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तकको सूचनाएँ दी हैं । 'तिलोयपणत्तो' के अन्य अंशोंके अध्ययनसे यह प्रतीत होता है कि यतिवृषभ द्वारा विरचित इस ग्रन्थका प्रस्तुत संस्करण किसी अन्य आचार्यने सम्पादित किया है। यही कारण है कि सम्पादनकर्तासे इतिहास सम्बन्धी कुछ भ्रान्तियाँ हुई हैं । यतिवृषभका समय शक सं० के निर्देशके आधारपर 'तिलोयपण्णत्ती के आलोकमें भी ई० सन् १७६ के आसपास सिद्ध होता है । __यतिवृषभ अपने युगके यशस्वो आगमज्ञाता विद्वान थे। ई० सन् सातवों शतीके तथा उत्तरवर्ती लेखकोंने इनकी मुक्तकण्ठसे प्रशंसा की है। इनके गुरुओंके नामों में आर्यमक्ष और नागहस्तिको गणना है। ये दोनों आचार्य श्वेता. म्बर और दिगम्बर परम्पराओद्वारा मानससे सम्मानित थे। आर्यमंक्षुका समय ई० सन् प्रथम शताब्दो और नागहस्तिका समय ई० सन् १००-१५० तक माना गया है। यतिवृषभ नागहस्तिके अन्तेवासी बताये गये हैं । अतः यह संभव है कि 'चुणिसूत्रों को रचनाके पश्चात् 'तिलोयपण्णत्ती' को रचना इन्होंनेकी। मथुरामें संचालित सरस्वती-आन्दोलनका प्रभाव इनपर भी रहा हो और ये भी ई० सन् १५०-१८० तक सम्मिलित रहे हों, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं। इन्होंने ग्रन्थरूपमें सरस्वतीका अवतरण कर परम्पराको जोवित रखा है।
"तिलोयपण्णत्ती' के वर्तमान संस्करणमें भी कुछ ऐसो गाथाएँ समाविष्ट हैं जो आचार्य कुन्दकुन्दके अन्योंमें पाई जाती हैं । इस समतासे भी उनका समय कुन्दकुन्दके पश्चात् आता है।
विचारणीय प्रश्न यह है कि यतिवृषभके पूर्व यदि 'महाकर्मप्रकृतिप्राभूत' का ज्ञान समाप्त हो गया होता, तो यतिवृषभको कर्मप्रकृतिका ज्ञान किससे प्राप्त होता ? अतः यतिवृषभका स्थिति-काल ऐसा होना चाहिए, जिसमें 'कर्मप्रकृतिप्राभूत' का ज्ञान अवशिष्ट रहा हो । दूसरी बात यह है कि 'षट्खण्डागम'
और 'कषायप्राभूत' में अनेक तथ्योंमें मतभेद है और इस मतभेदको तन्त्रान्तर कहा है । अवला और जयधवलामें भूतबलि और यतिवृषभके मतभेदकी चर्चा आई है। इससे भी यतिवृषभको भतबलिसे बहुत अर्वाचीन नहीं माना जा सकता है।
रचनाएं
निविवादरूपसे यतिवृषभकी दो ही कृतियाँ मानी जाती हैं-१. 'कसायपाहुड' पर रचित 'चूणिसूत्र' और २. 'तिलोयपण्णती। तिलोयपण्णत्तीको अन्तिम गाथामें चूर्णिसूत्रका उल्लेख आया है । बताया है
श्रुतघर और सारस्वताचार्य : ८७