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समय-विचार
पूज्यपादके समयके सम्बन्ध में विशेष विवाद नहीं है। इनका उल्लेख छठी शतीके मध्यकालसे ही उपलब्ध होने लगता है। आचार्य अकलंकदेवने अपने 'तत्त्वार्थवात्तिक' में 'सर्वार्थसिद्धि' के अनेकों वाक्योंको वात्तिकका रूप दिया है। शब्दानुशासन सम्बन्धी कथनकी पुष्टिके लिए इनके जैनेन्द्र व्याकरणके सूत्रोंको प्रमाणरूपमें उपस्थित किया है । अत: पूज्यपाद अकलंकदेवके पूर्ववर्ती है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं।। ___ 'सर्वार्थसिद्धि' और 'विशेषावश्यक भाष्य' के तुलनात्मक अध्ययनसे पह विदित होता है कि "विशेषावश्यकभाष्य' लिखते समय जिनभन्दगणि क्षमाश्रमणके समक्ष 'सर्वार्थसिद्धि' ग्रन्थ अवश्य उपस्थित था। सर्वार्थसिद्धि अध्याय १, सूत्र १५ में धारणामतिज्ञानका लक्षण लिखते हुए बताया है
"अवेतस्य कालान्तरेऽविस्मरणकारणं धारणा" । विशेषावश्यकभाष्यमें इसी आधारपर लिखा है
"कालतरे प जं पुणरणुसरणं धारणा सा उ' ।।गा० २९॥ चक्षु इन्द्रिय अप्राप्यकारी है, बतलाते हुए सर्वार्थसिद्धि में लिखा है---
___ 'मनोवदप्राप्यकारोति । श१९ विशेषावश्यक नाबमें उन शवासीका निमोना निम्तमार हुआ है .
लोयणमपविसयं मणोव्व ॥ गा० २०९।। इससे ज्ञात होता है कि जिनभद्रगणिके समक्ष पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धि विद्यमान थी। इस दृष्टिसे पूज्यपादका समय जिनभद्रगणि (वि० संवत् ६६६)के पूर्व होना चाहिए । ___कुन्दकुन्द और पूज्यपादका तुलनात्मक अध्ययन करनेसे अवगत होता है कि पूज्यपादके समाधितन्त्र और इष्टोपदेश कुन्दकुन्दाचार्य के प्रन्योंके दोहनऋणी हैं । यहाँ दो-एक उदाहरण उपस्थित किये जाते हैं( १ ) जं मया दिस्सदे रूर्व तण्ण जाणादि सव्यहा ।
जाणगं दिस्सदे णं तं तम्हा जपेमि केण हं ॥२
यन्मया दश्यते रूपं तन्न जानाति सर्वथा ।
जानन्न दृश्यते रूपं तत: केन ब्रवीम्यहम् ॥ १. तत्त्वार्थकार्तिक, १।१।३, तथा ४।२१।१ । २. मोक्षपाहुए, गापा २९ । ३. समाधितन्त्र, वीरसेवा मन्दिर संस्करण, पद्य १८ ।
२२२ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा