Book Title: Shatkhandagama Pustak 05
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवला-टीका-समन्वितः षट्खंडागमः जीवस्थान-अन्तर-भाव-अल्पबहुत्व भाग ६, ७, ८ पुस्तक ५ हीरालाल जैन ssdain Education International For Private & Personal use only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भगवत्-पुष्पदन्त-भूतबलि-प्रणीतः षटखंडागमः श्रीवीरसेनाचार्य-विरचित-धवला-टीका-समन्वितः । तस्य प्रथम-खंडे जीवस्थाने हिन्दीभाषानुवाद-तुलनात्मकटिप्पण-प्रस्तावनानेकपरिशिष्टैः सम्पादिताः अन्तर-भावाल्पबहुत्वानुगमाः ५ सम्पादक अमरावतीस्थ-किंग-एडवर्ड-कॉलेज-संस्कृताध्यापकः, एम्. ए., एल्. एल्. बी., इत्युपाधिधारी हीरालालो जैनः सहसम्पादका पं. हीरालालः सिद्धान्तशास्त्री, न्यायतीर्थः संशोधने सहायको व्या. वा., सा. सू., पं. देवकीनन्दनः डा. नेमिनाथ-तनय-आदिनाथः सिद्धान्तशास्त्री उपाध्यायः, एम्. ए., डी. लिट. प्रकाशक: श्रीमन्त सेठ शिताबराय लक्ष्मीचन्द्र जैन-साहित्योद्धारक-फंड-कार्यालयः अमरावती (बरार) वि. सं. १९९९ ] [ ई. स. १९४२ वीर-निर्वाण-संवत् २४६८ मूल्यं रूप्यक-दशकम Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक. श्रीमन्त सेठ शिताबराय लक्ष्मीचन्द्र, जैन-साहित्योद्धारक-फंड कार्यालय, अमरावती (बरार). मुद्रक टी. एम्. पाटील, मैनेजर सरस्वती प्रिंटिंग प्रेस, अमरावती (बरार ). Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE SAȚKHAŅDĀGAMA OF PUŞPADANTA AND BHŪTABALI WITH THE COMMENTARY DHAVALĀ OF VĪRASENA VOL. V ANTARA-BHĀVĀLPABAHUTWĀNUGAMA Edited with introduction, translation, notes and indexes BY HIRALAL JAIN, M. A., LL. B., C. P. Educational Service, King Edward College, Amraoti. ASSISTED BY Pandit Hiralal Siddhānta Shāstri, Nyāyatirtha. With the cooperation of Pandit Devakinandana Siddhanta Shāstri Dr. A. N. Upadhye, M. A., D, Litte Published by Shrimanta Seth Shitabrai Laxmichandra, Jaina Sāhitya Uddbāraka Fund Käryälaya AMRAOTI ( Berar ) 1942 Price rupees ten only. Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Published byShrimanta Seth Shitabrai Laxmichandra, Jaina Sahitya Uddhāraka Fund Kāryalaya, AMRAOTI [ Berar ]. Printed by T. M. Patil, Manager, Saraswati Printing Press, AMRAOTI [ Berar ]. Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय सूची पृष्ठ १-३ प्राक्कथन १ पृष्ठ i-ii प्रस्तावना Introduction १ धवलाका गणितशास्त्र.... २ कन्नड प्रशस्ति ३ शंका-समाधान ४ विषय परिचय ५ विषय सूची.... ६ शुद्धिपत्र .... १-२८ मूल, अनुवाद और टिप्पण .... १-३५० २९-३० अन्तरानुगम .... .... .... १-१७९ ३०-३६ भावानुगम ___.... .... ....१८१-२३८ ३६-४३ अल्पबहुत्वानुगम .... .... ....२३९-३५० ४४-५९ ६०-६३ परिशिष्ट .... १-३८ १ अन्तरप्ररूपणा-सूत्रपाठ भावप्ररूपणा-सूत्रपाठ .... अल्पबहुत्व-सूत्रपाठ २ अवतरण-गाथा-सूची .... ३ न्यायोक्तियां ४ ग्रंथोल्लेख .... .... .... ३४ ५ पारिभाषिक शब्दसूची .... ....३५-३८ Mmmm occww6 · Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माकू कथन षट्खंडागमका चौथा भाग इसी वर्ष जनवरीमें प्रकाशित हुआ था । उसके छह माह पश्चात् ही यह पांचवां भाग प्रकाशित हो रहा है। सिद्धान्त ग्रन्थोंके प्रकाशनके विरुद्ध जो आन्दोलन उठाया गया था वह, हर्ष है, अधिकांश जैनपत्र-सम्पादकों, अन्य जैन विद्वानों तथा पूर्व भागकी प्रस्तावनामें प्रकाशित हमारे विवेचनके प्रभावसे बिलकुल ठंडा हो गया और उसकी अब कोई चर्चा नहीं चल रही है । प्राचीन ग्रन्थोंके सम्पादन, प्रकाशन व प्रचारकी चार मंजिले हैं- (१) मूल पाठका संशोधन (२) मूल पाठका शब्दशः अनुवाद (३) ग्रन्थके अर्थको सुस्पष्ट करनेवाला सुविस्तृत व स्वतंत्र अनुवाद (४) ग्रन्थके विषयको लेकर उसपर स्वतंत्र लेख व पुस्तकें आदि रचनायें । प्रस्तुत सम्पादन-प्रकाशनमें हमने इनमेंसे केवल प्रथम दो मंजिलें तय करनेका निश्चय किया है। तदनुसार ही हम यथाशक्ति मूल पाठके निर्णयका पूरा प्रयत्न करते हैं और फिर उसका हिन्दी अनुवाद यथाशक्य मूल पाठके क्रम, शैली व शब्दावलीके अनुसार ही रखते हैं । विषयको मूल पाठसे अधिक स्वतंत्रतापूर्वक खोलनेका हम साहस नहीं करते । जहां इसकी कोई विशेष ही आवश्यकता प्रतीत हुई वहां मूलानुगामी अनुवादमें विस्तार न करके अलग एक छोटा मोटा विशेषार्थ लिख दिया जाता है । किन्तु इस स्वतंत्रतामें भी हम उत्तरोत्तर कमी करते जाते हैं, क्योंकि, वह यथार्थतः हमारी पूर्वोक्त सीमाओंके बाहरकी बात है । हम अनुवादको मूल पाठके इतने समीप रखनेका प्रयत्न करते हैं कि जिससे वह कुछ अंशमें संस्कृत छायाके अभावकी भी पूर्ति करता जाय, जैसा कि हम पहले ही प्रकट कर चुके हैं। जिन शब्दोंकी मूलमें अनुवृत्ति चली आती है वे यदि समीपवर्ती होनेसे सुज्ञेय हुए तो उन्हें भी वार वार दुहराना हमने ठीक नहीं समझा। हमारी इस सुस्पष्ट नीति और सीमाको न समझ कर कुछ समालोचक अनुवादमें दोष दिखानका प्रयत्न करते हैं कि अमुक वाक्य ऐसा नहीं, ऐसा लिखा जाना चाहिये था, या अमुक विषय स्पष्ट नहीं हो पाया, उसे और भी खोलना चाहिये था, इत्यादि । हमें इस बातका हर्ष है कि विद्वान् पाठकोंकी इन ग्रंथोंमें इतनी तीव्र रुचि प्रकट हो रही है । पर यदि वह रुचि सच्ची और स्थायी है तो उसके बलपर उपर्युक्त चार मंजिलोंमेंसे शेष दो मंजिलोंकी भी पूर्तिका अलगसे प्रयत्न होना चाहिये। प्रस्तुत प्रकाशनके सीमाके बाहरकी बात लेकर सम्पादनादिमें दोष दिखानेका प्रयत्न करना अनुचित और अन्याय है । जो समालोचनादि प्रकट हुए हैं उनसे हमें अपने कार्यमें आशातीत सफलता मिली हुई प्रतीत होती Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) षट्खंडागमकी प्रस्तावना है, क्योंकि, उनमें मूल पाठके निर्णयकी त्रुटियां तो नहीं के बराबर मिलती हैं, और अनुवाद के भी मूलानुगामित्वमें कोई दोष नहीं दिखाये जा सके। हां, जहां शब्दोंकी अनुवृत्ति आदि जोड़ी गई है वहां कहीं कुछ प्रमाद हुआ पाया जाता है। पर एक ओर हम जब अपने अल्प ज्ञान, अल्प साधन-सामग्री और अल्प समयका, तथा दूसरी ओर इन महान् ग्रन्थोंके अतिगहन विषयविवेचनका विचार करते हैं तब हमें आश्चर्य इस बातका बिलकुल नहीं होता कि हमसे ऐसी कुछ भूलें हुई हैं, बल्कि, आश्चर्य इस बातका होता है कि वे भूलें उक्त परिस्थितिमें भी इतनी अल्प हैं । इस प्रकार उक्त छिद्रान्वेषी समालोचकोंके लेखोंसे हमें अपने कार्य में अधिक दृढ़ता और विश्वास ही उत्पन्न हुआ है और इसके लिये हम उनके हृदयसे कृतज्ञ हैं । जो अल्प भी त्रुटि या स्खलन जब भी हमारे दृष्टिगोचर होता है, तभी हम आगामी भागके शुद्धिपत्र व शंका-समाधानमें उसका समावेश कर देते हैं । ऐसे स्खलनादिकी सूचना करनेवाले सज्जनों के हम सदैव आभारी हैं । जो समालोचक अत्यन्त छोटी मोटी त्रुटियोंसे भी बचने के लिये बड़ी बड़ी योजनायें सुझाते हैं, उन्हें इस बातका ध्यान रखना चाहिये, कि इस प्रकाशनके लिये उपलब्ध फंड बहुत ही परिमित है और इससे भी अधिक कठिनाई जो हम अनुभव करते हैं, वह है समयकी । दिनों दिन काल बड़ा कराल होता जाता है और इस प्रकारके साहित्यके लिये रुचि उत्तरोत्तर हीन होती जाती है । ऐसी अवस्था में हमारा तो अब मत यह है कि जितने शीघ्र हो सके इस प्राचीन साहित्यको प्रकाशित कर उसकी प्रतियां सब ओर फैला दी जांय, ताकि उसकी रक्षा तो हो । छोटी मोटी त्रुटियों के सुधारके लिये यदि इस प्रकाशनको रोका गया तो संभव है उसका फिर उद्धार ही न हो पाये और न जाने कैसा संकट आ उपस्थित हो । योजनाएं सुझाना जितना सरल है, स्वार्थत्याग करके आजकल कुछ कर दिखाना उतना सरल नहीं है। हमारा समय, शक्ति, ज्ञान और साधन सब परिमित हैं । इस कार्यके लिये इससे अधिक साधन-सम्पन्न यदि कोई संस्था या व्यक्तिविशेष इस कार्य - भारको अधिक योग्यता के साथ सम्हालनेको प्रस्तुत हो तो हम सहर्ष यह कार्य उन्हें सौंप सकते हैं। पर हमारी सीमाओं में फिर हाल और अधिक विस्तारकी गुंजाइश नहीं है । प्रस्तुत खंडांशमें जीवस्थानकी आठ प्ररूपणाओंमेंसे अन्तिम तीन प्ररूपणाएं समाविष्ट हैं - अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व । इनमें क्रमशः ३९७, ९३ व ३८२ सूत्र पाये जाते हैं। इनकी टीकामें क्रमशः लगभग ४८, ६५ तथा ७६ शंका-समाधान आये हैं । हिन्दी अनुवाद में अर्थको स्पष्ट करनेके लिये क्रमशः १, २ और ३ विशेषार्थ लिखे गये हैं । तुलनात्मक व पाठभेद संबंधी टिप्पणियोंकी संख्या क्रमशः २९९, ९३ और १४४ है । इस प्रकार इस ग्रंथ - भाग में लगभग १८९ शंका-समाधान, ६ विशेषार्थ और ५३६ टिप्पण पाये जावेंगे । सम्पादन-व्यवस्था व पाठ- शोधन के लिये प्रतियोंका उपयोग पूर्ववत् चालू रहा । पं. हीरालालजी शास्त्री यह कार्य नियतरूपसे कर रहे हैं । इस भागके मुद्रित फार्म Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्-कथन (३) श्री. पं. देवकीनन्दनजी सिद्धान्तशास्त्रीने विशेषरूपसे गर्मीके विराम-कालमें अवलोकन कर संशोधन भेजनेकी कृपा की है, जिनका उपयोग शुद्धिपत्रमें किया गया है। कन्नडप्रशस्तिका संशोधन पूर्ववत् डा. ए. एन्. उपाध्येजीने करके भेजा है । प्रति-मिलानमें पं. बालचन्द्रजी शास्त्रीका सहयोग रहा है । इस प्रकार सब सहयोगियोंका साहाय्य पूर्ववत् उपलब्ध है, जिसके लिये मैं उन सबका अनुगृहीत हूं। इस भागकी प्रस्तावनामें पूर्वप्रतिज्ञानुसार डा. अवधेशनारायणजीके गणितसम्बन्धी लेखका अविकल हिन्दी अनुवाद दिया जा रहा है। इसका अनुवाद मेरे पुत्र चिरंजीव प्रफुल्लकुमार बी. ए. ने किया था। उसे मैंने अपने सहयोगी प्रोफेसर काशीदत्तजी पांडे के साथ मिलाया और फिर डा. अवधेशनारायणजीके पास भेजकर संशोधित करा लिया है। इसके लिये इन सज्जनोंका मुझपर आभार है । चौथे भागके गणितपर भी एक लेख डा. अवधेशनारायणजी लिख रहे हैं। खेद है कि अनेक कौटुंबिक विपत्तियों और चिन्ताओंके कारण वे उस लेखको इस भागमें देनेके लिये तैयार नहीं कर पाये । अतः उसके लिये पाठकोंको अगले भागकी प्रतीक्षा करना चाहिये। आजकल कागज, जिल्द आदिका सामान व मुद्रणादि सामग्रीके मिलनेमें असाधारण कठिनाईका अनुभव हो रहा है। कीमतें बेहद बढ़ी हुई हैं। तथापि हमारे निरन्तर सहायक और अद्वितीय साहित्यसेवी पं. नाथूरामजी प्रेमीके प्रयत्नसे हमें कोई कठिनाईका अनुभव नहीं हुआ। इस वर्ष उनके ऊपर पुत्रवियोगका जो कठोर वज्रपात हुआ है उससे हम और हमारी संस्थाके समस्त ट्रस्टी व कार्यकर्त्तागण अत्यन्त दुखी हैं। ऐसी अपूर्व कठिनाइयोंके होते हुए भी हम अपनी व्यवस्था और कार्यप्रगति पूर्ववत् कायम रखनेमें सफल हुए हैं, यह हम इस कार्यके पुण्यका फल ही समझते हैं। आगे जब जैसा हो, कहा नहीं जा सकता। किंग एडवर्ड कॉलेज ) अमरावती २०-७-४२ हीरालाल जैन Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION This volume contains the last three prarūpaņā, namely Antara, Bbāva and Alpa-bahutva, out of the eight prarūpanās of which the first five have been dealt with in the previous volumes. The Antara prarūpani contains 397 Sūtras and deals with the minimum and maximom periods of time for which the continuity of a single soul (eka jiva ) or souls in the aggregate ( nānā jīva ) in any particular spiritual stage (Guņa-sthāna ) or soul-quest ( Mārgará-sthāna ) might be interrupted. It is, thus, a necessary counterpart of Kala prarūpayā which, as we have already seen, devotes itself to the study of similar periods of time for which continuity in any particular state could uninterruptedly be maintained. The standard periods of time are, therefore, the same as in the previous prarūpaņā. The first Guņasthāna is never interrapted from the point of view of souls in the aggregate i, e. there is no time when there inight be no souls in this Gunasthāna-some souls will always be at this spiritual stage. But a single soul might deviate from this stage for a minimum period of less than 48 minutes (Antaramuhūrta ) or for a maximum period of slightly less than 132 Sāgaropamas. The second Guņasthāna may claim no souls for a minimum period of one instant ( eka samaya ) or for a maximum period of an innumerable fraction of a palyopama, while a single soul might deviate from it in the minimum for an innumerable fraction of a palyopama and at the maximum for slightly less than an Ardha-pudgala-parivartana. And so on with regard to all the rest of the Gunasthānas and the Mārgaņāstbānas. The commentator has explained at length how these periods are obtained by changes of attitude and transformations of life of the souls. The Bhāva prarūpaņā, in 93 Sūtras, deals with the mental dispositions which characterise each Gunasthāna and Marganästhāna, There are five such dispositions of which four arise from the Karmas heading for fruition ( udaya ) or pacification ( upaśama ) or destruction ( kshaya ) or partly destruction and partly pacification ( kshayopaśama), Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ii while the fifth arises out of the natural potentialities inherent in each. soul (pāriņāmika ). Thus, the first Gunasthana is audayika, the second pāriņāmika, the third, fifth, sixth and seventh kshayopasamika, the fourth aupasamika, kshāyika or kshayopasamika, eighth, ninth and tenth aupasamika or kshāyika, eleventh Aupasamika and the twelfth, thirteenth and fourteenth kshayika. The commentary explains these at great length. The eighth and last prarupana ia Alpa-bahutva which, as its very name signifies, shows, in 382 Sūtras, the comparative numerical strength of the Gunasthanas and the Marganasthanas. It is here shown that the number of souls in the 8th, 9th and 10th Aupasamika Gunasthanas as well as in the 11th is the least of all and mutually equal. In the same three Kshapaka Gunasthanas and in the 12th, 13th and 14th, they are several times larger and mutually equal. This is the numerical order from the point of view of entries (pravesa) into the Gunasthanas. From the point of view of the aggregates (samcaya) the souls at the 13th stage are several times larger than the last class, and similarly larger at each successive stage are those at the 7th and the 6th stage respectively. Innumerably larger than the last at each successive stage are those at the 5th and the 2nd stage, and the last is exceeded several times by those at the 3rd stage. At the 4th stage they are innumerably larger and at the 1st infinitely larger successively. The whole discussion shows how the exact sciences like mathematics have been harnessed into the service of the most speculative philosophy. The results of these prarupanas we have tabulated in charts, as before, and added them to the Hindi introduction. Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवलाका गणितशास्त्र (पुस्तक ४ में प्रकाशित डा. अवधेश नारायण सिंह, लखनऊ यूनीवर्सिटी, के लेखका अनुवाद ) यह विदित हो चुका है कि भारतवर्ष में गणित- अंकगणित, बीजगणित, क्षेत्रमिति आदिका अध्ययन अति प्राचीन कालमें किया जाता था। इस बातका भी अच्छी तरह पता चल गया है कि प्राचीन भारतवर्षीय गणितज्ञोंने गणितशास्त्रमें ठोस और सारगर्भित उन्नति की थी । यथार्थतः अर्वाचीन अंकगणित और बीजगणितके जन्मदाता वे ही थे । हमें यह सोचनेका अभ्यास होगया है कि भारतवर्षकी विशाल जनसंख्यामेंसे केवल हिंदुओंने ही गणितका अध्ययन किया, और उन्हें ही इस विषयमें रुचि थी, और भारतवर्षीय जनसंख्याके अन्य भागों, जैसे कि बौद्ध व जैनोंने, उसपर विशेष ध्यान नहीं दिया । विद्वानोंके इस मतका कारण यह है कि अभी अभी तक बौद्ध वा जैन गणितज्ञोंद्वारा लिखे गये कोई गणितशास्त्रके ग्रन्थ ज्ञात नहीं हुए थे । किन्तु जैनियोंके आगमग्रन्थोंके अध्ययनसे प्रकट होता है कि गणितशास्त्रका जैनियोंमें भी खूब आदर था । यथार्थतः गणित और ज्योतिष विद्याका ज्ञान जैन मुनियोंकी एक मुख्य साधना समझी जाती थी। अब हमें यह विदित हो चुका है कि जैनियोंकी गणितशास्त्रकी एक शाखा दक्षिण भारतमें थी, और इस शाखाका कमसे कम एक ग्रन्थ, महावीराचार्य-कृत गणितसारसंग्रह, उस समयकी अन्य उपलद्ध कृतियोंकी अपेक्षा अनेक बातोंमें श्रेष्ठ है । महावीराचार्यकी रचना सन् ८५० की है। उनका यह ग्रन्थ सामान्य रूपरेखामें ब्रह्मगुप्त, श्रीधराचार्य, भास्कर और अन्य हिन्दू गणितज्ञोंके ग्रन्थोंके समान होते हुए भी विशेष बातोंमें उनसे पूर्णतः भिन्न है। उदाहरणार्थगणितसारसंग्रहके प्रश्न (problems) प्रायः सभी दूसरे ग्रन्थोंके प्रश्नोंसे भिन्न हैं। ___ वर्तमानकालमें उपलब्ध गणितशास्त्रसंबंधी साहित्यके आधारपरसे हम यह कह सकते हैं कि गणितशास्त्रकी महत्वपूर्ण शाखाएं पाटलिपुत्र (पटना), उज्जैन, मैसूर, मलावार और संभवतः बनारस, तक्षशिला और कुछ अन्य स्थानोंमें उन्नतिशील थीं। जब तक आगे प्रमाण प्राप्त न हों, तब तक यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि इन शाखाओंमें परस्पर क्या १ देखो-भगवती सूत्र, अभयदेव सूरिकी टीका सहित, म्हेसाणाकी आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित, . १९१९, सूत्र ९० । जैकोबी कूत उत्तराध्यन सूत्रका अंग्रेजी अनुवाद, ऑक्सफोर्ड १८९५, अध्याय ७, ८,३८. Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) षट्खंडागमकी प्रस्तावना संबंध था । फिर भी हमें पता चलता है कि भिन्न भिन्न शाखाओंसे आये हुए ग्रन्थोंकी सामान्य रूपरेखा तो एकसी है, किन्तु विस्तारसंबंधी विशेष बातों में उनमें विभिन्नता है । इससे पता चलता है कि भिन्न भिन्न शाखाओं में आदान-प्रदानका संबंध था, छात्रगण और विद्वान एक शाखासे दूसरी शाखामें गमन करते थे, और एक स्थानमें किये गये आविष्कार शीघ्र ही भारतके एक कोने से दूसरे कोने तक विज्ञापित कर दिये जाते थे । प्रतीत होता है कि बौद्ध धर्म और जैन धर्म के प्रचारने विविध विज्ञानों और कलाओंके अध्ययनको उत्तेजना दी। सामान्यतः सभी भारतवर्षीय धार्मिक साहित्य, और मुख्यतया बौद्ध व जैनसाहित्य, बड़ी बड़ी संख्याओं के उल्लेखोंसे परिपूर्ण है । बड़ी संख्याओंके प्रयोगने उन संख्याओंको लिखनेके लिये सरल संकेतोंकी आवश्यकता उत्पन्न की, और उसीसे दाशमिक क्रम ( The place-value system of notation ) का आविष्कार हुआ । अब यह बात निस्संशयरूपसे सिद्ध हो चुकी है कि दाशमिक क्रमका आविष्कार भारतमें ईसवी सन्के प्रारंभ काल के लगभग हुआ था, जब कि बौद्धधर्म और जैनधर्म अपनी चरमोन्नति पर थे । यह नया अंक क्रम बड़ा शक्तिशाली सिद्ध हुआ, और इसीने गणितशास्त्रको गतिप्रदान कर सुल्वसूत्रोंमें प्राप्त वेदकालीन प्रारंभिक गणितको विकासकी ओर बढ़ाया, और वराहमिहिर के ग्रंथों में प्राप्त पांचवी शताब्दी के सुसम्पन्न गणितशास्त्रमें परिवर्तित कर दिया । एक बड़ी महत्वपूर्ण बात, जो गणितके इतिहासकारों की दृष्टिमें नहीं आई, यह है कि यद्यपि हिन्दुओं, बौद्धों और जैनियों का सामान्य साहित्य ईसा से पूर्व तीसरी व चौथी शताब्दी से लगाकर मध्यकालीन समय तक अविच्छिन्न है, क्योंकि प्रत्येक शताब्दी के ग्रंथ उपलब्ध हैं, तथापि गणितशास्त्रसंबंधी साहित्यमें विच्छेद है । यथार्थतः सन् ४९९ में रचित आर्यभटीयसे पूर्व गणितशास्त्र संबंधी रचना कदाचित् ही कोई हो । अपवाद में बख्शालि प्रति ( BakhsaliManuscript ) नामक वह अपूर्ण हस्तलिखित ग्रंथ ही है जो संभवतः दूसरी या तीसरी - शताब्दीकी रचना है । किन्तु इसकी उपलब्ध हस्तलिखित प्रतिसे हमें उस कालके गणित - ज्ञानकी स्थितिके विषय में कोई विस्तृत वृत्तान्त नहीं मिलता, क्योंकि यथार्थ में वह आर्यभट, ब्रह्मगुप्त अथवा श्रीधर आदि के ग्रंथोके सदृश गणितशास्त्रकी पुस्तक नहीं है । वह कुछ चुने हुए गणित संबंधी प्रश्नोंकी व्याख्या अथवा टिप्पणीसी है । इस हस्तलिखित प्रतिसे हम केवल इतना ही अनुमान कर सकते हैं कि दाशमिकक्रम और तत्संबंधी अंकगणितकी मूल प्रक्रियायें उस समय अच्छी तरह विदित थीं, और पीछेके गणितज्ञोंद्वारा उल्लिखित कुछ प्रकारके गणित प्रश्न ( problems ) भी ज्ञात थे । यह पूर्व ही बताया जा चुका है कि आर्यभटीयमें प्राप्त गणितशास्त्र विशेष उन्नत है, क्योंकि उसमें हमको निम्न लिखित विषयोंका उल्लेख मिलता है- वर्तमानकालीन प्राथमिक Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवलाका गणितशास्त्र ( ३ ) अंकगणितके सत्र भाग जिनमें अनुपात, विनिमय और व्याजके नियम भी सम्मिलित हैं, तथा सरल और वर्ग समीकरण, और सरल कुट्टक ( indeterminate equations ) की प्रक्रिया तकका बीजगणित भी है । अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि क्या आर्यभटने अपना गणितज्ञान विदेश से ग्रहण किया, अथवा जो भी कुछ सामग्री आर्यभटीय में अन्तर्दित है वह Raat मौलिक सम्पत्ति है ? आर्यभट लिखते हैं "ब्रह्म, पृथ्वी, चंद्र, बुध, शुक्र, सूर्य, मंगल, बृहस्पति, शनि और नक्षत्रों को नमस्कार करके आर्यभट उस ज्ञानका वर्णन करता है जिसका कि यहां कुसुमपुरमें आदर है । " इससे पता चलता है कि उसने विदेश से कुछ ग्रहण नहीं किया । दूसरे देशों के गणितशास्त्र के इतिहास के अध्ययन से भी यही अनुमान होता है, क्योंकि आर्यभटीय गणित संसारके किसी भी देशके तत्कालीन गणितसे बहुत आगे बढ़ा हुआ था । विदेशले ग्रहण करनेकी संभावनाको इस प्रकार दूर कर देने पर प्रश्न उपस्थित होता है कि आर्यभटसे पूर्वकालीन गणितशास्त्र संबंधी कोई ग्रंथ उपलब्ध क्यों नहीं है ! इस शंकाका निवारण सरल है । दाशमिकक्रमका आविष्कार ईसवी सन् के प्रारंभ कालके लगभग किसी समय हुआ था । इसे सामान्य प्रचार में आनेके लिये चार पांच शताब्दियां लग गई होंगी । दाशमिकक्रमका प्रयोग करनेवाला आर्यभटका ग्रंथ ही सर्वप्रथम अच्छा ग्रंथ प्रतीत होता है । आर्यभटके ग्रंथसे पूर्व के ग्रंथों में या तो पुरानी संख्यापद्धतिका प्रयोग था, अथवा, वे समयकी कसौटी पर ठीक उतरने लायक अच्छे नहीं थे । गणितको दृष्टिसे आर्यभटकी विस्तृत ख्यातिका कारण, मेरे मतानुसार, बहुतायत से यही था कि उन्होंने ही सर्वप्रथम एक अच्छा ग्रन्थ रचा, जिसमें दाशमिकक्रमका प्रयोग किया गया था । आर्यभटके ही कारण पुरानी पुस्तकें अप्रचलित और विलीन हो गई । इससे साफ पता चल जाता है कि सन् ४९९ के पश्चात् लिखी हुई तो हमें इतनी पुस्तकें मिलती हैं, किन्तु उसके पूर्व के कोई ग्रन्थ उपलब्ध महीं हैं । विकास और उन्नतिका इस प्रकार सन् ५०० ईसवी से पूर्व के भारतीय गणितशास्त्र के चित्रण करनेके लिये वास्तव में कोई साधन हमारे पास नहीं है । ऐसी अवस्था में आर्यभटसे पूर्व के भारतीय गणितज्ञानका बोध करानेवाले ग्रंथों की खोज करना एक विशेष महत्व - पूर्ण कार्य हो जाता है । गणितशास्त्र संबंधी ग्रन्थोंके नष्ट हो जानेके कारण सन् ५०० के पूर्वकालीन भारतीय गणितशास्त्र के इतिहासका पुनः निर्माण करनेके लिये हमें हिदुओं, बौद्धों और.. १ ब्रम्हकुश शिबुधभृगुरविकुजगुरु कोणभगणान्नमस्कृत्य । आर्यमस्त्विह निगदति कुसुमपुरेऽभ्यर्चितं ज्ञानम् ॥ आर्यभटीय. २, १. ब्रह्मभूमिनक्षत्रगणान्नमस्कृत्य कुसुमपुरे कुसुमपुराख्येऽस्मिन्देशे अभ्यर्चितं ज्ञानं कुसुमपुरवासिभिः पूजितं प्रहगतिज्ञानसाधनभूतं तन्त्रमार्यभटो निगदति । ( परमेश्वराचार्यकृत टीका ) Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षटूखंडागमको प्रस्तावना जैनियों के साहित्यकी, और विशेषतः धार्मिक साहित्यकी, छानबीन करना पड़ता है । अनेक पुराणों में हमें ऐसे भी खंड मिलते हैं जिनमें गणितशास्त्र और ज्योतिषविद्याका वर्णन पाया जाता है। इसी प्रकार जैनियोंके अधिकांश आगमग्रन्थों में भी गणितशास्त्र या ज्योतिषविद्याकी कुछ न कुछ सामग्री मिलती है। यही सामग्री भारतीय परम्परागत गणितकी द्योतक है, और वह उस प्रन्यसे जिसमें वह अन्तर्भूत है, प्रायः तीन चार शताब्दियां पुरानी होती है। अतः यदि हम सन् ४०० से ८०० तककी किसी धार्मिक या दार्शनिक कृतिको परीक्षा करें तो उसका गणितशास्त्रीय विवरण ईसवीके प्रारंभसे सन् ४०० तकका माना जा सकता है। उपर्युक्त निरूपणके प्रकाशमें ही हम इस नौवीं शताब्दीके प्रारंभकी रचना षट्खंडागमकी टीका धवलाकी खोजको अत्यन्त महत्वपूर्ण समझते हैं। श्रीयुत हीरालाल जैनने इस ग्रन्थका सम्पादन और प्रकाशन करके विद्वानोंको स्थायीरूपसे कृतज्ञताका ऋणी बना लिया है । गणितशास्त्रकी जैनशाखा सन् १९१२ में रंगाचार्यद्वारा गणितसारसंग्रहकी खोज और प्रकाशनके समयसे विद्वानोंको आभास होने लगा है कि गणितशास्त्रकी ऐसी भी एक शाखा रही है जो कि पूर्णतः जैन विद्वानोंद्वारा चलाई जाती थी। हालहीमें जैन आगमके कुछ प्रन्थोंके अध्ययनसे जैन गणितज्ञ और गणितग्रन्थोंसंबंधी उल्लेखोंका पता चला है । जैनियोंका धार्मिक साहित्य चार भागोंमें विभाजित है जो अनुयोग, (जैनधर्मके) तत्वोंका स्पष्टीकरण, कहलाते हैं। उनमेंसे एकका नाम करणानुयोग या गणितानुयोग, अर्थात् गणितशास्त्रसंबंधी तत्वोंका स्पष्टीकरण, है । इसीसे पता चलता है कि जैनधर्म और जैनदर्शनमें गणितशास्त्रको कितना उच्च पद दिया गया है। - यद्यपि अनेक जैन गणितज्ञोंके नाम ज्ञात है, परंतु उनकी कृतियां लुप्त हो गई हैं। उनमें सबसे प्राचीन भद्रबाहु हैं जो कि ईसासे २७८ बर्ष पूर्व स्वर्ग सिधारे। वे ज्योतिष विद्याके दो ग्रन्थोंके लेखक माने जाते हैं (१) सूर्यप्रज्ञप्तिकी टीका; और (२) भद्रबाहवी संहिता नामक एक मौलिक ग्रंथ । मलयगिरि (लगभग ११५० ई.) ने अपनी सूर्यप्रज्ञप्तिकी टीकामें इनका उल्लेख किया है, और भट्टोत्पल (९६६) ने उनके ग्रन्थावतरण दिये हैं। सिद्धसेन नामक एक दूसरे ज्योतिषीके ग्रन्थावतरण वराहमिहिर (५०५) और भट्टोत्पल द्वारा दिये गये ........... १ देखो- रंगाचार्य द्वारा सम्पादित गणितसारसंग्रहकी प्रस्तावना, डी. ई. स्मिथद्वारा लिखित, मद्रास, १९१२. २ बी. दत्त : गणितशास्त्रीय जैन शाखा, बुलेटिन कलकत्ता गणितसोसायटी, जिल्द २१ (१९१९), पृष्ठ ११५ से १४५. ३ बृहत्संहिता, एस. द्विवेदीद्वारा सम्पादित, बनारस, १८९५, पृ. २२६. Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवलाका गणितशास्त्र हैं । अर्धमागधी और प्राकृत भाषामें लिखे हुए गणितसम्बन्धी उल्लेख अनेक ग्रन्थों में पाये जाते हैं । धवलामें इसप्रकारके बहुसंख्यक अवतरण विद्यमान हैं। इन अवतरणोपर यथास्थान विचार किया जायगा । किन्तु यहां यह बात उल्लेखनीय है कि वे अवतरण निःसंशयरूपसे सिद्ध करते हैं कि जैन विद्वानोंद्वारा लिखे गये गणितग्रंथ थे जो कि अब लुप्त हो गये हैं। क्षेत्रसमास और करणभावनाके नामसे जैन विद्वानोंद्वारा लिखित ग्रंथ गणितशास्त्रसम्बन्धी ही थे । पर अब हमें ऐसे कोई ग्रंथ प्राप्य नहीं हैं। हमारा जैन गणितशास्त्रसम्बन्धी अत्यन्त खंडित ज्ञान स्थानांग सूत्र, उमास्वातिकृत तत्वार्थाधिगमसूत्रभाष्य, सूर्यप्रज्ञप्ति, अनुयोगद्वारसूत्र, त्रिलोकप्रज्ञप्ति, त्रिलोकसार आदि गणितेतर प्रन्योंसे संकलित है। अब इन ग्रन्थोंमें धवलाका नाम भी जोड़ा जा सकता है। धवलाका महत्व __ धवला नौवीं सदीके प्रारंभमें वीरसेन द्वारा लिखी गई थी। वीरसेन तत्वज्ञानी और धार्मिक दिव्यपुरुष थे। वे वस्तुतः गणितज्ञ नहीं थे। अतः जो गणितशास्त्रीयसामग्री धवलाके अन्तर्गत है, वह उनसे पूर्ववर्ती लेखकोंकी कृति कही जा सकती है, और मुख्यतया पूर्वगत टीकाकारोंकी, जिनमेंसे पांचका इन्द्रनन्दीने अपने श्रुतावतारमें उल्लेख किया है। ये टीकाकार कुंदकुंद, शामकुंद, तुंबुलूर, समन्तभद्र और बप्पदेव थे, जिनमेंसे प्रथम लगभग सन् २०० के और अन्तिम सन् ६०० के लगभग हुए। अतः धवलाकी अधिकांश गणितशास्त्रीयसामग्री सन् २०० से ६०० तकके बीचके समयकी मानी जा सकती है। इस प्रकार भारतवर्षीय गणितशास्त्रके इतिहासकारोंके लिये धवला प्रथम श्रेणीका महत्वपूर्ण ग्रंथ हो जाता है, क्योंकि उसमें हमें भारतीय गणितशास्त्रके इतिहासके सबसे अधिक अंधकारपूर्ण समय, अर्थात् पांचवी शताब्दीसे पूर्वकी बातें मिलती हैं। विशेष अध्ययनसे यह बात और भी पुष्ट हो जाती है कि धवलाकी गणितशास्त्रीय सामग्री सन् ५०० से पूर्वकी है । उदाहरणार्थ- धवलामें वर्णित अनेक प्रक्रियायें किसी भी अन्य ज्ञात ग्रंथमें नहीं पाई जाती, तथा इसमें कुछ ऐसी स्थूलताका आभास भी है जिसकी झलक पश्चात्के भारतीय गणितशास्त्रसे परिचित विद्वानोंको सरलतासे मिल सकती है। धवलाके गणितभागमें वह परिपूर्णता और परिष्कार नहीं है जो आर्यभटीय और उसके पश्चात्के ग्रंथोंमें है। धवलान्तर्गत गाणतशास्त्र संख्याएं और संकेत-धवलाकार दाशमिकक्रमसे पूर्णतः परिचित हैं। इसके प्रमाण १ शीलांकने सूत्रकृतांगसूत्र, स्मयाध्ययम अनुयोगद्वार, श्लोक २८, पर अपनी टीकामें मंगसंबंधी (regarding• permutations and combinations) तीन नियम उद्धृत किये हैं। ये नियम किसी जैन गणित ग्रंथमेंसे लिये गये जान पड़ते हैं। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्खंडागमको प्रस्तावना सर्वत्र उपलब्ध होते हैं। हम यहां धवलाके अन्तर्गत अवतरणोंसे ली गई संख्याओंको व्यक्त करनेकी कुछ पद्धतियोंको उपस्थित करते हैं (१) ७९९९९९९८ को ऐसी संख्या कहा है कि जिसके आदिमें ७, अन्तमें ८ और मध्यमें छह वार ९ की पुनरावृत्ति है। (२) ४६६६६६६४ व्यक्त किया गया है- चौसठ, छह सौ, छयासठ हजार, छयासठ लाख, और चार करोड़। (३) २२७९९४९८ व्यक्त किया गया है- दो करोड़, सत्ताइस, निन्यानवे हजार, चारसौ और अन्ठान्नवे। इनमें से (१) में जिस पद्धतिका उपयोग किया है वह जैन साहित्यमें अन्य स्थानों में भी पायी जाती है, और गणितसारसंग्रहमें भी कुछ स्थानोंमें है। उससे दाशमिकक्रमका सुपरिचय सिद्ध होता है । (२) में छोटी संख्याएं पहले व्यक्त की गई हैं। यह संस्कृत साहित्यमें प्रचलित साधारण रीतिके अनुसार नहीं है। उसी प्रकार यहां संकेत-क्रम सौ है, न कि दश जो कि साधारणतः संस्कृत साहित्यमें पाया जाता है। किन्तु पाली और प्राकृतमें सौ का क्रम ही प्रायः उपयोगमें लाया गया है । (३) में सबसे बड़ी संख्या पहले व्यक्त की गई है। अवतरण (२) और ( ३) स्पष्टतः भिन्न स्थानोंसे लिये गये हैं। बडी संख्यायें- यह सुविदित है कि जैन साहित्यमें बड़ी संख्यायें बहुतायतसे उपयोगमें आई हैं । धवलामें भी अनेक तरहकी जीवराशियों ( द्रव्यप्रमाण) आदि पर तर्क वितर्क है। निश्चितरूपसे लिखी गई सबसे बड़ी संख्या पर्याप्त मनुष्योंकी है। यह संख्या धवलामें दो के छठे वर्ग और दो के सातवें वर्गके बीचकी, अथवा और भी निश्चित, कोटि-कोटि-कोटि और कोटि-कोटि-कोटि-कोटिके बीचकी कही गई है। याने - २२६ और २२७ के बीचकी। अथवा, और अधिक नियत- (१,००,००,०००) और (१,००,००,००० ) के बीचकी । अथवा, सर्वथा निश्चित- २२५४२२६ । इन जीवोंकी संख्या अन्य मतानुसार ७९२२८१६२५१४२६४३३७५९३५४३९५०३३६ है। १.ध.माग ३, पृष्ठ ९८, गाथा ५१ । देखो गोम्मटसार, जीवकांड, पृष्ट ६३३. २. ध. भाग ३, पृ. ९९, गाथा ५२. ३ ध. भाग ३, पृ. १००, गाथा ५३. ४ देखो- मणितसारसंग्रह १, २७. और भी देखो- दत्त और सिंहका हिन्दूगणितशास्त्रका इतिहास, जिल्द १, लाहौर १९३५, पृ १६. ५ दत्त और सिंह, पूर्ववत्, पृ. १४. ६ध. भाग ३, पृ. २५३. ७ गोम्मटसार, जीवकांड, (से. बु. जै. सीरीज)पृ. १०४, Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवलाका गणितशास्त्र यह संख्या उन्तीस अंक ग्रहण करती है। इसमें भी उतने ही स्थान हैं जितने कि (१,००,००,०००) में, परन्तु है वह उससे बड़ी संख्या। यह बात धवलाकारको ज्ञात है, और उन्होंने मनुष्यक्षेत्रका क्षेत्रफल निकालकर यह सिद्ध किया है कि उक्त संख्याके मनुष्य मनुष्यक्षेत्रमें नहीं समा सकते, और इसलिये उस संख्यावाला मत ठीक नहीं है । मौलिक प्रक्रियायें धवलामें जोड़, बाकी, गुणा, भाग, वर्गमूल और घनमूल निकालना, तथा संख्याओंका घात निकालना (The raising of numbers to given powers) आदि मौलिक प्रक्रियाओंका कथन उपलब्ध है। ये क्रियाएं पूर्णाक और भिन्न, दोनोंके संबंधमें कही गई हैं। धवलामें वर्णित घातांकका सिद्धान्त ( Theory of indices ) दूसरे गणित ग्रंथोंसे कुछ कुछ भिन्न है। निश्वयतः यह सिद्धान्त प्राथमिक है, और सन् ५०० से पूर्वका है । इस सिद्धान्तसंबंधी मौलिक विचार निम्नलिखित प्रक्रियाओंके आधारपर प्रतीत होते हैं:-(१) वर्ग, (२) धन, (३) उत्तरोत्तर वर्ग, (४) उत्तरोत्तर घन, (५) किसी संख्याका संख्यातुल्य घात निकालना ( The raising of numbers to their own power), (६) वर्गमल, (७) घनमूल, (८) उत्तरोत्तर वर्गमूल, (९) उत्तरोत्तर घनमूल, आदि । अन्य सब घातांक इन्हीं रूपोंमें प्रगट किये गये हैं। उदाहरणार्थ-अरे को अके घनका प्रथम वर्गमूल कहा है। अ' को अका घनका घन कहा है । अप को अ के घनका वर्ग, या वर्गका घन कहा है, इत्यादि । उत्तरोत्तर वर्ग और घनमूल नीचे लिखे अनुसार हैं अ का प्रथम वर्ग याने (अ)२ = अरे , द्वितीय वर्ग , (अ२ )२ = अ = अ२२ , तृतीय वर्ग ,, , न वर्ग , उसी प्रकार- १ का प्रथम वर्गम्ल याने , द्वितीय , , " तृतीय , , " न , , १ धवला, भाग ३ पृष्ठ, ५३. अई अरे अरे Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्खंडागमकी प्रस्तावना वर्गित - संवर्गित परिभाषिक शब्द वर्गित संवर्गितका प्रयोग किसी संख्याका संख्यातुल्य घात करने के अर्थमें किया गया है । उदाहरणार्थ नका वर्गितसंवर्गितरूप है । इस सम्बन्धमें धवला में विरलन -देय 'फैलाना और देना' नामक प्रक्रियाका उल्लेख आया है । किसी संख्याका 'विरलन' करना व फैलाना अर्थात् उस संख्याको एकएक अलग करना है । जैसे, न के विरलनका अर्थ है - (८) ..... न वार १११११ 4 देय' का अर्थ है उपर्युक्त अंकों में प्रत्येक स्थान पर एककी संख्या) को रख देना । फिर उस विरलन देयसे उपलब्ध संख्याओंको उस संख्याका वर्गित संवर्गित प्राप्त हो जाता है, और यही उस संख्याका प्रथम वर्गित संवर्गित कहलाता है । जैसे, न का प्रथम वर्गित संवर्गित नन । जगह न ( विवक्षित परस्पर गुणा कर देनेसे विरलन - देयकी एकवार पुनः प्रक्रिया करनेसे, अर्थात् नन को लेकर वही विधान फिर न करनेसे, द्वितीय वर्गित-संवर्गित (नन ) } प्राप्त होता न का तृतीय वर्गित-संवर्गित { ( मन ) अपेक्षित नहीं हुआ है । किन्तु, धवलामें उक्त प्रक्रियाका प्रयोग तीन वारसे अधिक तृतीय वर्गितसंवर्गितका उल्लेख अनेकवार' बड़ी संख्याओं व असंख्यात व अनन्तके संबंध में किया गया है । इस प्रक्रिया से कितनी बड़ी संख्या प्राप्त होती है, इसका ज्ञान इस बात से हो सकता है कि २ का तृतीयवार वर्गितसंवर्गित रूप २५६ हो जाता है । प्राप्त होता है । इसी विधानको पुनः एकवार करने से नन (१) ( २ ) ( ३ ) १ धवला, भाग ३, पृ: २० आदि. नन । {(नन ) २५६ घातांक सिद्धान्त उपर्युक्त कथनसे स्पष्ट है कि धवलाकार घातांक सिद्धान्तसे पूर्णतः परिचित थे । जैसे अम. अन = अ + न न अम / अन = अम ( अम )न = अमन है । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवलाका गणितशास्त्र उक्त सिद्धान्तोंके प्रयोगसंबंधी उदाहरण धवलामें अनेक हैं। एक रोचक उदाहरण निम्र प्रकारका है'- कहा गया है कि २ के ७ वें वर्गमें २ के छठवें वर्गका भाग देनेसे २ का छठवां वर्ग लब्ध आता है । अर्थात् २२०/२२६ = २२६ जब दाशमिकक्रमका ज्ञान नहीं हो पाया था तब दिगुणक्रम और अर्धक्रमकी प्रक्रियाएं (The operations of duplation and mediation) महत्वपूर्ण समझी जाती थीं। भारतीय गणितशास्त्रके ग्रंथोंमें इन प्रक्रियाओंका कोई चिह्न नहीं मिलता। किन्तु इन प्रक्रियाओंको मिश्र और यूनानके निवासी महत्वपूर्ण गिनते थे, और उनके अंकगणितसंबंधी ग्रंथोंमें वे तदनुसार स्वीकार की जाती थीं। धवलामें इन प्रक्रियाओंके चिह्न मिलते हैं। दो या अन्य संख्याओंके उत्तरोत्तर वर्गीकरणका विचार निश्चयतः द्विगुणक्रमकी प्रक्रियासे ही परिस्फुटित हुआ होगा, और यह द्विगुणक्रमकी प्रक्रिया दाशमिकक्रमके प्रचारसे पूर्व भारतवर्षमें अवश्य प्रचलित रही होगी। उसी प्रकार अर्धक्रम पद्धतिका भी पता चलता है। धवलामें इस प्रक्रियाको हम २, ३, ४ आदि आधारवाले लघुरिक्थ सिद्धान्तमें साधारणीकृत पाते हैं। लघुरिक्थ ( Logarithm ) धवलामें निम्न पारिभाषिक शब्दोंके लक्षण पाये जाते हैं (१) अर्धच्छेद- जितनी वार एक संख्या उत्तरोत्तर आधी आधी की जा सकती है, उतने उस संख्याके अर्धच्छेद कहे जाते हैं । जैसे- २म के अर्धच्छेद = म अर्धच्छेदका संकेत अछे मान कर हम इसे आधुनिक पद्धतिमें इस प्रकार रख सकते हैंक का अछे ( या अछे क) = लरि क। यहां लघुरिक्थका आधार २ है। (२) वर्गशलाका- किसी संख्याके अच्छेदोंके अर्द्धच्छेद उस संख्याकी वर्गशलाका होती है। जैसे- क की वर्गशलाका = वश क = अछे अछे क = लरि लरि क । यहां लघुरिक्थका आधार २ है। (३) त्रिकच्छेद-जितने वार एक संख्या उत्तरोत्तर ३ से विभाजित की जाती है, उतने उस संख्याके त्रिकच्छेद होते हैं। जैसे- क के त्रिकच्छेद = त्रिछे क = लरि ३क । यहां लघुरिक्थका आधार ३ है। १ धवला भाग ३, पृ. २५३ आदि. ३ धवला भाग ३, पृ. ५६. २ धवला भाग ३, पृ. २१ आदि. Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) षट्खंडागमकी प्रस्तावना (४) चतुर्थच्छेद'-जितने वार एक संख्या उत्तरोत्तर १ से विभाजित की जा सकती है, उतने उस संख्याके चतुर्थच्छेद होते हैं । जैसे- क के चतुर्थच्छेद = चछे क = लरि ४ क। यहां लघुरिक्थका आधार ४ है। धवलामें लघुरिक्थसंबंधी निम्न परिणामोंका उपयोग किया गया है(१) लरि (म/न) = लरि म - लरि न (२) लरि (म. न ) = लरि म + लरि न (३) २ लरि म = म । यहां लघुरिक्थका आधार २ है। (४) लरि (कक)२ = २ क लरि क (५) लरि लरि (क)२ = लरि क + १ + लरि लरि क, (वाईं ओर) = लरि (२ क लरि क ) = लरि क + लरि २+ लरि लरिक = लरि क +१+ लरि लरि क । चूंकि लरि २ = १, जब कि आधार २ है। कक (६) लरि (क) = कक लरि कक (७) मानलो अ एक संख्या है, तो अ का प्रथम वर्गित-संवर्गित = अअ = ब ( मानलो) , द्वितीय , = बर्षे = भ , , तृतीय , = भभ = म , धवलामें निम्न परिणाम दिये गये हैं (क) लरि ब = अ लरि अ (ख) लरि लरि ब = लरि अ + लरि लरि अ (ग) लरि भ = ब लरि ब १ धवला, भाग ३, पृ. ५६. २ धवला, भाग ३, पृ. ६०. ३ धवला, भाग ३, पृ. ५५. ४ धवला, भाग ३, पृ. २१ आदि. ५ पूर्ववत्. ६ पूर्ववत् । यहाँ यह बात उल्लेखनीय है कि ग्रंथमें ये लघुरिक्थ पूर्णाकों तक ही परिमित नहीं हैं। संख्या क कोई भी संख्या हो सकती है। कक प्रथम वर्गितसंवर्गित राशि और ( क क ) द्वितीय वर्गितसवर्गित राशि है। ७ धवला, भाग ३, पृ. २१-२४. Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवलाका गणितशास्त्र (घ ) लरि लरि भ = लरि ब + लरि लरि ब = लरि अ+ लरि लरि अ + अ लरि अ (ङ) लरि म = भ लरि भ (च) लरि लरि म = लरि भ + लरि लरि भ । इत्यादि (८) लरि लरि म < बरे इस असाम्यतासे निम्न असाम्यता आती है ___ ब लरि ब + लरि ब + लरि लरि ब <ब' भिन्न- अंकगणितमें भिन्नोंकी मौलिक प्रक्रियाओं, जिनका ज्ञान धवलामें ग्रहण कर लिया गया है, के अतिरिक्त यहां हम भिन्नसंबंधी अनेक ऐसे रोचक सूत्र पाते हैं जो अन्य किसी गणितसंबंधी ज्ञात ग्रन्थमें नहीं मिलते । इनमें निम्न लिखित उल्लेखनीय हैं -- - न . १ (१) न+ना = न + + (२) मान लो कि किसी एक संख्या म में द, द' ऐसे दो भाजकों का भाग दिया गया और उनसे क्रमशः क और क' ये दो लब्ध (या भिन्न) उत्पन्न हुए। निम्न लिखित सूत्रमें म के द + द' से भाग देने का परिणाम दिया गया है द + द' (क'/क) +१ अथवा = १ + (क/क') म (३) यदि - = क, (क-क +म' = म अ क (४) यदि व = क, तो- ब = क - न । १भवला, भाग ३, पृ. २४. ३ भवला, भाग ३, पृ. ४६. ५ भाग ३, पृ. ४६, गाथा २४. २ धवला, भाग ३,पृ. ४६. ४ धवला, भाग ३, पृ. ४७, गाथा २७. Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) षट्रखंडागमकी प्रस्तावना क =क + - -क ब - +स अ . - = क + - और ब-स (६) यदि अ = क, और अ = क + स, तो ब' =ब मार यदि क - स, शो–= प (७) और दूसरा भिन्न है, तो 4-5 = क है - (८) __ _ ब + ख बस = क - स, तो-ख = = क-स बस =क + क+ स ल । ल (१०) यदि 4 = क, और = क', तो- क' = क - ब + स + १ भाग ३, पृ. ४६, गाथा २४. ३ भाग ३, पृ. ४६, गाथा २८. ५ भाग ३, पृ. ४९, गाथा ३०. २ भाग ३, पृ. ४६, गाथा २५. ४ भाग ३, पृ. ४८, गाथा २९. ६ भाग ३, पृ. ४९, गाथा ३१. Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवलाका गणितशास्त्र . (१३) कस (११) यदि a = क, और बस = क', तो- क' = क + CH ये सब परिणाम धवलाके अन्तर्गत अवतरणोंमें पाये जाते हैं । वे किसी भी गणितसंबंधी ज्ञात ग्रंथमें नहीं मिलते। ये अवतरण अर्धमागधी अथवा प्राकृत ग्रंथोंके हैं। अनुमान यही होता है कि वे सब किन्हीं गणितसंबंधी जैन ग्रन्थोंसे, अथवा पूर्ववर्ती टीकाओंसे लिये गये हैं। वे अंकगणितकी किसी सारभूत प्रक्रियाका निरूपण नहीं करते । वे उस कालके स्मारकावशेष हैं जब कि भाग एक कठिन और श्रमसाध्य विधान समझा जाता था। ये नियम निश्चयतः उस काल के हैं जब कि दाशमिक-क्रमका अंकगणितकी प्रक्रियाओंमें उपयोग सुप्रचलित नहीं हुआ था। त्रैराशिक- त्रैराशिक क्रियाका धवलामें अनेक स्थानों पर उल्लेख और उपयोग किया गया है । इस प्रक्रियासंबंधी पारिभाषिक शब्द हैं- फल, इच्छा और प्रमाण- ठीक वही जो ज्ञात ग्रंथोंमें मिलते हैं। इससे अनुमान होता है कि त्रैराशिक क्रियाका ज्ञान और व्यवहार भारतवर्षमें दाशमिक क्रमके आविष्कारसे पूर्व भी वर्तमान था । अनन्त बड़ी संख्याओंका प्रयोग-'अनन्त' शब्दका विविध अर्थो में प्रयोग सभी प्राचीन जातियोंके साहित्यमें पाया जाता है। किन्तु उसकी ठीक परिभाषा और समझदारी बहुत पीछे भाई । यह स्वाभाविक ही है कि अनन्तकी ठीक परिभाषा उन्हीं लोगोंद्वारा विकसित हुई जो बड़ी संख्याओंका प्रयोग करते थे, या अपने दर्शनशास्त्रमें ऐसी संख्याओंके अभ्यस्त थे । निम्न विवेचनसे यह प्रकट हो जायगा कि भारतवर्षमें जैन दार्शनिक अनन्तसे संबंध रखनेवाली विविध भावनाओंको श्रेणीबद्ध करने तथा गणनासंबंधी अनन्तकी ठीक परिभाषा निकालनेमें सफल हुए। बड़ी संख्याओंको व्यक्त करनेके लिये उचित संकेतोंका तथा अनन्तकी कल्पनाका विकास तभी होता है जब निगूढ़ तर्क और विचार एक विशेष उच्च श्रेणीपर पहुंच जाते हैं। यूरोपमें आर्किमिडीज़ने समुद्र-तटकी रेतके कणोंके प्रमाणके अंदाज लगानेका प्रयत्न किया था और यूनानके दार्शनिकोंने अनन्त एवं सीमा (limit) के विषयमें विचार किया था । किन्तु उनके पास बड़ी संख्याओंको व्यक्त करनेके योग्य संकेत नहीं थे। भारतवर्षमें हिन्दू, जैन और बौद्ध दार्शनिकोंने बहुत बड़ी संख्याओंका प्रयोग किया और उस कार्यके लिये उन्होंने उचित संकेतोंका १ भाग ३, पृ. ४९, गाथा ३२. २ धवला भाग ३, पृ. ६९ और १०० आदि. Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्खंडागमकी प्रस्तावना भी आविष्कार किया । विशेषतः जैनियोंने लोकभरके समस्त जीवों, काल-प्रदेशों और क्षेत्र अथवा आकाश-प्रदेशों आदिके प्रमाणका निरूपण करनेका प्रयत्न किया है। बड़ी संख्यायें व्यक्त करनेके तीन प्रकार उपयोगमें लाये गये (१) दाशमिक-क्रम ( Place-value notation)- जिसमें दशमानका उपयोग किया गया। इस संबंधमें यह बात उल्लेखनीय है कि दशमानके आधारपर १०१४० जैसी बड़ी संख्याभोंको व्यक्त करनेवाले नाम कल्पित किये गये। (२) घातांक नियम (Law of indices वर्ग-संवर्ग) का उपयोग बड़ी संख्याओंको सूक्ष्मतासे व्यक्त करनेके लिये किया गया । जैसे (अ) २ = ४ (ब) (२)* = ४' = २५६ (स) {(२२,२१ । (२) } = २५६२५५ जिसको २ का तृतीय वर्गित-संवर्गित कहा है। यह संख्या समस्त विश्व ( universe) के विद्युत्कणों ( protons and electrons ) की संख्यासे बड़ी है । . (३) लघुरिक्थ (अर्धच्छेद ) अथवा लघुरिक्थके लघुरिक्थ ( अर्धच्छेदशलाका) का उपयोग बड़ी संख्याओंके विचारको छोटी संख्याओंके विचारमें उतारनेके लिये किया गया। जैसे (अ) लरि २ २ = २ (ब) लरि , लरि, ४ = ३ (स) लरि २ लरि २ २५६५५ = ११ इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि आज भी संख्याओंको व्यक्त करनेके लिये हम उपर्युक्त तीन प्रकारों से किसी एक प्रकारका उपयोग करते हैं । दाशमिकक्रम समस्त देशोंकी साधारण सम्पत्ति बन गई है । जहां बड़ी संख्याओंका गणित करना पड़ता है, वहां लघुरिक्योंका उपयोग किया जाता है । आधुनिक पदार्थविज्ञानमें परिमाणों (magnitudes) को व्यक्त करनेके १बड़ी संख्याओं तथा संख्या-नामोंके संबंध विशेष जानने के लिये देखिये दस और सिंह कत हिन्दू गणितशास्त्रका इतिहास (History of Hindu Mathematics ), मोतीलाल बनारसीदास, लाहौर, द्वारा प्रकाशित, भाग १, पृ. ११ आदि. Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवलाका गणितशास्त्र लिये घातांक नियमोंका उपयोग सर्वसाधारण है । उदाहरणार्थ- विश्वभरके विद्युत्कणोंकी गणना करके उसकी व्यक्ति इस प्रकार की गई है- १३६:२५६ तथा, रूढ संख्याओंके विकलन (distribution of primes) को सूचित करनेवाली स्क्यू ज संख्या (Skewes' number) निम्न प्रकारसे व्यक्त की जाती है १०१०१०३४ संख्याओंको व्यक्त करनेवाले उपर्युक्त समस्त प्रकारोंका उपयोग धवलामें किया गया है। इससे स्पष्ट है कि भारतवर्षमें उन प्रकारोंका ज्ञान सातवीं शताब्दिसे पूर्व ही सर्व-साधारण हो गया था। अनन्तका वर्गीकरण धवलामें अनन्तका वर्गीकरण पाया जाता है । साहित्यमें अनन्त शब्दका उपयोग अनेक अर्थोमें हुआ है। जैन वर्गीकरणमें उन सबका ध्यान रखा गया है । जैन वर्गीकरणके अनुसार अनन्तके ग्यारह प्रकार हैं। जैसे (१) नामानन्त'-- नामका अनन्त । किसी भी वस्तु-समुदायके यथार्थतः अनन्त होने या न होनका विचार किये विना ही केवल उसका बहुत्व प्रगट करनेके लिये साधारण बोलचालमें अथवा अबोध मनुष्यों द्वारा या उनके लिये, अथवा साहित्यमें, उसे अनन्त कह दिया जाता है । ऐसी अवस्थामें 'अनन्त' शब्दका अर्थ नाममात्रका अनन्त है। इसे ही नामानन्त कहते हैं। १ संख्या १३६ २२५६ को दाशमिक-क्रमसे व्यक्त करने पर जो रूप प्रकट होता है वह इस प्रकार है१५,७४७,७२४,१३६,२७५,००२,५७७,६०५,६५३,९६१,१८१,५५५,४६८,०४४,७१७,९१४,५७२, ११६,७०९,३६६,२३१,४२५,०७६,१८५,६३१,०३१,२९६, इससे देखा जा सकता है कि २ का तृतीय वर्गित-संवर्गित अर्थात् २५६२५६ विश्वभरके समस्त विद्युत्कोंकी संख्यासे अधिक होता है। यदि हम समस्त विश्वको एक शतरंजका फलक मान लें और विद्युतकणोंको उसकी गोटियां, और दो विद्युत् कणोंकी किसी भी परिवृत्तिको इस विश्वके खेलकी एक 'चाल' मान लें, तो समस्त संभव 'चालों की संख्या १.१० १०३४ होगी। यह संख्या रूढ संख्याओं (primes ) के विभाग ( distribution) से भी संबंध रखती है। २ जीवाजीवमिस्सदव्वस्स कारणणिरवेक्खा सण्णा अणंता । धवला ३, पृ. ११. Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) षट्खंडागमकी प्रस्तावना (२) स्थापनानन्त'- आरोपित या आनुषंगिक, या स्थापित अनन्त । यह भी यथार्थ अनन्त नहीं है। जहां किसी वस्तुमें अनन्तका आरोपण कर लिया जाता है वहां इस शब्दका प्रयोग किया जाता है। (३) द्रव्यानन्त'- तत्काल उपयोगमें न आते हुए ज्ञानकी अपेक्षा अनन्त । इस संज्ञाका उपयोग उन पुरुषोंके लिये किया जाता है जिन्हें अनन्त-विषयक शास्त्रका ज्ञान है, जिसका वर्तमानमें उपयोग नहीं है। (४) गणनानन्त- संख्यात्मक अनन्त । यह संज्ञा गणितशास्त्रमें प्रयुक्त वास्तविक अनन्तके अर्थमें आई है। (५) अप्रदेशिकानन्त- परिमाणहीन अर्थात् अत्यन्त अल्प परमाणुरूप । (६) एकानन्त- एकदिशात्मक अनन्त । यह वह अनन्त है जो एक दिशा सीधी एक रेखारूपसे देखनेमें प्रतीत होता है। (७) विस्तारानन्त- द्विविस्तारात्मक अथवा पृष्ठदेशीय अनन्त । इसका अर्थ है प्रतरात्मक अनन्ताकाश । (८) उभयानन्त-द्विदिशात्मक अनन्त । इसका उदाहरण है एक सीधी रेखा जो दोनों दिशाओंमें अनन्त तक जाती है। (९) सर्वानन्त-आकाशात्मक अनन्त । इसका अर्थ है त्रिधा-विस्तृत अनन्त, अर्थात् घनाकार अनन्ताकाश । (१०) भावानन्त-तत्काल उपयोगमें आते हुए ज्ञानकी अपेक्षा अनन्त । इस संज्ञाका उपयोग उस पुरुषके लिये किया जाता है जिसे अनन्त-विषयक शास्त्रका ज्ञान है और जिसका उस ओर उपयोग है । (११) शाश्वतानन्त-- नित्यस्थायी या अविनाशी अनन्त । पूर्वोक्त वर्गीकरण खूब व्यापक है जिसमें उन सब अर्थोंका समावेश हो गया है जिन अर्थोंमें कि 'अनन्त ' संज्ञाका प्रयोग जैन साहित्यमें हुआ है । १ ढवणाणंतं णाम तं कट्ठकम्मेसु वा चित्तकम्मेसु वा पोत्तकम्मसु वा.........अक्खो वा बराडयो वाजे च अण्णे ढवणाए हविदा अणंतमिदि तं सव्वं तृवणाणतं णाम । ध, ३, पृ. ११ से १२. २ जं तं दव्वाणंतं तं दुविहं आगमदो णोआगमदो य। ध. ३, पृ. १२. Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवलाका गणितशास्त्र (१७) गणनानन्त ( Numerical infinite) धवलामें यह स्पष्टरूपसे कह दिया गया है कि प्रकृतमें अनन्त संज्ञाका प्रयोग' गणनानन्तके अर्थमें ही किया गया है, अन्य अनन्तोंके अर्थ में नहीं, क्योंकि उन अन्य अनन्तोके द्वारा प्रमाणका प्ररूपण नहीं पाया जाता। यह भी कहा गया है कि 'गणनानन्त बहुवर्णनीय और सुगम है । इस कथनका अर्थ संभवतः यह है कि जैन-साहित्यमें अनन्त अर्थात् गणनानन्तकी परिभाषा अधिक विशदरूपसे भिन्न भिन्न लेखकों द्वारा कर दी गई थी, तथा उसका प्रयोग और ज्ञान भी सुप्रचलित हो गया था। किन्तु धवलामें अनन्तकी परिभाषा नहीं दी गई। तो भी अनन्तसंबंधी प्रक्रियाएं संख्यात और असंख्यात नामक प्रमाणोंके साथ साथ बहुत वार उल्लिखित हुई हैं। संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रमाणोंका उपयोग जैन साहित्यमें प्राचीनतम ज्ञातकालसे किया गया है । किन्तु प्रतीत होता है कि उनका अभिप्राय सदैव एकसा नहीं रहा । प्राचीनतर ग्रंथोंमें अनन्त सचमुच अनन्तके उसी अर्थमें प्रयुक्त हुआ था जिस अर्थमें हम अब उसकी परिभाषा करते हैं। किन्तु पीछेके ग्रंथोंमें उसका स्थान अनन्तानन्तने ले लिया । उदाहरणार्थ- नेमिचंद्र द्वारा दशवीं शताब्दिमें लिखित ग्रंथ त्रिलोकसारके अनुसार परीतानन्त, युक्तानन्त एवं जघन्य अनन्तानन्त एक बड़ी भारी संख्या है, किन्तु है वह सान्त । उस ग्रंथके अनुसार संख्याओंके तीन मुख्य भेद किये जा सकते हैं (१) संख्यात-जिसका संकेत हम स मान लेते हैं । (२) असंख्यात-जिसका संकेत हम अ मान लेते हैं। (३) अनन्त—जिसका संकेत हम न मान लेते हैं । उपर्युक्त तीनों प्रकारके संख्या-प्रमाणोंके पुनः तीन तीन प्रभेद किये गये हैं जो निम्न प्रकार हैं(१) संख्यात- ( गणनीय ) संख्याओंके तीन भेद हैं (अ) जघन्य-संख्यात ( अल्पतम संख्या ) जिसका संकेत हम स ज मान लेते हैं । (ब) मध्यम-संख्यात (बीचकी संख्या) जिसका संकेत हम स म मान लेते हैं । १ धवला ३, पृ. १६. २ ण च सेसअणंताणि पमाणपरूवणाणि, तत्थ तधादसणादोध. ३, पृ. १७. ३'जंतं गणणाणतं तं बहुवण्णणीयं सुगमंच'ध. ३, पृ. १६. Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ ) षट्खंडागमकी प्रस्तावना (स) उत्कृष्ट संख्यात ( सबसे बड़ी संख्या ) जिसका संकेत हम स उ मान लेते हैं । (२) असंख्यात ( अगणनीय) के भी तीन भेद हैं ( अ ) परीत-असंख्यात ( प्रथम श्रेणीका असंख्य ) जिसका संकेत हम अपमान लेते हैं । (ब) युक्त असंख्यात ( बीचका असंख्य ) जिसका संकेत हम अ यु मान लेते हैं । ( स ) असंख्याता संख्यात ( असंख्य - असंख्य ) जिसका संकेत हम अ अ मान लेते हैं । पूर्वोक्त इन तीनों भेदोंमेंसे प्रत्येकके पुनः तीन तीन प्रभेद होते हैं । जैसे, जघन्य (सबसे छोटा ), मध्यम ( बीचका ) और उत्कृष्ट ( सबसे बड़ा ) । इस प्रकार असंख्यात के भीतर निम्न संख्याएं प्रविष्ट हो जाती हैं 1 १ २ ३ १ २ ३ १ २ ३ २ जघन्य - परीत- असंख्यात मध्यम - परीत- असंख्यात उत्कृष्ट परीत- असंख्यात जघन्य युक्त असंख्यात मध्यम-युक्त-असंख्यात उत्कृष्ट युक्त असंख्यात जघन्य - असंख्याता संख्यात मध्यम- असंख्याता संख्यात उत्कृष्ट-असंख्यातासंख्यात *******. *****....... ............................................ हैं - (३) अनन्त --- जिसका संकेत हम न मान चुके हैं। उसके तीन भेद ( अ ) परीत-अनन्त ( प्रथम श्रेणीका अनन्त ) जिसका संकेत हम न प मान लेते हैं । ( ब ) युक्त-अनन्त ( बीचका अनन्त ) जिसका संकेत हम न यु मान लेते हैं । ( स ) अनन्तानन्त ( निःसीम अनन्त ) जिसका संकेत हम न न मान लेते हैं । असंख्यात समान इन तीनों भेदोंके भी प्रत्येकके पुनः तीन तीन प्रभेद होते हैं । _ जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट | अतः अनन्तके भेदों में हमें निम्न संख्याएं प्राप्त होती हैं जघन्य - परीतानन्त न प ज मध्यम- परीतानन्त न प म उत्कृष्ट - परीतानन्त न प उ अ प ज अ प म अ प उ अयु ज अयु म अयु उ अ अ ज अ अ म अ अ उ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .... ... . ... . .... .... .... .... अभय 44444 ३ धवलाका गणितशास्त्र (१९) जघन्य युक्तानन्त न युज मध्यम-युक्तानन्त उत्कृष्ट-युक्तानन्त जघन्य-अनन्तानन्त मध्यम-अनन्तानन्त न न म उत्कृष्ट-अनन्तानन्त न न उ संख्यातका संख्यात्मक परिमाण- सभी जैन ग्रंथोंके अनुसार जघन्य संख्यात २ है, क्योंकि, उन ग्रंथोंके मतसे भिन्नताकी बोधक यही सबसे छोटी संख्या है। एकत्वको संख्यातमें सम्मिलित नहीं किया । मध्यम संख्यातमें २ और उत्कृष्ट संख्यातके बीचकी समस्त गणना आ जाती है, तथा उत्कृष्ट-संख्यात जघन्य-परीतासंख्यातसे पूर्ववर्ती अर्थात् एक कम गणनाका नाम है । अर्थात् स उ = अ प ज - १ । अ प ज को त्रिलोकसारमें निम्न प्रकारसे समझाया है जैन भूगोलानुसार यह विश्व, अर्थात् मध्यलोक, भूमि और जलके क्रमवार वलयोंसे बना हुआ है । उनकी सीमाएं उत्तरोत्तर बढ़ती हुई त्रिज्याओंवाले समकेन्द्रीय वृत्तरूप हैं। किसी भी भूमि या जलमय एक वलयका विस्तार उससे पूर्ववर्ती वलयके विस्तारसे दुगुना है। केन्द्रवर्ती वृत्त (सबसे प्रथम बीचका वृत्त) एक लाख (१००,०००) योजन व्यासवाला है, और जम्बूद्वीप कहलाता है । अब बेलनके आकारके चार ऐसे गडोंकी कल्पना कीजिये जो प्रत्येक एक लाख योजन व्यासवाले और एक हजार योजन गहरे हों। इन्हें अ, ब,, स, और ड, कहिये। अब कल्पना कीजिये कि अ, सरसोंके बीजोंसे पूरा भर दिया गया और फिर भी उस पर और सरसों डाले गये जब तक कि उसकी शिखा शंकुके आकारकी हो जाय, जिसमें सबसे ऊपर एक सरसोंका बीज रहे । इस प्रक्रियाके लिये जितने सरसोंके बीजोंकी आवश्यकता होगी उनकी संख्या इस प्रकार है ___ बेलनाकार गड़ेके लिये-१९७९१२०९२९९९६८.१०२। ऊपर शंकाकार शिखाके लिये- १७९९२००८४५४५१६३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६ ३६। संपूर्ण सरसोंका प्रमाण- १९९७११२९३८४५१३१६३६३६३६३६३६३६१६१६३६३६३६३६३६३६३६. १ देखो त्रिलोकसार, गाथा ३५. Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.) षटूखंडागमकी प्रस्तावना ___ इस पूर्वोक्त प्रक्रियाको हम बेलनाकार गरेका सरसोंके बीजोंसे 'शिखायुक्त पूरण' कहेंगे । अब उपर्युक्त शिखायुक्त पूरित गड़ेमेंसे उन बीजोंको निकालिये और जम्बूद्वीपसे प्रारंभ करके प्रत्येक द्वीप और समुद्रके वलयों में एक एक बीज डालिये । चूंकि बीजोंकी संख्या सम है, इसलिये अन्तिम बीज समुद्रवलय पर पड़ेगा । अब एक बीज ब, नामक गड़ेमें डाल दीजिये, यह बतलानेके लिये कि उक्त प्रक्रिया एक वार होगई । अब एक ऐसे बेलनकी कल्पना कीजिये जिसका व्यास उस समुद्रकी सीमापर्यन्त व्यासके बराबर हो जिसमें वह अन्तिम सरसोंका बीज डाला हो। इस बेलनको अ, कहिये । अब इस अ, को भी पूर्वोक्त प्रकार सरसोंसे शिखायुक्त भर देनेकी कल्पना कीजिये । फिर इन बीजोंको भी पूर्व प्राप्त अन्तिम समुद्रवलयसे आगेके द्वीप-समुद्ररूप वलयोंमें पूर्वोक्त प्रकारसे क्रमशः एक एक बीज डालिये । इस द्वितीय वार विरलन में भी अन्तिम सरसप किसी समुद्रवलय पर ही पड़ेगा । अब ब, में एक और सरसप डाल दो, यह बतलानेके लिये कि उक्त प्रक्रिया द्वितीय वार हो चुकी । अब फिर एक ऐसे बेलनकी कल्पना कीजिये जिसका व्यास उसी अन्तिम प्राप्त समुद्रवलयके व्यासके बराबर हो तथा जो एक हजार योजन गहरा हो । इस बेलनको अ३ कहिये । अ, को भी सरसपोंसे शिखायुक्त भर देना चाहिये और फिर उन बीजोंको आगेके द्वीपसमुद्रोंमें पूर्वोक्त प्रकारसे एक एक डालना चाहिये । अन्तमें एक और सरसप ब, में डाल देना चाहिये। कल्पना कीजिये कि यही प्रक्रिया तब तक चालू रखी गई जब तक कि ब, शिखायुक्त न भर जाय । इस प्रक्रियामें हमें उत्तरोत्तर बढ़ते हुए आकारके बेलन लेना पडेंगे अ., अ.,...........अर,........ मान लीजिये कि ब, के शिखायुक्त भरने पर अन्तिम बेलन अ' प्राप्त हुआ। अब अ' को प्रथम शिखायुक्त भरा गड्ढा मान कर उस जलवलयके बादसे जिसमें पिछली क्रियाके अनुसार अन्तिम बीज डाला गया था, प्रारम्भ करके प्रत्येक जल और स्थलके वलयमें एक एक बीज छोड़ने की क्रियाको आगे बढ़ाइये । तब स, में एक बीज छोड़िये । इस प्रक्रियाको तब तक चालू रखिये जब तक कि स, शिखायुक्त न भर जाय । मान लीजिये कि इस प्रक्रियासे हमें अन्तिम बेलन अ" प्राप्त हुआ। तब फिर इस अ" से वही प्रक्रिया प्रारम्भ कर दीजिये और उसे ड, के शिखायुक्त भर जाने तक चालू रखिये । मान लीजिये कि इस प्रक्रियाके अन्तमें हमें अ" प्राप्त हुआ। अतएव जघन्यपरीतासंख्यात Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवलांका गणितशास्त्र (२१) अपज का प्रमाण अ" में समानेवाले सरसप बीजोंकी संख्याके बराबर होगा और उत्कृष्टसंख्यात = स उ = अ प ज - १. पर्यालोचन- संख्याओंको तीन भेदोंमें विभक्त करनेका मुख्य अभिप्राय यह प्रतीत होता है- संख्यात अर्थात् गणना कहां तक की जा सकती है यह भाषामें संख्या-नामोंकी उपलब्धि अथवा संख्याव्यक्तिके अन्य उपायोंकी प्राप्ति पर अवलम्बित है। अतएव भाषामें गणनाका क्षेत्र बढ़ानेके लिये भारतवर्षमें प्रधानतः दश-मानके आधारपर संख्या-नामोंकी एक लम्बी श्रेणी बनाई गई । हिन्दू १०७ तककी गणनाको भाषामें व्यक्त कर सकनेवाले अठारह नामोंसे संतुष्ट होगये । १० से ऊपरकी संख्याएं उन्हीं नामोंकी पुनरावृत्ति द्वारा व्यक्त की जा सकती थीं, जैसा कि अब हम दश दश-लाख ( million million ) आदि कह कर करते हैं। किन्तु इस बातका अनुभव होगया कि यह पुनरावृत्ति भारभूत (cumbersome) है। बौद्धों और जैनियोंको अपने दर्शन और विश्वरचना संबंधी विचारोंके लिये १०० से बहुत बड़ी संख्याओंकी आवश्यकता पड़ी। अतएव उन्होंने और बड़ी बड़ी संख्याओंके नाम कल्पित कर लिये । जैनियोंके संख्यानामोंका तो अब हमें पता नही हैं', किन्तु बौद्धोद्वारा कल्पित संख्या १ जैनियों के प्राचीन साहित्यमें दीर्घ काल-प्रमाणोंके सूचक नामोंकी तालिका पाई जाती है जो एक वर्ष प्रमाणसे प्रारम्भ होती है। यह नामावली इस प्रकार है१ वर्ष | १७ अटटांग = ८४ त्रुटित २ युग = ५ वर्ष १८ अटट ,, लाख अटटांग ३ पूर्वाग = ८४ लाख वर्ष १९ अममांग " अटट ४ पूर्व = ,, लाख पूर्वांग २० अमम लाख अममांग ५ नयुतांग २१ हाहांग अमम ६ नयुत , लाख नयुतांग , लाख हाहांग ७ कुमुदांग ,, नयुत २३ इहांग ८ कुमुद लाख कुमुदांग २४ ह्ह ९ पद्मांग " लाख इहांग , कुमुद २५ लतांग १. पद्म , लाख पद्मांग " इहू ११ नलिनांग २६ लता , लाख लतांग "पद्म १२ नलिन , लाख नलिनांग २७ महालतांग लता १३ कमलांग ,, नलिन २८ महालता " लाख महालतांग १४ कमल , लाख कमलांग २९ श्रीकल्प = ,, लाख महालता १५ त्रुटितांग = , कमल ३० हस्तप्रहेलित = , लाख श्रीकल्प १६ त्रुटित = , लाख त्रुटितांग | ३१ अचलप्र = , लाख हस्तप्रहेलित यह नामावली त्रिलोकप्रप्ति (४-६ वीं शताब्दि) हरिवंशपुराण (८ीं शताब्दि) और राजवार्तिक (८वीं शताब्दि ) में कुछ नामभेदोंके साथ पाई जाती है। त्रिलोकप्रज्ञप्तिके एक उल्लेखानुसार अचलप्रका प्रमाण ८४ को ३१ वार परस्पर गुणा करनेसे प्राप्त होता है-अचलप -८४१ तथा यह संख्या ९० अंक प्रमाण होगी। किन्तु लघुरिक्थ तालिका (Logarithmic tables) के अनुसार ८४१ संख्या ६० अंक प्रमाण ही प्राप्त होती है। देखिये धवला, भाग ३, प्रस्तावना व फुट नोट, पृ३४.-सम्पादक. हाहा Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२) • षखंडागमकी प्रस्तावना नामोंकी निम्न श्रेणिका चित्ताकर्षक है१ एक = १ | १५ अब्बुद = (१०,०००,०००) २ दस १६ निरब्बुद = (१०,०००,०००) ३ सत १७ अहह = (१०,०००,०००) ४ सहस्स = १,००० १८ अबब = (१०,०००,०००) ५ दससहस्स = १०,००० १९ अटट = (१०,०००,०००)२ ६ सतसहस्स = १००,००० २० सोगन्धिक = (१०,०००,०००) ७ दससतसहस्स = १,०००,००० २१ उप्पल __= (१०,०००,०००) ८ कोटि = १०,०००,००० ९पकोटि = (१०,०००,०००) २२ कुमुद =(१०,०००,०००) १० कोटिप्पकोटि = (१०,०००,०००) २३ पुंडरीक = (१०,०००,०००) ११ नहुत = (१०,०००,०००) २४ पदुम = (१०,०००,०००)" १२ निन्नहुत - (१०,०००,०००) २५ कथान = (१०,०००,०००) १३ अखोभिनी = (१०,०००,०००) | २६ महाकथान = (१०,०००,०००) १४ बिन्दु = (१०,०००,०००) | २७ असंख्येय = (१०,०००,०००)" यहाँ देखा जाता है कि श्रेणिकामें अन्तिम नाम असंख्येय है। इसका अभिप्राय यही प्रतीत होता है कि असंख्येयके ऊपरकी संख्याएं गणनातीत हैं । असंख्येयका परिमाण समय समय पर अवश्य बदलता रहा होगा। नेमिचंद्रका असंख्यात उपर्युक्त असंख्येयसे, जिसका प्रमाण १०१ ४° होता है, निश्चयतः भिन्न है । असंख्यात- ऊपर कहा ही जा चुका है कि असंख्यातके तीन मुख्य भेद हैं और उनमेंसे भी प्रत्येकके तीन तीन भेद हैं। ऊपर निर्दिष्ट संकेतोंके प्रयोग करनेसे हमें नेमिचंद्रके अनुसार निम्न प्रमाण प्राप्त होते हैं जघन्य-परीत-असंख्यात (अप ज) = स उ +१ मध्यम-परीत-असंख्यात (अ प म ) है > अप ज, किन्तु < अप उ. उत्कृष्ट-परीत असंख्यात (अप उ) = अ यु ज - १ जहां जघन्य-युक्त-असंख्यात (अ युज) (अपज) " मध्यम-युक्त-असंख्यात (अ यु म) है > अ यु ज, किन्तु < अ यु उ. Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवलाका गणितशास्त्र (२३) उत्कृष्ट-युक्त असंख्यात ( अ यु उ = अ अज-१. जहां जघन्य-असंख्यातासंख्यात (अ अ ज ) = (अ यु ज) मध्यम-असंख्यातासंख्यात ( अ म म ) है > अ अ ज, किन्तु < अ अ उ. उत्कष्ट-असंख्यातासंख्यात (अ अ उ) = अ प ज - १. जहाँ न प ज जघन्य-परीत-अनन्तका बोधक है । अनन्त- अनन्त श्रेणीकी संख्याएं निम्न प्रकार हैं जघन्य-परीत-अनन्त( न प ज) निम्न प्रकारसे प्राप्त होता है care erana contempor} ] (अअज) कर । (अअज)- IS (अअज)। (अअज) । (अअज) मानलो ख = क + छह द्रव्य खख) मानलो ग = 3(खख) _ खखा (खख) + ४ राशियों । तब गग जघन्य-परीत-अनन्त (न पज)=(ग) मध्यम-परीत-अनन्त (न प म ) है > न प ज, किंतु < न प उ उत्कृष्ट-परीत-अनन्त ( न प उ) = न युज – १, १ छह द्रव्य ये हैं- (१) धर्म, (२) अधर्म, (३)एक जीव, (४) लोकाकाश, (५) अप्रतिष्ठित (वनस्पति जीव:), और ( ६ ) प्रतिष्ठित (वनस्पति जीव). . २ चार समुदाय ये हैं- (१) एक कल्पकालके समय, (२) लोकाकाशके प्रदेश, (३) अनुभागबंधअध्यवसायस्थान, और (४) योगके अविभाग-प्रतिच्छेद. Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४) षट्खंडागमकी प्रस्तावना जहाँ (अप ज) जघन्य युक्त-अनन्त (न यु ज)= (अप ज) मध्यम-युक्त-अनन्त (न यु म) है >न यु ज, किंतु < न यु उ उत्कृष्ट-युक्त-अनन्त (न यु उ)= न न ज - १ जहां जघन्य-अनन्तानन्त (न न ज)=(न यु ज) मध्यम-अनन्तानन्त (न न म) >है न न ज, किंतु <न न उ जहां न न उ उत्कृष्ट अनन्तानन्तके लिये प्रयुक्त है, जो कि नेमिचंन्द्रके अनुसार निम्न प्रकारसे प्राप्त होता है ।। ननज। (ननज)} | (ननज) । ननज) || ननज) (ननज) +छह राशियां क्ष I (ननज) S क्षक्ष । = {kse ? (स)} + दो राशिया = { (न ? (अन) अब, केवलज्ञान राशि ज्ञ से भी बड़ी है और न न उ = केवलज्ञान - ज्ञ + ज्ञ = केवलज्ञान. पर्यालोचन- उपर्युक्त विवरणका यह निष्कर्ष निकलता है (१) जघन्य-परीत-अनन्त (न प ज) अनन्त नहीं होता जबतक उसमें प्रक्षिप्त किये गये छह द्रव्यों या चार राशियोंमेंसे एक या अधिक अनन्त न मान लिये जायं । १ छह राशियां ये हैं- [१) सिद्ध, (२) साधारण वनस्पति निगोद, (३) वनस्पति, (४) पुद्गल, (५) व्यवहारकाल और (६) अलोकाकाश. २ ये दो राशियां हैं- (१) धर्मद्रव्य, (२) अधर्मद्रव्य, (इन दोनोंके अगुरुलघु गुणके अविभाग-प्रतिच्छेद) Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवलाका गणितशास्त्र (२५) (२) उत्कृष्ट-अनन्त-अनन्त (न न उ) केवलज्ञानराशिके समप्रमाण है। उपर्युक विवरणसे यह अभिप्राय निकलता है कि उत्कृष्ट अनन्तानन्त अंकगणितकी किसी प्रक्रियाद्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता, चाहे वह प्रक्रिया कितनी ही दूर क्यों न ले जाई जाय । यथार्थतः वह अंकगणितद्वारा प्राप्त ज्ञ की किसी भी संख्यासे अधिक ही रहेगा। अतः मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि केवलज्ञान अनन्त है, और इसीलिये उत्कृष्ट-अनन्तानन्त भी अनन्त है । इस प्रकार त्रिलोकसारान्तर्गत विवरण हमें कुछ संशयमें ही छोड़ देता है कि परीतानन्त और युक्तानन्तके तीन तीन प्रकार तथा जघन्य अनन्तानन्त सचमुच अनन्त है या नहीं, क्योंकि ये सब असंख्यातके ही गुणनफल कहे गये हैं, और जो राशियां उनमें जोड़ी गई हैं वे भी असंख्यातमात्र ही हैं। किन्तु धवलाका अनन्त सचमुच अनन्त ही है, क्योंकि यहाँ यह स्पष्टतः कह दिया गया है कि 'व्यय होनेसे जो राशि नष्ट हो वह अनन्त नहीं कही जा सकती। धवलामें यह भी कह दिया गया है कि अनन्तानन्तसे सर्वत्र तात्पर्य मध्यम-अनन्तानन्तसे है । अतः धवलानुसार मध्यम-अनन्तानन्त अनन्त ही है। धवलामें उल्लिखित दो राशियोंके मिलानकी निम्न रीति बड़ी रोचक है एक ओर गतकालकी समस्त अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी अर्थात् कल्पकालके समयोंको (time-instants) स्थापित करो। (इनमें अनादि-सातत्य होनेसे अनन्तत्व है ही।) दूसरी ओर मिथ्यादृष्टि जीवराशि रक्खो । अब दोनों राशियोंमेंसे एक एक रूप बराबर उठाउठा कर फेकते जाओ। इस प्रकार करते जानेसे कालराशि नष्ट हो जाती है, किन्तु जीवराशिका अपहार नहीं होता। धवलामें इस प्रकारसे यह निष्कर्ष निकाला गया है कि मिथ्यादृष्टि राशि अतीत कल्पोंके समयोंसे अधिक है । ___ यह उपर्युक्त रीति और कुछ नहीं केवल एकसे-एककी संगति ( one-to-one correspondence) का प्रकार है जो आधुनिक अनन्त गणनाकोंके सिद्धान्त (Theory of infinite cardinals) का मूलाधार है। यह कहा सकता है कि वह रीति परिमित गणनांकोंके मिलानमें भी उपयुक्त होती है, और इसीलिये उसका आलम्बन दो बड़ी परिमित राशियोंके मिलानके लिये लिया गया था- इतनी बड़ी राशियां जिनके अंगों (elements) १ 'संते वए णटुंतस्स अणंतत्तविरोहादो'।ध. ३, पृ. २५. . २ धवला ३, पृ. २८. ३ 'अणंताणताहि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहि ण अवहिरंति कालेण' । ध. ३, पृ. २८ सूत्र ३. देखो टीका, पृ. २८. ' कधं कालेण मिणिज्जते मिच्छाइट्ठी जीवा ' ? आदि । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६) षट्रखंडागमको प्रस्तावना की गणना किसी संख्यात्मक संज्ञा द्वारा नहीं की जा सकी । यह दृष्टिकोण इस बातसे और भी पुष्ट होता है कि जैन-ग्रंथों में समयके अध्वानका भी निश्चय कर दिया गया है, और इसलिये एक कल्प ( अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी ) के कालप्रदेश परिमित ही होना चाहिये, क्योंकि, कल्प स्वयं कोई अनन्त कालमान नहीं है । इस अन्तिम मतके अनुसार जघन्य-परीत-अनन्त, जो कि परिभाषानुसार कल्पके कालप्रदेशोंकी राशिसे अधिक है, परिमित ही है। जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है, एकसे-एककी संगतिकी रीति अनन्त गणनांकोंके अध्ययनके लिये सबसे प्रबल साधन सिद्ध हुई है, और उस सिद्धान्तके अन्वेषण तथा सर्व-प्रथम प्रयोगका श्रेय जैनियोंको ही है। संख्याओंके उपर्युक्त वर्गीकरणमें मुझे अनन्त गणनांकोंके सिद्धान्तको विकसित करनेका प्राथमिक प्रयत्न दिखाई देता है। किन्तु इस सिद्धान्तमें कुछ गंभीर दोष हैं। ये दोष विरोध उत्पन्न करेंगे । इनमेंसे एक स - १ की संख्याकी कल्पनाका है, जहां स अनन्त है और एक वर्गकी सीमाका नियामक है । इसके विपरीत जैनियोंका यह सिद्धान्त कि एक संख्या स का वर्गित-संवर्गित रूप अर्थात् सस एक नवीन संख्या उत्पन्न कर देता है, युक्तपूर्ण है। यदि यह सच हो कि प्राचीन जैन साहित्यका उत्कृष्ट-असंख्यात अनन्तसे मेल खाता है, तो अनन्तकी संख्याओंकी उत्पत्तिमें आधुनिक अनन्त गणनांकोंके सिद्धान्त ( Theory of infinite cardinals ) का कुछ सीमा तक पूर्वनिरूपण हो गया है । गणितशास्त्रीय विकासके उतने प्राचीन काल और उस प्रारम्भिक स्थितिमें इस प्रकारके किसी भी प्रयत्नकी असफलता अवश्यंभावी थी। आश्चर्य तो यह है कि ऐसा प्रयत्न किया गया था। अनन्तके अनेक प्रकारोंकी सत्ताको जार्ज केन्टरने उन्नीसवीं शताब्दिके मध्यकालके लगभग प्रयोग-सिद्ध करके दिखाया था। उन्होंने सीमातीत ( transfinite ) संख्याओंका सिद्धांत स्थापित किया। अनन्त राशियोंके क्षेत्र 'domain) के विषयमें कैन्टरके अन्वेषणोंसे गणितशास्त्रके लिये एक पुष्ट आधार, खोजके लिये एक प्रबल साधन और गणितसंबंधी अत्यन्त गूढ विचारोंको ठीक रूपसे व्यक्त करनेके लिये एक भाषा मिल गई है। तो भी यह सीमातीत संख्याओंका सिद्धांत अभी अपनी प्राथमिक अवस्थामें ही है। अभी तक इन संख्याओंका कलन ( Calculus) प्राप्त नहीं हो पाया है, और इसलिये हम उन्हें अभी तक प्रबलतासे गणितशास्त्रीय विश्लेषणमें नहीं उतार सके हैं । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द-सूची 'धवलाका गणितशास्त्र' शीर्षक लेखमें जो गणितसे सम्बन्ध रखनेवाले विशेष हिन्दी शब्दोंका उपयोग किया गया है उनके समरूप अंग्रेजी शब्द निम्न प्रकार हैं37a-Infinite. | Gays-Cube root. अनन्त गणनाक सिद्धान्त-Theory of infinite ara falmat, T1-Raising of numbers cardinals, to given powers. 213019-Proportion. qai+-Powers. Uh-Operation of mediation. gjata MSFT-Theory of indices. अर्धच्छेद-Number of times a number TT -Number of times that a is halved; mediation; logaritha, number can be divided by 4. असंख्यात-Innumerable. E-Trace. 31917731-Inequality. 15-Addition, 314-Notational place. ज्योतिषविद्या-Astronomy. 317.1a-Arithmetic. acquir-Notes. IT-Element, ft -Number of times that a num. Bar-Base ( of logarithm ). ber can be divided by 3. stia-Er-Discovery; invention. f571-Radius. :' golar-Successive. Aufera-Rule of three.. FTTHF-One directional. GTH17T-Scale of ten. 5#$#sa-One-to-one corres. GITAR-Decimal place-value pondence. notation. 781-Art. fu-Operation of duplation. fogan-Time-instant, ff FTITIERE-Two-dimensional; EF-Indeterminte equation. superficial, Fanat qa-Initial circle; central core. fangas-Abstract reasoning. 421-Operation, fa -Rule. TITET-Locations; points or places, qua-Method. Tha-Mensuration. TRUTH-Result. mida, E-Mathematics. RAIT-Magnitude. aiuras-Mathematician. TRAIT12-Dimensionless, 9911-Multiplicatiop. TRIAT TİF-Finite cardinals, Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (RC) षखंडागमको प्रस्तावना 991-Integer. afill-Process; operation. FATTA 3400 811978- Infinite plane area. -Problem. ar4f-Elementary; primitive. -Subtraction. pisanota-Algebra. 252 T-Cylindrical. HTT-Division, 715-Divisor. -Fraction. O, iesa 944-Fundamental operation. t-Aggregate. 36 YI-Prime. E-General outline. ggfie-Logarithm. ou-Quotient. anti-Square, auss-Square root. arial-Logarithm of logarithm. afastara-Quadratic equation. वर्गित-संवर्गित-Raising a number to its own power ( Atatea ara). वलय-Ring fa -Distribution. faara-Science. fat-Protons and electrons. fafany-Barter and exchange. front-Distribution; spreading. farroa-a4-Spread and give. विश्लेषण-Analysis farcar-Details. qo-Circle. 21751-Interest. c419-Diameter fi&#PIET-Super-incumbent cone. El-School. श्रेणीबद्ध करना-Classify. HHWF14-Concentric. सरल समीकरण-Simple equation. Awa-Symbol, notation. 99##-Scale of notation. HET-Number. geura-Numberable. संख्यातुल्य घात-Raising of a number to its own power. atach-Continuum, Atatrofia-Generalised. 8741-Boundary. atarata egi-Transfinite number. 29-Formula, Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ कन्नड प्रशस्ति अन्तर-प्ररूपणाके पश्चात् और भाव-प्ररूपणासे पूर्व प्रतियोंमें दो कन्नड पद्योंकी प्रशस्ति पाई जाती है जो इस प्रकार है पोडवियोळु मल्लिदेवन पडेदर्थवदर्थिजनकवाश्रितजनक । पडेदोडमेयादुदिनी पडेवळनौदार्यदोलवने बणिपुदो ॥ कदुचोद्यवन्नदानं बेडंगुवडेदेसेव जिनगृहगळुवं ता। नेडेवरियदे माडिसुवं पडेवळनी मल्लिदेवर्नेब विधानं ।। ये दोनों पद्य कन्नड भाषाके कंदवृत्तमें हैं । इनका अनुवाद इस प्रकार है " इस संसारमें मल्लिदेव द्वारा उपार्जित धन अर्थी और आश्रित जनोंकी सम्पत्ति हो गया। अब सेनापतिकी उदारताका यथार्थ वर्णन किस प्रकार किया जा सकता है?" " उनका अन्नदान बड़ा आश्चर्यजनक है । ये सेनापति मल्लिदेव नामके विधाता विना किसी स्थानके भेदभावके सुन्दर और महान् जिनगृह निर्माण करा रहे हैं।" इन पद्योंमें मल्लिदेव नामके एक सेनापतिके दान-धर्मकी प्रशंसा की गई है। उनके विषयमें यहां केवल इतना ही कहा गया है कि वे बड़े दानशील और अनेक जैन मन्दिरोंके निर्माता थे। तेरहवीं शताब्दिके प्रारंभमें मल्लिदेव नामके एक सिन्द-नरेश हुए हैं। उनके एचण नामके मंत्री थे जो जैनधर्म पालते थे और उन्होंने अनेक जैन मन्दिरोंका निर्माण भी कराया था । उनकी पत्नीका नाम सोविलदेवी था । (ए. क. ७, लेख नं. ३१७, ३२० और ३२१). कर्नाटकके लेखोंमें तेरहवीं शताब्दिके एक मल्लिदेवका भी उल्लेख मिलता है जो होयसलनरेश नरसिंह तृतीयके सेनापति थे। किन्तु इनके विषयमें यह निश्चय नहीं है कि वे जैनधर्मावलम्बी थे या नहीं। श्रवणबेल्गोलके शिलालेख नं. १३० (३३५) में भी एक मल्लिदेवका उल्लेख आया है जो होय्सलनरेश वरिबल्लालके पट्टणस्वामी व सचिव नागदेव और उनकी भार्या चन्दव्वे ( मल्लिसेट्टिकी पुत्री) के पुत्र थे। नागदेव जैनधर्मावलम्बी थे Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०) षटखंडागमकी प्रस्तावना इसमें कोई संदेह नहीं, क्योंकि, उक्त लेखमें वे नयकीर्ति सिद्धान्तचक्रवर्तीके पदभक्त शिष्य कहे गये हैं और उन्होंने नगरजिनालय तथा कमठपार्श्वदेव बस्तिके सन्मुख शिल्लाकुट्टम और रंगशाला निर्माण कराई थी तथा नगर जिनालयको कुछ भूमिका दान भी किया था। मल्लिदेवकी प्रशंसामें इस लेखमें जो एक पद्य आया है वह इस प्रकार है परमानन्ददिनेन्तु नाकपतिगं पौलोमिगं पुट्टिदों वरसौन्दर्यजयन्तनन्ते तुहिन-क्षीरोद-कल्लोल भासुरकीर्तिप्रियनागदेवविभुगं चन्दब्बेगं पुट्टिदों स्थिरनीपट्टणसामिविश्वविनुतं श्रीमल्लिदेवाह्वयं ॥ १० ॥ अर्थात् जिस प्रकार इन्द्र और पौलोमी ( इन्द्राणी) के परमानन्द पूर्वक सुन्दर जयन्तकी उत्पत्ति हुई थी, उसी प्रकार तुहिन (वर्फ) तथा क्षीरोदधिकी कल्लोलोंके समान भास्वर कीर्तिके प्रेमी नागदेव विभु और चन्दव्वेसे इन स्थिरबुद्धि विश्वविनुत पट्टणस्वामी मल्लिदेवकी उत्पत्ति हुई।" इससे आगेके पद्यमें कहा गया है कि वे नागदेव क्षितितलपर शोभायमान हैं जिनके बम्मदेव और जोगव्वे माता-पिता तथा पट्टणस्वामी मल्लिदेव पुत्र हैं। यह लेख शक सं. १११८ (ईस्वी १६९६) का है, अतः यही काल पट्टणस्वामी मल्लिदेवका पड़ता है। अभी निश्चयतः तो नहीं कहा जा सकता, किन्तु संभव है कि यही मल्लिदेव हों जिनकी प्रशंसा धवला प्रतिके उपर्युक्त दो पद्योमें की गई है। ३ शंका-समाधान पुस्तक ४, पृष्ठ ३८ १ शंका-पृष्ठ ३८ पर लिखा है- 'मिच्छाइटिस्स सेस-तिणि विसेसणाणि ण संभवंति, तक्कारणसंजमादिगुणाणमभावादो' यानी तैजससमुद्धात प्रमत्तगुणस्थान पर ही होता है, सो इसमें कुछ शंका होती है । क्या अशुभ तैजस भी इसी गुणस्थान पर होता है ? प्रमत्तगुणस्थान पर ऐसी तीव्र कषाय होना कि सर्वस्व भस्म कर दे और स्वयं भी उससे भस्म हो जाय और नरक तक चला जाय, ऐसा कुछ समझमें नहीं आता ! समाधान- मिथ्यादृष्टिके शेष तीन विशेषण अर्थात् आहारकसमुद्धात, तेजससमुद्धात और केवलिसमुद्धात संभव नहीं हैं, क्योंकि, इनके कारणभूत संयमादि गुणोंका मिथ्यादृष्टिके अभाव है। इस पंक्तिका अर्थ स्पष्ट है कि जिन संयमादि विशिष्ट गुणों के निमित्तसे आहारकऋद्धि Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१) शंका-समाधान आदिकी प्राप्ति होती हैं, वे गुण मिथ्यादृष्टि जीवके संभव नहीं हैं। शंकाकारके द्वारा उठाई गई आपत्तिका परिहार यह है कि तैजसशक्तिकी प्राप्ति के लिये भी उस संयम-विशेषकी आवश्यकता है जो कि मिथ्यादृष्टि जीवके हो नहीं सकता। किन्तु अशुभतैजसका उपयोग प्रमत्तसंयत साधु नहीं करते । जो करते हैं, उन्हें उस समय भावलिंगी साधु नहीं, किन्तु द्रव्यलिंगी समझना चाहिए। पुस्तक ४, पृष्ठ ४५ २ शंका-विदेहमें संयतराशिका उत्सेध ५०० धनुष लिखा है, सो क्या यह विशेषताकी अपेक्षासे कथने है, या सर्वथा नियम ही है ? (नानकचन्द्र जैन, खतौली, पत्र ता. १-४-४२ ) समाधान-- विदेहमें संयतराशिका ही उत्सेध नहीं, किन्तु वहां उत्पन्न होनेवाले मनुष्यमात्रका उत्सेध पांचसौ धनुष होता है, ऐसा सर्वथा नियम ही है जैसा कि उसी चतुर्थ भागके पृ. ४५ पर आई हुई “ एदाओ दो वि ओगाहणाओ भरह-इरावएसु चेव होति ण विदेहेसु, तत्थ पंचधणुस्सदुस्सेधणियमा " इस तीसरी पंक्तिसे स्पष्ट है। उसी पंक्ति पर तिलोयपण्णत्तीसे दी गई टिप्पणीसे भी उक्त नियमकी पुष्टि होती है । विशेषके लिए देखो तिलोयपण्णत्ती, अधिकार ४, गाथा २२५५ आदि । पुस्तक ४, पृष्ठ ७६ ३ शंका- पृष्ठ ७६ में मूलमें ' मारणंतिय' के पहलेका 'मुक्क' शब्द अभी विचारणीय प्रतीत होता है? (जैनसन्देश, ता. २३-४-४२) समाधान-मूलमें 'मुक्कमारणतियरासी' पाठ आया है, जिसका अर्थ- “किया है मारणान्तिकसमुद्रात जिन्होंने" ऐसा किया है। प्रकरणको देखते हुए यही अर्थ समुचित प्रतीत होता है, जिसकी कि पुष्टि गो. जी. गा. ५४४ (पृ. ९५२) की टीकामें आए हुए. 'क्रियमाणमारणान्तिकदंडस्य'; 'तिर्यग्जीवमुक्तोपपाददंडस्य', तथा, ५४७ वी गाथाकी टीकामें (पृ. ५६७) आये हुए 'अष्टमपृथ्वीसंबंधिबादरपर्याप्तपृथ्वीकायेषु उप्पत्तुं मुक्ततत्समुद्धातदंडानां' आदि पाठोंसे भी होती है। ध्यान देनेकी बात यह है कि द्वितीय व तृतीय उद्धरणमें जिस अर्थमें 'मुक्त' शब्दका प्रयोग हुआ है, प्रथम अवतरणमें उसी अर्थमें ‘क्रियमाण' शब्दका उपयोग हुआ है और यह कहनेकी आवश्यकता ही नहीं है कि प्राकृत 'मुक्क' शब्दकी संस्कृतच्छाया 'मुक्त' ही होती है । पंडित टोडरमल्लजीने भी उक्त स्थलपर 'मुक्त ' शब्दका यही अर्थ किया है। इस प्रकार 'मुक्क' शब्दके किये गये अर्थमें कोई शंका नहीं रह जाती है। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२) षट्खंडागमकी प्रस्तावना पुस्तक ४, पृष्ठ १०० ४ शंका- पृ १०० पर मूल पाठमें कुछ पाठ छूटा हुआ प्रतीत होता है ! ( जैन सन्देश ३०-४-४२ ) समाधान- शंकाकारने यद्यपि पृष्ठका नाममात्र ही दिया है, किन्तु यह स्पष्ट नहीं किया कि उक्त पेजपर २४ वें सूत्रकी व्याख्यामें पाठ छूटा हुआ उन्हें प्रतीत हुआ या २५ वें सूत्रकी व्याख्यामें । जहां तक हमारा अनुमान जाता है २४ वें सूत्रकी व्याख्यामें ' बादरवाउअपज्जत्तेसु अंतब्भावादो' के पूर्व कुछ पाठ उन्हें स्खलित जान पड़ा है । पर न तो उक्त स्थलपर काममें ली जानेवाली तीनों प्रतियों में ही तदतिरिक्त कोई नवीन पाठ है, और न मूडबिद्री से ही कोई संशोधन आया है। फिर मौजूदा पंक्तिका अर्थ भी वहां बैठ जाता है । ● पुस्तक ४, पृ. १३५ ५ शंका - उपशमश्रेणीसे उतरनेवाले उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंके अतिरिक्त अन्य उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंके मरणका निषेध है, इससे यह ध्वनित होता है कि उपशमश्रेणीमें चढ़नेवाले उपशमसम्यग्दृष्टि जीवों का मरण नहीं होता । परन्तु पृष्ठ ३५१ से ३५४ तक कई स्थानों पर स्पष्टता से चढ़ते हुए भी मरण लिखा है, सो क्या कारण है ? ( नानकचन्द्र जैन, खतौली, पत्र ता. १-४ - ४२ ) समाधान- - उक्त पृष्ठपर दी गई शंका-समाधान के अभिप्राय समझने में भ्रम हुआ है । यह शंका-समाधान केवल चतुर्थ गुणस्थानवर्ती उन उपशमसम्यग्दृष्टियोंके लिये है, जो कि उपशमश्रेणीसे उतरकर आये हैं । इसका सीधा अभिप्राय यह है कि सर्वसाधारण उपशमसम्यदृष्टि असंयतों का मरण नहीं होता है । अपवादरूप जिन उपशमसम्यग्दृष्टि असंयतों का मरण होता है उन्हें श्रेणीसे उतरे हुए ही समझना चाहिए । आगे पृ. ३५१ से ३५४ तक कई स्थानोंपर जो श्रेणीपर चढ़ते या उतरते हुए मरण लिखा है, वह उपशामक गुणस्थानों की अपेक्षा लिखा है, न कि असंयतगुणस्थानकी अपेक्षा | पुस्तक ४, पृष्ठ १७४ ६ शंका - पृष्ठ १७४ में ' एक्कम्हि इंदए सेढीबद्ध पद्दण्णए च संट्ठिदगामागार बहुविधबिल- ' नरक में विद्यमान ग्राम, घर और बहुत घर होते हैं ? बिले तो जरूर होते हैं । अर्थात् गांवके समान बहुत प्रकारके बिलों में ' ( जैनसन्देश, ता. २३-४-४२ ) का अर्थ — ' एक ही इन्द्रक, श्रेणीबद्ध या प्रकीर्णक प्रकारके बिलोंमें ' किया है । क्या नरकमें भी ग्राम असल में 'गामागार' का अर्थ ' ग्रामके आकारवाले ऐसा होना चाहिए ? Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका-समाधान (३३) समाधान-सुझाया गया अर्थ भी माना जा सकता है, पर किया गया अर्थ गलत नहीं है, क्योंकि, घरोंके समुदायको ग्राम कहते हैं । समालोचकके कथनानुसार 'ग्रामके आकारवाले अर्थात् गांवके समान' ऐसा भी 'गामागार' पदका अर्थ मान लिया जाय तो भी उन्हींके द्वारा उठाई गई शंका तो ज्यों की त्यों ही खड़ी रहती है, क्योंकि, ग्रामके आकारवालोंको ग्राम कहनेमें कोई असंगति नहीं है। इसलिए इस सुझाए गए अर्थमें कोई विशेषता दृष्टिगोचर नहीं होती। पुस्तक ४, पृ. १८० ७ शंका--पृ. १८० में मूलमें एक पंक्तिमें 'व' और 'ण' ये दो शब्द जोड़े गये हैं। किन्तु ऐसा मालूम होता है कि घणरज्जु' में जो 'घण' शब्द है वह अधिक है और लेख - कोंकी करामातसे 'व ण' का 'घण' हो गया है ? (जैनसन्देश ता. २३-४-४२) ___ समाधान—प्रस्तुत पाठके संशोधन करते समय हमें उपलब्ध पाठमें अर्थकी दृष्टिसे 'व ण' पाठका स्खलन प्रतीत हुआ। अतएव हमने उपलब्ध पाठकी रक्षा करते हुए हमारे नियमानुसार 'व' और 'ण' को यथास्थान कोष्ठकके अन्दर रख दिया । शंकाकारकी दृष्टि इसी संशोधनके आधारसे उक्त पाठपर अटकी और उन्होंने 'व ण' पाठकी वहां आवश्यकता अनुभव की। इससे हमारी कल्पनाकी पूरी पुष्टि होगई। अब यदि ‘व ण' पाठ की पूर्ति उपलब्ध पाठके 'घण' को 'वण' बनाकर कर ली जाय तो भी अर्थका निर्वाह हो जाता है और किये गये अर्थमें कोई अन्तर नहीं पड़ता । बात इतनी है कि ऐसा पाठ उपलब्ध प्रतियोंमें नहीं मिलता और न मूडबिद्रीसे कोई सुधार प्राप्त हुआ। पुस्तक ४, पृ. २४० .. ८ शंका-पृ. २४० में ५७ वे सूत्रके अर्थमें एकेन्द्रियपर्याप्त एकेन्द्रियअपर्याप्त भेद गलत किये हैं, ये नहीं होना चाहिए, क्योंकि, इस सूत्रकी व्याख्यामें इनका उल्लेख नहीं है ? (जैनसन्देश, ता. ३०-४-४२) समाधान-यद्यपि यहां व्याख्यामें उक्त भेदोंका कोई उल्लेख नहीं है, तथापि द्रव्यप्रमाणानुगम (भाग ३, पृ. ३०५) में इन्हीं शब्दोंसे रचित सूत्र नं. ७४ की टीकामें धवलाकारने उन भेदोंका स्पष्ट उल्लेख किया है, जो इस प्रकार है- “एइंदिया बादरेइंदिया सुहुमेहंदिया पज्जत्ता अपज्जत्ता च एदे णव वि रासीओ......"। धवलाकारके इसी स्पष्टीकरणको ध्यानमें रखकर प्रस्तुत स्थल पर भी नौ भेद गिनाये गये हैं। तथा उन भेदोंके यहां ग्रहण करने पर कोई दोष भी नहीं दिखता । अतएव जो अर्थ किया गया है वह सप्रमाण और शुद्ध है। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४) षट्खंडागमकी प्रस्तावना पुस्तक ४, पृष्ठ ३१३ ९ शंका-पृ. ३१३ में- 'स-परप्पयासमयपमाणपडिवादीण-' पाठ अशुद्ध प्रतीत होता है, इसके स्थानमें यदि ' सपरप्पयासयमणिपमाणपईवादीण' पाठ हो तो अर्थकी संगति ठीक बैठ जाती है? (जैनसन्देश, ३०-४-४२) समाधान-प्रस्तुत स्थल पर उपलब्ध तीनों प्रतियोंमें जो विभिन्न पाठ प्राप्त हुए और मूडबिद्रीसे जो पाठ प्राप्त हुआ उन सबका उल्लेख वहीं टिप्पणीमें दे दिया गया है। उनमें अधिक हेर-फेर करना हमने उचित नहीं समझा और यथाशक्ति उपलब्ध पाठोंपरसे ही अर्थकी संगति बैठा दी। यदि पाठ बदलकर और अधिक सुसंगत अर्थ निकालना ही अभीष्ट हो तो उक्त पाठको इस प्रकार रखना अधिक सुसंगत होगा- स-परप्पयासयपमाण-पडीवादीणमुवलंभा । इस पाठके अनुसार अर्थ इस प्रकार होगा- "क्योंकि स्व-परप्रकाशक प्रमाण व प्रदीपादिक पाये पाये जाते हैं ( इसलिये शब्दके भी स्वप्रतिपादकता बन जाती है )"। पुस्तक ४, पृष्ठ ३५० १० शंका-धवलराज खंड ४, पृष्ठ ३५०, ३६६ पर सम्मूर्च्छन जीवके सम्यग्दर्शन होना लिखा है । परन्तु लब्धिसार गाथा २ में सम्यग्दर्शनकी योग्यता गर्भजके लिखी है, सो इसमें विरोधसा प्रतीत होता है, खुलासा करिए। (नानकचन्द्र जैन, खतौली, पत्र १६-३-४२) समाधान-लब्धिसार गाथा दूसरीमें जो गर्भजका उल्लेख है, वह प्रथमोपशमसम्यक्त्वकी प्राप्तिकी अपेक्षासे है। किन्तु यहां उपर्युक्त पृष्ठोंमें जो सम्मूञ्छिम जीवके संयमासंयम पानेका निरूपण है, उसमें प्रथमोशमसम्यक्त्वका उल्लेख नहीं है, जिससे ज्ञात होता है कि यहां वह कथन वेदकसम्यक्त्वकी अपेक्षासे किया गया है। अतएव दोनों कथनोंमें कोई विरोध नहीं समझना चाहिए। पुस्तक ४, पृष्ठ ३५३ ११ शंका-आपने अपूर्वकरण उपशामकको मरण करके अनुत्तर विमानोंमें उत्पन्न होना लिखा है, जब कि मूलमें · उत्तमो देवो' पाठ है । क्या उपशमश्रेणीमें मरण करनेवाले जीव नियमसे अनुत्तरमें ही जाते हैं ? क्या प्रमत्त और अप्रमत्तवाले भी सर्वार्थसिद्धिमें जा सकते हैं ? (नानकचंद्र जैन खतौली, पत्र ता. १-४-३२) समाधान-इस शंका तीन शंकायें गर्मित हैं जिनका समाधान क्रमशः इस प्रकार है (१) मूलमें 'उत्तमा देवो' पाठ नहीं, किन्तु ' लयसत्तमो देवो' पाठ है । लयसत्तमका अर्थ अनुत्तर विमानवासी देव होता है। यथा-लवसत्तम-लवसप्तम-पुं० । पंचानुत्तरविमानस्थ • Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका-समाधान देवेसु । सूत्र० १ श्रु. ६ अ. । सम्प्रति लवसप्तमदेवस्वरूपमाह सत्त लवा जइ आउं पहं पमाणं ततो उ सिझंतो। तत्तियमत्तं न हु तं तो ते लवसत्तमा जाया ॥ १३२ ॥ सम्वट्ठसिद्धिनामे उक्कोसठिई य विजयमादीसु । एगावसेसगब्भा भवंति लवसत्तमा देवा ॥ १३३ ।। व्य. ५ उ. अभिधानराजेन्द्र, लवसत्तमशब्द. (२) उपशमश्रेणीमें मरण करनेवाले जीव नियमसे अनुत्तर विमानोंमें ही जाते हैं, ऐसा तो नहीं कहा जा सकता, किन्तु त्रिलोकप्रज्ञप्तिकी निम्न गाथासे ऐसा अवश्य ज्ञात होता है कि चतुर्दशपूर्वधारी जीव लान्तव-कापिष्ठ कल्पसे लगाकर सर्वार्थसिद्धिपर्यंत उत्पन्न होते हैं । चूंकि 'शुक्ले चाये पूर्वविदः ' के नियमानुसार उपशमश्रेगीवाले भी जीव पूर्ववित् हो जाते हैं, अतएव उनकी लान्तवकल्पसे ऊपर ही उत्पत्ति होती है नीचे नहीं, ऐसा अवश्य कहा जा सकता है । वह गाथा इस प्रकार है दसपुव्वधरा सोहम्मपहुदि सव्वट्ठसिद्धिपरियंत चोइसपुव्वधरा तह लंतवकप्पादि वच्चंते ॥ ति. प. पत्र २३७, १६. (३) उपशमश्रेणीपर नहीं चढ़नेवाले, पमत्त अप्रमत्तसंयत गुणस्थानोंमें ही परिवर्तनसहस्रोंको करनेवाले साधु सर्वार्थसिद्धिमें नहीं जा सकते हैं, ऐसा स्पष्ट उल्लेख देखनेमें नहीं आया । प्रत्युत इसके त्रिलोकसार गाथा नं. ५४६ के 'सध्वट्ठो त्ति सुदिट्ठी महब्बई' पदसे द्रव्यभावरूपसे महाव्रती संयतोंका सर्वार्थसिद्धि तक जानेका स्पष्ट विधान मिलता है । पुस्तक ४, पृष्ठ ४११ १२ शंका--योग-परिवर्तन और व्याघात-परिवर्तनमें क्या अन्तर है ? (नानकचन्द्र जैन, खतौली, पत्र ता. १-४-४२) समाधान-विवक्षित योगका अन्य किसी व्याघातके विना काल-क्षय हो जाने पर अन्य योगके परिणमनको योग-परिवर्तन कहते हैं। किन्तु विवक्षित योगका कालक्षय होनेके पूर्व ही क्रोधादि निमित्तसे योग-परिवर्तनको व्याघात कहते हैं। जैसे- कोई एक जीव मनोयोगके साथ विद्यमान है । जब अन्तर्मुहूर्तप्रमाण मनोयोगका काल पूरा हो गया तब वह वचनयोगी या काययोगी हो गया । यह योग-परिवर्तन है । इसी जीवके मनोयोगका काल पूरा होनेके पूर्व ही कषाय, उपद्रव, उपसर्ग आदिके निमित्तसे मन चंचल हो उठा और वह वचनयोगी या काययोगी हो गया, तो यह योगका परिवर्तन व्याघातकी अपेक्षासे हुआ। योग-परिवर्तनमें काल प्रधान है, जब कि व्याघात-परिवर्तनमें कषाय आदिका आघात प्रधान है । यही दोनोंमें अन्तर है। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६) षट्वंडागमकी प्रस्तावना पुस्तक ४, पृष्ठ ४५६ १३ शंका- पृष्ठ ४५६ में · अण्णलेस्सागमणासंभवा ' का अर्थ · अन्य लेश्याका आगमन असंभव है ' किया है, होना चाहिए- अन्य लेश्यामें गमन असंभव है ? (जैनसन्देश, ता. ३०-४-४२) समाधान-किये गये अर्थमें और सुझाये गये अर्थमें कोई भेद नहीं है । ' अन्य लेश्याका आगमन ' और 'अन्य लेश्यामें गमन ' कहनेसे अर्थमें कोई अन्तर नहीं पड़ता। मूलमें भी दोनों प्रकारके प्रयोग पाये जाते हैं। उदाहरणार्थ- प्रस्तुत पाठके ऊपर ही वाक्य है'हीयमाण-वड्डमाणकिण्हलेस्साए काउलेस्साए वा अच्छिदस्स णीललेस्सा आगदा' अर्थात् हीयमान कृष्णलेश्यामें अथवा वर्धमान कापोतलेश्यामें विद्यमान किसी जीवके नीललेश्या आ गई, इत्यादि। ४ विषय-पारचय जीवस्थानकी आठ प्ररूपणाओं से प्रथम पांच प्ररूपणाओंका वर्णन पूर्व-प्रकाशित चार भागोंमें किया गया है। अब प्रस्तुत भागमें अवशिष्ट तीन प्ररूपणाएं प्रकाशित की जा रही हैं- अन्तरानुगम, भावानुगम और अल्पबहुत्वानुगम । १ अन्तरानुगम विवक्षित गुणस्थानवी जीवका उस गुणस्थानको छोड़कर अन्य गुणस्थानमें चले जाने पर पुनः उसी गुणस्थानकी प्राप्तिके पूर्व तकके कालको अन्तर, व्युच्छेद या विरहकाल कहते हैं । सबसे छोटे विरहकालको जघन्य अन्तर और सबसे बड़े विरहकालको उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं । गुणस्थान और मार्गणास्थानोंमें इन दोनों प्रकारोंके अन्तरोंके प्रतिपादन करनेवाले अनुयोगद्वारको अन्तरानुगम कहते हैं। पूर्व प्ररूपणाओंके समान इस अन्तरप्ररूपणामें भी ओघ और आदेशकी अपेक्षा अन्तरका निर्णय किया गया है, अर्थात् यह बतलाया गया है कि यह जीव किस गुणस्थान या मार्गणास्थानसे कमसे कम कितने काल तक के लिए और अधिकसे अधिक कितने काल तक के लिए अन्तरको प्राप्त होता है। ... उदाहरणार्थ-ओघकी अपेक्षा मिथ्यादृष्टि जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? इस प्रश्नके उत्सरमें बताया गया है कि नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-परिचय इसका अभिप्राय यह है कि मिथ्यात्वपर्यायसे परिणत जीवोंका तीनों ही कालोंमें व्युच्छेद, विरह या अभाव नहीं है, अर्थात् इस संसारमें मिथ्यादृष्टि जीव सर्वकाल पाये जाते हैं। किन्तु एक जीवकी अपेक्षा मिथ्यात्वका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्तकालप्रमाण है। यह जघन्य अन्तरकाल इस प्रकार घटित होता है कि कोई एक मिथ्यादृष्टि जीव परिणामोंकी विशुद्धिके निमित्तसे सम्यक्त्वको प्राप्तकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती हुआ । वह चतुर्थ गुणस्थानमें सबसे छोटे अन्तर्मुहूर्तप्रमाण सम्यक्त्वके साथ रहकर संक्लेश आदि के निमित्तसे गिरा और मिथ्यात्वको प्राप्त होगया, अर्थात् पुनः मिथ्यादृष्टि होगया। इस प्रकार मिथ्यात्व गुणस्थानको छोड़कर अन्य गुणस्थानको प्राप्त होकर पुनः उसी गुणस्थानमें आनेके पूर्व तक जो अन्तर्मुहूर्तकाल मिथ्यात्वपर्यायसे विरहित रहा, यही उस एक जीवकी अपेक्षा मिथ्यादृष्टि गुणस्थानका जघन्य अन्तर माना जायगा ! इसी एक जीवकी अपेक्षा मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो छयासठ अर्थात् एक सौ बत्तीस (१३२) सागरोपम काल है । यह उत्कृष्ट अन्तरकाल इस प्रकार घटित होता है कि कोई एक मिथ्यादृष्टि तियच अथवा मनुष्य चौदह सागरोपम आयुस्थितिवाले लान्तवकापिष्ठ कल्पवासी देवोंमें उत्पन्न हुआ। वहां वह एक सागरोपम कालके पश्चात् सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। तेरह सागरोपम काल वहां सम्यक्त्वके साथ रहकर च्युत हो मनुष्य होगया । उस मनुष्यभवमें संयमको, अथवा संयमासंयमको पालन कर बाईस सागरोपम आयुकी स्थितिवाले आरण-अच्युत कल्पवासी देवोंमें उत्पन्न हुआ। वहांसे च्युत होकर पुनः मनुष्य हुआ । इस मनुष्यभवमें संयम धारण कर मरा और इकतीस सागरोपमकी आयुवाले उपरिम अवेयकके अहमिन्द्रोंमें उत्पन्न हुआ । वहांसे च्युत हो मनुष्य हुआ, और संयम धारण कर पुनः उक्त प्रकारसे बीस, बाईस और चौवीस सागरोपमकी आयुवाले देवों और अहमिन्द्रोंमें क्रमशः उत्पन्न हुआ। इस प्रकार वह पूरे एक सौ बत्तीस ( १३२) सागरोंतक सम्यक्त्वके साथ रहकर अन्तमें पुनः मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। इस तरह मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अन्तर सिद्ध होगया। उक्त विवेचनमें यह बात ध्यान रखनेकी है कि वह जीव जितने वार मनुष्य हुआ, उतने वार मनुष्यभवसम्बन्धी आयुसे कम ही देवायुको प्राप्त हुआ है, अन्यथा बतलाए गए कालसे अधिक अन्तर हो जायगा। कुछ कम दो छयासठ सागरोपम कहनेका अभिप्राय यह है कि वह जीव दो छयासठ सागरोपम कालके प्रारंभमें ही मिथ्यात्वको छोड़कर सम्यक्त्वी बना और उसी दो छयासठ सागरोपमकालके अन्तमें पुनः मिथ्यात्वको प्राप्त हो गया । इसलिए उतना काल उनमेंसे घटा दिया गया। यहां ध्यान रखने की खास बात यह है कि काल-प्ररूपणामें जिन-जिन गुणस्थानोंका काल नानाजीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल बतलाया गया है, उन-उन गुणस्थानवी जीवोंका नानाजीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं होता है। किन्तु उनके सिवाय शेष सभी गुणस्थानवर्ती जीवोंका नानाजीवोंकी Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३८) षट्खंडागमकी प्रस्तावना तथा एक जीवकी अपेक्षा अन्तर होता है । इस प्रकार नानाजीवोंकी अपेक्षा कभी भी विरहको नहीं प्राप्त होनेवाले छह गुणस्थान हैं- १ मिथ्यादृष्टि, २ असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, ४ प्रमत्तसंयत, ५ अप्रमत्तसंयत और ६ सयोगिकेवली। इन गुणस्थानोंमें केवल एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर बतलाया गया है, जिसे ग्रन्थ-अध्ययनसे पाठक भली भांति जान सकेंगे। जिस प्रकार ओबसे अन्तरका निरूपण किया गया है, उसी प्रकार आदेशकी अपेक्षा भी उन-उन मार्गणाओंमें संभव गुणस्थानोंका अन्तर जानना चाहिए। मार्गणाओंमें आठ सान्तरमार्गणाएं होती हैं, अर्थात् जिनका अन्तर होता है। जैसे- १ उपशमसम्यक्त्वमार्गणा, २ सूक्ष्मसाम्परायसंयममार्गणा, ३ आहारककाययोगमार्गणा, ४ आहारकमिश्रकाययोगमार्गणा, ५ वैक्रियिकमिश्रकाययोगमार्गणा, ६ लब्ध्यपर्याप्तमनुष्यगतिमार्गणा, ७ सासादनसम्यक्त्वमार्गणा और सम्यग्मिथ्यात्वमार्गणा । इन आठोंका उत्कृष्ट अन्तर काल क्रमशः १ सात दिन, २ छह मास, ३ वर्षपृथक्त्व, ४ वर्षपृथक्त्व, ५ बारह मुहूर्त, और अन्तिम तीन सान्तर मार्गणाओंका अन्तरकाल पृथक् पृथक् पल्योपमका असंख्यातवां भाग है । इन सब सान्तर मार्गणाओंका जघन्य अन्तरकाल एक समयप्रमाण ही है। इन सान्तर मार्गणाओंके अतिरिक्त शेष सब मार्गणाएं नानाजीवोंकी अपेक्षा अन्तर-रहित हैं, यह ग्रन्यके स्वाध्यायसे सरलतापूर्वक हृदयंगम किया जा सकेगा। २ भावानुगम कोंके उपशम, क्षय आदिके निमित्तसे जीवके जो परिणामविशेष होते हैं, उन्हें भाव कहते हैं। वे भाव पांच प्रकारके होते हैं- १ औदयिकभाव, २ औपशामकभाव, ३ क्षायिकभाव, ४ क्षायोपशमिकभाव और पारिणामिकभाव । कर्मोंके उदयसे होनेवाले भावोंको औदयिक भाव कहते हैं। इसके इक्कीस भेद हैं- चार गतियां ( नरक, तिथंच, मनुष्य और देवगति ), तीन लिंग ( स्त्री, पुरुष, और नपुंसकलिंग ), चार कषाय (क्रोध, मान, माया और लोभ ), मिथ्यादर्शन, असिद्धत्व, अज्ञान, छह लेश्याएं ( कृष्ण, नील, कापोत, तेज, पद्म और शुक्ललेश्या), तथा असंयम । मोहनीयकर्मके उपशमसे ( क्योंकि, शेष सात कर्मोंका उपशम नहीं होता है) उत्पन्न होनेवाले भावोंको औपशमिक भाव कहते हैं । इसके दो भेद हैं-१ औपशमिकसम्यक्त्व और २ औपशमिकचारित्र । काँके क्षयसे उत्पन्न होनेवाले भावोंको क्षायिकभाव कहते हैं। इसके नौ भेद हैं - १ क्षायिकसम्यक्त्व, २ क्षायिकचारित्र, ३ क्षायिकज्ञान, ४. क्षायिकदर्शन, ५ क्षायिकदान, ६ क्षायिकलाभ, ७ क्षायिकभोग, ८ क्षायिकउपभोग और ९ क्षायिकवीर्य । कर्मोंके क्षयोपशमसे उत्पन्न होनेवाले भावोंको क्षायोपशमिकभाव कहते हैं । इसके अट्ठारह भेद हैं- चार ज्ञान (मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्ययज्ञान), तीन अज्ञान Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-परिचय (३९) (कुमति, कुश्रुत और विभंगावधि ), तीन दर्शन ( चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शन ), पांच लब्धियां (क्षायोपशमिक दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य ), क्षायोपशमिकसम्यक्त्व, क्षायोपशमिकचारित्र और संयमासंयम । इन पूर्वोक्त चारों भावोंसे विभिन्न, कौके उदय, उपशम आदिकी अपेक्षा न रखते हुए स्वतः उत्पन्न भावोंको परिणामिकभाव कहते हैं । इसके तीन भेद हैं- १ जीवत्व, २ भव्यत्व और ३ अभव्यत्व । इन उपर्युक्त भावोंके अनुगमको भावानुगम कहते हैं । इस अनुयोगद्वारमें भी ओघ और आदेशकी अपेक्षा भावोंका विवेचन किया गया हैं। ओघनिर्देशकी अपेक्षा प्रश्न किया गया है कि 'मिथ्यादृष्टि' यह कौनसा भाव है ? इसके उत्तरमें कहा गया है कि मिथ्यादृष्टि यह औदयिकभाव है, क्योंकि, जीवोंके मिथ्या दृष्टि मिथ्यात्वकर्मके उदयसे उत्पन्न होती है । यहां यह शंका उठाई गई है कि, जब मिथ्यादृष्टि जीवके मिथ्यात्वभावके अतिरिक्त ज्ञान, दर्शन, गति, लिंग, कषाय भव्यत्व आदि और भी भाव होते हैं, तब यहां केवल एक औदयिकभावको ही बतानका क्या कारण है ? इस शंकाके उत्तरमें कहा गया है कि यद्यपि मिथ्यादृष्टि जीवके औदयिकभावके अतिरिक्त अन्य भाव भी होते हैं, किन्तु वे मिथ्यादृष्टित्वके कारण नहीं हैं, एक मिथ्यात्वकर्मका उदय ही मिथ्यादृष्टित्वका कारण होता है, इसलिए मिथ्यादृष्टिको औदयिकभाव कहा गया है। सासादनगुणस्थानमें पारिणामिकभाव बताया गया है, और इसका कारण यह कहा गया हैं कि जिस प्रकार जीवत्व आदि पारिणामिक भावोंके लिए कर्मोंका उदय आदि कारण नहीं है, उसी प्रकार सासादनसम्यक्त्वके लिए दर्शनमोहनीयकर्मका उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम, ये कोई भी कारण नहीं हैं, इसलिए इसे यहां पारिणामिकभाव ही मानना चाहिए । ____ सम्यग्मिथ्यात्वगुणस्थानमें क्षायोपशमिकभाव होता है। यहां शंका उठाई गई है कि प्रतिबंधीकर्मके उदय होनेपर भी जो जीवके स्वाभाविक गुणका अंश पाया जाता है, वह क्षायोपशमिक कहलाता है, किन्तु सम्यग्मिथ्यात्वकर्मके उदय रहते हुए तो सम्यक्त्वगुणकी कणिका भी अवशिष्ट नहीं रहती है, अन्यथा सम्यग्मिथ्यात्वकर्मके सर्वघातीपना नहीं बन सकता है । अतएव सम्यग्मिथ्यात्वभाव क्षायोपशमिक सिद्ध नहीं होता है ? इसके उत्तरमें कहा गया है कि सम्यग्मिध्यात्वकर्मके उदय होनेपर श्रद्धानाश्रद्धानात्मक एक मिश्रभाव उत्पन्न होता है । उसमें जो श्रद्धानांश है, वह सम्यक्त्वगुणका अंश है । उसे सम्यग्मिध्यात्वकर्मका उदय नष्ट नहीं करता है, अतएव सम्यग्मिथ्यात्वभाव क्षायोपशमिक है । असंयतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानमें औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक, ये तीन भाव पाये जाते हैं, क्योंकि, यहांपर दर्शनमोहनीयकर्मका उपशम, क्षय और क्षयोपशम, ये तीनों होते हैं। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) षटूखंडागमकी प्रस्तावना यहां यह बात ध्यानमें रखने योग्य है कि चौथे गुणस्थान तक भावोंका प्ररूपण दर्शनमोहनीय कर्मकी अपेक्षा किया गया है। इसका कारण यह है कि गुणस्थानोंका तारतम्य या विकाश-क्रम मोह और योगके आश्रित है। मोहकर्मके दो भेद हैं- एक दर्शनमोहनीय और दूसरा चारित्रमोहनीय । आत्माके सम्यक्त्वगुणको घातनेवाला दर्शनमोहनीय है जिसके निमित्तसे आत्मा वस्तुस्वभावको या अपने हित-अहितको देखता और जानता हुआ भी श्रद्धान नहीं कर सकता है । चारित्रगुणको घातनेवाला चारित्रमोहनीयकर्म है। यह वह कर्म है जिसके निमित्तसे वस्तुस्वरूपका यथार्थ श्रद्धान करते हुए भी, सन्मार्गको जानते हुए भी, जीव उसपर चल नहीं पाता है। मन, वचन और कायकी चंचलताको योग कहते हैं। इसके निमित्तसे आत्मा सदैव परिस्पन्दनयुक्त रहता है, और कर्माश्रवका कारण भी यही है। प्रारम्भके चार गुणस्थान दर्शनमोहनीय कर्मके उदय, उपशम, क्षयोपशम आदिसे उत्पन्न होते हैं, इसलिए उन गुणस्थानोंमें दर्शनमोहकी अपेक्षासे ( अन्य भावोंके होते हुए भी ) भावोंका निरूपण किया गया है । तथापि चौथे गुणस्थान तक रहनेवाला असंयमभाव चारित्रमोहनीयकर्मके उदयकी अपेक्षासे है, अतः उसे आदयिकभाव ही जानना चाहिए। पांचवेंसे लेकर बारहवें तक आठ गुणस्थानोंका आधार चारित्रमोहनीयकर्म है अर्थात् ये आठों गुणस्थान चारित्रमोहनीयकर्मके क्रमशः, क्षयोपशम, उपशम और क्षयसे होते हैं, अर्थात् पांचवें, छठे और सातवें गुणस्थानमें क्षायोपशमिकभावः आठवें, नवें, दशवें और ग्यारहवें, इन चारों उपशामक गुणस्थानोंमें औपशमिकभाव; तथा क्षपकश्रेणीसम्बन्धी चारों गुणस्थानोंमें, तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानमें क्षायिकभाव कहा गया है। तेरहवें गुणस्थानमें मोहका अमाव हो जानेसे केवल योगकी ही प्रधानता है और इसीलिए इस गुणस्थानका नाम सयोगिकेवली रखा गया है । चौदहवें गुणस्थानमें योगके अभावकी प्रधानता है, अतएव अयोगिकेवली ऐसा नाम सार्थक है। इस प्रकार थोड़े में यह फलितार्थ जानना चाहिए कि विवक्षित गुणस्थानमें संभव अन्य भाव पाये जाते हैं, किन्तु यहां भावप्ररूपणामें केवल उन्हीं भावोंको बताया गया है, जो कि उन गुणस्थानोंके मुख्य आधार हैं । आदेशकी अपेक्षा भी इसी प्रकारसे भावोंका प्रतिपादन किया गया है, जो कि ग्रंथावलोकनसे व प्रस्तावनामें दिये गये नकशोंके सिंहावलोकनसे सहजमें ही जाने जा सकते हैं । ३ अल्पबहुत्वानुगम द्रव्यप्रमाणानुगममें बतलाये गये संख्या प्रमाणके आधार पर गुणस्थानों और मार्गणास्थानोंमें संभव पारस्परिक संख्याकृत हीनता और अधिकताका निर्णय करनेवाला अल्पबहुत्वानुगम नामक अनुयोगद्वार है। यद्यपि व्युत्पन्न पाठक द्रव्यप्रमाणानुगम अनुयोगद्वारके द्वारा ही उक्त अल्पबहुत्वका निर्णय कर सकते हैं, पर आचार्यने विस्ताररुचि शिष्योंके लाभार्थ इस नामका Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-परिचय (११) एक पृथक् ही अनुयोगद्वार बनाया, क्योंकि, संक्षेपरुचि शिष्योंकी जिज्ञासाको तृप्त करना ही शास्त्र-प्रणयनका फल बतलाया गया है। अन्य प्ररूपणाओंके समान यहां भी ओघनिर्देश और आदेशनिर्देशकी अपेक्षा अल्पबहुत्वका निर्णय किया गया है । ओघनिर्देशसे अपूर्वकरण आदि तीन गुणस्थानोंमें उपशामक जीव प्रवेशकी अपेक्षा परस्पर तुल्य हैं, तथा शेष सब गुणस्थानोंके प्रमाणसे अल्प हैं, क्योंकि, इन तीनों ही गुणस्थानोंमें पृथक् पृथक् रूपसे प्रवेश करनेवाले जीव एक दो को आदि लेकर अधिकसे अधिक चौपन तक ही पाये जाते हैं। इतने कम जीव इन तीनों उपशामक गुणस्थानोंको छोड़कर और किसी गुणस्थानमें नहीं पाये जाते हैं। उपशान्तकषायवीतरागछमस्थ जीव भी पूर्वोक्त प्रमाण ही हैं, क्योंकि, उक्त उपशामक जीव ही प्रवेश करते हुए इस ग्यारहवें गुणस्थानमें आते हैं। उपशान्तकषायवीतरागमस्थोंसे अपूर्वकरणादि तीन गुणस्थानवर्ती क्षपक संख्यातगुणित हैं, क्योंकि, उपशामकके एक गुणस्थानमें उत्कर्षसे प्रवेश करनेवाले चौपन जीवोंकी अपेक्षा क्षपकके एक गुणस्थानमें उत्कर्षसे प्रवेश करनेवाले एक सौ आठ जीवोंके दूने प्रमाणस्वरूप संख्यातगुणितता पाई जाती है। क्षीणकषायवीतरागछमस्थ जीव पूर्वोक्त प्रमाण ही हैं, क्योंकि, उक्त क्षपक जीव ही इस बारहवें गुणस्थानमें प्रवेश करते हैं । सयोगिकेवली और अयोगिकेवली जिन प्रवेशकी अपेक्षा दोनों ही परस्पर तुल्य और पूर्वोक्त प्रमाण अर्थात् एक सौ आठ हैं। किन्तु सयोगिकेवली जिन संचयकालकी अपेक्षा प्रविश्यमान जीवोंसे संख्यातगुणित हैं, क्योंकि, पांचसौ अट्ठानवे मात्र जीवोंकी अपेक्षा आठ लाख अठ्ठानवे हजार पांचसौ दो (८९८५०२) संख्याप्रमाण जीवोंके संख्यातगुणितता पाई जाती है। दूसरी बात यह है कि इस तेरहवें गुणस्थानका काल अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्षसे कम पूर्वकोटीवर्ष माना गया है। सयोगिकेवली जिनोंसे उपशम और क्षपकश्रेणीपर नहीं चढ़नेवाले अप्रमत्तसंयत जीव संख्यातगुणित हैं, क्योंकि, अप्रमत्तसंयतोंका प्रमाण दो करोड़ छ्यानवे लाख निन्यानवे हजार एकसौ तीन (२९६९९१०३ ) है । अप्रमत्तसंयतोंसे प्रमत्तसंयत संख्यातगुणित हैं, क्योंकि, उनसे इनका प्रमाण दूना अर्थात् पांच करोड़ तेरानवे लाख अहानवे हजार दोसौ छह (५९३९८२०६) है । प्रमत्तसंयतोंसे संयतासंयत जीव असंख्यातगुणित है, क्योंकि, वे पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । संयतासंयतोंसे सासादनसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं, क्योंकि, संयमासंयमकी अपेक्षा सासादनसम्यक्त्वका पाना बहुत सुलभ है। यहांएर गुणकारका प्रमाण आवलीका असंख्यातवां भाग जानना चाहिए, अर्थात् आवलीके असंख्यातवें भागमें जितने समय होते हैं, उनके द्वारा संयतासंयत जीवोंकी राशिको गुणित करने पर जो प्रमाण आता है, उतने सासादनसम्यग्दृष्टि जीव हैं । सासादनसम्यग्दृष्टियोंसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं, क्योंकि, Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) षट्खंडागमकी प्रस्तावना दूसरे गुणस्थानकी अपेक्षा तीसरे गुणस्थानका काल संख्यातगुणा है। सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंसे असंयतसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं, क्योंकि, तीसरे गुणस्थानको प्राप्त होनेवाली राशिकी अपेक्षा चौथे गुणस्थानको प्राप्त होनेवाली राशि आवलीके असंख्यातवें भागगुणित है। असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंसे मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तगुणित हैं, क्योंकि, मिथ्यादृष्टि जीव अनन्त होते हैं । इस प्रकार यह चौदहों गुणस्थानोंकी अपेक्षा अल्पबहुत्व कहा गया है, जिसका मूल आधार द्रव्यप्रमाण है। यह अल्पबहुत्व गुणस्थानोंमें दो दृष्टियोंसे बताया गया है प्रवेशकी अपेक्षा और संचयकालकी अपेक्षा। जिन गुणस्थानोंमें अन्तरका अभाव है अर्थात् जो गुणस्थान सर्वकाल संभव हैं, उनका अल्पबहुत्व संचयकालकी ही अपेक्षासे कहा गया है। ऐसे गुणस्थान, जैसा कि अन्तरप्ररूपणामें बताया जा चुका है, मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि आदि चार और सयोगिकेवली, ये छह हैं। जिन गुणस्थानोंमें अन्तर पड़ता है, उनमें अल्पबहुत्व प्रवेश और संचयकाल, इन दोनोंकी अपेक्षा बताया गया है। जैसे- अन्तरकाल समाप्त होनेके पश्चात् उपशामक और क्षपक गुणस्थानोंमें कमसे कम एक दो तीनसे लगाकर अधिकसे आधिक ५४ और १०८ तक जीव एक समयमें प्रवेश कर सकते हैं, और निरन्तर आठ समयोंमें प्रवेश करने पर उनके संचयका प्रमाण क्रमशः ३०४ और ६०८ तक एक एक गुणस्थानमें हो जाता है । दूसरे और तीसरे गुणस्थानका प्रवेश और संचय ग्रन्थानुसार जानना चाहिए । ऐसे गुणस्थान चारों उपशामक, चारों क्षपक, अयोगिकेवली सम्यग्मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि हैं । . इसके अतिरिक्त इस अनुयोगद्वारमें मूलसूत्रकारने एक ही गुणस्थानमें सम्यक्त्वकी अपेक्षासे भी अल्पबहुत्व बताया है। जैसे- असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं। उमशमसम्यग्दृष्टियोंसे क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं और क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंसे वेदकसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं । इस हीनाधिकताका कारण उत्तरोत्तर संचयकालकी अधिकता है। संयतासंयत गुणस्थानमें क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं, क्योंकि, देशसंयमको धारण करनेवाले क्षायिकसम्यग्दृष्टि मनुष्योंका होना अत्यन्त दुर्लभ है । दूसरी बात यह है कि तिर्यंचोंमें क्षायिकसम्यक्त्वके साथ देशसंयम नहीं पाया जाता है। इसका कारण यह है कि तियंचोंमें दर्शनमोहनीयकर्मकी क्षपणा नहीं होती है। इसी संयतासंयत गुणस्थानमें क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंसे उपशमसम्यग्दृष्टि संयतासंयत असंख्यातगुणित हैं और उपशमसम्यग्दृष्टियोंसे वेदकसम्यग्दृष्टि संयतासंयत असंख्यातगुणित हैं। प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानमें उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं, उनसे क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं, उनसे वेदकसम्यग्दृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं। इस अल्पबहुत्वका कारण संचयकालकी हीनाधिकता Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान १ मिध्यादृष्टि २ सासादनसम्यग्दृष्टि ३ सम्यग्मिध्यादृष्टि ४ असंयतसम्यग्दृष्टि ५ संयतासंयत ६ प्रमचसंयत ७ अप्रमत्तसंयत ८ अपूर्वकरण ९ अनिवृत्तिकरण १० सूक्ष्मसाम्पराय ११ उपशान्तकषाय १२ क्षीणमोह १३ सयोगिकेवली १४ अयोगिकेवली जघन्य नाना जीवोंकी अपक्षा एक समय J उपशा. क्षपक. उपशा. क्षपक. उपशा. एक समय क्षपक. ******* निरन्तर एक समय निस्तर परयोपमका असंख्या | तव भाग "" उत्कृष्ट निस्तर वर्षपृथक्व छह मास वर्षपृथक्त्व छह मास वर्षपृथक्त्व छह मास वर्ष पृथक्त्व छह मास छह मास गुणस्थानोंकी अपेक्षा जीवोंके अन्तर भाव और अल्पत्वका प्रमाण एक जीवकी अपेक्षा अन्तर पत्योपमका असंख्यातर्वा माग अन्तर्मुहूर्त "" जघन्य ===== | देशोन दो व्यासठ सागरोपम अर्धपुद्गल परिवर्तन "" निरन्तर निरन्तर निरन्तर निरन्तर " कृष् "" "" भाव { औदयिक पारिणामिक क्षायोपशमिक औपशमिक क्षायिक क्षायोपशमिक क्षायोपशमिक उपशा. औपशमिक { क्षपक. उपशा. औपशमिक क्षपक. क्षायिक उपशा. औपशमिक क्षपक. क्षायिक औपशमिक क्षायिक क्षपक { गुणस्थान अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण सूक्ष्मसाम्पराय उपशान्तकषाय अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण सूक्ष्मताम्पराये क्षीणकषाय सयोगिकेवली अयोगिकेवली सयोगिकेवली अप्रमतसंयत प्रमत्तसंयत संयतासंयत सासादनसम्यग्दृष्टि सम्यग्मिथ्यादृष्टि असंयत सम्यग्दृष्टि मिथ्यादृष्टि अल्पबहुत्व (पु. ५ प्रस्ता. पृ. ४३ अ ) सबसे कम पूर्वोक्त प्रमाण संख्यातगुणित प्रमाण 33 "" पूर्वोक्त प्रमाण 33 33 36 पूर्वोक्त प्रमाणसे 33 " संख्यातगुणित असंख्यात गुणित संख्यातगुणित असंख्यातगुणित अनन्तगुणित अपेक्षा प्रवेश और संचय RARR संचय "" ****** Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (पु. ५ प्रस्ता पृ. १३ आ) मार्गणास्थानोंकी अपेक्षा जीवोंके अन्तर, भाव और अल्पबहुत्वका प्रमाण. अल्पबहुरव मार्गणा मार्गणाके अवान्तर भेद एक्जीवकी अपेक्षा अन्तर नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य उत्कृष्ट भाव जघन्य उत्कृष्ट गुणस्थान प्रमाण मिथ्यादृष्टि ओघवत् ओघवत् ओघवत् ओघवत् ओघवत् पंचेन्द्रिय उपासादनसम्य. काम्यग्मिथ्या. मसियतसम्य. सबसे कम संख्यातगुणित असंख्यातगुणित सासादनसम्यग्दृष्टि सम्यग्मिच्यादृष्टि मियादृष्टि पूर्वकोटीपृथक्त्वसे अधिक एक हजार सागरोपम -यतासंयत सबसे कम निरंतर क्षुदभवग्रहण औदयिक गुष गुणस्थानवी ओघवत् ३ पृथिवीकायिक स्थावर । आदि चार वनस्पतिकायिक अनन्तकालात्मक असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन. असंख्यात लोक " मिथ्याटष्टि ओघवत् ओघवत् ओघवत् ओघवत् संख्यातगुणित पशामक अपूर्वरणसे प्रमत्तयत तक यतासंयत सादनसम्य. म्य ग्मिथ्या. सियतसम्य. मेथ्यादृष्टि ओघवत् पूर्वकोटीपृथक्वसे अधिक दा हजार सागरोपम सासादनसम्यग्दष्टि । सम्यग्मिध्यारष्टि ३कायमार्गणा । असंयतादि चार गुणस्थान 1 असंख्यातगुणित (मनुष्यसामान्य) संख्यातगुणित (मनुभ्यपर्याप्त) निरंतर अन्तर्मुहूर्त तथा देशोन दो हजार सागरोपम त्रसकायिक चारों उपशामक ओघवत् ओघवत् औपशमिक पूर्व कोटीपृथक्त्वसे अधिक दो हजार सागरोपम ओघवत् सादनसम्य. म्याग्मिथ्याटि सबसे कम संख्यातगुणित चारों क्षपक सयोगिकेवली अयोगिकेवली क्षायिक असंयतसम्यम्हाधि मेश्यावृष्टि असंख्यातगुणित निरन्तर निरंतर ओघवत् मनोयोगी, स्थान-भेदाभाव अल्पबहुत्वाभाव मिग्याष्टि असंयतसम्यग्दृष्टि सयतासयत प्रमत्तसयत अप्रमत्तसयत सयोगिकेवली Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (पु. ५ प्रस्ता. पृ. १३ इ) मार्गणास्थानोंकी अपेक्षा जीवोंके अन्तर, भाव और अल्पबहुत्वका प्रमाण. अन्तर नाना जीवोंकी मार्गणा मार्गणाके अवान्तर भेद एकजीवकी अपेक्षा अपेक्षा भाव अल्पबटुत्व जघन्य । उत्कृष्ट जघन्य उत्कृष्ट गुणस्थान प्रमाण निरन्तर ओघवत् ओघवत् ओघवत् ओघवत् ओघवत् - मिष्याष्टि नरकगति । असंयतसम्यग्दृष्टि सासादनसम्यग्दृष्टि सम्याग्मिण्याइष्टि एक समय पर उपशामक अपूर्वकरणसे असंयतसम्यग्दृष्टि तक मिथ्याष्टि पूर्वकोटीपृथक्त्वसे अधिक एक हजार सागरोपम असंख्यातगणित निरन्तर तिर्यचगात मिग्याष्टि सासादनादि चार गुणस्थान ओघवत् शुरभवग्रहण औदयिक गुणस्थानभेदाभाव अल्पनहुन्वाभाव अनन्तकालात्मक असंख्यात पुगलपरिवर्तन. असंख्यात लोक मिष्यादृष्टि सासादनसम्यग्दृष्टि सम्यग्मिच्याराष्टि असंयतसम्यग्दष्टि निरन्तर ओघवत् । १ गतिमार्गणा निरन्तर ओघवत् ओघवत् ओघनत् मनुष्यगति ओघवत् पूर्वकोटीपृथक्त्वसे अधिक दा हजार सागरोपम निरन्तर संयतासंयत प्रमसंयत अप्रमत्तसंयत चागे उपशामक चारों क्षपक सयोगिकेवली अयोगिकेवली ओघवत् अन्तर्मुहूर्त " तथा सर्वगुणस्थान पंचेन्द्रियवत् देशोन दो हजार सागरोपम ओघवत् औपशमिक मिप्यारष्टि असंयतसम्यग्दृष्टि | निरन्तर पूर्वकोटीपृथक्त्वसे अधिक दो हजार सागरोपम ओघवत् देवगति सासादनसम्यग्दृष्टि सम्यग्मिण्यारष्टि ओघवत् क्षायिक २ इन्द्रियमार्गणा एकेन्द्रिय निरन्तर निरंतर ओघवत् . विकलेन्द्रिय Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (पु. ५ प्रस्ता पृ. ४३ई) मार्गणास्थानोंकी अपेक्षा जीवोंके अन्तर, भाव और अल्पबहुत्वका प्रमाण मन्तर नाना जीवोंकी अपेक्षा एक जीवकी अपेक्षा मार्गणा मार्गणाके अवान्तर भेद अल्पबहुत्व भाव जघन्य जघन्य उत्कृष्ट गुणस्थान प्रमाण , सासादनसम्यग्दृष्टि सम्यग्मिध्यादृष्टि एक समय पस्योपमका असं ख्यातवा भाग निरन्तर बोषवत् वचनयोगी चारों उपशामक ओघवत् ओघवत् औपशामिक सर्वगुणस्थान ओघवत् चारों क्षपक ओघवत् ओघवत् क्षायिक मनोयोगवत् मनोयोगिवत् मनोयोगिवत् ओघवत् पंचेन्द्रियवत् असंख्यातगुणित अनन्तगणित मिष्याष्टि निरन्तर " ४ योगमार्गणा औदारिककाययोगी | मनो योगिवत् औदारिकमिश्नकाय. मिथ्याष्टेि " सासादन. | ओघवत् | असंयतसम्य. एक समय " सयोगिकेवली वैक्रियिककाययोगी । चारों गुणस्थानवर्ती योगिवत् ओघवत् वर्षपृथक्व सयोगिकेवली असंयतसम्यग्दृष्टि सासादनसम्यग्दृष्टि मिष्यारष्टि सबसे कम संख्यातगणित असंख्यातगुणित अनन्तगणित " सायिक, क्षायोपशम क्षायिक ओघवत् मनोयोगिवत् मनोयोगिवत् मनोयोगिवत् चारों गुणस्थान देवगतिवत् काययोगी वैक्रियिकमिश्रकाय. मिष्याष्टि |एक समय बारह मुहूर्त निरन्तर सासादनसम्यग्दृष्टि असंयतसम्यग्दृष्टि सबसे कम संख्यातयणित S । । सामादनसम्यम्दाधि असंयतसम्यग्दृष्टि | मिण्यारष्टि औदारिक- औदारिकमिश्रवत् मिअवत् औदारिकमित्रवत् असंख्याताणत औदारिकमिश्रवत् आहारककाययोगी , मिथकाययोगी | एक समय प्रमचसयत वर्षपृथक्त्व निरन्तर क्षायोपामिक गुणस्थानभेदाभाव अल्पबहूत्वाभाव Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (पु. ५ प्रस्ता. पृ. १३ उ) मार्गणास्थानोंकी अपेक्षा जीवोंके अन्तर, भाव और अल्पबहुत्वका प्रमाण. मार्गणा| मार्गणाके अवान्तर भेद अन्तर नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य उत्कृष्ट एकजीवकी अपेक्षा जघन्य भाव अल्पबहुत्व उत्कृष्ट गुणस्थान प्रमाण कार्मणकाययोगी मिष्याष्टि सासादनसम्यग्दृष्टि | औदारिक- औदारिकमिश्रवत् | " असंयतसम्यग्दृष्टि | मिथवत् सयोगिकेवली औदारिकमिभवत् | औदारिकमि अवत् ओघवत् सयोगिकेवली सासादनसम्परष्टि असंयतसम्यम्राष्टि मिष्याष्टि सबसे कम असंख्यातगुणित संख्याताणित मिष्याष्टि देशोन ५५ पस्योपम| औदयिक निरन्तर ओघवत् सासादनसम्यग्दृष्टि सम्यग्मिण्यादृष्टि ओघवत् अन्तर्मुहूर्त वल्योपमका अस. भाग अन्तर्मुहूर्त अन्तर्मुहूर्त पल्योपमशतपृथक्त्व | ओघवत् निरन्तर सर्वगुणस्थान पंचेन्द्रियवत् स्त्रीवेदी असंयतसम्यम्हाष्टसे अप्रमतसंयत तक उपशामक अपूर्वकरण | " अनिवृतिकरण औपशमिक एक समय क्षपक अपूर्वकरण " अनिवृत्तिकरण ___ वर्षपृथक्त्व निरन्तर क्षायिक ५ वेदमार्गणा मिष्याष्टि ओघवत् ओघवत् ओघवन् ओघवत् पल्योपमका असं. माग । अन्तर्मुहूर्त औदायिक ओघवत् सासादनसम्यम्दष्टि । सम्यग्मिध्याष्टि सागरोपम सत पृषक्त्व ६ असंयतसम्यग्दृष्टिसे निरन्तर अन्तर्महत पुरुषवेदी । अप्रमतसंयत तक ओघवत् औपशमिक उपक्षामक अपूर्वकरण | ओघवत् । " अनिवृत्तिकरण क्षपक अपूर्वकरण एक समय | , अनिवृत्तिकरण साधिक वर्ष निरन्तर शायिक Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (पु. ५प्रस्ता पृ. ४३ ऊ) मार्गणास्थानोंकी अपेक्षा जीवोंके अन्तर, भाव और अल्पबहुत्वका प्रमाण. अन्तर एक जीवकी अपेक्षा मार्गणा मार्गणाके अवान्तर भेद अल्पबहुत्व नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य | उत्कृष्ट भाव जघन्य उत्कृष्ट गुणस्थान | प्रमाण मिथ्याष्टि निरन्तर देशोन ३३ सागरोपम औदयिक अन्तर्मुहूर्त ओघवत् । सासादनसे अनिवृत्ति-1 ओघवत् । करण उपशामक तक ओघवत् ओघवत् ओघवत् सर्वगुणस्थान ओघवत् क्षपक अपूर्वकरण " अनिवृत्तिकरण एक समय वर्षपृथक्त्व निरन्तर क्षायिक नपुंसकवेदी । । अनिवृत्ति. उप. सूक्ष्मसाम्प. उप. अन्तर्मुहूर्त अन्तर्मुहूर्त ओघवत् अपगतवेदी उपशान्तकषाय निरन्तर , । क्षपक अनिवृत्तिकरणसे अयोगिकेवली तक ओघवत् ओघवत् ओघवत् ओघवत् मनोयोगिवत् मनोयोगिवत् मनोयोगिवत् ओघवत् असंयतसम्यग्दधि पुरुषवेदिवत् योगिवत् कषायी कोधादिचतुष्कषायी मनोमिथ्या. से अनि. लोभक. सूक्ष्मसा. उप. ओघवत् " " क्षप.. उपशामक एक समय ओघवत् निरन्तर मिथ्याष्टि सूक्ष्म. उप. " क्षपक. अनन्तगुणित विशेषाधिक संख्यातगणित ओघवत् ओघवत् ६ कषायमार्गणा वर्षपृथक्त्व निरन्तर अकषायी र चारों गुणस्थान क्षीणकषाय सयोगिकेवली अयोगिवली ओघवत् ओघवत् ओघवत् क्षायिक मत्यज्ञानी मिथ्याष्टि ध्रुताज्ञानी औदयिक अज्ञानी र निरन्तर निरन्तर सासादनसम्यग्दृष्टि मिथ्याष्टि सबसे कम असंख्यातगुणित अनन्तगुणित विभंगशानी" " सासादन. पारिणामिक Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (पु. ५ प्रस्ता. पृ. १३ ए) मार्गणास्थानोंकी अपेक्षा जीवोंके अन्तर, भाव और अल्पबहुत्वका प्रमाण. अन्तर ता जीवोंकी पेक्षा जघन्य उत्कृष्ट एक्जीवकी अपेक्षा मार्गणा मार्गणाके भवान्तर भेद भाव अल्पबहुत्व जघन्य उत्कृष्ट गुणस्थान प्रमाण अन्तर्मुहूर्त असंयतसम्यग्दृष्टि संयतासंयत देशोन पूर्वकोटी साधिक ६६ सागरोपम ओघवत् चारों उपशामक " क्षपक सबसे कम संख्यातगुणित मति-श्रुत-. अवधिज्ञानी प्रमत्तसंवत अप्रमत्मसंयत अप्रमतसंयत प्रमत्तसंयत संयतासंयत असंयतसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणित चारों उपशामक " ७शानमार्गणा । एक सम ओघवतो वर्षपृथक्त्व अवधि. " ओघवत् चारों क्षपक ओघवत् ओघवत् क्षायिक अन्तर्मुहूर्त चारों उपशामक प्रमससंयत अप्रमत्तसंयत चारों उपशामक मनःपर्यय-1 शानी अन्तर्मुहूर्त देशोन पूर्वकोटी निरन्तर सबसे कम संख्यातगुणित क्षपक " क्षायोपशमिक भोपशामक क्षायिक एक सम वर्षपृथक्त्व "क्षपक अप्रमत्तसयत प्रमत्तसंयत " केवल- । सानी। सयोगिकेवली अयोगिकेवली ओघवत् ओघवत् ओघवत् ओघवत् अयोगिकेवली सयोगिकेवली सबसे कम संख्यातगुणित ' प्रमत्तसंयत अप्रमत्तसंयत अन्तर्मुहूर्त अन्तर्मुहूर्त क्षायोपशामिक , उप. अपूर्वकरण ।" अनिवृत्ति. सबसे कम सामायिक. औपशमिक संख्यातयनित उपशामक अपूर्वकरण एक सय वर्षपृथक्त्व " अनिवृतिकरण क्षपक अपूर्वकरण | ओघव ओघवत् , अनिवृतिकरण देशोन पूर्व कोटी ओघवत् ओघवत् क्षपक अपूर्वकरण ...अनिवृत्तिकरण अप्रमत्तसयत प्रमत्तसंयत क्षायिक ८ संयममार्गणा अन्तर्मुहूर्त अन्तर्मुहूर्त क्षायोपशमिक परिहार- शुद्धिसंयमी। प्रमत्तसंयत अप्रमत्तसंयत अप्रमत्तसंयत प्रमत्तसयत सबसे कम संख्यातगणित सूक्ष्मसाम्प- (रायसंयमी । उप. सूक्ष्म. क्षपक" एक सा वर्षपृथक्त्व ओघव ओघवत् निरन्तर ओघवत् ओघवत् ओघवत् क्षायिक सूक्ष्मसा. उपशा. " क्षपक सबसे कम संख्यातगणित Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (पु. ५ प्रस्ता. पृ.४३ ऐ) मार्गणास्थानोंकी अपेक्षा जीवोंके अन्तर, भाव और अल्पबहुत्वका प्रमाण. अन्तर एक जीवकी अपेक्षा अल्पबहुत्व मार्गणा| मार्गणाके अवान्तर भेद नाना जीवोंकी अपेक्षा जधन्य | उत्कृष्ट भाव जघन्य उत्कृष्ट गुणस्थान प्रमाण अकषायवत् अकषायवत् यथाख्यातसंयत अकषायवत् संयतासंयत निरन्तर असंयत मिथ्यादृष्टि " १-३ गुण. |ओघवत् अकषायवत् निरन्तर देशोन ३३ सागरोपम ओघवत् क्षायिक ओघवत् चारों गुणस्थान गुणस्थानभेदाभाव ओघवत् अल्पबहुत्वाभाव अन्तर्महूर्त ओघवत् ओघवत् चारों गुणस्थान ओघवत् औदयिक मिथ्यादृष्टि सासादनसम्यग्दष्टि सम्यन्मिथ्याटष्टि पल्योपमका अस. भाग अन्तर्मुहूर्त देशोन दो हजार सागरोपम ओघवत् असंयतसम्यग्दृष्टिसे अप्रमत्तसंयत तक निरन्तर " सर्वगुणस्थान मनोयोगिवत् चक्षुदर नी। चारों उपशामक औपशमिक ९दर्शनमार्गणा " क्षपक ओघवत् ओघवत् क्षायिक ओघवत् काययोगिवत् दर्शनी मिय्याटष्टिसे क्षीणकषाय तक अवधिदर्शनी अवधि- | अवधिज्ञानिवत् सानिवत् केवलज्ञानि. केवलज्ञानिवत् अवधिमानिवत् केवलज्ञानिवत् अवधिशानिवत् केवलज्ञानिवत् अवधिज्ञानिवत् केवलज्ञानिवत् केवलदर्शनी क्षायिक दोनों गुणस्थान मिथ्याष्टि असंयतसम्यग्दष्टि निरन्तर अन्तर्मुहूर्त क.नी. का. देशोन ३३, १७७ सागरोपम ओघवत् सासादनसम्यग्राष्टि सम्यग्मिथ्यादृष्टि सबसे कम संख्यातगणित कृष्ण,नील, कापात लेश्यावाले ओघवत् सासादनसम्यग्दृष्टि सम्यग्मिध्यादृष्टि ओघवत् पल्योपमका असं. भाग अन्तर्मुहूर्त " असंयतसम्यग्दृष्टि मिथ्याष्टि असंख्यातगुणित अनन्तगुणित मिय्याष्टि असंयतसम्यग्दष्टि निरन्तर तेज. प. साधिक २, १८ सागरोपम अप्रमत्तसंयत प्रमत्तसंयत संयतासंयत सबसे कम संख्यातगणित असंख्यातगणित Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (पु. ५ प्रस्ता . पृ.१३ ओ) मार्गणास्थानोंकी अपेक्षा जीवोंके अन्तर, भाव और अल्पबहुत्वका प्रमाण. अन्तर मार्गणा मार्गणाके अवान्तर भेद नानाजीबोंकी बझेक्षा जपन्य उत्कृष्ट एकजीवकी अपेक्षा जबन्य भाव अल्पबहुत्व उत्कृष्ट गुणस्थान प्रमाण ओघवत् ओघवत् पस्योपमका असंख्या.माग अन्तर्मुहूर्त तेज,पत्र साधिक २,१८ सागरो. ओघवत् सासादनसम्यम्हष्टि सम्यमिथ्याष्टि असंख्यातयुणित संख्यातयणित , सासादनसम्यग्दष्टि 1 सम्बग्मिध्याष्टि तेज, पथ लेश्यावाले संवतासंयत प्रमत्तसंयत अप्रमतसंयत असंख्यातगुणित निरन्तर निरन्तर क्षायोपसमिक असंयतसम्यम्दृष्टि मिथ्यारष्टि मिण्यादि अन्तर्मुहूर्त देशोन ३१ सागरोपम ओघवत् चारों उपशामक असंयतसम्यग्दृष्टि सबसे कम संख्यातयाणित १० लेश्यामार्गणा सासादनसम्यग्दृष्टि सम्याग्मिभ्यारष्टि ओघवत् | श्रोधवत् पस्योपमका असंख्या. भाग सयोगिकेवली अप्रमत्तसंयत प्रमत्तायत " । निरन्तर शल लेश्यावाले निरन्तर क्षायोपशमिक संयतासंयत असंख्यातगणित संयतासंयत प्रमत्तसयत अप्रमत्तसंयत अन्तर्मुहूर्त अन्तर्मुहूर्त सासादनसम्यग्दृष्टि वर्षपूषक्व " অবম্বনি तीन उपशामक उपशान्तकवाय चारों क्षपक और सयोगिकेवली निरन्तर सम्यग्मिय्याष्टि मिष्याष्टि असयतसम्यग्दृष्टि संख्यातगणित असंख्यातगणित संख्यातयणित ओघवत् ओघवत् शायिक ओघवत् ११भव्य मागंणा ओघवत् ___ निरन्तर ओघवत् निरन्तर ओघवत् पारिणामिक सर्वगुणस्थान गुणस्थानभेदाभाव ओघवत् अल्पबहुत्वाभाव अन्तर्मुर्ति असंयतसम्यग्दृष्टि संयतासयत प्रमतर्सयत अप्रमतसंयत देञ्चोन पूर्वकोटी साधिक ३३ सागरोपम सायिक क्षायोपशामिक सबसे कम संख्यातगणित सायिकसम्यग्दृष्टि चारों उपशामक "क्षपक, अयोगि. | सयोगिवली अप्रमत्मसंयत प्रमठसंयत संयतासंपत चारों उपशामक एक समय वर्षपृथक्व औपश्चमिक Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (पु. ५ प्रस्ता. पृ.१३ औ) मार्गणास्थानोंकी अपेक्षा जीवोंके अन्तर, भाव और अल्पबहुत्वका प्रमाण. अन्तर मार्गणा मार्गणाके अवान्तर भेद नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य उत्कृष्ट एकजीवकी अपेक्षा जघन्य भाष अल्पबहुत्व | उत्कृष्ट गुणस्थान प्रमाण चारों क्षपक सयोगिकेवली अयोगिकेवली ओघवत् ओघवत् ओघवत् ओघवत् सायिक असंयतसम्यग्दृष्टि असंख्यातगणित निरन्तर अन्तर्मुहूर्त शायोपशमिक वेदकसम्यग्दृष्टि । असंयतसम्यग्दृष्टि संयतासंयत प्रमत्तसंयत अप्रमत्तसंयत देशोन पूर्वकोटी " ६६सागरोपम साधिक ३३ , अप्रमत्तमयत प्रमत्तसंयत संयतासंयत असंयतसम्यग्दृष्टि सबसे कम संख्यातगणित असंख्यातगुणित १२ सम्यक्त्वमार्गणा असंयतसम्यग्दृष्टि एक समय सात अहोरात्र अन्तर्मुहूर्त औपशमिक चारों उपशामक सबसे कम संयतासंयत चौदह " क्षायोपथमिक अप्रमत्तसंयत संख्यातगणित उपशमसम्यग्दृष्टि प्रमत्तसंयत " प्रमत्तसंयत अप्रमत्तसंयत तीन उपशामक उपशान्तकषाय वर्षपृथक्त्व औपशामिक सयतासंयत असंयतसम्यग्दृष्टि असंख्यातगणित निरन्तर निरन्तर ओघवत् गुणस्थानभेदाभाव अल्पबाहुत्वामाव S सासादनसम्यग्दृष्टि 1 सम्यग्मिध्याष्टि मिय्यादृष्टि पल्योपमका असंख्यातवा भाग निरन्तर औदायिक संझी मिथ्याष्टि ओघवत् सासादनसे उपशान्त-| पुरुषकषाय तक वेदिवत् ओघवत् पुरुषवेदिवत् ओघवत् पुरुषवेदिवत् ओघवत् पुरुषवेदिवत् औदयिक ओघवत् सर्वगुणस्थान मनोयोगिवत् । १३ संक्षिमार्गणा चारों क्षपक ओघवत् ओघवत् ओघवत् जोधकत् झायिक असंही निरन्तर निरन्तर औदयिक गुणस्थानमेदाभाव अल्पबहुत्वाभाव Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (पु. ५ प्रस्ता . पृ. १३ क) मार्गणास्थानोंकी अपेक्षा जीवोंके अन्तर, भाव और अल्पबहुत्वका प्रमाण. अन्तर मार्गणा एक जीवकी अपेक्षा मार्गणाके अवान्तर भेद अल्पबहुत्व नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य माव जघन्य उत्कृष्ट गुरुस्थान प्रमाण मिथ्याष्टि ओघवत् ओघवत् सबसे कम संख्यातगुणित ओघवत् पस्योपमका असं. भाग अन्तर्मुहूर्त चारों ऐपशामक " क्षपक सयोनिकवली ओधवत् असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणी औदयिक ओघवत् सासादनसम्यग्दृष्टि 1 सम्यग्मिण्यारष्टि " अप्रपत्तसंयत असंयतसम्यग्दृष्टिसे अप्रमत्तसंयत तक निरन्तर प्रमतसंयत संयनासंयत असंख्यातगुणित १४ आहारमार्गणा चारों उपशामक औपशमिक । चारों क्षपक । सयोगिकेवली ओघवत् ओघवत् क्षायिक सम्यग्दृष्टि असंयम सामथ्यादृष्टि सम्यग्दृष्टि पादृष्टि संख्यातयुणित असंख्यातयाणित अनन्तगुणित निरन्तर मिथ्याष्टि सासादनसम्यग्दृष्टि असंयतसम्यग्दृष्टि सयोगिकेवली (समुद्धातगत) अयोगिकेवली निरन्तर एक समय पल्योपमका असं. भाग मासपृथक्त्व वर्षपृथक्व औदयिक पारिणामिक ओघवत् शायिक सागवली सासाद "गिकेवली सिम्यग्दृष्टि "यादृष्टि अनाहारक सबसे कम संख्यातगणित असंख्यातगुणित " असंयनसम्यग्दधि छह मास अनन्तगुणित Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय - परिचय (४३) ही है । इसी प्रकारका सम्यक्त्वसम्बन्धी अल्पबहुत्व अपूर्वकरण आदि तीन उपशामक गुणस्थानों में जानना चाहिए। यहां ध्यान रखनेकी बात यह है कि इन गुणस्थानों में उपशमसम्यक्त्व और शायिक सम्यक्त्व, ये दो ही सम्यक्त्व होते हैं । यहाँ वेदकसम्यक्त्व नहीं पाया जाता, क्योंकि, वेदकसम्यक्त्वके साथ उपशमश्रेणी के आरोहणका अभाव है । अपूर्वकरण आदि तीन गुणस्थानों में उपशमसम्यक्त्वा जीव सबसे कम हैं, उनसे उन्हीं गुणस्थानवर्ती क्षायिकसम्यक्त्वी जीव संख्यातगुणित हैं । आगेके गुणस्थानोंमें सम्यक्त्वसम्बन्धी अल्पबहुत्व नहीं है, क्योंकि, वहां सभी जीवोंके एकमात्र क्षायिकसम्यक्त्व ही पाया जाता है । इसी प्रकार प्रारंभके तीन गुणस्थानों में भी यह अल्पबहुत्व नहीं है, क्योंकि, उनमें सम्यग्दर्शन होता ही नहीं है । जिस प्रकार यह ओघकी अपेक्षा अल्पबहुत्व कहा है, उसी प्रकार आदेशकी अपेक्षा भी मार्गणास्थान में अल्पबहुत्व जानना चाहिए । भिन्न भिन्न मार्गणाओंमें जो खास विशेषता है, वह प्रथके स्वाध्यायसे ही हृदयंगम की जा सकेगी । किन्तु स्थूलरीतिका अल्पबहुत्व द्रव्यप्रमाणानुगम (भाग ३) पृष्ठ ३८ से ४२ तक अंकसंदृष्टि के साथ बताया गया है, जो कि वहांसे जाना जा सकता है। भेद केवल इतना ही है कि वहां वह क्रम बहुत्वसे अल्पकी ओर रक्खा गया है । इन प्ररूपणाओंका मथितार्थ साथमें लगाये गये नकशोंसे सुस्पष्ट हो जाता है । इस प्रकार अल्पबहुत्वप्ररूपणाकी समाप्तिके साथ जीवस्थाननामक प्रथम खंडकी आठों प्ररूपणाएं समाप्त हो जाती हैं । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ विषय-सूची (अन्तरानुगम) क्रम नं. विषय पृष्ठ नं. | क्रम नं. विषय पृष्ठ नं. सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका विषयकी उत्थानिका १-४ नाना जीवोंकी अपेक्षा सोदा१ धवलाकारका मंगलाचरण हरण जघन्य अन्तर-प्रतिपादन __ और प्रतिज्ञा उक्त जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर२ अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश निरूपण भेद-कथन १२ सासादनसम्यग्दृष्टि और ३ नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका काल और भाव, इन छह भेद एक जीवकी अपेक्षा सोदारूप अन्तरका स्वरूप-निरूपण हरण जघन्य अन्तर-निरूपण ४ कौनसे अन्तरसे प्रयोजन है, तथा तदन्तर्गत अनेक शंकायह बताकर अन्तरके एकार्थ ओका समाधान वाचक नाम १३ उपर्युक्त जीवोंका सोदाहरण ५ अन्तरानुगमका स्वरूप तथा उत्कृष्ट अन्तर ११-१३ उसके द्विविध-निर्देशका सयु १४ असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकरक्तिक निरूपण अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक नाना और एक जीवकी ओघसे अन्तरानुगमनिर्देश ४.२२ अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट ६ मिथ्यादृष्टि जीवोंका नाना अन्तरोंका सोदाहरण निरूपण . १३-१७ जीवोंकी अपेक्षा अन्तर-निरूपण, तथा सूत्र-पठित ‘णत्थि १५ चारों उपशामक गुणस्थानोंका अंतरं, णिरंतरं' इन दोनों नाना और एक जीवकी पदोंकी सार्थकता-प्रतिपादन अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट ७ मिथ्यादृष्टि जीवोंका एक अन्तरोंका सोदाहरण निरूपण १७-२० जीवकी अपेक्षा जघन्य १६ चारों क्षपक और अयोगिअन्तरका सोदाहरण निरूपण केवलीका नाना और एक ८ सम्यक्त्व छूटनेके पश्चात् जीवकी अपेक्षा जघन्य और होनेवाला अन्तिम मिथ्यात्व उत्कृष्ट अन्तर २०.२१ पहलेका मिथ्यात्व नहीं हो १७ सयोगिकवलीके नाना और सकता, इस शंकाका समाधान एक जीवकी अपेक्षा अन्तरके ९ मिथ्यादृष्टि जीवोंका एक अभावका प्रतिपादन २१ जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर का सोदाहरण निरूपण .. १० सासादनसम्यग्दृष्टि और | आदेशसे अन्तरानुगमनिर्देश २२-१७९ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तरानुगम-विषय-सूची (४५) क्रम नं. विषय पृष्ठ नं. | क्रम नं. विषय पृष्ठ नं. १ गतिमार्गणा २२.३१ तिर्यंचोंकासोपपत्तिक अन्तर(नरकगति ) निरूपण ३३-३७ १८ नारकियोंमें मिथ्यादृष्टि और २५ पंचेन्द्रियतिर्यंच, पंचेन्द्रियअसंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके तिर्यंचपर्याप्त और पंचेन्द्रियनाना और एक जीवकी तिर्यंचयोनिमती मिथ्यादृष्टिअपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट योका दोनों अपेक्षाओंसे जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तरोंका सोदाहरण निरूपण २२-२३ ३७-३८ नारकियोंमें सासादनसम्य २६ तीनों प्रकारके तिर्यंचों में ग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि सासादनसम्यग्दृष्टि और जीवोंका दोनों अपेक्षाओंसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरोंका दोनों अपेक्षाओंसे जघन्य सदृष्टान्त निरूपण २४-२६ और उत्कृष्ट अन्तर २० प्रथम पृथिवीसे लेकर २७ तीनों प्रकारके असंयतसम्यसातवीं पृथिवी तकके मिथ्या ग्दृष्टि तिर्यंचोंका दोनों अपेदृष्टि और असंयससम्यग्दृष्टि क्षाओंसे जघन्य और उत्कृष्ट नारकियोंके दोनों अपेक्षा अन्तर ओंसे जघन्य और उत्कृष्ट २८ तीनों प्रकारके संयतासंयत अन्तरोंका दृष्टान्तपूर्वक प्रति तिर्यंचोंका दोनों अपेक्षाओंसे पादन २७-२८ जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर ४३-४५ २१ सातों पृथिवियोंके सासादन २९ पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्या __ पर्याप्तकोंका दोनों अपेक्षादृष्टि नारकियोंका नाना और ओंसे जघन्य और उत्कृष्ट एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर ४५.४६ और उत्कृष्ट अन्तर २९-३१ (तिर्यंचगति) ३१-४६ ( मनुष्यगति) ४६-५७ ३० मनुष्य, मनुष्यपर्याप्तक और २२ तिथंच मिथ्यादृष्टियोंका नाना मनुष्यनी मिथ्यादृष्टि जीवोंका और एक जीवकी अपेक्षा अन्तर ४६-४७ जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर ३१-३२ २३ तिर्यंच और मनुष्य जन्मके ३१ भोगभूमिज मनुष्योंमें जन्म कितने समय पश्चात् सम्यक्त्व लेनेके पश्चात् सात सप्ताहके और संयमासंयम आदिको द्वारा प्राप्त होनेवाली योग्य ताका वर्णन प्राप्त कर सकते है, इस विषयमें दक्षिण और उत्तर ३२ उक्त तीनों प्रकारके सासाप्रतिपत्तिके अनुसार दो दनसम्यग्दृष्टि और सभ्यप्रकारके उपदेशोंका निरूपण ३२ / ग्मिथ्यादृष्टि मनुष्योंका अन्तर ४८.५० २४ सासादनसम्यग्दृष्टियोंसे लेकर ३३ तीनों प्रकारके असंयतसम्यसंयतासंयत गुणस्थान तकके ग्दृष्टि मनुष्योंका अन्तर ५०-५१ ४७ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६ ) क्रम नं. विषय ३४ संयतासंयतसे लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक तीनों प्रकारके मनुष्योंका अन्तर ३५ चारों उपशामक मनुष्यत्रिकोंका अन्तर ३६ चारों क्षपक, अयोगिकेवली और सयोगिकेवली मनुष्यत्रिकोंका अन्तर ३७ लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्योंका अन्तर ४२ आनतकल्पसे लेकर नवग्रैवेयक- विमानवासी देवोंमें मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यदृष्टियों का अन्तर ४३ उक्त कल्पों के सासादन सम्यदृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि देवोंका अन्तर ४४ नव अनुदिश और पांच अनुत्तरविमानवासी अन्तराभावका प्रतिपादन देवोंमें २ इन्द्रियमार्गणा ४५ एकेन्द्रिय जीवोंका अन्तर ४६ देव मिथ्यादृष्टिको एकेन्द्रि षटूखंडागमकी प्रस्तावना पृष्ठ नं. क्रम नं. ( देवगति ) ३८ मिध्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंका अन्तर ३९ सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि देवोंका अन्तर ५९-६२ ४० भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी तथा सौधर्म-ईशानकल्पसे लेकर शतार - सहस्रारकल्प तकके मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंका अन्तर ४१ उक्त देवोंमें सासादनसम्यदृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका अन्तर ५३-५५ ५५-५६ ५६-५७ ५७.६४ ५७-५८ ६१-६२ ६२ ६२-६३ ૬૪ 29 ६५-७७ ६५-६६ विषय योंमें ले जाकर, असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन तक उनमें परिभ्रमण कराके पीछे देवोंमें उत्पन्न कराकर देवोंका अन्तर क्यों नहीं कहा ? इस शंकाका समाधान ४७ एकेन्द्रिय जीवको त्रसकायिक जीवोंमें उत्पन्न कराकर अन्तर कहने से मार्गणाका विनाश क्यों नहीं होगा ? इस शंकाका समाधान ४८ बादर एकेन्द्रिय जीवोंका अन्तर ४९ बादर एकेन्द्रियपर्याप्त और बादर एकेन्द्रियअपर्याप्तकोंका अन्तर ५० सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त और सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकोंका अन्तर ५१ द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और उन्हींके पर्याप्तक तथा लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंका अन्तर ५२ पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रियपर्याप्तक मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि तथा सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका अन्तर ५३ असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक दोनों प्रकारके पंचेन्द्रिय जीवोंका अन्तर ५४ पंचेन्द्रियपर्याप्तकोंके सागरोपमशतपृथक्त्वप्रमाण अन्तर कहते समय ' देशोन ' पद क्यों नहीं कहा ? विवक्षित जीवको संक्षी, सम्मूच्छिम पृष्ठ नं. ६५ ६६ ६६-६७ ६७ ६७-६८ ६८-६९ ६९-७१ ७१-७५ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय पंचेन्द्रियों में उत्पन्न कराकर और सम्यक्त्वको ग्रहण कराकर मिथ्यात्वके द्वारा अन्तरको प्राप्त क्यों नहीं कराया ? इत्यादि शंकाओंका क्रम नं. समाधान ५५ पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रियपर्याप्तकों में चारों उपशामकोंका अन्तर ५६ उक्त जीवोंमें चारों क्षपक, सयोगिकेवली और अयोगिकेवलीका अन्तर ५७ पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका अन्तर १३ काय मार्गणा ५८ पृथिवीकायिक आदि चार स्थावर कायिकों का अन्तर ५९ वनस्पतिकायिक बादर, सूक्ष्म और पर्याप्तक तथा अपर्याप्तक जीवोंका अन्तर ६० त्रसकायिक और त्रसकायिकपर्याप्तकों में मिथ्यादृष्टिसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक जीवोंका पृथक् पृथक् अन्तर-निरूपण ६१ त्रसकायिक लब्ध्यपर्यातकोंका अन्तर अन्तरानुगम-विषय-सूची पृष्ठ नं. ७३ ७५-७६ ७७ " 612-261 ७८ ७९-८० ८०-८६ ८६-८७ ४ योगमार्गणा ८७-९४ ६२ पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी और औदारिककाययोगी मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत और सयोगिकेवली जिनका अन्तर ६३ उक्त योगवाले सासादन ८७ क्रम नं. विषय सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका अन्तर ६४ उक्त योगवाले चारों उपशामक और चारों क्षपकोंका अन्तर ६५ एक योगके परिणमन - काल से गुणस्थानका काल संख्यातगुणा है, यह कैसे जाना ? इस शंकाका समाधान ६६ औदारिकमिश्रकाययोगी मिथ्यादृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और सयोगिकेवलीका पृथक् पृथक् अन्तर- प्रतिपादन ६७ वैक्रियिककाययोगी चारों गुणस्थानवर्ती जीवोंका अन्तर ६८ वैक्रियिकमिश्रकाययोगी मि थ्यादृष्टि, सासादनसम्यदृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका अन्तर और ६९ आहारककाययोगी आहारक मिश्रकाययोगी प्रमत्तसंयतों का अन्तर ७० कार्मणकाययोगी मिथ्यादृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और सयोगिकेवलीका अन्तर ५ वेदमार्गणा ७१ स्त्रीवेदी मिथ्यादृष्टि जीवोंका अन्तर ७२ स्त्रीवेदी सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका अन्तर ७३ असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तकके स्त्रीवेदी जीवोंका अन्तर ( ४७ ) पृष्ठ नं. ८८ ८८-८९ ८९ ८९-९१ ९१ ९१-९३ ९३ ९४-१११ ९४ ९५-९६ ९७-९८ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१ (४८) षट्खंडागमकी प्रस्तावना क्रम नं. विषय पृष्ठ नं. | क्रम नं. विषय पृष्ठ नं. ७४ स्त्रीवेदी अपूर्वकरण और ८६ आभिनिवोधिकज्ञानी, श्रुतअनिवृत्तिकरण उपशामकका ज्ञानी और अवधिज्ञानी असंयतअन्तर ९९-१०० ____ सम्यग्दृष्टि जीवोंका अन्तर ११४-११६ ७५ स्त्रीवेदी अपूर्वकरण और ८७ उक्त तीनों शानवाले संयताअनिवृत्तिकरण क्षपकका _ संयतोंका तदन्तर्गत शंकाअन्तर समाधानपूर्वक अंतर-निरूपण११६:११९ ७६ पुरुषवेदी मिथ्यादृष्टियोंका ८८ संशी, सम्मूच्छिम पर्याप्तक अन्तर ७७ पुरुषवेदी सासादनसम्य जीवोंमें अवधिज्ञान और उपग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि शमसम्यक्त्वका अभाव है, योंका अन्तर यह कैसे जाना? इस शंकाका ७८ असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर तथा इसीसे सम्बन्धित अन्य अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तकके अनेको शंकाओंका सप्रमाण पुरुषवेदी जीवोंका अन्तर १०२-१०४ समाधान ७९ पुरुषवेदी अपूर्वकरण और ८९ तीनों शानवाले प्रमत्त और अनिवृत्तिकरण उपशामक अप्रमत्तसंयतोका अन्तर तथा तथा क्षपकोंका पृथक् पृथक् तदन्तर्गत विशेषताओंका अन्तर-प्रतिपादन - १०४-१०६ प्रतिपादन ८० नपुंसकवेदी मिथ्यादृष्टि ९. तीनों शानवाले चारों उपजीवोंका अन्तर शामक और चारों क्षपकोंका ८१ सासादनसम्यग्दृष्टिसे लेकर पृथक पृथक् अन्तर-निरूपण १२२-१२४ अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक ९१ प्रमत्तसंयतसे लेकर क्षीणपृथक् पृथक् नपुंसकवेदी कषाय गुणस्थान तक मन:जीवोंका अन्तर १०७-१०९ ।। पर्ययज्ञानी जीवोंका पृथक् ८२ अपगतवेदी जीवोंका अन्तर १०९-१११ पृथक् अन्तर-निरूपण १२४-१२७ ६ कषायमार्गणा १११-११३ ९२ केवलज्ञानी जीवोंका अन्तर १२७ ८३ मिथ्याष्टिसे लेकर सूक्ष्म ८ संयममार्गणा १२८-१३५ साम्पराय गुणस्थान तक चारों कषायवाले जीवोंका ९३ प्रमत्तसंयतसे लेकर अयोगितदन्तर्गत शंका-समाधान केवली गुणस्थान तक समस्त पूर्वक अन्तर-निरूपण १११-११२ संयतोका पृथक् पृथक् अन्तर ८४ अकषायी जीवोंका अन्तर ११३ / ९४ सामायिक और छेदोप- . ७ ज्ञानमार्गणा ११४-१२७ स्थापनासंयमीप्रमत्तसंयतादि ८५ मत्यज्ञानी, श्रुतज्ञानी और चारों गुणस्थानवी जीवोंका विभंगशानी मिथ्यादृष्टि तथा पृथक् पृथक् अन्तर १२८-१३१ सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंका ९५ परिहारशुद्धिसंयमी प्रमत्त पृथक् पृथक् अन्तर ११४ | और अप्रमत्तसंयतोंका अन्तर १३१ ११९-१२२ १०६ । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम नं. ९६ सूक्ष्मसाम्परायसंयमी उपशामक और क्षपक सूक्ष्मसाम्परायिक संयतका अन्तर ९७ यथाख्यातविहारसंयमी चारों गुणस्थानोंका अन्तर ९८ संयतासंयतका अन्तर ९९ असंयमी चारों गुणस्थानोंका पृथक् पृथक् अन्तर ९ दर्शनमार्गणा विषय मिथ्यादृष्टि १०० चक्षुदर्शन जीवोंका अन्तर १०१ चक्षुदर्शनी सासादनसम्यदृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका अन्तर १०२ असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तकके चक्षुदर्शनी जीवोंका अन्तर १३३-१३५ १३५-१४३ १०३ चक्षुदर्शनी चारों उपशामकोंका अन्तर १०४ चक्षुदर्शनी चारों क्षपकोंका अन्तर १०५ अचक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी और केवलदर्शनी जीवोंका पृथक् पृथक् अन्तर अन्तरानुगम-विषय-सूची पृष्ठ नं. १३६-१३७ १३२ १०६ कृष्ण, नील और कापोतलेश्यावाले मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका "" १३३ १३८-१४१ अन्तर १०७ उक्त तीनों अशुभ लेश्यावाले सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका अन्तर १०८ मिथ्यादृष्टि से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक तेजो १३५ १४३ १० लेश्यामार्गणा १४३-१५४ १४१ १४२ १४३-१४५ १४५-१४६ विषय क्रम नं. लेश्या और पद्मलेश्यावाले जीवोंका पृथक् पृथक् अंतर १४६-१४९ १०९ मिथ्यादृष्टिसे लेकर सयोगिकेवली गुणस्थान तक शुक्ललेश्यावाले जीवोंका पृथक् पृथक् अन्तर ११ भव्यमार्गणा ११० समस्त गुणस्थानवर्ती भव्यजीवोंका अन्तर १११ अभव्य जीवोंका अन्तर ( ४९ ) पृष्ठ नं. १४९- १५४ १५४ 39 99 १२ सम्यक्त्वमार्गणा १५५-१७१ १५५-१५६ ११२ असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक सम्यग्दृष्टि जीवोंका पृथक् पृथक् अन्तर ११३ क्षायिकसम्यक्त्वी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका अन्तर १५६ - १५७ ११४ क्षायिकसम्यक्त्वी संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयतका अन्तर ११५ क्षायिकसम्यक्त्वी चारों उपशामकोंका अन्तर ११६ क्षायिकसम्यक्त्वी चारों क्षपक, सयोगिकेवली और अयोगिकेवलीका अन्तर ११७ असंयतसम्यग्दृष्टि आदि चार गुणस्थानवर्ती वेदकसम्यग्दष्टि जीवोंका पृथक् पृथक् अन्तर ११८ असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर उपशान्तकषाय गुणस्थान तक उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंका पृथक् पृथक् अन्तर १६५-१७० ११९ सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और मिथ्या १५७-१६० १६०-१६१ १६१-१६२ १६२-१६५ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०) कम नं. 'विषय दृष्टि जीवोंका पृथक् पृथक् अन्तर १७०-१७१ १३ संज्ञिमार्गणा १७१-१७२ १२० मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय तक संज्ञी जीवोंका अन्तर १२१ असंशी जीवोंका अन्तर १४ आहारमार्गणा १२२ आहारक मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका अंतर १७३ १७४ १२३ असंयतसम्यग्दृष्टि आदि चार गुणस्थानवाले आहारक जीवोंका अन्तर १७४-१७७ १२४ आहारक चारों उपशामकोंका अन्तर १२५ आहारक चारों क्षपक और सयोगिकेवलीका अन्तर १७८ १२६ अनाहारक जीवोंका अन्तर १७८-१७९ भावानुगम १ विषयकी उत्थानिका १ धवलाकारका और प्रतिज्ञा षट्खंडागमकी प्रस्तावना पृष्ठ नं. क्रम नं. १७२ १७३-१७९ १७७-१७८ १८३-१९३ मंगलाचरण २ भावानुगमकी अपेक्षा निर्देशभेद-निरूपण ३ नामभाव, स्थापनाभाव, द्रव्यभाव और भावभाव, इन चार प्रकारके भावोंका सभेदस्वरूप-निरूपण ४ प्रकृतमें नोआगमभावभाव से प्रयोजनका उल्लेख ५ नाम और स्थापनामें कोई १८३ "" १८३-१८५ १८५ विषय विशेषता न होनेसे तीन ही निक्षेप कहना चाहिए ? इस शंकाका सयुक्तिक और सप्र माण समाधान ६ औदयिकादि पांच भावोंमेंसे प्रकृतमें किस भावसे प्रयोजन है ? भावोंके अनेक भेद हैं, फिर यहां पांच ही भेद क्यों कहे ? इन शंकाओंका समाधान ७ निर्देश, स्वामित्व आदि छह अनुयोगद्वा स्वरूप-निरूपण भावका ११ औपशमिकचारित्रके भेदका विवरण १८५-१८६ १८६-१८७ ८ औदयिकभावके स्थान और विकल्पकी अपेक्षा भेद तथा स्थानका स्वरूप-निरूपण ९ असिद्धत्व किसे कहते हैं ? जाति, संस्थान, संहनन आदि औदयिकभावका किस भाव में अन्तर्भाव होता है ? इन शंकाओंका समाधान १० औपशमिकभावके स्थान और विकल्पकी अपेक्षा भेद-निरू पण सात १२ क्षायिकभावके स्थान और पृष्ठ नं. १६ भंगों के निकालनेके लिए करणसूत्र १८७-१८८ १८९ १९० विकल्पकी अपेक्षा भेद १९०-१९१ 95 १३ क्षायोपशमिकभावके स्थान और विकल्पकी अपेक्षा भेद १९१-१९२ १४ पारिणामिकभावके भेद १५ सान्निपातिकभावका स्वरूप और भंग निरूपण 23 १९३ 37 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम नं. विषय २ ओघसे भावानुगमनिर्देश १९४-२०६ १७ मिथ्यादृष्टि जीवके भावका निरूपण १८ मिध्यादृष्टि जीवके अन्य भी ज्ञान-दर्शनादिक भाव पाये जाते हैं, फिर उन्हें क्यों नहीं कहा ? इस शंकाको उठाते हुए गुणस्थानों में संभव भावोंके संयोगी भंगों का निरूपण तथा उक्त शंकाका समाधान १९ सासादनसम्यग्दृष्टि जीवके भावका निरूपण २० दूसरे निमित्तसे उत्पन्न हुए भावको पारिणामिक माना जा सकता है, या नहीं, इस शंकाका सयुक्तिक समाधान २१ सत्त्व, प्रमेयत्व आदिक भाव कारणके विना उत्पन्न होनेवाले पाये जाते हैं, फिर यह कैसे कहा कि कारणके विना उत्पन्न होनेवाले परिणामका अभाव है ? इस शंकाका समाधान भावानुगम-विषय-सूची पृष्ठ नं. १९४-१९६ २२ सासादनसम्यग्दृष्टिपना भी सम्यक्त्व और चारित्र, इन दोनोंके विरोधी अनन्तानुबन्धी कषायके उदयके विना नहीं होता है, इसलिए उसे औदयिक क्यों नहीं मानते हैं ? इस शंकाका समाधान २३ सासादनसम्यक्त्वको छोड़ कर अन्य गुणस्थानसम्बन्धी भावोंमें पारिणामिकपनेका व्यवहार क्यों नहीं किया १९४ १९६ "" १९७ क्रम नं. विषय जाता ? इस शंकाका तथा इसी प्रकारकी अन्य शंकाओंका समाधान २४ सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवके भावका अनेक शंकाओं के समाधानपूर्वक विशद निरू पण प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत जीवोंके भावोंका तदन्तर्गत शंकासमाधानपूर्वक निरूपण २८ दर्शनमोहनीयकर्मके उपशम, क्षय और क्षयोपशमकी अपेक्षा संयतासंयतोंके औपशमिकादि भाव क्यों नहीं बतलाये ? इस शंकाका समाधान २९ चारों उपशामकोंके भावोंका निरूपण ३० मोहनीयकर्मके १९८-१९९ २५ असंयतसम्यग्दृष्टि जीवके भावोंका अनेक शंका-समाधानोंके साथ विशद विवेचन १९९-२०० २६ असंयत सम्यग्दृष्टिका असंयतत्व औदयिकभावकी अपेक्षा है, इस बातका सूत्रकारद्वारा स्पष्टीकरण २७ संयतासंयत, ( ५१ ) पृष्ठ नं.. उपशमसे रहित अपूर्वकरण आदि तीन गुणस्थानों में औपशमिकभाव कैसे संभव है ? इस शंकाका अनेक प्रकारोंसे सयुक्तिक समाधान १९७ ३१ चारों क्षपक, सयोगिकेवली और अयोगिकेवलीके भावोंका तदन्तर्गत अनेकों शंकाओंका समाधान करते हुए विशद विवेचन २०१ २०१-२०४ २०४-२०५ २०३ २०५-२०६ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२ ) क्रम नं. विषय ३ आदेश से भावानुगमनिर्देश २०६-२३८ १ गतिमार्गणा २०६-२१६ ( नरकगति ) २०६-२१२ ३२ मारकी मिध्यादृष्टि जीवोंके भाव सम्यक्त्व ३३ सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिके सर्वघाती स्पर्धकोंके उदयक्षयसे, उन्हींके सदावस्थारूप उपशमसे, तथा प्रकृतिके देशघाती स्पर्धकोंके उदयक्षयसे, उन्हींके सदवस्थारूप उपशमसे अथवा अनुदयोपशमले और मिथ्यात्वप्रकृतिके सर्वघाती स्पर्धकों के उदयसे मिथ्यादृष्टिभाव उत्पन्न होता है, इसलिए उसे क्षायोपशमिक क्यों न माना जाय ? इस शंकाका सयुक्तिक समाधान ३४ नारकी सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंके भाव ३५ जब कि अनन्तानुबन्धी कषायके उदयसे ही जीव सासादनसम्यग्दृष्टि होता है, तब उसे औदयिकभाव क्यों न कहा जाय ? इस शंकाका षट्खंडागमकी प्रस्तावना पृष्ठ नं. क्रम नं. विषय है, इस बातका स्पष्ट निरूपण ३९ प्रथम पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक नारकी जीवोंके भावोंका निरूपण २०६-२०७ समाधान ३६ नारकी सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके भावका तदन्तर्गत शंका-समाधानपूर्वक निरूपण ३७ नारकी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके भाव ३८ असंयतसम्यग्दृष्टि मारकयोंका असंयतत्व औदयिक २०६ २०७ २०८ २०८-२०१ २०९-२१२ ( तिर्यंचगति) २१२-२१३ ४० सामान्य तिर्यंच, पंचेन्द्रियतिर्यंच, पंचेन्द्रियतिर्यचपर्याप्त और पंचेन्द्रियतिर्यच योनिमती जीवोंके सर्व गुणस्थानसम्बन्धी भावोंका निरूपण तथा योनिमती तिर्यचोंमें क्षायिकभाव न पाये जाने का स्पष्टीकरण पृष्ठ नं. २०९ ४४ भवनवासी, व्यन्तर ज्योतिषी देव और देवियोंके तथा सौधर्म-ईशानकल्पवासी देवियोंके भावोंका निरूपण ४५ सौधर्म-ईशानकल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक देवोंके भावोंका विवरण ( मनुष्यगति ) ४१ सामान्यमनुष्य, पर्याप्तमनुष्य और मनुष्यनियोंके सर्वगुणस्थानसम्बन्धी भावोंका निरूपण ४२ लब्ध्यपर्याप्त मनुष्य और तिर्यचोंके भावोंका सूत्रकारद्वारा सूत्रित न होनेका कारण ( देवगति ) २१४-२१६ ४३ चारों गुणस्थानवर्ती देवोंके भाव 99 २१३ "" "" २१४ २१४-२१५ २१५-२१६ २ इन्द्रियमार्गणा २१६-२१७ ४६ मिथ्यादृष्टि से लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक पंचेन्द्रियपर्यातकोंके भावका Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ नं. भावानुगम-विषय-सूची (५३) क्रम नं. विषय पृष्ठ नं. । क्रम नं. विषय निरूपण, तथा एकेन्द्रिय, सम्यग्दृष्टि और सयोगिकेवली विकलेन्द्रिय और लब्ध्य जीवोंके भाव २२१ पर्याप्तक पंचेन्द्रिय जीवोंके ५ वेदमार्गणा ___२२१-२२२ भाव न कहनेका कारण २१६-२१७ | ५५ स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी और नपुं. ३ कायमार्गणा २१७-२१८ | सकवेदी जीवोंके भाव ४७ प्रसकायिक और त्रसकायिक ५६ अपगतवेदी जीवोंके भाव २२२ पर्याप्तक जीवोंके सर्व गुण ५७ अपगतवेदी किसे कहा जाय? स्थानसम्बन्धीभावोंका प्रति इस शंकाका सयुक्तिक पादन, तथा तत्सम्बन्धी समाधान शंका-समाधान ६ कषायमार्गणा २२३ ४ योगमार्गणा २१८-२२१ । ५८ चतुष्कषायी जीवोंके भाव ४८ पांचों मनोयोगी, पांचों ५९ अकषायी जीवोंके भाव वचनयोगी, काययोगी और ६० कषाय क्या वस्तु है, अकषाऔदारिककाययोगी जीवोंके यता किस प्रकार घटित होती भाव २१८ है ? इस शंकाका सयुक्तिक ४९ औदारिकमिश्रकाययोगी मि समाधान थ्यादृष्टि, सासादनसम्य ७ ज्ञानमार्गणा २२४-२२६ ग्दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और ६१ मत्यज्ञानी, श्रुताशानी और सयोगिकेवली जीवोंके विभंगज्ञानी जीवोंके भाव २२४-२२५ भावोंका पृथक् पृथक् निरूपण २१८-२१९ ६२ मिथ्यादृष्टि जीवोंके ज्ञानको ५० औदारिकमिश्रकाययोगी असं- ____ अज्ञानपना कैसे है ? ज्ञानका यतसम्यग्दृष्टि जीवोंमें औप कार्य क्या है ? इत्यादि अनेकों शमिकभाव न बतलानेका शंकाओंका समाधान कारण २१९ । ६३ मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय ५१ चारों गुणस्थानवर्ती वैक्रियिक और केवलज्ञानी जीवोंके काययोगी जीवोंके भाव २१९-२२० भावोका पृथक्पृथक् निरूपण२२५-२२६ ५२ वैक्रियिकमिश्रकाययोगी मि ६४ 'सयोग' यह कौनसा भाव थ्याष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि है ? योगको कार्मणशरीरसे और असंयतसम्यग्दृष्टि उत्पन्न होनेवाला क्यों न जीवोंके भाव २२० माना जाय ? इन शंकाओंका ५३ आहारककाययोगी और सयुक्तिक समाधान आहारकमिश्रकाययोगीजीवों ८ संयममार्गणा २२७-२२८ के भाव , | ६५ प्रमत्तसंयतसे लेकर अयोगि५४ कार्मणकाययोगी मिथ्यादृष्टि, केवली गुणस्थान तक संयमी सासादनसम्यग्दृष्टि, असंयत जीवोंके भाव २२७ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४) षट्खंडागमकी प्रस्तावना क्रम नं. विषयः पृष्ठ नं. | क्रम नं. विषय पृष्ठ नं. ६६ सामायिक, छेदोपस्थापना, ७७ उक्त गुणस्थानवर्ती क्षायिकपरिहारविशुद्धि और सूक्ष्म सम्यग्दृष्टि जीवोंके भावोंका साम्परायिक संयमी जीवोंके और उनके सम्यक्त्वका भावोंका पृथक् पृथक् निरूपण २२७ | तदन्तर्गत शंका-समाधान६७ यथाख्यातसंयमी, संयमा पूर्वक निरूपण २३१-२३४ संयमी और असंयमी जीवोंके ७८ असंयतसम्यग्दृष्टि आदि चार भावोंका पृथक् पृथक् निरूपण २२८ ! गुणस्थानवी वेदकसम्य९ दर्शनमार्गणा २२८-२२९ ग्दृष्टि जीवोंके भावोंका और सम्यक्त्वका निरूपण ६८ चक्षुदर्शनी और अचक्षुदर्शनी २३४-२३५ जीवोंके भाव २२८ ७९ असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर ६९ अवधिदर्शनी और केवल उपशांतकषाय गुणस्थान तक उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंके दर्शनी जीवोंके भाव . २२९ भावोंका और सम्यक्त्वका १० लेश्यामार्गणा २२९-२३० निरूपण २३५-२३६ ७० कृष्ण, नील और कापोत ८० सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यलेश्यावाले आदिके चार ग्मिथ्यादृष्टि और मिथ्यादृष्टि जीवोंके भाव गुणस्थानवी जीवोंके भाव २२९ २३६-२३७ ७१ तेजोलेश्या और पद्मलेश्या १३ संज्ञिमार्गणा . २३७ वाले आदिके सात गुणस्थान मिथ्यादृष्टिसे लेकर क्षीणवर्ती जीवोंके भाव कषाय गुणस्थान तक संक्षी ७२ शुक्लले श्यावाले आदिके तेरह जीवोंके भाव गुणस्थानवी जीवोंके भाव २३० ८२ असंही जीवोंके भाव ११ भव्यमार्गणा २३०-२३१ १४ आहारमार्गणा ७३ सर्वगुणस्थानवर्ती भव्य . ८३ मिथ्याष्टिसे लेकर सयोगिजीवोंके भाव २३० । केवल। गुणस्थान तक आहा७४ अभव्य जीवोंके भाव रक जीवोंके भाव ७५ अभव्यमार्गणामें गुणस्थानके ८४ अनाहारक जीवोंके भाव भावको न कह कर मार्गणास्थान-संबंधीभावके कहनेका अल्पबहुत्वानुगम क्या अभिप्राय है ? इस शंकाका समाधान २३०-२३१ विषयकी उत्थानिका २४१-३५० १२ सम्यक्त्वमार्गणा २३१-२३७ १ धवलाकारका मंगलाचरण ७६ असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर और प्रतिज्ञा . २४१ अयोगिकेवली गुणस्थान तक अल्पबहुत्वानुगमकी अपेक्षा सम्यग्दृष्टि जीवोंके भाव २३१ । निर्देश-भेद-निरूपण १ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अल्पबहुत्वानुगम-विषय-सूची क्रम नं. विषय पृष्ठ नं. 1 क्रम नं. विषय पृष्ठ नं. २ नाम-अल्पबहुत्व, स्थापना- १५ सासादनसम्यग्दृष्टियोंका गुअल्पबहुत्व, द्रव्य-अल्पबहुत्व णकार बतलाते हुए गुणऔर भाव-अल्पबहुत्व, इन कारके तीन प्रकारोंका वर्णन . २४९ चार प्रकारके अल्पबहुत्वोंका १६ सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसभेद-स्वरूप-निरूपण २४१-२४२ । सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि ३ प्रकृतमें सचित्त द्रव्याल्प जीवोंका सयुक्तिक एवं सप्र__ बहुत्वसे प्रयोजनका उल्लेख २४२ । माण अल्पबहुत्व-निरूपण २५०-२५३ ४ निर्देश, स्वामित्व, आदि १७ असंयतसम्यग्दृष्टि गुणछह अनुयोगद्वारोंसे अल्पबहु स्थानमें सम्यक्त्वसम्बन्धी त्वका स्वरूप निरूपण २४२-२४३ अल्पबहुत्वका अनेक शंका५ ओघ और आदेशका स्वरूप २४३ ओके समाधानपूर्वक निरूपण २५३-२५६ १८ संयतासंयत गुणस्थानमें ओघसे अल्पबहुत्वानुगमनिर्देश२४३-२६१ सम्यक्त्वसम्बन्धी अल्पबहु६ अपूर्वकरणादि तीन गुणस्थान त्वका तदन्तर्गत अनेक शंकावर्ती उपशामक जीवोंका ओके समाधानपूर्वक सयुप्रवेशकी अपेक्षा अल्पबहुत्व २४३-२४४ क्तिक निरूपण ७ अपूर्वकरण आदिके कालोंमें १९ प्रमत्त और अप्रमत्तसंयत परस्पर हीनाधिकता होनेसे सम्यक्त्वसंचय विसदृश क्यों नहीं · सम्बन्धी अल्पबहुत्व । २५८ होता ? इस शंकाका . २० उपशामक और क्षपकों में सयुक्तिक समाधान २४४ सम्यक्त्वसम्बन्धी अल्पबहुत्व ८ उपशान्तकषायवीतरागछद्म- . तथा तदन्तर्गत अनेक शंकास्थोंका अल्पबहुत्व २४५ ओंका समाधान २५८-२६१ ९ क्षपक जीवोंका अल्पबहुत्व २४५-२४६ १० सयोगिकेवली और अयोगि आदेशसे अल्पबहुत्वानुगमकेवलीका प्रवेशकी अपेक्षा निर्देश २६१.३५० अल्पबहुत्व २४६ ११ सयोगिकेवलीका संचय १ गतिमार्गणा २६१.२८७ ___कालकी अपेक्षा अल्पबहुत्व २४७ (नरकगति) २६१-२६७ १२ प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत २१ सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यजीवोंका अल्पबहुत्व २५७-२४८ ग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्य१३ संयतासंयतोंका अल्पबहुत्व ग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि और तत्संबंधी शंकाका नारकी जीवोंके अल्पबहुत्वका समाधान २४८ क्रमशः सयुक्तिक निरूपण २६१-२६३ १४ सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंका २२ असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें अल्पबहुत्व और तदन्तर्गत नारकियोंका सम्यक्त्वसंबंधी अनेक शंकाओंका समाधान २४८-२४९ । अल्पबहुत्व २६३-२६४ गुणस्थानमें Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्खंडागमकी प्रस्तावना क्रम नं. विषय पृष्ठ नं. । क्रम नं. विषय पृष्ठ नं. २३ पृथक्त्व शब्दका अर्थ वैपुल्य- ! अल्पबहुत्वका पृथक् पृथक् वाची कैसे लिया ? इस निरूपण शंकाका समाधान २६४ (देवगति) २८०-२८७ २४ सातों पृथिवियोंके नारकी जीवोंका पृथक् पृथक् अल्प | ३१ चारों गुणस्थानवर्ती देवोंका ___अल्पबहुत्व बहुत्व २८० २६५-२६७ २५ अन्तर्मुहूर्तका अर्थ असंख्यात ३२ असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें आवलियां लेनेसे उसका अन्त देवोंका सम्यक्त्वसम्बन्धी मुहूर्तपना विरोधको क्यों अल्पबहुत्व २८०-२८१ नहीं प्राप्त होगा ? इस ३३ भवनवासी, व्यन्तर,ज्योतिषी, शंकाका समाधान २६६ । देव और देवियोंका, तथा (तियंचगति) २६८-२७३ | | सौधर्म-ईशानकल्पवासिनी २६ सामान्यतिर्यंच, पंचेन्द्रिय देवियोंका अल्पबहुत्व २८१-२८२ तिर्यंच, पंचेन्द्रियपर्याप्त और ३४ सौधर्म-ईशानकल्पसे लेकर पंचेन्द्रिययोनिमती तिर्योंके सर्वार्थसिद्धि तक विमानतदन्तर्गत अनेक शंकाओंके वासी देवोंके चारों गुणसमाधानपूर्वक अल्पबहुत्वका स्थानसम्बन्धी तथा सम्यक्त्वनिरूपण २६८-२७० सम्बन्धी अल्पबहुत्वका २७ असंयतसम्यग्दृष्टि और संय तदन्तर्गत शंका-समाधान पूर्वक पृथक् पृथक् निरूपण २८२-२८६ तासंयत गुणस्थानमें उक्त ३५ सर्वार्थसिद्धिमें असंख्यात चारों प्रकारके तिर्यंचोंका देव क्यों नहीं होते ? वर्षसम्यक्त्वसंबंधी अल्पबहुत्व २७०.२७३ पृथक्त्वके अन्तरवाले आन२८ असंयत तियंचोंमें क्षायिक तादि कल्पवासी देवोंमें सम्यग्दृष्टियोंसे वेदकसम्य ग्दृष्टि जीव क्यों असंख्यात संख्यात आवलियोंसे भाजित पल्योपमप्रमाण जीव क्यों गुणित हैं, इस बातका सयुक्तिक निरूपण नहीं होते? इत्यादि अनेक २९ संयतासंयत तिर्यंचोंमें क्षायिक शंकाओंका सयुक्तिक और सम्यग्दृष्टियोंका अल्पबहुत्व सप्रमाण समाधान २८६-२८७ क्यों नहीं कहा? इस शंकाका __ २ इन्द्रियमार्गणा २८८-२८९ समाधान | ३६ पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय(मनुष्यगति) २७३-२८० पर्याप्त जीवोंका अल्पबहुत्व ३० सामान्य मनुष्य, पर्याप्त ३७ इन्द्रियमार्गणामें स्वस्थानमनुष्य और मनुष्यनियोंके अल्पबहुत्व और सर्वपरस्थानतदन्तर्गत शंका समाधान अल्पबहुत्व क्यों नहीं कहे ? पूर्वक सर्व गुणस्थानसंबंधी इस शंकाका समाधान २८९ २७२ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९९-३०० अल्पबदुत्वानुगम-विषय-सूची (५७) क्रम नं. विषय पृष्ठ नं. | क्रम नं. . विषय पृष्ठ नं. ३ कायमार्गणा २८९-२९० का सम्यक्त्वसम्बन्धी अल्प३८ त्रसकायिक और त्रसकायिक बहुत्व पर्याप्त जीवोंका अल्पबहुत्व , ४८ पल्योपमके असंख्यातवें भाग४ योगमार्गणा २९०-३०० प्रमाण क्षायिकसम्यग्दृष्टि योमेसे असंख्यात जीव विग्रह ३९ पांचों मनोयोगी, पांचों क्यों नहीं करते? इस शंकाका . वचनयोगी, काययोगी और समाधान औदारिककाययोगी जीवोंके संभव गुणस्थानसम्बन्धी ___ ५ वेदमार्गणा ३००-३११ और सम्यक्त्वसम्बन्धी अल्प ४९ प्रारम्भके नव गुणस्थानवर्ती बहुत्वका पृथक् पृथक् निरूपण२९०-२९४ स्त्रीवेदी जीवोंका पृथक् पृथक् ४० औदारिकमिश्रकाययोगी स अल्पबहुत्व ३००-३०२ योगिकेवली, असंयतसम्य ५० असंयतसम्यग्दृष्टि, संयताग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि संयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तऔर मिथ्यादृष्टि जीवोंका संयत, अपूर्वकरण और अनिअल्पबहुत्व २२४-२९५ वृत्तिकरण गुणस्थानवर्ती ४१ वैक्रियिककाययोगी जीवोंका स्त्रीवेदियोका पृथक् पृथक अल्पबहुत्व २९५-२९६ सम्यक्त्वसम्बन्धी अल्पबहुत्व ३०२-३०४ ४२ वैक्रियिकमिश्रकाययोगी सा ५१ प्रारम्भके नव गुणस्थानवर्ती सादनसम्यग्दृष्टि, असंयत पुरुषवेदी जीवोंका पृथक् सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि पृथक् अल्पबहुत्व ३०४-३०६ जीवोंका अल्पबहुत्व ५२ असंयतसम्यग्दृष्टि आदि छह ४३ वैक्रियिकमिश्रकाययोगी असं गुणस्थानवर्ती पुरुषवेदी यतसम्यग्दृष्टि जीवोंका सम्य जीवोंका सम्यक्त्वसम्बन्धी क्त्वसम्बन्धी अल्पबहुत्व पृथक् पृथक् अल्पबहुत्व ३०६-३०७ ४४ आहारककाययोगी और ५३ आदिके नव गुणस्थानवर्ती आहारकमिश्रकाययोगी जी नपुंसकवेदी जीवोंका पृथक् वोंका अल्पबहुत्व . २९७२९८ पृथक् अल्पबहुत्व ३०७-३०८ ४५ उपशमसम्यक्त्वके साथ ५४ असंयतसम्यग्दृष्टि आदि छह आहारकऋद्धि क्यों नहीं गुणस्थानवर्ती नपुंसकवेदी होती? इस शंकाका समाधान २९८ जीवोंका सम्यक्त्वसम्बन्धी ४६ कार्मणकाययोगी सयोगिके अल्पबहुत्व ___३०९-३१० वली, सासादनसम्यग्दृष्टि, ५५ अपगतवेदी जीवोंका अल्पअसंयतसम्यग्दृष्टि और मि बहुत्व थ्यादृष्टि जीवोंका अल्पबहुत्व २९८-२९९ ! ६ कषायमार्गणा ३१२-३१६ ४७ असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्था ५६ चारों कषायवाले जीवोंका नमें कार्मणकाययोगी जीवों अल्पबहुत्व ३१२-३१४ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठनं. (५८) षटखंडागमकी प्रस्तावना क्रम नं. विषय पृष्ठ नं. | क्रम नं. विषय ५७ अपूर्वकरण और अनिवृत्ति- | ६५ केवलज्ञानी सयोगिकेवली करण, इन दो उपशामक और अयोगिकवली जिनोंका गुणस्थानोंमें प्रवेश करने अल्पबहुत्व ३२१-३२२ वाले जीवोंसे संख्यातगुणित ८ संयममार्गणा ३२२-३३० प्रमाणवाले इन्हीं दो गुणस्थानोंमें प्रवेश करनेवाले ६६ सामान्य संयतोंका प्रमत्तक्षपकोंकी अपेक्षा सूक्ष्मसाम्प __ संयतसे लेकर अयोगिकेवली रायिक उपशामक जीव गुणस्थान तक अल्पबहुत्व ३२२-३२४ विशेष अधिक कैसे हो ६७ उक्त जीवोंका दसवें गुणसकते हैं ? इस शंकाका स्थान तक सम्यक्त्वसम्बन्धी समाधान ३१२ अल्पबहुत्व ३२४-३२५ ५८ असंयतसम्यग्दृष्टि आदि सात ६८ प्रमत्तसंयतादि चार गुण स्थानवर्ती सामायिक और गुणस्थानवर्ती कषायी जीवों छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयतोंका का सम्यक्त्वसम्बन्धी पृथक __ अल्पबहुत्व ३२५-३२६ पृथक् अल्पबहुत्व ३१५-३१६ | ६९ उक्त जीवोंका सम्यक्त्व५९ अकषायी जीवोंका अल्पबहुत्व ३१६ सम्बन्धी अल्पबहुत्व ३२६ ७ ज्ञानमार्गणा ३१६.३२२ ७० परिहारशुद्धिसंयमी प्रमत्त __ और अप्रमत्तसंयत गुणस्थान६० मत्यज्ञानी, श्रुताशानी और विभंगज्ञानी जीवोंका अल्प वर्ती जीवोंका अल्पबहुत्व ७१ उक्त जीवोंका सम्यक्त्वबहुत्व सम्बन्धी अल्पबहुत्व ६१ आभिनिवोधिकज्ञानी, श्रुत ७२ परिहारशुद्धिसंयतोंके उपशानी और अवधिज्ञानी जीवों शमसम्यक्त्व नहीं होता है, का असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर इस सिद्धान्तका स्पष्टीकरण क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ ७३ सूक्ष्मसांपरायिकसंयमी उपगुणस्थान तक पृथक् पृथक् शामक और क्षपक जीवोंका अल्पबहुत्व ३१७-३१९ अल्पबहुत्व ६२ उक्त जीवोंका दसवें गुण ७४ यथाख्यातविहारशुद्धिसंयस्थान तक सम्यक्त्वसम्बन्धी तोंका अल्पबहुत्व अल्पबहुत्व ३१९ । ७५ संयतासंयतोंका अल्पबहुत्व ६३ प्रमत्तसंयतसे लेकर क्षीण नहीं, है इस बातका स्पष्टीकरण कषाय गुणस्थान तक मन: ७६ संयतासंयत और असंयतपर्ययज्ञानी जीवोंका अल्प सम्यग्दृष्टि जीवोंका सम्यक्त्वबहुत्व सम्बन्धी अल्पबहुत्व ३२८-३३० ६४ उक्त जीवोंका दसवें गुण ९ दर्शनमार्गणा स्थान तक सम्यक्त्वसम्बन्धी ७७ चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, अल्पबहुत्व ३२१ | अवधिदर्शनी और केवल ३२० Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अल्पबहुत्वानुगम-विषय-सूची क्रम नं. विषय पृष्ठ नं. क्रम नं. विषय पृष्ठ नं. दर्शनी जीवोंका पृथक् पृथक् गुणस्थानोंमें एक ही पद अल्पबहुत्व ३२१ होनेके कारण सम्यक्त्व१० लेश्यामार्गणा ३३२-३३९ सम्बन्धी अल्पबहुत्व नहीं है, इस बातका स्पष्टीकरण ३४२ ७८ आदिके चार गुणस्थानवर्ती , असंयतसम्यग्दृष्टि आदि चार कृष्ण, नील और कापोत गुणस्थानवर्ती वेदकसम्यलेश्यावाले जीवोंका अल्प ग्दृष्टि जीवोंका अल्पबहुत्व ३४२-३४३ बहुत्व ३३२ उक्त जीवोंके सम्यक्त्व७९ असंयतसम्यग्दृष्टि गुण सम्बन्धी अल्पबहुत्वके अभास्थानमें उक्त जीवोंका सम्य वका निरूपण ३४३ क्त्वसम्बन्धी अल्पबहुत्व ३३२-३३३ असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर ८० आदिके सात गुणस्थानवर्ती उपशांतकषाय गुणस्थान तक तेज और पद्मलेश्यावाले उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंका जीवोंका पृथक् पृथक् अल्प अल्पबहुत्व ३४४ बहुत्व ___३३४-३३५ ९२ उक्त जीवोंके सम्यक्त्वसंबंधी ८१ असंयतसम्यग्दृष्टि आदि चार अल्पबहुत्वके अभावका स्पष्टीगुणस्थानों में उक्त जीवोंका करण सम्यक्त्वसम्बन्धी अल्पबहुत्व ९३ सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्य८२ मिथ्यादृष्टि आदि तेरह गुण ग्मिथ्यादृष्टि और मिथ्यादृष्टि स्थानवर्ती शुक्ललेश्यावाले जीवोंके अल्पबहुत्वका अभावजीवोंका अल्पबहुत्व ३६-३३८ प्रदर्शन ८३ असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्था १३ संज्ञिमार्गणा ३४५-३४६ नसे लेकर दसवे गुणस्थान ९४ आदिके बारह गुणस्थानवर्ती तक शुक्ललेश्यावाले जीवोंका संज्ञी जीवोंका अल्पबहुत्व सम्यक्त्वसम्बन्धी अल्पबहुत्व३३८-३३९ १५ असंही जीवोंके अल्पबहुत्वका ११ भव्यमार्गणा ३३९-३४० अभाव-निरूपण ८४ सर्वगुणस्थानवर्ती भव्य १४ आहारमार्गणा ३४६-३५० जीवोंका अल्पबहुत्व ३३९ ९६ आदिके तेरह गुस्थानवर्ती ८५ अभव्य जीवोंका अल्पबहुत्व ३४० आहारक जीवोंका अल्पबहुत्व३४६-३४७ १२ सम्यक्त्वमार्गणा ३४०-३४५ ९७ चौथेसे दसवें गुणस्थान तक ८६ सामान्य सम्यग्दृष्टि जीवोंका आहारक जीवोंका सम्यक्त्वअल्पबहुत्व ३४० सम्बन्धी अल्पबहुत्व ८७ चौथे गुणस्थानसे लेकर चौद ९८ अनाहारक जीवोंका अल्पहवे गुणस्थान तक क्षायिक बहुत्व ३४८-३४९ सम्यग्दृष्टि जीवोंका अल्प ९९ असंयतसम्यग्दृष्टि गुण ३४०-३४२ स्थानमें अनाहारक जीवोंका ८८ असंयतसम्यग्दृष्टि आदि चार सम्यक्त्वसम्बन्धी अल्पबहुत्व ३४९-३५० Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ २८ "" ४१ ७० ७२ 39 ७४ "" ८५ १२१ १४२ "" १४७ १६३ "" पंक्ति "" शुद्धिपत्र अशुद्ध ५ णामपत्तिडणं णाम पत्तिड्डी • २० जिनको ऋद्धि प्राप्त नहीं हुई है, जिनको ऋद्धि प्राप्त हुई है, . २९ विष्कंभ और आयामसे.. तिर्यग्लोक है, 19905 35 ( पुस्तक ४ ) २८ तिर्यंच पर्याप्त मिथ्यादृष्टि १२ तिर्यंच पर्याप्त जीव १३ 39 १३ मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य और मिथ्यादृष्टि मनुष्य योनिमती मिथ्यादृष्टि मनुष्य २ उसहो अजीवो १३ यह अजीब है, ६ प्रमाण से २२ २२ खंडित करके उसका ...... राशि १३ देखा जाता है, ( न कि यथार्थतः ).... किन्तु क्षीणमोही उतनी १६ किन्तु वे उस गुणस्थानमें १७ न कि वे ........सासादनसम्यदृष्टियों में उत्पन्न घनलोक, ऊर्ध्वलोक और अधोलोक, इन तीनों लोकोंके असंख्यातवें भाग क्षेत्र में विष्कंभ और आयामसे एक राजुप्रमाण ही तिर्यग्लोक है, तिर्यंच मिथ्यादृष्टि तिर्यच जीव शुद्ध "" खंडित करके जो लब्ध आवे उसके असंख्यातवें अथवा संख्यातवें भाग राशि देखा जाता है । इस प्रकारका स्वस्थानपद अयोगिकेवली में नहीं पाया जाता, क्योंकि, क्षीणमोही उसो अजिओ यह अजित है, प्रमाणसे किन्तु वे एकेन्द्रियों में न कि वे अर्थात् सासादनसम्यग्दृष्टि जीव एकेन्द्रियों में उत्पन्न Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ शुद्धिपत्र पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध शुद्ध १८२ २३ चाहिए। चाहिए। (किन्तु सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें मरण नहीं होता है।) १९१ १० और अधस्तन चार पृथिवियों- . और सातवीं पृथिवीसम्बन्धी अधस्तन चार सम्बन्धी चार ___ ७ मारणंतिय (-उववाद-) मारणंतियपरिणदेहि परिणदेहि २२ मारणान्तिकसमुद्धात और उप- मारणान्तिकसमुद्धात-पदपरिणत पादपदपरिणत ___१३ वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंका असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका २७३. २१ नारकियोंसे............सासादन- नारकियोंमेंसे तिर्यंचों और मनुष्योंमें मारसम्यग्दृष्टि णान्तिकसमुद्धात करनेवाले स्त्री और पुरुष वेदी सासादनसम्यग्दृष्टि ३६९ १५ लब्ध्यपर्याप्तकोंमें अपर्याप्तकोंमें १६ लब्ध्यपर्याप्त अपर्याप्त १७ अर्थात् उनमें पुन: वापिस अर्थात् अपने विवक्षित गुणस्थानको छोड़कर आनेस, नवीन गुणस्थानमें जानेसे, ४१७ ३ -परियट्टेसुप्पण्णेसु -परियझेसु पुण्णेसु १५ शेष रहने पर पूर्ण होने पर २२ उदयमें आये हैं उपार्जित किये हैं ४४५ ५ -णिरयगदीएण -णिरयगदीए ण ६ मणुसगदीएण मणुसगदीए ण ७ तिरिक्खगईएण तिरिक्खगईए ण ८ देवगदीएण देवगदीए ण १९, २०, २२, २४ उत्पन्न नहीं उत्पन्न ४६४ २४ अन्तर्मुहूर्तसे........काल अन्तर्मुहूर्तसे अधिक अढाई सागरोपम काल ६५ अढ़ाई सागरोपमकालके आदि विवक्षित पर्यायके आदि ४६८ १२ वर्धमान शंका-वर्धमान १७ शंका-तेज तेज १७७ १७ सादि-सान्त सादि ४१० ४२२ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) षट्खंडागमकी प्रस्तावना पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध शुद्ध (पुस्तक ५) २ १६ अन्तररूप........आगमको अन्तरके प्रतिपादक द्रव्यरूप आगमको , २८ वर्तमानमें इस समय वर्तमानमें अन्य पदार्थके ७ ९ सासाण सासण१४ कालमें........रहने पर कालके स्थानमें अन्तर्मुहूर्तके द्वारा १२ ८ गमिदसम्मत्त गहिदसम्मत्त १४ १७ असंयतादि प्रमत्तादि ४ वासपुते वासपुधत्ते १९ १. वेदगसम्मत्तमुवणमिय वेदगसम्मत्तमुवसामिय ., २७ प्राप्त कर उपशामित कर अर्थात् द्वितीयोपशमसम्य क्त्वको प्राप्त कर ५६ २२ यह तो राशियोंका यह तो इस राशिका ५९ २१,२२ उत्कृष्ट अन्तर जघन्य अन्तर . ७१ १९ आयुके उसके ७७ २६ गतिकी इन्द्रियकी ९७ ७ देवेसु देवीसु २२ देवोंमें देवियोंमें २१ अन्तरसे अधिक अन्तरका अन्तरका ९ उक्स्क सेण उक्कस्सेण १९ तीनों ज्ञानवाले मति-श्रुतज्ञानवाले १२१ १ अंतरभंतरादो अंतरभंतरा दो १५ अप्रमत्तसंयतका काल । अप्रमत्तसंयतके दो काल २४ तीनों ज्ञानवाले मति-श्रुतज्ञानवाले १५७ ५ -पमत्तसंजदाण -पमत्तसंजद-अप्पमत्तसंजदाण१८ और प्रमत्तसंयत प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत १५८ १६ (श्रेण्यारोहण करता हुआ) सिद्ध सिद्ध २२ ( गुणस्थान और आयुके ) आयुके कालक्षयसे कालक्षयसे Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ १७० १८६ २ धम्मभावो । १९८ २८-२९ अवथवरूप.... अंश २०४ १० संखेज्जाणंत २२४ १९ दयाधर्मसे.... हुए २१ क्योंकि, आप्त.... यथार्थ "" २२५ २२६ २३८ 39 २४६ ३६४ २५५ २७५ २८६ पंक्ति अशुद्ध २१ जाना जाता है कि........ अन्तररहित है । ९ सजोगिकेवली २८ पारिणामिकभावकी १६ कार्मणकाय योगियों में १७ कार्मणकाययोगी ८ पुधसन्तारंभो ५ -मतो १६ प्रमाणराशिसे... भाजित २८ सासादनसम्यग्दृष्टि जीव. संख्यातगुणित शुद्धिपत्र २९ असंख्यातवें (६३) शुद्ध जाना जाता है कि उपशमश्रेणी के समारोहण योग्य कालसे शेष उपशमसम्यक्त्वका काल अल्प है । धम्मभावो य । अवयवीरूप सम्यक्त्वगुणका तो निराकरण रहता है, किन्तु सम्यक्त्वगुणका अवयव रूप अंश असंखेजाणंत दयाधर्मको जाननेवाले ज्ञानियोंमें वर्तमान क्योंकि, दयाधर्मके ज्ञाताओंमें भी आप्त, आगम और पदार्थके श्रद्धानसे रहित जीवके यथार्थ सजोगिकेवली ( अजोगिकेवली ) भव्यत्वभावकी कार्मणका योगियों से अनाहारक पुधसुत्तारंभो -मेत्तो फलराशिसे इच्छाराशिको गुणित करके प्रमाणराशिसे भाजित सासादनसम्यग्दृष्टि जीव संयतासंयत मनुष्यनियोंसे संख्यातगुणित संख्यातवें Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतराणुगमो Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि-भगवंत-पुप्फदंत-भूदबलि-पणीदो - छक्खंडागमो सिरि-वीरसेणाइरिय-विरइय-धवला-टीका-समण्णिदो तस्स पढमखंडे जीवट्ठाणे अंतराणुगमो अंताइमज्झहीणं दसद्धसयचावदीहिरं पढमजिणं । वोच्छं णमिऊणंतरमणंतरुत्तुंगसण्हमइदुग्गेज्झं ॥ अंतराणुगमेण दुविहो णिदेसो, ओघेण आदेसेण यं ॥१॥ णाम-ट्ठवणा-दव्व-खेत्त-काल-भावभेदेण छबिहमंतरं । तत्थ णामंतरसदो बज्झत्थे आदि, मध्य और अन्तसे रहित अतएव अनन्तर, अर्थात् अनन्तज्ञानस्वरूप, और दशशतके आधे अर्थात् पांच सौ धनुष उंचाईवाले अतएव उत्तुंग, तथापि ज्ञान की अपेक्षा सूक्ष्म, अतएव अतिदुर्गाय, ऐसे प्रथम जिन श्री वृषभनाथको नमस्कार करके अन्तरानुयोगद्वारको कहता हूं, जिसमें अनन्तर अर्थात् अन्तर रहित गुणस्थानों व मार्गणास्थानोंका भी वर्णन है, तथा जिसमें उत्तुंग अर्थात् दीर्घकालात्मक व सूक्ष्म अर्थात् अत्यल्पकालात्मक अन्तरोंका भी कथन है, अतएव जो मतिज्ञान द्वारा दुर्ग्राह्य है। अन्तरानुगमसे निर्देश दो प्रकारका है, ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश ॥१॥ नाम,स्थापना, द्रव्य,क्षेत्र, काल और भावके भेदसे अन्तर छह प्रकारका होता है। उनमें बाह्य अर्थोको छोड़कर अपने आपमें अर्थात् स्ववाचकतामें प्रवृत्त होनेवाला 'अन्तर' १ विवक्षितस्य गुणस्य गुणान्तरसंक्रमे सति पुनस्तत्प्राप्तेः प्रामध्यमन्तरम् । तत् द्विविधम् , सामान्येन विशेषेण च । स. सि. १,८. Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ६, १. मोत्तूण अप्पाणम्हि पयो । ट्ठवणंतरं दुविहं सम्भावासम्भावभेषण | भरह - बाहुवलीणमंतरमुल्लंतो दो सम्भाववणंतरं । अंतरमिदि बुद्धीए संकप्पिय दंड-कंड- कोदंडादओ असब्भावट्टत्रणंतरं । दव्वंतरं दुविहं आगम-आगमभेएग। अंतरपाहुडजाणओ अणुवजुत्तो अंतरदव्यागमो वा आगमदन्तरं । गोआगमदतरं जाणुगसरीर-भविय-तव्यदिरित्तभेएण तिविहं । आधारे आधेयोवयारेण लद्भूतरसणं जाणुगसरीरं भविय वट्टमाण-समुज्झादभेrण तिविहं । कथं भवियस्स अणाहारदार ट्ठिदस्स अंतरववएसो ? ण एस दोसो, क्रूरपञ्जयाणाहारेसु त्रि तंदुलेसु एत्थ करववएसुवलंभा । कथं भूदे एसो ववहारो ? ण, रजपज्जायअणाहारे विपुरिसे राओ आगच्छदि विवहारवलंभा । भवियणो आगमदव्वंतरं भविस्सकाले अंतरपाहुडजाणओ संपहि संते वि उवजोए अंतरपाहुड अवगम यह शब्द नाम-अन्तरनिक्षेप है । स्थापना अन्तर सद्भाव और असद्भावके भेदसे दो प्रकारका है । भरत और बाहुबलिके बीच उमड़ता हुआ नद सद्भावस्थापना अन्तर है । अन्तर इस प्रकारकी बुद्धिसे संकल्प करके दंड, वाण, धनुष आदिक असद्भावस्थापना अन्तर है, अर्थात् दंड, वाणादिके न होते हुए भी तत्प्रमाण क्षेत्रवर्ती अन्तरकी, यह अंतर इतने धनुष है ऐसी जो कल्पना कर लेते हैं, उसे असद्भावस्थापना अन्तर कहते हैं । द्रव्यान्तर आगम और नोआगमके भेदसे दो प्रकारका है । अन्तर विषयक प्राभृतके शायक तथा वर्तमानमें अनुपयुक्त पुरुषको आगमद्रव्यान्तर कहते हैं। अथवा, अन्तररूपद्रव्यके प्रतिपादक आगमको आगमद्रव्यान्तर कहते हैं। नोआगमद्रव्यान्तर शायकशरीर, भव्य और तद्व्यतिरिक्त के भेदसे तीन प्रकारका है। आधारमें आधेयके उपचारसे प्राप्त हुई है अन्तरसंज्ञा जिसको ऐसा ज्ञायकशरीर भव्य, वर्तमान और समुत्यक्तके भेदसे तीन प्रकारका है । शंका- अनाधारतासे स्थित, अर्थात् वर्तमानमें जो अन्तरागमका आधार नहीं हैं ऐसे, भावी शरीरके ' अन्तर ' इस संज्ञाका व्यवहार कैसे हो सकता है ? समाधान — यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, कूर (भात) रूप पर्यायके आधार न होने पर भी तंदुलोंमें यहां, अर्थात् व्यवहारमें कूर संज्ञा पाई जाती है । शंका-भूत ज्ञायकशरीरके यह अन्तरका व्यवहार कैसे बनेगा ? समाधान — नहीं, क्योंकि, राज्यपर्यायके नहीं धारण करनेवाले पुरुषमें भी 'राजा आता है' इस प्रकारका व्यवहार पाया जाता है । भविष्यकाल में जो अन्तरशास्त्रका ज्ञायक होगा, परंतु वर्तमानमें इस समय उपयोग के होते हुए भी अन्तरशास्त्र के ज्ञानसे रहित है, ऐसे पुरुषको भव्य नोआगमद्रव्यान्तर कहते हैं। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, १.] अंतराणुगमे णिदेसपरूवणं रहिओ । तव्वदिरित्तदव्यतरं तिविहं सचित्ताचित्त-मिस्सभेएण । तत्थ सचित्तरं उसहसंभवाणं मज्झे ढिओ अजिओ । अचित्ततव्यदिरित्तदव्यंतरं णाम घणोअहि-तणुवादाणं मज्झे ढिओ घणाणिलो । मिस्संतरं जहा उजंत-सत्तुंजयाणं विच्चालट्टिदगामणगराई । खेत्त-कालंतराणि दव्यंतरे पविठ्ठाणि, छदव्यवदिरित्तखेत्त-कालाणमभावा । भावतरं दुविहं आगम-णोआगमभेएण । अंतरपाहुडजाणओ उपजुत्तो भावागमो वा आगमभावंतरं । णोआगमभातरं णाम ओदइयादी पंच भावा दोण्हं भावाणमंतरे द्विदा । एत्थ केण अंतरेण पयद ? णोआगमदो भावंतरेण । तत्थ वि अजीवभावतरं मोत्तूण जीवभावंतरे पयदं, अजीवभावंतरण इह पओजणाभावा । अंतरमुच्छेदो विरहो परिणामतरगमणं णस्थित्तगमणं अण्णभावव्यवहाणमिदि एयट्ठो। एदस्स अंतरस्स अणुगमो अंतराणुगमो। तेण अंतराणुगमेण दुविहो णिदेसो दवट्ठिय-पञ्जवट्ठियणयावलंबणेण । तिविहो णिद्देसो किण्ण' होज्ज ? ण, तइज्जस्स णयस्स अभावा । तं पि कधं णव्वदे ? तद्व्यतिरिक्त द्रव्यान्तर सचित्त, अचित्त और मिश्रके भेदसे तीन प्रकारका है। उनमेंसे वृषभ जिन और संभव जिनके मध्यमें स्थित अजित जिन सचित्त तद व्यतिरिक्त द्रव्यान्तरके उदाहरण हैं। घनोदधि और तनुवातके मध्यमें स्थित घनवात अचित्त तव्यतिरिक्त द्रव्यान्तर है । ऊर्जयन्त और शत्रुञ्जयके मध्य में स्थित ग्राम नगरादिक मिश्र तव्यतिरिक्त द्रव्यान्तर हैं । क्षेत्रान्तर और कालान्तर, ये दोनों ही द्रव्यान्तरमें प्रविष्ट हो जाते हैं , क्योंकि, छह द्रव्योंसे व्यतिरिक्त क्षेत्र और कालका अभाव है। भावान्तर आगम और नोआगमके भेदसे दो प्रकारका है । अन्तरशास्त्रके शायक और उपयुक्त पुरुषको आगमभावान्तर कहते हैं; अथवा भावरूप अन्तर आगमको आगमभावान्तर कहते हैं । औदयिक आदि पांच भावोंमेंसे किन्हीं दो भावोंके मध्यमें स्थित विवक्षित भावको नोआगम भावान्तर कहते हैं। शंका-यहां पर किस प्रकारके अन्तरसे प्रयोजन है ? समाधान-नोआगमभावान्तरसे प्रयोजन है। उसमें भी अजीवभावान्तरको छोड़कर जीवभावान्तर प्रकृत है, क्योंकि, यहां पर अजीवभावान्तरसे कोई प्रयोजन नहीं है। अन्तर, उच्छेद, विरह, परिणामान्तरगमन, नास्तित्वगमन और अन्यभावव्यवधान, ये सब एकार्थवाची नाम हैं । इस प्रकारके अन्तरके अनुगमको अन्तरानुगम कहते हैं । उस अन्तरानुगमसे दो प्रकारका निर्देश है, क्योंकि, वह निर्देश द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयका अवलंबन करनेवाला है। शंका-तीन प्रकारका निर्देश क्यों नहीं होता है ? समाधान नहीं, क्योंकि, तीसरे प्रकारका कोई नय ही नहीं है । शंका-यह भी कैसे जाना? १ प्रतिषु 'आजीओ' मप्रतौ'अजीओ' इति पाठः। २ प्रतिषु 'पुणोअहि ' इति पाठः। ३ प्रतिषु 'किण्ह ' इति पाठः। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ६, २. संगहासंगहवदिरित्ततब्धिसयाणुवलंभा। एवं मणम्मि काऊण ओघेणादेसेण येत्ति' उत्तं । एक्केण णिद्देसेण पज्जत्तमिदि चे ण, एकेण दुणयावलंबिजीवाणमुवयारकरणे उवायाभावा । ओघेण मिच्छादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥२॥ 'जहा उद्देसो तहा णिद्देसो' त्ति णायसंभालटुं ओघेणेत्ति उत्तं । सेसगुणट्ठाणउदासट्ठो मिच्छादिट्ठिणिद्देसो । केवचिरं कालादो इदि पुच्छा एदस्स पमाणत्तपदुप्पायणफला । णाणाजीवमिदि बहुस्सु एयवयणणिदेसो कधं घडदे ? णाणाजीवडियसामण्णविवक्खाए बहूणं पि एगत्तविरोहाभावा । णत्थि अंतर मिच्छत्तपज्जयपरिणदजीवाणं तिसु वि कालेसु वोच्छेदो विरहो अभावो' णस्थि त्ति उत्तं होदि। अंतरस्स पडिसेहे कदे सो पडिसेहो तुच्छो ण होदि त्ति जाणावणटुं णिरंतरग्गहणं, विहिरूवेण पडिसेहादो वदिरित्तेण समाधान-क्योंकि, संग्रह (सामान्य) और असंग्रह (विशेष) को छोड़करके किसी अन्य नयका विषयभूत कोई पदार्थ नहीं पाया जाता है । इस उक्त प्रकारके शंका-समाधानको मनमें धारण करके सूत्रकारने 'ओघसे और आदेशसे' ऐसा पद कहा है। शंका-एक ही निर्देश करना पर्याप्त था ? समाधान नहीं, क्योंकि, एक निर्देशसे दोनों नयोंके अवलम्बन करनेवाले जीवोंके उपकार करनेमें उपायका अभाव है। ओघसे मिथ्यादृष्टि जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरंतर है ॥२॥ . 'जैसा उद्देश होता है, वैसा निर्देश होता है' इस न्यायके रक्षणार्थ 'ओघसे' यह पद कहा । मिथ्यादृष्टि पदका निर्देश शेष गुणस्थानोंके प्रतिषेधके लिए है। 'कितने काल होता है' इस पृच्छाका फल इस सूत्रकी प्रमाणताका प्रतिपादन करना है। - शंका-'णाणाजीवं' इस प्रकारका यह एक वचनका निर्देश बहुतसे जीवोंमें कैसे घटित.होता है? समाधान-नाना जीवों में स्थित सामान्यकी विवक्षासे बहुतोंके लिए भी एकवचनके प्रयोगमें विरोध नहीं आता। 'अन्तर नहीं है' अर्थात् मिथ्यात्वपर्यायसे परिणत जीवोंका तीनों ही कालोंमें व्युच्छेद, विरह या अभाव नहीं होता है, यह अर्थ कहा गया समझना चाहिए । अन्तरके प्रतिषेध करने पर वह प्रतिषेध तुच्छ अभावरूप नहीं होता है, किन्तु भावान्तरभावरूप होता है, इस बातके जतलानेके लिए 'निरन्तर' पदका ग्रहण किया है। प्रतिषेधसे १ प्रतिषु 'एत्ति' इति पाठः। २ सामान्येन तावत् मिथ्यादृष्टे नाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । स. सि. १, ८. ३ प्रतिषु ' अभावा' इति पाठः । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, ३.] अंतराणुगमे मिच्छादिट्ठि-अंतरपरूवणं मिच्छादिट्ठिणो सब्धकालमच्छंति त्ति उत्तं होदि । अधवा पजवट्ठियणयावलंबियजीवाणुग्गहणटुं णस्थि अंतरमिदि पडिसेहवयणं, दयट्ठियणयावलंबिजीवाणुग्गह8 णिरंतरमिदि विहिवयणं । एसो अत्थो उपरि सब्वत्थ वत्तयो । ___एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥३॥ _तं जधा- एको मिच्छादिट्ठी सम्मामिच्छत्त-सम्मत्त-संजमासंजम-संजमेसु बहुसो परियट्टिदो, परिणामपच्चएण सम्मत्तं गदो, सबलहुमंतोमुहुत्तंतं सम्मत्तेण अच्छिय मिच्छत्तं गदो, लद्धभंतोमुहुत्तं सवजहणं मिच्छत्तंतरं । एत्थ चोदगो भणदि-जं पढमिल्लमिणं मिच्छत्तं तं पुणो सम्मनुत्तरकाले ण होदि, पुव्बकाले वटुंतस्स उत्तरकाले पउत्तिविरोहा । ण च तं चे उत्तरकाले उप्पज्जइ, उप्पण्णस्स उप्पत्तिविरोहा । तदो अंतिल्लं मिच्छत्तं पढमिल्लं ण होदि त्ति अंतरस्स अभावो चेयेत्ति ? एत्थ परिहारो उच्चदेसच्चमेवमेदं जदि सुद्धो पज्जयणओ अवलंविज्जदि। किंतु णइगमणयमवलंबिय अंतरव्यतिरिक्त होनेके कारण विधिरूपसे मिथ्यादृष्टि जीव सर्व काल रहते हैं, यह अर्थ कहा गया है। अथवा, पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन करनेवाले जीवोंके अनुग्रहके लिए 'अन्तर नहीं है। इस प्रकारका प्रतिषेधवचन और द्रव्यार्थिक नयका अवलम्बन करनेवाले जीवोंके अनुग्रहके लिये 'निरन्तर' इस प्रकारका विधिपरक वचन कहा गया है। यह अर्थ आगेके सभी सूत्रोंमें भी कहना चाहिए। . एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है ॥३॥ जैसे-एक मिथ्यादृष्टि जीव, सम्यग्मिथ्यात्व, अविरतसम्यक्त्व, संयमासंयम और संयममें बहुतवार परिवर्तित होता हुआ परिणामोंके निमित्तसे सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ, और वहां पर सर्वलघु अन्तर्मुहूर्तकाल तक सम्यक्त्वके साथ रहकर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। इस प्रकारसे सर्वजघन्य अन्तर्मुहूर्त प्रमाण मिथ्यात्व गुणस्थानका अन्तर प्राप्त हो गया। शंका-यहां पर शंकाकार कहता है कि अन्तर करनेके पूर्व जो पहलेका मिथ्यात्व था, वही पुनः सम्यक्त्वके उत्तरकालमें नहीं होता है; क्योंकि, सम्यक्त्व प्राप्तिके पूर्वकालमें वर्तमान मिथ्यात्वकी उत्तरकालमें, अर्थात् सम्यक्त्व छोड़नेके पश्चात्, प्रवृत्ति होनेका विरोध है। तथा, वही मिथ्यात्व उत्तरकालमें भी उत्पन्न नहीं होता है, क्योंकि, उत्पन्न हुई वस्तुके पुनः उत्पन्न होनेका विरोध है। इसलिए सम्यक्त्व छूटनेके पश्चात् होनेवाला अन्तिम मिथ्यात्व पहलेका मिथ्यात्व नहीं हो सकता है, इससे अन्तरका अभाव ही सिद्ध होता है ? । समाधान-यहां उक्त शंकाका परिहार करते हैं-उक्त कथन सत्य ही है, यदि शुद्ध पर्यायार्थिक नयका अवलंबन किया जाय । किंतु नैगमनयका अवलंबन लेकर अन्तर १ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि, १, ८. २ प्रतिषु म-प्रतिषु च 'पढममिल्लमिणं' इति पाठः । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ६, ४. परूवणा कीरदे, तस्स सामण्णविसेसुहयविसयत्तादो। तदो ण एस दोसो। तं जहा-पढमंतिममिच्छत्तं पज्जाया अभिण्णा, मिच्छत्तकम्मोदयजादत्तेग अत्तागर्म-पदत्थाणमसद्दहणेण एगजीवाहारत्तेण भेदाभावा । ण पुव्वुत्तरकालभेएण ताणं भेओ, तधा विवक्खाभावा । तम्हा पुव्वुत्तरद्धासु अच्छिण्णसरूवेण हिदमिच्छत्तस्स सामण्णावलंबणेण एकत्तं पत्तस्स सम्मत्तपज्जओ अंतरं होदि । एस अत्थो सव्वत्थ पउज्जिदव्यो । उक्कस्सेण वे छावट्ठिसागरोवमाणि देसूणाणि ॥४॥ एदस्स णिदरिसणं- एक्को तिरिक्खो मणुस्सो वा लंतय-काविट्ठकप्पवासियदेवेसु चोहससागरोवमाउद्विदिएसु उप्पण्णो । एकं सागरोवमं गमिय विदियसागरोवमादिसमए सम्मत्तं पडिवण्णो । तेरससागरोवमाणि तत्थ अच्छिय सम्मत्तेण सह चुदो मणुसो जादो । तत्थ संजमं संजमासंजमं वा अणुपालिय मणुसाउएणूणवावीससागरोवमाउछिदिएसु आरणच्चुददेवेसु उववण्णो । तत्तो चुदो मणुसो जादो। तत्थ संजममणुपालिय उवरिमगेवजे प्ररूपणा की जा रही है, क्योंकि, वह नैगमनय सामान्य तथा विशेष, इन दोनोंको विषय करता है, इसलिये यह कोई दोष नहीं है । उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-अंतरकालके पहलेका मिथ्यात्व और पीछेका मिथ्यात्व, ये दोनों पर्याय हैं, जो कि अभिन्न हैं, क्योंकि, मिथ्यात्वकर्मके उदयसे उत्पन्न होनेके कारण; आप्त, आगम और पदार्थों के अश्रद्धानकी अपेक्षा तथा एक ही जीव द्रव्यके आधार होनेसे उनमें कोई भेद नहीं है। और न पूर्वकाल तथा उत्तरकालके भेदकी अपेक्षा भी उन दोनों पर्यायों में भेद है, क्योंकि, इस कालभेदकी यहां विवक्षा नहीं की गई है। इसलिए अन्तरके पहले और पीछेके कालमें अविच्छिन्न स्वरूपसे स्थित और सामान्य (द्रव्यार्थिकनय ) के अवलम्बनसे एकत्वको प्राप्त मिथ्यात्वका सम्यक्त्व पर्याय अन्तर होता है, यह सिद्ध हुआ। यही अर्थ आगे सर्वत्र योजित कर लेना चाहिए। मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो छयासठ सागरोपम काल है ॥४॥ इसका दृष्टान्त-कोई एक तिर्यंच अथवा मनुष्य चौदह सागरोपम आयुस्थितिवाले लांतव-कापिष्ट कल्पवासी देवोंमें उत्पन्न हुआ। वहां एक सागरोपम काल बिताकर दूसरे सागरोपमके आदि समयमें सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। तेरह सागरोपम काल वहां पर रहकर सम्यक्त्वके साथ ही च्युत हुआ और मनुष्य होगया। उस मनुष्यभवमें संयमको, अथवा संयमासंयमको अनुपालन कर इस मनुष्यभवसम्बन्धी आयुसे कम बाईस सागरोपम आयुकी स्थितिवाले आरण-अच्युतकल्पके देवोंमें उत्पन्न हुआ। वहांसे च्युत होकर पुनः मनुष्य हुआ। इस मनुष्यभवमें संयमको अनुपालन कर उपरिम १ प्रतिषु ' अस्थागम' इति पाठः। २ उत्कर्षेण द्वे षट्षष्ठी देशोने सागरोपमाणाम् । स. सि. १, ८. Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, ५.] अंतराणुगमे सासणसम्मामिच्छादिट्टि-अंतरपरूवणं [७ देवेसु मणुसाउगेणूणएक्कत्तीससागरोवमाउट्ठिदिएमु उववण्णो । अत्तोमुहुजूणछावट्टिसागरोवमचरिमसमए परिणामपच्चएण सम्मामिच्छत्तं गदो । तत्थ अंतोमुहुत्तमच्छिय पुणो सम्मत्तं पडिवज्जिय विस्समिय चुदो मणुसो जादो । तत्थ संजमं संजमासंजमं वा अणुपालिय मणुस्साउएणूणवीससागरोवमाउट्टिदिएमुवज्जिय पुणो जहाकमेण मणुसाउवेणूणवावीस-चउवीससागरोवमट्ठिदिएमु देवेमुववज्जिय अंतोमुहुतूणवेछावहिसागरोवमचरिमसमए मिच्छत्तं गदो । लद्धमंतरं अंतोमुहुत्तूणवेछावढिसागरोवमाणि । एसो उप्पत्तिकमो अउप्पण्णउप्पायणटुं उत्तो । परमत्थदो पुण जेण केण वि पयारेण छावट्ठी पूरेदव्या । सासाणसम्मादिट्ठि-सम्मामिच्छादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ॥५॥ ___तं जहा, सासणसम्मादिहिस्स ताव उच्चदे- दो जीवमादि काऊण एगुत्तरकमेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तवियप्पेण उवसमसम्मादिट्ठिणो उवसमसम्मत्तद्धाए एगसमयमादि काऊण जाव छावलियावसेसाए आसाणं गदा । तेत्तियं पि कालं सासणप्रैवेयकमें मनुष्य आयुसे कम इकतीस सागरोपम आयुकी स्थितिवाले अहमिन्द्र देवोंमें उत्पन्न हुआ। वहां पर अन्तर्मुहूर्त कम छयासठ सागरोपम कालके चरम समयमें परिणामोंके निमित्तसे सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। उस सम्यग्मिथ्यात्वमें अन्तर्मुहूर्त काल रहकर पुनः सम्यक्त्वको प्राप्त होकर, विश्राम ले, च्युत हो, मनुष्य हो गया। उस मनुष्यभवमें संयमको अथवा संयमासंयमको परिपालन कर, इस मनुष्यभवसम्बन्धी आयुसे कम वीस सागरोपम आयुको स्थितिवाले आनत-प्राणत कल्पोंके देवोंमें उत्पन्न होकर पुनः यथाक्रमसे मनुष्यायुसे कम बाईस और चौबीस सागरोपमकी स्थितिवाले देवोंमें उत्पन्न होकर, अन्तर्मुहूर्त कम दो छयासठ सागरोपम कालके अन्तिम समयमें मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। इस प्रकारसे अन्तर्मुहूर्त कम दो छयासठ सागरोपम कालप्रमाण अन्तर प्राप्त हुआ । यह ऊपर बताया गया उत्पत्तिका क्रम अव्युत्पन्न जनोके समझानेके लिए कहा है। परमार्थसे तो जिस किसी भी प्रकारसे छयासठ सागरोपम काल पूरा किया जा सकता है। सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय होता है ॥५॥ जैसे, पहले सासादनसम्यग्दृष्टिका अन्तर कहते हैं-दो जीवोंको आदि करके एक एक अधिकके क्रमसे पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र विकल्पसे उपशमसम्यग्दृष्टि जीव, उपशमसम्यक्त्वके कालमें एक समयको आदि करके अधिकसे अधिक छह आवली कालके अवशेष रह जाने पर सासादन गुणस्थानको प्राप्त हुए। जितना काल अवशेष १ सासादनसम्यग्दृष्टेरन्तरं नानाजीवापेक्षया जघन्येनैकः समयः । xxx सम्यग्मिथ्यादृष्टेरन्तरं नानाजीवापेक्षया सासादनवत् । स. सि. १, ८. Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ६, ६. गुणेण अच्छिय सव्वे मिच्छत्तं गदा । तिसु वि लोगेसु सासणाणमेगसमए अभावो जादो। पुणो विदियसमए सत्तट्ठ जणा आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ता पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता वा उवसमसम्मादिहिणो आसाणं गदा । लद्धमंतरमेगसमओ । सम्मामिच्छादिहिस्स उच्चदे- सत्तट्ठ जणा बहुआ वा सम्मामिच्छादिट्ठिणो णाणाजीवगदसम्मामिच्छत्तद्धाखएण सम्मत्तं मिच्छत्तं वा सो पडिवण्णा । तिसु वि लोगेसु सम्मामिच्छादिट्ठिणो एगसमयमभावीभूदा । अणंतरसमए मिच्छाइट्ठिणो सम्मादिट्ठिणो वा सत्तट्ठ जणा बहुआ वा सम्मामिच्छत्तं पडिवण्णा । लद्धमंतरमेगसमओ। उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागों ॥६॥ णिदरिसणं सासणसम्मादिहिस्स ताव उच्चदे- सत्तट्ठ जणा बहुआ वा उवसमसम्मादिट्ठिणो आसाणं गदा। तेहि आसाणेहि आय-व्ययवसेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तकालं सासणगुणप्पवाहो अविच्छिण्णो कदो। पुणो अणंतरसमए सव्वे मिच्छत्तं रहने पर उपशमसम्यक्त्वको छोड़ा था, उतने ही कालप्रमाण सासादन गुणस्थानमें रह कर वे सब जीव मिथ्यात्वको प्राप्त हुए, और तीनों ही लोकोंमें सासादनसम्यग्दृष्टियोंका एक समयके लिए अभाव हो गया। पुनः द्वितीय समयमें अन्य सात आठ जीव, अथवा आवलीके असंख्यातवें भागमात्र जीव. अथवा पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सासादन गुणस्थानको प्राप्त हुए। इस प्रकार सासादन गुणस्थानका एक समयरूप जघन्य अन्तर प्राप्त हो गया। अब सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानका जघन्य अन्तर कहते हैं- सात आठ जन, अथवा बहुतसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव, नाना जीवगत सम्यग्मिथ्यात्वसम्बन्धी कालके क्षयसे सम्यक्त्वको, अथवा मिथ्यात्वको सभीके सभी प्राप्त हुए और तीनों ही लोकोंमें सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव एक समयके लिए अभावरूप हो गये । पुनः अनन्तर समयमें ही मिथ्यादृष्टि, अथवा सम्यग्दृष्टि सात आठ जीव, अथवा बहुतसे जीव, सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुए । इस प्रकारसे सम्यग्मिथ्यात्वका एक समयरूप जघन्य अन्तर प्राप्त हो गया । उक्त दोनों गुणस्थानोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यातवें भाग है ॥६॥ उनमेंसे पहले सासादनसम्यग्दृष्टिका उदाहरण कहते हैं- सात आठ जन, अथवा बहुतसे उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सासादन गुणस्थानको प्राप्त हुए । उन सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके द्वारा आय और व्ययके क्रमवश पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र काल तक सासादन गुणस्थानका प्रवाह अविच्छिन्न चला । पुनः उसका काल समाप्त होनेपर दूसरे समयमें ही वे सभी जीव मिथ्यात्वको प्राप्त हुए, और पल्योपमके असंख्यातवें भाग. १ उत्कर्षेण पल्योपमासंख्येयभागः। स. सि. १, ८. Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, ७. ] अंतराणुगमे सासण-सम्मामिच्छादिट्ठि-अंतरपरूवणं [ ९ गदा । पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तकालं सासणगुणट्ठाणमंतरिदं । तदो उक्कस्तरस्स अणंतरसमए सत्त जणा बहुआ वा उवसमसम्मादिट्ठिणो आसाणं गदा । लद्धमंतरं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । सम्मामिच्छादिट्ठिस्स उच्चदे - णाणाजीवगदसम्मामिच्छत्तद्धाए उक्कस्संतरजोग्गाए अदिक्कताए सच्चे सम्मामिच्छादिट्टिणो सम्मत्तं मिच्छत्तं वा पडिवण्णा । अंतरिदं सम्मामिच्छत्तगुणट्ठाणं । पुणो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्त उक्कस्संतरकालस्स अणंतरसमए अट्ठावीससंतकम्मियमिच्छादिट्टिणो वेदगसम्मादिट्टिणो उवसमसम्मादिङ्किणो वा सम्मामिच्छत्तं पडिवण्णा । लद्धमंतरं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, अंतोमुहुत्तं ॥ ७ ॥ 6 जहा उसो तहा णिसो ' त्ति णायादो सासणसम्मादिट्ठिस्स पढमं उच्चदेएक्को सासणसम्मादिट्ठी उवसमसम्मत्तपच्छायदो केत्तियं पि कालमासाणगुणेणच्छिय मिच्छत्तं गदो अंतरिदो । पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तकालेण भूओ उवसमसम्म मात्र कालतकके लिए सासादन गुणस्थान अन्तरको प्राप्त हो गया । पुनः इस पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण उत्कृष्ट अन्तरकालके अनन्तर समयमें ही सात आठ जन, अथवा बहुतसे उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सासादन गुणस्थानको प्राप्त हुए । इस प्रकारसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण सासादनका उत्कृष्ट अन्तरकाल प्राप्त हो गया । अब सम्यग्मिथ्यादृष्टिका उत्कृष्ट अन्तरकाल कहते हैं- उत्कृष्ट अन्तरके योग्य, नाना जीवगत सम्यग्मिथ्यात्वकालके व्यतिक्रान्त होने पर, सभी सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव सम्यक्त्वको, अथवा मिथ्यात्वको प्राप्त हुए । इस प्रकारसे सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान अन्तरको प्राप्त हुआ । पुनः पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र उत्कृष्ट अन्तरकालके अनन्तर समय में ही मोह कर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाले मिथ्यादृष्टि, अथवा वेदकसम्यग्दृष्टि, अथवा उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुए। इस प्रकार से सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानका पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त हो गया । सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर क्रमशः पल्योपमके असंख्यातवें भाग और अन्तर्मुहूर्त है ॥ ७ ॥ जिस प्रकार से उद्देश होता है, उसी प्रकारसे निर्देश होता है, इसी न्यायसे सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानका अन्तर पहले कहते हैं- उपशम सम्यक्त्वसे पीछे लौटा हुआ कोई एक सासादनसम्यग्दृष्टि जीव कितने ही काल तक सासादन गुणस्थानमें रहा और फिर मिथ्यात्वको प्राप्त हो अन्तरको प्राप्त हुआ । पुनः पल्योपमके असंख्यातवें १ एक्जीवं प्रति जघन्येन पल्योपमासंख्येयभागः । x x x सम्यग्मिथ्यादृष्टेः x x एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १,८. २ प्रतिषु ' आसाणं गुणेण ' हति पाठः । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ६, ७. पडिवज्जिय छावलियावसेसाए उवसमसम्मत्तद्धाए आसाणं गदो । लद्धमंतरं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । अंत मुहुत्तकालेण आसाणं किण्ण णीदो ? ण उवसमसम्मत्तेण विणा आसाणगुणग्गणाभावा । उवसमसम्मत्तं पि अंतामुहुत्तेण किरण पडिवज्जदे ? ण, उवसमसम्मादिट्ठी मिच्छत्तं गंतून सम्मत्त - सम्मामिच्छत्ताणि उच्बेल्लमाणो तेसिमंतोकोडाकोडीमेत्तट्ठिदिं घादिय सागरोवमादो सागरोवमपुधत्तादो वा जाव हेट्ठा ण करेदि ताव उवसमसम्मत्तगहणसंभवाभावा । ताणं द्विदीओ अंतोमुहुत्तेण घादिय सागरोवमादो सागरोवमपुत्तादो वा हेट्ठा किण्ण करेदि ? ण, पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तायामेण अंतोमुहुत्तुक्कीरणकालेहि उब्वेल्लणखंडएहि घादिज्जमाणाए सम्मत-सम्मामिच्छत्तट्ठिदीए पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तकालेण विणा सागरोवमस्स वा सागरोवमपुधत्तस्स वा पदाववत्तदो । सासणपच्छायदमिच्छाइट्ठि संजमं गेण्हाविय दंसणतिय मुवसामिय भागमात्र कालसे उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त होकर, उपशमसम्यक्त्वके कालमें छह आवली काल अवशेष रहने पर सासादन गुणस्थानको प्राप्त हो गया । इस प्रकारसे पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण अन्तरकाल उपलब्ध हो गया । शंका- पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण कालमें अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहने पर सासादन गुणस्थानको क्यों नहीं प्राप्त कराया ? समाधान- नहीं, क्योंकि, उपशमसम्यक्त्वके विना सासादन गुणस्थानके ग्रहण करनेका अभाव है । शंका- वही जीव उपशमसम्यक्त्वको भी अन्तर्मुहूर्तकालके पश्चात् ही क्यों नहीं प्राप्त होता है ? समाधान नहीं, क्योंकि, उपशमसम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यात्वको प्राप्त होकर, सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्याप्रकृतिकी उद्वेलना करता हुआ, उनकी अन्तःकोड़ाकोडीप्रमाण स्थितिको घात करके सागरोपमसे, अथवा सागरोपम पृथक्त्वसे जबतक नीचे नहीं करता है, तब तक उपशमसम्यक्त्वका ग्रहण करना ही संभव नहीं है । शंका -- सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिकी स्थितिओंको अन्तर्मुहुर्त - कालमें घात करके सागरोपमसे, अथवा सागरोपमपृथक्त्व काल से नीचे क्यों नहीं करता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र आयामके द्वारा अन्तर्मुहूर्त उत्कीरणकालवाले उद्वेलनाकांडकोंसे घात कीजानेवाली सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिकी स्थितिका, पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र कालके विना सागरोपमके, अथवा सागरोपमपृथक्त्वके नीचे पतन नहीं हो सकता है । शंका- सासादन गुणस्थानसे पीछे लौटे हुए मिथ्यादृष्टि जीवको संयम ग्रहण कराकर और दर्शनमोहनीयकी तीन प्रकृतियोंका उपशमन कराकर, पुनः चारित्रमोहका १ प्रतिषु ' पदेणा-' इति पाठः । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, ८.] अंतराणुगमे सासण-सम्मामिच्छादिट्ठि-अंतरपरूवणं [११ पुणो चरित्तमोहमुवसामेदूण हेट्ठा ओयरिय आसाणं गदस्स अंतोमुहुत्तंतरं किण्ण परूविदं ? ण, उवसमसेढीदो ओदिण्णाणं सासणगमणाभावादो । तं पि कुदो णव्यदे? एदम्हादो चेव भूदवलीवयणादो। सम्मामिच्छादिद्विस्स उच्चदे- एक्को सम्मामिच्छादिट्ठी परिणामपच्चएण मिच्छत्तं सम्मत्तं वा पडिवण्णो अंतरिदो । अंतोमुहुत्तेण भूओ सम्मामिच्छत्तं गदो। लद्धमंतरमंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियट्टू देसूणं ॥८॥ ताव सासणस्सुदाहरणं वुच्चदे- एक्केण अणादियमिच्छादिट्ठिणा तिण्णि करणाणि कादृण उवसमसम्मत्तं पडिवण्णपढमसमए अणंतो संसारो छिण्णो अद्धपोग्गलपरियट्टमेत्तो कदो । पुणो अंतोमुहुरं सम्मत्तेणच्छिय आसाणं गदो (१)। मिच्छत्तं पडिवज्जिय अंतरिदो अद्धपोग्गलपरियट्ट मिच्छत्तेण परिभमिय अंतोमुहुत्तावसेसे संसारे उवसमसम्मत्तं पडिवण्णो एगसमयावसेसाए उवसमसम्मत्तद्धाए आसाणं गदो । लद्धमंतरं । भूओ मिच्छाउपशम करा और नीचे उतारकर, सासादन गुणस्थानको प्राप्त हुए जीवके अन्तर्मुहूर्तप्रमाण अन्तर क्यों नहीं बताया ? समाधान-नहीं, क्योंकि, उपशमश्रेणीसे उतरनेवाले जीवोंके सासादन गुणस्थानमें गमन करनेका अभाव है। शंका-यह कैसे जाना? समाधानभूतवली आचार्यके इसी वचनसे जाना। : अब सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर कहते हैंएक सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव परिणामोंके निमित्तसे मिथ्यात्वको, अथवा सम्यक्त्वको प्राप्त हो अन्तरको प्राप्त हुआ और अन्तर्मुहूर्त कालके पश्चात् ही पुनः सम्यग्मथ्यात्वको प्राप्त हुआ । इस प्रकारसे अन्तर्मुहूर्तप्रमाण अन्तरकाल प्राप्त हो गया। उक्त दोनों गुणस्थानोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है ।।८॥ उनमेंसे पहले सासादन गुणस्थानका उदाहरण कहते हैं- एक अनादि मिथ्यादृष्टि जीवने अधःप्रवृत्तादि तीनों करण करके उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त होनेके प्रथम समयमें अनन्त संसारको छिन्न कर अर्धपुद्गलपरिवर्तनमात्र किया। पुनः अन्तर्मुहूर्तकाल सम्यक्त्वके साथ रहकर वह सासादनसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ (१)। पुनः मिथ्यात्वको प्राप्त होकर अन्तरको प्राप्त हुआ और अर्धपुद्गलपरिवर्तनकाल मिथ्यात्वके साथ परिभ्रमणकर संसारके अन्तर्मुहूर्त अवशेष रह जाने पर उमशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। पुनः उपशमसम्यक्त्वके कालमें एक समय शेष रह जाने पर सासादन गुणस्थानको प्राप्त हुआ। इस प्रकारसे सूत्रोक्त अन्तरकाल प्राप्त हो गया । पुनः मिथ्यादृष्टि हुआ (२)। पुनः वेदक १ उत्कर्षेणार्द्धपुद्गलपरिवतों देशोनः । स. सि. १, ८. Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ६, ८. दिट्ठी जादो (२)। वेदगसम्मत्तं पडिवज्जिय (३) अणंताणुबंधिं विसंजोजिय (४) दसणमोहणीयं खविय (५) अप्पमत्तो जादो (६)। तदो पमत्तापमत्तपरावत्तसहस्सं कादण (७) खवगसेढीपाओग्गविसोहीए विसुज्झिऊण (८) अपुव्वखवगो (९) अणियट्टिखवगो (१०) सुहुमखवगो (११) खीणकसाओ (१२) सजोगिकेवली (१३) अजोगिकेवली (१४) होदूण सिद्धो जादो । एवं समयाहियचोदसअंतोमुहुत्तेहि ऊणमद्धपोग्गलपरियट्टे सासणसम्मादिट्ठिस्स उक्कस्संतरं होदि । सम्मामिच्छादिद्विस्स उच्चदे-एक्केण अणादियमिच्छादिविणा तिणि वि करणाणि कादण उवसमसम्मत्तं गेण्हतेण गमिदसम्मत्तपढमसमए अणंतो संसारो छिंदिगुण अद्धपोग्गलपरियट्टमेत्तो कदो । उवसमसम्मत्तेण अंतोमुहुत्तमच्छिय (१) सम्मामिच्छत्तं पडिवण्णो (२)। मिच्छत्तं गंतूगंतरिदो । अद्धपोग्गलपरियट्ट परिभमिय अंतोमुहुत्तावसेसे संसारे उवसमसम्मत्तं पडिवण्णो । तत्थेव अणंताणुबंधिं विसंजोइय सम्मामिच्छत्तं पडिवण्णो । लद्धमंतरं (३) । तदो वेदगसम्मत्तं पडिवज्जिय (४) दंसणमोहणीयं खवेदूण (५) अप्पमत्तो जादो (६)। पुणो पमत्तापमत्तपरावत्तसहस्सं करिय (७) खवगसेढीपाओग्ग सम्यक्त्वको प्राप्त होकर (३) अनन्तानुवन्धीकषायका विसंयोजन कर (४) दर्शनमोहनीयका क्षयकर (५) अप्रमत्तसंयत हुआ (६)। पुनः प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थानोंमें सहस्रों परावर्तनोंको करके (७) क्षपकश्रेणीके प्रायोग्य विशुद्धिसे विशुद्ध होकर (८) अपूर्वकरण क्षपक (९), अनिवृत्तिकरण क्षपक (१०), सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपक (११), क्षीणकषायवीतराग छद्मस्थ (१२), सयोगिकेवली (१३) और अयोगिकेवली (१४) होकरके सिद्ध होगया। इस प्रकारसे एक समय अधिक चौदह अन्तर्मुहूर्तोंसे कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन सासादनसम्यग्दृष्टिका उत्कृष्ट अन्तरकाल होता है। अब सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर कहते हैंएक अनादि मिथ्यादृष्टि जीवने तीनों ही करण करके उपशमसम्यक्त्वको ग्रहण करते हुए सम्यक्त्व ग्रहण करनेके प्रथम समयमें अनन्त संसार छेदकर अर्धपुद्गलपरिवर्तन मात्र किया। उपशमसम्यक्त्वके साथ अन्तर्मुहूर्त रहकर वह (१) सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ (२)। पुनः मिथ्यात्वको प्राप्त हो अन्तरको प्राप्त हो गया। पश्चात् अर्धपुद्गलपरिवर्तनकाल प्रमाण परिभ्रमण कर संसारके अन्तर्मुहूर्तप्रमाण अवशेष रहने पर उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ, और वहांपर ही अनन्तानुबंधीकषायकी विसंयोजना कर सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ । इस प्रकारसे अन्तर उपलब्ध हो गया (३)। तत्पश्चात् वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त कर (४) दर्शनमोहनीयका क्षपण करके (५) अप्रमत्तसंयत हुआ (६)। पुनः प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थानसम्बन्धी सहस्रों परावर्तनोंको करके (७) क्षपकश्रेणीके प्रायोग्य विशुद्धिसे विशुद्ध Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, १०.] अंतराणुगमे असंजदसम्मादिट्ठिआदि-अंतरपरूवणं [१३ विसोहीए विसुज्झिय (८) अपुव्यखवगो (९) अणियट्टिखवगो (१०) सुहुमखवगो (११) खीणकसाओ (१२) सजोगिकेवली (१३) अजोगिकेवली (१४ ) होदूण सिद्धिं गदो। एदेहि चोदसअंतोमुहुत्तेहि ऊणमद्धपोग्गलपरियट्ट सम्मामिच्छत्तुक्कस्संतरं होदि । । _असंजदसम्मादिट्टिप्पहुडि जाव अप्पमत्तसंजदा त्ति अंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥९॥ कुदो ? सव्वकालमेदाणमुवलंभा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ १० ॥ एदस्स सुत्तस्स गुणट्ठाणपरिवाडीए अत्थो उच्चदे । तं जहा- एक्को असंजदसम्मादिट्ठी संजमासंजमं पडिवण्णो । अंतोमुहुत्तमंतरिय भूओ असंजदसम्मादिट्ठी जादो । लद्धमंतरमंतोमुहुत्तं । संजदासंजदस्स उच्चदे- एक्को संजदासजदो असंजदसम्मादिद्धि मिच्छादिद्धि संजमं वा पडिवण्णो । अंतोमुहुत्तमंतरिय भूओ संजमासंजमं पडिवण्णो । लद्धमंतोमुहुत्तं जहण्णंतरं संजदासंजदस्स । पमत्तसंजदस्स उच्चदे- एगो पमत्तो अप्पमत्तो होकर (८) अपूर्वकरण क्षपक (९) अनिवृत्तिकरण क्षपक (१०) सूक्ष्मसाम्पराय क्षपक (११) क्षीणकषाय (१२) सयोगिकेवली (१३) और अयोगिकेवली (१४) होकरके सिद्धपदको प्राप्त हुआ। इन चौदह अन्तर्मुहूर्तोंसे कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अन्तरकाल होता है। असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानको आदि लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तकके प्रत्येक गुणस्थानवी जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥९॥ क्योंकि, सर्वकाल ही सूत्रोक्त गुणस्थानवी जीव पाये जाते हैं। उक्त गुणस्थानोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है॥१०॥ इस सूत्रका गुणस्थानकी परिपाटीसे अर्थ कहते हैं। वह इस प्रकार है- एक असंयतसम्यग्दृष्टि जीव संयमासंयमको प्राप्त हुआ। वहांपर अन्तर्मुहूर्तकाल रहकर अन्तरको प्राप्त हो, पुनः असंयतसम्यग्दृष्टि होगया। इस प्रकारसे अन्तर्मुहूर्तप्रमाण अन्तरकाल प्राप्त होगया। अब संयतासंयतका अन्तर कहते हैं- एक संयतासंयत जीव, असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानको, अथवा मिथ्यादृष्टि गुणस्थानको, अथवा संयमको प्राप्त हुआ और अन्तर्मुहूर्तकाल वहांपर रह कर अन्तरको प्राप्त हो पुनः संयमासंयमको प्राप्त होगया। इस प्रकारसे संयतासंयतका अन्तर्मुहूर्तकाल प्रमाण जघन्य अन्तर प्राप्त हुआ। १ असंयतसम्यग्दृष्टयाद्यप्रमत्तान्तानां नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । स. सि. १, ८. २ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १, ८. Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ६, ११. होदूण सव्चलहुं पुणो वि पमत्तो जादो । लद्धमंतोमुहुत्तं जहण्णंतरं पमत्तस्स । अप्पमत्तस्स उच्चदे - एगो अप्पमत्तो उवसमसेढीमारुहिय पडिणियत्तो अप्पमत्तो जादो । लद्धमंतरं जहण्णमप्पमत्तस्स | हेट्टिमगुणेसु किण्ण अंतराविदो ? ण उवसमसेढी सव्यगुणड्डाणवाणाहिंतो मग गुणट्टाणद्धाए संखेज्जगुणत्तादो । उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियङ्कं देणं ॥ ११ ॥ गुणट्ठाणपरिवाडीए उक्कस्संतरपरूवणा कीरदे- एक्केण अणादियमिच्छादिट्टिणा तिण्णि करणाणि काढूण पढमसम्मत्तं गेण्हंतेण अणंतो संसारो छिंदिदूण गहिदसम्मत्तपढमसमए अद्धपोग्गलपरियमेत्तो कदो । उवसमसम्मत्तेण अंतोमुहुत्तमच्छिय ( १ ) छावलियावसेसाए उवसमसम्मत्तद्धाए आसाणं गंतूगंतरिदो । मिच्छत्तेगद्ध योग्गल परियÎ भमिय अपच्छिमे भवे संजमं संजमा संजमं वा गंतूग कदकर णिज्जो होदूण अंतोमुहुत्ता बसेसे अब प्रमत्तसंयतका अन्तर कहते हैं- एक प्रमत्तसंयत जीव, अप्रमत्तसंयत होकर सर्वलघु कालके पश्चात् फिर भी प्रमत्तसंयत होगया । इस प्रकारसे प्रमत्तसंयतका अन्तर्मुहूर्तकालप्रमाण जघन्य अन्तर प्राप्त हुआ अब अप्रमत्तसंयतका अन्तर कहते हैं- एक अप्रमत्तसंयत जीव उपशमश्रेणिपर चढ़कर पुनः लौटा और अप्रमत्तसंयत होगया । इस प्रकारसे अन्तर्मुहूर्तकाल प्रमाण जघन्य अन्तर अप्रमत्तसंयतका उपलब्ध हुआ । शंका- नीचेके असंयतादि गुणस्थानों में भेजकर अप्रमत्तसंयतका जघन्य अन्तर क्यों नहीं बताया ? समाधान- नहीं, क्योंकि, उपशमश्रेणीके सभी गुणस्थानोंके कार्लोसे प्रमत्तादि नीचे एक गुणस्थानका काल भी संख्यातगुणा होता है । उक्त असंयतादि चारों गुणस्थानोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अर्धपुगलपरिवर्तनप्रमाण है ॥ ११ ॥ अब गुणस्थान - परिपाटीसे उत्कृष्ट अन्तरकी प्ररूपणा करते हैं- एक अनादि मिथ्यादृष्टि जीवने तीनों करण करके प्रथमोपशमसम्यक्त्वको ग्रहण करते हुए अनन्त संसार छेदकर सम्यक्त्व ग्रहण करनेके प्रथम समयमें वह संसार अर्धपुद्गलपरिवर्तनमात्र किया । पुनः उपशमसम्यक्त्वके साथ अन्तर्मुहूर्तकाल रह कर (१) उपशमसम्यक्त्वके कालमें छह आवलियां अवशेष रह जाने पर सासादन गुणस्थानको प्राप्त होकर अन्तरको प्राप्त हुआ । पुनः मिथ्यात्वके साथ अर्धपुद्गलपरिवर्तन परिभ्रमण कर अन्तिम भवमें संयमको, अथवा संयमासंयमको प्राप्त होकर, कृतकृत्य वेदकसम्यक्त्वी होकर अन्तर्मुहूर्तकाल प्रमाण संसारके अवशेष रह जाने पर परिणामोंके निमित्तसे असंयतसम्यग्दृष्टि १ उत्कर्षेणार्द्ध पुद्गल परिवर्तो देशोनः । स. सि. १, ८. Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, ११.] अंतराणुगमे असंजदसम्मादिद्विआदि-अंतरपरूवणं संसारे परिणामपच्चएण असंजदसम्मादिट्ठी जादो । लद्धमंतर (२)। पुणो अप्पमत्तभावेण संजमं पडिवज्जिय (३) पमत्तापमत्तपरावत्तसहस्सं कादूण (४) खवगसेडीपाओग्गविसोहीए विसुज्झिय (५) अपुरो (६) अणियट्टी (७) सुहुमो (८) खीणो (९) सजोगी (१०) अजोगी (११) होदण परिणउदो । एवमेक्कारसेहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणमद्धपोग्गलपरियट्टमसंजदसम्मादिट्ठीणमुक्कस्संतरं होदि । संजदासंजदस्स उच्चदे- एक्केण अणादियमिच्छादिहिणा तिण्णि करणाणि कादण गहिदसम्मत्तपढमसमए सम्मत्तगुणेण अणंतो संसारो छिण्णो अद्धपोग्गलपरियट्टमेत्तो कदो। सम्मत्तेण सह गहिदसंजमासंजमेण अंतोमुहुत्तमच्छिय छावलियावसेसाए उवसमसम्मत्तद्धाए आसाणं गदो (१) अंतरिदो मिच्छत्तेण अद्धपोग्गलपरियट्टं परिभामिय अपच्छिमे भवे सासंजमं सम्मत्तं संजमं वा पडिवज्जिय कदकरणिज्जो होदूण परिणामपच्चएण संजमासंजमं पडिवण्णो (२)। लद्धमंतरं । अप्पमत्तभावेण संजमं पडिवन्जिय (३) पमत्तापमत्तपरावत्तसहस्सं कादूण (४) खवगसेढीपाओग्गविसोहीए विसुज्झिय (५) अपुल्यो (६) अणियट्टी (७) सुहुमो (८) खीणकसाओ (९) सजोगी (१०) होगया । इस प्रकार सूत्रोक्त अन्तरकाल प्राप्त हुआ (२) । पुनः अप्रमत्तभावके साथ संयमको प्राप्त होकर (३) प्रमत्त-अप्रमत्त गुणस्थानसम्बन्धी सहस्त्रों परावर्तनोंको करके (४) क्षपकश्रेणीके प्रायोग्य विशुद्धिसे विशुद्ध होकर (५) अपूर्वकरणसंयत (६) अनिवृत्तिकरणसंयत (७) सूक्ष्मसाम्परायसंयत (८) क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ (९) सयोगिकेवली (१०) और अयोगिकेवली (११) होकर निर्वाणको प्राप्त हो गया। इस प्रकारसे इन ग्यारह अन्तर्मुहूर्तीसे कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनकाल असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर होता है। अब संयतासंयतका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं- एक अनादि मिथ्यादृष्टि जीवने तीनों करण करके सम्यक्त्व ग्रहण करनेके प्रथम समयमें सम्यक्त्वगुणके द्वारा अनन्त संसार छेदकर अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण किया। पुनः सम्यक्त्वके साथ ही ग्रहण किये गये संयमासंयमके साथ अन्तर्मुहूर्तकाल रहकर, उपशमसम्यक्त्वके कालमें छह आवलियां अवशेष रहजाने पर सासादनगुणस्थानको प्राप्त हो (१) अन्तरको प्राप्त हो गया, और मिथ्यात्वके साथ अर्धपुद्गलपरिवर्तन परिभ्रमण कर अन्तिम भवमें असंयमसहित सम्यक्त्वको, अथवा संयमको प्राप्त होकर कृतकृत्य वेदकसम्यक्त्वी हो, परिणामोंके निमित्तसे संयमासंयमको प्राप्त हुआ (२)। इस प्रकारसे इस गुणस्थानका अन्तर प्राप्त होगया। पुनः अप्रमत्तभावके साथ संयमको प्राप्त होकर (३) प्रमत्त-अप्रमत्त गुणस्थानसम्बन्धी सहस्रों परावर्तनोंको करके (४) क्षपकश्रेणीके योग्य विशुद्धिसे विशुद्ध होकर (५) अपूर्वकरण (६) अनिवृत्तिकरण (७) सूक्ष्मसाम्पराय (८) क्षीणकषाय (९) Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ६, ११. अजोगी (११) होदूण परिणव्वुदो। एवमेकारसेहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणमद्धपोग्गलपरियट्टमुक्कस्संत्तरं संजदासंजदस्स होदि। पमत्तस्स उच्चदे- एकेण अणादियमिच्छादिविणा तिण्णि करणाणि कादृण उवसमसम्मत्तं संजमं च जुगवं पडिवज्जतेण अणंतो संसारो छिंदिओ, अद्धपोग्गलपरियट्टमेत्तो कदो । अंतोमुहुत्तमच्छिय (१) पमत्तो जादो (२)। आदी दिट्ठा । छावलियावसेसाए उवसमसम्मत्तद्वाए आसाणं गंतूगंतरिय मिच्छत्तेगद्धपोग्गलपरियट्ट परियट्टिय अपच्छिमे भवे सासंजमसम्मत्तं संजमामंजमं वा पडिवज्जिय कदकरणिज्जो होऊण अप्पमत्तभावेण संजमं पडिवज्जिय पमत्तो जादो (३)। लद्धमंतरं । तदो खवगसेढीपाओग्गो अप्पमत्तो जादो ( ४ ) । पुणो अपुरो (५) अणियट्टी (६) सुहुमो (७) खीणकसाओ (८) सजोगी (९) अजोगी (१०) होदूण णिव्याणं गदो। एवं दसहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणमद्धपोग्गलपरियट्ट पमत्तस्सुक्कस्संतरं होदि । अप्पमत्तस्स उच्चदे- एक्केण अणादियमिच्छादिविणा तिण्णि वि करणाणि करिय उवसमसम्मत्तमप्पमत्तगुणं च जुगवं पडिवण्ण छेत्तूण अणंतो संसारो अद्धपोग्गल सयोगिकेवली (१०) और अयोगिकेवली (११) होकर निर्वाणको प्राप्त हुआ। इस प्रकारसे इन ग्यारह अन्तर्मुहूतोंसे कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनकाल संयतासंयतका उत्कृष्ट अन्तर होता है। अब प्रमत्तसंयतका अन्तर कहते हैं- एक अनादि मिथ्यादृष्टि जीवने तीनों ही करण करके उपशमसम्यक्त्व और संयमको एक साथ प्राप्त होते हुए अनन्त संसार छेदकर अर्धपुद्गलपरिवर्तनमात्र किया। पुनः उस अवस्थामें अन्तर्मुहूर्त रह कर (१) प्रमत्तसंयत हुआ (२)। इस प्रकारसे यह अर्धपुद्गलपरिवर्तनकी आदि दृष्टिगोचर हुई । पुनः उपशमसम्यक्त्वके कालमें छह आवलियां अवशेष रहजाने पर सासादन गुणस्थानको जाकर अन्तरको प्राप्त होकर मिथ्यात्वके साथ अर्धपुद्गलपरिवर्तनकाल परिभ्रमण कर अन्तिम भवमें असंयमसहित सम्यक्त्वको, अथवा संयमासंयमको प्राप्त होकर कृतकृत्य वेदकसम्यक्त्वी हो अप्रमत्तभावके साथ संयमको प्राप्त होकर प्रमत्तसंयत हो गया (३)। इस प्रकारसे इस गुणस्थानका अन्तर प्राप्त होगया । पश्चात् क्षपकश्रेणीके प्रायोग्य अप्रमत्तसंयत हुआ (४)। पुनः अपूर्वकरणसंयत (५) अनिवृत्तिकरणसंयत (६) सूक्ष्मसाम्परायसंयत (७) क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ (८) सयोगिकेवली (९) और अयोगिकेवली (१०) होकर निर्वाणको प्राप्त हुआ। इस प्रकारसे दश अन्तर्मुहूर्तोंसे कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनकाल प्रमत्तसंयतका उत्कृष्ट अन्तर होता है। अब अप्रमत्तसंयतका अन्तर कहते हैं- एक अनादि मिथ्यादृष्टि जीवने तीनों ही करण करके उपशमसम्यक्त्वको और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानको एक साथ प्राप्त होकर सम्यक्त्व ग्रहण करनेके प्रथम समयमें ही अनन्त संसार छेदकर अर्धपुद्गलपरिवर्तन मात्र Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, १२.] अंतराणुगमे चदुउवसामग-अंतरपरूवणं [१७ परियट्टमेत्तो पढमसमए कदो । तत्थंतोमुहुत्तमच्छिय (१) पमत्तो जादो अंतरिदो मिच्छत्तेण अद्धपोग्गलपरियट्ट परियट्टिय अपच्छिमे भवे सम्मत्तं संजमासंजमं वा पडिवज्जिय सत्त कम्माणि खविय अप्पमत्तो जादो (२)। लद्धमंतरं । पमत्तापमत्तपरावचसहस्सं कादूण (३) अप्पमत्तो जादो ( ४ ) । अपुल्यो (५) अणियट्टी (६) सुहुमो (७) खीणकसाओ (८) सजोगी (९) अजोगी (१०) होदूण णिव्वाणं गदो। ( एवं) दसहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणमद्धपोग्गलपरियट्ट ( अप्पमत्तस्सुकस्संतरं होदि)। चदुण्हमुवसामगाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ॥ १२ ॥ अपुवस्स ताव उच्चदे- सत्तट्ठ जणा बहुआ वा अपुव्वकरणउवसामगद्धाए खीणाए अणियटिउवसामगा वा अप्पमत्ता वा कालं करिय देवा जादा । एगसमयमंतरिदमपुव्यगुणहाणं । तदो विदियसमए अप्पमत्ता वा ओदरंता अणियट्टिणो वा अपुवकरणउवसामगा जादा । लद्धमेगसमयमंतरं । एवं चेव अणियट्टिउवसामगाणं सुहुमउवसामगाणं उवसंतकसायाणं च जहण्णंतरमेगसमओ वत्तव्यो । किया। उस अप्रमत्तसंयत गुणस्थानमें अन्तर्मुहूर्त रहकर (१) प्रमत्तसंयत हुआ और अन्तरको प्राप्त होकर मिथ्यात्वके साथ अर्धपुद्गलपरिवर्तन काल परिवर्तन कर अन्तिम भवमें सम्यक्त्व अथवा संयमासंयमको प्राप्त होकरदर्शनमोहकी तीन और अनन्तानुबंधीकी चार, इन सात प्रकृतियोंका क्षपण कर अप्रमत्तसंयत हो गया (२)। इस प्रकार अप्रमत्तसंयतका अन्तरकाल उपलब्ध हुआ। पुनः प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थानमें सहस्रों परावर्तनोंको करके (३) अप्रमत्तसंयत हुआ (४)। पुनः अपूर्वकरण (५) अनिवृत्तिकरण (६) सूक्ष्मसाम्पराय (७) क्षीणकषाय (८) सयोगिकेवली (९) और अयोगिकेवली (१०) होकर निर्वाणको प्राप्त हुआ । इस प्रकार दश अन्तमुहतोंसे कम अधपुद्गलपारवतनकाल अप्रमत्तसंयतका उत्कृष्ट अन्तर है। ___ उपशमश्रेणीके चारों उपशामकोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय अन्तर है ॥ १२ ॥ उनमेंसे पहले अपूर्वकरण उपशमकका अन्तर कहते हैं- सात आठ जन, अथवा बहुतसे जीव, अपूर्वकरण गुणस्थानके उपशामककाल क्षीण हो जाने पर अनिवृत्तिकरण उपशामक अथवा अप्रमत्तसंयत होकर तथा मरण करके देव हुए । इस प्रकार एक समयके लिये अपूर्वकरण गुणस्थान अन्तरको प्राप्त होगया। तत्पश्चात् द्वितीय समयमें अप्रमत्तसंयत, अथवा उतरते हुए अनिवृत्तिकरण उपशामक जीव, अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती उपशामक होगए । इस प्रकार एक समय प्रमाण अन्तरकाल लब्ध होगया। इसी प्रकारसे अनिवृत्तिकरण उपशामक, सूक्ष्मसाम्पराय उपशामक और उपशान्तकशाय उपशामकोका एक समय प्रमाण जघन्य अन्तर कहना चाहिए । १ चतुर्णामुपशमकानां नानाजीवापेक्षया जघन्येनैकः समयः। स.सि. १,८.. Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्डागमे जीवाणं उक्कस्से वास ॥ १३ ॥ तं जधा - सत्तट्ठ जणा बहुआ वा अपुव्त्रउवसामगा अणियट्टिउवसामगा अप्प - मत्ता वा कालं करिय देवा जादा । अंतरिदमपुव्वगुणट्ठाणं जाव उक्कस्सेण वासपुधत्तं । तदो अदिक्कते वासपुधते सत्तट्ठ जणा बहुआ वा अप्पमत्ता अपुव्वकरणउवसामगा जादा । लद्धमुक्कस्संतरं वासपुधत्तं । एवं चेव सेसतिण्हमुवसामगाणं वासपुधत्तंतरं बत्तव्वं, विसेसाभावा । १८ ] एगजीवं पडुच्च जहणेण अंतोमुहुतं ॥ १४ ॥ तं जधा - एक्को अपुव्यकरणो अणियट्टिउवसामगो सुहुमउवसामगो उवसंतसाओ होण पुणो व सुहुमउवसामगो अणियट्टिउवसामगो होदूण अपुव्व उवसामगो जादो । लद्धमंतरं । एदाओ पंच वि अद्धाओ एक्कट्ठे कदे वि अंतोमुहुत्तमेव होदिति जहणंतरमंतोमुहुत्तं होदि । 1 एवं चेव सेसतिण्हमुवसामगाण मेगजीव जहण्णंतरं वत्तव्वं । णवरि अणियट्टि - उक्त चारों उपशामकोंका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथकत्व है ।। १३ ।। जैसे - सात आठ जन, अथवा बहुतसे अपूर्वकरण उपशामक जीव, अनिवृत्तिकरण उपशामक अथवा अप्रमत्तसंयत हुए और वे मरण करके देव हुए। इस प्रकार यह अपूर्वकरण उपशामक गुणस्थान उत्कृष्टरूपसे वर्षपृथक्त्वके लिए अन्तरको प्राप्त होगया । तत्पश्चात् वर्षपृथक्त्वकालके व्यतीत होनेपर सात आठ जन, अथवा बहुतसे अप्रमत्तसंयत जीव, अपूर्वकरण उपशामक हुए। इस प्रकार वर्षपृथक्त्व प्रमाण उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त होगया । इसी प्रकार अनिवृत्तिकरणादि तीनों उपशामकोंका अन्तर वर्षपृथक्त्व प्रमाण कहना चाहिए, क्योंकि, अपूर्वकरण उपशामक के अन्तरसे तीनों उपशामकोंके अन्तर में कोई विशेषता नहीं है । चारों उपशामकोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ १४ ॥ जैसे - एक अपूर्वकरण उपशामक जीव, अनिवृत्ति उपशामक, सूक्ष्मसाम्परायिक उपशामक और उपशान्तकषाय उपशामक होकर फिर भी सूक्ष्मसाम्परायिक उपशामक और अनिवृत्तिकरण उपशामक होकर अपूर्वकरण उपशामक होगया । इस प्रकार अन्तमुहूर्तकाल प्रमाण जघन्य अन्तर उपलब्ध हुआ। ये अनिवृत्तिकरण से लगाकर पुनः अपूर्वकरण उपशामक होनेके पूर्व तकके पांचों ही गुणस्थानोंके कालोंको एकत्र करने पर भी वह काल अन्तर्मुहूर्त ही होता है, इसलिए जघन्य अन्तर भी अन्तर्मुहूर्त ही होता है । - इसी प्रकार शेष तीनों उपशामकोंका एक जीवसम्बन्धी जघन्य अन्तर कहना चाहिए । विशेष बात यह है कि अनिवृत्तिकरण उपशामकके सूक्ष्मसाम्परायिक १ उत्कर्षेण वर्षपृथक्त्वम् । स. सि. १,८. २ एक्जीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि, १, ८. [ १, ६, १३. Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, १५.] अंतराणुगमे चदुउवसामग-अंतरपरूवणं उवसामगस्स दो सुहुमद्धाओ एगा उवसंतकसायद्धा च जहण्णतरं होदि। सुहुमउवसामगस्स उवसंतकसायद्धा एक्का चेव जहण्णंतरं होदि । उवसंतकसायस्स पुण हेट्ठा उवसंतकसायमोदरिय सुहुमसांपराओ अणियट्टिकरणो अपुवकरणो अप्पमत्तो होदण पमत्तापमत्तपरावत्तसहस्सं करिय अप्पमत्तो अपुग्यो अणियट्टी सुहुमो होदूण पुणो उवसंतकसायगुणट्ठाणं पडिवण्णस्स णवद्धासमूहमेत्तमंतोमुहुत्तमंतरं होदि। उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियट्टू देसूणं ॥ १५ ॥ अपुधस्स ताव उच्चदे- एक्केण अणादियमिच्छादिट्टिणा तिण्णि करणाणि करिय उवसमसम्मत्तं संजमं च अक्कमेण पडिवण्णपढमसमए अणंतसंसारं छिंदिय अद्धपोग्गलपरियट्टमेत्तं कदेण अप्पमत्तद्धा अंतोमुहुत्तमेत्ता अणुपालिदा (१)। तदो पमत्तो जादो (२)। वेदगसम्मत्तमुवणमिय' (३) पमत्तापमत्तपरावत्तसहस्सं कादण (४) उवसमसेढीपाओग्गो अप्पमत्तो जादो (५)। अपुल्यो (६) अणियट्टी (७) सुहुमो (८) उवसंतकसायो (९) पुणो सुहुमो (१०) अणियट्टी (११) अपुवकरणो जादो (१२)। सम्बन्धी दो अन्तर्मुहूर्तकाल और उपशान्तकषायसम्बन्धी एक अन्तर्मुहूर्तकाल, ये तीनों मिलाकर जघन्य अन्तर होता है । सूक्ष्मसाम्परायिक उपशामकके उपशान्तकषायसम्बन्धी एक अन्तर्मुहूर्तकाल ही जघन्य अन्तर होता है। किन्तु उपशान्तकषाय उपशामकका उपशान्तकषायसे नीचे उतरकर सूक्ष्मसाम्पराय (१) अनिवृत्तिकरण (२) अपूर्वकरण (३) और अप्रमत्तसंयत (४) होकर, प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थानसम्बन्धी सहस्रों परावर्तनोंको करके (५) पुनः अप्रमत्त (६) अपूर्वकरण (७) अनिवृत्तिकरण (८) और सूक्ष्मसाम्परायिक होकर (९) पुनः उपशान्तकषाय गुणस्थानको प्राप्त हुए जीवकें नौ अद्धाओंका सम्मिलित प्रमाण अन्तर्मुहूर्तकाल अन्तर होता है। उक्त चारों उपशामकोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन काल है ॥१५॥ इनमेंसे पहले एक जीवकी अपेक्षा अपूर्वकरण गुणस्थानका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं- एक अनादि मिथ्यादृष्टि जीवने तीनों ही करण करके उपशमसम्यक्त्व और संयमको एक साथ प्राप्त होनेके प्रथम समयमें ही अनन्त संसारको छेदकर अर्धपुद्गलपरिवर्तनमात्र करके अन्तर्मुहूर्तप्रमाण अप्रमत्त संयतके कालका अनुपालन किया (१)। पीछे प्रमत्तसंयत हुआ २)। पुनः वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त कर (३) सहस्रों प्रमत्त-अप्रमत्त परावर्तनोंको करके (४) उपशमश्रेणीके योग्य अप्रमत्तसंयत होगया (५)। पुनः अपूर्वकरण (६) अनिवृत्तिकरण (७) सूक्ष्मलाम्पराय (८) उपशान्तकषाय (९), पुनः सूक्ष्मसाम्पराय (१०) अनिवृत्तिकरण (११) और पुनः अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती होगया (१२)। पश्चात् नीचे १ उत्कर्षेणार्धपुद्गलपरिवतों देशोनः । स. सि. १,८. २ प्रतिषु ' -मुवसामिय' इति पाठः। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ६, १६. हेट्ठा पडिय अंतरिदो अद्धपोग्गलपरिय परियट्टिदूण अपच्छिमे भवे दंसणत्तिगं खविय अपुव्वुवसामगो जादो (१३)। लद्धमंतरं । तदो अणियट्टी (१४) सुहुमो (१५) उवसंतकसाओ (१६) जादो । पुणो पडिणियत्तो सुहुमो (१७) अणियट्टी ( १८) अपुव्यो (१९) अप्पमत्तो (२०) पमत्तो (२१) पुणो अप्पमत्तो ( २२ ) अपुव्वखवगो (२३) अणियट्टी ( २४ ) सुहुमो (२५) खीणकसाओ (२६) सजोगी (२७) अजोगी (२८) होदूग णिव्बुदो । एवमट्ठावीसेहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणमद्धपोग्गलपरियट्टमपुवकरणस्सुक्कस्संतरं होदि । एवं तिण्हमुवसामगाणं । णवरि परिवाडीए छब्बीसं चउवीसं वावीसं अंतोमुहुत्तेहि ऊणमद्धपोग्गलपरियट्ट तिण्हमुक्कस्संतरं होदि । . चदुण्हं खवग-अजोगिकेवलीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ॥ १६ ॥ तं जहा- सत्तट्ठ जणा अट्टत्तरसदं वा अपुब्धकरणखवगा एक्कम्हि चेव समए सव्वे अणियट्टिखवगा जादा। एगसमयमंतरिदमपुधगुणट्ठाणं । विदियसमए सत्तट्ट जणा अगुत्तरसदं वा अप्पमत्ता अपुव्यकरणखवगा जादा । लद्धमंतरमेगसमओ । एवं गिरकर अन्तरको प्राप्त हुआ और अर्धपुद्गलपरिवर्तनकाल प्रमाण परिवर्तन करके अन्तिमभवमें दर्शनमोहनीयकी तीनों प्रकृतियोंका क्षपण करके अपूर्वकरण उपशामक हुआ(१३)। इस प्रकार अन्तरकाल उपलब्ध होगया । पुनः अनिवृत्तिकरण (१४) सूक्ष्मसाम्परायिक (१५) और उपशान्तकषाय उपशामक होगया (१६)। पुनः लौटकर सूक्ष्मसाम्परायिक (१७) अनिवृत्तिकरण (१८) अपूर्वकरण (१९) अप्रमत्तसंयत (२०) प्रमत्तसंयत (२१) पुनः अप्रमत्तसंयत (२२) अपूर्वकरण क्षपक (२३) अनिवृत्तिकरण क्षपक (२४) सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपक (२५) क्षीणकषाय क्षपक (२६) सयोगिकेवली (२७) और अयोगिकेवली(२८) होकर निर्वाणको प्राप्त हुआ। इस प्रकार अट्ठाईस अन्तर्मुहासे कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनकाल अपूर्वकरणका उत्कृष्ट अन्तर होता है। इसी प्रकारसे तीनों उपशामकोका अन्तर जानना चाहिए। किन्तु विशेष बात यह है कि परिपाटीक्रमसे अनिवृत्तिकरण उपशामकके छब्बीस, सूक्ष्मसाम्पराय उपशामकके चौबीस और उपशान्तकषायके बाईस अन्तर्मुहूर्तोंसे कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनकाल तीनों उपशामकोका उत्कृष्ट अन्तर होता है। - चारों क्षपक और अयोगिकेवलीका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय होता है ॥ १६ ॥ जैसे- सात आठ जन, अथवा अधिकसे अधिक एक सौ आठ अपूर्वकरण क्षपक एक ही समयमें सबके सब अनिवृत्तिक्षपक होगये । इस प्रकार एक समयके लिए अपूर्वकरण गुणस्थान अन्तरको प्राप्त होगया। द्वितीय समयमें सात आठ जन, अथवा एक सौ आठ अप्रमत्तसंयत एक साथ अपूर्वकरण क्षपक हुए । इस प्रकारसे अपूर्वकरण क्षपकका एक समय प्रमाण अन्तरकाल उपलब्ध होगया। इसी प्रकारसे शेष गुणस्थानोंका भी १ चतुर्णा क्षपकाणामयोगकेवालनां च नानाजीवापेक्षया जघन्येनैकः सययः । स. सि. १, ८. Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतराणुग मे सजोगिकेवलि - अंतर परूवणं १, ६, २०. ] सगुणद्वाणाणं वि' अंतरमेगसमयो वत्तव्यो । उक्कस्सेण छम्मासं ॥ १७ ॥ तं जधा - सत्तट्ठ जणा अङ्कुत्तरसदं वा अपुव्वकरणखवगा अणियट्टिखवगा जादा । अंतरिदमपुव्त्रखवगगुणट्ठाणं उक्कस्सेण जाव छम्मासा त्ति । तदो सत्तट्ठ जणा अत्तरसदं वा अप्पमत्ता अपुव्यखवगा जादा । लद्धं छम्मासुक्कस्संतरं । एवं सेसगुणट्ठाणाणं प छम्मासुक्कस्संतरं वत्तव्यं । एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ १८ ॥ कुदो ? खवगाणं पद्णाभावा । सजोगिकेवलीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीव पडुच णत्थि अंतरं णिरंतरं ॥ १९ ॥ कुदो ? सजोगिकेवलिविरहिदकालाभावा । एगजीवं पहुच णत्थि अंतरं निरंतरं ॥ २० ॥ " अन्तरकाल एक समय प्रमाण कहना चाहिए । चारों क्षपक और अयोगिकेवलीका नाना जीवोंकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तरकाल छह मास है ॥ १७ ॥ जैसे - सात आठ जन, अथवा एक सौ आठ अपूर्वकरणक्षपक जीव अनिवृत्तिकरण क्षपक हुए । अतः अपूर्वकरणक्षपक गुणस्थान उत्कर्षसे छह मास के लिए अन्तरको प्राप्त होगया । तत्पश्चात् सात आठ जन, अथवा एक सौ आठ अप्रमत्तसंयत जीव अपूर्वकरणक्षपक हुए । इस प्रकारसे छह मांस उत्कृष्ट अन्तरकाल उपलब्ध होगया । इसी प्रकारसे शेष गुणस्थानोंका भी छह मासका उत्कृष्ट अन्तरकाल कहना चाहिए । एक जीवकी अपेक्षा उक्त चारों क्षपकोंका और अयोगिकेवलीका अन्तर नहीं होता है, निरंतर है ॥ १८ ॥ क्योंकि, क्षपक श्रेणीवाले जीवोंके पतनका अभाव है । सयोगिकेवलियोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं होता है, निरन्तर है ॥ १९ ॥ क्योंकि, सयोगिकेवली जिनोंसे विरहित कालका अभाव है । उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ २० ॥ २ उत्कर्षेण षण्मासाः । स. सि. १, ८. [ २१ १ प्रतिपु ' हि ' इति पाठः । ३ एक्जीवं प्रति नास्त्यन्तरम् । स. सि. १, ८. ४ सयोगकेवलिनां नानाजीवापेक्षया एकजीवापेक्षया च नास्त्यन्तरम् । स. सि. २,८० Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ६, २२. कुदो ? सजोगीणमजोगिभावेण परिणदाणं पुणो सजोगिभावेण परिणमणाभावा । एवमोघाणुगमो समत्तो । आदेसेण गदियाणुवादेण णिरयगदीए णेरइएसु मिच्छादिट्ठिअसंजदसम्मादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णस्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ २१ ॥ कुदो ? मिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीहि विरहिदपुढवीणं सम्बद्धमणुवलंभा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहत्तं ॥ २२ ॥ मिच्छादिहिस्स उच्चदे- एक्को मिच्छादिट्ठी दिट्ठमग्गो परिणामपच्चएण सम्मामिच्छत्तं वा सम्मत्तं वा पडिवजिय सव्वजहण्णमंतोमुहुत्तमच्छिय पुणो मिच्छादिट्ठी जादो । लद्धमतोमुहुत्तमंतरं । सम्मादिदि पि मिच्छत्तं णेदूण सधजहण्णेणंतोमुहुत्तेण सम्मत्तं पडिवजाविय असंजदसम्मादिहिस्स जहण्णंतरं वत्तव्यं । क्योंकि, अयोगिकेवलीरूपसे परिणत हुए सयोगिकवलियोंका पुनः सयोगिकेवलीरूपसे परिणमन नहीं होता है । इस प्रकारसे ओघानुगंम समाप्त हुआ। आदेशकी अपेक्षा गतिमार्गणाके अनुवादसे नरकगतिमें, नारकियोंमें मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ २१ ॥ क्योंकि, मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंसे रहित रत्नप्रभादि पृथिवियां किसी भी कालमें नहीं पायी जाती हैं। एक जीवकी अपेक्षा उक्त दोनों गुणस्थानोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ २२॥ इनमेंसे पहले मिथ्यादृष्टिका जघन्य अन्तर कहते हैं- देखा है मार्गको जिसने ऐसा एक मिथ्यादृष्टि जीव परिणामोंके निमित्तसे सम्यग्मिथ्यात्वको अथवा सम्यक्त्वको प्राप्त होकर, सर्वजघन्य अन्तर्मुहूर्तकाल रहकर, पुनः मिथ्यादृष्टि होगया । इस प्रकारसे अन्तर्मुहूर्तप्रमाण जघन्य अन्तरकाल लब्ध हुआ । इसी प्रकार किसी एक असंयतसम्यग्दृष्टि नारकीको मिथ्यात्व गुणस्थानमें ले जाकर सर्वजघन्य अन्तर्मुहूर्तकाल द्वारा पुनः सम्यक्त्वको प्राप्त कराकर असंयतसम्यग्दृष्टि जीवका जघन्य अन्तर कहना चाहिए। १ विशेषेण गत्यनुवादेन नरकगतौ नारकाणां सप्तसु पृथिवीसु मिथ्यादृष्टयसंयतसम्यग्दृष्टयो नाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । स. सि. १,८. २ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहर्तः। स. सि. १,८. Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, २३.] अंतराणुगमे णेरइय-अंतरपरूवणं [२३ उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि देसूणाणि ॥ २३ ॥ तं जहा-मिच्छादिविस्स उक्कस्संतरं वुच्चदे। एक्को तिरिक्खोमणुसो वा अट्ठावीससंतकम्मिओ अधो सत्तमीए पुढवीए णेरइएसु उववण्णो छहि पज्जतीहि पज्जत्तयदो (१) विस्संतो (२) विसुद्धो (३) वेदगसम्मत्तं पडिवज्जिय अंतरिदो थोवावसेसे आउए मिच्छत्तं गदो (४)। लद्धमंतरं । तिरिक्खाउअंबंधिय (५) विस्समिय (६) उवट्टिदो। एवं छहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणाणि तेत्तीस सागरोवमाणि मिच्छत्तुक्कस्संतरं होदि । असंजदसम्मादिहिस्स उक्कस्संतर वुच्चदे- एक्को तिरिक्खो मणुस्सो वा अट्ठावीससंतकम्मिओ मिच्छादिट्ठी अधो सत्तमीए पुढवीए णेरइएसु उववण्णो । छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो (१) विस्संतो (२) विसुद्धो (३) वेदगसम्मत्तं पडिवण्णो (४) संकिलिट्ठो मिच्छत्तं गंतूणंतरिदो । अवसाणे तिरिक्खाउअं बंधिय अंतोमुहुत्तं विस्समिय विसुद्धो होदूण उवसमसम्मत्तं पडिवण्णो (५)। लद्धमंतरं । भूओ मिच्छत्तं गंतूणुबट्टिदो (६)। एवं छहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणाणि तेत्तीसं सागरोवमाणि असंजदसम्मादिट्ठि-उक्कस्संतरं होदि। मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि नारकियोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागरोपम है ॥२३॥ जैसे, पहले मिथ्यादृष्टि नारकीका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं- मोह कर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला कोई एक तिर्यंच अथवा मनुष्य, नीचे सातवीं पृथिवीके नारकियों में उत्पन्न हुआ. और छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त होकर (१), विश्राम ले (२), हो (३), वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त कर आयके थोड़े अवशेष रहने पर अन्तरको प्राप्त हो मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ (४)। इस प्रकार अन्तर प्राप्त हुआ। पुनः तिथंच आयुको बांधकर (५), विश्राम लेकर (६) निकला। इस प्रकार छह अन्तर्मुहूर्तोंसे कम तेतीस सागरोपम काल मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अन्तर है। __अब असंयतसम्यग्दृष्टि नारकीका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं- मोह कर्मकी अट्ठाईस कर्मप्रकृतियोंकी सत्तावाला कोई एक तिर्यंच, अथवा मनुष्य मिथ्यादृष्टि जीव नीचे सातवीं पृथिवीके नारकियोंमें उत्पन्न हुआ, और छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त होकर (१) विश्राम लेकर (२) विशुद्ध होकर (३) वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ (४)। पुनः संक्लिष्ट हो मिथ्यात्वको प्राप्त होकर अन्तरको प्राप्त हुआ। आयुके अन्तमें तियंचायु बांधकर पुनः अन्तर्मुहूर्त विश्राम करके विशुद्ध होकर उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ (५)। इस प्रकार इस गुणस्थानका अन्तर लब्ध हुआ । पुनः मिथ्यात्वको जाकर नरकसे निकला। इस प्रकार छह अन्तर्मुहूौसे कम तेतीस सागरोपम काल असंयतसम्यग्दृष्टिका उत्कृष्ट अन्तर होता है। १ उत्कर्षेण एक-त्रि-सप्त-दश-सप्तदश-द्वाविंशति-त्रयस्त्रिशत्सागरोपमाणि दशोनानि । स. सि. १,८. Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ६, २४. सासणसम्मादिहि-सम्मामिच्छादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ॥ २४ ॥ तं जहा- णिरयगदीए द्विदसासणसम्मादिट्ठिणो सम्मामिच्छादिविणो च सव्वे गुणंतरं गदा। दो वि गुणट्ठाणाणि एगसमयमंतरिदाणि । पुणो विदियसमए के वि उवसमसम्मादिट्ठिणो आसाणं गदा, मिच्छादिट्टिणो असंजदसम्मादिट्ठिणो च सम्मामिच्छत्तं पडिवण्णा । लद्धमंतरं दोण्हं गुणट्ठाणाणमेगसमओ । उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागों ॥ २५ ॥ तं जहा- णिरयगदीए द्विदसासणसम्मादिट्ठिणो सम्मामिच्छादिट्ठिणो च सव्वे अण्णगुणं गदा । दोण्णि वि गुणट्ठाणाणि अंतरिदाणि। उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तो दोण्हं गुणहाणाणमंतरकालो होदि । पुणो तेत्तियमेत्तकाले वदिक्ते अप्पप्पणो कारणीभूदगुणट्ठाणेहिंतो दोण्हं गुणट्ठाणाणं संभवे जादे लद्धमुक्कस्संतरं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि नारकियोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय अन्तर होता है ॥ २४ ॥ जैसे- नरकगतिमें स्थित सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि सभी जीव अन्य गुणस्थानको प्राप्त हुए, और दोनों ही गुणस्थान एक समयके लिए अन्तरको प्राप्त होगये । पुनः द्वितीय समयमें कितने ही उपशमसम्यग्दृष्टि नारकी जीव सासादन गुणस्थानको प्राप्त हुए और मिथ्यादृष्टि तथा असंयतसम्यग्दृष्टि नारकी जीव सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानको प्राप्त हुए। इस प्रकार दोनों ही गुणस्थानोंका अन्तर एक समय प्रमाण लब्ध होगया। उक्त दोनों गुणस्थानोंका उत्कृष्ट अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भाग है ॥२५॥ जैसे- नरकगतिमें स्थित सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि, ये सभी जीव अन्य गुणस्थानको प्राप्त हुए और दोनों ही गुणस्थान अन्तरको प्राप्त होगये । इन दोनों गुणस्थानोंका अन्तरकाल उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र होता है। पुनः उतना काल व्यतीत होनेपर अपने अपने कारणभूत गुणस्थानोंसे उक्त दोनों गुणस्थानोंके संभव होजानेपर पल्योपमका असंख्यातवां भागप्रमाण उत्कृष्ट अन्तर लब्ध होगया। १ सासादनसम्यग्दृष्टिसभ्यग्मिथ्यादृष्टयो नाजीवापेक्षया जघन्येनैकः समयः । स. सि. १, ८. २ उत्कर्षेण पल्योपमासंख्येयभागाः । स. सि. १, ८. Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२५ १, ६, २६.] अंतराणुगमे णेरइय-अंतरपरूवणं एगजीवं पडुच्च जहण्णेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, अंतोमुहुत्तं ॥ २६ ॥ तं जहा- 'जहा उद्देसो तहा णिद्देसो' ति णायादो सासणस्स पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, सम्मामिच्छाइट्ठिस्स अंतोमुहुत्तं जहण्णंतरं होदि । दोहं णिदरिसणंएक्को णेरइओ अणादियमिच्छादिट्ठी उवसमसम्मत्तप्पाओग्गसादियमिच्छादिट्ठी वा तिष्णि करणाणि कादूण उवसमसम्मत्तं पडिवणो । उवसमसम्मत्तेण केत्तियं हि कालमच्छिय आसाणं गंतूण मिच्छत्तं गदो अंतरिदो । पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तकालेण उव्वेलणखंडएहि सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तद्विदीओ सागरोवमपुधत्तादो हेट्ठा करिय पुणो तिण्णि करणाणि कादण उवसमसम्मत्तं पडिवज्जिय उवसमसम्मत्तद्धाए छावलियावसेसाए आसाणं गदो । लद्धमंतरं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। एक्को सम्मामिच्छादिट्ठी मिच्छत्तं सम्मत्तं वा गंतूणतोमुहुत्तमंतरिय पुणो सम्मामिच्छत्तं पडिवण्णो । लद्धमंतोमुहुत्तमंतरं सम्मामिच्छादिहिस्स । उक्त दोनों गुणस्थानोंका जघन्य अन्तर एक जीवकी अपेक्षा पल्योपमका असंख्यातवां भाग और अन्तर्मुहुर्त है ॥ २६ ॥ जैसे- जैसा उद्देश होता है, उसी प्रकारका निर्देश होता है, इस न्यायके अनुसार सासादनसम्यग्दृष्टिका जघन्य अन्तर पत्योपमका असंख्यातवां भाग, और सम्यग्मिथ्याष्टिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अब क्रमशः सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि, इन दोनों गुणस्थानोंके अन्तरका उदादरण कहते हैं- एक अनादि मिथ्यादृष्टि नारकी जीव अथवा उपशमसम्यक्त्यके प्रायोग्य सादि मिथ्यादृष्टि जीव, तीनों करणोंको करके उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ और उपशमसम्यक्त्वके साथ कितने ही काल रहकर पनः सासादन गणस्थानको जाकर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। इस प्रकार अन्तरको प्राप्त होकर पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र कालसे उद्धेलना- कांडकोंसे सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व, इन दोनों प्रकृतियोंकी स्थितिओंको सागरोपमपृथक्त्वसे नीचे अर्थात् कम करके पुनः तीनों करण करके और उपशमसम्यक्त्वका प्राप्त करके उपशमसम्यक्त्वके कालमें छह आवली काल अवशेष रह जाने पर सासादन गुणस्थानको प्राप्त हुआ। इस प्रकार पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण अन्तरकाल उपलब्ध होगया। एक सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यात्वको अथवा सम्यक्त्वको प्राप्त होकर और वहां पर अन्तर्मुहूर्तका अन्तर देकर पुनः सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। इस प्रकार सम्यग्मिथ्यादृष्टिका अन्तर्मुहूर्तप्रमाण अन्तर लब्ध होगया। १एकजीवं प्रति जघन्येन पल्योपमासंख्येयभागोऽन्तर्मुहुर्तश्च । स. सि. १,८. Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे जीवद्वाणं उक्कस्सेण तेत्तीस सागरोवमाणि देसुसाणि ॥ २७ ॥ तं जधा - एको सादिओ अणादिओ वा मिच्छादिट्ठी सत्तमपुढवीणेरइएस उबवण्णो छहि पज्जतीहि पज्जत्तयदो ( १ ) विस्तो ( २ ) विसुद्धो (३) उवसमसम्मत्तं पडवणो ( ४ ) आसाणं गंतून मिच्छत्तं गदो अंतरिदो । अवसाणे तिरिक्खाउअं बंधिय विसुद्ध होण उवसमसम्मत्तं पडिवण्णो। उवसमसम्मत्तद्धाए एगसमयावसेसाए आसाणं गदो । लद्धमंतरं । तदो मिच्छत्तं गंतूग अंतोमुहुत्तमच्छिय (५) उवट्टिदो | एवं पंचहि अंतोमुहुत्तेहि समयाहिएहि ऊणाणि तेत्तीस सागरोवमाणि सासणुक्कस्संतरं होदि । २६ ] सम्मामिच्छादिस्सि उच्चदे- एक्को तिरिक्खो मणुसो वा अट्ठावीस संतकम्मिओ सत्तमपुढवणेरइएस उववण्णो छहि पज्जतीहि पज्जत्तयदो ( १ ) विस्संतो ( २ ) विसुद्ध ( ३ ) सम्मामिच्छत्तं पडिवण्णो ( ४ ) । पुणो सम्मत्तं मिच्छत्तं वा गंतूण देसूणतेत्तीसाउट्ठिदिमंतरिय मिच्छत्तेणाउअं बंधिय विस्समिय सम्मामिच्छत्तं गदो ( ५ ) | तदो मिच्छत्तं गतूण अंतोमुहुत्तमच्छिय ( ६ ) उवट्टिदो । छहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणाणि तेत्तीस सागरोवमाणि सम्मामिच्छतुक्कस्संतरं होदि । [ १, ६, २७. सम्यग्मिथ्यादृष्टिका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागरोपम काल है ||२७|| जैसे- एक सादि अथवा अनादि मिथ्यादृष्टि जीव सातवीं पृथिवीके नारकियोंमें उत्पन्न हुआ। छहों पर्याशियोंसे पर्याप्त होकर (१) विश्राम ले (२) विशुद्ध हो (३) उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ (४) । पुनः सासादन गुणस्थानमें जाकर मिथ्यात्वको प्राप्त हो, अन्तरको प्राप्त हुआ । आयुके अन्तमें तिर्यंच आयुको बांधकर विशुद्ध हो उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ । पुनः उपशमसम्यक्त्वके कालमें एक समय अवशेष रहने पर सासादन गुणस्थानको प्राप्त हुआ । इस प्रकार अन्तर प्राप्त हुआ । पुनः मिथ्यात्वको जाकर अन्तर्मुहूर्त रह ( ५ ) निकला। इस प्रकार समयाधिक पांच अन्तर्मुहूर्तोंसे कम तेतीस सागरोपमकाल सासादन गुणस्थानका उत्कृष्ट अन्तर है । अब सम्यग्मिथ्यादृष्टिका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं - मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्ता रखनेवाला एक तिर्यच अथवा मनुष्य सातवीं पृथिवीके नारकियोंमें उत्पन्न होकर छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (१) विश्राम ले (२) विशुद्ध हो (३) सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ (४) । पुनः सम्यक्त्वको अथवा मिथ्यात्वको जाकर देशोन तेतीस सागरोपमप्रमाण आयुस्थितिको अन्तररूपसे विताकर मिथ्यात्वके द्वारा आयुको बांधकर विश्राम ले सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ (५) । पश्चात् मिथ्यात्वको प्राप्त होकर अन्तर्मुहूर्त रहकर (६) निकला। इस प्रकार छह अन्तर्मुहूर्तोंसे कम तेतीस सागरोपमकाल सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अन्तर होता है । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, ३०.] अंतराणुगमे णेरइय-अंतरपरूवणं [२७ पढमादि जाव सत्तमीए पुढवीए णेरइएस मिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ २८ ॥ कुदो ? मिच्छादिष्टि-असंजदसम्मादिद्विविरहिदसत्तमपुढवीणरइयाणं सव्वकालमणुवलंभा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥२९॥ कुदो ? मिच्छादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी अण्णगुणं णेदूण सव्वजहण्णेण अंतोमुहुत्तकालेण पुणो तं चेव गुणं पडिवज्जाविदे अंतोमुहुत्तमेत्ततरुवलंभा । उक्कस्सेण सागरोवमं तिणि सत्त दस सत्तारस वावीस तेत्तीसं सागरोवमाणि देसूणाणि ॥ ३०॥ ___ एत्थ तिण्णि-आदीसु सागरोवमसहो पादेक्कं संबंधणिज्जो । 'जहा उद्देसो तहा णिद्देसो' त्ति णायादो पढमीए पुढवीए देसूणमेगं सागरोवमं, विदियाए देसूणतिण्णि सागरोवमाणि, तदियाए देसूणसत्तसागरोवमाणि, चउत्थीए देसूणदससागरोवमाणि, प्रथम पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियों में मिथ्यााष्ट और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका अन्तर कितने काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा कोई अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ २८ ॥ क्योंकि, मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टियोंसे रहित सातों पृथिवियों में नारकियोंका सर्वकाल अभाव है। उक्त दोनों गुणस्थानोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है॥२९॥ क्योंकि, मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि, इन दोनोंको ही अन्य गुणस्थानमें ले जाकर सर्वजघन्य अन्तर्मुहूर्त कालसे पुनः उसी गुणस्थानमें पहुंचाने पर अन्तर्मुहूर्त मात्र कालका अन्तर पाया जाता है। उक्त दोनों गुणस्थानोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर देशोन एक, तीन, सात, दश, सत्तरह, बाईस और तेतीस सागरोपम काल है ॥३०॥ यहां पर तीन आदि संख्याओंमें सागरोपम शब्द प्रत्येक पर सम्बन्धित करना चाहिए । जैसा उद्देश होता है, वैसा निर्देश होता है, इस न्यायसे प्रथम पृथिवीमें देशोन एक सागरोपम, द्वितीय पृथिवीमें देशोन तीन सागरोपम, तीसरी पृथिवीमें देशोन सात सागरोपम, चौथीमें देशोन दश सागरोपम, पाचवीं में देशोन सत्तरह सागरोपम, छठीमें १ उत्कर्षेण एक-त्रि-सप्त-दश-सप्तदश-द्वाविंशति-त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि देशोनानि । स. सि. १,८. Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ ] छक्खडागमे जीवद्वाणं [ १, ६, ३०. पंचमीए देसूणसत्तारससागरोवमाणि, छट्टीए देसूणवावीससागरोवमाणि, सत्तमीए देसूणतेत्तीससागरोवमाणि त्ति वत्तव्यं । णवरि दोहं पि गुणट्ठाणाणं सत्तमाए पुढवीए देसूणपमाणं छअंतोमुहुत्तमेत्तं । तं च णिरओघे परूविदमिदि णेह परुविज्जदे । सेसपुढवीसु मिच्छादिङ्कीर्ण सग-सगआउट्ठदीओ चदुहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणाओ । के ते चत्तारि अंतोमुहुत्ता ? छ पज्जत्तीओ समाणणे एक्को, विस्समणे विदिओ, विसोहिआऊरणे तदिओ, अवसाणे मिच्छत्तं गदस्स चउत्थो अंतोमुहुत्तो । असंजदसम्मादिट्ठीणं सेसपुढवीसु सग गआउट्ठीओ पंचहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणाओ अंतरं हदि । तं जधा एक्को तिरिक्खो मस्सो वा अट्ठावीससंतकम्मिओ पढमादि जाव छट्टीसु उववण्णो छहि पज्जतीहि पज्जत्तदो ( १ ) विस्संतो ( २ ) विसुद्धो ( ३ ) सम्मत्तं पंडिवण्णो ( ४ ) सन्चलहुं मिच्छत्तं गंतू गंतरिदो । सगट्ठिदिमच्छिय उवसमसम्मत्तं पडिवण्णो ( ५ ) सासणं गंतूणुव्वट्टिदो । एवं पंचहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणाओं सग-सगद्विदीओ सम्म कस्संतरं होदि । देशोन बाईस सागरोपम और सातवी में देशोन तेतीस सागरोपम अन्तर कहना चाहिए। विशेष बात यह है कि प्रथम और चतुर्थ, इन दोनों गुणस्थानोंका सातवीं पृथिवीम देशोनका प्रमाण छह अन्तर्मुहूर्तमात्र है । वह नारकियोंके ओघ वर्णनमें कह आये हैं, इसलिए यहां नहीं कहते हैं । शेष अर्थात् प्रथमसे लगाकर छठी पृथिवीतकी छह पृथि वियोंमें मिथ्यादृष्टि नारकियोंका उत्कृष्ट अन्तर चार अन्तर्मुहूतोंसे कम अपनी अपनी आयुस्थिति प्रमाण है । शंका- वे चार अन्तर्मुहूर्त कौनसे हैं ? समाधान- छहों पर्याप्तियोंके सम्यक् निष्पन्न करनेमें एक, विश्राम में दूसरा, विशुद्धिको आपूरण करनेमें तीसरा, और आयुके अन्त में मिथ्यात्वको प्राप्त होनेका चौथा अन्तर्मुहूर्त है । असंयतसम्यग्दृष्टियों का शेष पृथिवियों में पांच अन्तर्मुहतोंसे कम अपनी अपनी आयुस्थिति प्रमाण अन्तर होता है । वह इस प्रकार है- मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला कोई एक तिर्यच अथवा मनुष्य प्रथम पृथिवीसे लेकर छठी पृथिवी तक कहीं भी उत्पन्न हुआ, और छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो ( १ ) विश्राम ले (२) विशुद्ध हो (३) सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ ( ४ ) । पुनः सर्वलघुकालसे मिध्यात्वको जाकर अन्तरको प्राप्त हुआ, और अपनी स्थिति प्रमाण मिध्यात्वमें रहकर उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ (५) । पुनः सासादन गुणस्थानमें जाकर निकला। इस प्रकार पांच अन्तर्मुहूर्तीसे कम अपनी अपनी पृथिवीकी स्थिति वहांके असंयतसम्यग्दृष्टियोंका उत्कृष्ट अन्तर होता है । १ प्रतिषु ' ऊणादे ' इति पाठः । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, ३४. ] अंतरानुगमे रइय- अंतर परूवणं [ २९ सासणसम्मादिट्टि सम्मामिच्छादिद्वीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ॥ ३१ ॥ एदस्स अत्थो सुगमो | उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ॥ ३२ ॥ जा रिओ म्हि पलिदोषमस्स असंखेज्जदिभागपरूवणा कदा, तहा एत्थ वि कादव्वा । एगजीवं पडुच्च जहणेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, अंतोमुहुत्तं ॥ ३३ ॥ एदं पित्तं सुगमं चेय, रिओहि परुविदत्तादो । उक्कस्सेण सागरोवमं तिष्णि सत्त दस सत्तारस बावीस तेत्तीसं सागरोवमाणि देणाणि ॥ ३४ ॥ दस्स स्स अत्थे भण्णमाणे- सत्तमपुढवीसासणसम्मादिट्ठि-सम्मामिच्छा उक्त सातों ही पृथिवियोंके सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि नारकियोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय है ॥ ३१ ॥ इस सूत्रका अर्थ सुगम है। उक्त पृथिवियों में ही उक्त गुणस्थानोंका उत्कृष्ट अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भाग है || ३२ || जिस प्रकार नारकियोंके ओघ अन्तरवर्णनमें पल्योपमके असंख्यातवें भागकी प्ररूपणा की है, उसी प्रकार यहां पर भी करना चाहिए । उक्त गुणस्थानों का एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर क्रमशः पल्योपमका असंख्यातवां भाग और अन्तर्मुहूर्त है || ३३ ॥ यह सूत्र भी सरल ही है, क्योंकि, नारकियोंके ओघ अन्तरवर्णनमें प्ररूपित किया जा चुका है। सातों ही पृथिवियों में उक्त दोनों गुणस्थानोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अंतर क्रमशः देशोन एक, तीन, सात, दश, सत्तरह, बाईस और तेतीस सागरोपम है ॥ ३४ ॥ इस सूत्र का अर्थ कहने पर - सातवीं पृथिवी के सासादन सम्यग्दृष्टि और सम्य Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ६, ३४. दिट्ठीणं णिरओघुक्कस्सभंगो, सत्तमपुढविं चेवमस्सिदूण तत्थेदेसिमुक्कस्सपरूवणादो । पढमादिछपुढवीसासणाणमुक्कस्से भण्णमाणे- एक्को तिरिक्खो मणुस्सो वा पढमादिछसु पुढवीसु उववण्णो । छहि पज्जतीहि पज्जत्तयदो (१) विस्संतो ( २) विसुद्धो (३) उवसमसम्मत्तं पडिवज्जिऊण आसाणं गदो (४) मिच्छत्तं गंतूगंतरिदो। सग-सगुक्कस्सद्विदीओ अच्छिय अवसाणे उवसमसम्मत्तं पडिवण्णो उवसमसम्मत्तद्धाए एगसमयावसेसाए सासणं गंतूणुव्वट्टिदो । एवं समयाहियचदुहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणाओ सगसगुक्कस्सद्विदीओ सासणाणुक्कस्संतरं होदि । __ एदेसि सम्मामिच्छादिट्ठीण उच्चदे - एक्को अट्ठावीससंतकम्मिओ अप्पिदणेरइएसु उववण्णो छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो (१) विस्संतो (२) विसुद्धो (३) सम्मामिच्छत्तं पडिवण्णो (४) मिच्छत्तं सम्मत्तं वा गंतूगंतरिदो । सगढिदिमच्छिय सम्मामिच्छत्तं पडिवण्णो (५) । लद्धमंतरं । मिच्छत्तं सम्मत्तं वा गंतूण उव्यट्टिदो (६)। छहि ग्मिथ्यादृष्टि नारकियोंका उत्कृष्ट अन्तर नारकसामान्यके उत्कृष्ट अन्तरके समान है, क्योंकि, ओघवर्णनमें सातवीं पृथिवीका आश्रय लेकर ही इन दोनों गुणस्थानोंकी उत्कृष्ट अन्तरप्ररूपणा की गई है। प्रथमादि छह पृथिवियोंके सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर कहने पर-एक तिर्यंच अथवा मनुष्य प्रथमादि छह पृथिवियों में उत्पन्न हुआ। छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (१) विश्राम ले (२) विशुद्ध हो (३) उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त होकर सासादन गुणस्थानको प्राप्त हुआ (४)। फिर मिथ्यात्वको जाकर अन्तरको प्राप्त होगया। पुनः अपनी अपनी पृथिवियोंकी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण रहकर आयुके अन्तमें उपशमसम्यकत्वको प्राप्त हुआ। उपशमसम्यक्त्वके कालमें एक समय अवशेष रह जाने पर सासादन गुणस्थानको प्राप्त होकर निकला। इस प्रकार एक समयसे अधिक चार अन्तर्मुहूर्तोंसे कम अपनी अपनी पृथिवीकी उत्कृष्ट स्थिति उस उस पृथिवीके सासादनसम्यग्दृष्टियोंका उत्कृष्ट अन्तर होता है । अब इन्हीं पृथिवियोंके सम्यग्मिथ्यादृष्टि नारकियोंका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैंमोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्ता रखनेवाला कोई एक तिर्यंच अथवा मनुष्य विवक्षित पृथिवीके नारकियों में उत्पन्न हुआ। छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (१) विश्राम ले (२) विशुद्ध हो (३) सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ (४)। पुनः मिथ्यात्वको अथवा सम्यक्त्वको जाकर अन्तरको प्राप्त हुआ, और जिस गुणस्थानको गया उसमें अपनी आयुस्थितिप्रमाण रहकर सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ (५) । इस प्रकार अन्तरकाल प्राप्त होगया। पुनः मिथ्यात्वको अथवा सम्यक्त्वको प्राप्त होकर निकला (६)। इन छहों Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३१ १, ६, ३६.] अंतराणुगमे तिरिक्ख-अंतरपरूवणं अंतोमुहुत्तेहि ऊणाओ सग-सगुक्कस्सद्विदीओ सम्मामिच्छत्तुक्कस्संतरं होदि । सधगदीहिंतो सम्मामिच्छादिट्टिणिस्सरणकमो वुच्चदे । तं जहा- जो जीवो सम्मादिट्ठी होदण आउअंबंधिय सम्मामिच्छत्तं पडिवज्जदि, सो सम्मत्तेणेव णिप्फिददि । अह मिच्छादिट्ठी होदण आउअंबंधिय जो सम्मामिच्छत्तं पडिवज्जदि, सो मिच्छत्तेणेव णिप्फिददि । कधमेदं णव्यदे ? आइरियपरंपरागदुवदेसादो । तिरिक्खगदीए तिरिक्खेसु मिच्छादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥३५॥ सुगममेदं सुत्तं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥३६॥ ___ कुदो ? तिरिक्खमिच्छादिट्ठिमण्णगुणं णेदूण सव्वजहण्णेण कालेण पुणो तस्सेव गुणस्स तम्मि ढोइदे अंतोमुहुत्तंतरुवलंभा । अन्तर्मुहूतोंसे कम अपनी अपनी पृथिवीकी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण नारकी सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका उत्कृष्ट अन्तर होता है। ___ अब सर्व गतियोंसे सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंके निकलनेका क्रम कहते हैं । वह इस प्रकार है- जो जीव सम्यग्दृष्टि होकर और आयुको बांधकर सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त होता है, वह सम्यक्त्वके साथ ही उस गतिसे निकलता है। अथवा, जो मिथ्यादृष्टि होकर और आयुको बांधकर सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त होता है, वह मिथ्यात्वके साथ ही निकलता है। शंका—यह कैसे जाना जाता है ? समाधान-आचार्यपरम्परागत उपदेशसे जाना जाता है। तिर्यंच गतिमें, तिर्यंचोंमें मिथ्यादृष्टि जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ ३५ ॥ यह सूत्र सुगम है। तिर्यंच मिथ्यादृष्टि जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥३६॥ क्योंकि, तिर्यंच मिथ्यादृष्टि जीवको अन्य गुणस्थानमें ले जाकर सर्वजघन्य कालसे पुनः उसी गुणस्थानमें लौटा ले जानेपर अन्तर्मुहूर्तप्रमाण अन्तर प्राप्त होता है। १ सम्म वा मिच्छं वा पडिवञ्जिय मरदि णियमेण || सम्मत्तमिच्छपरिणामेसु जहिं आउगं पुरा बद्धं । तहिं मरणं मरणंतसमुग्धादो वि य ण मिस्सम्मि ॥ गो. जी. २३, २४. २ तिर्यग्गतौ तिरश्वां मिथ्यादृष्टे नाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । स. सि. १,८. ३ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १, ८. Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ६, ३७. उक्कस्सेण तिण्णि पलिदोवमाणि देसूणाणि ॥ ३७॥ णिदरिसणं- एको तिरिक्खो मणुस्सो वा अट्ठावीससंतकम्मिओ तिपलिदोवमाउहिदिएसु कुक्कुड-मक्कडादिएसु उववण्णो, वे मासे गम्भे अच्छिदूग णिक्खंतो । ___एत्थ वे उवदेसा । तं जहा- तिरिक्खेसु वेमास-मुहुत्तपुधत्तस्सुवरि सम्मत्तं संजमासंजमं च जीवो पडिवज्जदि । मणुसेसु गम्भादिअट्ठवस्सेसु अंतोमुहत्तब्भहिएसु सम्मत्तं संजमं संजमासंजमं च पडिवज्जदि त्ति । एसा दक्षिणपडिवत्ती । दक्षिणं उज्जु आइरियपरंपरागदमिदि एयट्ठो । तिरिक्खेसु तिण्णिपक्ख-तिण्णिदिवस-अंतोमुहुत्तस्सुवरि सम्मत्तं संजमासंजमं च पडिवज्जदि । मणुसेसु अट्ठवस्साणमुवरि सम्मत्तं संजमं संजमासंजमं च पडिवज्जदि त्ति । एसा उत्तरपडियत्ती । उत्तरमणुज्जुवं आइरियपरंपराए णागदमिदि एयहो। पुणो मुहुत्तपुधत्तेण विसुद्धो वेदगसम्मत्तं पडिवण्णो । अवसाणे आउअंबंधिय मिच्छत्तं गदो । पुणो सम्मत्तं पडिवज्जिय कालं कादृण सोहम्मीसाणदेवेसु उववण्णो । आदिल्लेहि मुहुत्तपुधत्तब्भहिय-वेमासेहि अवसाणे उवलद्ध-वेअंतोमुहुत्तेहि य ऊणाणि तिण्णि तिथंच मिथ्यादृष्टि जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्योपम है ॥ ३७॥ ___इसका उदाहरण- मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला कोई एक तियंच अथवा मनुष्य तीन पल्योपमकी आयुस्थितिवाले कुक्कुट-मर्कट आदिमें उत्पन्न हुआ और दो मास गर्भमें रहकर निकला। ___ इस विषयमें दो उपदेश हैं। वे इस प्रकार हैं-तिर्यंचोंमें उत्पन्न हुआ जीव, दो मास और मुहूर्त-पृथक्त्वसे ऊपर सम्यक्त्व और संयमासंयमको प्राप्त करता है। मनुष्यों में गर्भकालसे प्रारंभकर, अन्तर्मुहूर्तसे अधिक आठ वर्षोंके व्यतीत हो जानेपर सम्यक्त्व, संयम और संयमासंयमको प्राप्त होता है। यह दक्षिण प्रतिपत्ति है। दक्षिण, ऋजु और आचार्यपरम्परागत, ये तीनों शब्द एकार्थक हैं । तिर्यंचों में उत्पन्न हुआ जीव तीन पक्ष, तीन दिवस और अन्तर्मुहूर्तके ऊपर सम्यक्त्व और संयमासंयमको प्राप्त होता है । मनुष्यों में उत्पन्न हुआ जीव आठ वर्षोंके ऊपर सम्यक्त्व, संयम और संयमासंयमको प्राप्त होता है। यह उत्तर प्रतिपत्ति है । उत्तर, अनृजु और आचार्यपरम्परासे अनागत, ये तीनों एकार्थवाची हैं। पुनः मुहूर्तपृथक्त्वसे विशुद्ध होकर वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। पश्चात् अपनी आयुके अन्तमें आयुको बांधकर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। पुनः सम्यक्त्वको प्राप्त हो, काल करके सौधर्म-ऐशान देवोंमें उत्पन्न हुआ। इस प्रकार आदिके मुहूर्तपृथक्त्वसे अधिक दो मासोंसे और आयुके अवसानमें उपलब्ध दो अन्तर्मुहूर्तोसे कम तीन १ उत्कर्षेण त्रीणि पल्योपमानि देशोनानि । स. सि. १, ८. Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, ३८.] अंतराणुगमे तिरिक्ख-अंतरपरूवणं [ ३३ पलिदोवमाणि मिच्छत्तुक्कस्संतरं होदि । सासणसम्मादिटिप्पहुडि जाव संजदासजदा त्ति ओघं ॥३८॥ कुदो ? ओघचदुगुणट्ठाणणाणेगजीव-जहण्णुक्कस्संतरकालेहितो तिरिक्खगदिचदुगुणड्डाणणाणेगजीव-जहण्णुक्कस्संतरकालाणं भेदाभावा । तं जहा- सासणसम्मादिट्ठीणं णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । ___एत्थ अंतरमाहप्पजाणावणट्ठमप्पाबहुगं उच्चदे- सव्वत्थोवा सासणसम्मादिहिरासी । तस्सेव कालो णाणाजीवगदो असंखेजगुणो । तस्सेव अंतरमसंखेजगुणं । एदमप्पाबहुगं ओघादिसव्वमग्गणासु सासणाणं पउंजिदव्वं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । एदस्स कालस्स साहणउवएसो उच्चदे । तं जहा- तसेसु अच्छिदूण जेण सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणि उव्वेल्लिदाणि सो सागरोवमपुधत्तेण सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तहिदिसंतकम्मेण उवसमसम्मत्तं पडिवज्जदि। एदम्हादो उवरिमासु हिदीसु जदि सम्मत्तं गेण्हदि, तो णिच्छएण वेदगसम्मत्तमेव गेण्हदि । अध एइंदिएसु जेण सम्मत्तपल्योपमकाल मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अन्तर होता है। तिर्यचोंमें सासादनसम्यग्दृष्टिसे लेकर संयतासंयत गुणस्थान तकका अन्तर ओघके समान है ॥ ३८॥ क्योंकि, ओघके इन चार गुणस्थानोंसम्बन्धी नाना और एक जीवके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकालोंसे तिर्यंचगतिसम्बन्धी इन्हीं चार गुणस्थानोसम्बन्धी नाना और एक जीवके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकालोंका कोई भेद नहीं है। वह इस प्रकार है- सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंका अन्तर नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे पल्योपमका असंख्यातवां भाग है। __ यहांपर अन्तरके माहात्म्यको बतलानेके लिए अल्पबहुत्व कहते हैं- सासादनसम्यग्दृष्टिराशि सबसे कम है। नानाजीवगत उसीका काल असंख्यातगुणा है । और उसीका अन्तर, कालसे असंख्यातगुणा है । यह अल्पबहुत्व ओघादि सभी मार्गणाओंमें सासादनसम्यग्दृष्टियोंका कहना चाहिए। सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंका अन्तर एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे पल्योपमका असंख्यातवां भाग है। इस कालके साधक उपदेशको कहते हैं। वह इस प्रकार है- त्रस जीवोंमें रहकर जिसने सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व, इन दो प्रकृतियोंका उद्वेलन किया है, वह जीव सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी स्थितिके सत्त्वरू सागरोपमपृथक्त्वके पश्चात् उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त होता है। यदि इससे ऊपरकी स्थिति रहनेपर सम्यक्त्वको ग्रहण करता है, तो निश्चयसे वेदकसम्यक्त्वको ही प्राप्त होता है । और एकेन्द्रियोंमें जा करके जिसने सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना ... १ सासादनसम्यग्दृष्टयादीनां चतुर्णा सामान्योक्तमन्तरम् । स. सि. १, ८.. Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १,६, ३८. सम्मामिच्छत्ताणि उब्वेल्लिदाणि, सो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेणूणसागरोवमेते सम्म सम्मामिच्छत्ताणं द्विदिसंतकम्मे सेसे तसेसुववज्जिय उवसमसम्मत्तं पडिबज्जदि । एदाहि विदीहि ऊणसेसकम्मट्ठिदिउव्वेल्लणकालो जेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो तेण सासणेगजीवजहणंतरं पि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेचं होदि । उकस्सेण अद्धपोग्गलपरियङ्कं देणं । णवरि विसेसो एत्थ अत्थि तं भणिस्सामोएको तिरिक्खो अणादियामिच्छादिट्ठी तिण्णि करणाणि करिय सम्मत्तं पडिवण्णपढमसमए संसारमर्णतं छिंदिय पोग्गलपरियदृद्धं काऊण उवसमसम्मत्तं पडिवण्णो आसाणं गदो मिच्छत्तं गतूणंतरिय ( १ ) अद्धपोग्गलपरियङ्कं परिभमिय दुरिमे भवे पंचिदियतिरिक्खेसु उववज्जिय मणुसेसु आउअं बंधिय तिण्णि करणाणि करिय उवसमसम्मत्तं पडिवण्णो । उवसमसम्मत्तद्धाए मणुसग दिपाओग्गआवलियासंखेज्जदिभागावसेसाए आसाणं गदो । लद्धमंतरं । आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्त सासणद्धमच्छिय मदो मणुसो जादो सच मासे गब्भे अच्छिदूणणिक्खतो सत्त वस्त्राणि अंतोमुहुत्तन्भहियपंचमासे च गमेदूण (२) वेदसम्मतं पडवण्णो ( ३ ) अनंताणुबंधी विसंजोइय ( ४ ) दंसणमोहणीयं खविय (५) अप्पमत्तो ( ६ ) पमत्तो (७) पुणो अप्पमत्तो ( ८ ) पुणो अपुव्वादिछहि अंतोमुहुत्नेहि की है, वह पल्योपमके असंख्यातवें भागसे कम सागरोपमकालमात्र सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका स्थितिसत्त्व अवशेष रहनेपर त्रस जीवोंमें उत्पन्न होकर उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त होता है । इन स्थितिओंसे कम शेष कर्मस्थिति उद्वेलनकाल चूंकि पल्योपमके असंख्यातवें भाग है, इसलिए सासादन गुणस्थानका एकजीवसम्बन्धी जघन्य अन्तर भी पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र ही होता है । 32 सासादन गुणस्थानका एक जीवसम्बन्धी उत्कृष्ट अन्तर देशोन अर्धपुद्गल - परिवर्तनप्रमाण है । पर यहां जो विशेष बात है, उसे कहते हैं- अनादि मिथ्यादृष्टि एक तिर्यच तीनों करणोंको करके सम्यक्त्वको प्राप्त होनेके प्रथम समय में अनन्त संसारको छेदकर और अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण करके उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ और सासादन गुणस्थानको गया । पुनः मिथ्यात्वको जाकर और अन्तरको प्राप्त होकर (१) अर्धपुद्गलपरिवर्तन परिभ्रमण करके द्विचरम भवमें पंचेन्द्रिय तिर्यचों में उत्पन्न होकर और मनुष्योंमें आयुको बांधकर, तीनों करणोंको करके उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ । पुनः उपशमसम्यक्त्वके कालमें मनुष्यगतिके योग्य आवलीके असंख्यातवें भागमात्र कालके अवशेष रहनेपर सासादन गुणस्थानको प्राप्त हुआ । इस प्रकारसे उक्त अन्तर लब्ध हो गया । आवलीके असंख्यातवें भागमात्र काल सासादम गुणस्थानमें रहकर मरा और मनुष्य होगया। यहांपर सात मास गर्भमें रहकर निकला तथा सात वर्ष और अन्तर्मुहूर्तसे अधिक पांच मास बिताकर (२) वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ (३) । पुनः अनन्तानुबन्धीकषायका विसंयोजन करके (४) दर्शनमोहनीयका क्षयकर (५) अप्रमत्त (६) प्रमत्त (७) पुनः अप्रमत्त (८) हो, पुनः अपूर्व Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, ३८.] अंतराणुगमे तिरिक्ख-अंतरपरूवणं [३५ (१४) णिव्याणं गदो । एवं चोद्दसअंतोमुहुत्तेहि आवलियाए असंखेज्जदिभागेण अब्भहिएहि अट्ठवस्सेहि य ऊणमद्धपोग्गलपरियट्टमंतरं होदि । एत्थुववज्जतो अत्थो वुच्चदे। तं जधा- सासणं पडिवण्णविदियसमए जदि मरदि, तो णियमेण देवगदीए उववज्जदि । एवं जाव आवलियाए असंखेज्जदिभागो देवगदिपाओग्गो कालो होदि । तदो उवरि मणुसगदिपाओग्गो आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तो कालो होदि । एवं सण्णिपंचिंदियतिरिक्ख-असण्णिपंचिंदियतिरिक्ख-चउरिदिय-तेइंदिय-वेइंदिय-एइंदियपाओग्गो होदि। एसो णियमो सव्वत्थ सासणगुणं पडिवज्जमाणाणं । सम्मामिच्छादिहिस्स णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एयसमओ, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। एत्थ दव-कालंतरअप्पाबहुगस्स सासणभंगो । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियट्ट देसूणं । णवरि एत्थ विसेसो उच्चदे- एक्को तिरिक्खो अणादियमिच्छादिट्ठी तिण्णि करणाणि काऊण सम्मत्तं पडिवण्णपढमसमए अद्धपोग्गलपरियट्टमेत्तं संसारं काऊण पढमसम्मत्तं पडिवण्णो सम्मामिच्छत्तं गदो (१) मिच्छत्तं गंतूण (२) अद्धपोग्गलपरियट्ट परियट्टिद्ग दुचरिमभवे करणादि छह गुणस्थानोसम्बन्धी छह अन्तर्मुहूर्तोंसे (१४) निर्वाणको प्राप्त हुआ। इस प्रकार चौदह अन्तर्मुहूर्तोंसे तथा आवलीके असंख्यातवें भागसे अधिक आठ वर्षांसे कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन सासादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थानका उत्कृष्ट अन्तरकाल होता है । ___ अब यहांपर उपयुक्त होनेवाला अर्थ कहते हैं। वह इस प्रकार है- सासादन गुणस्थानको प्राप्त होनेके द्वितीय समयमें यदि वह जीव मरता है तो नियमसे देवगतिमें उत्पन्न होता है। इस प्रकार आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण काल देवगतिमें उत्पन्न होनेके योग्य होता है। उसके ऊपर मनुष्यगतिके योग्य काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकारसे आगे आगे संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच, असंही पंचेन्द्रिय तिर्यंच, चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, द्धीन्द्रिय और एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होने योग्य होता है । यह नियम सर्वत्र सासादन गुणस्थानको प्राप्त होनेवालोंका जानना चाहिए। सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण अंतर है। यहां पर द्रव्य, काल और अन्तर सम्बन्धी अल्पबहुत्व सासादनगुणस्थानके समान है। इसीगुणस्थानका अन्तर एक जीबक्री अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे देशोन अर्धपुद्गलपरिवर्तन काल है । केवल यहां जो विशेषता है उसे कहते हैं- अनादि मिथ्यादृष्टि एक तिर्यंच तीनों करणोंको करके सम्यक्त्वके प्राप्त होनेके प्रथम समयमें अर्धपुद्गलपरिवर्तनमात्र संसारकी स्थितिको करके प्रथमोपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ और सम्यग्मिथ्यात्वको गया (१) फिर मिथ्यात्वको जाकर (२) अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण परिभ्रमण करके द्विचरम भवमें पंचेन्द्रिय तिर्यत्रोंमें Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६) छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ६, ३८. पंचिंदियतिरिक्खेसु उववज्जिय मणुसाउअंबंधिय अवसाणे उवसमसम्मत्तं पडिवज्जिय सम्मामिच्छत्तं गदो (३) । लद्धमंतरं । तदो मिच्छत्तं गदो (४) मणुसेसुववण्णो । उवरि सासणभंगो । एवं सत्तारसअंतोमुहुत्तब्भहिय-अट्ठवस्सेहि ऊणमद्धपोग्गलपरियट्ट सम्मामिच्छत्तुक्कस्संतरं होदि । __ असंजदसम्मादिहिस्स णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतर; एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियह देसूणं । णवरि विसेसो उच्चदे- एक्को अणादियमिच्छादिट्ठी तिण्णि करणाणि काऊण पढमसम्मत्तं पडिवण्णो (१) उवसमसम्मत्तद्धाए छावलियावसेसाए आसाणं गंतूगंतरिदो । अद्धपोग्गलपरियÉ परियट्टिदूण दुचरिमभवे पंचिंदियतिरिक्खेसु उववण्णो । मणुसेसु वासपुधत्ताउअंबंधिय उवसमसम्मत्तं पडिवण्णो । तदो आवलियाए असंखेजदिभागमेत्ताए वा एवं गंतूण समऊणछावलियमेत्ताए वा उवसमसम्मत्तद्धाए सेसाए आसाणं गंतूण मणुसगदिपाओग्गम्हि मदो मणुसो जादो (२)। उवरि सासणभंगो । एवं पण्णारसेहि अंतोमुहुत्तेहि अब्भहियअट्ठ'वस्सेहि ऊणमद्धपोग्गलपरियट्टं सम्मत्तुक्कस्संतरं होदि । उत्पन्न होकर मनुष्य आयुको बांधकर अन्तमें उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त होकर सम्यग्मिथ्यात्वको गया (३)। इस प्रकार अन्तर प्राप्त हुआ। पुनः मिथ्यात्वको गया (४) और मरकर मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ। इसके पश्चात्का कथन सासादनसम्यग्दृष्टिके समान ही है। इस प्रकार सत्तरह अन्तर्मुहूर्तोंसे अधिक आठ वर्षों से कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनकाल सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अन्तर होता है। असंयतसम्यग्दृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है; एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे देशोन अर्धपुद्गलपरिवर्तन प्रमाण अन्तरकाल है । केवल जो विशेषता है वह कही जाती है- एक अनादिमिथ्यादृष्टि जीव तीनों ही करणोंको करके प्रथमोपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ (१) और उपशमसम्यक्त्वके कालमें छह आवलियां अवशेष रह जाने पर सासादन गुणस्थानको जाकर अन्तरको प्राप्त होगया। पश्चात् अर्धपुद्गलपरिवर्तन काल परिवर्तित होकर द्विचरम भवमें पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंमें उत्पन्न हुआ। पुनः मनुष्योंमें वर्षपृथक्त्वकी आयुको बांधकर उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। पीछे आवलोके असंख्यातवें भागमात्र कालके, अथवा यहांसे लगाकर एक समय कम छह आवली कालप्रमाण तक, उपशमसम्यक्त्वके कालमें अवशेष रह जानेपर सासादन गुणस्थानको जाकर मनुष्यगतिके योग्य कालमें मरा और मनुष्य हुआ (२)। इसके ऊपर सासादनके समान कथन जानना चाहिए। इस प्रकार पन्द्रह अन्तर्मुहूतोंसे अधिक आठ वर्षसे कम अर्धपुगल परिवर्तनकाल असंयतसम्यग्दृष्टिका उत्कृष्ट अन्तर होता है। ... Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, ३९.] अंतराणुगमे तिरिक्ख-अंतरपरूवणं [३७ संजदासजदाणं णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अतरं; एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियट्टू देसूर्ण । एत्थ विसेसो उच्चदे- एक्को अणादियमिच्छादिट्ठी अद्धपोग्गलपरियट्टस्सादिसमए उवसमसम्मत्तं संजमासंजमं च जुगवं पडिवण्णो (१) छावलियावसेसाए उवसमसम्मत्तद्धाए आसाणं गंतूणंतरिदो मिच्छत्तं गदो । अद्धपोग्गलपरियट्ट परिभमिय दुचरिमे भवे पंचिंदियतिरिक्खेसु उप्पज्जिय उवसमसम्मत्तं संजमासंजमं च जुगवं पडिवण्णो (२) । लद्धमंतरं । तदो मिच्छत्तं गदो (३) आउअं बंधिय (४) विस्समिय (५) कालं गदो मणुसेसु उववण्णो । उवरि सासणभंगो । एवमट्ठारसमंतोमुहुत्तब्भहिय-अहवस्सेहि ऊणमद्धपोग्गलपरियट्ट संजदासंजदुक्कस्संतरं होदि । तिरिक्खेसु संजमासंजमग्गहणादो पुवमेव मिच्छादिट्ठी मणुसाउअं किण्ण बंधाविदो ? ण, बद्धमणुसाउमिच्छादिद्विस्स संजमग्गहणाभावा ।। पंचिंदियतिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्त-पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीसु मिच्छादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ ३९ ॥ संयतासंयतोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है; एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनकाल अन्तर है । यहांपर जो विशेषता है उसे कहते हैं- एक अनादि मिथ्यादृष्टि जीव अर्धपुद्गलपरिवर्तनके आदि समयमें उपशमसम्यक्त्वको और संयमासंयमको युगपत् प्राप्त हुआ (१) उपशमसम्यक्त्वके कालमें छह आवलियां अवशेष रह जानेपर सासादनको जाकर अन्तरको प्राप्त होता हुआ मिथ्यात्वमें गया। पश्चात् अर्धपुद्गलपरिवर्तनकाल परिभ्रमण करके द्विचरम भवमें पंचेन्द्रियतिर्यंचोंमें उत्पन्न होकर उपशमसम्यक्त्वको और संयमासंयमको युगपत् प्राप्त हआ (२)। इस प्रकार अन्तर प्राप्त हआ । पश्चात् मिथ्यात्वको गया (३) व आय बांधकर (४) विश्राम ले (५) मरकर मनुष्यों में उत्पन्न हुआ। इसके ऊपर सासादनका ही क्रम है। इस प्रकार अट्ठारह अन्तर्मुहूतौसे अधिक आठ वर्षोंसे कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनकाल संयतासंयतका उत्कृष्ट अन्तर होता है। शंका-तिर्यंचोंमें संयमासंयम ग्रहण करनेसे पूर्व ही उस मिथ्यादृष्टि जीवको मनुष्य आयुका बंध क्यों नहीं कराया ? समाधान नहीं, क्योंकि, मनुप्यायुको बांध लेनेवाले मिथ्यादृष्टि जीवके सयमका ग्रहण नहीं होता है। पंचेन्द्रिय तिर्यच, पंचेन्द्रिय तिर्यचपर्याप्त और पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिमतियोंमें मिथ्यादृष्टियोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ ३९॥ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ३८ ] छक्खडागमें जीवद्वाणं सुगममेदं सुतं । एगजीवं पडुच्च जहणेण अंतोमुहत्तं ॥ ४० ॥ कुदो ? तिन्हं पंचिदियतिरिक्खाणं तिष्णि मिच्छादिट्ठिजीवे दिट्ठमग्गे सम्मत्तं' सत्रहणकाले पुणो मिच्छत्ते गेण्हाविदे अंतोमुहुत्त कालवलंभा । उक्कस्सेण तिष्णि पलिदोवमाणि देसूणाणि ॥ ४१ ॥ [ १, ६, ४०. तं जधा - तिणि तिरिक्खा मणुसा वा अट्ठावीस संतकम्मिया तिपलिदोवमा उद्विदिसु पंचिदियतिरिक्खति गकुक्कुड-मक्कडादिएसु उववण्णा, वे मासे गन्भे अच्छिदूण णिक्खता, मुहुत्तपुधतेण विसुद्धा वेदगसम्मत्तं पडिवण्णा अवसाणे आउअं बंधिय मिच्छतं गदा । लद्धमंतरं । भूओ सम्मत्तं पडिवज्जिय कालं करिय सोधम्मीसाणदेवेसु उववण्णा । एवं वेअंतोमुहुतेहि मुहुत्तपुधत्तब्भहिय-वेमासेहि य ऊणाणि तिष्णि पलिदोवमाणि तिन्हं मिच्छादिट्ठीणमुक्कस्संतरं होदि । सासणसम्मादिट्टि सम्मामिच्छादिट्टीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ॥ ४२ ॥ " यह सूत्र सुगम है । उक्त जीवोंमें एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ ४० ॥ क्योंकि, तीनों ही प्रकारके पंचेन्द्रिय तिर्यचोंके तीन मिथ्यादृष्टि दृष्टमार्गी जीवोंको असंयतसम्यक्त्व गुणस्थानमें ले जाकर सर्वजघन्यकालसे पुनः मिथ्यात्वके ग्रहण कराने पर अन्तर्मुहूर्तकालप्रमाण अन्तर पाया जाता है । उक्त तीनों ही प्रकारके मिथ्यादृष्टि तिर्यंचोंका अन्तर कुछ कम तीन पल्योपमप्रमाण है ॥ ४१ ॥ जैसे - मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्ता रखनेवाले तीन तिर्यंच अथवा मनुष्य, तीन पल्योपमकी आयुस्थितिवाले पंचेन्द्रिय तिर्यंच त्रिक कुक्कुट, मर्कट आदिमें उत्पन्न हुए व दो मास गर्भमें रहकर निकले और मुहूर्तपृथक्त्वसे विशुद्ध होकर वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुए और आयुके अन्तमें आगामी आयुको बांधकर मिथ्यात्वको प्राप्त हुए । इस प्रकार से अन्तर प्राप्त हुआ। पुनः सम्यक्त्वको प्राप्त कर और मरण करके सौधर्म-ईशान देवोंमें उत्पन्न हुए । इस प्रकार इन दो अन्तर्मुहूर्तोंसे और मुहूर्तपृथक्त्वसे अधिक दो से कम तीन पल्योपमकाल तीनों जातिवाले तिर्यच मिथ्यादृष्टियोंका उत्कृष्ट अन्तर होता है । उक्त तीनों प्रकारके तिर्यंच सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय होता है ॥ ४२॥ १ प्रतिषु ' सम्मत्तस्स ' इति पाठः । Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, ४४.] अंतराणुगमे तिरिक्ख-अंतरपरूवणं [ ३९ तं जहा- पंचिंदियतिरिक्खतिगसासणसम्मादिट्ठिपवाहो केत्तियं पि कालं णिरंतरमागदो । पुणो सव्वेसु सासणेसु मिच्छत्तं पडिवण्णेसु एगसमयं सासणगुणविरहो होदूण विदियसमए उवसमसम्मादिट्ठिजीवेसु सासणं पडिवण्णेसु लद्धमेगसमयमंतरं । एवं चैव तिरिक्खतिगसम्मामिच्छादिट्ठीणं पि वत्तव्यं । उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ॥ ४३ ॥ तं जहा- पंचिंदियतिरिक्खतिगसासणसम्मादिट्ठि-सम्मामिच्छादिट्ठिजीवेसु सम्बेसु अण्णगुणं गदेसु दोण्हं गुणट्ठाणाणं पंचिंदियतिरिक्खतिएसु उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तंतरं होदूण पुणो दोहं गुणट्ठाणाणं संभवे जादे लद्धमंतर होदि । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, अंतोमुहुत्तं ॥४४॥ पंचिंदियतिरिक्खतियसासणाणं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, सम्मामिच्छादिट्ठीणं अंतोमुहत्तमेगजीवजहणंतरं होदि । सेसं सुगमं । जैसे-पंचेन्द्रिय तिर्यंच-त्रिक सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंका प्रवाह कितने ही काल तक निरन्तर आया । पुनः सभी सासादन जीवोंके मिथ्यात्वको प्राप्त हो जानेपर एक समयके लिए सासादन गुणस्थानका विरह होकर द्वितीय समयमें उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंके सासादन गुणस्थानको प्राप्त होनेपर एक समय प्रमाण अन्तरकाल प्राप्त होगया। इसी प्रकार तीनों ही जातिवाले तिर्यंच सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका भी अन्तर कहना चाहिए। उक्त तीनों प्रकारके तिथंच सासादन और सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है ॥ ४३ ॥ जैसे- तीनों ही जातिवाले पंचेन्द्रिय तिर्यंच सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि सभी जीवोंके अन्य गुणस्थानको चले जानेपर इन दोनों गुणस्थानोंका पंचेन्द्रिय तिर्यंचत्रिकमें उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र अन्तर होकर पुनः दोनों गुणस्थानोंके संभव हो जानेपर उक्त अन्तर प्राप्त हो जाता है। ___सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर क्रमशः पल्योपमके असंख्यातवें भाग और अन्तर्मुहूर्त है ॥४४॥ पंचेन्द्रिय तिर्यंचत्रिक सासादनसम्यग्दृष्टियोंका पल्योपमके असंख्यातवें भाग और सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका अन्तर्मुहूर्तप्रमाण एक जीवका जघन्य अन्तर होता है । शेष सुगम है। