचा है, वह गद्यात्मक है । अतएव यह अनुमान लगाना सहज है कि अकलंकने उद्योतकरके अनुकरण पर गद्यात्मक तत्त्वार्थबातिक रचा है। अकलङ्कको विशेषता यह है कि उन्होंने तत्वार्थसूत्रके सूत्रोंपर वात्तिक रचे और वात्र्तिकोंपर भाष्य भी लिखा है। इस तरह इस ग्रन्थमें बात्तिक पृथक हैं और उनकी व्याख्या-भाष्य अलग है। इसी कारण इसकी पुष्पिकाओंमें इसे 'तत्त्वार्थवात्तिकव्याख्यानालंकार' संज्ञा दी गयी है ।
यह ग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्रको व्याख्या होनेके कारण दश अध्यायोंमें विभक्त है । इसका विषय भी तन्वार्थसूत्रके विषयके समान ही सैद्धान्तिक और दार्शनिक है । तत्त्वार्थसूत्रके प्रथम तथा पंचम अध्यायमें क्रमशः ज्ञान एवं द्रव्योंकी चर्चा आयी है और ये दोनों विषय ही दर्शनशास्त्रके प्रधान अंग हैं। अतः अकलंकदेवने इन दोनों अध्यायों में अनेक दार्शनिक विषयोंकी समीक्षा की है। दर्शन शास्त्र के अध्येताओंके लिये तत्वार्थवात्तिकके ये दोनों अध्याय विशेष महत्त्वपूर्ण हैं। ___ तत्त्वार्थवात्तिककी एक प्रमुख विशेषता यह है कि जितने भी मन्तव्य उसमें चचित हुए, उन सबका समाधान अनेकान्तके द्वारा किया गया है । अतः दार्शनिक विषयोंसे सम्बद्ध सूत्रोंके व्याख्यानमें 'अनेकान्तात्'वात्तिक अवश्य पाया जाता है । यहाँ यह स्मरणीय है कि वातिककारने दार्शनिक विषयोंके कथनसन्दर्भमें आगमिक विषयोंको भी प्रस्तुत कर अनेकान्तवादकी प्रतिष्ठा को है। __ तृतीय, चतुर्थ अध्यायोंमें लोकानुयोगसे सम्बद्ध विषय आये हैं । इस विषयके प्रतिपादनमें 'तिलोयपण्णत्ति' आदि प्राचीन ग्रन्थोंको अपेक्षा अनेक नवीनताओंका समावेश किया गया है । इस ग्रन्थकी विशेषताओंके सम्बन्ध में प्रज्ञाचक्ष पं० सुखलालजीने लिखा है-"राजवात्तिक और लोकवात्तिकके इतिहासज्ञ अभ्यासीको मालूम पड़ेगा कि दक्षिण हिन्दुस्तानमें जो दार्शनिक विद्या और स्पर्धाका समय आया और अनेकमुख पाण्डित्य विकसित हुआ, उसीका प्रतिबिम्ब इन दोनों ग्रन्थों में है। प्रस्तुत दोनों वात्तिक जैनदर्शनका प्रामाणिक अभ्यास करनेके पर्याप्त साधन है। परन्तु इनमें से 'राजवात्तिक'का गद्य सरल और विस्तृत ३१४ : तीर्थकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा