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शिष्यत्व स्वीकार कर लिया । मुरुने इनका दीक्षानाम कुमुदचन्द्र रखा। आगे चलकर ये सिद्धसेनके नामसे प्रसिद्ध हए । हरिभद्रके 'पचवस्तु' अन्यमें 'दिवाकर' विशेषण उपलब्ध होता है। उसमें बताया गया है कि दुषमकालरूप रात्रिके लिए दिवाकर - सूर्यके समान होनेसे दिवाकरका विरुद इन्हें प्राप्त था ।
आयरियसिद्धसेणेण सम्मइए पइट्ठि अजसेणं ।
दूसर्माणसा-दिवागर कप्पंतणो तदक्खेणं ॥ सन्मति-टीकाके प्रारम्भमें अभयदेवसूरि (१२वीं शती ई०)ने भी इन्हें दिवाकर कहा है । दुःषमाकाल श्रमणसंघकी अवचूरिमें सिद्धसेनको 'दिवाकर' के स्थानपर 'प्रभावक' लिखा गया है और इनके गुरुका नाम धर्माचार्य बताया है।
इनके सम्बन्धमें यह भी कहा जाता है कि इन्होंने उज्जयिनीमें महाकालके मन्दिरमें 'कल्याणमन्दिर' स्तोत्र द्वारा रुद्र-लिङ्गका स्फोटन कर पाश्वनायका बिम्ब प्रकट किया था और विक्रमादित्य राजाको सम्बोधित किया पा । यथा
'वृद्धवादी पादलिप्ताश्चात्र तथा सिद्धसेनदिवाकरो येनोज्जयिन्यां महाकालप्रासाद-रुद्रलिङ्गस्फोटनं विधाय कल्याणमन्दिरस्तवेन श्रीपार्श्वनाथबिम्ब प्रकटीकृतं श्रीविक्रमादित्यश्च प्रतिबोधितस्तद्राज्यं तु श्रीवीरसप्ततिवर्षचतुष्टये सज्ञातम् ।।
पट्टावलीसारोदारमें लिखा है
'तथा सिद्धसेनदिवाकरोऽपि जातो येनोज्जयिन्यां महाकालपासादे रुद्रलिङ्गस्फोटनं कृत्वा कल्याणमन्दिरस्तवनेन श्रीपार्श्वनाथबिम्बं प्रकटोकृत्य श्रीविक्रमादित्यराजापि प्रतिबोधितः श्रीवीरनिर्वाणात् सप्ततिवर्षाधिकशतचतुष्टये ४७० विक्रमे श्रीविक्रमादित्यराज्यं सजातम् । ____ गुरुपट्टाबली में भी इसी तथ्यकी पुनरावृत्ति प्राप्त होती है तथा श्रीसिद्धसेनदिवाकरेणोजयिनीनगयाँ महाकालप्रासादे लिङ्गस्फोटनं विधाय स्तुत्या ११ काव्ये श्रीपाश्वनाथबिम्बं प्रकटीकृतम्" कल्याणमन्दिरस्तोत्रं कृतम् ।' १ प्रमावकमरितके अन्तर्गत वृद्धवादिसूरि-चरितम्, १० ५५-६. । २. हरिभा-पञ्चवस्तु गाथा १४०८ । ३. अनेकान्त, बर्ष ९, किरण ११, पृ. ४५७ । ४. मुनि दर्शमविजय द्वारा सम्पादित पट्टाबलीसमुच्चय, प्रबम माग । ५. वही, पृ० १५०। ६. पट्टायलीसमुच्चय, पृ. १६६ ।
श्रुतधर कौर सारस्वताचार्य : २०७