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भावसे-मोहपरिणामोंसे रहित है, तो भी आप सांसारिक बड़ी-बड़ी व्याधियोंको नष्ट कर देते हैं । हे प्रभो ! मेरे भी जन्म-मरणरूप रोगको नष्ट कर दोजिए।
चन्द्रप्रभ और शीतलजिन स्तुति करते हुए मुजंबन्धोंकी योजनामें व्यतिरेक और श्लेष अलंकारको दिव्य आभाका मिश्रण उपलब्ध होता है
"प्रकाशयन समुद्भुतस्त्वमुद्धाकलालयः ।
विकासयन् समुद्भूतः कुमुदं कमलाप्रियः । हे प्रभो! आप चन्द्ररूप हैं, क्योंकि जिस प्रकार चन्द्रमा उदय होते ही आकाशको प्रकाशित करता है, उसो तरह आप भी समस्त लोकाकाश और अलोकाकाशको प्रकाशित करते हैं । चन्द्रमा जिस प्रकार मृगलांछनसे युक्त है, उसी प्रकार आप भो मनोहर अर्द्धचन्द्रसे युक्त हैं । चन्द्रमा जिस प्रकार सोलह कलाओंका आलय-गृह होता है, उसी तरह आप भी केवलज्ञानादि अनेक कलाओंके आलय-स्थान हैं । चन्द्रमा जिस तरह कुमुदों-नीलकुमुदोंको विकसित करता हुआ उदित होता है. उसी तरह आप भी पथ्वीके समस्त प्राणियोंको आनन्दित करते हैं। चन्द्रमा जिस प्रकार कमलाप्रिय-कमलश होता है, उसी प्रकार आप भी कमलाप्रिय केवलज्ञानादि लक्ष्मोके प्रिय हैं।
श्लेषके समान हो उपर्युक्त पद्यमें व्यतिरेक अलंकार भी है । इस अलंकारके प्रकाशमें चन्द्रमाकी अपेक्षा सोधकर चन्द्रप्रभकी महत्ता प्रदर्शित की गयी है । चन्द्रप्रभमें गुणोंका उत्कर्ष और चन्द्रमामें अपकर्ष दिखलाया गया है।
श्रेयोजिनकी स्तुति में 'अर्द्धभ्रम'का प्रयोग किया है। इसमें औष्ठ्य बोका अभाव है, और चतुर्थ पादके समस्त अक्षरोंको अन्य तीन पादोंमें समाहित किया है
"हरतीज्याहिता तान्ति रक्षार्थायस्य नेदिता।
तीर्थादश्रेयसे नेताज्यायः श्रेयस्ययस्य हि॥ कुछ ऐसे भी पञ्च हैं, जिन्हें क्रमके साथ विपरीत क्रमसे भी पढ़ा जा सकता है, और विपरीत क्रमसे पड़नेपर भिन्नार्थक पद्य ही बन जाता है। कविने स्वयं ही अनुलोम-प्रतिलोमक्रमसे श्लोकोंका प्रणयन किया है । यया
"रक्षमाक्षर वामेश शमी चारुरुचानुतः ।
भो विभोनशनाजोख्नन बिजरामयः ।। १. स्तुति विद्या, पच ३१ । २. मही, पच ४३ । ३. वही, पद्य ८६ । २०४ : तोचकर महावीर और उनकी वाचार्य-परम्परा