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वह सूत्र यदि न माना जाय, तो सिद्धान्त-विरोध आयगा । केवली और श्रुतकेवलोके न रहनेके कारण उपलब्ध सूत्रोंमें कौन सूत्र आवश्यक है और कौन । आवश्यक नहीं, इसका निर्णय सम्भव नहीं है। अतएव सत्रकी आशातनाके भयसे दोनों हा सूत्रोंको व्याख्या करना आवश्यक है। हमने तो गोतमस्वामी द्वारा प्रतिपादित अभिप्रायका कथन किया है। ___ इसी प्रकार भागाभागानुगम अनुयोगद्वारमें भी यही समस्या उपस्थित हई है। वहाँ सूक्ष्म वनस्पतिकायिकजीवोंके साथ-साथ सक्ष्म निगोदियाजीवोंका निर्देश भी अलगसे किया गया है । अतएव निम्नलिखित तीनों सूत्रोंका समन्वय नहीं हो पासा हैसुहमवणफदिकाश्या सुमागोदबोचा सयजीवाणां केवडियो भागो ? सुहमवणप्फदिकाइय-सुहमणिगोदजीवपजत्ता सबजोवाणां केवडियो भागो ? सुहुमवणप्फदिकाइय-सुहमणिगोदजीवअपज्जत्ता सव्वजीवाणां केवडियो भागो'?
इसका समाधान करते हुए वीरसेनस्वामीने लिखा है---"णिगोदा सव्वे बणफदिकाइया चेव, ण अण्णे; एदेण अहिप्पाएण काणि विभागाभागसुत्ताणि द्विदाणि । कुदो ? सुहुमवणादिकाइयभागाभागस्स तिसु वि सुत्तेसु गिगोदजीवणिद्देसाभावादो। तदो तेहि सुतेहि एदेसि सुत्ताणं विरोही होदि त्ति भणिदे दि एवं तो उवदेसं लद्ध ण इदं सुत्तं इदं चासुत्तमिदि आगमणिउणा भणत, ण च अम्हे एल्थ वोत्तुं समस्था, अलद्धोबदेसत्तादो।"२ यहाँ ३४वें सूत्रकी व्याख्याने शंका उठायो गयो है कि भागाभागसे सम्बद्ध कुछ सूत्र ऐसे हैं, जिनके अभिप्रायसे सब निगोदजीव वनस्पतिकायिक ही सिद्ध होते हैं, उनसे वे भिन्न सिद्ध नहीं होते, चयोंकि उक्त तीनों सूत्रोम केवल सूक्ष्मवनस्पतिकायिक जोवोंका ही निर्देश किया गया है, निगोदजावोंका निर्देश वहां अलगसे नहीं आया है। ऐसी अवस्थामें उन सूत्रोंसे इन सूत्रोंका विरोध होना अनिवार्य है ? इस शंकाके उत्तर में आचार्य वीरसेनने बताया है कि यदि ऐसा है, तो यह सूत्र है और यह सूत्र नहीं है, इसका कथन उपदेश पाकर वे करें, जो आगममे निपुण हैं। हम इस प्रसंगमें कुछ नहीं कह सकते, क्योंकि इसके सम्बन्धमें हमें उपदेश प्राप्त नहीं है। ___ इसी प्रकार वर्गणाखण्डके अन्तर्गत प्रकृतिअनुयोगद्वारके १६०३ सूत्रमें मनुष्यतिप्रयोग्यानुपूर्वीके भेदोंकी संख्या निर्दिष्ट की गयी है। इस सूत्रके व्याख्यानमें कुछ आचार्योका अभिप्राय तो यह है कि उर्वकपाटछेदनसे निष्पन्न १. षट्खण्डागम, पुस्तक ७, सूत्र २९, ३१, ३३ पृ० ५०३-५०६ । २. षट्सण्डागम, पु. ७, पृ० ५०६-५०७ । ३२८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आपाय-परम्परा