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बार, मेलापक, आयाद्यानयन, गृहोपकरण, गृहप्रवेश, उल्कापात, गन्धर्वनगर एवं ग्रहोंके उदयास्तका फल आदि बातोंका प्रतिपादक कहा गया है । ऋषिपुत्रने अपने निमित्तशास्त्रमें जिन तत्त्वोंका उल्लेख किया है या जो गणितके संकेत दिये हैं, उज्जयिनीके रेखांश और अक्षांश द्वारा घटित होते हैं । अतएव इनका जन्मस्थान उज्जयिनी होना सम्भव है। . भट्टोत्पलि-टोकामें राहुचारके प्रतिपादन सन्दर्भ में ऋषिपुत्रके वचन निम्न प्रकार उद्धृत्त मिलते हैं
यावतोंऽशान् असित्वेन्दोरुदयत्यस्तमेति वा । तावतोंऽशान् पृथिव्यास्तु तम एव विनाशयेत् ।। उदयेऽस्तमये वापि सूर्यस्य ग्रह्ण भवेत् । तदा नृपभयं विद्यात् परचक्रस्य चागमम् ॥ चिरं गृह्णाति सोमार्को सर्वं वा नसते यदा । हन्यात् स्फीतान् जनपदान् वरिष्ठांश्च जनाधिपान् ।। ग्रेष्मेणा जल जोवन्ति दराग्वानुमनेट बा । भयभिक्षरोगश्च सम्पीड्यन्ते प्रजास्तथा ।।
–सवि० बृ. पृ० १३४-१३५ उपर्युक्त पद्य आचार्य ऋषिपुत्रके नामसे अद्भुतसागरके "राहोरद्भुतवात्तः" नामक अध्याय में 'अथ चिरग्राससर्वग्रासयोः फलम् तत्र ऋषिपुत्रः' लिखकर दो स्थानोंपर उद्धृत किये गये हैं। इन श्लोकोंमें "शस्यैर्न तत्र जीवन्ति नरा मूलफलोदकः' इतना पाठ और अधिक मिलता है । इन्हीं पद्योंसे मिलता-जुलता वर्णन इनके "प्राकृतनिमित्तशास्त्र में है, पर वहाँको गाथाए छाया नहीं हैं। अतः इतना स्पष्ट है कि ऋषिपुत्रके ज्योतिषविषयक ग्रन्थोंका प्राचीन भारतमें पर्याप्त प्रचार रहा है। उनके उत्तरकालीन आचार्यो ने इनके सिद्धान्तोंको अपने ग्रन्थोंमें उद्धृत कर अपने वचनोंकी प्रामाणिकता घटित की है। समय निर्धारण
आचार्य ऋषिपुत्रके समय-निर्धारणमें भारतीय ज्योतिषशास्त्रके संहितासम्बन्धी इतिहाससे बहुत सहायता मिलती है, क्योंकि यह परम्परा शक संवत् ४०० से विकसित रूपमें प्राप्त है । वराहमिहिरने (शक संवत् ४२७, ई० सन् ४४८) बृहज्जातकके २६वें अध्यायके ५वें पद्य में कहा है.-"मुनिमतान्यवलोक्य सम्यग्नोरां वराहमिहिरो रुचिरां चकार ।" इस उद्धरणसे यह स्पष्ट है कि 'वराहमिहिर के पूर्व होरा और संहिता सम्बन्धी ग्रन्थराशि वर्तमान थी। यही
घुतघर और सारस्वताचार्य : २६३