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प्रधान सेनापति चामुण्डरायके गुरु भी थे। इनका अस्तित्वकाल वि० सं० १०३५ या ई० सन् ९७८ के पश्चात् है ।
द्वितीय नेमिचन्द्र वे हैं, जिनका उल्लेख वसुनन्दि सिद्धान्तिदेवने अपने उपासकाध्ययनमें किया है और जिन्हें जिनागमरूप समुद्रकी वेलातरंगोंसे घुले हृदयवाला तथा सम्पूर्ण जगत में विख्यात लिखा है
सिस्सो तस्य जिणागम-जलाण हि वेला तरंग धोयमणो । संजाओ सयल - जए विक्खाओ णेमिचंदु ति ॥ आइरिय-परंपरागयं सत्यं ।
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बच्छल्लयाए
भवियाण मुवासयज्झयणं ॥
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द्धान्तिदेव शिष्य ।
तृतीय नेमिचन्द्र वे हैं जिन्होंने सिद्धान्तचक्रवर्ती नेमिचन्द्रके गोम्मटसार पर जीवतत्त्वप्रदीपिका नामकी संस्कृत टीका लिखी थी। यह टीका अभयचन्द्रकी मन्दप्रबोधिका और केशववर्णीको संस्कृत मिश्रित कन्नड़ टीकाके आधारपर रवी गयी है।
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चतुर्थ नेमिचन्द्र सम्भवतः द्रव्य संग्रहके रचयिता हैं। अतएव प्रथम और तृतीय नेमिचन्द्रको तो एक नहीं कह सकते । ये दोनों दो व्यक्ति हैं । सिद्धान्तचक्रवर्ती मूलग्रन्थकार है और तृतीय नेमिचन्द्र टीकाकार हैं। प्रथम नेमिचन्द्रका समय कि० की ११बों ( ई० स० ११) शताब्दी है और तृतीयका ई० सन्कां १६वीं शताब्दी | अतः इन दोनों नेमिचन्दोंके पौर्वापर्यय में ५०० वर्षों का अन्तराल हैं । इसीप्रकार प्रथम और द्वितीय नेमिचन्द्र भी एक नहीं हैं । प्रथम नेमिचन्द्र वि० को ११वीं शताब्दीमं हुए हैं तो द्वितीय उनसे १०० वर्ष बाद वि० को १२वीं शताब्दीमं, क्योंकि द्वितीय नेमिचन्द्र वसुनन्दि सिद्धान्तिदेव के गुरु थे और वसुनन्दिका समय वि० सं० १९५० के लगभग है । इन दोनों नेमिचन्द्रोंकी उपाधियां भी भिन्न हैं | प्रथमकी उपाधि सिद्धान्तचक्रवर्ती है, तो द्वितयकी सिद्धान्तिदेव |
प्रथम और चतुर्थं नेमिचन्द्र भी भिन्न हैं । प्रथम अपनेक सिद्धान्तचक्रवर्ती कहते हैं, तां चतुर्थ अपनको 'तनुसुत्रधर' । बृहद्रव्यसंग्रहकं संस्कृत टीकाकार ब्रह्मदेवने द्रव्यसंग्रहकारको सिद्धान्तिदेव लिखा है, सिद्धान्तचक्रवर्ती नहीं । अतएव हमारी दृष्टिमें द्रव्यसंग्रहके रचयिता नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव है । पण्डित आशाधरजान वसुनन्दि सिद्धान्तिदेवका सागारधर्मामृत और अनगारधर्मा१. उपासकाध्ययन, गाथा, ५४३, ५४४ ।
४४० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा