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कारण है कि बृहज्जासकमें मय, यवन, विष्णुगुप्त, देवस्वामी, सिद्धसेन, जीवशर्मा एवं सत्याचार्य आदि कई महर्षियोंके वचनोंकी समीक्षा की गयी है । संहिताशास्त्रको प्रौढ़ रचनाएँ वराहमिहिरसे आरम्भ होती हैं। वराहमिहिरके बाद कल्याणवर्माने शक संवत् ५०० के आस-पास सारावली नामक होरा ग्रन्थ बनाया, जिसमें उन्होंने वराहमिहिरके समान अनेक आचार्यों के नामोल्लेखके साथ कनकाचार्य और देवकात्तिराजका भी उल्लेख किया है । संहिता-सम्बन्धी अनेक विषय भी सारावली में पाये जाते हैं । इस युगमें अनेक जैन एवं जेनेतर आचार्योने संहितासम्बन्धी प्रौद रचनाएँ लिखीं हैं। इन रचनाओंकी परस्पर तुलना करने पर प्रतीत होगा कि इनमें एकका दूसरे ग्रन्थपर पर्याप्त प्रभाव है । कई विषय समानरूपमें प्रतिपादित किये गये है। उदाहरणके लिए गर्ग, वराहमिहिर और ऋषिपुत्रके एक-एक पद्य उद्धृत किये जाते हैं
शशिशोणितवर्णाभो, यदा भवति भास्करः । तदा भवन्ति संग्रामा, घोरा रुधिरकदमाः ।।
-गर्ग शिशिरुधिनिभे भानो नभःस्थले भवन्ति संग्रामाः ।
-वराहमिहिर ससिलोहिवण्णहोरि संकुण इत्ति होइ णायब्बो ! संगाम पुण घोरं खग्गं सुरो णिवेदेई ।
-ऋषिपुत्र इसी प्रकार चन्द्रमा द्वारा प्रतिपादित किये गये फलमें भी समानता है। ऋषिपुत्र निमित्तशास्त्रका चन्द्रप्रकरण सोहताके चन्द्राचार अध्यायसे प्रायः मिलता-जुलता है । इस प्रकार के फल प्रतिपादनकी प्रक्रिया शक संवत्की ५-६वीं शताब्दी में प्रचलित थी । वृद्धगर्ग के अनेक पद्य ऋषिपुत्रके निमित्तशास्त्रसे मिलते-जुलते हैं।
कृष्णे शरीरे सोमस्य शद्राणां वधमादिशेत् । पीते शरीरे सोमस्य धेश्यानां वधमादिशेत् ।। रक्ते शरीरे सोमस्य राज्ञां च वधमादिशेत् ।
-वृद्धगर्ग विप्पाणं देइ भयं वाहिरणो तहा णिवेदेई । पीलो रेखत्तियणासं धूसरवण्णो य वयसाणं ।।३।। किण्हो सुद्दविणासो चित्तलवण्णो य हवइ पयहेऊ । दहिखीरसंखवण्णो सम्हि य पाहिदो चंदो ॥३९३
-ऋषिपुत्र निमित्तशास्त्र २६४ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा