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बन्धनका रूपक है । इस प्रकारके रूपक छठी सातवीं शताब्दीमें अनेक लिखे गये हैं | वसुदेव-हिंडीमें गर्भवासदुःख, विषयसुख, इन्द्रियसुख, जन्म-मरणके भव आदि सम्बन्धी अनेक रूपक आये है। डॉ० कोथका यह अनुमान यदि सत्य है, तो इसका रचनाकाल छठी शताब्दीका उत्तराद्ध या सातवीका पूर्वार्द्ध होना चाहिये । ___डॉ० कीथने यह भी अनुमान किया है कि मानतुग बाणके समकालीन हैं। सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ पं० गौरीशंकर हीराचन्द ओझाने अपने "सिरोहीका इतिहास' नामक ग्रन्थमें मानतुगका समय हर्षकालीन माना है । श्रीहर्षका राज्याभिषेक ई. सन् ६०८ में हुआ था । अतएवं मानतुगका समय ई० सन् की ७वीं शताब्दीका मध्यभाग होना सम्भव है ।
भक्तामरस्तोत्रके अन्तरंग परीक्षणसे प्रतीत होता है कि यह स्तोत्र 'कल्याण-मन्दिरका परवर्ती है। 'कल्याण-मन्दिर'ले रनगिता सिद्धसेनका समय षष्ठी शताब्दो सिद्ध किया जा चुका है। अत: मानतुगका समय इनसे कुछ उत्तरवतों होना चाहिये । हमारा अनुमान है कि दोनो स्तोत्रों में उपलब्ध समता एक-दूसरेसे प्रभावित है। _ 'कल्याण-मन्दिर में कल्पनाकी जैसी स्वच्छता है, वैसी प्रायः इस स्तोत्रमें नहीं है । अतः कल्याण-मन्दिर भक्तामरके पहले की रचना हो, तो आश्चर्य नहीं है । यत: इस स्तोत्रको कल्पनाओंका पल्लवन एवं उन कल्पनाओम कुछ नवीनताओंका समावेश चमत्कारपूर्ण शैलीमें इस स्तोत्रमें हआ है। भक्तामरमें कहा है कि सूर्य की बात ही क्या, उसकी प्रभा ही तालाबोंम कमलोंको विकसित कर देती है, उसी प्रकार हे प्रभो ! आपका स्तोत्र तो दूर हो रहे, पर आपके नामकी कथा ही समस्त पापोंको दूर कर देती है। यह नाम-माहात्म्य मुलत: श्रीमद्भागवतसे स्तोत्र-साहित्यमें स्थानान्तरित हुआ है । यथा--.
आस्तां तव स्तवनमस्तसमस्तदोषं
त्वत्संकथापि जगतां दुरितानि हन्ति । दूरे सहस्रकिरणः कुरुते प्रभव
पद्माकरेषु जलजानि विकासभाजि ।। कल्याण-मन्दिरमें भी उपर्युक्त कल्पना ज्यों-की-त्यों मिलती है । बताया है कि जब निदाघमें कमलसे युक्त तालाबको सरस वायु ही तीन आतापसे संतप्त १. ए हिस्ट्री ऑफ संस्कृत लिटरेचर, पृ० २१५ । २. भक्तामरस्तोत्र, पद्य ९ ।
श्रुतघर और सारस्वताचाय : २७३