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उपर्युक्त तुलनात्मक विवेचनका तात्पर्य यही है कि संहिताकालको प्रायः सभी रचनाएं विषयको दृष्टि से समान हैं । इस कालके लेखकोंने नवीन बातें बहुत कम कहीं हैं | फलप्रतिपादनको प्रणाली गणितपर आश्रित न होने के कारण बाह्य निमित्ताधीन रही है। इस कालके ग्रन्थोंमें भीम, दिव्य और अन्तरिक्ष, इन तीन प्रकारके निमित्तोका विशेषरूपसे वर्णन किया है । यथा
दिव्यान्तरिक्षं भीमं तु त्रिविधं परिकीर्तितम् |
अद्भुतसागर पृ० ६ बाराहो संहिता में इन तीनों निमित्तों के सम्बन्धमें लिखा है कि "भौमं चिरस्थिरभवं तच्छान्तिभिराहतं शममुपैति । नामसममुपैति मृदुतां क्षति न दिव्यं बदन्त्येके” ॥ इसी प्रकार आचार्य ऋषिपुत्रने — "जे दिट्ठ भुविरसपण जे दिट्ठा कुह मेणकत्ता । सदसंकुलेन दिट्ठा वकसट्टिय एण मार्णाधिया" । इत्यादि लिखा है | अतएव संहिताकालकी उक्त रचनाओंके अध्ययनसे यह स्पष्ट है कि ई० सन् ५वीं - ६ठी शती में ऋषिपुत्रने अपना निमित्तशास्त्र लिखा होगा । निमित्तशास्त्रके अतिरिक्त संस्कृत में भी इनकी कोई संहिताविषयक रचना रही है, जिसके उद्ध रण भट्टोत्पली, अद्भुतसागर, शकुनसारोद्धार, वसन्तराजशाकुन प्रभृति ग्रन्थोंमें पाये जाते हैं। इन ग्रन्थोंका रचनाकाल और संकलनकाल ई० सन् दशवींग्यारहवीं शती है। अतएव ऋषिपुत्रके समय की अवधि दशवीं शती सम्भव है । गर्गाचार्य और ऋषि की रचनाओं में समता रहनेके कारण इनके समयकी निचली अवधि ई० सन् पांचवीं शती है । इसी प्रकार वराहमिहिरको रचनाओंके साथ समता रहने से भी पञ्चम शती समय आता है ।
ऋषिपुत्रका समय ज्ञात करने के लिए एक अन्य प्रमाण यह है कि अद्भुतसागर में ऋषिपुत्रके नामसे कुछ पद्य प्राप्त होते हैं, जिससे उनका वराहमिहिरसे पूर्ववत्तित्व सिद्ध होता है— उक्त ऋषिपुत्रेण -
गर्गशिष्या यथा प्राहुस्तथा वक्ष्याम्यतः परम् । भीमभागंबरा केतवो यामिनो ग्रहाः ॥ आक्रन्दसारिणामिन्दुर्ये शेषा नागरास्तु ते । गुरुसौरबुधानेव नागरानाह देवलः ॥ परान् घूमेन सहितान् राहुभागवलोहितान् । इन पद्यों में गर्गशिष्य और देवल इन दो व्यक्तियोंके नामांका उल्लेख किया गया है । यहाँ गर्मशिष्यसे कोन सा व्यक्ति अभिप्रेत है, यह नहीं कहा जा सकता, पर द्वितीय व्यक्ति देवलकी रचनाओंक देखने से प्रतीत होता है कि यह वराहमिहिर के पूर्ववर्ती हैं, क्योंकि अद्भुतसागर के प्रारम्भमें ज्योतिषके निर्माता
श्रुतवर और सारस्वताश्वानं : २६५