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कि उन्होंने कतिपय तथ्य बहुत मौलिक और नूतनरूपमें अभिव्यक्त किये हैं । अतएव वीरसेनस्वामीकी शैलीमें सर्जनात्मक प्रतिभाका पूर्ण समावेश पाया जाता है। मूल्य एवं निष्कर्ष
यह पहले ही लिखा जा चुका है कि धवलाटोकाका मूल्य किसी भी स्वतन्त्र ग्रन्थसे कम नहीं है । इसमें ग्रहीतग्राही ज्ञानको प्रमाण माना गया है। आचार्य वीरसेनकी दृष्टि में प्रमाणताका कारण संशय, विपर्यय और अनध्यवसायका न उत्पन्न होना है । जिस ज्ञानमें तीनों अज्ञानोंकी निवृत्ति रहती है, वह ज्ञान प्रमाण होता है। इसी प्रकार अवग्रह, ईहा आदि ज्ञानोंके निर्वचन भी नवीन रूपमें प्रस्तुत किये गये हैं । उपयोगके स्वरूप-विवेचनमें सामान्यपदसे आत्माका ग्रहण कर दर्शनोपयोगका स्वरूप आभ्यन्तरप्रवृत्ति और ज्ञानोपयोगका स्वरूप बाह्यप्रवृत्ति बतलाया है । संक्षेपमें इस टीकाका मूल्य निम्नलिखित सूत्रोंमें अभिव्यक्त किया जा सकता है
१. पूर्वाचार्योको मान्यताओंका पुष्टीकरण । २. पारिभाषिक शब्दोंके व्युत्पत्तिमूलक निर्वचनोंका विवेचन । ३. नवीन दार्शनिक मान्यताओंका सयुक्तिक प्रतिपादन ।
४. मणि-प्रवालन्यायद्वारा मिश्रित भाषाका प्रयोग कर अपने युग तकको भाषामलक प्रवृत्तियोंका निरूपण।
५. पाठकशैलीद्वारा विषयोंका विशदीकरण । ६. संख्याओं, सूत्रों एवं गणितविषयक मान्यताओंका विवेचन ।
७. भंग और विकल्प जालका विस्तार कर विषयका वितत भिन्नकी प्रक्रिया द्वारा उत्थापन ।
८. मूलसूत्रोंमें प्रयुक्त प्रत्येक पदका पर्याप्त विस्तार और सन्दर्भोका विशदीकरण ।
९. प्रश्नोत्तरों द्वारा विषयका स्फुटीकरण । १०. शंकाओं और समाधानोंके सन्दर्भ में पाठान्तरोंका संकेतीकरण। ११. पूर्वाचार्योंके सन्दर्भोको उद्धृत कर ऐतिहासिक तथ्योंका प्रतिपादन !
१२. स्वकथनके पुष्टीकरणके हेतु अन्य आचार्यो के वाक्यों या मान्यताओंका प्रस्तुतीकरण ।
१३. विरोधी विषयोंमें गुरु-परम्पराका अनुसरण कर निर्णयका प्रतिपादन।
१४. श्रुतबहुभागको विस्मृत्तिके गर्भसे निकालकर स्वतन्त्र एवं सर्जनात्मक शक्तिमें निबद्धीकरण ।
भुतघर और सारस्वताचार्य : ३३५