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ६, ४५. _उक्कस्सेण तिण्णि पलिदोवमाणि पुवकोडिपुधत्तेणभहियाणि ॥४५॥ __ एत्थ ताव पंचिंदियतिरिक्खसासणाणं उच्चदे । तं जहा- एक्को मणुसो णेरइओ देवो वा एगसमयावसेसाए सासणद्धाए पंचिंदियतिरिक्खेसु उववण्णो । तत्थ पंचाणउदिपुव्वकोडिअब्भहियतिण्णि पलिदोवमाणि गमिय अवसाणे ( उवसमसम्मत्तं घेत्तूण) एगसमयावसेसे आउए आसाणं गदो कालं करिय देवो जादो । एवं दुसमऊणसगहिदी सासणुक्कस्संतरं होदि । __ सम्मामिच्छादिट्ठीणमुच्चदे - एक्को मणुसो अट्ठावीससंतकम्मिओ सण्णिपंचिंदियतिरिक्खसम्मुच्छिमपज्जत्तएसु उववण्णो छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो (१) विस्संतो (२) विसुद्धो (३) सम्मामिच्छत्तं पडिवण्णो (४) अंतरिय पंचाणउदिपुव्बकोडीओ परिभमिय तिपलिदोवमिएसु उववज्जिय अवसाणे पढमसम्मत्तं घेत्तूण सम्मामिच्छत्तं गदो । लद्धमंतरं (५)। सम्मत्तं वा मिच्छत्तं वा जेण गुणेण आउअं बद्धं तं पडिवजिय (६) देवेसु उववण्णो । छहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणा सगढिदी उक्कस्संतरं होदि । एवं पंचिं उक्त दोनों गुणस्थानवर्ती तीनों प्रकारके तिर्यंचोंका अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक तीन पल्योपम है ॥४५॥ ___इनमेंसे पहले पंचेन्द्रिय तिर्यंच सासादनसम्यग्दृष्टिका अन्तर कहते हैं । जैसेकोई एक मनुष्य, नारकी अथवा देव सासादन गुणस्थानके कालमें एक समय अवशेष रह जानेपर पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंमें उत्पन्न हुआ। उनमें पंचानवे पूर्वकोटिकालसे अधिक तीन पल्योपम बिताकर अन्तमें (उपशमसम्यक्त्व ग्रहण करके) आयुके एक समय अवशेष रह जाने पर सासादन गुणस्थानको प्राप्त हुआ और मरण करके देव उत्पन्न हुआ। इस प्रकार दो समय कम अपनी स्थिति सासादन गुणस्थानका उत्कृष्ट अन्तर होता है । अब तिर्यंचत्रिक सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका अन्तर कहते हैं-मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्ता रखनेवाला कोई एक मनुष्य, संशी पंचेन्द्रिय तिर्यंच सम्मूर्चिछम पर्याप्तकोंमें उत्पन्न हुआ और छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (१) विश्राम ले (२) विशुद्ध हो (३) सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ (४) तथा अन्तरको प्राप्त होकर पंचानवे पूर्वकोटि कालप्रमाण उन्हीं तिर्यंचोंमें परिभ्रमण करके तीन पल्योपमकी आयुवाले तिर्यंचोंमें उत्पन्न होकर और अन्तमें प्रथम सम्यक्त्वको ग्रहण करके सम्यग्मिथ्यात्वको गया। इस प्रकार अन्तर प्राप्त हुआ (५)। पीछे जिस गुणस्थानसे आयु बांधी थी उसी सम्यक्त्व अथवा मिथ्यात्व गुणस्थानको प्राप्त होकर (६) देवोंमें उत्पन्न हुआ। इस प्रकार छह अन्तर्मुहूतौसे कम अपनी स्थिति ही इस गुणस्थानका उत्कृष्ट अन्तर है। इसी प्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्तकोंका Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, ४६.] अंतराणुगमे तिरिक्ख-अंतरपरूवणं [५१ दियतिरिक्खपज्जत्ताणं । णवरि सत्तेतालीसपुधकोडीओ तिण्णि पलिदोवमाणि च पुन्वुत्तदोसमयछेअंतोमुहुत्तेहि य ऊणाणि उक्कस्संतर होदि । एवं जोणिणीसु वि । णवरि सम्मामिच्छादिट्ठिउक्कस्सम्हि अस्थि विसेसो । उच्चदे- एक्को णेरइओ देवो वा मणुसो वा अट्ठावीससंतकम्मिओ पंचिंदियतिरिक्खजोणिणिकुक्कुड-मक्कडेसु उववण्णो वे मासे गम्भे अच्छिय णिक्खंतो मुहुत्तपुधत्तेण विसुद्धो सम्मामिच्छत्तं पडिवण्णो। पण्णारस पुचकोडीओ परिभमिय कुरवेसु उववण्णो । सम्मत्तेण वा मिच्छत्तेण वा अच्छिय अवसाणे सम्मामिच्छत्तं गदो। लद्धमंतरं । जेण गुणेण आउअं बद्धं, तेणेव गुणेण मदो देवो जादो । दोहि अंतोमुहुत्तेहि मुहुत्तपुधत्ताहिय-वेमासेहि य ऊणाणि पुव्यकोडिपुधत्तब्भहियतिण्णि पलिदोवमाणि उक्कस्संतरं होदि । सम्मुच्छिमेसुप्पाइय सम्मामिच्छत्तं किण्ण पडिवज्जाविदो ? ण, तत्थ इत्थिवेदाभावा । सम्मुच्छिमेसु इत्थि-पुरिसवेदा किमहूं ण होंति ? सहावदो चेय। असंजदसम्मादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ ४६॥ उत्कृष्ट अन्तर जानना चाहिए। विशेषता यह है कि सैंतालीस पूर्वकोटियां और पूर्वोक्त दो समय और छह अन्तर्मुहूतौसे कम तीन पल्योपमकाल इनका उत्कृष्ट अन्तर होता है। इसी प्रकार योनिमतियोंका भी अन्तर जानना चाहिए । केवल उनके सम्यग्मिथ्यादृष्टिसम्बन्धी उत्कृष्ट अन्तरमें विशेषता है, उसे कहते हैं- मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्ता रखनेवाला एक नारकी, देव अथवा मनुष्य, पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती कुक्कुट, मर्कट आदिमें उत्पन्न हुआ, दो मास गर्भमें रहकर निकला व मुहूर्तपृथक्त्वसे विशुद्ध होकर सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। (पश्चात् मिथ्यात्वमें जाकर) पन्द्रह पूर्वकोटिकालप्रमाण परिभ्रमण करके देवकुरु, उत्तरकुरु, इन दो भोगभूमियोंमें उत्पन्न हुआ। वहां सम्यक्त्व अथवा मिथ्यात्वके साथ रहकर आयुके अन्तमें सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। इस प्रकार अन्तर प्राप्त होगया। पश्चात् जिस गुणस्थानसे आयुको बांधा था उसी गुणस्थानसे मरकर देव हुआ। इस प्रकार दो अन्तर्मुहूर्त और मुहूर्तपृथक्त्वसे अधिक दो मासोंसे हीन पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक तीन पल्योपमकाल उत्कृष्ट अन्तर होता है। शंका--सम्मूच्छिम तिर्यंचोंमें उत्पन्न कराकर पुनः सम्यग्मिथ्यात्वको क्यों नहीं प्राप्त कराया? समाधान नहीं, क्योंकि, सम्मूछिम जीवों में स्त्रीवेदका अभाव है। शंका-सम्मूछिम जीवोंमें स्त्रीवेद और पुरुषवेद क्यों नहीं होते हैं ? समाधान -स्वभावसे ही नहीं होते हैं। उक्त तीनों असंयतसम्यग्दृष्टि तिर्यंचोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है॥ ४६॥ १ प्रतिषु छ ' इति पाठो नास्ति । Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२] छक्खंडागमे जीवाणं [१, ६, ४७. कुदो ? असंजदसम्मादिद्विविरहिदपंचिंदियतिरिक्खतिगस्स सव्वद्धमणुवलंभा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ ४७ ॥ __ कुदो ? पंचिंदियतिरिक्खतियअसंजदसम्मादिट्ठीणं दिट्ठमग्गाणं अण्णगुणं पडिवज्जिय अइदहरकालेण पुणरागयाणमंतोमुहुत्तंतरुवलंभा । ___ उक्कस्सेण तिण्णि पलिदोवमाणि पुवकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि ॥४८॥ पंचिंदियतिरिक्खअसंजदसम्मादिट्ठीणं ताव उच्चदे- एक्को मणुसो अट्ठावीससंतकम्मिओ सण्णिपंचिंदियतिरिक्खसम्मुच्छिमपज्जत्तएसु उववण्णो छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो (१) विस्संतो (२) विसुद्धो (३) वेदगसम्मत्तं पडिवण्णो (४) संकलिट्ठो मिच्छत्तं गंतूणंतरिय पंचाणउदिपुव्वकोडीओ गमेदूण तिपलिदोवमाउटिदिएसुववण्णो थोवावसेसे जीविए उवसमसम्मत्तं पडिवण्णो। लद्धमंतरं (५)। तदो उवसमसम्मत्तद्धाए छ आवलियाओ अस्थि त्ति आसाणं गंतूण देवो जादो। पंचहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणाणि पंचाणउदिपुवकोडिअब्भहियतिण्णि पलिदोवमाणि पंचिंदियतिरिक्खअसंजदसम्मादिट्ठीणं क्योंकि, असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंसे विरहित पंचेन्द्रिय तिर्यचत्रिक किसी भी कालमें नहीं पाये जाते हैं। उक्त तीनों असंयतसम्यग्दृष्टि तिर्यंचोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥४७॥ ___ क्योंकि, देखा है मार्गको जिन्होंने ऐसे तीनों प्रकारके पंचेन्द्रिय तिर्यंच असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके अन्य गुणस्थानको प्राप्त होकर अत्यल्प कालसे पुनः उसी गुणस्थानमें आनेपर अन्तर्मुहूर्त कालप्रमाण अन्तर पाया जाता है। उक्त तीनों असंयतसम्यग्दृष्टि तिर्यंचोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अंतर पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक तीन पल्योपमकाल है ॥४८॥ ___ पहले पंचेन्द्रिय तिर्यंच असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अन्तर कहते हैं- मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला एक मनुष्य, संझीपंचेन्द्रियतिथंच सम्मूच्छिम पर्याप्तकों में उत्पन्न हुआ व छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (१) विश्राम ले (२) विशुद्ध हो (३) वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हो (४) संक्लिष्ट हो मिथ्यात्वमें जाकर व अंतरको प्राप्त होकर पंचानवे पूर्वकोटियां बिताकर तीन पल्योपमकी आयुस्थितिवाले उत्तम भोगभूमियां तिर्यंचोंमें उत्पन्न हुआ और जीवनके अल्प अवशेष रहने पर उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। इस प्रकार अन्तर प्राप्त हुआ (५) । पश्चात् उपशमसम्यक्त्वके कालमें छह आवलियां अवशेष रह जानेपर सासादन गुणस्थानमें जाकर मरा और देव हुआ। इस प्रकार पांच अन्तमुहूतौसे कम पंचानवे पूर्वकोटियोंसे अधिक तीन पल्योपम प्रमाणकाल पंचेन्द्रिय तिथंच Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, ५०.] अंतराणुगमे तिरिक्ख-अंतरपरूवणं [४३ उक्कस्संतरं होदि। पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्तएसु एवं चेव । णवरि सत्तेतालीसपुचकोडीओ अहियाओ त्ति भाणिदव्यं । पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीसु वि एवं चेव । णवरि कोच्छि विसेसो अस्थि, तं परूवमो । तं जहा- एक्को अट्ठावीससंतकम्मिओ पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीसु उववण्णो । दोहि मासेहि गम्भादो णिक्खमिय मुहुत्तपुधत्तेण वेदगसम्मत्तं पडिवण्णो (१) संकिलिट्ठो मिच्छत्तं गंतूणंतरिय पण्णारस पुचकोडीओ भमिय तिपलिदोवमाउढिदिएसु उप्पण्णो। अवसाणे उवसमसम्मत्तं गदो । लद्धमंतरं (२)। छावलियावसेसाए उवसमसम्मत्तद्धाए आसाणं गदो मदो देवो जादो । दोहि अंतोमुहुत्तेहि मुहुत्तपुधत्तब्भहिय-वेमासेहि य ऊणा सगढिदी असंजदसम्मादिट्ठीणमुक्कस्संतरं होदि । ____ संजदासंजदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥४९॥ कुदो ? संजदासंजदविरहिदपंचिंदियतिरिक्खतिगस्स सव्वदाणुवलंभा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥५०॥ असंयतसम्यग्दृष्टियोंका उत्कृष्ट अन्तर होता है। पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्तकोंमें भी इसी प्रकार अन्तर होता है । विशेषता यह है कि इनके सैंतालीस पूर्वकोटियां ही अधिक होती है, ऐसा कहना चाहिए । पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमतियोंमें भी इसी प्रकार अन्तर होता है। केवल जो थोड़ी विशेषता है उसे कहते हैं । वह इस प्रकार है- मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला एक जीव पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमतियोंमें उत्पन्न हुआ। दो मासके पश्चात् गर्भसे निकलकर मुहूर्तपृथक्त्वमें वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ (१) व संक्लिष्ट हो मिथ्यात्वमें जाकर अन्तरको प्राप्त हो पन्द्रह पूर्वकोटिकाल परिभ्रमण करके तीन पल्योपमकी आयुस्थितिवाले भोगभूमियोंमें उत्पन्न हुआ। वहां आयुके अन्तमें उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। इस प्रकार अन्तर प्राप्त हुआ (२) । पुनः उपशमसम्यक्त्वके कालमें छह आवलियां अवशेष रह जाने पर सासादन गुणस्थानको प्राप्त हुआ और मरकर देव होगया। इस प्रकार दो अन्तर्मुहूर्तोंसे और मुहूर्तपृथक्त्वसे अधिक दो मासोंसे कम अपनी स्थिति असंयतसम्यग्दृष्टि योनिमती तिर्यंचोंका उत्कृष्ट अन्तर होता है। तीनों प्रकारके संयतासंयत तियचोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ ४९ ॥ क्योंकि, संयतासंयतोंसे रहित तीनों प्रकारके पंचेन्द्रिय तिर्यंच जीवोंका किसी भी कालमें अभाव नहीं है। उन्हीं तीनों प्रकारके तिर्यंच संयतासंयत जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक अन्तर्मुहूर्त है ॥ ५० ॥ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४] छक्खंडागमे जीवट्ठाण [१, ६, ५१. कुदो ? पंचिंदियतिरिक्खतिगसंजदासंजदस्स दिट्ठमग्गस्स अण्णगुणं गंतूण अइदहरकालेण पुणरागदस्स अंतोमुहुर्ततरुवलंभा । उक्कस्सेण पुवकोडिपुधत्तं ॥ ५१ ॥ तत्थ ताव पंचिंदियतिरिक्खसंजदासंजदाणं उच्चदे । तं जहा- एक्को अट्ठावीससंतकम्मिओ सण्णिपंचिंदियतिरिक्खसम्मुच्छिमपज्जत्तएसु उववण्णो छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो (१) विस्संतो (२) विसुद्धो (३) वेदगसम्मत्तं संजमासंजमं च जुगवं पडिवण्णो (४) संकिलिट्ठो मिच्छत्तं गंतूणंतरिय छण्णउदिपुधकोडीओ परिभमिय अपच्छिमाए पुव्बकोडीए मिच्छत्तेण सम्मत्तेण वा सोहम्मादिसु आउअंबंधिय अंतोमुहृत्तावसेसे जीविए संजमासजम पडिवण्णो (५) कालं करिय देवो जादो । पंचहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणाओ छण्णउदिपुचकोडीओ उक्कस्संतरं जादं । ___पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्तएसु एवं चेव । णवरि अद्वैतालीसपुव्यकोडीओ ति भाणिदव्यं । पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीसु वि एवं चेव । णवरि कोइ विसेसो अस्थि तं भणिस्सामो । तं जहा- एक्को अट्ठावीससंतकम्मिओ पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीसु उप्पण्णो - क्योंकि, देखा है मार्गको जिन्होंने, ऐसे तीनों प्रकारके पंचेन्द्रिय तिर्यंच संयतासंयतके अन्य गुणस्थानको जाकर अतिस्वल्पकालसे पुनः उसी गुणस्थानमें आने पर अन्तर्मुहूर्तप्रमाण काल पाया जाता है। उन्हीं तीनों प्रकारके तिर्यंच संयतासंयत जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व है ॥५१॥ इनमेंसे पहले पंचेन्द्रिय तिर्यंच संयतासंयतोंका अन्तर कहते हैं। जैसे-मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला एक जीव संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यच सम्मूञ्छिम पर्याप्तकोंमें उत्पन्न हुआ, व छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (१) विश्राम ले (२) विशुद्ध हो (३) वेदकसम्यक्त्व और संयमासंयमको एक साथ प्राप्त हुआ (४) तथा संक्लिष्ट हो मिथ्यात्वको जाकर और अन्तरको प्राप्त हो छयानवे पूर्वकोटिप्रमाण परिभ्रमण कर अन्तिम पूर्वकोटिमें मिथ्यात्व अथवा सम्यक्त्वके साथ सौधर्मादि कल्पोंकी आयुको बांधकर व जीवनके अन्तर्मुहूर्त अवशेष रह जाने पर संयमासंयमको प्राप्त हुआ (५) और मरण कर देव हुआ । इस प्रकार पांच अन्तर्मुहूर्तोसे हीन छयानवे पूर्वकोटियां पंचेन्द्रिय तिर्यंच संयतासंयतोंका उत्कृष्ट अन्तर होता है । पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्तकोंमें भी इसी प्रकार अन्तर होता है। विशेषता यह है कि इनके अड़तालीस पूर्वकोटिप्रमाण अन्तरकाल कहना चाहिए। पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिमतियों में भी इसी प्रकार अन्तर होता है। केवल कुछ विशेषता है उसे कहते हैं । जैसेमोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला एक जीव पंचेन्द्रिय तिथंच योनिमतियों में Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, ५४.j अंतराणुगमे तिरिक्ख-अंतरपरूवणं [१५ वे मासे गम्भे अच्छिय णिखतो मुहुत्तपुधत्तेण विसुद्धो वेदगसम्मत्तं संजमासंजमं च जुगवं पडिवण्णो (१)। संकिलिट्ठो मिच्छत्तं गंतूगंतरिय सोलसपुव्वकोडीओ परिभमिय देवाउअंबंधिय अंतोमुहुत्तावसेसे जीविए संजमासंजमं पडिवण्णो (२)। लद्धमंतरं । मदो देवो जादो । बेहि अंतोमुहुत्तेहि मुहुत्तपुधत्तब्भहिय-वेमासेहि य ऊणाओ सोलहपुव्वकोडीओ उक्कस्संतरं होदि । पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्ताणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ ५२ ॥ सुगममेदं सुत्तं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ ५३॥ कुदो ? पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तयस्स अण्णेसु अपज्जत्तएसु खुद्दाभवग्गहणाउद्विदीएसु उववज्जिय पडिणियत्तिय आगदस्स खुद्दाभवग्गहणमेत्ततरुवलंभा । उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियढें ॥ ५४॥ कुदो ? पंचिंदियतिरिक्खअपञ्जत्तयस्स अणप्पिदीयेसु उप्पन्जिय आवलियाए उत्पन्न हुआ व दो मास गर्भमें रहकर निकला, मुहूर्तपृथक्त्वसे विशुद्ध होकर, वेदकसम्यपत्वको और संयमासंयमको एक साथ प्राप्त हुआ (१)। पुनः संक्लिष्ट हो मिथ्यात्वको जाकर, अन्तरको प्राप्त हो, सोलह पूर्वकोटिप्रमाण परिभ्रमण कर और देवायु बांधकर जीवनके अन्तर्मुहूर्तप्रमाण अवशेष रहनेपर संयमासंयमको प्राप्त हुआ (२)। इस प्रकार अन्तर प्राप्त हुआ। पश्चात् मरकर देव हुआ। इस प्रकार दो अन्तर्मुहूतों और मुहूर्तपृथक्त्वसे अधिक दो माससे हीन सोलह पूर्वकोटियां पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमतियोंका उत्कृष्ट अन्तर होता है। पंचेन्द्रिय तिथंच लब्ध्यपर्याप्तकोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥५२॥ __ यह सूत्र सुगम है। पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण है ॥ ५३॥ क्योंकि, पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकका क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण आयुस्थितिवाले अन्य अपर्याप्तक जीवोंमें उत्पन्न होकर और लौटकर आये हुए जीवका क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण अन्तर पाया जाता है। पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकालप्रमाण असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन है ॥५४॥ . क्योंकि, पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकके अविवक्षित जीवोंमें उत्पन्न होकर आव Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ६, ५५. असंखेन्जदिभागमेत्तपोग्गलपरियट्टाणि परियट्टिय पडिणियत्तिय आगंतूण पंचिंदियतिरिक्खापज्जत्तेसु उप्पण्णस्स सुत्तुतंतरुवलंभा । एदं गदिं पडुच्च अंतरं ॥ ५५॥ जीवद्वाणम्हि मग्गणविसेसिदगुणट्ठाणाणं जहण्णुक्कस्संतरं वत्तव्यं । अदीदसुत्ते पुणो मग्गणाए उत्तमंतरं । तदो णेदं घडदि त्ति आसंकिय गंथकत्तारो परिहारं भणदिएवमेदं गर्दि पडुच्च उत्तं सिस्समइविप्फारणहूं । तदो ण दोसो त्ति । गुणं पडुच्च उभयदो वि णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥५६॥ एदस्सत्थो- गुणं पडुच्च अंतरे भण्णमाणे उभयदो जहण्णुक्कस्सेहिंतो णाणेगजीवेहि वा अंतरं णस्थि, गुणंतरगहणाभावा पवाहवोच्छेदाभावाच्च । मणुसगदीए मणुस-मणुसपज्जत्त-मणुसिणीसु मिच्छादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, जिरंतरं ॥ ५७ ॥ लीके असंख्यातवें भागमात्र पुद्गलपरिवर्तन परिभ्रमण करके पुनः लौटकर पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकोंमें उत्पन्न हुए जीवका सूत्रोक्त उत्कृष्ट अन्तर पाया जाता है। यह अन्तर गतिकी अपेक्षा कहा गया है ॥ ५५॥ यहां जीवस्थानखंडमें मार्गणाविशेषित गुणस्थानोंका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर कहना चाहिए। किन्तु, गत सूत्रमें तो मार्गणाकी अपेक्षा अन्तर कहा है और इसलिए वह यहां घटित नहीं होता है। ऐसी आशंका करके ग्रंथकर्ता उसका परिहार करते हुए कहते हैं कि यहां यह अन्तर-कथन गतिकी अपेक्षा शिष्योंकी बुद्धि चिस्फुरित करनेके लिए किया है, अतः उसमें कोई दोष नहीं है। गुणस्थानकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट, इन दोनों प्रकारोंसे अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥५६॥ - इसका अर्थ-गुणस्थानकी अपेक्षा अन्तर कहने पर जघन्य और उत्कृष्ट, इन दोनों ही प्रकारोंसे, अथवा नाना जीव और एक जीव इन दोनों अपेक्षाओंसे, अन्तर नहीं है; क्योंकि, उनके मिथ्यादृष्टि गुणस्थानके सिवाय अन्य गुणस्थानके ग्रहण करनेका अभाव है, तथा उनके प्रवाहका कभी उच्छेद भी नहीं होता है। मनुष्यगतिमें मनुष्य, मनुष्यपर्याप्तक और मनुष्यनियोंमें मिथ्यादृष्टि जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥५७॥ १ मनुष्यगतौ मनुष्याणां मिथ्यादृष्टेस्तिर्यग्वत् । स. सि. १, ८. Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४७ १, ६, . ५९] अंतराणुगमे मणुस्स-अंतरपरूवणं सुगममेदं सुत्तं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ ५८ ॥ कुदो ? तिविहमणुसमिच्छादिट्ठिस्स दिट्ठमग्गस्स गुणंतरं पडिवज्जिय अइदहरकालेण पडिणियत्तिय आगदस्स सबजहण्णंतोमुहुर्ततरुवलंभा । उक्कस्सेण तिण्णि पलिदोवमाणि देसूणाणि ॥ ५९॥ ताव मणुसमिच्छादिट्ठीणं उच्चदे । तं जधा- एक्को तिरिक्खो मणुस्सो वा अट्ठावीससंतकम्मिओ तिपलिदोवमिएसु मणुसेसु उववण्णो । णव मासे गन्भे अच्छिदो । उत्ताणसेज्जाए अंगुलिआहारेण सत्त, रंगतो सत्त, अथिरगमणेण सत्त, थिरगमणेण सत्त, कलासु सत्त, गुणेसु सत्त, अण्णे वि सत्त दिवसे गमिय विसुद्धो वेदगसम्मत्तं पडिवण्णो। तिण्णि पलिदोवमाणि गमेदूण मिच्छत्तं गदो। लद्धमंतरं (१)। सम्मत्तं पडिवज्जिय (२) मदो देवो जादो । एगूणवण्णदिवसब्भहियणवहि मासेहि बेअंतोमुहुत्तेहि य ऊणाणि तिण्णि पलिदोवमाणि मिच्छत्तुक्कस्संतरं जादं । एवं मणुसपज्जत्त-मणुसिणीसु वत्तव्यं, भेदाभावा । यह सूत्र सुगम है। उक्त तीनों प्रकारके मनुष्य मिथ्यादृष्टियोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ ५८ ॥ क्योंकि, दृष्टमार्गी तीनों ही प्रकारके मनुष्य मिथ्यादृष्टिके किसी अन्य गुणस्थानको प्राप्त होकर अति स्वल्पकालसे लौटकर आजाने पर सर्व जघन्य अन्तर्मुहूर्तप्रमाण अन्तर पाया जाता है। - उक्त तीनों प्रकारके मनुष्य मिथ्यादृष्टियोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्योपम है ॥ ५९॥ उनमेंसे पहले मनुष्य सामान्य मिथ्यादृष्टिका अन्तर कहते हैं । वह इस प्रकार हैमोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला कोई एक तिर्यंच अथवा मनुष्य जीव तीन पल्योपमकी स्थितिवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ। नौ मास गर्भमें रहकर निकला। फिर उत्तानशय्यासे अंगुष्ठको चूसते हुए सात, रेंगते हुए सात, अस्थिर गमनसे सात, स्थिर गमनसे सात, कलाओंमें सात, गुणोंमें सात, तथा और भी सात दिन बिताकर विशुद्ध हो वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। पश्चात् तीन पल्योपम बिताकर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। इस प्रकारसे अन्तर प्राप्त होगया (१)। पीछे सम्यक्त्वको प्राप्त होकर (२) मरा और देव होगया । इस प्रकार उनचास दिनोंसे अधिक नौ मास और दो अन्तर्मुहूतौसे कम तीन पल्योपम सामान्य मनुष्यके मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अन्तर होता है। इसी प्रकारसे मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोंमें अन्तर कहना चाहिए, क्योंकि, इनसे उनमें कोई भेद नहीं है। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ६, ६०. सासणसम्मादिट्टि -सम्मामिच्छादिट्टीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ॥ ६० ॥ कुदो ! तिविहमणुसेसु द्विदसासणसम्मादिट्ठि सम्मामिच्छादिट्ठिगुणपरिणदजीवेसु अण्णगुणं गदेसु गुणतरस्स जहण्णेण एगसमयदंसणादो । उक्कस्त्रेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ॥ ६१ ॥ कुदो ? सासणसम्मादिट्ठि सम्मामिच्छादिट्ठिगुणट्ठाणेहि विणा तिविहमणुस्साणं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तकालमवाणदंसणादो । एगजीवं पडुच्च जहणेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, अंतोमुहुतं ॥ ६२ ॥ सासणस्स जहणंतरं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । कुदो ! एत्तिएण कालेण विणा पढमसम्मत्तग्गहणपाओग्गाए सम्मत्त सम्मामिच्छत्तट्ठिदीए सागरोवमपुधत्तादो हेट्ठिमार उप्पत्तीए अभावा । सम्मामिच्छादिट्ठिस्स अंतोमुहुत्तं जहणंतरं, अण्णगुणं ४८ ] उक्त तीनों प्रकारके मनुष्य सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टियों का अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय अन्तर है ॥ ६० ॥ क्योंकि, तीनों ही प्रकारके मनुष्यों में स्थित सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे परिणत सभी जीवोंके अन्य गुणस्थानको चले जानेपर इन गुणस्थानोंका अन्तर जघन्य से एक समय देखा जाता है । उक्त मनुष्योंका उत्कृष्ट अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है ॥ ६१ ॥ क्योंकि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानके विना तीनों ही प्रकारके मनुष्योंके पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र काल तक अवस्थान देखा जाता है । उक्त तीनों प्रकारके मनुष्योंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर क्रमशः पल्योपमका असंख्यातवां भाग और अन्तर्मुहूर्त है ॥ ६२ ॥ सासादन गुणस्थानका जघन्य अन्तर पल्योपमका असंख्यातवां भाग है, क्योंकि, इतने कालके विना प्रथमसम्यक्त्वके ग्रहण करने योग्य सागरोपमपृथक्त्वसे नीचे होनेवाली सम्यक्त्वप्रकृति तथा सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिकी स्थितिकी उत्पत्तिका अभाव है । सम्यग्मिथ्यादृष्टिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त होता है, क्योंकि, उसका अन्य गुणस्थानको १ सासादनसम्यग्दृष्टि सम्यग्मिथ्यादृष्टयोर्नानाजीवापेक्षया सामान्यवत् । स. सि. १, ८. २ एक्जीवं प्रति जघन्येन पल्योपमासंख्येयभागोऽन्तर्मुहूर्तश्च । स. सि. १, ८. Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतरागमे मणुस - अंतरपरूवणं १, ६, ६३. ] गंतूण अंतमुहुत्ते पुणरागमुवलंभा । उक्कस्सेण तिष्णि पलिदोवमाणि पुव्वकोडिपुधत्तेण भहियाणि' [ ४९. ॥ ६३ ॥ मणुस सासणसम्मादिट्ठीणं ताव उच्चदे- एक्को तिरिक्खो देवो णेरइओ वा सासणद्धाए एगो समओ अस्थि त्ति मणुसो जादो । विदियसमए मिच्छत्तं गतूण अंतरिय सत्तेतालीसपुव्यको डिअब्भहियतिष्णि पलिदोवमाणि भमिय पच्छा उवसमसम्मत्तं गदो । तम्हि एगो समओ अस्थि त्ति सासणं गंतूण मदो देवो जादो । दुसमऊणा मणुसुक्कस्सट्ठिी सासणुक संतरं जादं । सम्मामिच्छादिट्ठिस्स उच्चदे एक्को अट्ठावीस संतकम्मिओ अण्णगदीदो आगदो मणुसेसु उवण्णो । गन्भादिअट्ठवस्सेसु गदेसु विसुद्धो सम्मामिच्छत्तं पडिवण्णो (१) । मिच्छत्तं गदो सत्तेतालीसपुच्त्रकोडीओ गमेदूण तिपलिदोवमिएस मणुसेसु उववण्णो आउअ बंधिय अवसाणे सम्मामिच्छत्तं गदो । लद्धमंतरं (२) । तदो मिच्छत्त-सम्मत्ताणं जेण आउअं बद्धं तं गुणं गंतूण मदो देवो जादो (३) । एवं तीहि अंतोमुहुत्ते हि अवस्से हि जाकर अन्तर्मुहूर्तसे पुनः आगमन पाया जाता है । उक्त मनुष्योंका उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिवर्षपृथक्त्वसे अधिक तीन पल्योपमकाल है ॥ ६३ ॥ I पहले मनुष्य सासादनसम्यग्दृष्टियों का उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं- एक तिर्यंच, देव अथवा नारकी जीव सासादन गुणस्थानके कालमें एक समय अवशेष रहने पर मनुष्य हुआ । द्वितीय समयमें मिथ्यात्वको जाकर और अन्तरको प्राप्त होकर सैंतालीस पूर्वकोटियों से अधिक तीन पल्योपमकाल परिभ्रमणकर पीछे उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ । उस उपशमसम्यक्त्वके काल में एक समय अवशेष रहनेपर सासादन गुणस्थानको जाकर मरा और देव होगया । इस प्रकार दो समय कम मनुष्यकी उत्कृष्ट स्थिति सासादन गुणस्थानका उत्कृष्ट अन्तर होगया । अब मनुष्य सम्यग्मिथ्यादृष्टिका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं - मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला कोई एक जीव अन्य गतिसे आकर मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ । गर्भको आदि लेकर आठ वर्षोंके व्यतीत होने पर विशुद्ध हो सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ (१) । पुनः मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ, सैंतालीस पूर्वकोटियां बिताकर, तीन पल्योपमकी स्थितिवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ और आयुको बांधकर अन्तमें सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ । इस प्रकार से अन्तर लब्ध हुआ (२) । तत्पश्चात् मिथ्यात्व और सम्यक्त्वमें से जिसके द्वारा आयु बांधी थी, उसी गुणस्थानको जाकर मरा और देव होगया (३) । इस प्रकार तीन १ उत्कर्षेण त्रीणि पल्योपमानि पूर्वकोटीपृथक्त्वैरभ्यधिकानि । स. सि. १, ' 16. २ प्रतिषु 'दुसमऊणाणमणुक्कस्सट्ठिदी ' इति पाठः । Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०] छक्खंडागमे जीवठ्ठाणं [१, ६, ६४. य ऊणा सगट्ठिदी सम्मामिच्छत्तुक्कस्संतरं । एवं मणुसपज्जत्त-मणुसिणीणं पि । णवरि मणुसपज्जत्तेसु तेवीस पुव्वकोडीओ, मणुसिणीसु सत्त पुव्वकोडीओ तिसु पलिदोवमेसु अहियाओ त्ति वत्तव्यं । असंजदसम्मादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ ६४ ॥ सुगममेदं सुत्तं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुत्तं ॥६५॥ कुदो ? तिविहमणुसेसु द्विदअसंजदसम्मादिस्सि अण्णगुणं गंतूणंतरिय पडिणियत्तिय अंतोमुहुत्तेण आगमणुवलंभा । उक्कस्सेण तिण्णि पलिदोवमाणि पुरकोडिपुधत्तेणभहियाणि ॥६६॥ मणुसअसंजदसम्मादिट्ठीणं ताव उच्चदे- एक्को अट्ठावीससंतकम्मिओ अण्णगदीदो अन्तर्मुहूर्त और आठ वर्षोंसे कम अपनी स्थिति सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अन्तर है। इसी प्रकार मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यनियोंका भी अन्तर जानना चाहिए । विशेष बात यह है कि मनुष्यपर्याप्तकोंमें तेवीस पूर्वकोटियां और तीन पल्योपमका अन्तर कहना चाहिए । और मनुष्यनियोंमें सात पूर्वकोटियां तीन पल्योपमोंमें अधिक कहना चाहिए। असंयतसम्यग्दृष्टि मनुष्यत्रिकका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ ६४ ॥ यह सूत्र सुगम है। एक जीवकी अपेक्षा मनुष्यत्रिकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ ६५ ॥ क्योंकि, तीन प्रकारके मनुष्योंमें स्थित असंयतसम्यग्दृष्टिका अन्य गुणस्थानको जाकर अन्तरको प्राप्त हो और लौटकर अन्तर्मुहूर्तसे आगमन पाया जाता है । असंयतसम्यग्दृष्टि मनुष्यत्रिकका उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिवर्षपृथक्त्वसे अधिक तीन पल्योपम है ॥६६॥ इनमेंसे पहले मनुष्य असंयतसम्यग्दृष्टिका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं- अट्ठाईस मोह१ असंयतसम्यग्दृष्टेर्नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । स. सि. १, ८. २ एकजीवापेक्षया जघन्येनान्तर्मुहूर्तः। स. सि. १, ८. ३ उत्कर्षेण त्रीणि पल्योपमानि पूर्वकोटीपृथक्त्वैरभ्यधिकानि । स. सि. १,८. Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, ६८.] अंतराणुगमे मणुस्स-अंतरपरूवणं [५१ आगदो मणुसेसु उववण्णो । गब्भादिअहवस्सेसु गदेसु विसुद्धो वेदगसम्मत्तं पडिवण्णो (१)। मिच्छत्तं गंतूगंतरिय सत्तेत्तालीसपुचकोडीओ गमेदूण तिपलिदोवमिएसु उववण्णो । तदो बद्धाउओ संतो उवसमसम्मत्तं पडिवण्णो (२)। उवसमसम्मत्तद्धाए छ आवलियावसेसाए सासणं गंतूण मदो देवो जादो । अहवस्सेहि वहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणा सगहिदी असंजदसम्मादिट्ठीणं उक्कस्संतरं होदि । एवं मणुसपज्जत्त-मणुसिणीणं पि । णवरि तेवीस-सत्तपुषकोडीओ तिपलिदोवमेसु अहियाओ त्ति वत्तव्यं । संजदासंजदप्पहुडि जाव अप्पमत्तसंजदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ ६७ ॥ सुगगमेदं सुत्तं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहत्तं ॥ ६८॥ कुदो ? तिविहमणुसेसु द्विदतिगुणवाणजीवस्स अण्णगुणं गंतूर्णतरिय पुणो अंतोमुहुत्तेण पोराणगुणस्सागमुवलंभा। प्रकृतियोंकी सत्तावाला कोई एक जीव अन्यगतिसे आया और मनुष्यों में उत्पन्न हुआ। पुनः गर्भको आदि लेकर आठ वर्षके बीतनेपर विशुद्ध हो वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ (१) । पुनः मिथ्यात्वको जाकर अन्तरको प्राप्त हो सैंतालीस पूर्वकोटियां बिताकर तीन पल्योपमवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ। तत्पश्चात् आयुको बांधता हुआ उपशमसम्यत्वको प्राप्त हुआ (२)। उपशमसम्यक्त्वके कालमें छह आवलियां अवशेष रहनेपर सासादन गुणस्थानको जाकर मरा और देव हुआ। इस प्रकार आठ वर्ष और दो अन्तमुहूतोसे कम अपनी स्थिति असंयतसम्यग्दृष्टिका उत्कृष्ट अन्तर है। इसी प्रकार मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यनियोंका भी अन्तर कहना चाहिए । विशेष बात यह है कि मनुष्यपर्याप्त असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अन्तर तेईस पूर्वकोटियां तीन पल्योपममें अधिक तथा मनुष्यनियों में सात पूर्वकोटियां तीन पल्योपममें अधिक होती हैं, ऐसा कहना चाहिए। संयतासंयतोंसे लेकर अप्रमत्तसंयतों तकके मनुष्यत्रिकोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ ६७ ॥ यह सूत्र सुगम है। उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ ६८॥ क्योंकि, तीन प्रकारके मनुष्यों में स्थित संयतासंयतादि तीन गुणस्थानवर्ती जीवका अन्य गुणस्थानको जाकर अन्तरको प्राप्त होकर और पुनः लौटकर अन्तर्मुहूर्त द्वारा पुराने गुणस्थानका होना पाया जाता है। १ संयतासंयतप्रमत्ताप्रमत्तानां नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । स. सि. १, ८. २ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १, ८, Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ६, ६९. उक्कस्सेण पुवकोडिपुधत्तं ॥ ६९ ॥ मणससंजदासंजदाणं ताव उच्चदे- एक्को अट्ठावीससंतकम्मिओ अण्णगदीदो आगंतूण मणुसेसु उववण्णो । अट्ठवस्सिओ जादो वेदगसम्मत्तं संजमासंजमं च समगं पडिवण्णो (१)। मिच्छत्तं गंतूगंतरिय अदालीसपुधकोडीओ परिभमिय अवसाणे देवाउअंबंधिय संजमासंजमं पडिवण्णो । लद्धमंतरं (२)। मदो देवो जादो । एवं अहवस्सेहि वे-अंतोमुहुत्तेहि य ऊणाओ अद्वेदालासपुधकोडीओ संजदासंजदुक्कस्संतरं होदि। पमत्तस्स उक्कस्संतरं उच्चदे- एक्को अट्ठावीससंतकम्मिओ अण्णगदीदो आगंतूण मणुसेसु उववण्णो । गब्भादिअहवस्सेहि वेदगसम्मत्तं संजमं च पडिवण्णो अप्पमत्तो (१) पमत्तो होदूण (२) मिच्छत्तं गंतूगंतरिय अद्वेतालीसपुयकोडीओ परिभमिय अपच्छिमाए पुयकोडीए बद्धाउओ संतो अप्पमत्ते। होइंग पमत्तो जादो । लद्धमंतरं (३)। मदो देवो जादो। तिण्णिअंतोमुहुत्तब्भहियअट्ठवस्सेणूणअद्वेदालीसपुत्धकोडीओ पमत्तुक्कस्संतरं होदि। उक्त तीनों गुणस्थानवाले मनुष्यत्रिकोंका उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटीपृथक्त्व है ॥ ६९॥ इनमेंसे पहले मनुष्य संयतासंयतका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं- मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्ता रखनेवाला कोई एक जीव अन्यगतिसे आकर मनुष्योंमें उत्पन्न हो आठ वर्षका हुआ। और वेदकसम्यक्त्व तथा संयमासंयमको एक साथ प्राप्त हुआ (१)। पुनः मिथ्यात्वको जाकर अन्तरको प्राप्त हो अड़तालीस पूर्वकोटियां परिभ्रमण कर आयुके अन्तमें देवायुको बांधकर संयमासंयमको प्राप्त हुआ। इस प्रकारसे उक्त अन्तर ब्ध हुआ (२)। पुनः मरा और देव हुआ। इस प्रकार आठ वर्ष और दो अन्तर्मुहूतौसे कम अड़तालीस पूर्वकोटियां संयतासंयतका उत्कृष्ट अन्तर होता है ___अब प्रमत्तसंयतका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं- मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्ता रखनेवाला कोई एक जीव अन्यगतिसे आकर मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ। पुनः गर्भको आदि लेकर आठ वर्षसे वेदकसम्यक्त्व और संयमको प्राप्त हुआ। पश्चात् वह अप्रमत्तसंयत (१)प्रमत्तसंयत होकर (२) मिथ्यात्वमें जाकर और अन्तरको प्राप्त होकर, अड़तालीस पूर्वकोटियां परिभ्रमण कर अन्तिम पूर्वकोटिमें बद्धायुष्क होता हुआ अप्रमत्तसंयत होकर पुनः प्रमत्तसंयत हुआ। इस प्रकारसे अन्तर लब्ध होगया (३)। पश्चात् मरा और देव होगया। इस प्रकार तीन अन्तर्मुहूतौसे अधिक आठ वर्षसे कम अड़तालीस पूर्वकोटियां प्रमत्तसंयतका उत्कृष्ट अन्तर होता है। १ उत्कर्षेण पूर्वकोटीपृथक्त्वानि । स. सि. १,८. Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५३ १, ६, ७१.] अंतराणुगमे मणुस्स-अंतरपरूवणं अप्पमत्तस्स उक्कस्संतरं उच्चदे- एक्को अट्ठावीससंतकम्मिओ अण्णगदीदो आगंतूण मणुसेसु उप्पज्जिय गम्भादिअट्ठवस्सिओ जादो । सम्मत्तं अप्पमत्तगुणं च जुगवं पडिवण्णो (१)। पमत्तो होदूगंतरिदो अद्वेतालीसपुधकोडीओ परिभमिय अपच्छिमाए पुब्धकोडीए बद्धदेवाउओ संतो अप्पमत्तो जादो । लद्धमंतरं (२)। तदो पमत्तो होदूण (३) मदो देवो जादो । तीहि अंतीमुहुत्तेहि अब्भहियअहवस्सेहि ऊणाओ अद्वेदालीसपुव्यकोडीओ उक्करसंतरं । पज्जत्त-मणुसिणीसु एवं चेव । णवरि पज्जत्तेसु चउर्वासपुवकोडीओ. मणुसिणीसु अट्टपुषकोडीओ त्ति वत्तव्यं । चदुण्हमुवसामगाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ॥ ७० ॥ कुदो ? तिविहमणुस्साणं चउब्धिहउवसामगेहि विणा एगसमयावट्ठाणुवलंभा । उक्कस्सेण वासपुधत्तं ॥ ७१ ॥ कुदो ? तिविहमणुस्साणं चउब्धिहउवसामगेहि विणा उक्कस्सेण वासपुधत्तावट्ठाणुवलंभादो। ____ अब अप्रमत्तसंयतका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं- मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्ता रखनेवाला कोई एक जीव अन्य गतिसे आकर मनुष्यों में उत्पन्न होकर गर्भको आदि लेकर आठ वर्षका हुआ और सम्यक्त्व तथा अप्रमत्त गुणस्थानको एक साथ प्राप्त हुआ (१)। पुनः प्रमत्तसंयत हो अन्तरको प्राप्त हुआ और अड़तालीस पूर्वकोटियां परिभ्रमण कर अन्तिम पूर्वकोटिमें देवायुको बांधता हुआ अप्रमत्तसंयत होगया। इस प्रकारसे अन्तर प्राप्त हुआ (२)। तत्पश्चात् प्रमत्तसंयत होकर (३) मरा और देव होगया । ऐसे तीन अन्तर्मुहूसे अधिक आठ वर्षोंसे कम अड़तालीस पूर्वकोटियां उत्कृष्ट अन्तर होता है। पर्याप्त मनुष्यनियों में इसी प्रकारका अन्तर होता है। विशेष बात यह है कि इन पर्याप्तमनुष्योंके चौवीस पूर्वकोटि और मनुष्यनियोंमें आठ पूर्वकोटिकालप्रमाण अन्तर कहना चाहिए। चारों उपशामकोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय अन्तर है ॥ ७० ॥ क्योंकि, तीनों ही प्रकारके मनुष्योंका चारों प्रकारके उपशामकोंके विना एक समय अवस्थान पाया जाता है। चारों उपशामकोंका उत्कर्षसे वर्षपृथक्त्व अन्तर है ॥ ७१ ॥ फ्योंकि, तीनों प्रकारके मनुष्योंका चारों प्रकारके उपशामकोंके विना उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व रहनेवाला पाया जाता है। १ चतुर्णामुपशमकानां नानाजीवापेक्षया सामान्यवत् । स. सि. १, ८. Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ ] छक्खडागमे जीवद्वाणं एगजीवं पहुच जहणेण अंतोमुहुत्तं ॥ ७२ ॥ सुगममेदं सुत्तं, ओहि उत्तत्तादो । उक्कस्सेण पुव्वकोडिपुधतं ॥ ७३ ॥ मस्साणं ताव उच्चदे- एक्को अट्ठावीस संतकम्मिओ मणुसेसु उववण्णो गन्भादिअवस्सेहि सम्मत्तं संजमं च समगं पडिवण्णो (१) । पमत्तापमत्तसंजदट्ठाणे सादासादबंध परावत्तिसहस्सं काढूण (२) दंसणमोहणीयमुवसामिय (३) उवसमसेढीपाओग्गअप्पमत्तो जादो ( ४ ) । अपुव्वो ( ५ ) अणियट्टी ( ६ ) सुहुमो (७) उवसंतो ( ८ ) सुमो (९) अणिट्टी (१०) अपुव्वो ( ११ ) अपमत्तो हो दूणंतरिदो । अट्ठेतालीसपुव्वकोडीओ परिभमिय अपच्छिमाए पुञ्चकोडीए बद्धदेवाउओ सम्मत्तं संजमं च पडिवजय दंसणमोहणीयमुवसामिय उवसमसेठीपाओग्गविसोहीए विसुज्झिय अपमत्तो होदूण अन्धो जादो । लद्धमंतरं । तदो विद्दा- पयलाणं बंधवोच्छेदपढमसमए कालं गदो देवो जादो । अवस्सेहि एक्कारस अंतोमुहुत्तेहि य अपुव्वद्धाए सत्तमभागेण च ऊणाओ अट्ठेतालीसपुचकोडीओ उक्कस्संतरं होदि । एवं चेत्र तिण्हमुत्रसामगाणं । णवरि दस हिं [ १, ६, ७२. उक्त गुणस्थानोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ ७२ ॥ यह सूत्र सुगम है, क्योंकि, ओघमें कहा जा चुका है। चारों उपशामकोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व है || ७३ ॥ इनमें से पहले मनुष्य सामान्य उपशामकोंका अन्तर कहते हैं-मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्ता रखनेवाला कोई एक जीव मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ, और गर्भको 'आदि लेकर आठ वर्षसे सम्यक्त्व और संयमको एक साथ प्राप्त हुआ (१) । प्रमत्त और अप्रमत्त संयत गुणस्थान में साता और असाता वेदनीयके बंध परावर्तन - सहस्रोंको करके (२) दर्शनमोहनीयका उपशम करके (३) उपशमश्रेणीके योग्य अप्रमत्तसंयत हुआ (४) । पुनः अपूर्वकरण (५) अनिवृत्तिकरण (६) सूक्ष्मसाम्पराय (७) उपशान्तकषाय (८) सूक्ष्मसाम्पराय ( ९ ) अनिवृत्तिकरण (१०) अपूर्वकरण (११) और अप्रमत्तसंयत हो अन्तरको प्राप्त होकर अड़तालीस पूर्वकोटियों तक परिभ्रमण कर अन्तिम पूर्वकोटि देवायुको बांध कर सम्यक्त्व और संयमको युगपत् प्राप्त होकर दर्शनमोहनीयका उपशमकर उपशमश्रेणीके योग्य विशुद्धिसे विशुद्ध होता हुआ अप्रमत्तसंयत होकर अपूर्वकरणसंयत हुआ । इस प्रकारसे अन्तर उपलब्ध होगया । तत्पश्चात् निद्रा और प्रचलाके बंध-विच्छेदके प्रथम समयमें कालको प्राप्त हो देव हुआ । इस प्रकार आठ वर्ष और ग्यारह अन्तर्मुहूर्तीसे तथा अपूर्वकरणके सप्तम भागसे कम अड़तालीस पूर्वकोटिकाल उत्कृष्ट अन्तर होता है । इसी प्रकारसे शेष तीन उपशामकोंका भी अन्तर १ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १, ८. २ उत्कर्षेण पूर्व कोटीपृथक्त्वानि । स. सि. १८ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, ७६.] अंतराणुगमे मणुस्स-अंतरपरूवणं णवहि अट्ठहि अंतोमुहुत्तेहि एगसमयाहियअट्ठवस्सेहि य ऊणाओ अटेदालीसपुत्रकोडीओ उक्कस्संतरं होदि त्ति वत्तव्यं । पज्जत्त-मणुसिणीसु एवं चेव । णवरि पजत्तेसु चउवासं पुव्वकोडीओ, मणुसिणीसु अट्ठ पुत्रकोडीओ त्ति वत्तव्यं । चदुण्हं खवा अजोगिकेवलीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ॥ ७४॥ कुदो ? एदेसु गुणट्ठाणेसु अण्णगुणं णिबुदिं च गदेसु एदेसिमेगसमयमेत्तजहण्णंतरुवलंभा । उक्कस्सेण छम्मासं, वासपुधत्तं ॥ ७५ ॥ मणुस-मणुसपज्जत्ताणं छमासमंतरं होदि । मणुसिणीसु वासपुधत्तमंतरं होदि । जहासंखाए विणा कधमेदं णव्वदे ? गुरुवदेसादो । एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ ७६ ॥ कुदो ? भूओ आगमणाभावा। णिरंतरणिद्देसो किमé वुच्चदे ? णिग्गयमंतरं जम्हा होता है। किन्तु उनमें क्रमशः दश, नौ और आठ अन्तर्मुहूर्तीसे और एक समय अधिक आठ वर्षों से कम अड़तालीस पूर्वकोटियां उत्कृष्ट अन्तर होता है, ऐसा कहना चाहिए। मनुष्यपर्याप्तोंमें वा मनुष्यनियों में भी ऐसा ही अन्तर होता है। विशेषता यह है कि पर्याप्तोंमें चौवीस पूर्वकोटियों और मनुष्यनियोंमें आठ पूर्वकोटियोंके कालप्रमाण अन्तर कहना चाहिए। चारों क्षपक और अयोगिकेवलियोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय है ॥ ७४ ॥ क्योंकि, इन गुणस्थानोंके जीवोंसे चारों क्षपकोंके अन्य गुणस्थानों में तथा अयोगिकेवल के निर्वृतिको चले जानेपर एक समयमात्र जघन्य अन्तर पाया जाता है। उक्त जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर, छह मास और वर्षपृथक्त्व होता है ॥ ७५ ॥ मनुष्य और मनुष्यपर्याप्तक क्षपक वा अयोगिकेवलियोंका उत्कृष्ट अन्तर छह मासप्रमाण है । मनुष्यनियों में वर्षपृथक्त्वप्रमाण अन्तर होता है। शंका-सूत्रमें यथासंख्य पदके विना यह बात कैसे जानी जाती है ? समाधान-गुरुके उपदेशसे । चारों क्षपकोंका एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ ७६ ॥ क्योंकि,चारों क्षपक और अयोगिकेवलोके पुनः आगमनका अभाव है। शंका-सूत्रमें निरन्तर पदका निर्देश किस लिए है ? समाधान निकल गया है अन्तर जिस गुणस्थानसे, उस गुणस्थानको निरन्तर १ शेषाणां सामान्यवत् । स. सि. १, ८. Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ६, ७७. गुणट्टाणादो तं गुणट्टाणं णिरंतर मिदि विहिमुहेण दव्यट्ठियणयावलंबिसिस्साणं पडिसेहपण । सजोगिकेवली ओघं ॥ ७७ ॥ णाणेगजीवं पच णत्थि अंतरं, णिरंतर मिच्चेद्रेण भेदाभावा । मणुसअपज्जत्ताणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ॥ ७८ ॥ किम मेदस्स एम्महंतस्स रासिस्स अंतरं होदि ? एसो सहाओ एदस्स । ण च सहावे जुत्तिवास्स पवेसो अस्थि, भिण्णविसयादो । उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ॥ ७९ ॥ सुगममेदं सुतं । एगजीवं पडुच्च जहणेण खुदाभवग्गहणं ॥ ८० ॥ कुदो ? अप्पिदअपज्जत्तएस उपज्जिय अइदहरकालेण आगदस्स खुद्दाभवहणमेत्तं तरुत्रलंभा । कहते हैं । इस प्रकार विधिमुख से द्रव्यार्थिकनयके अवलम्बन करनेवाले शिष्योंके प्रतिषेध प्ररूपण करनेके लिए ' निरन्तर ' इस पदका निर्देश सूत्रमें किया गया है । सयोगिकेवलीका अन्तर ओघके समान है ॥ ७७ ॥ क्योंकि, ओघमें वर्णित नाना जीव और एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है, इस प्रकारसे इस प्ररूपणा में कोई भेद नहीं है । मनुष्य लब्ध्यपर्यातकोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवों की अपेक्षा जघन्यसे एक समय अन्तर है ।। ७८ ।। शंका- इस इतनी महान् राशिका अन्तर किस लिए होता है ? समाधान- -यह तो राशियोंका स्वभाव ही है । और स्वभावमें युक्तिवादका प्रवेश है नहीं, क्योंकि, उसका विषय भिन्न है । मनुष्य लब्ध्यपर्याप्तकों का उत्कृष्ट अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भाग है ॥ ७९ ॥ यह सूत्र सुगम है । एक जीवकी अपेक्षा लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्योंका जघन्य अन्तर क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण है ॥ ८० ॥ क्योंकि, अविवक्षित लब्ध्यपर्याप्तकोंमें उत्पन्न होकर अति स्वल्पकाल से पुनः लब्ध्यपर्याप्तकों में आए हुए जीवके क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण अन्तर पाया जाता है । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, ८५. ] अंतराणुगमे देव - अंतरपरूवणं [ ५७ उक्कस्सेण अनंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियद्रं ॥ ८१ ॥ कुदो ! मणुस अपज्जत्तस्स एइंदियं गदस्स आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तपोलपरियडी परियण पडिणियत्तिय आगदस्स सुत्तुतं तरुवरंभा । एदं गदं पडुच्च अंतरं ॥ ८२ ॥ सिस्साणमंतरसंभवपदुप्पायणटुमेदं सुत्तं । गुणं पडुच्च उभयदो वि णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ ८३ ॥ उभयदो जहण्णुक्कस्सेण णाणेगजीवेहि वा णत्थि अंतरमिदि वृत्तं होदि । कुदो ? मग्गणमछंडिय गुणंतरग्गहणाभावा । देवदीए देवसु मिच्छादिट्टि असंजदसम्मादिट्टीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ ८४ ॥ सुगममेदं सुतं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुतं ॥ ८५ ॥ उक्त लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्योंका उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकालात्मक असंख्यात पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है ॥ ८१ ॥ क्योंकि, एकेन्द्रियों में गये हुए लब्ध्यपर्याप्त मनुष्यका आवलीके असंख्यातवें भागमात्र पुद्गलपरिवर्तन परिभ्रमण कर पुनः लौटकर आये हुए जीवके सूत्रोक्त उत्कृष्ट अन्तर पाया जाता है । यह अन्तर गतिकी अपेक्षा कहा है ।। ८२ ॥ यह सूत्र शिष्योंको अन्तरकी संभावना बतलानेके लिए कहा गया है। गुणस्थानकी अपेक्षा तो दोनों प्रकारसे भी अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ ८३॥ उभयतः अर्थात् जघन्य और उत्कर्षसे, अथवा नाना जीव और एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, यह अर्थ कहा गया समझना चाहिए। क्योंकि, मार्गणाको छोड़े विना लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंके अन्य गुणस्थानका ग्रहण हो नहीं सकता । देवगति में, देवों में मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ ८४ ॥ यह सूत्र सुगम है। उक्त मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ ८५ ॥ १ देवगतौ देवानां मिथ्यादृष्टयसंयत सम्यग्दृष्टयोर्न । नाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । स. सि. १, ८. २ एक्जीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १,८. Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८] छक्खंडागमे जीवाणं [ १, ६, ८६. कुदो ? मिच्छादिद्वि-असंजदसम्मादिट्ठीणं दिट्ठमग्गाणं देवाणं गुणंतरं गंतूण अइदहरकालेण पडिणियत्तिय आगदाणं अंतोमुहुत्तअंतरुवलंभा। उक्कस्सेण एक्कत्तीसं सागरोवमाणि देसूणाणि ॥ ८६ ॥ मिच्छादिहिस्स ताव उच्चदे- एको दयलिंगी अट्ठावीससंतकम्मिओ उवरिमगेवेज्जेसु उबवण्णो । छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो (१) विस्संतो (२) विसुद्धो (३) वेदगसम्मत्तं पडिवण्णो । एक्कत्तीसं सागरोमाणि सम्मत्तेणंतरिय अवसाणे मिच्छत्तं गदो । लद्धमंतरं ( ४ ) । चुदो मणुसो जादो । चदुहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणाणि एक्कत्तीसं सागरोत्रमाणि उक्करसंतरं होदि। असंजदसम्मादिहिस्स उच्च - एक्को दव्वलिंगी अट्ठावीससंतकम्मिओ उपरिमगेवज्जेसु उववण्णो । छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो (१) विस्संतो (२) विसुद्धो (३) वेदगसम्मत्तं पडिवण्णो (४) मिच्छत्तं गंतूणंतरिय एक्कत्तीसं सागरोवमाणि अच्छिद्ग आउअंबंधिय सम्मत्तं पडिवण्णो । लद्धमंतरं (५)। पंचहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणाणि एकत्तीसं सागरोवमाणि असंजदसम्मादिहिस्स उक्कस्संतरं होदि । क्योंकि, जिन्होंने पहले अन्य गुणस्थानों में जाने आनेसे अन्य गुणस्थानोंका मार्ग देखा है ऐसे मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंका अन्य गुणस्थानको जाकर अति स्वल्पकालसे प्रतिनिवृत्त होकर आये हुए जीवोंके अन्तर्मुहूर्तप्रमाण अन्तर पाया जाता है। उक्त मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागरोपमकालप्रमाण है ॥ ८६ ।। इनमेंसे पहले मिथ्यादृष्टि देवका अन्तर कहते हैं- मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंके सत्त्ववाला एक द्रव्यलिंगी साधु उपरिम ग्रैवेयकोंमें उत्पन्न हुआ। छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (१) विश्राम ले (२) विशुद्ध हो (३) वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। इकतीस सागरोपमकाल सम्यक्त्वके साथ बिताकर आयुके अन्तमें मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। इस प्रकारसे अन्तर लब्ध हुआ (४)। पश्चात् वहांसे च्युत हो मनुष्य हुआ । इस प्रकार चार अन्तर्मुहूर्तोसे कम इकतीस सागरोपमकाल मिथ्यादृष्टि देवका उत्कृष्ट अन्तर होता है। अब असंयतसम्यग्दृष्टि देवका अन्तर कहते हैं- मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंके सत्त्ववाला कोई एक द्रव्यलिंगी साधु उपरिम अवेयकोंमें उत्पन्न हुआ । छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (१) विश्राम ले (२) विशुद्ध हो (३) वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ (४)। पश्चात् मिथ्यात्वको जाकर अन्तरको प्राप्त हो इकतीस सागरोपम रहकर और आयुको बांधकर, पुनः सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। इस प्रकार अन्तर लब्ध हुआ (५)। ऐसे पांच अन्तर्मुहूर्तोंसे कम इकतीस सागरोपमकाल असंयतसम्यग्दृष्टि देवका उत्कृष्ट अन्तर होता है। १ उत्कर्षेण एकत्रिंशत्सागरोपमाणि देशोनानि । स. सि. १, ८. Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतरानुगमे देव - अंतर परूवणं [ ५९ सासणसम्मादिट्ठि-सम्मामिच्छादिट्टीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पहुच जहणेण एगसमयं ॥ ८७ ॥ १, ६, ८९. ] कुदो? दोण्हं पिसांतररासीणं णिरवसेसेण अण्णगुणं गाणं एगसमयं तरुवलंभा । उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ॥ ८८ ॥ कुद ? एदासिंदोहं रासीणं सांतराणं णिरवसेसेण अण्णगुणं गदाणं उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ते अंतरं पडि विरोहाभावा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदि भागो, अंत ॥ ८९ ॥ सास सम्मादिस्सि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो अंतरं, सम्मामिच्छादिट्ठिस्स अंतोमुहुत्तं । सेसं सुगमं, बहुसो परुविदत्तादो । सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि देवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना traint अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय है ॥ ८७ ॥ क्योंकि, इन दोनों ही सान्तर राशियोंका निरवशेषरूपसे अन्य गुणस्थानको ये हुए जीवोंके एक समयप्रमाण अन्तर पाया जाता है । उक्त जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर पल्योपमका असंख्यातवां भाग है ॥ ८८ ॥ क्योंकि, इन दोनों सान्तर राशियोंके सामस्त्यरूपसे अन्य गुणस्थानको चले जानेपर उत्कर्ष से पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र कालमें अन्तरके प्रति कोई विरोध नहीं है। उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर क्रमशः पल्योपमका असंख्यातवां भाग और अन्तर्मुहूर्त है ॥ ८९ ॥ सासादनसम्यग्दृष्टि देवका उत्कृष्ट अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। और सम्यग्मिथ्यादृष्टिका उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । शेष सूत्रार्थ सुगम है, क्योंकि, पहले बहुतवार प्ररूपण किया जा चुका है । १ सासादनसम्यग्दृष्टि सम्यग्मिथ्यादृष्टयोर्नानाजीवापेक्षया सामान्यवत् । स. सि. १, ८. २ एक्जीवं प्रति जघन्येन पल्योपमासंख्येयभागोऽन्तर्मुहूर्तश्च । स. सि. १, ८. Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ६, ९०. उक्कस्सेण एक्कत्तीसं सागरोवमाणि देसूणाणि ॥९०॥ सासणस्स तावुच्चदे- एक्को मणुसो दव्वलिंगी उवसमसम्मत्तं पडिवज्जिय सासणं गंतूण तत्थ एगसमओ अत्थि त्ति मदो देवो जादो । एगसमयं सासणगुणेण दिट्ठो। विदियसमए मिच्छत्तं गंतूणंतरिय एक्कत्तीसं सागरोवमाणि गमिय आउअंबंधिय उवसमसम्मत्तं पडिवण्णो सासणं गदो । लद्धमंतरं । सासणगुणेणेगसमयमच्छिय विदियसमए मदो मणुसो जादो। तिहि समएहि ऊणाणि एक्कत्तीसं सागरोवमाणि सासणुक्कस्संतरं । सम्मामिच्छादिहिस्स उच्चदे- एक्को दवलिंगी अट्ठावीससंतकम्मिओ उवरिमगेवज्जेसु उववण्णो । छहि पज्जतीहि पज्जत्तयदो (१) विस्संतो (२) विसुद्धो (३) सम्मामिच्छत्तं पडिवण्णो (४) मिच्छत्तं गंतूणंतरिय एक्कत्तीस सागरोवमाणि गमिय आउअंबंधिय सम्मामिच्छत्तं गदो (५)। जेण गुणेण आउअं बद्धं, तेणेव गुणेण मदो मणुसो जादो (६)। छहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणाणि एक्कत्तीसं सागरोवमाणि सम्मामिच्छत्तस्सुक्कस्संतरं होदि । उक्त दोनों गुणस्थानवर्ती देवोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागरोपमकाल है ॥९०॥ __ उनमेंसे पहले सासादनसम्यग्दृष्टि देवका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं- एक द्रव्यलिंगी मनुष्य उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हो करके और सासादनगुणस्थानको जाकर उसमें एक समय अवशेष रहनेपर मरा और देव होगया। वह देव पर्यायमें एक समय सासादनगुणस्थानके साथ दृष्ट हुआ और दूसरे समयमें मिथ्यात्वगुणस्थानको जाकर अन्तरको प्राप्त हो इकतीस सागरोपम बिताकर, आयुको बांधकर उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। पुनः सासादन गुणस्थानको गया। इस प्रकार अन्तर लब्ध हुआ। तब सासादनगुणस्थानके साथ एक समय रहकर द्वितीय समयमें मरा और मनुष्य होगया। इस प्रकार तीन समयोंसे कम इकतीस सागरोपमकाल सासादनसम्यग्दृष्टि देवका उत्कृष्ट अन्तर होता है। ____ अब सम्यग्मिथ्यादृष्टि देवका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं- मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंके सत्त्ववाला कोई एक द्रव्यलिंगी साधु उपरिम प्रैवेयकोंमें उत्पन्न हुआ। छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (१) विश्राम ले (२) विशुद्ध हो (३) सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ (४)। पश्चात् मिथ्यात्वको जाकर अन्तरको प्राप्त हो इकतीस सागरोपम बिताकर आगामी भवकी आयुको बांधकर सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ (५)। पश्चात् जिस गुणस्थानसे आयुको बांधा था, उसी गुणस्थानसे मरा और मनुष्य होगया (६)। इस प्रकार छह अन्तर्मुहूर्तोंसे कम इकतीस सागरोपमकाल सभ्यग्मिथ्यादृष्टि देवका उत्कृष्ट अन्तर होता है। १ उत्कर्षेणैकत्रिंशत्सागरोपमाणि देशोनानि । स. सि. १, ८. Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६९ १, ६, ९३.] अंतराणुगमे देव-अंतरपरूवणं भवणवासिय-वाणवेंतरजोदिसिय-सोधम्मीसाणप्पहुडि जाव सदार-सहस्सारकप्पवासियदेवेसु मिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णथि अंतरं, णिरंतरं ॥११॥ सुगममेदं सुत्तं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ ९२ ॥ कुदो ? णवसु सग्गेसु वट्टतमिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीणं अण्णगुणं गंतूणंतरिय लहुमागदाणं अंतोमुहुत्ततरुवलंभा । उक्कस्सेण सागरोवमं पलिदोवमं वे सत्त दस चोदस सोलस अट्ठारस सागरोवमाणि सादिरेयाणि ॥ ९३॥ मिच्छादिहिस्स उच्चदे-तिरिक्खो मणुसो वा अप्पिददेवेसु सग-सगुक्कस्साउद्विदिएसु उववण्णो । छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो (१) विस्संतो (२) विसुद्धो (३) वेदगसम्मत्तं पडिवण्णो । अंतरिदो अप्पणो उक्कस्साउटिदिमणुपालिय अवसाणे मिच्छत्तं गदो । लद्धमंतरं (४)। चदुहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणाओ अप्पप्पणो उक्कस्साउद्विदीओ मिच्छादिविउक्कस्संतरं होदि । भवनवासी, वानव्यन्तर, ज्योतिष्क और सौधर्म-ऐशानसे लेकर शतार-सहस्रार तकके कल्पवासी देवोंमें मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ ९१ ॥ यह सूत्र सुगम है। उक्त देवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ ९२ ॥ क्योंकि, भवनत्रिक और सहस्रार तकके छह कल्पपटल, इन नौ स्वर्गों में रहनेवाले मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंके अन्य गुणस्थानको जाकर अन्तरको प्राप्त हो पुनः लघुकालसे आये हुओंके अन्तर्मुहूर्तप्रमाण अन्तरकाल पाया जाता है । उक्त देवोंका उत्कृष्ट अन्तर क्रमशः सागरोपम, पल्योपम और साधिक दो, सात, दश, चौदह, सोलह और अट्ठारह सागरोपमप्रमाण है ॥ ९३ ॥ इनमेंसे पहले मिथ्यादृष्टि देवोंका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं- कोई एक तिर्यंच अथवा मनुष्य अपने अपने स्वर्गकी उत्कृष्ट आयुवाले विवक्षित देवोंमें उत्पन्न हुआ। छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (१) विश्राम ले (२) विशुद्ध हो (३) वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हो अन्तरको प्राप्त हुआ। पश्चात् अपनी उत्कृष्ट आयुस्थितिको अनुपालनकर अन्तमें मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। इस प्रकारसे अन्तर लब्ध हुआ (४)। इन चार अन्तर्मुहूतोसे कम अपनी अपनी आयुस्थितियां उन उन स्वर्गौके मिथ्यादृष्टि देवोंका उत्कृष्ट अन्तर है। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे जीवाणं [ १, ६, ९४. एवमसंजदसम्मादिस्सि वि । वरि पंचहि अंतोमुहुत्तेहि ऊउक्कस्तद्विदीओ अंतरं होदि । ६२ ] सासणसम्मादिट्टि - सम्मामिच्छादिडणं सत्थाणोघं ॥ ९४ ॥ कुदो ? णाणाजीव पडुच्च जहणणेण एगसमओ, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो; एगजीवं पडुच्च जहण्णेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, अंतोमुहुत्तं; उक्कस्सेण हि समएहि छहि अंतोमुहुतेहि ऊणाओ उक्कस्सद्विदीओ अंतरमिच्चे हि भेदाभावा । वरि सग-सगुक्कस्सट्ठिदीओ देसूणाओ उक्कस्संतरमिदि एत्थ वत्तव्वं, सत्थाणो घण्णहाणुववत्तीदो | आणद जाव णवगेवज्जविमाणवासियदेवेसु मिच्छा दिट्टि असंजदसम्मादिट्टीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पहुच णत्थि अंतरं, निरंतरं ॥ ९५॥ सुगममेदं सुतं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ ९६ ॥ इसी प्रकार से असंयतसम्यग्दृष्टि देवों का भी अन्तर जानना चाहिए । विशेष बात यह है कि उनके पांच अन्तर्मुहूर्तोंसे कम अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण अन्तर होता है । उक्त स्वर्गौके सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि देवोंका अन्तर स्वस्थान ओके समान है ।। ९४॥ क्योंकि, नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय, उत्कर्ष से पल्योपमका असंख्यातवां भाग अन्तर है; एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे पल्योपमका असंख्यातवां भाग और अन्तर्मुहूर्त अन्तर है, उत्कर्ष से दो समय और छह अन्तर्मुहूर्तोंसे कम अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण अन्तर है; इत्यादि रूपसे ओघके अन्तरसे इनके अन्तर में भेदका अभाव है । विशेष बात यह है कि अपनी अपनी कुछ कम उत्कृष्ट स्थितियां ही यहां पर उत्कृष्ट अन्तर है ऐसा कहना चाहिए; क्योंकि, अन्यथा सूत्रमें कहा गया स्वस्थान ओघ अन्तर बन नहीं सकता । आनतकल्पसे लेकर नवग्रैवेयकविमानवासी देवोंमें मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ।। ९५ । यह सूत्र सुगम है 1 उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ ९६ ॥ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, ९७.] अंतराणुगमे देव-अंतरपरूवणं [ ६३ कुदो ? तेरसभुवणट्ठिदमिच्छादिट्ठि-सम्मादिट्ठीणं दिट्ठमग्गाणमण्णगुणं गंतूण लहुमागदाणमंतोमुहुत्तंतरुवलंभा। उक्कस्सेण वीसं वावीसं तेवीसं चउवीसं पणवीसं छव्वीसं सत्तावीसं अट्ठावीसं ऊणत्तीसं तीसं एक्कत्तीसं सागरोवमाणि देसूणाणि मिच्छादिद्विस्स उच्चदे- एक्को दव्वलिंगी मणुसो अप्पिददेवेसु उववण्णो । छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो (१) विस्संतो (२) विसुद्धो (३) वेदगसम्मत्तं पडिवज्जिय अंतरिदो। अप्पप्पणो उक्कस्साउद्विदीओ अणुपालिय अवसाणे मिच्छत्तं गदो (४)। चदुहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणाओ अप्पप्पणो उक्कस्सद्विदीओ मिच्छादिद्विस्स उक्कस्संतरं होदि । __ असंजदसम्मादिहिस्स उच्चदे- एक्को दव्वलिंगी बद्धक्कस्साउओ अप्पिददेवेसु उववण्णो । छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो (१) विस्संतो (२) विसुद्धो (३) वेदगसम्मत्तं पडिवण्णो (४) मिच्छत्तं गंतूणंतरिदो । अप्पप्पणो उक्कस्साउटिदियमणुपालिय सम्मत्तं गंतूण (५) मदो मणुसो जादो । पंचहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणउक्कस्सहिदिमेत्तं लद्धमंतरं । __क्योंकि, आनत-प्राणत आदि तेरह भुवनोंमें रहनेवाले दृष्टमार्गी मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंका अन्य गुणस्थानको जाकर पुनः शीघ्रतासे आनेवाले उन जीवोंके अन्तर्मुहूर्तप्रमाण अन्तर पाया जाता है। . उक्त तेरह भुवनोंमें रहनेवाले देवोंका उत्कृष्ट अन्तर क्रमशः देशोन बीस, बाईस तेईस, चौबीस, पच्चीस, छब्बीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस और इकतीस सागरोपम कालप्रमाण होता है ।। ९७ ॥ इनमेंसे पहले मिथ्यादृष्टि देवका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं- एक द्रव्यलिंगी मनुष्य विवक्षित देवोंमें उत्पन्न हुआ। छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (१) विश्राम ले (२) विशुद्ध हो (३) वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त होकर अन्तरको प्राप्त हुआ और अपनी अपनी उत्कृष्ट आयुस्थितिको अनुपालन कर जीवनके अन्तमें मिथ्यात्वको गया (४)। इन चार अन्तर्मुहूसे कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण उक्त मिथ्यादृष्टि देवोंका उत्कृष्ट अन्तर होता है। अब असंयतसम्यग्दृष्टि देवका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं- बांधी है देवोंमें उत्कृष्ट आयुको जिसने, ऐसा एक द्रव्यलिंगी साधु विवक्षित देवोंमें उत्पन्न हुआ। छहों पर्याप्तियोसे पर्याप्त हो (१) विश्राम ले (२) विशुद्ध हो (३) वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ (४)। पश्चात् मिथ्यात्वको जाकर अन्तरको प्राप्त हुआ। अपनी अपनी उत्कृष्ट आयुस्थितिको अनुपालन कर सम्यक्त्वको जाकर (५) मरा और मनुष्य हुआ। इस प्रकार इन पांच अन्तर्मुहूर्तोंसे कम अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण अन्तर लब्ध हुआ। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ६, ९८. सासणसम्मादिद्वि-सम्मामिच्छादिट्ठीणं सत्थाणमोघं ॥ ९८ ॥ कुदो ? णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो; एगजीवं पडुच्च जहण्णेण (पलिदोवमस्स) असंखेज्जदिभागो, अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण बेहि समएहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणाओ अप्पप्पणो उक्कस्सद्विदीओ अंतरं होदि, एदेहि भेदाभावा । अणुदिसादि जाव सव्वट्ठसिद्धिविमाणवासियदेवेसु असंजदसम्मादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च (पत्थि) अंतरं, णिरंतरं ॥ ९९॥ सुगममेदं सुत्तं । एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ १०० ॥ एगगुणत्तादो अण्णगुणगमणाभावा । __एवं गदिमग्गणा समत्ता । उक्त आनतादि तेरह भुवनवासी सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि देवोंका अन्तर स्वस्थान ओघके समान है ॥ ९८ ॥ क्योंकि, नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय, उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण अन्तर है; एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे पल्योपमका असंख्यातवां भाग और अन्तर्मुहूर्त है, उत्कर्षसे दो समय और अन्तर्मुहूर्त कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण अन्तर होता है; इस प्रकार ओघके साथ इनका कोई भेद नहीं है। __अनुदिशको आदि लेकर सर्वार्थसिद्धि विमानवासी देवोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ ९९ ॥ यह सूत्र सुगम है। उक्त देवोंमें एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ १० ॥ उक्त अनुदिश आदि देवोंमें एक ही असंयतगुणस्थान होनेसे अन्य गुणस्थानमें जानेका अभाव है। इस प्रकार गतिमार्गणा समाप्त हुई। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, १०३. ] अंतरागमे एइंदि - अंतरपरूवणं [ ६५ इंदिया व देण एइंदियाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं निरंतरं ॥ १०१ ॥ सुगमेदं सुतं । एगजीवं पडुच्च जहणेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ १०२ ॥ दो ? एइंदियस्स तसकाइयापज्जत्तसु उप्पजिय सव्वलहुएण कालेण पुणे एइंदियमागदस्स खुद्दाभवग्गहणमेत्तं तरुवलंभा । उक्कस्सेण वे सागरोवमसहस्साणि पुव्वकोडिपुधत्तेण भहियाणि ॥ १०३ ॥ तं जहा - एइंदिओ तसकाइएस उववज्जिय अंतरिदो पुव्वाकोडीपुधत्ते णन्भहियवेसागरोवमसहस्समेत्तं तसट्ठिदिं परिभमिय एइंदियं गदो । लद्धमेइंदियाणमुक्कस्संतरं तसहिदिमेत्तं । देवमिच्छादिट्टिमे दिए पवेसिय असंखेज्जपोग्गलपरियट्टी तत्थ भमाडिय पच्छा देवेसुप्पाइय देवाणमंतरं किण्ण परूविदं ? ण, निरुद्धदेव गदिमग्गणाए अभावप्पसंगा । इन्द्रियमार्गणाके अनुवादसे एकेन्द्रियोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ १०१ ॥ यह सूत्र सुगम है । १०२ ॥ एक जीवकी अपेक्षा एकेन्द्रियोंका जघन्य अन्तर क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण है ॥ १० क्योंकि, एकेन्द्रियके सकायिक अपर्याप्तकोंमें उत्पन्न होकर सर्वलघु कालसे पुनः एकेन्द्रियपर्यायको प्राप्त हुए जीवके क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण अन्तर पाया जाता है । एकेन्द्रियों का एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अंतर पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक दो हजार सागरोपम है ।। १०३ ॥ जैसे - कोई एक एकेन्द्रिय जीव सकायिकोंमें उत्पन्न होकर अन्तरको प्राप्त हुआ और पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक दो हजार सागरोपमप्रमित त्रसकाय स्थितिप्रमाण परिभ्रमण कर पुनः एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न हुआ । इस प्रकार एकेन्द्रियोंका उत्कृष्ट अन्तर त्रस स्थितिप्रमाण लब्ध हुआ । शंका - - देव मिथ्यादृष्टियों को एकेन्द्रियोंमें प्रवेश करा, असंख्यात पुलपरिवर्तन उनमें परिभ्रमण कराके पीछे देवोंमें उत्पन्न कराकर देवोंका अन्तर क्यों नहीं कहा ? समाधान— नहीं, क्योंकि, वैसा करनेपर प्ररूपणा की जानेवाली देवगति १ इन्द्रियानुवादेन एकेन्द्रियाणां नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । स. सि. १, ८. २ एकजीवापेक्षया जघन्येन क्षुद्रभवग्रहणम् । स. सि. १, ८. ३ उत्कर्षेण द्वे सागरोपमसहस्रे पूर्व कोटीपृथक्त्वैरभ्यधिके । स. सि. १, ८. Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ६, १०४. ६६ ] मग्गणमछंडंतेण अंतरपरूवणा कादव्या, अण्णहा अव्यवस्थावत्तदो । एइंदियं तसकाइएस उप्पादिय अंतरे भण्णमाणे मग्गणाए विणासो किण्ण होदीदि चे होदि, किंतु जीए मग्गणाए बहुगुणट्ठाणाणि अत्थि तीए तं मग्गणमछंडिय अण्णगुणेहि अंतराविय अंतरपरूवणा कादव्वा । जीए पुण मग्गणाए एकं चेव गुणट्ठाणं तत्थ अण्णमग्गणाए अंतरात्रिय अंतरपरूवणा कादव्वा इदि एसो सुत्ताभिप्पाओ । ण च एइंदिएस गुणड्डाण - बहुत्तमत्थि, तेण तसकाइएस उप्पादिय अंतरपरूवणा कदा | बादरेइंदियाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ १०४ ॥ सुगममेदं सुतं । एगजीवं पडुच्च जहणेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ १०५ ॥ दो ? बादरेइंदियस्स अण्णअपज्जत्तेमु उपज्जिय सव्वत्थोवेण कालेन पुणो बादरेइंदियं गदस्त खुद्दाभवग्गहणमेत्तं तरुवलंभा । उक्कस्सेण असंखेज्जा लोगा ॥ १०६ ॥ मार्गणाके अभावका प्रसंग प्राप्त होगा । विवक्षित मार्गणाको नहीं छोड़ते हुए अन्तरप्ररूपणा करना चाहिए, अन्यथा अव्यवस्थापनकी प्राप्ति होगी । शंका - एकेन्द्रिय जीवको त्रसकायिक जीवोंमें उत्पन्न कराकर अन्तर कहने पर फिर यहां मार्गणाका विनाश क्यों नहीं होता है ? समाधान - मार्गणाका विनाश होता है, किन्तु जिस मार्गणामें बहुत गुणस्थान होते हैं उसमें उस मार्गणाको नहीं छोड़कर अन्य गुणस्थानोंसे अन्तर कराकर अन्तरप्ररूपणा करना चाहिए। परन्तु जिस मार्गणामें एक ही गुणस्थान होता है, वहां पर अन्य मार्गणा में अन्तर करा करके अन्तरप्ररूपणा करना चाहिए । इस प्रकारका यहांपर सूत्रका अभिप्राय है । और एकेन्द्रियोंमें अनेक गुणस्थान होते नहीं हैं, इसलिए त्रसकायिकोंमें उत्पन्न कराकर अन्तरप्ररूपणा की गई है । बादर एकेन्द्रियोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ १०४ ॥ यह सूत्र सुगम है । उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण है । । १०५॥ क्योंकि, बादरएकेन्द्रिय जीवका अन्य अपर्याप्तक जीवोंमें उत्पन्न होकर सर्व स्तोककालसे पुनः बादर एकेन्द्रियपर्यायको गये हुए जीवके क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण अन्तर पाया जाता है। उक्त जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है ॥ १०६ ॥ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, ११०.] अंत राणुगमे एइंदिय-अंतरपरूवणं [६७ तं जधा- एक्को बारेइंदिओ सुहुमेइंदियादिसु उप्पज्जिय असंखेज्जलोगमेत्तकालमंतरिय पुणो बादरेइंदिएसु उववण्णो । लद्धमसंखेज्जलोगमत्तं बादरेइंदियाणमंतरं । एवं बादरेइंदियपज्जत्त-अपज्जत्ताणं ॥ १०७॥ कुदो ? बादरेइंदिएहितो सवपयारेण एदेसिमंतरस्स भेदाभावा । सुहुमेइंदिय-सुहुमेइंदियपज्जत-अपजत्ताणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ १०८ ॥ सुगममेदं सुत्तं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ १०९ ॥ कुदो ? सुहुमेइंदियस्स अणप्पिदअपज्जत्तएसु उप्पज्जिय सव्वत्थोवेण कालेण तीसु वि सुहुमेइंदिएसु आगंतूणुप्पण्णस्स खुद्दाभवग्गहणमेत्तरुवलंभा । उक्कस्सेण अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो असंखेज्जासंखेज्जाओ ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीओ ॥ ११० ॥ जैसे- एक बादर एकेन्द्रिय जीव, सूक्ष्म एकेन्द्रियादिकोंमें उत्पन्न हो वहां पर असंख्यात लोकप्रमाण काल तक अन्तरको प्राप्त होकर पुनः बादर एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न हुआ। इस प्रकार असंख्यात लोकप्रमाण बादरएकेन्द्रियोंका अन्तर लब्ध हुआ। ___इसी प्रकारसे बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तक और बादर एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकोंका अन्तर जानना चाहिए ॥१०७॥ क्योंकि, बादर एकेन्द्रियोंकी अपेक्षा सर्व प्रकारसे इन पर्याप्त और लब्ध्यपर्याप्तक बादर एकेन्द्रियोंके अन्तरमें कोई भेद नहीं है।। सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रियपर्याप्त और सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ १०८॥ यह सूत्र सुगम है। उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण है ॥१०९॥ क्योंकि, किसी सूक्ष्म एकेन्द्रियका अविवक्षित लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंमें उत्पन्न होकर सर्व स्तोककालसे तीनों ही प्रकारके सूक्ष्म एकेन्द्रियों में आकर उत्पन्न हुए जीवके क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण अन्तर पाया जाता है। . उक्त सूक्ष्मत्रिकोंका उत्कृष्ट अन्तर अंगुलके असंख्यातवें भाग असंख्यातासंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालप्रमाण है ॥ ११० ॥ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ६, १११. तं जहा- एक्को सुमेदिओ पज्जतो अपज्जत्तो च बादरेईदिएसु उबवण्णो । तसकाइए बादरेइंदिएसु च असंखेज्जासंखेज्जा ओसपिणि उस्सप्पिणीपमाणमंगुलस्स असंखेज्जदिभागं परिभमिय पुणो तिस सुहुमेईदिएस आगंतूण उववण्णो । लद्धमंतरं बादरेइंदियतसकाइयाणमुक्कस्सट्ठिदी । बीइंदिय-ती इंदिय-चदुरिंदिय-तस्सेव पज्जत्त अपज्जत्ताणमंतरं चिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ १११ ॥ सुगममेदं सुतं । एगजीवं पडुच्च जहणेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ ११२ ॥ कुदो ? अणप्पिदअपज्जत्तरसु उपज्जिय सव्त्रत्थोवेण कालेन पुणेो णवसु विग - लिदिए आगंतूण उप्पण्णस्स खुद्दाभवग्गहणमेत्तं तरुवलभा । उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियङ्कं ॥ ११३ ॥ जैसे - एक सूक्ष्म एकेन्द्रियपर्याप्तक, अथवा लब्ध्यपर्याप्तक जीव बादर एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न हुआ। वह त्रसकायिकोंमें, और बादर एकेन्द्रियोंमें अंगुलके असंख्यातवें भाग असंख्यातासंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालप्रमाण परिभ्रमण कर पुनः उक्त तीनों प्रकारके सूक्ष्म एकेन्द्रियोंमें आकर उत्पन्न हुआ । इस प्रकार बादर एकेन्द्रियों और कायिकों की उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण सूक्ष्मत्रिकका उत्कृष्ट अन्तर उपलब्ध हुआ । द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और उन्हींके पर्याप्तक तथा लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ १११ ॥ यह सूत्र सुगम है। उक्त द्वीन्द्रियादि जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण है ।। ११२ ।। नौ क्योंकि, अविवक्षित लब्ध्यपर्याप्तकोंमें उत्पन्न होकर सर्वस्तोक कालसे 'पुनः प्रकारके विकलेन्द्रियोंमें आकर उत्पन्न होनेवाले जीवके क्षुद्रभवग्रहणमात्र अन्तरकाल पाया जाता है । उन्हीं विकलेन्द्रियोंका उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकालात्मक असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन है ॥ ११३ ॥ १ विकलेन्द्रियाणां नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । स. सि. १, ८. २ एकजीवापेक्षया जघन्येन क्षुद्रभवग्रहणम् । स. सि. १८. ३ उत्कर्षेणानन्तः कालोऽसंख्येयाः पुद्गलपरिवर्ताः । स. सि. १, ८. Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वलंभा । १, ६, ११६.] अंतराणुगमे पंचिदिय-अंतरपरूवणं तं जहा- णव हि विगलिंदिया एइंदियाएइंदिएसु उप्पज्जिय आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तपोग्गलपरियट्टे परियट्टिय पुणो णवमु विगलिंदिएमु उप्पण्णा । लद्धमंतरं असंखेज्जपोग्गलपरियट्टमेत्तं । पंचिंदिय-पंचिंदियपज्जत्तएसु मिच्छादिट्टी ओघं ॥ ११४ ॥ कुदो ? णाणाजी पडुच्च णस्थि अंतरं, एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण वे छावट्ठिसागरोवमाणि अंतोमुहुत्तेण ऊणाणि इच्चेएण भेदाभावा ।। सासणसम्मादिट्टि-सम्मामिच्छादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ॥ ११५ ॥ दोगुणट्ठाणजीवेसु सव्येसु अण्णगुणं गदेसु दोहं गुणट्ठाणाणं एगसमयविरहुउक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ॥ ११६ ॥ कुदो ? सांतररासित्तादो । बहुगमंतरं किण्ण होदि ? सभावा । जैसे- नवों प्रकारके विकलेन्द्रिय जीव, एकेन्द्रिय या अनेकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होकर आवलीके असंख्यातवें भागमात्र पुद्गलपरिवर्तन कालतक परिभ्रमण कर पुनः नवों प्रकारके विकलेन्द्रियोंमें उत्पन्न हुए । इस प्रकारसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त हु पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रियपर्याप्तकोंमें मिथ्यादृष्टि जीवोंका अन्तर ओघके समान है ॥ ११४ ॥ क्योंकि, नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, एक जीवको अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त कम दो छयासठ सागरोपमकाल अन्तर है। इस प्रकार ओघकी अपेक्षा इनमें कोई भेद नहीं है। उक्त दोनों प्रकारके पंचेन्द्रिय सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय अन्तर उक्त दोनों गुणस्थानोंके सभी जीवोंके अन्य गुणस्थानको चले जाने पर दोनों गुणस्थानोंका एक समय विरह पाया जाता है। उक्त जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है ॥११६ ॥ क्योंकि, ये दोनों सान्तर राशियां हैं। शंका इनका पल्योपमके असंख्यातवें भागसे अधिक अंतर क्यों नहीं होता? समाधान-स्वभावसे ही अधिक अन्तर नहीं होता है। १पंचेन्द्रियेषु मिथ्यादृष्टेः सामान्यवत् । स. सि. १,८. २ सासादनसम्यग्दृष्टिसम्यग्मिथ्यादृष्टयो नाजीवापेक्षया सामान्यवत् । स. सि. १,८. Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ६, ११७. एगजीवं पडुच्च जहण्णेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, अंतोमुहत्तं ॥ ११७॥ सुगममेदं सुत्तं, बहुसो उत्तत्तादो । उक्कस्सेण सागरोवमसहस्साणि पुबकोडिपुधत्तेणभहियाणि सागरोवमसदपुधत्तं ॥ ११८ ॥ सासणस्स ताव उच्चदे- एक्को अणंतकालमसंखेज्जलोगमेत्तं वा एइंदिएसु विदो असण्णिपंचिंदिएसु आगंतूण उववण्णो । पंचहि पज्जतीहि पज्जत्तयदो (१) विस्संतो (२) विसुद्धो (३) भवणवासिय-वाणवेंतरेसु आउअंबंधिय (४) विस्संतो (५) कमेण कालं करिय भवणवासिय-वाणवेंतरदेवेसुप्पण्णो । छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो (६) विस्संतो (७) विसुद्धो (८) उवसमसम्मत्तं पडिवण्णो (९) सासणं गदो । आदी दिट्ठा । मिच्छत्तं गंतूणंतरिय सगढिदि परियट्टियावसाणे सासणं गदो । लद्धमतरं । तदो थावरपाओग्गमावलियाए असंखेज्जदिभागमच्छिय कालं करिय थावरकाएसु उववण्णो आवलियाए असंखेज्जदिभागेण णवहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणिया सगट्ठिदी अंतरं । उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर क्रमशः पल्योपमके असंख्यातवें भाग और अन्तर्मुहूर्त है ॥ ११७ ॥ यह सूत्र सुगम है, क्योंकि, बहुत वार कहा गया है। उक्त दोनों गुणस्थानवर्ती पंचेन्द्रियोंका उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटीपृथक्त्वसे अधिक एक हजार सागरोपम काल है, तथा पंचेन्द्रिय पर्याप्तकोंका उत्कृष्ट अन्तर सागरोपमशतपृथक्त्व है ॥ ११८ ॥ इनमेंसे पहले सासादनसम्यग्दृष्टिका अन्तर कहते हैं- अनन्तकाल या असंख्यातलोकमात्र काल तक एकेन्द्रियोंमें रहा हुआ कोई एक जीव असंशी पंचेन्द्रियोंमें आकर उत्पन्न हुआ। पांचों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (१) विश्राम ले (२) विशुद्ध हो (३) भवनवासी या वानव्यन्तरोंमें आयुको बांधकर (४) विश्राम ले (५) क्रमसे मरण कर भवनवासी, या वानव्यन्तरदेवोंमें उत्पन्न हुआ। छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (६) विशाम ले(७) विशुद्ध हो (८) उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ (९)। पनः सासादनगुणस्थानको प्राप्त हुआ। इस प्रकार इस गुणस्थानका प्रारम्भ दृष्ट हुआ । पश्चात् मिथ्यात्वको जाकर अन्तरको प्राप्त हो अपनी स्थितिप्रमाण परिवर्तित होकर आयुके अन्तमें सासादन गुणस्थानको गया। इस प्रकार अन्तर लब्ध हुआ। पश्चात् स्थावरकायके योग्य आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक उनमें रह कर, मरण करके स्थावरकायिकोंमें उत्पन्न हुआ। इस प्रकार आवलोके असंख्यातवें भाग और नौ अन्तर्मुहौसे कम अपनी स्थिति ही इनका उत्कृष्ट अन्तर है। १ एकजीवं प्रति जघन्येन पल्योपमासंख्येयभागोऽन्तर्मुहर्तश्च । स. सि. १,८. २ उत्कर्षेण सागरोपमसहस्रं पूर्वकोटीपृथक्त्वैरभ्यधिकम् । स. सि. १,८. Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, ११९. ] अंतरागमे पंचिदिय - अंतर परूवणं [ ७१ सम्मामिच्छादिट्ठिस्स उच्चदे- एक्को जीवो एइंदियट्ठिदिमच्छिदो असणिपंचिदिए उववण्णो । पंचहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो (१) विस्संतो ( २ ) विसुद्ध (३) भवणवासिय-वाणवेंतरेसु आउअं बंधिय ( ४ ) विस्समिय ( ५ ) देवेसु उबवण्णो । छहि पज्जतीहि पज्जत्तयदो (६) विस्संतो ( ७ ) विसुद्ध ( ८ ) उवसमसम्मत्तं पडिवण्णो (९) सम्मामिच्छत्तं गदो (१०) । मिच्छत्तं गंतूगंतरिय सगट्ठिदिं परिभमिय अंतोमुहुत्तावसेसे सम्मामिच्छत्तं गदो ( ११ ) । लद्धमंतरं । मिच्छत्तं गंतूण ( १२ ) एईदिएस उववष्णो | बारसेहि अंतोमुहुतेहि ऊणसगट्ठिदी सम्मामिच्छत्तुक्कस्संतरं । 'जहा उद्देसो तहा णिद्देसो त्ति णायादो पंचिदियट्ठिदी पुव्वको डिपुधत्तेण भहियसागरोवमसहस्समेत्ता, पज्जत्ताणं सागरोवमसदपुधत्तमेत्ता त्ति वत्तव्धं । असंजदसम्मादिट्टिप्पहुडि जाव अप्पमत्तसंजदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, निरंतरं ॥ ११९ ॥ " ममेदं सुतं । अब सम्यग्मिथ्यादृष्टि पंचेन्द्रिय जीवका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं- एकेन्द्रियकी स्थिति में स्थित एक जीव असंशी पंचेन्द्रियोंमें उत्पन्न हुआ । मनके विना शेष पांचों पर्याप्तियों से पर्याप्त हो ( १ ) विश्राम ले (२) विशुद्ध हो (३) भवनवासी या वानव्यन्तरोंमें आयुको बांधकर ( ४ ) विश्राम ले (५) देवोंमें उत्पन्न हुआ। छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो ( ६ ) विश्राम ले (७) विशुद्ध हो (८) उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हो (९) सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ ( १० ) । पुनः मिथ्यात्वको जाकर और अन्तरको प्राप्त हो अपनी स्थितिप्रमाण परिभ्रमण कर आयुके अन्तर्मुहूर्तकाल अवशेष रह जाने पर सभ्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ ( ११ ) । इस प्रकार अन्तर लब्ध हुआ । पश्चात् मिथ्यात्वको जाकर (१२) एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न हुआ । ऐसे इन बारह अन्तर्मुहूर्तोंसे कम स्वस्थिति सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अन्तर है । ' जैसा उद्देश होता है, उसीके अनुसार निर्देश होता है,' इस न्यायसे पंचेन्द्रिय सामान्यकी स्थिति पूर्वकोटीपृथक्त्वसे अधिक एक हजार सागरोपमप्रमाण होती है, और पंचेन्द्रिय पर्याप्तकों की स्थिति शतपृथक्त्वसागरोपमप्रमाण होती है, ऐसा कहना चाहिए । असंयत सम्यग्दृष्टिसे लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ ११९ ॥ है । यह सूत्र सुगम १ असंयतसम्यग्दृष्ट्याद्यप्रमत्तान्तानां नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । स. सि. १, ८. Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ६, १२०. एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहत्तं ॥ १२० ॥ कुदो ? एदेसिमण्णगुणं गंतूण सव्वदहरेण कालेण पडिणियत्तिय अप्पप्पणो गुणमागदाणमतोमुहुर्ततरुवलंभा । उक्कस्सेण सागरोवमसहस्साणि पुव्वकोडिपुधत्तेणभहियाणि, सागरोवमसदपुधत्तं ॥ १२१ ॥ ___ असंजदसम्मादिद्विस्स उच्चदे- एक्को एइंदियट्ठिदिमच्छिदो असष्णिपंचिंदियसम्मुच्छिमपज्जत्तएसु उववण्णो। पंचहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो (१) विस्संतो (२) विसुद्धो (३) भवणवासिय-वाणवेंतरदेवेसु आउअं बंधिय (४) विस्समिय (५) मदो देवेसु उववण्णो । छहि पज्जतीहि पज्जत्तयदो (६) विस्संतो (७) त्रिसुद्धो (८) उवसमसम्मत्तं पडिवण्णो (९)। उवसमसम्मत्तद्धाए छावलियाओ अत्थि त्ति आसाणं गदो अंतरिदो मिच्छत्तं गंतूण सगढिदिं परिभमिय अंते उवसमसम्मत्तं पडिवण्णो (१०)। पुणो सासणं गदो आवलियाए असंखेजदिभागं कालमच्छिदूण थावरकाएमु उववण्णो । दसहि अंतोमुहुत्तेहि उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ।। १२० ॥ क्योंकि, इन असंयतादि चार गुणस्थानवी जीवोंका अन्य गुणस्थानको जाकर सर्पलघु कालसे लौटकर अपने अपने गुणस्थानको आये हुओंके अन्तर्मुहूर्तमात्र अन्तर पाया जाता है। उक्त जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटीपृथक्त्वसे अधिक सहस्र सागरोपम तथा शतपृथक्त्व सागरोपम है ॥ १२१ ॥ इनमेंसे पहले असंयतसम्यग्दृष्टिका अन्तर कहते हैं- एकेन्द्रिय भवस्थितिको प्राप्त कोई एक जीव, असंही पंचेन्द्रिय सम्मूञ्छिम पर्याप्तकोंमें उत्पन्न हुआ। पांचों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (१) विश्राम ले (२) विशुद्ध हो (३) भवनवासी या वानव्यन्तर देवोंमें आयुको बांधकर (४) विश्राम ले (५) मरा और देवोंमें उत्पन्न हुआ। छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (६) विश्राम ले (७) विशुद्ध हो (८) उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ (९) । उपशमसम्यक्त्वके कालमें छह आवलियां अवशेष रहने पर सासादन गुणस्थानको गया और अन्तरको प्राप्त हुआ।पीछे मिथ्यात्वको जाकर अपनी स्थितिप्रमाण परिभ्रमणकर अन्तमें उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ (१०)। पुनः सासादन गुणस्थानको गया और वहांपर आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक रहकर स्थावरकायिकोंमें उत्पन्न हुआ। इस प्रकार इन दश अन्तर्मुहूतोंसे कम अपनी स्थितिप्रमाणकाल उक्त असंयतसम्यग्दृष्टिका १ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १, ८. २ उत्कर्षेण सागरोपमसहस्रं पूर्वकोटीपृथक्त्वैरभ्यधिकम् । स. सि. १, ८. Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, १२१.] अंतराणुगमे पंचिंदिय-अंतरपरूवणं [७१ ऊणिया सगट्टिदी लद्धमुक्कस्संतरं । सागरोवमसदपुधत्तं देसूणमिदि वत्तव् ? ण, पंचिंदियपज्जत्तद्विदीए देसूणाए वि सागरोवमसदपुधत्तत्तादो । तं पि कधं णव्वदे ? सुत्ते देसूणवयणाभावादो। सण्णिसम्मुच्छिमपंचिंदिएसुप्पाइय सम्मत्तं गेहाविय मिच्छरोण किण्णांतराविदो ? ण, तत्थ पढमसम्मत्तग्गहणाभावा । वेदगसम्मत्तं किण्ण पडिवजाविदो? ण, एइंदिएसु दीहद्धमवविदस्स उव्वेल्लिदसम्मत्त-सम्मामिच्छत्तस्स तदुप्पायणे संभवाभावा । संजदासंजदस्स वुच्चदे- एक्को एइंदियट्ठिदिमच्छिदो सण्णिपंचिंदियपज्जत्तएसु उववण्णो तिण्णिपक्ख-तिण्णिदिवस-अंतोमुहुत्तेहि (१) पढमसम्मत्तं संजमासंजमं च जुगवं पडिवण्णो (२) छावलियाओ पढमसम्मत्तद्धाए अस्थि त्ति आसाणं गंतूणंतरिदो । मिच्छत्तं गंतूण सगढिदिं परिभमिय अपच्छिमे पंचिंदियभवे सम्मत्तं घेत्तूण दसणमोहणीयं उत्कृष्ट अन्तर होता है। शंका-पंचेन्द्रिय पर्याप्तकोंका जो सागरोपमशतपृथक्त्वप्रमाण उत्कृष्ट अन्तर बताया है, उसमें देशोन' ऐसा पद और कहना चाहिए ? समाधान-नहीं, क्योंकि, पंचेन्द्रिय पर्याप्तककी देशोन स्थिति भी सागरोपमशतपृथक्त्वप्रमाण ही होती है। शंका--यह भी कैसे जाना जाता है ? समाधान—क्योंकि, सूत्रमें 'देशोन' इस वचनका अभाव है। शंका-संशी सम्मूच्छिम पंचेन्द्रियोंमें उत्पन्न कराकर और सम्यक्त्वको ग्रहण कराकर मिथ्यात्वके द्वारा अन्तरको प्राप्त क्यों नहीं कराया ? । समाधान नहीं, क्योंकि, संशी सम्मूच्छिम पंचेन्द्रियोंमें प्रथमोपशमसम्यक्त्वके ग्रहण करनेका अभाव है। शंका-वेदकसम्यक्त्वको क्यों नहीं प्राप्त कराया ? समाधान-नहीं, क्योंकि, एकेन्द्रियोंमें दीर्घ काल तक रहनेवाले और उद्वेलना की है सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिकी जिसने, ऐसे जीवके वेदकसम्यक्त्वका उत्पन्न कराना संभव नहीं है। संयतासंयतका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं- एकेन्द्रियकी स्थितिको प्राप्त एक जीव, संशी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकों में उत्पन्न हुआ। तीन पक्ष, तीन दिवस और अन्तर्मुहूर्तसे (१) प्रथमोपशमसम्यक्त्वको तथा संयमासंयमको युगपत् प्राप्त हुआ (२)। प्रथमोपशमसम्यक्त्वके कालमें छह आवलियां अवशेष रहने पर सासादन गुणस्थानको प्राप्त कर अन्तरको प्राप्त हुआ। मिथ्यात्वको जाकर अपनी स्थितिप्रमाण परिभ्रमण करके अन्तिम पंचेन्द्रिय भवमें सम्यक्त्वको ग्रहण कर दर्शनमोहनीयका क्षय कर और संसारके Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ ] छक्खंडागेम जीवट्ठाणं [ १, ६, १२१. खविय अंतोमुहुत्तावसेसे संसारे संजमासंजमं च पडिवण्णो (३) अप्पमत्तो ( ४ ) । मत्तो (५) अप्पमत्तो ( ६ ) । उवरि छ मुहुत्ता । तिष्णिपक्खेहि तिष्णिदिवसे हि वारस अंतोमुहुतेहि य ऊणिया सगट्ठिदी लद्धं संजदासंजदाणमुक्कस्संतरं । एईदिएस किण्ण उप्पाइदो ? लद्धमंतरं करिय उवरि सिज्झणकालादो मिच्छत्तं गंतूण एइंदिएसु आउअं बंधिय तत्थुष्पज्जणकालो संखेज्जगुणो त्ति एइंदिएमु ण उप्पादिदो । उवरिमाणं पि एदमेव कारणं वत्तव्वं । पमत्तस्स वुच्चदे- एक्को एइंदियट्ठिदिमच्छिदो मणुसेसु उबवण्णो । गन्भादिअट्ठवस्सेहि उवसमसम्मत्तमप्पमत्तगुणं च जुगवं पडिवण्णो ( १ ) पमतो जादो ( २ ) | हेट्ठा पडिदूतरिदो सगट्ठिदिं परिभमिय अपच्छिमे भवे मणुसो जादो । दंसणमोहणीयं खविय अंतोमुहुत्तावसेसे संसारे अप्पमत्तो होढूण पमत्तो जादो ( ३ ) | लद्धमंतरं । भूओ अप्पमत्तो ( ४ ) उवरि छ अंतोमुहुत्ता । अट्ठहि वस्सेहि दसहि अंतोमुहुत्तेहि य ऊणिया सगद्विदी पमत्तमुक्कस्संतरं लद्धं । अन्तर्मुहूर्तप्रमाण अवशेष रहने पर संयमासंयमको प्राप्त हुआ (३) । पश्चात् अप्रमत्तसंयत (४) प्रमत्तसंयत (५) अप्रमत्तसंयत (६) हुआ। इनमें अपूर्वकरणादिसम्बन्धी ऊपरके छह मुहूर्तोंको मिलाकर तीन पक्ष, तीन दिवस और बारह अन्तर्मुहूर्तोंसे कम अपनी स्थितिप्रमाण संयतासंयतोंका उत्कृष्ट अन्तर है । शंका-उक्त जीवको एकेन्द्रियोंमें क्यों नहीं उत्पन्न कराया ? समाधान-संयतासंयतका अन्तर लब्ध होनेके पश्चात् ऊपर सिद्ध होने तकके कालसे मिथ्यात्वको जाकर एकेन्द्रियों में आयुको बांधकर उनमें उत्पन्न होनेका काल संख्यातगुणा है, इसलिए एकेन्द्रियोंमें नहीं उत्पन्न कराया। इसी प्रकार प्रमत्तादि उपरितन गुणस्थानवर्ती जीवोंके भी यही कारण कहना चाहिए । प्रमत्तसंयतका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं- एकेन्द्रियस्थितिको प्राप्त एक जीव मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ और गर्भादि आठ वर्षोंसे उपशमसम्यक्त्व और अप्रमत्तगुणस्थानको एकसाथ प्राप्त हुआ (१) । पश्चात् प्रमत्तसंयत हुआ (२) । पीछे नीचे गिरकर अन्तरको प्राप्त हो अपनी स्थितिप्रमाण परिभ्रमण कर अन्तिम भवमें मनुष्य हुआ । दर्शनमोहनीयका क्षयकर अन्तर्मुहूर्तकाल संसारके अवशिष्ट रहने पर अप्रमत्तसंयत होकर पुनः प्रमत्तसंयत हुआ (३) । इस प्रकार अन्तर लब्ध हुआ । पुनः अप्रमत्तसंयत (४) हुआ। इनमें ऊपरके छह अन्तर्मुहूर्त मिलाकर आठ वर्ष और दश अन्तर्मुहूतौंसे कम अपनी स्थिति प्रमत्तसंयतका उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त होता है । Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, १२४.] अंतराणुगमे पंचिंदिय-अंतरपरूवणं [७५ अप्पमत्तस्स उच्चदे- एक्को एइंदियट्ठिदिमच्छिदो मणुसेसु उववण्णो गम्भादिअट्ठवस्साणमुवरि उवसमसम्मत्तमप्पमत्तगुणं च जुगवं पडिवण्णो। आदी दिट्ठा (१)। अंतरिदो अपच्छिमे पंचिंदियभवे मणुस्सेसु उववण्णो । दसणमोहणीयं खधिय अंतोमुहुत्तावसेसे संसारे विसुद्धो अप्पमत्तो जादो (२)। तदो पमत्तो (३) अप्पमत्तो (४)। उवरि छ अंतोमुहुत्ता । एवमट्टवस्सेहि दसहि अंतोमुहुत्तेहि य ऊणिया पंचिंदियट्टिदी उक्कस्संतरं । चदुण्हमुवसामगाणं णाणाजीवं पडि ओघं ॥१२२ ॥ कुदो ? जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण वासपुधत्तमिच्चेएहि ओघादो भेदाभावा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ १२३॥ तिण्हमुवसामगाणमुत्ररि चढिय हेट्ठा ओदिण्णे जहण्णमंतरं होदि । उवसंतकसायस्स हेट्ठा ओदरिय पुणो सब्बजहण्णेण कालेण उवसंतकसायत्तं पडिवण्णे जहण्णमंतरं होदि। उक्कस्सेण सागरोवमसहस्साणि पुवकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि, सागरोवमसदपुधत्तं ॥ १२४ ॥ अप्रमत्तसंयतका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं- एकेन्द्रियकी स्थितिमें स्थित एक जीव मनुष्यों में उत्पन्न हुआ और गर्भादि आठ वर्षांसे ऊपर उपशमसम्यक्त्व तथा अप्रमत्तगुणस्थानको युगपत् प्राप्त हुआ। इस प्रकार इस गुणस्थानका आरंभ दिखाई दिया। पश्चात् अन्तरको प्राप्त हो अन्तिम पंचेन्द्रिय भवमें मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ। दर्शनमोहनीयका क्षय कर संसारके अन्तर्मुहूर्त अवशेष रहने पर विशुद्ध हो अप्रमत्तसंयत हुआ (२)। पश्चात् प्रमत्तसंयत (३) अप्रमत्तसंयत (४) हुआ । इनमें ऊपरके छह अन्तर्मुहूर्त मिलाने पर आठ वर्ष और दश अन्तर्मुहूर्तोंसे कम पंचेन्द्रियकी स्थिति अप्रमत्तसंयतका उत्कृष्ट अन्तर है। चारों उपशामकोंका अन्तर नाना जीवोंकी अपेक्षा ओघके समान है ॥ १२२ ॥ क्योंकि, नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे वर्षपृथक्त्व, इस प्रकार ओघसे इनमें कोई भेद नहीं है। चारों उपशामकोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥१२३॥ अपूर्वकरणसंयत आदि तीनों उपशामकोंका ऊपर चढ़कर नीचे उतरनेपर जघन्य अन्तर होता है । किन्तु उपशान्तकषायका नीचे उतरकर पुनः सर्वजघन्य कालसे उपशान्तकषायको प्राप्त होनेपर जघन्य अन्तर होता है। चारों उपशामकोंका उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक सागरोपमसहस्र और सागरोपमशतपृथक्त्व है ॥१२४ ॥ १ चतुर्णामुपशमकाना नानाजीवापेक्षया सामान्यवत् । स. सि. १, ८. . २ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुर्तः । स. सि. १, ८. ३ उत्कर्षेण सागरोपमसहस्रं पूर्वकोटीपृथक्त्वैरभ्यधिकम् । स. सि. १, ८. Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ६, १२४. - एक्को एइंदियट्टिदिमच्छिदो मणुसेसु उववण्णो । गम्भादिअट्ठवस्सेहि विसुद्धो उवसमसम्मत्तमप्पमत्तगुणं च जुगवं पडिवण्णो अंतोमुहुत्तेण (१) वेदगसम्मत्तं गदो। तदो अंतोमुहुत्तेण (२) अणंताणुबंधी विसंजोजिय (३) विस्समिय (४) दंसणमोहणीयमुवसमिय (५) पमत्तापमत्तपरावत्तसहस्सं कादूण (६) उवसमसेढीपाओग्गअप्पमत्तो जादो (७) । अपुरो (८) अणियट्टी (९) सुहुमो (१०) उवसंतो (११) सुहुमो (१२) अणियट्टी (१३) अपुल्यो (१४)। हेट्ठा ओदरिदूण पंचिंदियट्ठिदि परिभमिय पच्छिमे भवे मणुसेसु उववण्णो । दसणमोहणीयं खविय अंतोमुहुत्तावसेसे संसारे विसुद्धो अप्पमत्तो जादो । पुणो पमत्तापमत्तपरावत्तसहस्सं कादण उवसमसेढीपाओग्गअप्पमत्तो होदूण अपुव्बउवसामगो जादो । लद्धमंतरं (१५)। तदो अणियट्टी (१६) सुहुमो (१७) उवसंतकसाओ (१८) सुहुमो (१९) अणियट्टी (२०) अपुरो (२१) अप्पमत्तो (२२) पमत्तो (२३) अप्पमत्तो (२४) । उवरि छ अंतोमुहुत्ता । एवं अट्ठहि वस्सेहि तीसहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणिया सगढिदी अपुव्वुक्कस्संतरं । एवं चेव तिण्हमुवसामगाणं वत्तव्यं । णवरि अट्ठावीसछन्वीस-चदुवीसअंतोमुहुत्तेहि अब्भहियअवस्सूणा सगढिदी अंतरं होदि । एकेन्द्रिय-स्थितिमें स्थित एक जीव, मनुष्यों में उत्पन्न हुआ। गर्भादि आठ वर्षांसे विशुद्ध हो उपशमसम्यक्त्वको और अप्रमत्तगुणस्थानको युगपत् प्राप्त होता हुआ अन्तमुहूर्तसे (१) वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। पश्चात् अन्तर्मुहूर्तसे (२) अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्कका विसंयोजन करके (३) विश्राम ले (४) दर्शनमोहनीयका उपशम कर (५) प्रमत्त-अप्रमत्तगुणस्थानसम्बन्धी परावर्तन-सहस्रोंको करके (६) उपशमश्रेणीके प्रायोग्य अप्रमत्तसंयत हुआ (७)। पश्चात् अपूर्वकरणसंयत (८) अनिवृत्तिकरणसंयत (९) सूक्ष्मसाम्परायसंयत (१०) उपशान्तकषाय (११) सूक्ष्मसाम्पराय (१२) अनिवृत्तिकरणसंयत (१३) अपूर्वकरणसंयत (१४) हो, नीचे उतरकर पंचेन्द्रियकी स्थितिप्रमाण परिभ्रमणकर अन्तिम भवमें मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ। पश्चात् दर्शनमोहनीयका क्षयकर संसारके अन्तर्मुहूर्तमात्र अवशेष रहनेपर विशुद्ध हो अप्रमत्तसंयत हुआ। पुनः प्रमत्तअप्रमत्तपरावर्तन-सहनोंको करके उपशमश्रेणीके योग्य अप्रमत्तसंयत होकर अपूर्वकरण उपशामक हुआ। इस प्रकार अन्तर लब्ध हुआ (१५) । पश्चात् अनिवृत्तिकरणसंयत (१६) सूक्ष्मसाम्परायसंयत (१७) उपशान्तकषाय (१८) सूक्ष्मसाम्परायसंयत (१९) अनिवृत्तिकरणसंयत (२०) अपूर्वकरणसंयत (२१) अप्रमत्तसंयत (२२) प्रमत्तसंयत (२३) और अप्रमत्तसंयत हुआ (२४)। इसके ऊपर क्षपकश्रेणीसम्बन्धी छह अन्तर्मुहूर्त होते हैं। इस प्रकार तीस अन्तर्मुहूर्त और आठ वर्षोंसे कम पंचेन्द्रियस्थितिप्रमाण अपूर्वकरणका उत्कृष्ट अन्तर होता है। इसी प्रकारसे शेष तीनों उपशामकोका भी अन्तर कहना चाहिए। विशेष बात यह है कि उनके क्रमशः अट्ठाईस छव्वीस और चौवीस भन्तर्मुहतोंसे अधिक आठ वर्ष कम पंचेन्द्रिय-स्थितिप्रमाण अन्तर होता है। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७७ १, ६, १२९.] अंतराणुगमे पंचिंदियअपज्जत्त-अंतरपरूवणं चदुण्हं खवा अजोगिकेवली ओघं ॥ १२५॥ णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण छम्मासा; एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, पिरंतरमिच्चेएहि ओघादो भेदाभावा । सजोगिकेवली ओघं ॥ १२६॥ कुदो ? णाणेगजीव पडुच्च णस्थि अंतरं, णिरंतरमिच्चेदेण ओघादो भेदाभावा । पंचिंदियअपज्जत्ताणं वेइंदियअपज्जत्ताणं भंगो ॥ १२७ ॥ णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं, एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं, उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियट्टमिच्चेएहि वेईदियअपज्जत्तेहिंतो पंचिंदियअपज्जत्ताणं भेदाभावा । एदमिंदियं पडुच्च अंतरं ॥ १२८ ॥ गुणं पडुच्च उभयदो वि णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ १२९ ॥ एदाणि दो वि सुत्ताणि सुगमाणि ।। एवमिंदियमग्गणा समत्ता । चारों क्षपक और अयोगिकेवलीका अन्तर ओघके समान है ॥ १२५ ॥ नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे छह मास अन्तर है, एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है; इस प्रकार ओघप्ररूपणासे कोई भेद नहीं है। सयोगिकेवलीका अन्तर ओघके समान है ॥ १२६ ॥ क्योंकि, नाना जीव और एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है; इस प्रकार ओघसे कोई भेद नहीं है। पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकोंका अन्तर द्वीन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकोंके समान है ॥१२७॥ नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है; एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण और उत्कर्षसे अनन्तकालात्मक असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण अन्तर होता है। इस प्रकार द्वीन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकोंसे पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकोंके अन्तरमें कोई भेद नहीं है। यह गतिकी अपेक्षा अन्तर कहा है ॥१२८॥ गुणस्थानकी अपेक्षा दोनों ही प्रकारसे अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ १२९ ॥ ये दोनों ही सूत्र सुगम है। इस प्रकार इन्द्रियमार्गणा समाप्त हुई। १ शेषाणां सामान्योक्तम् । स. सि. १,८. २ एवमिन्द्रियं प्रत्यन्तरमुक्तम् । स. सि. १, ८. ३ गुणं प्रत्युभयतोऽपि नास्त्यन्तरम् । स. सि. १, ८. Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ६, १३०. कायाणुवादेण पुढविकाइय-आउकाइय-तेउकाइयचाउकाइयबादर-सुहुम-पज्जत्त-अपज्जत्ताणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णस्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ १३०॥ सुगममेदं सुत्तं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ १३१ ॥ कुदो ? एदेसिमणप्पिदअपज्जत्तएमु उप्पज्जिय सव्वत्थोवेण कालेण पुणो अप्पिदकायमागदाणं खुद्दाभवग्गहणमेत्तजहण्णंतरुवलंभा । उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियढें ॥ १३२॥ कुदो ? अप्पिदकायादो वणप्फदिकाइएमुप्पज्जिय अंतरिदजीवो वणप्फदिकायद्विदि आवलियाए असंखेज्जदिभागपोग्गलपरियट्टमेत्तं परिभमिय अणप्पिदसेसकायट्ठिदि च, तदो अप्पिदकायमागदो जो होदि, तस्स मुत्तुत्तुक्कस्संतरुवलंभा । कायमार्गणाके अनुवादसे पृथिवीकायिक, जलकायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, इनके बादर और सूक्ष्म तथा उन सबके पर्याप्तक और अपर्याप्तक जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ १३० ॥ यह सूत्र सुगम है। उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण है॥१३१॥ क्योंकि, इन पृथिवीकायिकादि जीवोंका अविवक्षित अपर्याप्तकोंमें उत्पन्न होकर सर्वस्तोक कालसे पुनः विवक्षित कायमें आये हुए जीवोंके क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण जघन्य अन्तर पाया जाता है। . उक्त पृथिवीकायिक आदि जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकालात्मक असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन है ॥ १३२॥ क्योंकि, विवक्षित कायसे वनस्पतिकायिकोंमें उत्पन्न होकर अन्तरको प्राप्त हुआ जीव आवलीके असंख्यातवें भाग पुद्गलपरिवर्तन वनस्पतिकायकी स्थिति तक परिभ्रमण कर और अविवक्षित शेष कायिक जीवोंकी भी स्थिति तक परिभ्रमण करके तत्पश्चात् विवक्षित कायमें जो जीव आता है उसके सूत्रोक्त उत्कृष्ट अन्तर पाया जाता है। १ कायानुवादेन पृथिव्यप्तेजोवायुकायिकानां नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । स. सि. १, ८. २ एकजीवं प्रति जघन्येन क्षुद्रभवग्रहणम् । स. सि. १, ८. ३ उत्कर्षेणानन्तः कालोऽसंख्येयाः पुद्गलपरिवर्ताः । स.सि. १,८. ........................... Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, १३६.] अंतराणुगमे थावरकाइय-अंतरपरूवणं [७९ वणप्फदिकाइय-णिगोदजीव-बादर-सुहम-पज्जत्त-अपजत्ताणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं॥ १३३ ॥ सुगममेदं सुत्तं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ १३४ ॥ कुदो ? अप्पिदकायादो अणप्पिदकायं गंतूणं अइलहुएण कालेण पुणो अप्पिदकायमागदस्स खुद्दाभवग्गहणमेनंतरुवलंभा । उक्कस्सेण असंखेज्जा लोगा ॥ १३५॥ कुदो ? अप्पिदकायादो पुढवि-आउ-तेउ-बाउकाइएसु उप्पज्जिय असंखेज्जलोगमेत्तकालं तत्थेव परिभमिय पुणो अप्पिदकायमागदस्स असंखेज्जलोगमेत्तरुवलंभा । बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरपज्जत्त-अपज्जत्ताणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, पिरंतरं ॥ १३६ ॥ सुगममेदं सुतं । वनस्पतिकायिक, निगोद जीव, उनके बादर व सूक्ष्म तथा उन सबके पर्याप्तक और अपर्याप्तक जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ १३३॥ यह सूत्र सुगम है। उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण है ॥१३४॥ क्योंकि, विवक्षित कायसे अविवक्षित कायको जाकर अतिलघु कालसे पुनः विवक्षित कायमें आये हुये जीवके क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण अन्तर पाया जाता है। उक्त जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक है ॥ १३५ ॥ क्योंकि, विवक्षित वनस्पतिकायसे पृथिवी, जल, अग्नि और वायुकायिक जीवोंमें उत्पन्न होकर असंख्यात लोकमात्र काल तक उन्हींमें परिभ्रमण कर पुनः विवक्षित वनस्पतिकायको आये हुए जीवके असंख्यातलोकप्रमाण अन्तर पाया जाता है। . बादर वनस्पतिकायिकप्रत्येकशरीर और उनके पर्याप्तक तथा अपर्याप्तक जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ १३६ ॥ __ यह सूत्र सुगम है। १ वनस्पतिकायिकानां नानाजीवापेक्षया नास्यन्तरम् । स. सि. १,८. २ एकजीवापेक्षया जघन्येन क्षुद्रभवग्रहणम् । स.सि..,८. ३ उत्कर्षणासंख्येया लोकाः। स.सि.१,८. Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०1 छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ६, १३७. एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ १३७ ॥ एदं पि सुत्तं सुगमं चेय। उक्कस्सेण अड्डाइज्जपोग्गलपरियढें ॥ १३८॥ कुदो ? अप्पिदकायादो णिगोदजीवेसुप्पण्णस्स अड्डाइज्जपोग्गलपरियट्टाणि सेसकायपरिब्भमणेण सादिरेयाणि परिभमिय अप्पिदकायमागदस्स अड्डाइज्जपोग्गलपरियट्टमेत्तरुवलंभा । तसकाइय-तसकाइयपज्जत्तएसु मिच्छादिट्टी ओघं ॥ १३९ ।। कुदो ? णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण णत्थि अंतरं, णिरंतरं; एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण वे छावहिसागरोवमाणि देसूणाणि; इच्चेदेहि मिच्छादिहिओघादो भेदाभावा । सासणसम्मादिहि-सम्मामिच्छादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च ओघं ॥ १४० ॥ उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण है ॥१३७॥ यह सूत्र भी सुगम ही है । उक्त जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर अढ़ाई पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है ॥ १३८ ॥ क्योंकि, विवक्षित कायसे निगोद जीवोंमें उत्पन्न हुए, तथा उसमें अढ़ाई पुद्गलपरिवर्तन और शेष कायिक जीवोंमें परिभ्रमण करनेसे उनकी स्थितिप्रमाण साधिक काल परिभ्रमणकर विवक्षित कायमें आये हुए जीवके अढ़ाई पुद्गलपरिवर्तन कालप्रमाण अन्तर पाया जाता है। त्रसकायिक और त्रसकायिक पर्याप्तक जीवोंमें मिथ्यादृष्टि जीवोंका अन्तर ओघके समान है ॥ १३९॥ ___ क्योंकि, नाना जीवोंकी अपेक्षा कोई अन्तर नहीं है, निरन्तर है; एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त अन्तर है और उत्कर्षसे देशोन दो छयासठ सागरोपम अन्तर है। इस प्रकार मिथ्यादृष्टि जीवोंके ओघ अन्तरसे इनके अन्तरमें कोई भेद नहीं है। सकायिक और त्रसकायिक पर्याप्तक सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा ओघके समान अन्तर है ॥ १४०॥ १ त्रसकायिकेषु मिथ्यादृष्टेः सामान्यवत् । स. सि. १, ८. २ सासादनसम्यग्दृष्टिसम्यग्मिध्यादृष्टयो नाजीवापेक्षया सामान्यवत् । स. सि. १, ८.. Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८१ १, ६, १४२.] अंतराणुगमे तसकाइय-अंतरपरूवर्ण कुदो ? जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो; इच्चेएहि भेदाभावा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, अंतोमुहुत्तं ।। १४१ ॥ सुगममेदं सुत्तं । उक्कस्सेण वे सागरोवमसहस्साणि पुवकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि, वे सागरोवमसहस्साणि देसूणाणि ॥ १४२ ॥ तं जधा- एक्को एइंदियट्ठिदिमच्छिदो असण्णिपंचिंदिएसु उववण्णो । पंचहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो (१) विस्संतो (२) विसुद्धो (३) भवणवासिय-वाणवेंतरदेवेसु आउअंबंधिदूण (४) विस्संतो (५) मदो भवणवासिय-वाणवेंतरदेवेसु उववण्णो । छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो (६) विस्संतो (७) विसुद्धो (८) उवसमसम्मत्तं पडिवण्णो (९) सासणं गदो । मिच्छत्तं गंतूणंतरिदो । तसहिदि परियट्टिदूण अवसाणे सासणं गदो। लद्धमंतरं । तदो तत्थ थावरपाओग्गमावलियाए असंखेज्जदिभागमच्छिदूण कालं गदो ___ क्योंकि, जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण अन्तर है, इस प्रकार ओघसे इनके अन्तरमें कोई भेद नहीं है। उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर क्रमशः पल्योपमके असंख्यातवें भाग और अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है ॥ १४१ ॥ यह सूत्र सुगम है। उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर क्रमशः पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक दो हजार सागरोपम और कुछ कम दो हजार सागरोपम है ॥ १४२ ॥ जैसे- एकेन्द्रियकी स्थितिमें स्थित कोई एक जीव असंज्ञी पंचेन्द्रियों में उत्पन्न हुआ। पांचों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (१) विश्राम ले (२) विशुद्ध हो (३) भवनवासी या वानव्यन्तर देवोंमें आयुको बांधकर (४) विश्राम ले (५) मरा और भवनवासी या वानव्यन्तर देवोंमें उत्पन्न हुआ। छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (६) विश्राम ले (७) विशुद्ध हो (८) उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हो (९) सासादनगुणस्थानको गया। पश्चात् मिथ्यात्वको जाकर अन्तरको प्राप्त हुआ और त्रस जीवोंकी स्थितिप्रमाण परिवर्तन करके अन्तमें सासादनगुणस्थानको गया। इस प्रकार अन्तर लब्ध हुआ। तत्पश्चात् उस सासादनगुणस्थानमें स्थावरकायके योग्य आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण काल १ एकजीवं प्रति जघन्येन पल्योपमासंख्येयभागोऽन्तर्मुहूर्तश्च । स. सि. १, ८. Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ६, १४३. थावरकाएसु उववण्णो । आवलियाए असंखेज्जदिमागेण णवहि अंतोमुहुत्तेहि य ऊणिया तसकाइय-तसकाइयपज्जत्तहिदी अंतरं होदि । सम्मामिच्छादिद्विस्स उच्चदे- एक्को एइंदियट्ठिदिमच्छिय जीवो असण्णिपंचिंदिएसु उववण्णो। पंचहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो (१) विस्संतो (२) विसुद्धो (३) भवणवासिय-वाण-तरदेवेसु आउअंबंधिय (४) विस्सभिय (५) पुव्वुत्तदेवेसु उववण्णो । छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो (६) विस्संतो (७) विमुद्धो (८) उवसमसभ्मत्तं पडिवण्णो (९) । सम्मामिच्छत्तं गदो (१०)। मिच्छत्तं गंतूणंतरिदो सगढिदिं परिभमिय अंतोमुहुत्तावसेसाए तस-तसपज्जत्तट्ठिदीए सम्मामिच्छत्तं गदो । र.द्धमंतरं (११)। मिच्छत्तं गंतूण (१२) एइंदिएसु उपवण्णो । वारसअंतोमुहुत्तेहि ऊणिया तस-तसपज्जत्तहिदी उक्कस्संतरं होदि । असंजदसम्मादिटिप्पहुडि जाव अप्पमत्तसंजदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णस्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ १४३॥ सुगममेदं । तक रह कर मरा और स्थावरकायिकों में उत्पन्न हुआ। इस प्रकार आवाके असंख्यातवें भाग और नौ अन्तर्मुहूर्तोंसे कम त्रसकायिक और सकायिकपर्याप्तकोंकी स्थितिप्रमाण अन्तर होता है। ___ त्रसकायिक और त्रसकायिकपर्याप्तक सम्यग्मिथ्यादृष्टिका अन्तर कहते हैंएकेन्द्रिय जीवोंकी स्थितिको प्राप्त कोई एक जीव असंही पंचेन्द्रियों में उत्पन्न हुआ। पांच पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (१) विश्राम ले (२) विशुद्ध हो (३) भवनवासी या वानव्यन्तर देवोंमें आयुको बांधकर (४) विश्राम ले (५) पूर्वोक्त देवोंमें उत्पन्न हुआ। छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (६) विश्राम ले (७) विशुद्ध हो (८) उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ (९)। पश्चात् सम्यग्मिथ्यात्वको गया (१०)। पुनः मिथ्यात्वको जाकर अन्तरको प्राप्त हुआ और अपनी स्थितिप्रमाण परिभ्रमण करके उसकायिक और त्रसकायिकपर्याप्तककी स्थितिके अन्तर्महूर्त अवशेष रह जानेपर सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। इस प्रकार अन्तर लब्ध हुआ (११)। पीछे मिथ्यात्वको जाकर (१२) एकेन्द्रियों में उत्पन्न हुआ। इस प्रकार इन बारह अन्तर्मुहूतोंसे कम त्रस और सपर्याप्तकोंकी स्थिति ही उक्त दोनों प्रकारके सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर होता है। असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर अप्रमत्तसंयत तक त्रसकायिक और त्रसकायिकपर्याप्तक जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ १४३ ॥ यह सूत्र सुगम है। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, १४५.] अंतराणुगमे तसकाइय-अंतरपरूवणं [८३ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ १४४ ॥ एवं पि सुगमं । उक्कस्सेण वे सागरोवमसहस्साणि पुवकोडिपुधत्तेणभहियाणि, वे सागरोवमसहस्साणि देसूणाणि ॥ १४५ ॥ असंजदसम्मादिद्विस्स उच्चदे- एको एइंदियट्ठिदिमच्छिदो असण्णिपंचिंदियसम्मुच्छिमपज्जत्तएसु उववण्णो । पंचहि पज्जतीहि एज्जत्तयदा (१) विस्संतो (२) विसुद्धो (३) भवणवासिय-वाण-तरदेवेसु आउअं बंधिय (४) विस्संतो (५) कालं करिय भवणवासिएसु वाणवेंतरेसु वा देवेसु उववण्णो । छहि पज्जतीहि पज्जत्तयदो (६) विस्संतो (७) विसुद्धो (८) उवसमसम्मत्तं पडिवण्णो (९)। उबसमसम्मत्तद्धाए छावलियावसेसाए आसाणं गदो । अंतरिदो मिच्छत्तं गंतूण सगढिदिं परिभमिय अंते उवसमसम्मत्तं पडिवण्णो (१०) । लद्धमंतरं । पुणो सासणं गदो आवलियाए असंखेजदिभागं कालमच्छिदूण एइदिएमु उववण्णा । दसहि अंतीमुहुत्तेहि ऊणिया तस-तसपज्जत्तहिदी उक्कस्संतरं । उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ १४४ ॥ यह सूत्र भी सुगम है। उक्त असंयतादि चारों गुणस्थानवर्ती त्रस और सपर्याप्त जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक दो सहस्रसागरोपम और कुछ कम दो सहस्र सागरोपम है ।। १४५ ॥ इनमें से पहले त्रस और सपर्याप्तक असंयतसम्यग्दृष्टिका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं- एकेन्द्रियस्थितिको प्राप्त कोई एक जीव असंज्ञो पंचेन्द्रिय सम्मूच्छिम पर्याप्तक जीवों में उत्पन्न हुआ। पांचों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (१) विश्राम ले (२) विशुद्ध हो (३) भवनवासी या वानव्यन्तर देवोंमें आयुको बांधकर (४) विश्राम ले (५) काल कर भवनवासी या वानव्यन्तर देवों में उत्पन्न हुआ। छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (६) विश्राम ले (७) विशुद्ध हो (८) उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ (९)। उपशमसम्यक्त्वके कालमें छह आवलियां अवशेष रहने पर सासादनगुणस्थानको गया और अन्तरको प्राप्त हो मिथ्यात्वमें जाकर अपनी स्थितिप्रमाण परिभ्रमणकर अन्तमें उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ (१०)। इस प्रकार अन्तर लब्ध हुआ। पुनः सासादनगुणस्थानको जाकर वहां आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण कालतक रहकर एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न हुआ। इस प्रकार इन दश अन्तर्मुहूतौसे कम त्रस और असपर्याप्तककी उत्कृष्ट स्थिति उन्हींके असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर है। ... १. उत्कर्षेण द्वे सागरोपमसहस्र पूर्वकोटीपृथक्त्वैरभ्यधिके । स. सि. १, ८. Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खडागमे जीवाणं [ १, ६, १४५. संजदासंजदस्स उच्चदे- एक्को एइंदियट्ठिदिमच्छिदो सष्णिपंचिदियपञ्जत्तएसु उववण्णो । असणिसम्मुच्छिमपज्जत्तएस किण्ण उप्पादिदो ? ण, तत्थ संजमासंजम - गहणाभावा । तिणिपक्ख-तिष्णिदिवसेहि अंतोमुहुत्तेण य पढमसम्मत्तं संजमा संजमं च जुगवं पडिवण्णा ( १ ) । पढमसम्मत्तद्धाए छावलियाओ अस्थि त्ति सासणं गदो । अंतरिदो मिच्छत्तं गंतूण सगट्ठिदिं परिभमिय पच्छिमे तसभवे सम्मत्तं घेत्तूण दंसणमोहणीयं खविय अंतोमुहुत्तावसेसे संसारे संजमा संजमं पडिवण्णो ( ३ ) । लद्धमंतरं । अप्पमत्तो ( ४ ) पत्तो ( ५ ) अप्पमत्तो ( ६ ) । उवरि खवगसेढिम्हि छ मुहुत्ता । एवं बारस अतोमुहुत्ताहिय अङ्केतालीस दिवसेहि ऊणिया तस-तसपज्जतट्ठिदी संजदासंजदुक्कस्संतरं । ८४ ] पमत्तस्स उच्चदे- एक्को एइंदियट्ठिदिमच्छिदो मणुसेसु उववण्णो । गब्भादिअट्ठवस्त्रेण उवसमसम्मत्तमप्पमत्तगुणं च जुगवं पडिवण्णो (१) पमत्तो (२) हेड्डा परिवदिय अंतरदो । सगट्ठिदिं परिभमिय अपच्छिमे भवे सम्मादिट्ठी मणुसो जादो | दंसणमोहणीयं xe और seपर्याप्तक संयतासंयतका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं- एकेन्द्रिय जीवों की स्थिति में स्थित कोई एक जीव संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकोंमें उत्पन्न हुआ । शंका-उक्त जीवको असंज्ञी सम्मूच्छिम पर्याप्तकों में क्यों नहीं उत्पन्न कराया ? समाधान- नहीं, क्योंकि, उनमें संयमासंयमके ग्रहण करनेका अभाव है। पुनः उत्पन्न होनेके पश्चात् तीन पक्ष, तीन दिवस और अन्तर्मुहूर्तसे प्रथमोपशमसम्यक्त्व और संयमासंयमको एक साथ प्राप्त हुआ (१) । प्रथमोपशसम्यक्त्वके कालमें छह आवलियां शेष रहने पर सासादन गुणस्थानको गया और अन्तरको प्राप्त हो मिथ्यात्वमें जाकर अपनी स्थितिप्रमाण परिभ्रमण करके अन्तिम त्रसभवमें सम्यक्त्वको ग्रहणकर और दर्शनमोहनीयका क्षय कर अन्तर्मुहूर्तप्रमाण संसारके अवशिष्ट रहने पर संयमासंयमको प्राप्त हुआ (३) । इस प्रकार अन्तर लब्ध हुआ । पश्चात् अप्रमत्तसंयत (४) प्रमत्तसंयत (५) और अप्रमत्तसंयत ( ६ ) हुआ । इनमें क्षपकश्रेणीसम्बन्धी ऊपरके छह अन्तर्मुहूर्त और मिलाये । इस प्रकार बारह अन्तर्मुहूर्तोसे अधिक अड़तालीस दिनोंसे कम स और सपर्याप्तकोंकी उत्कृष्ट स्थिति ही उन संयतासंयत जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर है । कायिक और त्रसकायिकपर्याप्त प्रमत्तसंयतका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैंएकेन्द्रिय स्थितिको प्राप्त कोई एक जीव मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ और गर्भको आदि ले आठ वर्षके पश्चात् उपशमसम्यक्त्व और अप्रमत्त गुणस्थानको एक साथ प्राप्त हुआ (१) । पश्चात् प्रमत्तसंयत हो ( २ ) नीचे गिर कर अन्तरको प्राप्त हुआ । अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण परिभ्रमण करके अन्तिम भवमें सम्यग्दृष्टि मनुष्य हुआ । पुनः दर्शनमोहनीयका Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८५ १, ६, १४७.] अंतराणुगमे तसकाइय-अंतरपरूवणं खविय अप्पमत्तो होद्ग पमत्तो जादो (३) लद्धमंतरं । भूओ अप्पमत्तो (४)। उवरि छ अंतोमुहुत्ता । एवं अट्ठहि वस्सेहि दसहि अंतोमुहुत्तेहि य ऊणा तस-तसपज्जत्तद्विदी उक्कस्संतरं । अप्पमत्तस्स उच्चदे- एक्को थावरट्ठिदिमच्छिदो मणुसेसु उबवण्णो गम्भादिअट्टवस्सेण उवसमसम्मत्तमप्पमत्तगुणं च जुगवं पडिवण्णो (१)। अंतरिदो सगढिदि परिभमिय पच्छिमे भवे मणुसो जादो । सम्मत्तं पडिवण्णो दंसणमोहणीयं खविय अंतोमुहुत्तावसेसे संसारे विमुद्धो अप्पमत्तो जादो (२) । लद्धमंतरं । तदो पमत्तो (३) अप्पमत्तो (४) । उवरि छ अंतोमुहुत्ता । एवमट्टहि वस्सेहि दसहि अंतोमुहुत्तेहि य ऊणिया तसतसपञ्जत्तहिदी उक्कस्संतरं । चदुण्हमुवसामगाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च ओघं ॥ १४६॥ मुगममेदं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ १४७ ॥ क्षय करके अप्रमत्तसंयत हो प्रमत्तसंयत हुआ (३)। इस प्रकार अन्तर लब्ध हो गया। पुनः अप्रमत्तसंयत हुआ (४)। इनमें ऊपरके छह अन्तर्मुहूर्त और मिलाये । इस प्रकार दश अन्तर्मुहूर्त और आठ वर्षांसे कम त्रस और सपर्याप्तककी उत्कृष्ट स्थिति ही उन प्रमत्तसंयत जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर है। त्रसकायिक और त्रसकायिकपर्याप्त अप्रमत्तसंयतका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैंस्थावरकायकी स्थितिमें विद्यमान कोई एक जीव मनुष्यों में उत्पन्न हुआ और गर्भको आदि ले आठ वर्षसे उपशमसम्यक्त्व और अप्रमत्त गुणस्थानको एक साथ प्राप्त हुआ (१)। पश्चात् अन्तरको प्राप्त हो अपनी स्थितिप्रमाण परिभ्रमणकर अन्तिम भवमें मनुष्य हुआ। सम्यक्त्वको प्राप्त कर पुनः दर्शनमोहनीयका क्षय कर संसारके अन्तर्मुहूर्त अवशिष्ट रह जानेपर विशुद्ध हो अप्रमत्तसंयत हुआ (२)। इस प्रकार अन्तर लब्ध हो गया। तत्पश्चात् प्रमत्तसंयत (३) और अप्रमत्तसंयत हुआ (४)। इनमें ऊपरके क्षपकश्रेणीसम्बन्धी छह अन्तर्मुहूर्त और मिलाये । इस प्रकार आठ वर्ष और दश अन्तर्मुहूतोंसे कम अस और असपर्याप्तकोंकी उत्कृष्ट स्थिति ही उन अप्रमत्तसंयत जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर है। त्रसकायिक और त्रसकायिकपर्याप्तक चारों उपशामकोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा ओघके समान अन्तर है ॥ १४६ ॥ यह सूत्र सुगम है। चारों उपशामकोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है॥१४७॥ १ चतुर्णामुपशमकानां नानाजीवापेक्षया सामान्यवत् । स. सि. १, ८. २ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १, ८. Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ६, १४८. एदं पि सुगम । उक्कस्सेण वे सागरोवमसहस्साणि पुव्वकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि, वे सागरोवमसहस्साणि देसूणाणि ॥ १४८ ॥ जधा पंचिंदियमग्गणाए चदुण्हमुवसामगाणमंतरपरूवणा परूविदा, तधा एत्थ वि णिरवयवा परूवेदव्या। चदुण्हं खवा अजोगिकेवली ओघं ॥ १४९ ॥ सुगममेदं। सजोगिकेवली ओघं ॥ १५० ॥ एवं पि सुगमं । तसकाइयअपज्जत्ताणं पंचिंदियअपज्जत्तभंगो ॥ १५१ ॥ कुदो? णाणाजीव पडुच्च णत्थि अंतरं, एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं, उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियट्टमिच्चेएहि पंचिंदियअपज्जत्तेहिंतो तसकाइयअपज्जत्ताणं भेदाभावा । यह सूत्र भी सुगम है। उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर क्रमशः पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक दो सहस्र सागरोपम तथा कुछ कम दो सहस्र सागरोपम है ॥ १४८॥ जिस प्रकारसे पंचेन्द्रियमार्गणामें चारों उपशामकोंकी अन्तरप्ररूपणा प्ररूपित की है, उसी प्रकार यहांपर भी सामस्त्यरूपसे अविकल प्ररूपणा करना चाहिए। चारों क्षपक और अयोगिकेवलीका अन्तर ओघके समान है ॥ १४९ ।। यह सूत्र सुगम है। सयोगिकेवलीका अन्तर ओघके समान है ॥१५० ॥ यह सूत्र भी सुगम है। त्रसकायिक लब्ध्यपर्याप्तकोंका अन्तर पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकोंके अन्तरके समान है ॥ १५१॥ क्योंकि, नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण, उत्कर्षसे अनन्तकालात्मक असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन है; इस प्रकार पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकोसे त्रसकायिक लब्ध्यपर्याप्तकोंके अन्तरमें कोई भेद नहीं है। १ उत्कर्षेण द्वे सागरोपमसहस्र पूर्वकोटीपृथक्वैरभ्यधिके । स. सि. १, ८. २शेषाणां पंचेन्द्रियवत् । स. सि. १,८. Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, १५३.] अंतराणुगमे मण-वचि-कायजोगि-अंतरपरूवणं एदं कायं पडुच्च अंतरं । गुणं पडुच्च उभयदो वि णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ १५२॥ सुगममेदं सुत्तं । एवं कायमग्गणा समत्ता । जोगाणुवादेण पंचमणजोगि-पंचवचिजोगी कायजोगि-ओरालियकायजोगीसु मिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिद्वि-संजदासंजद-पमत्तअप्पमत्तसंजद-सजोगिकेवलीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, गाणेगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ १५३ ॥ कुदो ? अप्पिदंजोगसहिदअप्पिदगुणट्ठाणाणं सबकालं संभवादो । कधमेगजीवमासेज अंतराभावो ? ण ताव जोगंतरगमणेणंतरं संभवदि, मग्गणाए विणासापत्तीदो। ण च अण्णगुणगमणेण अंतरं संभवदि, गुणंतरं गदस्स जीवस्स जोगंतरगमणेण विणा पुणो आगमणाभावादो । तम्हा एगजीवस्स वि णत्थि चेव अंतरं । यह अन्तर कायकी अपेक्षा कहा है। गुणस्थानकी अपेक्षा दोनों ही प्रकारसे अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ १५२ ॥ यह सूत्र सुगम है। इस प्रकार कायमार्गणा समाप्त हुई। योगमार्गणाके अनुवादसे पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी और औदारिककाययोगियोंमें, मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत और सयोगिकेवलियोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी और एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ १५३ ॥ क्योंकि, सूत्रोक्त विवक्षित योगोंसे सहित विवक्षित गुणस्थान सर्वकाल संभव है। शंका–एक जीवकी अपेक्षा अन्तरका अभाव कैसे कहा ? समाधान-सूत्रोक्त गुणस्थानोंमें न तो अन्य योगमें गमनद्वारा अन्तर सम्भव है, क्योंकि, ऐसा मानने पर विवक्षित मार्गणाके विनाशकी आपत्ति आती है । और न अन्य गुणस्थानमें जानेसे भी अन्तर सम्भव है, क्योंकि, दूसरे गुणस्थानको गये हुए जीवके अन्य योगको प्राप्त हुए विना पुनः आगमनका अभाव है। इसलिए सूत्रमें बताये गये जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं होता है। १ योगानुवादेन कायवाङ्मानसयोगिनां मिथ्यादृष्टयसंयतसम्यग्दृष्टिसंयतासंयतप्रमत्ताप्रमत्तसयोगकेवलिनां नानाजीवापेक्षया एकजीवापेक्षया च नास्त्यन्तरम् । स. सि. १, ८. २ प्रतिषु ' अपगद ' इति पाठः । Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ६, १५४. __ सासणसम्मादिट्ठि-सम्मामिच्छादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ॥ १५४ ॥ सुगममेदं । उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ॥ १५५ ॥ ___ कुदो ? दोण्हं रासीणं सांतरत्तादो । सांतरत्ते वि अहियमंतरं किण्ण होदि ? सहावदो। एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥१५६ ॥ कुदो ? गुण-जोगंतरगमणेहि तदसंभवा । चदुण्हमुवसामगाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च ओघं ॥१५७ ॥ कुदो ? जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण वासपुधत्तमिच्चेएहि ओघादो भेदाभावा । उक्त योगवाले सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय अन्तर है ॥ १५४ ॥ यह सूत्र सुगम है। उक्त जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भाग है ॥ १५५ ।। क्योंकि, ये दोनों ही राशियां सान्तर हैं । शंका-राशियोंके सान्तर रहने पर भी अधिक अन्तर क्यों नहीं होता है ? समाधान-स्वभावसे ही अधिक अन्तर नहीं होता है। उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ १५६ ॥ क्योंकि, अन्य गुणस्थानों और अन्य योगोंमें गमनद्वारा उनका अन्तर असंभव है। उक्त योगवाले चारों उपशामकोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा ओघके समान अन्तर है ॥ १५७ ॥ क्योंकि, जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे वर्षपृथक्त्व अन्तर है, इस प्रकार ओघके अन्तरसे इनके अन्तरमें कोई भेद नहीं है । १ सासादनसम्यग्दृष्टिसम्यग्मिथ्यादृष्टयो नाजीवापेक्षया सामान्यवत् । स. सि. १, ८. २ एकजीवं प्रति नास्त्यन्तरम् । स. सि, १, ८. ३ चतुर्णामुपशमकानां नानाजीवापेक्षया सामान्यवत । स. सि. १, ८. Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, १६१. ] अंतरागमे ओरालिय मिस्सकायजोगि अंतरपरूवणं एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ १५८॥ जोग - गुणतरगमणेण तदसंभवा । एगजोगपरिणमणकालादो गुणकालो संखेजगुणो ति कथं वदे ? एगजीवस्स अंतराभावपदुप्पायणसुत्तादो । दुहं खवाणमोघं ॥ १५९ ॥ णाणाजीव पडुच्च जहणेण एगसमयं, उक्कस्सेण छम्मासं; एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरमिच्चेदेहि भेदाभावा । ओरालियमिस्स कायजोगीसु मिच्छादिट्टीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणेगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, निरंतरं ॥ १६० ॥ म्हि जोग - गुणतरसंकंतीए अभावादो । सासणसम्मादिट्टीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च ओघं ॥ १६९ ॥ एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ।। १५८ ।। क्योंकि, अन्य योग और अन्य गुणस्थानमें गमनद्वारा उनका अन्तर असंभव है । शंका—एक योगके परिणमन- कालसे गुणस्थानका काल संख्यातगुणा है, यह कैसे जाना जाता है ? समाधान-एक जीवके अन्तरका अभाव बतानेवाले सूत्रसे जाना जाता है कि एक योगके परिवर्तन-कालसे गुणस्थानका काल संख्यातगुणा है । उक्त योगवाले चारों क्षपकोंका अन्तर ओघके समान है ।। १५९ ॥ [ ८९ नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय, उत्कर्षसे छह मास अन्तर है, तथा एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है; इस प्रकार ओघसे अन्तरमें कोई भेद नहीं है । औदारिकमिश्रकाययोगियोंमें मिथ्यादृष्टि जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीव और एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ १६० ॥ क्योंकि, औदारिक मिश्रकाययोगियों में योग और गुणस्थानके परिवर्तनका अभाव है । औदारिकमिश्रकाययोगी सासादन सम्यग्दृष्टियोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है ॥ १६१ ॥ १ एकजीवं प्रति नास्त्यन्तरम् । स. सि. १, ८. २ चतुर्णा क्षपकाणामयोगकेवलिनां च सामान्यवत् । स. सि. १, ८. Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ६, १६२. कुदो? जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो; इच्चेदेहि ओपादो भेदाभावा । एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ १६२॥ कुदो ? तत्थ जोगंतरगमणाभावा । गुणंतरं गदस्स वि पडिणियत्तिय सासणगुणण तम्हि चेव जोगे परिणमणाभावा । __ असंजदसम्मादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ॥ १६३ ॥ कुदो ? देव-णेरइय-मणुसअसंजदसम्मादिट्ठीगं मणुसेसु उप्पत्तीए विणा मणुसअसंजदसम्मादिट्ठीणं तिरिक्वेसु उप्पत्तीए विणा एगसमयं असंजदसम्मादिद्विविरहिदओरालियमिस्सकायजोगस्स संभवादो । उक्कस्सेण वासपुधत्तं ॥ १६४ ॥ तिरिक्ख-मणुस्सेमु वासपुधत्तमेत्तकालमसंजदसम्मादिट्ठीणमुववादाभावा । एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ १६५ ॥ क्योंकि, जघन्यसे एक समय, और उत्कर्षसे पल्योपमका असंख्यातवां भाग अन्तर है, इस प्रकार ओघसे कोई भेद नहीं है। उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ १६२ ॥ क्योंकि, औदारिकमिश्रकाययोगकी अवस्थामें अन्य योगमें गमनका अभाव है। तथा अन्य गुणस्थानको गये हुए भी जीवके लौटकर सासादनगुणस्थानके साथ उसी ही योगमें परिणमनका अभाव है। औदारिकमिश्रकाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय अन्तर है ॥ १६३ ॥ क्योंकि, देव, नारकी और मनुष्य असंयतसम्यग्दृष्टियोंका मनुष्योंमें उत्पत्तिके विना, तथा मनुष्य असंयतसम्यग्दृष्टियोंका तिर्यंचोंमें उत्पत्तिके विना असंयतसम्यग्दृष्टियोंसे रहित औदारिकमिश्रकाययोगका एक समयप्रमाण काल सम्भव है। औदारिकमिश्रकाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टियोंका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्वप्रमाण है ॥१६४ ॥ । क्योंकि, तिर्यंच और मनुष्योंमें वर्षपृथक्त्वप्रमाण कालतक असंयतसम्यग्दृष्टियोंका उत्पाद नहीं होता है। औदारिकमिश्रकाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टियोंका एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ १६५ ॥ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, १७०. ] अंतरा वेव्वय- मिस्सकायजोगि - अंतर परूवणं तहि तस्स गुण - जोगंतरसंकंतीए अभावा । सजोगिकेवलीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च जहणेण एगसमयं ॥ १६६ ॥ कुद ? कवाडपज्जायविरहिद केवलण मेगसमओवलंभा । उक्कस्सेण वासपुधत्तं ॥ १६७ ॥ कवाडपज्जाणविणा केवलीणं वासपुधत्तच्छणसंभवादो । एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ १६८ ॥ कुदो ? जोगंतरमगंतूण ओरालियमिस्सकायजोगे चैव दिस्स अतरासंभवा । वेव्वियकायजोगीसु चदुट्टाणीणं मणजोगिभंगो ॥ १६९ ॥ कुदो ? णाणेगजीवं पच्च अंतराभावेण साधम्मादो | वे उव्वियमिस्सकायजोगीसु मिच्छादिट्टीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ॥ १७० ॥ क्योंकि, औदारिकमिश्रकाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवमें उक्त गुणस्थान और औदारि मिश्रकाययोगके परिवर्तनका अभाव है । औदारिकमिश्रकाययोगी सयोगिकेवली जिनोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय अन्तर है ।। १६६ ।। क्योंकि, कपाटपर्यायसे रहित केवली जिनोंका एक समय अन्तर पाया जाता है। औदारिक मिश्रका योगी केवली जिनोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है ।। १६७ ॥ क्योंकि, कपाटपर्यायके विना केवली जिनोंका वर्षपृथक्त्व तक रहना सम्भव है । औदारिकमिश्रकाययोगी केवली जिनोंका एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, [ ९९ निरन्तर है ॥ १६८ ॥ क्योंकि, अन्य योगको नहीं प्राप्त होकर औदारिक मिश्रकायये । गमें ही स्थित केवली अन्तरका होना असंभव है । वैक्रियिककाययोगियोंमें आदिके चारों गुणस्थानवर्ती जीवोंका अन्तर मनोयोगियोंके समान है ॥ १६९ ॥ क्योंकि, नाना जीव और एक जीवकी अपेक्षा अन्तरका अभाव होनेसे दोनोंमें . समानता है । वैक्रियिकमिश्रकाययोगियों में मिथ्यादृष्टियोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय अन्तर है, ॥ १७० ॥ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ६, १७१. तं जहा- वेउब्धियमिस्सकायजोगिमिच्छादिट्ठिणो सचे वेउब्धियकायजोगं गदा। एगसमयं वेउव्वियमिस्सकायजोगो मिच्छादिट्ठीहि विरहिदो दिट्ठो। विदियसमए सत्तट्ट जणा वेउव्वियमिस्सकायजोगे दिट्ठा । लद्धमेगसमयमंतरं । उक्कस्सेण बारस मुहुत्तं ॥ १७१ ॥ तं जधा- वेउब्धियमिस्समिच्छादिट्ठीसु सव्वेसु वेउबियकायजोगं गदेसु बारसमुहुत्तमेत्तमंतरिय पुणो सत्तट्ठजणेसु वेउब्बियमिस्सकायजोगं पडिवण्णेसु बारसमुहुत्तरं होदि । एगजीवं पडुच्च णस्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ १७२ ॥ तत्थ जोग-गुणंतरगमणाभावा । सासणसम्मादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीणं ओरालियमिस्सभंगो ॥ १७३॥ कुदो? सासणसम्मादिट्ठीणं णाणाजीवं पडुच्च जहण्णुक्कस्सेण एगसमयं, पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो तेहि', एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतर तेण; असंजदसम्मादिट्ठीणं जैसे- सभी वैक्रियिकमिश्रकाययोगी मिथ्यादृष्टि जीव वैक्रियिककाययोगको प्राप्त हुए । इस प्रकार एक समय वैक्रियिकमिश्रकाययोग, मिथ्यादृष्टि जीवोंसे रहित दिखाई दिया । द्वितीय समयमें सात आठ जीव वैक्रियिकमिश्रकाययोगमें दृष्टिगोचर हुए । इस प्रकार एक समय अन्तर उपलब्ध हुआ। वैक्रियिकमिश्रकाययोगी मिथ्यादृष्टियोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर बारह मुहूर्त है ॥ १७१ ॥ जैसे- सभी वैक्रियिकमिश्रकाययोगी मिथ्यादृष्टि जीवोंके वैक्रियिककाययोगको प्राप्त हो जाने पर बारह मुहूर्तप्रमाण अन्तर होकर पुनः सात आठ जीवोंके वैक्रियिकमिश्रकाययोगको प्राप्त होने पर बारह मुहूर्तप्रमाण अन्तर होता है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगी मिथ्यादृष्टियोंका एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ १७२ ॥ क्योंकि, उन वैक्रियिकमिश्रकाययोगी मिथ्यादृष्टियोंके अन्य योग और अन्य गुणस्थानमें गमनका अभाव है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगी सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका अन्तर औदारिकमिश्रकाययोगियोंके समान है ॥ १७३ ॥ क्योंकि, सासादनसम्यग्दृष्टियोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर क्रमशः एक समय और पल्योपमका असंख्यातवां भाग है इनसे, एक १ अप्रतौ — भागेहि ' ; आप्रतौ ' -भागोत्तेहि ' ; कातौ ' भागतेहि ' इति पाठः । Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, १७७.] अंतराणुगमे आहार-मिस्स-कम्मइयकायजोगि-अंतरपरूवणं [९३ णाणाजीवं पडुच्च जहण्णुक्कस्सगयएगसमय-मासपुधत्ततरेण', एगजीवं पडुच्च अंतराभावेण च तदो भेदाभावा ।। आहारकायजोगीसु आहारमिस्सकायजोगीसु पमत्तसंजदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ॥१७ ॥ सुगममेदं । उक्कस्सेण वासपुधत्तं ॥ १७५॥ एवं पि सुगममेव । एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ १७६ ॥ तम्हि जोग-गुणंतरग्गहणाभावा । कम्मइयकायजोगीसु मिच्छादिहि-सासणसम्मादिट्ठि-असंजदसम्मादिहि-सजोगिकेवलीणं ओरालियमिस्सभंगो ॥ १७७ ॥ जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है इससे; असंयतसम्यग्दृष्टियोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य एक समय और उत्कृष्ट मासपृथक्त्व अन्तर होनेसे, तथा एक जीवकी अपेक्षा अन्तरका अभाव होनेसे इन वैक्रियिकमिश्रकाययोगी सासादन और असंयतसम्यग्दृष्टियोंके अन्तरमें कोई भेद नहीं है। आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगियोंमें प्रमत्तसंयतोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय अन्तर है ॥१७४॥ यह सूत्र सुगम है। उक्त जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है ॥ १७५ ॥ यह सूत्र भी सुगम ही है। आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगियोंमें प्रमत्तसंयतोंका एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ १७६ ॥ __क्योंकि, आहारककाययोग या आहारकमिश्रकाययोगमें अन्य योग या अन्य गुणस्थानके ग्रहण करनेका अभाव है। __कार्मणकाययोगियोंमें मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और सयोगिकेवलियोंका अन्तर औदारिकमिश्रकाययोगियोंके समान है ॥१७७॥ १ प्रतिषु ' -पुधत्तसणेण' इति पाठः । Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४) छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ६, १७८. मिच्छादिट्ठीणं णाणेगजीवं पडुच्च अंतराभावेण; सासणसम्मादिट्ठीणं णाणाजीवगयएयसमय-पलिदोवमासंखेज्जदिभागंतरेहि, एगजीवगयअंतराभावेण; असंजदसम्मादिट्ठीणं णाणाजीवगयएयसमयमास-पुधत्तंतरेहि, एगजीवगयअंतराभावेणः सजोगिकेवलिणाणाजीवगयएगसमय-वासपुधत्तेहि, एगजीवगयअंतराभावेण च दोण्हं समाणत्तुवलंभा। एवं जोगमग्गणा समत्ता । वेदाणुवादेण इत्थिवेदेसु मिच्छादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ १७८ ॥ सुगममेदं सुत्तं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ १७९ ॥ कुदो ? इथिवेदमिच्छादिहिस्स दिट्ठमग्गस्स अण्णगुणं गंतूण पडिणियत्तिय लहुं मिच्छत्तं पडिवण्णस्स अंतोमुहुत्तरुवलंभा। उक्कस्सेण पणवण्ण पलिदोवमाणि देसूणाणि ॥ १८० ॥ क्योंकि, मिथ्यादृष्टियोंका नाना जीव और एक जीवकी अपेक्षा अन्तरका अभाव होनेसे; सासादनसम्यग्दृष्टियोंका नाना जीवगत जघन्य एक समय और उत्कृष्ट पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण अन्तरसे, तथा एक जीवगत अन्तरके अभावसे; असंयतसम्यग्दृष्टियोंका नाना जीवगत जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर मासपृथक्त्वसे, तथा एक जीवगत अन्तरका अभाव होनेसे; सयोगिकेवलियोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य एक समय और उत्कृष्ट वर्षपृथक्त्व अन्तरोसे, तथा एक जीवगत अन्तरका अभाव होनेसे औदारिकमिश्रकाययोगी और कार्मणकाययोगी, इन दोनोंके समानता पाई जाती है। इस प्रकार योगमार्गणा समाप्त हुई। वेदमार्गणाके अनुवादसे स्त्रीवेदियोंमें मिथ्यादृष्टि जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ १७८ ॥ यह सूत्र सुगम है। उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ १७९ ॥ क्योंकि, दृष्टमार्गी स्त्रीवेदी मिथ्यादृष्टि जीवके अन्य गुणस्थानको जाकर और लौटकर शीघ्र ही मिथ्यात्वको प्राप्त होनेपर अन्तर्मुहूर्त अन्तर पाया जाता है। स्त्रीवेदी मिथ्यादृष्टि जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पचवन पल्योपम है ॥ १८०॥ १ वेदानुवादेन स्त्रीवेदेषु मिथ्यादृष्टे नाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । स. सि. १, ८. २ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः। स. सि. १, ८. ३ उत्कर्षेण पंचपंचाशत्पल्योपमानि देशोनानि | स. सि. १, ८. Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, १८२.] अंतराणुगमे इत्थिवेदि-अंतरपरूवणं [९५ तं जहा- एक्को पुरिसवेदो णउंसयवेदो वा अट्ठावीसमोहसंतकम्मिओ पणवण्णपलिदोवमाउट्ठिदिदेवीसु उववण्णो । छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो (१) विस्संतो (२) विसुद्धो (३) वेदगसम्मत्तं पडिवण्णो अंतरिदो अवसाणे आउअं बंधिय मिच्छत्तं गदो । लद्धमंतर (४)। सम्मत्तेण बद्धाउअत्तादो सम्मत्तेणेव णिग्गदो (५) मणुसो जादो । पंचहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणाणि पणवण्ण पलिदोवमाणि उक्कस्संतरं होदि। छप्पुढविणेरइएसु सोहम्मादिदेवेसु च सम्माइट्ठी बद्धाउओ पुव्वं मिच्छत्तेण णिस्सारिदो। एत्थ पुण पणवण्णपलिदोवमाउट्ठिदिदेवीसु तहा ण णिस्सारिदो । एत्थ कारणं जाणिय वत्तव्यं ।। सासणसम्मादिट्ठि-सम्मामिच्छादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च ओघं ॥ १८१ ॥ सुगममेदं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, अंतोमुहुत्तं ॥ १८२॥ ___ जैसे-मोहनीयकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला कोई एक पुरुषवेदी, अथवा नपुंसकवेदी जीव, पचवन पल्योपमकी आयुस्थितिवाली देवियों में उत्पन्न हुआ। छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (१) विश्राम ले (२) विशुद्ध हो (३) वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त होकर अन्तरको प्राप्त हुआ और आयुके अन्तमें आगामी भवकी आयुको बांधकर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। इस प्रकार अन्तर लब्ध होगया (४)। सम्यक्त्वके साथ आयुके बांधनेसे सम्यक्त्वके साथ ही निकला (५) और मनुष्य हुआ। इस प्रकार पांच अन्तर्मुहूतौसे कम पचवन पल्योपम स्त्रीवेदी मिथ्यादृष्टिका उत्कृष्ट अन्तर होता है। पहले ओघप्ररूपणामें छह पृथिवियोंके नारकियोंमें तथा सौधर्मादि देवोंमें बद्धायुष्क सम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यात्वके द्वारा निकाला था। किन्तु यहां पचवन पल्योपमकी आयुस्थितिवाली देवियोंमें उस प्रकारसे नहीं निकाला । यहांपर इसका कारण जानकर कहना चाहिए। स्त्रीवेदी सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा ओघके समान अन्तर है ॥ १८१ ॥ यह सूत्र सुगम है। स्त्रीवेदी सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर क्रमशः पल्योपमका असंख्यातवां भाग और अन्तर्मुहूर्त है ॥ १८२ ॥ १ प्रतिषु ‘-देवेसु ' इति पाठः । २ सासादनसम्यग्दृष्टिसम्यग्मिध्यादृष्टयो नाजीवापेक्षया सामान्यवत । स. सि. १, ८. ३ एकजीवं प्रति जघन्येन पल्योपमासंख्येयभागोऽन्तर्मुहर्तश्च । स. सि. १,८. Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ ] छक्खंडागमे जीवाणं एदं पि सुत्तं सुगममेव । उक्कस्सेण पलिदोवमसदपुधत्तं ॥ १८३ ॥ तं जहा - एक अण्णवेदट्ठिदिमच्छिदो सासणद्वार एगो समओ अस्थि ति इत्थवेदे उवष्णो एगसमयं सासणगुणेण दिट्ठो । विदियसमए मिच्छत्तं गतूणंतरिदो । त्थीवेदट्ठदिं परिभमिय अवसाणे त्थीवेदविदीए एगसमयावसेसाए सासणं गदो । लद्धमंतरं । मदो वेदंतरं गदो । वेहि समएहि ऊणयं पलिदोवमसदपुधत्तमंतरं लद्धं । सम्मामिच्छादिट्ठिस्स उच्चदे- एको अट्ठावीसमोहसंतकम्मिओ अण्णवेदो देवीसु उववण्णो । छहि पज्जतीहि पज्जत्तयदो ( १ ) विस्संतो ( २ ) विसुद्धो (३) सम्मामिच्छत्तं पडिवण्णो ( ४ ) मिच्छत्तं गतूणंतरिदेो । त्थीवेदट्ठिदिं परिभमिय अंते सम्मामिच्छत्तं गदो (५) । लद्धमंतरं । जेण गुणेण आउअं बद्धं तं गुणं पडिवज्जिय अण्णवेदे उवणो ( ६ ) । एवं छहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणिया त्थीवेदट्ठिदी सम्मामिच्छत्तु कस्सं तरं होदि । [ १, ६, १८३. यह सूत्र भी सुगम ही है । स्त्रीवेदी सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर पल्योपमशतपृथक्त्व है ।। १८३ ॥ जैसे अन्य वेदकी स्थितिको प्राप्त कोई एक जीव सासादनगुणस्थानके कालमें एक समय अवशिष्ट रहने पर स्त्रीवेदियों में उत्पन्न हुआ और एक समय सासादनगुणस्थानके साथ दिखाई दिया । द्वितीय समयमें मिथ्यात्वको जाकर अन्तरको प्राप्त हुआ । ardast स्थितिप्रमाण परिभ्रमण करके अन्तमें स्त्रीवेदकी स्थितिमें एक समय अवशेष रहने पर सासादनगुणस्थानको गया । इस प्रकार अन्तर लब्ध हुआ । पुनः मरा और अन्य वेदको प्राप्त होगया। इस प्रकार दो समयोंसे कम पल्योपमशतपृथक्त्वकाल स्त्रीवेदी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवका उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त हुआ । I अव सम्यग्मथ्यादृष्टि स्त्रीवेदी जीवका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं - मोहनीयकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला कोई एक अन्य वेदी जीव देवियोंमें उत्पन्न हुआ । छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो ( १ ) विश्राम ले (२) विशुद्ध हो (३) सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ (४) । पश्चात् मिथ्यात्वको प्राप्त होकर अन्तरको प्राप्त हुआ । स्त्रीवेदकी स्थितिप्रमाण परिभ्रमणकर अन्तमें सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ (५) । इस प्रकार अन्तर लब्ध हो गया। पीछे जिस गुणस्थानसे आयुको बांधा था, उसी गुणस्थानको प्राप्त होकर अन्य जीव उत्पन्न हुआ ( ६ ) । इस प्रकार छह अन्तर्मुहूर्तों से कम स्त्रीवेदकी स्थिति सम्यमिथ्यादृष्टि जीवका उत्कृष्ट अन्तर होता है । १ उत्कर्षेण पल्योपमशतपृथक्त्वम् । स. सि. १, ८. Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतरागमे इथिवेदि - अंतर परूवणं [ ९७ असंजदसम्मादिद्विपहूडि जाव अप्पमत्तसंजदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ १८४ ॥ १, ६, १८६. ] एगजीवं पडुच्च जहणेण अंतोमुहुतं ॥ १८५ ॥ कुदो ? अण्णगुणं गंतूण पडिणियत्तिय तं चैव गुणमागदाणमंतोमुहु संत रुवलंभा । उक्कस्सेण पलिदोवमसदधतं ॥ १८६ ॥ असंजदसम्मादिट्ठिस्स उच्चदे । तं जहा एक्को अट्ठावीससंतकम्मिओ देवेसु उबवण्णो । छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो ( १ ) विस्संतो ( २ ) विसुद्धो (३) वेदगसम्मतं पडवण्णो ( ४ ) मिच्छत्तं गदो अंतरिदो त्थीवेदडिदि परिभमिय अंते उवसमसम्मत्तं पडिवण्णो ( ५ ) । लद्धमंतरं । छावलियावसेसे पढमसम्मत्तकाले सासणं गंतूण दो वेदतरं गदो | पंचहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणयं पलिदोवमसदपुधत्तमंतरं होदि । देसूण असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती स्त्रीवेदियोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ १८४ ॥ यह सूत्र सुगम है । उक्त गुणस्थानवाले स्त्रीवेदियोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ १८५ ॥ क्योंकि, अन्य गुणस्थानको जाकर और लौटकर उसी ही गुणस्थानको आये हुए जीवोंका अन्तर्मुहूर्त अन्तर पाया जाता है । उक्त जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर पल्योपमशतपृथक्त्व है ॥ ९८६ ॥ इनमेंसे पहले स्त्रीवेदी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं - मोहकी अट्ठाईस कर्मप्रकृतियोंकी सत्तावाला कोई एक जीव देवोंमें उत्पन्न हुआ । छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो ( १ ) विश्राम ले ( २ ) विशुद्ध हो ( ३ ) वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ (४) । पश्चात् मिथ्यात्वको जाकर अन्तरको प्राप्त हो, स्त्रीवेदकी स्थितिप्रमाण परिभ्रमणकर अन्तमें उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ ( ५ ) । इस प्रकार अन्तर लब्ध हुआ । प्रथमोपशमसम्यक्त्वके कालमें छह आवलियां अवशेष रहने पर सासादनगुणस्थानको जाकर मरा और अन्य वेदको गया । इस प्रकार पांच अन्तर्मुहूतौसे कम पल्योपमशतपृथक्त्वप्रमाण अन्तर होता है । १ असंयत सम्यग्दृष्ट्याद्यप्रमत्तान्तानां नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । स. सि. १, ८. २ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १, ८. ३ उत्कर्षेण पल्योपमशतपृथक्त्वम् । स. सि. १,८० Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ६, १८६. वयणं मुत्ते किण्ण कदं ? ण, पुधत्तणिद्देसेणेव तस्स अवगमादो । संजदासंजदस्स उच्चदे- एक्को अट्ठावीसमोहसंतकम्मिओ अण्णवेदो स्थीवेदेसु उनवण्णो वे मासे गम्भे अच्छिदूण णिक्खंतो दिवसपुत्तेण विसुद्धो वेदगसम्मत्तं संजमासंजमं च जुगवं पडिवण्णो (१)। मिच्छत्तं गंतूणंतरिदो स्थीवेदट्ठिदिं परिभमिय अंते पढमसम्मत्तं देससंजमं च जुगवं पडिवण्णो (२)। आसाणं गंतूण मदो देवो जादो । वेहि मुहुत्तेहि दिवसपुधत्ताहिय-वेमासेहि य ऊणा त्थीवेदट्ठिदी उक्कस्संतरं होदि । ... पमत्तस्स उच्चदे- एको अट्ठावीसमोहसंतकम्मिओ अण्णवेदो त्थीवेदमणुसेसु उववण्णो । गब्भादिअट्ठवरिसओ वेदगसम्मत्तमप्पमत्तगुणं च जुगवं पडिवण्णो (१)। पुणो पमत्तो जादो (२)। मिच्छत्तं गंतूणंतरिदो स्थीवेदद्विदिं परिभमिय पमत्तो जादो । लद्धमंतरं (३) । मदो देवो जादो । अट्ठवस्सेहिं तीहिं अंतोमुहुत्तेहि ऊणिया त्थीवेदविदी लद्धमुक्कस्संतरं । एवमप्पमत्तस्स वि उक्कस्संतरं भाणिदव्यं, विसेसाभावा। शंका-सूत्रमें देशोन' ऐसा वचन क्यों नहीं कहा ? समाधान नहीं, क्योंकि, 'पृथक्त्व' इस पदके निर्देशसे ही उस देशोनताका शान हो जाता है। स्त्रीवेदी संयतासंयत जीवका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं- मोहनीयकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला कोई एक अन्य वेदी जीव, स्त्रीवेदियोंमें उत्पन्न हुआ। दो मास गर्भमें रह कर निकला और दिवसपृथक्त्वसे विशुद्ध हो वेदकसम्यक्त्व और संयमासंयमको एक साथ प्राप्त हुआ (१)। पश्चात् मिथ्यात्वको जाकर अन्तरको प्राप्त हो स्त्रीवेदकी स्थितिप्रमाण परिभ्रमण कर अन्तमें प्रथमोपशमसम्यक्त्व और देशसंयमको एक साथ प्राप्त हुआ (२)। पुनः सासादन गुणस्थानको जाकर मरा और देव होगया। इस प्रकार दो मुहूर्त और दिवसपृथक्त्वसे अधिक दो माससे कम स्त्रीवेदकी स्थिति स्त्रीवेदी संयतासंयतका उत्कृष्ट अन्तर होता है। स्त्रीवेदी प्रमत्तसंयतका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं- मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला कोई एक अन्य वेदी जीव, स्त्रीवेदी मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ । गर्भको आदि लेकर आठ वर्षका हो वेदकसम्यक्त्व और अप्रमत्त गुणस्थानको एक साथ प्राप्त हुआ (१)। पुनः प्रमत्तसंयत हुआ (२)। पश्चात् मिथ्यात्वको जाकर अन्तरको प्राप्त हो स्त्रीवेदकी स्थितिप्रमाण परिभ्रमणकर अन्तमें प्रमत्तसंयत हुआ। इस प्रकार अन्तर लब्ध हुआ(३)। पश्चात् मरा और देव हुआ । इस प्रकार आठ वर्ष और तीन अन्तर्मुहूतोंसे कम स्त्रीवेदकी स्थितिप्रमाण उत्कृष्ट अन्तर लब्ध हुआ। इसी प्रकारसे स्त्रीवेदी अप्रमत्तसंयतका भी उत्कृष्ट अन्तर कहना चाहिए, क्योंकि, उसमें कोई विशेषता नहीं है। Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, १८९.1 अंतराणुगमे इत्यिवेदि-अंतरपरूवणं दोण्हमुवसामगाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णुक्कस्समोघं ॥ १८७॥ कुदो ? एगसमय-बासपुधत्तंतरेहि ओघादो भेदाभावा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ १८८ ॥ सुगममेदं । उक्कस्सेण पलिदोवमसदपुधत्तं ॥ १८९ ॥ तं जहा-एक्को अण्णवेदो अट्ठावीसमोहसंतकम्मिओ त्थीवेदमणुसेसुववण्णो । अट्टवस्सिओ सम्मत्तं संजमं च जुग पडिवण्गो (१)। अणंताणुबंधी विसंजोइय (२) दंसणमोहणीयमुवसामिय (३) अप्पमत्तो (४) पमत्तो (५) अप्पमत्ता (६) अपुव्वो (७) अणियट्टी (८) मुहुमो (९) उवसंतो (१०) भूओ पडिणियत्तो मुहुमो (११) अणियट्टी (१२) अपुल्यो (१३ ) हेट्ठा पडिदूगंतरिदो स्थीवेदट्ठिदिं भमिय अवसाणे संजमं पडिवज्जिय कदकरणिज्जो होदूग अपुव्वुवसामगो जादो । लद्धमंतरं । तदो णिद्दा स्त्रीवेदी अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण, इन दोनों उपशामकोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर ओघके समान है ॥ १८७॥ ____क्योंकि, जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है, इनकी अपेक्षा ओघसे इनमें कोई भेद नहीं है। उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ १८८ ॥ यह सूत्र सुगम है। उक्त जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर पल्योपमशतपृथक्त्व है ॥ १८९ ॥ जैसे- मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला कोई एक अन्य वेदी जीव, स्त्रीवेदी मनुष्यों में उत्पन्न हुआ और आठ वर्षका होकर सम्यक्त्व और संयमको एक साथ प्राप्त हुआ (१)। पश्चात् अनन्तानुबन्धी कषायका विसंयोजन कर (२) दर्शनमोहनीयका उपशम कर (३) अप्रमत्तसंयत (४) प्रमत्तसंयत (५) अप्रमत्तसंयत (६) अपूर्वकरण (७) अनिवृत्तिकरण (८) सूक्ष्मसाम्पराय (९) और उपशान्तकषाय (१०) होकर पुनः प्रतिनिवृत्त हो सूक्ष्मसाम्पराय (११) अनिवृत्तिकरण (१२) और अपूर्वकरणसंयत हो (१३) नीचे गिरकर अन्तरको प्राप्त हुआ और स्त्रीवेदकी स्थितिप्रमाण परिभ्रमण कर अन्त में संयमको प्राप्त हो कृतकृत्यवेदक होकर अपूर्वकरण उपशामक हुआ। इस प्रकार १ द्वयोरुपशमकयो नाजीवापेक्षया सामान्यवत् । स. सि. १, ८. २ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहर्तः । स. सि. १,८. ३ उत्कर्षेण पल्योपमशतपृथक्त्वम् । स. सि. १,८.. . - Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १००1 छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ६, १९०. पयलाणं बंधे वोच्छिण्णे मदो देवो जादो। अहवस्सेहि तेरसंतोमुहुत्तेहि य अपुग्धकरणद्धाए सत्तमभागेण च ऊणिया सगहिदी अंतरं । अणियट्टिस्स वि एवं चेव । णवरि वारस अंतोमुहुत्ता एगसमओ च वत्तव्यो । दोण्हं खवाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ।। १९० ।। सुगममेदं। उक्कस्सेण वासपुधत्तं ॥ १९१ ॥ अप्पमत्तत्थीवेदाणं वासपुधत्तेण विणा अण्णस्स अंतरस्स अणुवलंभादो । एगजीवं पडुच्च णस्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ १९२ ॥ सुगममेदं । पुरिसवेदएसु मिच्छादिट्ठी ओघं ॥ १९३॥ अन्तर लब्ध हुआ। पीछे निद्रा और प्रचलाके बंध-विच्छेद हो जाने पर मरा और देव होगया। इस प्रकार आठ वर्ष और तेरह अन्तर्मुहूतौसे, तथा अपूर्वकरण-कालके सातवें भागसे हीन अपनी स्थितिप्रमाण उत्कृष्ट अन्तर है । अनिवृत्तिकरण उपशामकका भी इसी प्रकारसे अन्तर होता है । विशेष बात यह है कि उनके तेरह अन्तर्मुहूर्तोंके स्थानपर बारह अन्तर्मुहूर्त और एक समय कम कहना चाहिए। स्त्रीवेदी अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण, इन दोनों क्षपकोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय अन्तर है ॥ १९० ॥ यह सूत्र सुगम है। स्त्रीवेदी अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण क्षपकोंका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है॥ १९१ ॥ __ क्योंकि, अप्रमत्तसंयत स्त्रीवेदियोंका वर्षपृथक्त्वके अतिरिक्त अन्य अन्तर नहीं पाया जाता है। एक जीवकी अपेक्षा उक्त दोनों गुणस्थानवी जीवोंका अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ १९२ ॥ यह सूत्र सुगम है। पुरुषवेदियोंमें मिथ्यादृष्टियोंका अन्तर ओघके समान है ॥ १९३ ।। १ द्वयोः क्षपकयो नाजीवापेक्षया जघन्येनैकः समयः। स. सि. १, ८. २ उत्कर्षण वर्षपृथक्त्वम् । स. सि. १,८. ३ एकजीवं प्रति नास्त्यन्तरम् । स. सि, १,८. ४ पुंवेदेषु मिध्यादृष्टेः सामान्यवत् । स. सि. १, ८. For Private & Personal use only .. Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .१, ६, १९७.] अंतराणुगमे पुरिसवेदि-अंतरपरूवणं . [१०१ - कुदो? गाणाजीवं पडुच्च अंतराभावेण, एगजीवविसयअंतोमुहुत्त-देसूणवेच्छावट्टिसागरोवमंतरेहि य तदो भेदाभावा । सासणसम्मादिट्ठि-सम्मामिच्छादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ॥ १९४ ॥ सुगममेदं । उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ॥ १९५॥ एदं पि सुगमं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, अंतोमुहत्तं ॥ १९६ ॥ एवं पि सुवोहं । उक्कस्सेण सागरोवमसदपुधत्तं ॥ १९७ ॥ तं जहा- एक्को अण्णवेदो उवसमसम्मादिट्ठी सासणं गंतूण सासणद्धाए एगो समओ अस्थि त्ति पुरिसवेदो जादो । सासणगुणेण एगसमयं दिट्ठो, विदियसमए मिच्छत्तं क्योंकि, नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरका अभाव होनेसे, एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट कुछ कम दो च्यासठ सागरोपम अन्तरकी अपेक्षा ओघमिथ्यादृष्टिके अन्तरसे पुरुषवेदी मिथ्यादृष्टियोंके अन्तरमें कोई भेद नहीं है। पुरुषवेदी सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्यादृष्टियोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय अन्तर है ॥ १९४ ॥ यह सूत्र सुगम है। उक्त जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर पल्योपमका असंख्यातवां भाग है ॥ १९५ ।। यह सूत्र भी सुगम है। पुरुषवेदी सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर क्रमशः पल्योपमका असंख्यातवां भाग और अन्तर्मुहूर्त है ।।१९६॥ यह सूत्र भी सुबोध है। उक्त जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर सागरोपमशतपृथक्त्व है ।। १९७ ॥ जैसे- अन्य वेदवाला एक उपशमसम्यग्दृष्टि जीव, सासादन गुणस्थानमें जाकर, सासादन गुणस्थानके कालमें एक समय अवशिष्ट रहने पर पुरुषवेदी होगया और सासादन गुणस्थानके साथ एक समय दृष्टिगोचर हुआ। द्वितीय समयमें मिथ्यात्वको १सासादनसम्यग्दृष्टिसम्यग्मिध्यादृष्टयो नाजीवापेक्षया सामान्यवत । स. सि. १,८. २ एकजीवं प्रति जघन्येन पल्योपमासंख्येयभागोऽन्तर्मुहूर्तश्र । स. सि. १, .. उत्कर्वेण सागरोपमशतपथक्त्वम् । स. सि.१,८, Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ६, १९८. गंतूणंतरिदो पुरिसवेदविदि भमिय अवसाणे उवसमसम्मत्तं घेत्तूण सासणं पडिवण्णो । विदियसमए मदो देवेसु उववण्णो । एवं वि-समऊणसागरोवमसदपुधत्तमुक्कस्संतरं होदि। सम्मामिच्छादिद्विस्स उच्चदे- एक्को अट्ठावीससंतकम्मिओ अण्णवेदो देवेसु उववण्णो । छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो (१) विस्संतो (२) विसुद्धो (३) सम्मामिच्छत्तं पडिवण्णो (४) मिच्छत्तं गंतूगंतरिदो सगढिदिं परिभमिय अंते सम्मामिच्छत्तं गदो (५)। लद्धमंतरं । अण्णगुणं गंतूण (६) अण्णवेदे उववण्णो । छहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणं सागरोवमसदपुधत्तमुक्कस्संतरं होदि ।। असंजदसम्मादिटिप्पहुडि जाव अप्पमत्तसंजदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥१९८ ॥ सुगममेदं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ १९९ ॥ एवं पि सुगमं । ' जाकर अन्तरको प्राप्त हुआ। पुरुषवेदकी स्थितिप्रमाण परिभ्रमण करके आयुके अन्तमें उपशमसम्यक्त्वको ग्रहण कर सासादन गुणस्थानको प्राप्त हुआ। पश्चात् द्वितीय समयमें मरा और देवोंमें उत्पन्न हुआ। इस प्रकार उक्त जीवोंका दो समय कम सागरोपमशतपृथक्त्व अन्तर होता है। पुरुषवेदी सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं- मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला कोई एक अन्य वेदी जीव, देवोंमें उत्पन्न हुआ, छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (१) विश्राम ले (२)विशुद्ध हो (३) सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ (४)। पश्चात् मिथ्यात्वको जाकर अन्तरको प्राप्त हो अपनी स्थितिप्रमाण परिभ्रमण करके अन्तमें सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ (५)। इस प्रकार अन्तर लब्ध होगया। तत्पश्चात् अन्य गुणस्थानको जाकर (६) अन्य वेदमें उत्पन्न हुआ। इस प्रकार छह अन्तर्मुहूर्तोंसे कम सागरोपमशतपृथक्त्व पुरुषवेदी सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवका उत्कृष्ट अन्तर होता है। ___ असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक पुरुषवेदी जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ।। १९८ ॥ यह सूत्र सुगम है। उक्त गुणस्थानवी जीवोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ १९९ ॥ यह सूत्र भी सुगम है। १ असंयतसम्यग्दृष्टयाचप्रमत्तान्तानां नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । स. सि. १,८. २ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १, ८. Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, २००. ] अंतरागमे पुरिसवेदि - अंतर परूवणं उक्कस्सेण सागरोवमसदपुत्तं ॥ २०० ॥ असंजदसम्मादिट्ठिस्स उच्चदे- एक्को अट्ठावीससंतकम्मिओ अण्णवेदो देवेसु उबवण्णो । छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो ( १ ) विस्तो ( २ ) विसुद्धो (३) वेदगसम्मत्तं पडिवण्णो ( ४ ) । मिच्छत्तं गतूणंतरिदो सगट्ठिदिं भमिय अंते उवसमसम्मत्तं पडिवण्णो (५) । छावलियावसेसे उवसमसम्मत्तकाले आसाणं गंतूण मदो देवेसु उबवण्णो | पंचहि अंतमुतेहि ऊणं सागरोत्रमसदपुधत्त मंतरं होदि । संजदासंजदस्स वुच्चदे- एक्को अण्णवेदो पुरिसवेदेसु उववण्णो । वे मासे गन्भे अच्छिदूणणिक्खता दिवसपुधत्तेण उवसमसम्मत्तं संजमासंजमं च जुग पडिवण्णो । उवसमसम्मत्तद्धाए छाबलियाओ अस्थि त्ति सासणं गदो ( १ ) मिच्छत्तं गंतूण पुरिसवेदट्ठिदिं परिभमिय अंते. मणुसेसु उववण्णो । कदकरणिज्जो होदूग संजमासंजमं पडिवण्णो ( २ ) । लद्धमंतरं । तदो अप्पमत्तो ( ३ ) पमत्तो ( ४ ) अप्पमत्तो ( ५ ) । उवरि छ अंतमुहुत्ता । एवं हि मासेहि तीहि दिवसेहि एक्कारसेहि अंतोमुहुतेहि य ऊणा पुरिसवे उक्कस्तरं होदि । किं कारणं अंतरे लद्धे मिच्छत्तं णेदुण अण्णवेदेसु ण असंयतादि चार गुणस्थानवर्ती पुरुषवेदियोंका उत्कृष्ट अन्तर सागरोपमशतपृथक्त्व है || २०० ॥ [ १०३ असंयत सम्यग्दृष्टि पुरुषवेदी जीवका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं - मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला कोई एक अन्य वेदी जीव देवोंमें उत्पन्न हुआ । छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (१) विश्राम ले (२) विशुद्ध हो (३) वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ (४) । पश्चात् मिथ्यात्वको जाकर अन्तरको प्राप्त हो अपनी स्थितिप्रमाण परिभ्रमणकर अन्तमें उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ (५) । उपशमसम्यक्त्वके कालमें छह आवलियां अवशेष रहने पर सासादनको जाकर मरा और देवोंमें उत्पन्न हुआ । इस प्रकार पांच अन्तर्मुहूर्तीसे कम सागरोपमशतपृथक्त्व पुरुषवेदी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका अन्तर होता है । संयतासंयत पुरुषवेदी जीवका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं- कोई एक अन्य वेदी जीव पुरुषवेदियों में उत्पन्न हुआ। दो मास गर्भमें रहकर निकलता हुआ दिवस पृथक्त्वसे उपशमसम्यक्त्व और संयमासंयमको एक साथ प्राप्त हुआ । जब उपशमसम्यक्त्वके कालमें छह आवलियां रहीं तब सासादनगुणस्थानको प्राप्त हो ( १ ) मिथ्यात्वको जाकर पुरुषवेद की स्थितिप्रमाण परिभ्रमणकर अन्तमें मनुष्यों में उत्पन्न हुआ और कृतकृत्यवेदक होकर संयमासंयमको प्राप्त हुआ (२) । इस प्रकार अन्तर लब्ध होगया । पश्चात् अप्रमत्तसंयत ३ ) प्रमत्तसंयत ( ४ ) और अप्रमत्तसंयत हुआ (५) । इनमें ऊपरके गुणस्थानोंसम्बन्धी छह अन्तर्मुहूर्त और मिलाये । इस प्रकार दो मास, तीन दिन और ग्यारह अन्ततसे कम पुरुषवेदकी स्थिति ही पुरुषवेदी संयतासंयतका उत्कृष्ट अन्तर होता है । शंका -- अन्तर प्राप्त हो जानेपर पुनः मिथ्यात्वको ले जाकर अन्य वेदियों में १ उत्कर्षेण सागरोपमशतपृथक्त्वम् । स. सि. १, ८. Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ६, २०१. उप्पादिदो ? ण एस दोसो, जेण कालेण मिच्छत्तं गंतूण आउअं बंधिय अण्णवेदेसु उवबज्जदि, सो कालो सिज्झणकालादो संखेज्जगुणो त्ति कट्ट अणुप्पाइदत्तादो । उवरिल्लाणं पि एदं चेय कारणं वत्तव्यं । पमत्त-अप्पमत्तसंजदाणं पंचिंदियपज्जत्तभंगो । णवरि विसेसं जाणिय वत्तव्यं । दोण्हमुवसामगाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च ओघं ॥ २०१॥ सुगममेदं । एगजीवं पडुच्च जहण्णण अंतोमुहुत्तं ॥ २०२ ॥ एवं पि सुगमं । उक्कस्सेण सागरोवमसदपुधत्तं ॥ २०३ ॥ संख्यात उत्पन्न नहीं कराया, इसका क्या कारण है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, जिस कालसे मिथ्यात्वको जाकर और आयुको बांधकर अन्य वेदियोंमें उत्पन्न होता है, वह काल सिद्ध होनेवाले कालसे , इस अपक्षासे उसे मिथ्यात्वमें ले जाकर पुनः अन्य वेदियों में नहीं उत्पन्न कराया। ऊपरके गुणस्थानोंमें भी यही कारण कहना चाहिए । पुरुषवेदी प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयतोंका भी अन्तर पंचेन्द्रिय-पर्याप्तकोंके समान है। केवल इनमें जो विशेषता है उसे जानकर कहना चाहिए। पुरुषवेदी अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण, इन दो उपशामकोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा इन दोनों गुणस्थानोंका अन्तर ओघके समान है ॥ २०१॥ यह सूत्र सुगम है। उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥२०२ ॥ यह सूत्र भी सुगम है। उक्त जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर सागरोपमशतपृथक्त्व है ॥ २०३ ॥ १ द्वयोरुपशमकयो नाजीवापेक्षया सामान्यवत् । स. सि. १, ८. २ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १, ८. ३ उत्कर्षेण सागरोपमशतपृथक्त्वम् । स. सि. १, ८. Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, २०४.] अंतराणुगमे पुरिसवेदि-अंतरपरूवणं [१०५ तं जहा- एक्को अट्ठावीससंतकम्मिओ अण्णवेदो पुरिसवेदमणुसेसु उववण्णो अट्ठवस्सिओ जादो । सम्मत्तं संजमं च जुगवं पडिवण्णो (१)। अणंताणुबंधिं विसंजोइय (२) दंसणमोहणीयमुवसामिय (३) अप्पमत्तो (४) पमत्तो (५) अप्पमत्तो (६.) अपुछो (७) अणियट्टी (८) मुहुमो (९) उवसंतकसाओ (१०) पडिणियत्तो मुहुमो (११) अणियट्टी (१२) अपुग्यो (१३) हेट्ठा परियट्टिय अंतरिदो । सागरोवमसदपुधत्तं परिभमिय कदकरणिज्जो होदूण संजमं पडिवज्जिय अपुवो जादो । लद्धमंतरं । उवरि पंचिंदियभंगो। एवमट्ठवस्सेहि एगूणतीसअंतोमुहुत्तेहि य ऊणा सगहिदी अंतरं होदि । अणियट्टिस्स वि एवं चेव वत्तव्यं । णवरि अहवस्सेहि सत्तावीसअंतोमुहुत्तेहि य ऊणं सागरोवमसदपुधत्तमंतर होदि । दोण्हं खवाणमंतर केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ॥२०४ ॥ सुगममेदं । जैसे- मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला कोई एक अन्यवेदी जीव पुरुषवेदी मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ। आठ वर्षका होकर सम्यक्त्व और संयमको एक साथ प्राप्त हुआ (१)। अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन कर (२) दर्शनमोहनीयका उपशमन कर (३) अप्रमत्तसंयत (४) प्रमत्तसंयत (५) अप्रमत्तसंयत (६) अपूर्वकरण (७) अनिवृत्तिकरण (८) सूक्ष्मसाम्पराय (९) उपशान्तकषाय (१०) पुनः लौटकर सूक्ष्मसाम्पराय (११) अनिवृत्तिकरण (१२) अपूर्वकरण (१३) होता हुआ नीचे गिरकर अन्तरको प्राप्त हुआ। सागरोपमशतपृथक्त्वप्रमाण परिभ्रमण कर कृतकृत्यवेदकसम्यक्त्वी होकर संयमको प्राप्त कर अपूर्वकरणसंयत हुआ। इस प्रकार अन्तर लब्ध हुआ। इसके ऊपर का कथन पंचेन्द्रियोंके समान है । इस प्रकार आठ वर्ष और उनतीस अन्तर्मुहूतौसे कम अपनी स्थितिप्रमाण पुरुषवेदी अपूर्वकरण उपशामकका उत्कृष्ट अन्तर होता है । अनिवृत्तिकरण उपशामकका भी इसी प्रकारसे अन्तर कहना चाहिए । विशेष बात यह है कि आठ वर्ष और सत्ताईस अन्तर्मुहूर्तोंसे कम सागरोपमशतपृथक्त्व इनका उत्कृष्ट अन्तर होता है। पुरुषवेदी अपूर्वकरणसंयत और अनिवृत्तिकरणसंयत, इन दोनों क्षपकोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय अन्तर है ॥२०४॥ यह सूत्र सुगम है। १ द्वयोः क्षपकयो नाजीवापेक्षया जघन्येनैकः समयः । स. सि. १, ८. ... Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे जीवाणं उक्कस्सेण वासं सादिरेयं ॥ २०५ ॥ तं जहा - पुरिसवेदेण अपुव्त्रगुणं पडिवण्णा सव्वे जीवा उवरिमगुणं गदा । अंतरिदमपुत्रगुणट्ठाणं । पुणो छमासेसु अदिक्कंतेसु सच्चे इत्थिवेदेण चैव खवगसेढिमारूढा । पुणो चत्तारि वा पंच वा मासे अंतरिदूण खवगसेटिं चढमाणा गवुंसयवेदोदएण चढिदा । पुणो वि एक्क-दो मासे अंतरितॄण इत्थिवेदेण चढिदा । एवं संखेजवारमित्थि - णवुंसयवेदोदएण चैव खवगसेटिं चढाविय पच्छा पुरिसवेदोदएण खवगसेटिं चढिदे वासं सादिरेयमंतरं होदि । कुदो ? निरंतरं छम्मासंतरस्स असंभवादो । एवमणियस्सि वित्तव्धं । केसु वि सुत्तपोत्थए पुरिसवेदस्संतरं छम्मासा । एगजीवं पच्च णत्थि अंतरं निरंतरं ॥ २०६ ॥ कुदो ? खवगाणं पडिणियत्तीए असंभवा । १०६ ] णउंसयवेदसु मिच्छादिट्टीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पञ्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ २०७ ॥ [ १, ६, २०५. उक्त दोनों क्षपकोंका उत्कृष्ट अन्तर साधिक एक वर्ष है ।। २०५ ।। जैसे - पुरुषवेदके द्वारा अपूर्वकरणक्षपक गुणस्थानको प्राप्त हुए सभी जीव ऊपरके गुणस्थानों को चले गए और अपूर्वकरणगुणस्थान अन्तरको प्राप्त होगया । पुनः छह मास व्यतीत हो जाने पर सभी जीव स्त्रीवेदके द्वारा ही क्षपकश्रेणी पर आरूढ हुए । पुनः चार या पांच मासका अन्तर करके नपुंसकवेदके उदयसे कुछ जीव क्षपकश्रेणीपर चढ़े । पुनः एक दो मास अन्तरकर कुछ जीव स्त्रीवेदके द्वारा क्षपकश्रेणीपर चढ़े । इस प्रकार संख्यात वार स्त्रीवेद और नपुंसक वेदके उदयसे ही क्षपकश्रेणीपर चढ़ा करके पीछे पुरुषवेदके उदयसे क्षपकश्रेणी चढ़नेपर साधिक वर्षप्रमाण अन्तर हो जाता है, क्योंकि, निरन्तर छह मासके अन्तर से अधिक अन्तरका होना असम्भव है। इसी प्रकार पुरुषवेदी अनिवृत्तिकरणक्षपकका भी अन्तर कहना चाहिए। कितनी ही सूत्रपोथियोंमें पुरुषवेदका उत्कृष्ट अन्तर छह मास पाया जाता है । दोनों क्षपकोंका एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ २०६ ॥ क्योंकि, क्षपकोंका पुनः लौटना असम्भव है । नपुंसकवेदियों में मिथ्यादृष्टि जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना traint अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ २०७ ॥ १ उत्कर्षेण संवत्सरः सातिरेकः । स. सि. १, ८. २ एकजीवं प्रति नास्त्यन्तरम् । स. सि. १, ८. ३ नपुंसकवेदेषु मिथ्यादृष्टेर्नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । स. सि. १,८. Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, २१०. ] अंतरानुगमे सयवेदि - अंतर परूवणं सुगममेदं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुत्तं ॥ २०८ ॥ एदं पि सुगमं । उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि देसूणाणि ॥ २०९ ॥ तं जधा - एक्को मिच्छादिट्ठी अट्ठावीससंतकम्मिओ सत्तमपुढवीए उववण्णो । छहि पज्जतीहि पज्जत्तयदो ( १ ) विस्संतो ( २ ) विसुद्ध ( ३ ) सम्मत्तं पडिवज्जिय अंतरिदो | अवसाणे मिच्छत्तं गंतूग ( ४ ) आउअं बंधिय ( ५ ) विस्समिय ( ६ ) मदो तिरिक्खो जादो । एवं छहि अंतोमुहुतेहि ऊणाणि तेत्तीस सागरोवमाणि उक्कस्संतरं होदि । सासणसम्मादिट्टि पहुडि जाव अणियट्टिउवसामिदो त्ति मूलोघ ॥ २१० ॥ यह सूत्र सुगम है | एक जीवकी अपेक्षा नपुंसक वेदी मिध्यादृष्टियोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ २०८ ॥ [ १०७ यह सूत्र भी सुगम है । एक जीवकी अपेक्षा नपुंसकवेदी मिथ्यादृष्टियोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीस सागरोपम है ॥ २०९ ॥ जैसे - मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला कोई एक मिथ्यादृष्टि जीव सातवीं पृथिवीमें उत्पन्न हुआ । छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (१) विश्राम ले (२) विशुद्ध हो ( ३ ) सम्यक्त्वको प्राप्त होकर अन्तरको प्राप्त हुआ । आयुके अन्तमें मिथ्यात्वको प्राप्त होकर (४) आयुको बांध ( ५ ) विश्राम ले ( ६ ) मरा और तिर्यच हुआ। इस प्रकार छह अन्तर्मुहूर्तोंसे कम तेतीस सागरोपमकाल नपुंसकवेदी मिथ्यादृष्टिका उत्कृष्ट अन्तर होता है । सासादनसम्यग्दृष्टिसे लेकर अनिवृत्तिकरण उपशामक गुणस्थान तक नपुंसकवेदी जीवोंका अन्तर मूलोधके समान है ।। २१० ॥ १ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १, ८. २ उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि देशोनानि । स. सि. १,८. ३ सासादन सम्यग्दृष्ट्याद्यनिवृत्त्युपशम कान्तानां सामान्योक्तम् । स. सि. १, ८. Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ६, २१०. कुदो ? सासणसम्मादिहिस्स णाणाजीव पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो; एगजीवं पडुच्च जहण्णेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियट्टू देसूगं । सम्मामिच्छादिहिस्स णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो; एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियट्टू देसूणं । असंजदसम्मादिविस्स णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियट्टे देसूणं । संजदासंजदस्स णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतर; एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियट्टू देसूणं । पमत्तस्स णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं; एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्स्कसेण अद्धपोग्गलपरियट्ट देसूर्ण । अप्पमत्तस्स णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं; एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुतं, उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियट्टू देसूणं । अपुवकरणस्स णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण वासपुधत्तं; एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियहं देसूगं । एवमणियट्टिस्स वित्ति । एदेसिमेदेहि ओघादो भेदाभावा । क्योंकि, नपुंसकवेदी सासादनसम्यग्दृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्योपमका असंख्यातवां भाग है; एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर पल्योपमका असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है । सम्यग्मिथ्यादृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्योपमका असंख्यातवां भाग है: एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। असंयतसम्यग्दृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है । संयतासंयतका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। प्रमत्तसंयतका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है । अप्रमत्तसंयतका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है । अपूर्वकरणका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे वर्षपृथक्त्व, तथा एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण अन्तर है। इसी प्रकार अनिवृत्तिकरणका भी अन्तर जानना चाहिए। इन उक्त जीवोंका उक्त जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरोंकी अपेक्षा ओघसे कोई भेद नहीं है। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ........... १, ६, २१५.] अंतराणुगमे अपगदवेदि-अंतरपरूवणं [१०९ दोण्हं खवाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च जहणणेण एगसमयं ॥२११ ॥ सुगममेदं सुत्तं । उक्कस्सेण वासपुधत्तं ॥ २१२ ॥ कुदो ? अप्पसत्थवेदत्तादो । एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ २१३ ॥ सुगममेदं । अवगदवेदएसु अणियट्टिउवसम-सुहुमउवसमाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ॥२१४ ॥ सुगममेदं । उक्कस्सेण वासपुधत्तं ॥ २१५ ॥ कुदो ? उवसामगत्तादो। नपुंसकवेदी अपूर्वकरणसंयत और अनिवृत्तिकरणसंयत, इन दोनों क्षपकोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय अन्तर है ॥२११॥ यह सूत्र सुगम है। उक्त दोनों नपुंसकवेदी क्षपकोंका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है ॥ २१२ ॥ क्योंकि, यह अप्रशस्त वेद है (और अप्रशस्त वेदसे क्षपकश्रेणी चढ़नेवाले जीव बहुत नहीं होते)। उक्त दोनों नपुंसकवेदी क्षपकोंका एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ २१३ ॥ यह सूत्र सुगम है। अपगतवेदियोंमें अनिवृत्तिकरण उपशामक और सूक्ष्मसाम्पराय उपशामकोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय अन्तर है ॥ २१४ ॥ यह सूत्र सुगम है। उक्त दोनों अपगतवेदी उपशामकोंका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है ॥ २१५ ॥ क्योंकि, ये दोनों उपशामक गुणस्थान हैं (और ओघमें उपशामकोंका इतना ही उत्कृष्ट अन्तर बतलाया गया है)। १ द्वयोः क्षपकयोः स्त्रीवेदवत् । स.सि. १,८. २ अपगतवेदेषु अनिवृतिबादरोपशमसूक्ष्मसाम्परायोपशमकयो नाजीवापेक्षया सामान्योक्तम् । स.सि. १,८. Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ६, २१६. एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ २१६ ॥ कुदो ? उवरि चढिय हेट्ठा ओदिण्णस्स अंतोमुहुत्ततरुवलंभा । उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥२१७ ॥ सुगममेदं । उवसंतकसायवीदरागछदुमत्थाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णण एगसमयं ॥ २१८ ॥ एवं पि सुगमं । उक्कस्सेण वासपुधत्तं ॥ २१९ ॥ कुदो ? एगवारमुवसमसेढिं चढिय ओदरिदूण हेट्ठा पडिय अंतरिदे उक्कस्सेण उवसमसेढीए वासपुधत्तंतरुवलंभा । उक्त दोनों उपशामकोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ २१६ ॥ . क्योंकि, ऊपर चढ़कर नीचे उतरनेवाले जीवके अन्तर्मुहूर्तप्रमाण अन्तर पाया जाता है। उक्त दोनों उपशामकोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त हैं ॥ २१७ ॥ यह सूत्र सुगम है। ___ उपशान्तकपायवीतरागछद्मस्थोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय अन्तर है ॥ २१८ ॥ यह सूत्र भी सुगम है। उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है. ॥ २१९॥ क्योंकि, एकवार उपशमश्रेणीपर चढ़कर तथा उतर नीचे गिरकर उत्कर्षसे उपशमश्रेणीका वर्षपृथक्त्वप्रमाण अन्तर पाया जाता है। १ एकजीव प्रति जघन्यमुत्कृष्टं चान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १, ८.. २ उपशान्तकषायस्य नानाजीवापेक्षया सामान्यवत् । स. सि. १, ८. Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, २२३. ] अंतरागमे चदुकसाई - अंतरपरूवणं एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं णिरंतरं ॥ २२० ॥ उवरि उवसंतकसायरस चडणाभावा उवसंतगुणद्वाणपडिवज्जणे संभवाभावा । केवल ओघं ।। २२१ ॥ पडदे व अवगदवेदत्तणेण चेय खवा सुमखवा खीणकसायवीदरागछदुमत्था अजोगि [ १११ कुद ? अवगदवेदत्तं पडि उहयत्थ अत्थविसे साभावा । सजोगिकेवली ओघं ॥ २२२ ॥ सुगममेदं । एवं वेदमग्गणा समत्ता । कसायाणुवादेण कोधकसाइ-माणकसाइ-मायकसाइ-लोहकसाईसु मिच्छादिट्टि पहुडि जाव सुहुमसांपराइयउवसमा खवा त्ति मणजोगिभंगो ॥ २२३ ॥ उपशान्तकषायका एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ २२० ॥ क्योंकि, उपशान्तकषायवीतरागके ऊपर चढ़नेका अभाव है। तथा नीचे गिरने पर भी अपगतवेदरूपसे ही उपशान्तकषाय गुणस्थानको प्राप्त होना सम्भव नहीं है । अपगतवेदियोंमें अनिवृत्तिकरणक्षपक, सूक्ष्मसाम्परायक्षपक, क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ और अयोगिकेवली जीवोंका अन्तर ओघके समान है ।। २२१ ॥ क्योंकि, अपगतवेदत्वके प्रति ओघप्ररूपणा और वेदमार्गणाकी प्ररूपणा, इन दोनोंमें कोई अर्थकी विशेषता नहीं है । सयोगिकेवलीका अन्तर ओघके समान है || २२२ ॥ यह सूत्र सुगम है । इस प्रकार वेदमार्गणा समाप्त हुई । कषायमार्गणाके अनुवादसे कोधकषायी, मानकषायी, मायाकषायी और लोभकषायियों में मिथ्यादृष्टिसे लेकर सूक्ष्मसाम्पराय उपशामक और क्षपक तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीवोंका अन्तर मनोयोगियोंके समान है ॥ २२३ ॥ १ एकजीवं प्रति नास्त्यन्तरम् । स. सि. १, ८. २ शेषाणां सामान्यवत् 1 स. सि. १, ८. ३ कषायानुवादेन क्रोधमानमायालोभकषायाणां मिथ्यादृष्टयायनिवृत्त्युपशम कान्तानां मनोयोगिवत् । द्वयोः क्षपकयोर्नानाजीवापेक्षया जघन्येनैकः समयः । उत्कर्षेण संवत्सरः सातिरेकः । केवललोभस्य सूक्ष्मसाम्परायोपशमकस्य नानाजीवापेक्षया सामान्यवत् । एक्जीवं प्रति नास्त्यन्तरम् । क्षपकस्य तस्य सामान्यवत् । स. सि. १,८. Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ६, २२३. मिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठि--संजदासंजद-पमत्त--अप्पमत्तसंजदाणं मण - जोगिभंगो होदु, णाणेगजीवं पडि अंतराभावेण साधम्मादो । सासणसम्मादिट्ठि-सम्मामिच्छादिट्ठीणं मणजोगिभंगो होदु णाम, णाणाजीवजहण्णुक्कस्स-एगसमय-पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागंतरेहि, एगजीवं पडि अंतराभावेण च साधम्मादो। तिण्हमुवसामगाणं पि मणजोगिभंगो होदु णाम, णाणाजीवजहण्णुक्कस्सेण एगसमयवासपुधत्तंतरेहि, एगजीवस्संतराभावेण च साधम्मादो । किंतु तिण्हं खवाणं मणजोगिभंगो ण घडदे । कुदो ? मणजोगस्सेव कसायाणं छम्मासांतराभावा । तं हि कधं णव्वदे ? अप्पिदकसायवदिरित्तेहि तिहि कसाएहि एग-दु-ति-संजोगकमेण खवगसेटिं चढमाणाणं बहुवंतरुवलंभा ? ण एस दोसो, ओघेण सहप्पिदमणजोगिभंगण्णहाणुववत्तीदो। चदुण्हं कसायाणमुक्कस्संतरस्स छम्मासमेत्तस्सेव सिद्धीदो । ण पाहुडसुत्तेण वियहिचारो, तस्स भिण्णोवदेसत्तादो । शंका-मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयतोंका अन्तर भले ही मनोयोगियोंके समान रहा आवे, क्योंकि, नाना जीव और एक जीवकी अपेक्षा अन्तरका अभाव होनेसे समानता पाई जाती है । सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका भी अन्तर मनोयोगियोंके समान रहा आवे, क्योंकि, नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भागकी अपेक्षा, तथा एक जीवकी अपेक्षा अन्तरका अभाव होनेसे समानता पाई जाती है। तीनों उपशामकोंका भी अन्तर मनोयोगियोंके समान रहा आवे, क्योंकि, नाना जीवोंके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर क्रमशः एक समय और वर्षपृथक्त्वकालसे, तथा एक जीवकी अपेक्षा अन्तरका अभाव होनेसे समानता पाई जाती है। किन्तु तीनों क्षपकोंका अन्तर मनोयोगियोंके समान घटित नहीं होता है, क्योंकि, मनोयोगियोंके समान कषायोंका अन्तर छह मास नहीं पाया जाता है ? । प्रतिशंका-यह कैसे जाना जाता है ? प्रतिसमाधान-विवक्षित कषायसे व्यतिरिक्त शेष तीन कषायोंके द्वारा एक, दो और तीन संयोगके क्रमसे क्षपकश्रेणीपर चढ़नेवाले जीवोंका बहुत अन्तर पाया जाता है ? समाधान—यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, ओघके साथ विवक्षित मनोयोगियोंके समान कथन अन्यथा बन नहीं सकता है, तथा चारों कषायोंका उत्कृष्ट अन्तर छह मासमात्र ही सिद्ध होता है। ऐसा माननेपर पाहुडसूत्रके साथ व्यभिचार भी नहीं आता है, क्योंकि, उसका उपदेश भिन्न है । Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, २२८. ] अंतराणुगमे अक्साइ - अंतर परूवणं [ ११३ अकसाईसु उवसंतकसायवीदरागछदुमत्थाणमंतरं केवचिरं कलादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च जहणेण एगसमयं ॥ २२४ ॥ सुगमे । उक्कस्सेण वासपुधत्तं ॥ २२५ ॥ उवसमसेढिविसयत्तादो । एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ २२६ ॥ ट्ठा ओदरिय अकसायत्ताविणासेण पुणो उवसंतपज्जाएण परिणमणाभावा । खीणकायवीद गछदुमत्था अजोगिकेवली ओघं ॥ २२७ ॥ सजोगिकेवली ओघं ॥ २२८ ॥ दो वि सुत्ताणि सुगमाणि । एवं कसायमग्गणा समत्ता । अकपायियों में उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना faint अपेक्षा जघन्यसे एक समय अन्तर है || २२४ ॥ यह सूत्र सुगम है । उक्त जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है ।। २२५ ।। क्योंकि, यह गुणस्थान उपशमश्रेणीका विषयभूत है ( और उपशामकोंका उत्कृष्ट अन्तर इतना ही बतलाया गया है ) । उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थका एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ।। २२६ ॥ क्योंकि, नीचे उतरकर अकषायताका विनाश हुए विना पुनः उपशान्तपर्यायके परिणमनका अभाव है । अकषायी जीवों में क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ और अयोगिकेवली जिनोंका अन्तर ओघके समान है ।। २२७ ॥ सयोगिकेवली जिनोंका अन्तर ओघके समान है ।। २२८ ॥ ये दोनों ही सूत्र सुगम हैं । इस प्रकार कषायमार्गणा समाप्त हुई । १ अकषायेषु उपशान्तकषायस्य नानाजीवापेक्षया सामान्यवत् । स. सि. १, ८. २ एकजीवं प्रति नास्त्यन्तरम् । स सि, २, ८. ३ शेषाणां त्रयाणां सामान्यवत् । स. सि. १, ८. Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ६, २२९. णाणाणुवादेण मदिअण्णाणि-सुदअण्णाणि-विभंगणाणीसु मिच्छादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणेगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ २२९॥ अच्छिण्णपवाहत्तादो गुणसंकंतीए अभावादो । सासणसम्मादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च ओघं ॥ २३०॥ कुदो ? जहण्णुक्कस्सेण एगसमय-पलिदोवमासंखेजदिभागेहि साधम्मादो । एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ २३१ ॥ कुदो ? णाणतरगमणे मग्गणविणासादो।। आभिणिबोहिय-सुद-ओहिणाणीसु असंजदसम्मादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ २३२ ॥ ___ ज्ञानमार्गणाके अनुवादसे मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी और विभंगज्ञानी जीवोंमें मिथ्यादृष्टियोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी और एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ २२९॥ - क्योंकि, इन तीनों अज्ञानवाले मिथ्यादृष्टियोंका अविच्छिन्न प्रवाह होनेसे गुणस्थानके परिवर्तनका अभाव है। तीनों अज्ञानवाले सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है ॥ २३० ॥ क्योंकि, जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भागकी अपेक्षा समानता है। तीनों अज्ञानवाले सासादनसम्यग्दृष्टियोंका एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ २३१॥ क्योंकि, प्ररूपणा किए जानेवाले ज्ञानोंसे भिन्न शानोंको प्राप्त होने पर विवक्षित मार्गणाका विनाश हो जाता है। आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञानवालोंमें असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥२३२॥ १ ज्ञानानुवादेन मत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभंगज्ञानिषु मिथ्यादृष्टे नाजीवापेक्षया एक जीवापेक्षया च नास्त्यन्तरम् । स. सि. १,८. २ सासादनसम्यग्दृष्टे नाजीवापेक्षया सामान्यवत् । स. सि. १,८. ३ एकजीवं प्रति नास्त्यन्तरम् । स. सि. १,८. ४ आभिनिबोधिकश्रुतावधिज्ञानिषु असंयतसम्यग्दृष्टे नाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । स. सि. १,८. Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, २३४.] अंतराणुगमै मदि-सुद-ओहिणाणि-अंतरपरूवणं कुदो ? सव्वकालमविच्छिण्णपवाहत्तादो । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहत्तं ॥ २३३॥ तं जहा- एको असंजदसम्मादिट्ठी संजमासंजमं पडिवण्णो । तत्थ सव्वलहुमंतोमुहुत्तमच्छिय पुणो वि असंजदसम्मादिट्ठी जादो । लद्धमंतोमुहुत्तमंतरं । उकस्सेण पुवकोडी देसूणं ॥ २३४ ॥ तं जहा- जो कोई जीवो अट्ठावीससंतकम्मिओ पुबकोडाउट्ठिदिसण्णिसम्मुच्छिमपज्जत्तएसु उववण्णो । छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो (१) विस्संतो (२) विसुद्धो (३) वेदगसम्मत्तं पडिवण्णो (४) अंतोमुहुत्तेण विसुद्धो संजमासंजमं गंतूणंतरिदो । पुन्वकोडिकालं संजमासंजममणुपालिदूण मदो देवो जादो। लद्धं चदुहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणिया पुचकोडी अंतरं । ___ ओधिणाणिअसंजदसम्मादिहिस्स उच्चदे- एको अट्ठावीससंतकम्मिओ सण्णिसम्मुच्छिमपज्जत्तएमु उववण्णो । छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो (१) विस्संतो (२) विसुद्धो (३) वेदगसम्मत्तं पडिवण्णो (४)। तदो अंतोमुहुत्तेण ओधिणाणी जादो । __ क्योंकि, तीनों शानवाले असंयतसम्यग्दृष्टियोंका सर्वकाल अविच्छिन्न प्रवाह रहता है। तीनों ज्ञानवाले असंयतसम्यग्दृष्टियोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ २३३ ॥ जैसे- एक असंयतसम्यग्दृष्टि जीव संयमासंयमको प्राप्त हुआ। वहां पर सर्व अन्तर्मुहूर्त काल रह करके फिर भी असंयतसम्यग्दृष्टि होगया। इस प्रकार अन्तमुहूर्तप्रमाण अन्तर लब्ध हुआ। उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पूर्वकोटी है ॥२३४॥ मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला कोई जीव पूर्वकोटीकी आयुस्थितिवाले संशी सम्मूछिम पर्याप्तकोंमें उत्पन्न हुआ। छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (१) विश्राम ले (२) विशुद्ध हो (३) वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ (४) और अन्तर्मुहूर्तसे विशुद्ध हो संयमासंयमको प्राप्त होकर अन्तरको प्राप्त हुआ। पूर्वकोटीकालप्रमाण संयमासंयमको परिपालन कर मरा और देव हुआ। इस प्रकार चार अन्तर्मुहूर्तोंसे कम पूर्वकोटीप्रमाण मति-श्रुतज्ञानी असंयतसम्यग्दृष्टिका अन्तर लब्ध हुआ। अवधिज्ञानी असंयतसम्यग्दृष्टिका अन्तर कहते हैं- मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोकी सत्तावाला कोई एक जीव संशी सम्मूच्छिम पर्याप्तकोंमें उत्पन्न हुआ। छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (१) विश्राम ले (२) विशुद्ध हो (३) वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ (४)। पश्चात् अन्तर्मुहूर्तसे अवधिशानी होगया। अन्तर्मुहूर्त अवधिशानके साथ रह १ एकजीव प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १, ८. २उत्कर्षेण पूर्वकोटी देशोना। स. सि. १,८. Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६] - छक्खंडागमे जीवट्ठाणं - [१, ६, २३५ः अंतोमुहुत्तमच्छिय (५) संजमासंजमं पडिवण्णो । पुबकोडिं संजमासंजममणुपालिदूण मदो देवो जादो । पंचहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणिया पुव्यकोडी लद्धमंतरं । ... संजदासंजदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णथि अंतरं, णिरंतरं ॥ २३५॥ सुगममेदं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुत्तं ॥ २३६ ॥ एदं पि सुगम, ओघादो एदस्स भेदाभावा । उक्कस्सेण छावट्ठिसागरोवमाणि सादिरेयाणि ॥ २३७ ॥ तं जहा- एक्को अट्ठावीससंतकम्मिओ मणुसेसु उववण्णो । अट्ठवस्सिओ संजमासंजमं वेदगसम्मत्तं च जुगवं पडिवण्णो (१)। अंतोमुहुत्तेण संजमं गंतूणंतरिय संजमेण पुयकोडिं गमिय अणुत्तरदेवेसु तेत्तीसाउट्ठिदिएसु उववण्णो (३३)। तदो चुदो पुचकोडाउगेसु मणुसेसु उववण्णो । खइयं पट्टविय संजममणुपालिय पुणो समऊणतेत्तीसकर (५) संयमासंयमको प्राप्त हुआ । पूर्वकोटीप्रमाण संयमासंयमको परिपालनकर मरा और देव होगया। इस प्रकार पांच अन्तर्मुहूतोंसे कम पूर्वकोटीकालप्रमाण अन्तर लब्ध हुआ। मतिज्ञानादि तीनों ज्ञानवाले संयतासंयतोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ २३५ ॥ यह सूत्र सुगम है। उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ २३६ ॥ यह सूत्र भी सुगम है, क्योंकि, ओघप्ररूपणासे इसका कोई भेद नहीं है। तीनों ज्ञानवाले संयतासंयतोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर साधिक छयासठ सागरोपम है ॥ २३७ ॥ जैसे- मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला एक जीव मनुष्यों में उत्पन्न हुआ। आठ वर्षका होकर संयमासंयम और वेदकसम्यक्त्वको एक साथ प्राप्त हुआ (१)। पुनः अन्तर्मुहूर्तसे संयमको प्राप्त करके अन्तरको प्राप्त हो, संयमके साथ पूर्वकोटीप्रमाण काल बिता कर तेतीस सागरोपमकी आयुस्थितिवाले अनुत्तरविमानवासी देवोंमें उत्पन्न हुआ (३३)। वहांसे च्युत हो पूर्वकोटीकी आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ। तब क्षायिकसम्यक्त्वको धारणकर और संयमको परिपालनकर पुनः एक समय कम तेतीस १ संयतासंयतस्य नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । स. सि. १, ८. २ एकजीव प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः। स. सि. १, ८. ३ उत्कर्षेण षट्षष्टिसागरोपमाणि सातिरेकाणि । स. सि. १, ८. Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, २३७. ] अंतरानुगमे मदि-सुद-ओहिणाणि-अंतरपरूवणं [ ११७ सागरो माउडिदिएस देवेसु उववण्णो । तदो चुदो पुच्वकोडाउगेसु मणुसेसु उववण्णो । दीहकालमच्छिदूण संजमा संजमं पडिवण्णो ( २ ) । लद्धमंतरं । तदो संजमं पडिवण्णो (३) पमत्तापमत्त परावत्तसहस्सं काढूण ( ४ ) खवगसेढीपाओग्गअप्पमत्तो जादो (५) । उवरि छ अंतोमुहुत्ता । एवमट्ठवस्सेहि एक्कारसअंतोमुहुत्तेहि य ऊणियाहि तीहि पुत्रकोडीहि सादिरेयाणि छावट्टिसागरोवमाणि उक्कस्संतरं । एवमोहिणाणिसंजदासंजदस्स वि । वरि आभिणिबोहियणाणस्स आदीदो अंतोमुहुत्ते आदि काढूण अंतराविय वारस अंतोमुहुत्तेहि समहियअट्टवस्तूग तीहि पुव्त्रकोडीहि सादिरेयाणि छावट्टिसागरोवमाणि त्ति वत्तव्यं । एदं वक्खाणं ण भद्दयं, अप्यंतरपरूवणादो । तदो दीहंतर मण्णा परूवणा कीरदे । एक्को अट्ठावीससंतकमिओ सणिसम्मुच्छिमपज्जत्तरसु उबवण्णो । छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तदो ( १ ) विस्संतो ( २ ) विसुद्ध ( ३ ) वेद्गसम्मत्तं संजमा संजमं च समग पडवण्णो । अंतोमुहुत्तमच्छिय ( ४ ) असंजद सम्मादिट्ठी जादो । पुव्वकोडिं गमिय सागरोपमकी आयुस्थितिवाले देवोंमें उत्पन्न हुआ। वहांसे च्युत हो पूर्वकोटीकी आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ। वहां दीर्घकाल तक रहकर संयमासंयमको प्राप्त हुआ ( २ ) | इस प्रकार अन्तर लब्ध हुआ । पश्चात् संयमको प्राप्त हुआ ( ३ ) और प्रमत्त अप्रमत्तगुणस्थानसम्बन्धी सहस्रों परावर्तनोंको करके (४) क्षपकश्रेणीके योग्य अप्रमत्तसंयत हुआ (५) । इनमें ऊपरके क्षपकश्रेणीसम्बन्धी छह अन्तर्मुहूर्त मिलाये । इस प्रकार आठ वर्ष और ग्यारह अन्तर्मुहूतौसे कम तीन पूर्वकोटियोंसे अधिक छ्यासठ सागरोपम तीनों ज्ञानवाले संयतासंयतोंका उत्कृष्ट अन्तर होता है । इसी प्रकारसे अवधिज्ञानी संयतासंयतका भी उत्कृष्ट अन्तर जानना चाहिए | विशेष बात यह है कि आभिनिबोधिकज्ञानीके आदिके अन्तर्मुहूर्तसे प्रारम्भ करके अन्तरको प्राप्त कराकर बारह अन्तर्मुहूर्तीसे अधिक आठ वर्षसे कम तीन पूर्वकोटिसे साधक छयासठ सागरोपमकाल अन्तर होता है, ऐसा कहना चाहिए । शंका - उपर्युक्त व्याख्यान ठीक नहीं है, क्योंकि, इस प्रकार अल्प अन्तरकी प्ररूपणा होती है । अतः दीर्घ अन्तरके लिए अन्य प्ररूपणा की जाती है- मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला कोई एक जीव, संज्ञी सम्मूच्छिम पर्याप्तकोंमें उत्पन्न हुआ। छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो ( १ ) विश्राम ले (२) विशुद्ध हो (३) वेदकसम्यक्त्वको और संयमासंयमको एक साथ प्राप्त हुआ । संयमासंयमके साथ अन्तर्मुहूर्त रहकर (४) असंयतसम्यग्दृष्टि होगया । पुनः पूर्वकोटीकाल बिताकर तेरह सागरो -: Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८] छक्खडागमे जीवद्वाणं [ १, ६, २३७. तय-काविट्ठदेवेसु तेरससागरोवमाउट्ठिदिएसु उववण्णो (१३) । तदो चुदो पुव्वकोडाउएस मणुसेसु उबवण्णो । तत्थ संजममणुपालिय बावीससागरोवमाउडिदिएसु देवेसु ववण्णो । ( २२ ) । तदो चुदो पुव्त्रकोडा उएस मणुसेसु उबवण्णो । तत्थ संजममणुपालिय खइयं पट्टaिय एक्कत्तीस सागरोवमा उट्ठदिएस देवेसु उववण्णो (३१) । तदो चुदो goaकोडाउएस मणसेसु उववण्णो अंतोमुहुत्तावसेसे संसारे संजमासंजमं गदो । लद्धमंतरं (५) । विसुद्ध अप्पमत्तो जादो (६) । पमत्तापमत्त परावत्तसहस्सं काढूण (७) खवगसेढी पाओग्गअप्पमत्तो जादो (८) । उवरि छ अंतोमुहुत्ता । एवं चोदसेहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणचदुपुव्वकोडीहि सादिरेयाणि छावट्टिसागरोवमाणि उक्कस्संतरं । एवमोधिगाणिसंजदासंजदस्त वि अंतरं वत्तव्यं । णवरि आभिणिबोहियणाणस्स आदिदो अंतोमुहुत्ते आदि काढूण अंतरा - वेदव्वो । पुणो पण्णारसहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणाणि चदुहि पुत्रकोडीहि सादिरेयाणि छावट्ठिसागरोवमाणि उप्पादेदव्त्राणि १ णेदं घडदे, सण्णिसम्मुच्छिमपज्जत्तएस संजमा संजमस्सेव ओहिणाणुवसमसम्मत्ताणं संभवाभावादो । तं कथं गव्वदे ? ' पंचिदिएसु उवसामेंतो पमकी आयुवाले लांव-कापिष्ठ देवोंमें उत्पन्न हुआ । पश्चात् वहांसे च्युत हो पूर्वकोटीकी आयुबाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ। वहां पर संयमको परिपालन कर बाईस सागरोपमकी आयुस्थितिवाले देवोंमें उत्पन्न हुआ (२२) । वहांसे च्युत होकर पूर्वकोटीकी आयुबाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ। वहां पर संयमको परिपालन कर और क्षायिकसम्यक्त्वको धारणकर इकतीस सागरोपमकी आयुस्थितिवाले देवोंमें उत्पन्न हुआ (३१)। तत्पश्चात् वहांसे च्युत होकर पूर्वकोटीकी आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ और संसारके अन्तर्मुहूर्त अवशेष रह जानेपर संयमासंयमको प्राप्त हुआ । इस प्रकार अन्तर लब्ध हुआ (५) । पश्चात् विशुद्ध हो अप्रमत्तसंयत हुआ ( ६ ) । पुनः प्रमत्त- अप्रमत्तगुणस्थानसम्बन्धी सहस्रों परावर्तनोंको करके (७) क्षपकश्रेणीके योग्य अप्रमत्तसंयत हुआ ( ८ ) । इनमें ऊपरके क्षपकश्रेणीसम्बन्धी छह अन्तर्मुहूर्त और मिलाये । इस प्रकार चौदह अन्तमुहाँसे कम चार पूर्वकोटियोंसे साधिक छ्यासठ सागरोपम उत्कृष्ट अन्तर होता है । इसी प्रकारसे अवधिज्ञानी संयतासंयतका भी उत्कृष्ट अन्तर कहना चाहिए । विशेष बात यह है कि आभिनिबोधिकज्ञान के आदिके अन्तर्मुहूर्तसे आदि करके अन्तरको प्राप्त कराना चाहिए । पुनः पन्द्रह अन्तर्मुहूतौसे कम चार पूर्वकोटियों से साधिक छयासठ सागरोपम उत्पन्न करना चाहिए ? समाधान- उपर्युक्त शंकामें बतलाया गया यह अन्तरकाल घटित नहीं होता है, क्योंकि, संज्ञी सम्मूच्छिम पर्याप्तकों में संयमासंयमके समान अवधिज्ञान और उपशमvetrast संभवताका अभाव है । शंका -यह कैसे जाना जाता है कि संज्ञी सम्मूच्छिम पर्याप्तक जीवोंमें अवधिज्ञान और उपशमसम्यक्त्वका अभाव है ? Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, २३८.] अंतराणुगमे मदि-सुद-ओहिणाणि-अंतरपरूवणं [११९ गम्भोवक्कतिएसु उवसामेदि, णो सम्मुच्छिमेसु' त्ति चूलियासुत्तादो । ओहिणाणाभावो कुदो णव्वदे ? सम्मुच्छिमेसु ओहिणाणमुप्पाइय अंतरपरूवयआइरियाणमणुवलंभा । भवदु णाम सण्णिसम्मुच्छिमेसु ओहिणाणाभावो, कहमोघम्मि उत्ताणमाभिणिबोहियसुदणाणाणं तेसु संभवंताणमेवेदमंतर ण उच्चदे ? ण, तत्थुप्पण्णाणमेवंविहंतरासंभवादो। तं कुदो णव्वदे ? तहा अवक्खाणादो । अहवा जाणिय वत्तव्वं । गम्भोवक्कंतिएमु गमिदअद्वेतालीस (-पुरकोडि-) वस्सेसु ओहिणाणमुप्पादिय किण्ण अंतराविदो ? ण, तत्थ वि ओहिणाणसंभवं परूवयंतवक्खाणाइरियाणमभावादो। पमत्त-अप्पमत्तसंजदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥२३८ ॥ समाधान-'पंचेन्द्रियोंमें दर्शनमोहका उपशमन करता हुआ गर्भोत्पन्न जीवोंमें ही उपशमन करता है, सम्मूछिमों में नहीं,' इस प्रकारके चूलिकासूत्रसे जाना जाता है। शंका-संशी सम्मूञ्छिम जीवोंमें अवधिज्ञानका अभाव कैसे जाना जाता है ? समाधान—क्योंकि, अवधिशानको उत्पन्न कराके अन्तरके प्ररूपण करनेवाले आचार्योंका अभाव है। अर्थात् किसी भी आचार्यने इस प्रकार अन्तरकी प्ररूपणा नहीं की। शंका-संशी सम्मूञ्छिम जीवोंमें अवधिज्ञानका अभाव भले ही रहा आये, किन्तु ओघप्ररूपणामें कहे गये, और संशी सम्मूञ्छिम जीवों में सम्भव आभिनिबोधिकज्ञान और श्रुतज्ञानका ही यह अन्तर है, ऐसा क्यों नहीं कहते हैं ? । समाधान नहीं, क्योंकि, उनमें उत्पन्न होनेवाले जीवोंके इस प्रकार अन्तर सम्भव नहीं है। शंका-यह भी कैसे जाना जाता है ? समाधान-क्योंकि, इस प्रकारका व्याख्यान नहीं पाया जाता है । अथवा, जान करके इसका व्याख्यान करना चाहिए। शंका-गर्भोत्पन्न जीवोंमें व्यतीत की गई अड़तालीस पूर्वकोटी वर्षोंमें अवधिशान उत्पन्न करके अन्तरको प्राप्त क्यों नहीं कराया ? समाधान नहीं, क्योंकि, उनमें भी अवधिज्ञानकी सम्भवताको प्ररूपण करनेवाले व्याख्यानाचार्योंका अभाव है। तीनों ज्ञानवाले प्रमत्त और अप्रमत्तसंयतोंका अन्तर कितने काल होता है ! नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ २३८ ॥ १ प्रमत्ताप्रमत्तयोर्नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । स. सि. १, ८. Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२.] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ६, २३९. सुगममेदं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ २३९ ॥ तं जहा- पमत्तापमत्तसंजदा अप्पिदणाणेण सह अण्णगुणं गंतूण पुणो पल्लट्टिय सबजहण्णेण कालेण तं चेव गुणमागदा । लद्धमंतोमुहुत्तं जहणंतरं ।। उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि ॥ २४०॥ तं जहा- एक्को पमत्तो अप्पमत्तो (१) अपुल्यो (२) अणियट्टी (३) सुहुमो (४) उपसंतो (५) होदण पुणो वि सुहुमो (६) अणियट्टी (७) अपुल्यो (८) अप्पमत्तो जादो (९)। अद्धाखएण कालं गदो समऊणतेत्तीससागरोवमाउढिदिएसु देवेसु उववण्णो । तत्तो चुदो पुवकोडाउएसु मणुस्सेसु उववण्णो । अंतोमुहुत्तावसेसे जीविए पमत्तो जादो (१)। लद्धमंतरं। तदो अप्पमत्तो (२) । उवरि छ अंतोमुहुत्ता। अंतरस्स अब्भंतरिमेसु नवसु अंतोमुहुत्तेसु बाहिरिल्लअट्ठअंतोमुहुत्तेसु सोहिदेसु एगो अंतोमुहत्तो अवचिट्ठदे । तेत्तीसं सागरोवमाणि एगेणंतोमुहुत्तेण अब्भहियपुव्वकोडीए यह सूत्र सुगम है। तीनों ज्ञानवाले प्रमत्त और अप्रमत्तसंयतोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ २३९ ॥ जैसे- प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत जीव विवक्षित ज्ञानके साथ अन्य गुणस्थानको जाकर और पुनः पलटकर सर्वजघन्य कालसे उसी ही गुणस्थानको आये । इस प्रकार अन्तर्मुहूर्तप्रमाण जघन्य अन्तर लब्ध हुआ। उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागरोपम है ॥ २४०॥ जैसे- कोई एक प्रमत्तसंयत जीव, अप्रमत्तसंयत (१) अपूर्वकरण (२) अनिवृत्तिकरण (३) सूक्ष्मसाम्पराय (४) और उपशान्तकषाय हो करके (५) फिर भी सूक्ष्मसाम्पराय (६) अनिवृत्तिकरण (७) अपूर्वकरण (८)और अप्रमत्तसंयत हुआ (९)।तथा गुणस्थानका कालक्षय हो जानेसे मरणको प्राप्त हो एक समय कम तेतीस सागरोपमकी आयुस्थितिवाले देवोंमें उत्पन्न हुआ। पश्चात् वहांसे च्युत हो पूर्वकोटीकी आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ और जीवनके अन्तर्मुहूर्तप्रमाण अवशिष्ट रहने पर प्रमत्तसंयत हुआ (१)। इस प्रकार अन्तर लब्ध होगया । पश्चात् अप्रमत्तसंयत हुआ (२)। इनमें ऊपरके छह अन्तमुहूर्त और मिलाये। अन्तरके भीतरी नौ अन्तर्मुहूर्तों से बाहरी आठ अन्तर्मुहूौके घटा देने पर एक अन्तर्मुहूर्त अवशिष्ट रहता है । ऐसे एक अन्तर्मुहूर्तसे अधिक पूर्वकोटीसे साधिक १ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः। स. सि. १, ८. २ उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि सातिरकाणि । स. सि. १, ८. Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, २४०.] अंतराणुगमे मदि-सुद-ओहिणाणि-अंतरपरूवणं [१२१ सादिरेयाणि उक्कस्संतरं । एवं विसेसमजोएदूण उत्तं । विसेसे जोइज्जमाणे अंतरमंतरादो अप्पमत्तद्धाओ तासिं अंतर-बाहिरिया एक्का खवगसेढीपाओग्गअप्पमत्तद्धा तत्थेगदादो दुगुणा सरिसा त्ति अवणेदव्या । पुणो अंतरमंतराओ छ उवसामगद्धाओ अत्थि, तासिं बाहिरिल्लएसु अवसिट्ठसत्तसु अंतोमुहुत्तेसु तिण्णि खवगद्धाओ अवणेदव्या । एक्किस्से उवसंतद्धाए एगखवगद्धद्धं विसोहिदे अवसिझेहि अद्धटुंतोमुहुत्तेहि ऊणियाए पुव्यकोडीए सादिरेयाणि तेत्तीसं सागरोवमाणि अंतरं होदि । ओधिणाणिपमत्तसंजदमप्पमत्तादिगुणं णेदूण अंतराविय पुव्वं व उक्कस्संतरं वत्तव्यं, णस्थि एत्थ विसेसो। ___अप्पमत्तस्स उच्चदे- एक्को अप्पमत्तो अपुव्वो (१) अणियट्टी (२) सुहुमो (३) उपसंतो (४) होदूण पुणो वि सुहुमो (५) अणियट्टी (६) अपुल्यो होद्ण (७) कालं गदो समऊणतेत्तीससागरोवमाउहिदिएसु देवेसु उववण्णो । तत्तो चुदो पुव्यकोडाउएम मणुसेसु उववण्णो । अंतोमुहुत्तावसेसे संसारे अप्पमत्तो जादो । लद्धमंतरं (१)। तदो पमत्तो (२) अप्पमत्तो (३) । उवरि छ अंतोमुहुत्ता । अंतरस्स अब्भंतरिमाओ छ उवसामगद्धाओ अत्थि, तासिं अंतरबाहिरिल्लाओ तिणि खवगद्धाओ अवणेदव्वा । अंतर तेतीस सागरोपमप्रमाण उत्कृष्ट अन्तर होता है । इस प्रकारसे यह अन्तर विशेषको नहीं जोड़ करके कहा है। विशेषके जोड़े जाने पर अन्तरके आभ्यन्तरसे अप्रमत्तसंयतका काल और उनके अन्तरका बाहिरी एक क्षपकश्रेणीके योग्य अप्रमत्तसंयतका काल होता है। उनसे एक गुणस्थानके कालसे दुगुणा सदृशकाल निकाल देना चाहिए । पुनः अन्तरके आभ्यन्तर छह उपशामककाल होते हैं । उनके बाहिरी अवशिष्ट सात अन्तर्मुहूतोंसे तीन क्षपक गुणस्थानोंवाले क्षपककाल निकाल देना चाहिए । एक उपशान्तकालमेंसे एक क्षपककालका आधा भाग घटा देनेपर अवशिष्ट साढ़े तीन अन्तर्मुहूर्तोंसे कम पूर्वकोटीसे साधिक तेतीस सागरोपमकालप्रमाण उत्कृष्ट अन्तर होता है । अवधिज्ञानी प्रमत्तसंयतको अप्रमत्त आदि गुणस्थानमें ले जाकर और अन्तरको प्राप्त कराकर पूर्वके समान ही उत्कृष्ट अन्तर कहना चाहिए, इसमें और कोई विशेषता नहीं है। तीनों ज्ञानवाले अप्रमत्तसंयतका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं- एक अप्रमत्तसंयत्त, अपूर्वकरण (१) अनिवृत्तिकरण (२) सूक्ष्मसाम्पराय (३) उपशान्तकषाय (४)हो करके फिर भी सूक्ष्मसाम्पराय (५) अनिवृत्तिकरण (६) और अपूर्वकरण हो कर (७) मरणको प्राप्त हुआ और एक समय कम तेतीस सागरोपमकी आयुस्थितिवाले देवोंमें उत्पन्न हुआ । वहांसे च्युत होकर पूर्वकोटिकी आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ। संसारके अन्तर्मुहूर्त अवशेष रह जाने पर अप्रमत्तसंयत हुआ । इस प्रकार अन्तर लब्ध हुआ (१)। पश्चात् प्रमत्तसंयत (२) अप्रमत्तसंयत हुआ (३)। इनमें क्षपकश्रेणीसम्बन्धी ऊपरके छह अन्तर्मुहूर्त मिलाये । अन्तरके आभ्यन्तर उपशामकसम्बन्धी छह काल होते हैं। उनके अन्तरसे बाहिरी तीन क्षपककाल कम कर देना चाहिए। अन्तरके आभ्यन्तरवाले उपशान्त Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ६, २४१. म्भंतरिमाए उवसंतद्धाए अंतर-बाहिरखवगद्धाए अद्धमवणेदव्यं । अवसिद्धेहि अद्धछठेतोमुहुत्तेहि ऊणपुब्धकोडीए सादिरेयाणि तेत्तीसं सागरोवमाणि उक्कस्संतरं होदि । सरिसपक्खे अंतरस्सब्भंतरसत्तअंतोमुहुत्तेसु अंतर-बाहिरणवतोमुहुत्तेमु सोहिदेसु अवसेसा वे अंतोमुहुत्ता । एदेहि ऊणाए पुचकोडीए सादिरेयाणि तेत्तीसं सागरोवमाणि उक्कस्संतरं होदि । एवमोहिणाणिणो वि वत्तव्वं, विसेसाभावा । चदुण्हमुवसामगाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ॥ २४१ ॥ सुगममेदं । उक्कस्सेण वासपुधत्तं ॥ २४२ ॥ एवं पि सुगमं । एगजी पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ २४३ ॥ एवं पि सुगमं । उक्कस्सेण छावट्ठि सागरोवमाणि सादिरेयाणि ॥ २४४ ॥ कालमेंसे अन्तरसे बाहिरी क्षपककालका आधा काल निकालना चाहिए । अवशिष्ट बचे हुए साढ़े पांच अन्तर्मुहूर्तोंसे कम पूर्वकोटीसे साधिक तेतीस सागरोपम उत्कृष्ट अन्तर होता है । सदृश पक्षमें अन्तरके भीतरी सात अन्तर्मुहूर्तोको अन्तरके बाहरी नौ अन्तमुहूर्तोंमेंसे घटा देने पर अवशेष दो अन्तर्मुहूर्त रहते हैं। इनसे कम पूर्वकोटीसे साधिक तेस सागरोपमप्रमाण उत्कृष्ट अन्तर होता है। इसी प्रकारसे अवधिज्ञानीका भी अन्तर कहना चाहिए, क्योंकि, उसमें कोई विशेषता नहीं है। तीनों ज्ञानवाले चारों उपशामकोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय अन्तर है ॥ २४१ ॥ यह सूत्र सुगम है। उक्त जीवोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है ॥२४२॥ यह सूत्र भी सुगम है। उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥२४३॥ यह सूत्र भी सुगम है। उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर साधिक छयासठ सागरोपम है ॥ २४४ ॥ १ चतुर्णामुपशमकानां नानाजीवापेक्षया सामान्यवत् । स. सि. १, ८. २ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः। स. सि. १, ८. ३ उत्कर्षेण षट्षष्टिसागरोपमाणि सातिरेकाणि । स. सि. १, ८. Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, २४४. ] अंतरागमे मदि- सुद-ओहिणाणि - अंतरपरूवणं [ १२३ तं जहा - एकको अट्ठावीस संतकम्मिओ पुन्त्रकोडाउअमणुसेसु उववण्णो । अट्ठवस्सिओ वेदगसम्मत्तमप्पमत्तगुणं च जुगवं पडिवण्णो ( १ ) । तदो पमत्तापमत्त परावत्तसहस्सं काढूग ( २ ) उवसमसेढी पाओग्गविसोहीए विसुद्धो (३) अपुच्चो ( ४ ) अणि - ट्टी (५) सुमो ( ६ ) उवसंतो ( ७ ) पुणो वि सुमो ( ८ ) अणियट्टी ( ९ ) अपुव्वो (१०) होदूग हेट्ठा पडिय अंतरिदो । देसूणपुव्वकोडिं संजममणुपालेदूण मदो तेत्तीससागरो माउट्ठदिएस देवेसु उबवण्णो । तदो चुदो पुव्वकोडाउएस मणुसेसु उववष्णो । खइयं पट्टविय संजम काढूण कालं गदो तेत्तीससागरोवमा उट्ठिदिएस देवेसु उवaort | तदो चुदो पुत्रको डाउओ मणुसो जादो संजमं पडिवण्णो । अंतोमुहुत्तावसेसे संसारे अपुव्वो जादो । लद्धमंतरं ( ११ ) । अणिट्टी ( १२ ) सुमो (१३ ) उवसंतो (१४) भूओ सुमो (१५) अणिट्टी (१६ ) अपुच्वो (१७) अप्पमत्तो ( १८ ) पत्तो (१९) अप्पमत्तो ( २० ) । उवरि छ अंतोमुहुत्ता । अट्ठहि वस्सेहि छव्वीसंतोमुहुहिय ऊणा तीहि पुव्वकोडीहि सादिरेयाणि छावट्टिसागरोवमाणि उक्कस्संतरं होदि । अधवा चत्तारि पुचकोडीओ तेरस-बावीस-एक्कत्तीससागरोवमाउट्ठिदिदेवेसु उप्पाइय जैसे - मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला कोई एक जीव पूर्वकोटीकी आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ । आठ वर्षका होकर वेदकसम्यक्त्व और अप्रमत्तगुणस्थानको एक साथ प्राप्त हुआ ( १ ) | तत्पश्चात् प्रमत्त और अप्रमत्तगुणस्थानसम्बन्धी सहस्रों परिवर्तनों को करके ( २ ) उपशमश्रेणीके प्रायोग्य विशुद्धिसे विशुद्ध होता हुआ (३) अपूर्वकरण (४) अनिवृत्तिकरण (५) सूक्ष्मसाम्पराय (६) उपशान्तकषाय (७) होकर फिर भी सूक्ष्मसाम्पराय ( ८ ) अनिवृत्तिकरण ( ९ ) अपूर्वकरण (१०) होकर तथा नीचे गिरकर अन्तरको प्राप्त हुआ । कुछ कम पूर्वकोटीकालप्रमाण संयमको परिपालन कर मरा और तेतीस सागरोपम आयुस्थितिवाले देवोंमें उत्पन्न हुआ। पश्चात् च्युत होकर पूर्वकोटीकी आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ और क्षायिकसम्यक्त्वको धारण कर और संयम धारण करके मरणको प्राप्त हो तेतीस सागरोपमकी आयुस्थितिबाले देवोंमें उत्पन्न हुआ। वहांसे च्युत होकर पूर्वकोटी आयुवाला मनुष्य हुआ और यथासमय संयमको प्राप्त हुआ । पुनः संसारके अन्तर्मुहूर्त अवशेष रह जाने पर अपूर्वकरणगुणस्थानवर्ती हुआ । इस प्रकार अन्तर लब्ध हुआ ( ११ ) । पश्चात् अनिवृत्तिकरण (१२) सूक्ष्मसाम्पराय (१३) उपशान्तकषाय (१४) होकर पुनः सूक्ष्मसाम्पराय (१५) अनिवृत्तिकरण (१६) अपूर्वकरण ( १७ ) अप्रमत्तसंयत ( २८ ) प्रमत्तसंयत हुआ ( १९ ) । पुनः अप्रमत्तसंयत हुआ ( २० ) । इनमें ऊपर के क्षपकश्रेणीसम्बन्धी और भी छह अन्तमुहूर्त मिलाये । इस प्रकार आठ वर्ष और छब्बीस अन्तर्मुहूर्तोंसे कम तीन पूर्वकोटियोंसे साधिक छयासठ सागरोपम उत्कृष्ट अन्तर होता है । अथवा, तेरह, बाईस और इकतीस Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ ] छक्खंडागमे जीवाणं [ १,६, २४५. वतन्त्राओ । एवं चैव तिण्हमुवसामगाणं । णवरि चदुबीस बावीस वीस अंतोमुहुत्ता ऊणा कादव्वा । एवमोहिणाणीणं पि वत्तव्यं, विसेसाभावा । चदुण्हं खवगाणमोघं । णवरि विसेसो ओधिणाणीसु खवाणं वासपुत्तं ॥ २४५ ॥ कुदो ? ओधिणाणीणं पाएण संभवाभावा । मणपज्जवणाणीसु पमत्त - अप्पमत्त संजदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पंडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ २४६ ॥ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुतं ॥ २४७ ॥ एदं पि सुगमं । उक्कण अंतमुत्तं ॥ २४८ ॥ सागरोपम आयुकी स्थितिवाले देवोंमें उत्पन्न कराकर मनुष्यभवसम्बन्धी चार पूर्वकोटियां कहना चाहिए। इसी प्रकारसे शेष तीन उपशामकोंका भी अन्तर कहना चाहिए । विशेष बात यह है कि अनिवृत्तिकरणके चौबीस अन्तर्मुहूर्त, सूक्ष्मसाम्परायके वाईस अन्तर्मुहूर्त और उपशान्तकषायके बीस अन्तर्मुहूर्त कम कहना चाहिए । इसी प्रकारसे उपशामक अवधिज्ञानियों का भी अन्तर कहना चाहिए, क्योंकि, उसमें भी कोई विशेषता नहीं है । तीनों ज्ञानवाले चारों क्षपकोंका अन्तर ओधके समान है । विशेष बात यह है कि अवधिज्ञानियों में क्षपकोंका अन्तर वर्षपृथक्त्व है ।। २४५ ।। क्योंकि, अवधिज्ञानियों के प्रायः होनेका अभाव है । मन:पर्ययज्ञानियोंमें प्रमत्त और अप्रमत्त संयतोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ।। २४६ ॥ यह सूत्र सुगम है । उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ २४७ ॥ यह सूत्र भी सुगम है । उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ २४८ ॥ १ चतुर्णां क्षपकाणां सामान्यवत् । किन्तु अवधिज्ञानिषु नानाजीवापेक्षया जघन्येनैकः समयः, उत्कर्षेण वर्षपृथक्त्वम् । एक्जीवं प्रति नास्त्यन्तरम् । स. सि. १, ८. २ प्रतिषु ' उप्पाएण ' इति पाठः । ३ मन:पर्ययज्ञानिषु प्रमत्ताप्रमत्तसंयतयोर्नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । स. सि. १, ८. ४ एकजीवं प्रति जघन्यमुत्कृष्टं चान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १, ८. Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, २५०.] अंतराणुगमे मणपज्जवणाणि-अंतरपरूवणं [१२५ तं जहा- एक्को पमत्तो मणपज्जवणाणी अप्पमत्तो होइंग उवरि चढिय हेट्ठा ओदरिदृण पमत्तो जादो । लद्धमंतरं । अप्पमत्तस्स उच्चदे- एक्को अप्पमत्तो मणपज्जवणाणी पमत्तो होणंतरिय सचिरेण कालेण अप्पमत्तो जादो । लद्धमंतरं । उबसमसेटिं चढाविय किण्णंतराविदो ? ण, उवसमसेढिसबद्धाहितो पमत्तद्धा एक्का चेव संखेज्जगुणा त्ति गुरुवदेसादो। चदुण्हमुवसामगाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ॥ २४९ ॥ सुगममेदं । उक्कस्सेण वासपुधत्तं ॥ २५०॥ एदं पि सुगमं । जैसे- एक मनःपर्ययज्ञानी प्रमत्तसंयत जीव अप्रमत्तसंयत हो ऊपर चढ़कर और नीचे उतर कर प्रमत्तसंयत हो गया। इस प्रकार अन्तर लब्ध हुआ। मनःपर्ययज्ञानी अप्रमत्तसंयतका अन्तर कहते हैं- एक मनःपर्ययज्ञानी अप्रमत्तसंयत जीव प्रमत्तसंयत होकर अन्तरको प्राप्त हो अति दीर्घकालसे अप्रमत्तसंयत होगया। इस प्रकार अन्तर लब्ध हुआ। शंका-मनःपर्ययज्ञानी अप्रमत्तसंयतको उपशमश्रेणी पर चढ़ाकर पुनः अन्तरको प्राप्त क्यों नहीं कराया ? समाधान नहीं, क्योंकि, उपशमश्रेणीसम्बन्धी सभी अर्थात् चार चढ़नेके और तीन उतरनेके, इन सब गुणस्थानोसम्बन्धी कालोंसे अकेले प्रमत्तसंयतका काल ही संख्यातगुणा होता है, ऐसा गुरुका उपदेश है। मनःपर्ययज्ञानी चारों उपशामकोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय अन्तर है ॥ २४९ ॥ यह सूत्र सुगम है। उक्त जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है ॥ २५० ॥ यह सूत्र भी सुगम है। १ चतुर्णामुपशमकानां नानाजीवापेक्षया सामान्यवत् । स. सि. १,८. Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ६, २५१. एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ २५१ ॥ सुगममेदं । उक्कस्सेण पुव्वकोडी देसूणं ॥ २५२ ॥ ___ तं जहा- एक्को पुधकोडाउएसु मणुसेसु उववण्णो अंतोमुहुत्तब्भहियअदुवस्सेहि संजमं पडिवण्णो (१)। पमत्तापमत्तसंजदट्ठाणे सादासादबंधपरावत्तसहस्सं कादण (२) विसुद्धो मणपज्जवणाणी जादो ( ३ )। उवसमसेडीपाओग्गअप्पमत्तो होदण सेडीमुवगदो (४)। अपुग्यो (५) अणियट्टी (६ ) सुहुमो (७) उपसंतो (८) पुणो वि सुहुमो (९) अणियट्टी (१०) अपुल्यो (११) पमत्तापमत्तसंजदट्ठाणे (१२) पुवकोडिमच्छिदूण अणुदिसादिसु आउअंबंधिदूण अंतोमुहुत्तावसेसे जीविए विसुद्धो अपुव्वुवसामगो जादो । णिद्दा-पयलाणं बंधवोच्छिण्णे कालं गदो देवो जादो । अट्ठवस्सेहि वारसअंतोमुहुत्तेहि य ऊणिया पुव्यकोडी उक्कस्संतरं । एवं तिण्हमुवसामगाणं । णवरि जहाकमेण दस णव अट्ठ अंतोमुहुत्ता समओ य पुधकोडीदो ऊणा त्ति वत्तव्यं । मनःपर्ययज्ञानी चारों उपशामकोंका एक जीवकी अपेक्षा अन्तर जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त है ॥ २५१॥ यह सूत्र सुगम है। उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पूर्वकोटी है ॥२५२॥ जैसे- कोई एक जीव पूर्वकोटीकी आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ और अन्तर्मुहूर्तसे अधिक आठ वर्षके द्वारा संयमको प्राप्त हुआ (१)। पुनः प्रमत्त-अप्रमत्तसंयत गुणस्थानमें साता और असाताप्रकृतियोंके सहस्रों बंध-परिवर्तनोंको करके (२)विशुद्ध हो मनःपर्ययज्ञानी हुआ (३)। पश्चात् उपशमश्रेाके योग्य अप्रमत्तसंयत होकर श्रेणीको प्राप्त हुआ (४)। तव अपूर्वकरण (५) अनिवृत्तिकरण (६) सूक्ष्मसाम्पराय (७) उपशान्तकषाय (८) पुनरपि सूक्ष्मसाम्पराय (९) अनिवृत्तिकरण (१०) अपूर्वकरण (११) होकर प्रमत्त और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानमें (१२) पूर्वकोटीकाल तक रहकर अनुदिश आदि विमानवासी देवों में आयुको बांधकर जीवनके अन्तर्मुहूर्त अवशेष रहने पर विशुद्ध हो अपूर्वकरण उपशामक हुआ। पुनः निद्रा तथा प्रचला, इन दो प्रकृतियोंके बंध-विच्छेद हो जाने पर मरणको प्राप्त हो देव हुआ । इस प्रकार आठ वर्ष और वारह अन्तर्मुहूर्तोंसे कम पूर्वकोटी कालप्रमाण उत्कृष्ट अन्तर होता है। इसी प्रकार शेष तीन मनापर्ययशानी उपशामकोंका भी अन्तर होता है। विशेषता यह है कि उनके यथाक्रमसे दश, नौ और आठ भन्तर्मुहूर्त तथा एक समय पूर्वकोटीसे कम कहना चाहिए। १ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १,८. २ उत्कर्षेण पूर्वकोटी देशोना। स. सि. १, ८. Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, २५७. ] अंतरागमे केवलणाणि - अंतरपरूवणं [ १२७ चदुण्हं खवगाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च जहणेण एगसमयं ॥ २५३ ॥ सुगममेदं । उक्कस्सेण वासपुधत्तं ॥ २५४ ॥ कुदो ? मणपज्जवणाणेण खवगसेटिं चढमाणाणं पउरं संभवाभावा । एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं निरंतरं ॥ २५५ ॥ " एदं पि सुगमं । केवलणाणी जोगकेवली ओधं ॥ २५६ ॥ णाणेगजीव अंतराभावेण साधम्मादो | अजोगिकेवली ओघं ॥ २५७ ॥ सुगममेदं सुतं । एवं णाणमग्गणा समत्ता । मन:पर्ययज्ञानी चारों क्षपकोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय अन्तर है ।। २५३ ॥ यह सूत्र सुगम है । उक्त जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है || २५४ ॥ क्योंकि, मन:पर्ययज्ञानके साथ क्षपकश्रेणीपर चढ़नेवाले जीवोंका प्रचुरतासे होना संभव नहीं है । मन:पर्ययज्ञानी चारों क्षपकोंका एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ २५५ ॥ यह सूत्र भी सुगम है । केवलज्ञानी जीवोंमें सयोगिकेवलीका अन्तर ओघके समान है || २५६ ॥ क्योंकि, नाना और एक जीवकी अपेक्षा अन्तरका अभाव होनेसे समानता है । अयोगharat अन्तर ओघके समान है ॥ २५७ ॥ यह सूत्र भी सुगम है । इस प्रकार ज्ञानमार्गणा समाप्त हुई । ११ चतुर्णा क्षपकाणामवधिज्ञानिवत् । स. सि. १, ८. २ द्वयोः केवलज्ञानिनोः सामान्यवत् । स. सि. १, ८. Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ६, २५८. संजमाणुवादेण संजदेसु पमत्तसंजदप्पहडि जाव उवसंतकसायवीदरागछदुमत्था त्ति मणपज्जवणाणिभंगो ॥ २५८ ॥ पमत्तापमत्तसंजदाणं णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतर; एगजीवं पडुच्च जहष्णुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । चदुण्हमुवसामगाणं णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण वासपुधत्तं; एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण देसूणपुव्वकोडी अंतरमिदि तदो विसेसाभावा । चदुण्हं खवा अजोगिकेवली ओघं ॥ २५९ ॥ सुगमं । सजोगिकेवली ओघं ॥ २६०॥ एदं पि सुगमं । सामाइय-छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदेसु पमत्तापमत्तसंजदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णस्थि अंतरं, णिरंतरं ॥२६१॥ गयत्थं । संयममार्गणाके अनुवादसे संयतोंमें प्रमत्तसंयतको आदि लेकर उपशान्तकषायवतिरागछमस्थ तक संयतोंका अन्तर मनःपर्ययज्ञानियोंके समान है ॥ २५८ ॥ प्रमत्त और अप्रमत्तसंयतोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है; एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । चारों उपशामकोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट कुछ कम पूर्वकोटीप्रमाण अन्तर है, इसलिए उससे यहांपर कोई विशेषता नहीं है। चारों क्षपक और अयोगिकेवली संयतोंका अन्तर ओघके समान है ॥२५९ ॥ यह सूत्र सुगम है। सयोगिकेवली संयतोंका अन्तर ओघके समान है ॥ २६० ॥ यह सूत्र भी सुगम है। सामायिक और छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयतोंमें प्रमत्त तथा अप्रमत्त संयतोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ २६१ ॥ इस सूत्रका अर्थ पहले कहा जा चुका है। १ सयमानुवादेन सामायिकच्छेदोपस्थापनशुद्धि संयतेषु प्रमत्तानमत्तयो नाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । स. सि. १,८. Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, २६५.] अंतराणुगमे संजद-अंतरपरूवर्ण [ १२९ एगजीवं पडुच्च जहण्णण अंतोमुहुत्तं ॥ २६२ ॥ तं जहा- पमत्तो अप्पमत्तगुणं गंतूण सव्वजहण्णेण कालेण पुणो पमत्तो जादो । लद्धमंतरं । एवमप्पमत्तस्स वि वत्तव्यं । उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥ २६३ ॥ - तं जहा- एको पमत्तो अप्पमत्तो होदूण चिरकालमच्छिय पमत्तो जादो । लद्धमंतरं । अप्पमत्तस्स उच्चदे- एक्को अप्पमत्तो पमत्तो होदृण सबचिरमंतोमुहुत्तमच्छिय अप्पमत्तो जादो । लद्धमंतरं । दोण्हमुवसामगाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ॥२६४॥ अवगयत्थं । उक्कस्सेण वासपुधत्तं ॥ २६५॥ सुगममेदं । उक्त संयतोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ २६२ ॥ जैसे- एक प्रमत्तसंयत जीव अप्रमत्तगुणस्थानको जाकर सर्वजघन्य कालसे पुन: प्रमत्तसंयत होगया। इस प्रकार अन्तर लब्ध हुआ। इसी प्रकार अप्रमत्तसंयतका भी अन्तर कहना चाहिए। उक्त संयतोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ २६३ ॥ जैसे-एक प्रमत्तसंयत जीव अप्रमत्तसंयत होकर और दीर्घ अन्तर्मुहूर्तकाल तक रह करके प्रमत्तसंयत होगया। इस प्रकार अन्तर लब्ध हुआ। अप्रमत्तसंयतका अन्तर कहते है- एक अप्रमत्तसंयत जीव प्रमत्तसंयत हो करके सबसे बड़े अन्तर्मुहूर्तकाल तक रहकर अप्रमत्तसंयत होगया । इस प्रकार अन्तर लब्ध हुआ। सामायिक और छेदोपस्थापनासंयमी अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण, इन दोनों उपशामकोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय अन्तर है ॥२६४॥ इस सूत्रका अर्थ शात है। उक्त जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है ॥ २६५ ॥ यह सूत्र सुगम है। १ एकजीवं प्रति जघन्यमुत्कृष्टं चान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १,८. २ द्वयोरुपचमकयो नाजीवापेक्षया सामान्यवत् । स. सि. १,८. Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खडागमे जीवाणं एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ २६६ ॥ तं जहा- एक्को ओदरमाणो अपुव्वो अप्पमत्तो पत्तो पुणो अप्पमत्तो होण अपुच्चो जादो । लद्धमंतरं । एवमणियट्टिस्स वि । णवरि पंच अंतोमुहुत्ता जहण्णंतरं होदि । उक्कस्सेण पुव्वकोडी देणं ॥ २६७ ॥ १३० ] तं जहा- एक्को पुव्वकोडाउएस मणुसेसु उबवण्णो । अट्ठवस्साणमुवरि संजमं पडिवण्णो ( १ ) । पमत्तापमत्तसंजदट्ठाणे सादासादबंधपरावत्तिसहस्सं काढूण (२) उवसमसेडीपाओग्गअप्पमत्तो ( ३ ) अपुच्चो ( ४ ) अणियट्टी (५) सुहुमो (६) उवसंतो (७) पुणो वि सुमो (८) अणियट्टी ( ९ ) अपुव्वो (१०) हेट्ठा पडिय अंतरिदो । पमत्तापमत्तसंजदट्ठाणे पुव्यकोडि मच्छिदूण अणुद्दिसादिसु आउअं बंधिय अंतोमुहुत्तावसेसे जीविए अव्ववसामगो जादो । णिद्दा- पयलाणं बंधे वोच्छिष्णे कालं गदो देवो जादो । अट्ठहि वस्सेहि एक्कारसअंतो मुहुतेहि य ऊणिया पुव्वकोडी अंतरं । एवमणियट्टिस्स वि । सामायिक और छेदोपस्थापनासंयमी दोनों उपशामकोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ २६६ ॥ [ १, ६, २६६. जैसे- उपशमश्रेणीसे उतरनेवाला एक अपूर्वकरणसंयत, अप्रमत्तसंयत व प्रमत्तसंयत होकर पुनः अप्रमत्तसंयत हो अपूर्वकरणसंयत होगया । इस प्रकार अन्तर लब्ध हुआ । इसी प्रकार अनिवृत्तिकरणसंयतका भी अन्तर कहना चाहिए । विशेषता यह है किं इनके पांच अन्तर्मुहूर्तप्रमाण जघन्य अन्तर होता है । उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पूर्वकोटी है ॥२६७॥ जैसे - कोई एक जीव पूर्वकोटीकी आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ और आठ वर्ष पश्चात् संयमको प्राप्त हुआ (१) । पुनः प्रमत्त और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानमें साता और असातावेदनीयके सहस्रों बंध- परावर्तनोंको करके (२) उपशमश्रेणीके योग्य अप्रमत्तसंयत हुआ (३)। पश्चात् अपूर्वकरण (४) अनिवृत्तिकरण (५) सूक्ष्मसाम्पराय (६) उपशान्तकषाय ( ७ ) होकर फिर भी सूक्ष्मसाम्पराय (८) अनिवृत्तिकरण (९) अपूर्वकरण (१०) हो नीचे गिरकर अन्तरको प्राप्त हुआ । प्रमत्त और अप्रमत्तसंयत गुणस्थान पूर्वकोटी काल तक रहकर अनुदिश आदि विमानोंमें आयुको बांधकर जीवनके अन्तर्मुहूर्तप्रमाण अवशिष्ट रहनेपर अपूर्वकरण उपशामक हुआ और निद्रा तथा प्रचला प्रकृतियोंके बंधसे व्युच्छिन्न होनेपर मरणको प्राप्त हो देव हुआ । इस प्रकार आठ वर्ष और ग्यारह अन्तर्मुहूतोंसे कम पूर्वकोटीप्रमाण सामायिक और छेदोपस्थापना संयमी अपूर्वकरण उपशामकका उत्कृष्ट अन्तर होता है । इसी प्रकार सामायिक और छेदोपस्थापना संयमी अनिवृत्तिकरण उपशामकका भी उत्कृष्ट अन्तर है । विशेषता यह है कि १ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १, ८. २ उत्कर्षेण पूर्वकोटी देशोना । स. सि. १,८. Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतराने संजद - अंतरपरूवणं १, ६, २७१. ] वरि समयाहियणवतोमुहुत्ता ऊणा कादव्या । दोहं खवाणमोघं ॥ २६८ ॥ सुगममेदं । परिहारसृद्धिसंजदेसु पमत्तापमत्तसंजदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ २६९ ॥ ममेदं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ २७० ॥ तं जहा- एक्को पत्तो परिहारसुद्धिसंजदो अप्पमत्तो होदूण सव्बलहुँ पमत्तो जादो | मंतरं । एवमप्पमत्तस्स वि पमत्तगुणेण अंतरात्रिय वत्तव्यं । उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥ २७१ ॥ दस्त्थो जधा जहणस्स उत्तो, तथा वत्तव्वो । णवरि सव्वचिरेण कालेण पल्लट्टावेदव्वो । इनका अन्तर एक समय अधिक नौ अन्तर्मुहूर्त कम करना चाहिए । सामायिक और छेदोपस्थापना संयमी अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण, इन दोनों क्षपकों का नाना और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर ओधके समान है ।। २६८ ॥ [ १३१ यह सूत्र सुगम है । परिहारशुद्धिसंयतों में प्रमत्त और अप्रमत्त संयतोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ।। २६९ ।। यह सूत्र सुगम है । उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ।। २७० ॥ जैसे- परिहारशुद्धिसंयमवाला कोई एक प्रमत्तसंयत जीव अप्रमत्तसंयत होकर सर्वलघु कालसे प्रमत्तसंयत हुआ। इस प्रकार अन्तर लब्ध हो गया। इसी प्रकार परिहारशुद्धिसंयमी अप्रमत्तसंयतको भी प्रमत्तगुणस्थानके द्वारा अन्तरको प्राप्त कराकर अन्तर कहना चाहिए । उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ।। २७९ ।। इस सूत्र का अर्थ जैसा जघन्य अन्तर बतलाते हुए कहा है, उसी प्रकार से कहना चाहिए | विशेषता यह है कि इसे यहां पर सर्व दीर्घकाल से पलटाना चाहिए । १ द्वयोः क्षपकयोः सामान्यवत् । स. सि. १, ८. २ परिहारशुद्धिसंयतेषु प्रमत्ताप्रमत्तयोर्नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । स. सि. १, ८, ३ एकजीवं प्रति जघन्यमुत्कृष्टं चान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १,८५ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ६, २७२. सुहुमसां पराइयसुद्धिसंजदेसु सुहुमसांप। इय उवसमाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ॥ २७२ ॥ सुगममेदं । उक्कस्सेण वासपुधत्तं ॥ २७३ ॥ एदं पि सुगमं । एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ २७४ ॥ कुदो ? अधिगदसंजमाविणासेण अंतरावणे उवायाभावा । खवाणमोघं ॥ २७५ ॥ कुदो ? णाणाजीवगदजहण्णुक्कस्सेग समय छम्मासेहि एगजीवस्संतराभावेण य साधम्मादो | जहाक्खादविहार सुद्धिसंजदेसु अकसाइभंगों ॥ २७६ ॥ सूक्ष्मसाम्परायशुद्धिसंयतों में सूक्ष्मसाम्पराय उपशामकोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय अन्तर है ।। २७२ ॥ यह सूत्र सुगम है । उक्त जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है || २७३ ॥ यह सूत्र भी सुगम है । उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है || २७४ ॥ क्योंकि, प्राप्त किये गये संयमके विनाश हुए बिना अन्तरको प्राप्त होनेके उपायका अभाव है | सूक्ष्मसाम्परायसंयमी क्षपकोंका अन्तर ओघके समान है ।। २७५ ।। क्योंकि, नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह मासके साथ, तथा एक जीवकी अपेक्षा अन्तरका अभाव होनेसे ओघके साथ समानता पाई जाती है । यथाख्यातविहारशुद्धिसंयतोंमें चारों गुणस्थानोंके संयमी जीवोंका अन्तर अकषायी जीवोंके समान है ।। २७६ ।। १ सूक्ष्मसाम्परायशुद्धि संयतेषूपशमकस्य नानाजीवापेक्षया सामान्यवत् । स. सि. १, ८. २ एकजीवं प्रति नास्त्यन्तरम् । स. सि, १, ८. ३ अ प्रतौ ' अंतरावण्णो उब्वाया-' आ-कप्रत्योः ' अंतरावणो उव्वाया-' इति पाठः । ४ तस्यैव क्षपकस्य सामान्यवत् । स. सि. १, ८. ५ यथाख्याते अकषायवत् । स. सि. १, ८ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, २७९. ] अंतरानुगमे असंजद - अंतरपरूवणं कुदो ? अकसायाणं जहाक्खादसंजमेण विणा अण्णसंजमाभावा । संजदासंजदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणेगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ २७७ ॥ कुदो? गुणंतरग्गहणे मग्गणाविणासा, गुणंतरग्गहणेण विणा अंतरकरणे उवायाभावा । असंजदेसु मिच्छादिट्टीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ २७८ ॥ कुदो ! मिच्छादिट्टिप्पवाहवोच्छेदाभावा । एगजीवं पडुच जहणेण अंतोमुहुतं ॥ २७९ ॥ कुदो ? गुणंतरं गतूणंतरिय अविणट्ठअसंजमेण जहण्णकालेण पलट्टिय मिच्छत्तं पडिवण्णस्स अंतोमुहुत्तं तरुत्रलंभा । क्योंकि, अकषायी जीवोंके यथाख्यातसंयमके विना अन्य संयमका अभाव है । संयतासंयतोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना और एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ।। २७७ ॥ क्योंकि, अपने गुणस्थानको छोड़कर अन्य गुणस्थानके ग्रहण करने पर मार्गणाका विनाश होता है और अन्य गुणस्थानको ग्रहण किये विना अन्तर करनेका कोई उपाय नहीं है। [ १३३ असंयतों में मिध्यादृष्टियोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ।। २७८ ॥ क्योंकि, मिथ्यादृष्टि जीवोंके प्रवाहका कभी विच्छेद नहीं होता । असंयमी मिथ्यादृष्टि जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ २७९ ॥ क्योंकि, अन्य गुणस्थानको जाकर और अन्तरको प्राप्त होकर असंयमभावके नहीं नष्ट होनेके साथ ही जघन्य कालसे पलटकर मिथ्यात्वको प्राप्त हुए जीवके अन्तमुहूर्तप्रमाण अन्तर पाया जाता है । १ संयतासंयतस्य नानाजीवापेक्षया एकजीवापेक्षया च नास्त्यन्तरम् । स. सि. १,८. २ असंयतेषु मिथ्यादृष्टेर्नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । स. सि. १, ८. ३ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १, ८. Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ६, २८.. उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि देसूणाणि ॥ २८० ॥ तं जहा- एक्को अट्ठावीसमोहसंतकम्मिओ मिच्छादिट्ठी सत्तमाए पुढवीए उववण्णो । छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो (१) विस्संतो (२) विसुद्धो (३) सम्मत्तं पडिवज्जिय अंतरिदो अंतोमुहुत्तावसेसे जीविए मिच्छत गदो (४)। लद्धमंतरं । तिरिक्खाउअंबंधिय (५) विस्समिय (६) मदो तिरिक्खो जादो । छहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणाणि तेत्तीसं सागरोवमाणि मिच्छत्तुक्कस्संतरं । सासणसम्मादिहि-सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीणमोघं ॥ २८१ ॥ कुदो ? सासणसम्मादिट्ठि-सम्मामिच्छादिट्ठीणं णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो; एगजीवं पडुच्च जहण्णेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, अंतोमुहुत्तं; उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियट्ट देसूणं । असंजदसम्मादिट्ठीसु णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतर; एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं; उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियट्टू देसूणमिच्चदेहि तदो भेदाभावा । उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागरोपम है ॥२८ ॥ जैसे- मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला एक मिथ्यादृष्टि जीव सातवीं पृथिवीमें उत्पन्न हुआ। छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (१) विश्राम ले (२) विशुद्ध हो (३) सम्यक्त्वको प्राप्त होकर अन्तरको प्राप्त हुआ और जीवनके अन्तर्मुहूर्त कालप्रमाण अवशेष रहने पर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ (४)। इस प्रकार अन्तर लब्ध होगया। पीछे तिर्यंच आयुको बांधकर (५) विश्राम ले (६) मरा और तिर्यंच हुआ । इस प्रकार छह अन्तर्मुहूर्तोंसे कम तेतीस सागरोपमकाल मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अन्तर होता है। असंयमी सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका अन्तर ओघके समान है ॥ २८१ ॥ क्योंकि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और पल्योपमका असंख्यातवां भाग अन्तर है; एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे पल्योपमका असंख्यातवां भाग और अन्तर्मुहूर्त अन्तर है। तथा उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनकाल है। असंयतसम्यग्दृष्टियोंमें नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है; एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन है। इस प्रकार ओघसे कोई भेद नहीं है। १ उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि देशोनानि । स. सि. १,८ २ शेषाणां त्रयाणां सामान्यवत् । स. सि. १,८. Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, २८२.] अंतराणुगमे चक्खुदंसणि-अंतरपरूवणं [१३५ असंजदसम्मादिट्ठिस्स उक्कस्संतरं णादमवि' मंदमेहाविजणाणुग्गहढे परूवेमोएक्को अणादियमिच्छादिट्ठी तिण्णि वि करणाणि कादूण अद्धपोग्गलपरियट्टादिसमए पढमसम्मत्तं पडिवण्णो (१)। उवसमसम्मत्तद्धाए छावलियाओ अस्थि त्ति सासणं गदो। अंतरिदो अद्धपोग्गलपरियढें परियट्टिदूण अपच्छिमे भवग्गहणे असंजदसम्मादिट्ठी जादो । लद्धमंतरं (२)। तदो अणंताणुबंधी विसंजोइय (३) विस्संतो (४) दंसणमोहं खविय (५) विस्संतो (६) अप्पमत्तों जादो (७)। पमत्तापमत्तपरावत्तसहस्सं कादण (८) खवगसेढीपाओग्गअप्पमत्तो जादो (९)। उवरि छ अंतोमुहुत्ता । एवं पण्णारसेहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणमद्धपोग्गलपरियट्टमसंजदसम्मादिहिस्स उक्कस्संतरं । एवं संजममग्गणा समत्ता । दंसणाणुवादेण चक्खुदंसणीसु मिच्छादिट्ठीणमोघं ॥ २८२ ॥ कुदो ? णाणाजीवे पडुच्च अंतराभावेण, एगजीवगयअंतोमुहुत्तमेत्तजहण्णंतरेण .......................................... ___ असंयतसम्यग्दृष्टिका उत्कृष्ट अन्तर यद्यपि ज्ञात है, तथापि मंदबुद्धि जनोंके अनुग्रहार्थ प्ररूपण करते हैं- एक अनादि मिथ्यादृष्टि जीव तीनों करणोंको करके अर्धपुद्गलपरिवर्तनके आदि समयमें प्रथमोपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ (१)। उपशमसम्यक्त्वके कालमें छह आवलियां अवशिष्ट रहने पर सासादनगुणस्थानको प्राप्त हुआ। पश्चात् अन्तरको प्राप्त हो अर्धपुद्गलपरिवर्तन तक परिवर्तन करके अन्तिम भवमें असंयतसम्यग्दृष्टि हुआ। इस प्रकार अन्तर प्राप्त होगया (२)। तत्पश्चात् अन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करके (३) विश्राम ले (४) दर्शनमोहनीयका क्षय करके (५) विश्राम ले (६) अप्रमत्तसंयत हुआ (७)। पुनः प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थानसम्बन्धी सहस्रों परिवर्तनोंको करके (८) क्षपकश्रेणीके प्रायोग्य अप्रमत्तसंयत हुआ (९)। इनमें ऊपरके छह अन्तमुहूर्त और मिलाये । इस प्रकार पन्द्रह अन्तर्मुहूतौसे कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनकाल असंयतसम्यग्दृष्टिका उत्कृष्ट अन्तर होता है। इस प्रकार संयममार्गणा समाप्त हुई। दर्शनमार्गणाके अनुवादसे चक्षुदर्शनी जीवोंमें मिथ्यादृष्टियोंका अन्तर ओषके समान है ॥ २८२ ॥ क्योंकि, नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरका अभाव होनेसे, तथा एक जीवगत १ प्रतिषु —णादमदि' इति पाठः। २ प्रतिषु ‘पमत्तो' इति पाठः । ३ दर्शनानुवादेन चक्षुर्दर्शनिषु मिथ्यादृष्टेः सामान्यवत् । स. सि. १, ८. ४ अप्रतौ -जीवेसु' इति पाठः । Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे जीवाणं देसूण-चे-छावसिागरोवममेत्त उक्कस्संतरेण य तदो भेदाभावा । सासणसम्मादिट्टि सम्मामिच्छादिट्टीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च ओघं ॥ २८३ ॥ कुदो १ णाणाजीवगयएगसमय-पलिदोवमासंखेज्जदिभागजहष्णुक्कस्संतरेहि साधम्मुवलंभा । १३६ ] एगजीवं पडुच्च जहणेण पलिदोवमस्स असं खेज्जदिभागो, अंतोमुहुत्तं ॥ २८४ ॥ [ १, ६, २८३. सुगममेदं । उक्कस्सेण वे सागरोवमसहस्साणि देसूणाणि ॥ २८५ ॥ तं जहा - एको भमिदअचक्खुदंसणविदिओ असण्णिपंचिदिएसु उववण्णो । पंचहि पज्जतीहि पज्जत्तदो ( १ ) विस्तो ( २ ) विसुद्धो ( ३ ) भवणवासिय - वाणवेंतरदेवेसु अन्तर्मुहूर्तमात्र जघन्य अन्तर होनेसे और कुछ कम दो छ्यासठ सागरोपमप्रमाण उत्कृष्ट अन्तर होनेकी अपेक्षा ओघसे कोई भेद नहीं है । चक्षुदर्शनी सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है || २८३ ॥ क्योंकि, नाना जीवगत जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्योपमका असंख्यातवां भाग है; इस प्रकार इन दोनोंकी अपेक्षा ओघके साथ समानता पाई जाती है। उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर क्रमशः पल्योपमका असंख्यातवां भाग और अन्तर्मुहूर्त है || २८४ ॥ यह सूत्र सुगम है । उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो हजार सागरोपम है ॥ २८५ ॥ जैसे- अचक्षुदर्शनकी स्थितिप्रमाण परिभ्रमण किया हुआ कोई एक जीव असशी पंचेन्द्रियोंमें उत्पन्न हुआ। पांचों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो ( १ ) विश्राम ले ( २ ) विशुद्ध हो (३) भवनवासी या वानव्यन्तर देवोंमें आयुको बांधकर ( ४ ) विश्राम ले ( ५ ) १ सासादनसम्यग्दृष्टि सम्यग्मिथ्यादृष्टयोर्नानाजीवापेक्षया सामान्यवत् । स. सि. १, ८. २ एकजीवं प्रति जघन्येन पल्योपमासंख्येय भागोऽन्तर्मुहूर्तश्च । स. सि. १, ८. ३ उत्कर्षेण द्वे सागरोपमसहस्रे देशोने । स. सि. १, ८. Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, २८५.] अंतराणुगमे चक्खुदसणि-अंतरपरूवणं [१३७ आउअंबंधिय (४) विस्संतो (५) देवेसु उपवण्णो। छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो (६) विस्संतो (७) विसुद्धो (८) उवसमसम्मत्तं पडिवण्णो (९) सासणं गदो। मिच्छत्तं गंतूणंतरिय चक्खुदंसणिढिदिं परिभमिय अवसाणे सासणं गदो । लद्धमंतरं । अचक्खुदंसणिपाओग्गमावलियाए असंखेञ्जदिभागमच्छिदण मदो अचक्खुदंसणी जादो । एवं णवहि अंतोमुहुत्तेहि आवलियाए असंखेज्जदिभागेण य ऊणिया चक्खुदंसणिहिदी सासणुक्कस्संतरं । सम्मामिच्छादिद्विस्स उच्चदे- एक्को अचक्खुदंमणिहिदिमच्छिदो असण्णिपंचिंदिएसु उववण्णो। पंचहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो (१) विस्संतो ( २) विसुद्धो (३) भवणवासिय-वाण-तरदेवेसु आउअं बंधिय (४) विस्संतो (५) देवेसु उववण्णो । छहि पज्जतीहि पज्जत्तयदो (६) विस्संतो (७) विसुद्धो (८) उवसमसम्मत्तं पडिवण्णो (९) सम्मामिच्छत्तं गदो (१० )। मिच्छत्तं गंतूगंतरिदो चक्खुदंसणिहिदि परिभमिय अवसाणे सम्मामिच्छत्तं गदो (११)। लद्धमंतरं । मिच्छत्तं गंतूण (१२) अचक्खुदसणीसु उववण्णो । एवं वारसअंतोमुहुत्तेहि ऊणिया चक्खुदंसणिट्ठिदी उक्करसंतरं । देवोंमें उत्पन्न हुआ। छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (६) विश्राम ले (७) विशुद्ध हो (८) उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ (९)। पश्चात् सासादनगुणस्थानको गया । पुनः मिथ्यात्वको जाकर अन्तरको प्राप्त हो चक्षुदर्शनीकी स्थितिप्रमाण परिभ्रमण करके अन्तमें सासादनगुणस्थानको प्राप्त हुआ। इस प्रकार अन्तर लब्ध होगया । पुनः अचक्षुदर्शनीके बंध-प्रायोग्य आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण काल रह कर मरा और अचक्षुदर्शनी होगया । इस प्रकार नौ अन्तर्मुहूतौँसे और आवलीके असंख्यातवें भागसे कम चक्षुदर्शनीकी स्थिति चक्षुदर्शनी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवका उत्कृष्ट अन्तर है। चक्षुदर्शनी सम्यग्मिथ्यादृष्टिका अन्तर कहते हैं- अचक्षुदर्शनकी स्थितिको प्राप्त हुआ एक जीव असंशी पंचेन्द्रियोंमें उत्पन्न हुआ। पांचों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (१) विश्राम ले (२) विशुद्ध हो (३) भवनवासी या वानव्यन्तर देवोंमें आयुको बांधकर(४) विश्राम ले (५) मरा और देवोंमें उत्पन्न हुआ। छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (६) विश्राम ले (७) विशुद्ध हो (८) उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ (९)। पश्चात् सम्यग्मिथ्यात्वको गया (१०) और मिथ्यात्वको प्राप्त होकर अन्तरको प्राप्त हुआ। चक्षुदर्शनीकी स्थितिप्रमाण परिभ्रमणकर अंन्तमें सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ (११)। इस प्रकार अन्तर लब्ध होगया। पुनः मिथ्यात्वको जाकर (१२) अचक्षुदर्शनियोंमें उत्पन्न हुआ। इस प्रकार बारह अन्तर्मुहूर्तोंसे कम चक्षुदर्शनीकी स्थिति चक्षुदर्शनी सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवका उत्कृष्ट अन्तर है। Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ६, २८६. असंजदसम्मादिट्टि पहुडि जाव अप्पमत्त संजदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, निरंतरं ॥ २८६ ॥ १३८ ] सुगममेदं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ २८७ ॥ कुदो ? एदेसिं सच्चेसिं पि अण्णगुणं गंतूण जहण्णकालेण अप्पिदगुणं गदाणमंतोमुहुर्त्ततरुवलंभा । उक्कस्सेण वे सागरोवमसहस्साणि देसृणाणि ॥ २८८ ॥ तं जधा- एक्को अचक्खुदंसणिडिदिमच्छिदो असण्णिपंचिंदियसम्मुच्छिमपञ्जत्तएसु उववण्णो । पंचहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो ( १ ) विस्तो ( २ ) विसुद्धो ( ३ ) भवणवासिय वाणवेंतरदेवेसु आउअं बंधिय ( ४ ) विस्संतो ( ५ ) कालं गदो देवेसु उबवण्णो । छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो ( ६ ) विस्संतो (७) विसुद्धो (८) उवसमसम्मत्तं पडिवण्णो (९)। उवसमसम्मत्तवाए छ आवलियाओ अस्थि त्ति सासणं गंतूणंतरिदो । मिच्छत्तं गंतूण असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक चक्षुदर्शनियोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ २८६ ॥ यह सूत्र सुगम है । उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है || २८७ ॥ क्योंकि, इन सभी गुणस्थानवर्ती जीवोंके अन्य गुणस्थानको जाकर पुनः जघन्य कालसे विवक्षित गुणस्थानको प्राप्त होनेपर अन्तर्मुहूर्तप्रमाण अन्तर पाया जाता है । उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो हजार सागरोपम है ॥ २८८ ॥ जैसे- अचक्षुदर्शनी जीवोंकी स्थितिमें विद्यमान एक जीव असंज्ञी पंचेन्द्रिय सम्मूच्छिम पर्याप्तक जीवोंमें उत्पन्न हुआ । पांचों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो ( १ ) विश्राम ले ( २ ) विशुद्ध हो (३) भवनवासी या वानव्यन्तरोंमें आयुको बांध कर ( ४ ) विश्राम ले (५) मरणको प्राप्त हुआ और देवोंमें उत्पन्न हुआ। वहां छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (६) विश्राम ले (७ विशुद्ध हो ( ८ ) उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ (९) । उपशमसम्यक्त्वके कालमें छह आवलियां अवशेष रहने पर सासादनको जाकर अन्तरको प्राप्त १ असंयतसम्यग्दृष्ट्याद्यप्रमत्तान्तानां नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । स. सि. १, ८, २ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १, ८. ३ उत्कर्षेण द्वे सागरोपमसहस्रे देशोने । स. सि. १, ८. Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, २८८.] अंतराणुगमे चक्खुदंसणि-अंतरपरूवणं चक्खुदंसणिट्ठिदि भमिय अवसाणे उवसमसम्मत्तं पडिवण्णो (१०)। लद्धमंतरं । पुणो सासणं गदो अचक्खुदंसणीसु उववण्णो । दसहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणिया सगद्विदी असंजदसम्मादिट्ठीणमुक्कस्संतरं । संजदासंजदस्स उच्चदे । तं जहा- एक्को अचक्खुदंसणिट्ठिदिमच्छिदो गम्भोवक्कंतियपंचिंदियपज्जत्तएसु उववण्णो । सण्णिपंचिंदियसम्मुच्छिमपज्जत्तएसु किण्ण उप्पादिदो ? ण, सम्मुच्छिमेसु पढमसम्मत्तुप्पत्तीए असंभवादो। ण च असंखेज्जलोगमणंत' वा कालमचक्खुदंसणीसु परिभमियाण वेदगसम्मत्तग्गहणं संभवदि, विरोहा । ण च थोवकालमच्छिदो चक्रवुदंसणिहिदीए समाणणक्खमा । तिष्णि पक्ख तिण्णि दिवस अंतोमुहुत्तेण य पढमसम्मत्तं संजमासंजमं च जुगवं पडिवण्णो (२)। पढमसम्मत्तद्धाए छावलियाओ अत्थि त्ति सासणं गदो । अंतरिदो मिच्छत्तं गंतूण सगढिदिं परिभमिय अपच्छिमे भवे कदकरणिज्जो होदूण संजमासंजमं पडिवण्णो (३)। लद्धमंतरं । अप्पमत्तो हुआ। पुनः मिथ्यात्वको जाकर चक्षुदर्शनकी स्थितिप्रमाण परिभ्रमण कर अन्तमें उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। इस प्रकार अन्तर लब्ध हुआ। पुनः सासादनको गया और अचक्षुदर्शनी जीवोंमें उत्पन्न हुआ। इस प्रकार दश अन्तर्मुहूतोंसे कम अपनी स्थिति चक्षुदर्शनी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर होता है। चक्षुदर्शनी संयतासंयतका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं । जैसे-अचक्षुदर्शनकी स्थितिमें विद्यमान एक जीव गर्भोपक्रान्तिक पंचेन्द्रिय पर्याप्तकोंमें उत्पन्न हुआ। शंका-उक्त जीवको संशी पंचेन्द्रिय सम्मूछिम पर्याप्तकोंमें क्यों नहीं उत्पन्न कराया ? समाधान नहीं, क्योंकि, सम्मूञ्छिम जीवों में प्रथमोपशमसम्यक्त्वकी उत्पत्ति असम्भव है। तथा असंख्यात लोकप्रमाण या अनन्तकाल तक अचक्षुदर्शनियोंमें परिभ्रमण किये हुए जीवोंके वेदकसम्यक्त्वका ग्रहण करना सम्भव नहीं है, क्योंकि, ऐसे जीवोंके सम्यक्त्वोत्पत्तिका विरोध है। और न अल्पकाल तक रहा हुआ जीव चक्षुदर्शनकी स्थितिके समाप्त करने में समर्थ है। पुनः वह जीव तीन पक्ष, तीन दिवस और अन्तर्मुहूर्तसे प्रथमोपशमसम्यक्त्व और संयमासंयमको एक साथ प्राप्त हुआ (२)। प्रथमोपशमसम्यक्त्वके कालमें छह आवलियां अवशिष्ट रह जाने पर सासादनको प्राप्त हुआ। पुनः अन्तरको प्राप्त हो मिथ्यात्वको जाकर अपनी स्थितिप्रमाण परिभ्रमणकर अन्तिम भवमें कृतकृत्यवेदक होकर संघमासंयमको प्राप्त हुआ (३) । इस प्रकार अन्तर लब्ध हुआ । पुनः अप्रमत्तसंयत (४) १ प्रतिषु ' असंखेज्जा लीगमणतं ' इति पाठः । Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ६, २८८. (४) पमत्तो (५) अप्पमत्तो (६)। उवरि छ अंतोमुहुत्ता । एवमडदालीसदिवेसहि वारसअंतोमुहुत्तेहि य ऊणा सगहिदी संजदासंजदुक्कस्संतरं । पमत्तस्स उच्चदे-एक्को अचक्खुदंसणिहिदिमच्छिदो मणुसेसु उववण्णो गब्भादिअट्ठवस्सेण उवसमसम्मत्तमप्पमत्तगुणं च जुगवं पडिवण्णो । (१)। पुणो पमत्तो जादो (२)। हेट्ठा पडिदूर्णतरिदो । चक्खुदंसणिट्ठिदिं परिभमिय अपच्छिमे भवे मणुसो जादो । कदकरणिज्जो होदण अंतोमुहुत्तावसेसे जीविए अप्पमत्तो होदूण पमत्तो जादो (३)। लद्धमंतरं । भूओ अप्पमत्तो (४)। उवरि छ अंतोमुहुत्ता । एवमट्टवस्सेहि दसअंतोमुहुतेहि ऊणिया सगढिदी पमत्तस्सुक्कस्संतरं । (अप्पमत्तस्स उच्चदे-) एक्को अचक्खुदंसणिद्विदिमच्छिदो मणुसेसु उववण्णो। गब्भादिअट्टवस्सेण उवसमसम्मत्तमप्पमत्तगुणं च जुगवं पडिवण्णो (१)। हेट्ठा पडिदूण अंतरिदो चक्खुदंसणिहिदि परिभामिय अपच्छिमे भवे मणुसेसु उववण्णो । कदकरणिज्जो होदण अंतोमुहुत्तावसेसे संसारे विसुद्धो अप्पमत्तो जादो (२)। लद्धमंतरं । तदो पमत्तो प्रमत्तसंयत (५) और अप्रमत्तसंयत हुआ (६)। इनमें ऊपरके छह अन्तर्मुहूर्त और मिलाये । इस प्रकार अड़तालीस दिवस और बारह अन्तर्मुहूतोंसे कम अपनी स्थिति चक्षुदर्शनी संयतासंयतोका उत्कृष्ट अन्तर है। चक्षुदर्शनी प्रमत्तसंयतका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं- अचक्षुदर्शनी जीवोंकी स्थितिमें विद्यमान एक जीव मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ और गर्भको आदि लेकर आठ वर्षसे उपशमसम्यक्त्व और अप्रमत्तगुणस्थानको एक साथ प्राप्त हुआ (१)। पुनः प्रमत्तसंयत हुआ (२) । पश्चात् नीचेके गुणस्थानोंमें गिरकर अन्तरको प्राप्त हुआ । चक्षुदर्शनीकी स्थितिप्रमाण परिभ्रमण करके अन्तिम भवमें मनुष्य हुआ। पश्चात् कृतकृत्यवेदक होकर जीवनके अन्तर्मुहूर्तकाल अवशेष रह जाने पर अप्रमत्तसंयत होकर प्रमत्तसंयत हुआ (३)। इस प्रकार अन्तर लब्ध होगया। पुनः अप्रमत्तसंयत हुआ (४)। इनमें ऊपरके छह अन्तर्मुहूर्त और मिलाये । इस प्रकार आठ वर्ष और दश अन्तर्मुहूर्तोंसे कम अपनी स्थिति चक्षुदर्शनी प्रमत्तसंयतका उत्कृष्ट अन्तर है।। चक्षुदर्शनी अप्रमत्तसंयतका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं- अचक्षुदर्शनी जीवोंकी स्थितिमें विद्यमान एक जीव मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ। गर्भको आदि लेकर आठ वर्षके द्वारा उपशमसम्यक्त्व और अप्रमत्तगुणस्थानको एक साथ प्राप्त हुआ (१)। फिर नीचे गिरकर अन्तरको प्राप्त हो अचक्षुदर्शनीकी स्थितिप्रमाण परिभ्रमणकर अन्तिम भवमें मनुष्यों में उत्पन्न हुआ। पुनः कृतकृत्यवेदकसम्यक्त्वी होकर संसारके अन्तर्मुहूर्तप्रमाण अवशिष्ट रहने पर विशुद्ध हो अप्रमत्तसंयत हुआ (२)। इस प्रकार अन्तर प्राप्त Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, २९१.] अंतराणुगमे चक्खुदंसणि-अंतरपरूवणं [१४१ (३) अप्पमत्तो (४) । उवरि छ अंतोमुहुत्ता । एवमट्टवस्सेहि दसअंतोमुहुत्तेहि उणिया चक्खुदंसणिट्ठिदी अप्पमत्तुक्कस्संतरं होदि । चदुण्हमुवसामगाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च ओघं ॥ २८९॥ सुगममेदं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ २९० ॥ एदं पि सुगमं । उक्कस्सेण वे सागरोवमसहस्साणि देसूणाणि ॥ २९१ ॥ तं जहा- एक्को अचक्खुदंसणिहिदिमच्छिदो मणुसेसु उववण्णो । गम्भादिअट्ठवस्सण उवसमसम्मत्तमप्पमत्तगुणं च जुगवं पडिवण्णो (१)। अंतोमुहुत्तेण वेदगसम्मत्तं गदो (२)। तदो अंतोमुहुत्तेण अणंताणुबंधिं विसंजोजिदो (३)। दंसणमोहणीयमुवसामिय (४) पमत्तापमत्तपरावत्तसहस्सं कादूण (५) उवसमसेडीपाओग्गअप्पमत्तो जादो (६)। अपुरो (७) अणियट्टी (८) सुहुमो (९) उवसंतो (१०) सुहुमो हुआ। पुनः प्रमत्तसंयत हो (३) अप्रमत्तसंयत हुआ (४)। इनमें ऊपरके छह अन्तर्मुहूर्त और मिलाये । इस प्रकार आठ वर्ष और दश अन्तर्मुहूतौसे कम चक्षुदर्शनीकी स्थिति ही चक्षुदर्शनी अप्रमत्तसंयतका उत्कृष्ट अन्तर होता है। चक्षुदर्शनी चारों उपशामकोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है ॥ २८९॥ यह सूत्र सुगम है। उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ।। २९० ॥ यह सूत्र भी सुगम है। उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो हजार सागरोपम है ॥ २९१॥ जैसे- अचक्षुदर्शनी जीवोंकी स्थितिमें विद्यमान एक जीव मनुष्यों में उत्पन्न हुआ। गर्भको आदि लेकर आठ वर्षके द्वारा उपशमसम्यक्त्व और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानको एक साथ प्राप्त हुआ (१)। अन्तर्मुहूर्तके पश्चात् वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ (२)। पुन: अन्तर्मुहर्तसे अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन किया (३)। पुनः दर्शनमोहनीयको उपशमा कर (४) प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थानसम्बन्धी सहस्रों परिवर्तनोंको करके (५) उपशमश्रेणीके योग्य अप्रमत्तसंयत हुआ (६)। पुनः अपूर्वकरण (७) अनिवृत्तिकरण (८) १ चतुर्णामुपशमकानां नानाजीवापेक्षया सामान्यवत् । स. सि. १, ८. २ एकजीव प्रति जघन्येनान्तर्मुहर्तः। स. सि. १,८. ३ उत्कर्षेण द्वे सागरोपमसहस्र देशोने । स. सि. १,८. Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ - छक्खंडागमे जीवट्ठाणं १, ६, २९२. (११) अणियट्टी (१२) अपुल्यो ( १३) हेट्ठा ओदरिय अंतरिदो चक्खुदंसणिहिदि परिभमिय अंतिमे भवे मणुसेसु उपवण्णो । कदकरणिज्जो होदूण अंतोमुहुत्तावसेसे संसारे विसुद्धो अप्पमत्तो जादो। सादासादबंधपरावत्तसहस्सं कादण उवसमसेडीपाओग्गअप्पमत्तो होदण अपुव्वुवसामगो जादो (१४)। लद्धमंतरं । तदो अणियट्टी (१५) सुहमो (१६) उवमंतो (१७) पुणो वि सुहुमो (१८) अणियट्टी (१९) अपुग्यो (२०) अप्पमत्तो (२१) पमत्तो (२२) अप्पमत्तो (२३) होदूग खबगसेढीमारूढो । उवरि छ अंतोमुहुत्ता । एवमट्ठवस्सेहि एगूणत्तीसअंतोमुहुत्तेहि य ऊणिया सगट्टिदी अपुव्यकरणुक्कस्संतरं । एवं चेव तिण्हमुवसामगाणं । णवरि सत्तावीस पंचवीस तेवीस अंतोमुहुत्ता ऊणा कायव्वा । चदुण्हं खवाणमोघं ॥२९२ ॥ सुगममेदं । .......................... सूक्ष्मसाम्पराय (९) उपशान्तमोह (१०) सूक्ष्मसाम्पराय (११) अनिवृत्तिकरण (१२) और अपूर्वकरणसंयत होकर (१३) तथा नीचे उतरकर अन्तरको प्राप्त हो चक्षुदर्शनीकी स्थितिप्रमाण परिभ्रमणकर अन्तिम भवमें मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ। वहांपर कृतकृत्यवेदकसम्यक्त्वी होकर संसारके अन्तर्मुहूर्त अवशिष्ट रह जाने पर विशुद्ध हो अप्रमत्तसंयत हुआ। वहांपर साता और असाता वेदनीयके बंध-परावर्तन-सहस्रोको करके: श्रेणीके योग्य अप्रमत्तसंयत होकर अपूर्वकरण उपशामक हुआ (१४)। इस प्रकार अन्तर प्राप्त होगया। तत्पश्चात् आनिवृत्तिकरण (१५) सूक्ष्मसाम्पराय (१६) उपशान्तकषाय (१७) पुनरपि सूक्ष्मसाम्पराय (१८) अनिवृत्तिकरण (१९) अपूर्वकरण (२०) अप्रमत्तसंयत (२१)प्रमत्तसंयत (२२) और अप्रमत्तसंयत होकर (२३) क्षपकश्रेणीपर चढ़ा। इनमें ऊपरके छह अन्तर्मुहूर्त और मिलाये। इस प्रकार आठ वर्ष और उनतीस अन्तर्मुहूतोंसे कम अपनी स्थिति चक्षुदर्शनी अपूर्वकरण उपशामकका उत्कृष्ट अन्तर है। इसी प्रकार चक्षुदर्शनी शेष तीन उपशामकोंका भी अन्तर जानना चाहिए । विशेषता यह है कि अनिवृत्तिकरण उपशामकके सत्ताईस अन्तर्मुहूर्त, सूक्ष्मसाम्पराय उपशामकके पच्चीस अन्तर्मुहूर्त और उपशान्तकषायके तेवीस अन्तर्मुहूर्त कम करना चाहिए। चक्षुदर्शनी चारों क्षपकोंका अन्तर ओधके समान है ॥ २९२ ॥ यह सूत्र सुगम है। १ चतुर्णा क्षपकाणां सामान्योक्तम् । स. सि. १, ८ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, २९७.] अंतराणुगमे किण्ह-णील-काउलेस्सिय-अंतरपरूवणं १.४३ अचक्खुदंसणीसु मिच्छादिहिप्पहुडि जाव खीणकसायवीदरागछदुमत्था ओघं ॥ २९३ ॥ कुदो ? ओघादो भेदाभावा । ओधिदसणी ओधिणाणिभंगों ॥ २९४ ॥ केवलदसणी केवलणाणिभंगो ॥ २९५ ॥ एदाणि दो वि सुत्ताणि सुगमाणि । एवं दंसणमग्गणा समत्ता । लेस्साणुवादेण किण्हलेस्सिय-णीललेस्सिय-काउलेस्सिएसु मिच्छादिहि-असंजदसम्मादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ २९६ ॥ सुगममेदं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ २९७ ॥ अचक्षुदर्शनियोंमें मिथ्यादृष्टिसे लेकर क्षीणकपायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीवोंका अन्तर ओघके समान है ॥ २९३ ॥ क्योंकि, ओघसे इनके अन्तरमें कोई भेद नहीं है। अवधिदर्शनी जीवोंका अन्तर अवधिज्ञानियोंके समान है ॥ २९४ ॥ केवलदर्शनी जीवोंका अन्तर केवलज्ञानियोंके समान है ॥ २९५ ॥ ये दोनों ही सूत्र सुगम हैं। इस प्रकार दर्शनमार्गणा समाप्त हुई। लेश्यामार्गणाके अनुवादसे कृष्णलेश्या, नीललेश्या और कापोत लेश्यावालोंमें मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ।। २९६ ॥ यह सूत्र सुगम है। उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥२९७॥ . .' १ अचक्षुर्दर्शनिषु मिथ्यादृष्टयादिक्षीणकषायान्तानां सामान्योक्तमन्तरम् । स. सि. १, ८.. २ अवधिदर्शनिनोऽवधिज्ञानिवत् । स. सि.१, ८. ३ केवलदर्शनिनः केवलज्ञानिवत् । स. सि. १,८. ४ लेश्यानुवादेन कृष्णनीलकापोतलेश्येषु मिथ्यादृष्टयसंयतसम्यग्दृष्ट यो नाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । स. सि. १,८. ... ५. एकजीवं,प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स..सि. १,.८, Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४.] छंक्खडागमे जीवट्ठाणं [१, ६, २९८. तं जहा- सत्तम-पंचम-पढमपुढविमिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठिणो किण्ह-णीलकाउलेस्सिया अण्णगुणं गंतूण थोवकालेण पडिणियत्तिय तं चेव गुणमागदा । लद्धं दोहं जहण्णंतरं । उक्कस्सेण तेत्तीसं सत्तारस सत्त सागरोवमाणि देसूणाणि ॥२९८ ॥ तं जहा- तिण्णि मिच्छादिद्विणो किण्ह-णील-काउलेस्सिया सत्तम-पंचम-तदियपुढवीसु कमेण उबवण्णा । छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदा (१) विस्संता (२) विसुद्धा (३) सम्मत्तं पडिवण्णा अंतरिदा अवसाणे मिच्छत्तं गदा । लद्धमंतरं (४)। मदा मणुसेसु उववण्णा । णवारि सत्तमपुढवीणेरइओ तिरिक्खाउअंबंधिय (५) विस्समिय (६) तिरिक्खेसु उववज्जदि त्ति घेत्तव्यं । एवं छ-चदु-चदुअंतोमुहुत्तेहि ऊणाणि तेत्तीससत्तारस-सत्त-सागरोवमाणि किण्ह-णील-काउलेस्सियमिच्छादिविउक्कस्संतरं होदि । एवमसंजदसम्मादिहिस्स वि वत्तव्यं । णवरि अट्ठ-पंच-पंचअंतोमुहुत्तेहि ऊणाणि तेत्तीस-सत्तारस जैसे- सातवीं पृथिवीके कृष्णलेश्यावाले, पांचवीं पृथिवीके नीललेझ्यावाले और प्रथम पृथिवीके कापोतलेश्यावाले मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि नारकी जीव अन्य गुणस्थानको जाकर अल्प कालसे ही लौटकर उसी गुणस्थानको प्राप्त हुए। इस प्रकार दोनों गुणस्थानोंका जघन्य अन्तर लब्ध हुआ। उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर क्रमशः कुछ कम तेतीस, सत्तरह और सात सागरोपम है ॥ २९८ ॥ जैसे- कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावाले तीन मिथ्यादृष्टि जीव क्रमसे सातवीं, पांचवीं और तीसरी पृथिवीमें उत्पन्न हुए । छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (१) विश्राम ले (२) विशुद्ध हो (३) सम्यक्त्वको प्राप्त कर अन्तरको प्राप्त हो आयुके अन्त में मिथ्यात्वको प्राप्त हुए । इस प्रकार अन्तर लब्ध हुआ (४)। पश्चात् मरण कर मनुष्योंमें उत्पन्न हुए । विशेषता यह है कि सातवीं पृथिवीका नारकी तिर्यंच आयुको बांध कर (५) विश्राम ले (६) तिर्यंचोंमें उत्पन्न होता है, ऐसा अर्थ ग्रहण करना चाहिए । इस प्रकार छह अन्तर्मुहूतौसे कम तेतीस सागरोपम कृष्णलेश्याका उत्कृष्ट अन्तर है। चार अन्तमुंहतोंसे कम सत्तरह सागरोपम नीललेश्याका उत्कृष्ट अन्तर है। तथा चार अन्तर्मुहूतोंसे कम सात सागरोपम कापोतलेश्याका उत्कृष्ट अन्तर होता है। इसी प्रकार असंयतसम्यग्दृष्टिका भी अन्तर कहना चाहिए । विशेषता यह है कि कृष्णलेश्यावाले असंयतसम्यग्दृष्टिका उत्कृष्ट अन्तर आठ अन्तर्मुहूतौसे कम तेतीस सागरोपम, नीललेश्यावाले असंयतसम्यग्दृष्टिका उत्कृष्ट अन्तर पांच अन्तर्मुहूतौसे कम सत्तरह १उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत्सप्तदशसप्तसागरोपमाणि देशोनानि । स. सि. १,८. Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, ३०१.] अंतराणुगमे किण्ह-णील-काउलेस्सिय-अंतरपरूवणं [१४५ सत्त-सागरोवमाणि उक्कस्संतरं । सासणसम्मादिहि-सम्मामिच्छादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च ओघ ॥ २९९ ॥ सुगममेदं। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, अंतोमुहत्तं ॥३०॥ एदं पि सुगमं । उक्कस्सेण तेत्तीसं सत्तारस सत्त सागरोवमाणि देसूणाणि ॥ ३०१॥ तं जहा- तिण्णि मिच्छादिट्टी जीवा सत्तम-पंचम-तदियपुढवीसु किण्ह-णील-काउलेस्सिया उववण्णा । हि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदा (१) विस्संता (२) विसुद्धा (३) उवसमसम्मत्तं पडिवण्णा (४) सासणं गदा । मिच्छत्तं गंतूणंतरिदा । अंतोमुहुत्तावसेसे सागरोपम और कापोतलेश्यावाले असंयतसम्यग्दृष्टिका उत्कृष्ट अन्तर पांच अन्तर्मुहूर्तोंसे कम सात सागरोपम होता है। उक्त तीनों अशुभलेश्यावाले सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है ॥२९९॥ यह सूत्र सुगम है। उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर क्रमशः पल्योपमका असंख्यातवां भाग और अन्तर्मुहूर्त है ॥ ३०॥ यह सूत्र भी सुगम है।। उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागरोपम, सत्तरह सागरोपम और सात सागरोपम है ॥ ३०१॥ जैसे- कृष्ण, नील और कापोतलेश्यावाले तीन मिथ्यादृष्टि जीव क्रमशः सातवीं, पांचवीं और तीसरी पृथिवीमें उत्पन्न हुए। छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (१) विश्राम ले (२) विशुद्ध हो (३) उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुए (४)। पुनः सासादनगुणस्थानको गये । पश्चात् मिथ्यात्वको जाकर अन्तरको प्राप्त हुए। पुनः जीवनके अन्तर्मुहूर्त १ सासादनसम्यग्दृष्टिसम्यग्मिथ्यादृष्टयो नाजीवापेक्षया सामान्यवत् । स. सि. १, ८. २ एकजीवं प्रति जघन्येन पल्योपमासंख्येयभागोऽन्तर्मुहूर्तश्च । स. सि. १,८. ३ उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत्सप्तदशसप्तसागरोपमाणि देशोनानि । स. सि. १,८. . Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ ] छक्खंडागमे जीवाणं [ १, ६, ३०२. जीव उवसमसम्मत्तं पडिवण्णा । सासणं गंतूण विदियसमए मदा मणुसेसु उववण्णा । वरि सत्तमपुढवीए सासणा मिच्छत्तं गंतूण ( ५ ) तिरिक्खे सुववज्र्ज्जति त्ति वत्तव्वं । एवं पंच-चदु-चदुअतो मुहुत्तेहि उणाणि तेत्तीस - सत्तारस - सत्त - सागरोवमाणि किण्हणीलकाउलेस्सियसासणुकस्संतरं होदि । एगसमओ अंतोमुहुत्तव्यंतरे पविट्ठोत्ति पुध ण उत्तो । एवं सम्मामिच्छादिट्ठिस्स वि । णवरि छह अंतोमुहुत्तेहि ऊणाणि तेत्तीस - सत्तारस- सत्तसागरोमाणि किve-णील- काउलेस्सियसम्मामिच्छादिट्टिउक्कस्संतरं । तेउलेस्सिय-पम्मलेस्सिएसु मिच्छादिट्टिअसंजदसम्मादिट्टीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ ३०२ ॥ सुगममेदं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहत्तं ॥ ३०३ ॥ तं जहा - चत्तारि जीवा मिच्छादिट्ठि सम्मादिट्टिणो तेउ-पम्मलेस्सिया अण्णगुणं अवशिष्ट रहने पर उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुए | पश्चात् सासादनगुणस्थानमें जाकर द्वितीय समयमें मरे और मनुष्योंमें उत्पन्न हुए । विशेषता यह है कि सातवीं पृथिवीके सासादनसम्यग्दृष्टि नारकी मिथ्यात्वको प्राप्त होकर ( ५ ) तिर्यचोंमें उत्पन्न होते हैं, ऐसा कहना चाहिए । इस प्रकार पांच, चार और चार अन्तर्मुहूर्तों से कम क्रमशः तेतीस, सत्तरह और सात सागरोपम कालप्रमाण कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावाले सासादनसम्यग्दृष्टियोंका उत्कृष्ट अन्तर होता है । सासादनगुणस्थानमें जाकर रहनेका एक समय अन्तर्मुहूर्तके ही भीतर प्रविष्ट है, इसलिए पृथक् नहीं कहा। इसी प्रकार तीनों अशुभलेश्यावाले सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका भी उत्कृष्ट अन्तर जानना चाहिए । विशेषता यह है कि यहांपर छह-छह अन्तर्मुहूतौसे कम तेतीस, सत्तरह और सात सागरोपमकाल क्रमशः कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावालोंका उत्कृष्ट अन्तर होता है । तेजोलेश्या और पद्मलेश्यावालोंमें मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ ३०२ ॥ यह सूत्र सुगम है। उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ ३०३ ॥ जैसे- तेजोलेश्या और पद्मलेश्यावाले मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि चार जीव १ तेजःपद्मलेश्य योर्मिथ्यादृष्टयसंयत सम्यग्दृष्टयोर्नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । स. सि. १,८. २ एंकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १, ८, Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, ३०५.] अंतराणुगमे तेउ-पम्मलेस्सिय-अंतरपरूवणं [१४७ गंतूण सव्वजहण्णकालेण पडिणियत्तिय तं चेव गुणमागदा । लद्धमंतरं । ___ उक्कस्सेण वे अट्ठारस सागरोवमाणि सादिरेयाणि ॥३०४॥ तं जहा- वे मिच्छादिविणो तेउ-पम्मलेस्सिया सादिरेय-वे-अट्ठारससागरोवमाउद्विदिएसु देवेसु उववण्णा । छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदा (१) विस्संता (२) विसुद्धा (३) सम्मत्तं घेत्तूणंतरिदा। सगढिदिं जीविय अवसाणे मिच्छत्तं गदा (४) । लद्धं सादिरेय-बे-अट्ठारससागरोवममेत्तरं । एवं सम्मादिहिस्स वि। णवरि पंचहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणियाओ सगहिदीओ अंतरं ।। सासणसम्मादिहि-सम्मामिच्छादिट्टीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च ओघं ॥ ३०५॥ सुगममेदं । अन्य गुणस्थानको जाकर सर्वजघन्य कालसे लौटकर उसी ही गुणस्थानको आगये। इस प्रकार अन्तर लब्ध हुआ। उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागरोपम और साधिक अट्ठारह सागरोपम है ॥ ३०४ ॥ जैसे-तेज और पद्म लेश्यावाले दो मिथ्यादृष्टि जीव साधिक दो सागरोपम और साधिक अट्ठारह सागरोपमकी आयुस्थितिवाले देवोंमें उत्पन्न हुए। छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (१) विश्राम ले (२) विशुद्ध हो (३) और सम्यक्त्वको ग्रहण कर अन्तरको प्राप्त हुये । पुनः अपनी स्थितिप्रमाण जीवित रहकर आयुके अन्तमें मिथ्यात्वको प्राप्त हुए (४)। इस प्रकार साधिक दो सागरोपमकाल तेजोलेश्यावाले मिथ्यादृष्टिका और साधिक अट्ठारह सागरोपमकाल पद्मलेश्यावाले मिथ्यादृष्टिका उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त होगया। इसी प्रकार तेज और पद्म लेश्यावाले असंयतसम्यग्दृष्टि जीवका भी अन्तर कहना चाहिए । विशेषता यह है कि पांच अन्तर्मुहूर्तोंसे कम अपनी अपनी स्थितिप्रमाण अन्तर . होता है। तेजोलेश्या और पद्मलेश्यावाले सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है ॥ ३०५॥ __ यह सूत्र सुगम है। १ उत्कर्षण सागरीपमे अष्टादश च सागरीपमाणि सातिरेकाणि । स. सि. १,८. २ सासादमसम्यग्दृष्टिसम्यग्मिथ्याष्टियो नाजीवापेक्षया सामान्यवत् । स. सि. १, 6. Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ६, ३०६. ___ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, अंतोमुहुत्तं ॥ ३०६॥ एवं पि सुगमं । उक्कस्सेण वे अट्ठारस सागरोवमाणि सादिरेयाणि ॥ ३०७ ॥ तं जहा- वे सासणा तेउ-पम्मलेस्सिया सादिरेय-वे-अट्ठारससागरोवमाउद्विदिएसु देवेसु उववण्णा । एगसमयमच्छिय विदियसमए मिच्छत्तं गंतूगंतरिदा। अवसाणे वे वि उवसमसम्मत्तं पडिवण्णा । पुणो सासणं गंतूण विदियसमए मदा। एवं सादिरेय-वे-अट्ठारससागरोवमाणि दुसमऊणाणि सासणुक्कस्संतरं होदि । एवं सम्मामिच्छादिहिस्स वि । णवरि छहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणियाओ उत्तद्विदीओ अंतरं ।। संजदासंजद-पमत्त-अप्पमत्तसंजदाणमंतरं केवचिरंकालादो होदि, णाणेगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ ३०८ ॥ उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर क्रमशः पल्योपमके असंख्यातवें भाग और अन्तर्मुहूर्त है ।। ३०६ ॥ यह सूत्र भी सुगम है। उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर क्रमशः साधिक दो सागरोपम और अट्ठारह सागरोपम है ॥ ३०७॥ जैसे- तेज और पद्म लेश्यावाले दो सासादनसम्यग्दृष्टि जीव साधिक दो सागरोपम और साधिक अट्ठारह सागरोपमकी आयुस्थितिवाले देवों में उत्पन्न हुए । वहां एक समय रहकर दूसरे समयमें मिथ्यात्वको जाकर अन्तरको प्राप्त हुए। आयुके अन्तमें दोनों ही उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुए। पश्चात् सासादनगुणस्थानको जाकर दूसरे समयमें मरे । इस प्रकार दो समय कम साधिक दो सागरोपम और साधिक अट्ठारह सागरोपम उक्त दोनों लेश्यावाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर होता है। इसी प्रकार उक्त दोनों लेश्यावाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका भी अन्तर जानना चाहिए। विशेषता यह है कि इनके छह अन्तर्मुहूतौसे कम अपनी उक्त स्थितियोंप्रमाण अन्तर होता है। तेज और पद्म लेश्यावाले संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना और एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ ३०८॥ १ एकजीवं प्रति जघन्येन पल्योपमासंख्येयभागोऽन्तर्मुहूर्तश्च । स. सि. १,८. २ उत्कर्षेण द्वे सागरोपमे अष्टादश च सागरोपमाणि सातिरेकाणि । स. सि. १, ८. ३ संयतासंयतप्रमत्ताप्रमत्तसंयतानां नानाजीवापेक्षया एकजीवापेक्षया च नास्त्यन्तरम् । स. सि. १,८. Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतराणुगमे सुक्कलेस्सिय-अंतरपरूवणं कुदो ? णाणाजीवपवाहयोच्छेदाभावा । एगजीवस्स वि, लेस्सद्धादो गुणद्धाए बहुत्तुवदेसा । सुक्कलेस्सिएसु मिच्छादिट्टि-असंजदसम्मादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥३०९ ॥ सुगममेदं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ ३१० ॥ तं जहा- वे देवा मिच्छादिट्ठि-सम्मादिट्ठिणो सुक्कलेस्सिया गुणंतरं गंतूण जहण्णेण कालेण अप्पिदगुणं पडिवण्णा । लद्धमंतोमुहुत्तमंतरं ।। उक्कस्सेण एक्कत्तीसं सागरोवमाणि देसूणाणि ॥३११ ॥ तं जहा- वे जीवा सुक्कलेस्सिया मिच्छादिट्ठी दवलिंगिणो एक्कत्तीससागरोवमिएसु देवेसु उववण्णा । छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदा (१) विस्संता (२) विसुद्धा (३) सम्मत्तं पडिवण्णा । तत्थेगो मिच्छत्तं गंतूगंतरिदो (४) अवरो सम्मत्तेणेव । अवसाणे क्योंकि, उक्त गुणस्थानवाले नाना जीवोंके प्रवाहका कभी विच्छेद नहीं होता है । तथा एक जीवकी अपेक्षा भी अन्तर नहीं है, क्योंकि, लेश्याके कालसे गुणस्थानका काल बहुत होता है, ऐसा उपदेश पाया जाता है। शुक्ललेश्यावालोंमें मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ ३०९॥ यह सूत्र सुगम है। उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥३१० ॥ जैसे- शुक्ललेझ्यावाले मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि दो देव अन्य गुणस्थानको जाकर जघन्य कालसे विवक्षित गुणस्थानको प्राप्त हुए। इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त कालप्रमाण अन्तर लब्ध होगया। उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागरोपम है ॥३११॥ जैसे- शुक्ललेश्यावाले दो मिथ्यादृष्टि द्रव्यलिंगी जीव इकतीस सागरोपमकी स्थितिवाले देवोंमें उत्पन्न हुए। छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (१) विश्राम ले (२) विशुद्ध हो (३) सम्यक्त्वको प्राप्त हुए। उनमेंसे एक मिथ्यात्वको जाकर अन्तरको १ शुक्ललेश्येषु मिथ्यादृष्टयसंयतसम्यग्दृष्टयो नाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । स. सि. १, ८. २ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः। स. सि. १, ८. ३ उत्कर्षेणैकत्रिंशत्सागरोपमाणि देशोनानि । स. सि. १,८. Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ६, ३१२. १५० ] जहाकमेण वे विमिच्छत्त-सम्मत्ताणि पडिवण्णा (५) । चदु- पंचअंतोमुहुत्तेहि ऊणाणि एक्कत्तीस सागरोवमाणि मिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीणमुक्कस्संतरं । सासणसम्मादिट्टि सम्मामिच्छादिट्टीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च ओघं ॥ ३१२ ॥ सुगममेदं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, अंतोमुहुर्त्तं ॥ ३१३ ॥ एदं पि सुगमं । उक्कस्सेण एक्कतीसं सागरोवमाणि देणाणि ॥ ३१४ ॥ एदं पि सुगमं । प्राप्त हुआ (४) । दूसरा जीव सम्यक्त्वके साथ ही रहा । आयुके अन्तमें यथाक्रमसे दोनों ही जीव मिथ्यात्व और सम्यक्त्वको प्राप्त हुए ( ५ ) । इस प्रकार चार अन्तमुर्तीसे कम इकतीस सागरोपमकाल शुक्ललेश्यावाले मिथ्यादृष्टिका उत्कृष्ट अन्तर है और पांच अन्तर्मुहूर्तोंसे कम इकतीस सागरोपमकाल असंयत सम्यग्दृष्टिका उत्कृष्ट अन्तर है। शुक्लेश्यावाले सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है ।। ३१२ ॥ यह सूत्र सुगम 1 उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर क्रमशः पल्योपमका असंख्यातवां भाग और अन्तर्मुहूर्त है ॥ ३१३ ॥ यह सूत्र भी सुगम है । उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागरोपम है ॥ ३१४ ॥ यह सूत्र भी सुगम है । २ सासादमसम्यग्दृष्टि सम्यग्मिथ्यादृष्टयोर्नान जीवापेक्षया सामान्यवत् । स. सि. १, ८. २ एकजीव प्रति जघम्येन पश्योपमासंख्येयभागोऽन्तर्मुहूर्तश्च । स. सि. १, ८. ३ उत्कर्षेणैकत्रिंशत्सागरोपमाणि देशोनामि । स. सि. १, ८. Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१५१ १, ६, ३१८.] अंतराणुगमे सुक्कलेस्सिय-अंतरपरूवणं संजदासंजद-पमत्तसंजदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणेगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ ३१५ ॥ कुदो ? णाणाजीवपवाहस्स वोच्छेदाभावा, एगजीवस्स लेस्सद्धादो गुणद्धाए बहुत्तुवदेसादो । अप्पमत्तसंजदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥३१६ ॥ सुगममेदं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ ३१७॥ तं जहा- एक्को अप्पमत्तो सुक्कलेस्साए अच्छिदो उवसमसेढिं पडिदूर्णतरिय सव्वजहण्णकालेण पडिणियत्तिय अप्पमत्तो जादो । लद्धमंतर । उक्कस्समंतोमुहुत्तं ॥ ३१८ ॥ शुक्ललेश्यावाले संयतासंयत और प्रमत्तसंयतोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना और एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ ३१५॥ क्योंकि, उक्त गुणस्थानवर्ती नाना जीवोंके प्रवाहका कभी व्युच्छेद नहीं होता है । तथा एक जीवकी अपेक्षा भी अन्तर नहीं है, क्योंकि, लेश्याके कालसे गुणस्थानका काल बहुत होता है, ऐसा उपदेश पाया जाता है। शुक्ललेश्यावाले अप्रमत्तसंयतोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ ३१६ ॥ यह सूत्र सुगम है। उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ ३१७ ॥ जैसे- शुक्ललेश्यामें विद्यमान कोई एक अप्रमत्तसंयत उपशमश्रेणीपर चढ़कर अन्तरको प्राप्त हो सर्वजघन्य कालसे लौटकर अप्रमत्तसंयत हुआ । इस प्रकार अन्तर प्राप्त होगया। उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ ३१८ ॥ १ संयतासंयतप्रमत्तसंयतयोस्तेजोलेश्यावत् । स. सि. १,८. २ अप्रमत्तसंयतस्य नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । स. सि. १.८. ३ एकजीवं प्रति जघन्यमुत्कृष्टं चान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १,८. Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ६, ३१९. एदस्स जहण्णभंगो। णवरि सबचिरेण कालेण उवसमसेढीदो ओदिण्णस्स वत्तव्यं । तिण्हमुवसामगाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ॥ ३१९ ॥ सुगममेदं । उक्कस्सेण वासपुधत्तं ॥ ३२०॥ एदं पि सुगमं । एगजीवं पडुच्च जहण्णण अंतोमुहत्तं ॥ ३२१ ॥ उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥ ३२२ ॥ एदेसिं दोण्हं सुत्ताणमत्थे भण्णमाणे खिप्प-चिरकालेहि उवसमसेटिं चढिय ओदिण्णाणं' जहण्णुक्कस्सकाला वत्तव्या । इसका अन्तर भी जघन्य अन्तरप्ररूपणाके समान है। विशेषता यह है कि सर्वदीर्घकालात्मक अन्तर्मुहूर्त द्वारा उपशमश्रेणीसे उतरे हुए जीवके उत्कृष्ट अन्तर कहना चाहिए। शुक्ललेश्यावाले अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानवर्ती तीनों उपशामक जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय अन्तर है ॥ ३१९ ॥ यह सूत्र सुगम है। शुक्ललेश्यावाले तीनों उपशामकोंका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है ॥ ३२० ॥ यह सूत्र भी सुगम है। उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ ३२१ ॥ उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ ३२२॥ इन दोनों सूत्रोंका अर्थ कहने पर क्षिप्र (लघु) कालसे उपशमश्रेणी पर चढ़कर उतरे हुए जीवोंके जघन्य अन्तर कहना चाहिए, तथा चिर (दीर्घ) कालसे उपशमश्रेणी पर चढ़कर उतरे हुए जीवोंके उत्कृष्ट अन्तर कहना चाहिए । १ त्रयाणामुपशमकानां नानाजीवापेक्षया सामान्यवत् । स. सि. १, ८. २ एकजीवं प्रति जघन्यमुत्कृष्टं चान्तर्मुहूर्तः। स. सि, १, ८. ३ प्रतिषु 'ओधिणाणं' इति पाठः। Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, ३२६.] अंतराणुगमे सुक्कलेस्सिय- अंतरपरूवणं [ १५३ उवसंत कसायवीदरागछदुमत्थाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीव पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ॥ ३२३ ॥ सुगममेदं । उक्कस्सेण वासपुधत्तं ॥ ३२४ ॥ एदं पि सुगमं । एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ ३२५ ॥ उवसंतादो उवरि उवसंतकसाएण पडिवज्जमाणगुणट्टाणाभावा, हेट्ठा ओदिण्णस्स वि लेस्संतरसंकंतिमंतरेण पुणो उवसंतगुणग्गहणाभावा । चदुण्हं खवगा ओघं ॥ ३२६ ॥ शुक्ललेश्यावाले उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थों का अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय अन्तर है ।। ३२३ ॥ यह सूत्र सुगम है | उक्त जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है ॥ ३२४ ॥ यह सूत्र भी सुगम I उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ ३२५ ॥ क्योंकि, उपशान्तकषाय गुणस्थानसे ऊपर उपशान्तकषायी जीवके द्वारा प्रतिपद्यमान गुणस्थानका अभाव है, तथा नीचे उतरे हुए जीवके भी अन्य लेश्याके संक्रमणके विना पुनः उपशान्तकषाय गुणस्थानका ग्रहण हो नहीं सकता है । विशेषार्थ — उपशान्तकषायगुणस्थानके अन्तरका अभाव बतानेका कारण यह है कि ग्यारहवें गुणस्थानसे ऊपर तो वह चढ़ नहीं सकता है, क्योंकि, वहां पर क्षपकोंका ही गमन होता है । और यदि नीचे उतरकर पुनः उपशमश्रेणीपर चढ़े, तो नीचेके गुणस्थानों में शुकुलेश्या से पीत पद्मादि लेश्याका परिवर्तन हो जायगा, क्योंकि, वहां पर एक लेश्याके कालसे गुणस्थानका काल बहुत बताया गया है। शुक्ललेश्यावाले चारों क्षपकोंका अन्तर ओघके समान है ॥ ३२६ ॥ १ उपशान्तकषायस्य नानाजीवापेक्षया सामान्यवत् । स. सि. १, ८. २ एकजीवं प्रति नास्त्यन्तरम् । स. सि. १, ८. ४ चतुर्णा क्षपकाणां सयोगकेवलिनामलेश्यानां च सामान्यवत् । स. सि. १, ८. ३ प्रतिषु ' लेस्संतरं ' इति पाठः । Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ ] छंक्खडागमे जीवद्वाणं सजोगिकेवली ओधं ॥ ३२७ ॥ दो वि सुत्ताणि सुगमाणि । एवं लेस्सामग्गणाः समत्ता । भवियाणुवादेण भवसिद्धिएसु मिच्छादिट्टि पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति ओघं ॥ ३२८ ॥ कुदो ? सव्वपयारेण ओघपरूवणादो भेदाभावा । अभवसिद्धियाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ ३२९ ॥ कुदो ? अभव्यपवाहवोच्छेदाभावा । एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ ३३० ॥ कुदो ? गुणंतरसंकंतीए तत्थाभावा । एवं भवियमग्गणा समत्ता | [ १, ६, ३२७. शुक्ललेश्यावाले सयोगिकेवलीका अन्तर ओधके समान है ॥ ३२७ ॥ ये दोनों सूत्र सुगम हैं । इस प्रकार लेश्यामार्गणा समाप्त हुई । भेद नहीं है । भव्यमार्गणाके अनुवाद से भव्यसिद्धिकों में मिथ्यादृष्टिसे लेकर अयोगिकेवली तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती भव्य जीवोंका अन्तर ओघके समान है || ३२८ ॥ क्योंकि, सर्व प्रकार ओघप्ररूपणासे भव्यमार्गणाकी अन्तरप्ररूपणा में कोई अभव्यसिद्धिक जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ! नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ ३२९ ॥ क्योंकि, अभव्य जीवोंके प्रवाहका कभी विच्छेद नहीं होता है । अभव्य जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ ३३० ॥ क्योंकि, अभव्यों में अन्य गुणस्थानके परिवर्तनका अभाव है । इस प्रकार भव्यमार्गणा समाप्त हुई । १ प्रतिषु ' लेस्समग्गणा ' इति पाठः । २ भव्यानुवादेन भव्येषु मिथ्यादृष्ट्याद्ययोग केवल्यन्तानां सामान्यवत् । स. सि. १,८. ३ अभव्यानां नानाजीवापेक्षया एंकजीवापेक्षया च नास्त्यन्तरम् । स. सि. १,८० Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, ३३४.] अंतराणुगमे सम्मादिट्टि-अंतरपरूवर्ण [१५५ सम्मत्ताणुवादेण सम्मादिट्ठीसु असंजदसम्मादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥३३॥ सुगममेदं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ ३३२ ॥ तं जहा- एगो असंजदसम्मादिट्ठी संजमासंजमगुणं गंतूणं सव्वजहण्णेण कालेण पुणो असंजदसम्मादिट्ठी जादो । लद्धमंतरं । उक्कस्सेण पुव्वकोडी देसूणं ॥ ३३३ ॥ तं जहा- एगो मिच्छादिट्ठी अट्ठावीससंतकम्मिओ पंचिंदियतिरिक्खसण्णिसम्मुच्छिमपज्जत्तएसु उववण्णो । छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो (१) विस्संतो (२) विसुद्धो (३) वेदगसम्मत्तं पडिवण्णो (४)। संजमासंजमगुणं गंतूणंतरिदो पुवकोडिं जीविय मदो देवो जादो । एवं चदुहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणिया पुषकोडी उक्कस्संतरं । संजदासंजदप्पहुडि जाव उवसंतकसायवीदरागछदुमत्था ओधिणाणिभंगो ॥ ३३४ ॥ सम्यक्त्वमार्गणाके अनुवादसे सम्यग्दृष्टियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ ३३१ ॥ यह सूत्र सुगम है। उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ ३३२ ॥ जैसे- एक असंयतसम्यग्दृष्टि जीव संयमासंयम गुणस्थानको प्राप्त होकर सर्वजघन्य कालसे पुनः असंयतसम्यग्दृष्टि होगया । इस प्रकार अन्तर प्राप्त हुआ। उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पूर्वकोटी है ॥३३३॥ जैसे- मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला एक मिथ्यादृष्टि जीव पंचेन्द्रिय संज्ञी सम्मूच्छिम पर्याप्तक तिर्यंचोंमें उत्पन्न हुआ। छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (१) विश्राम ले (२) विशुद्ध हो (३) वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ (४)। पुनः संयमासंयम गुणस्थानको जाकर अन्तरको प्राप्त हो पूर्वकोटी वर्षतक जीवित रह कर मरा और देव हुआ। इस प्रकार चार अन्तर्मुहूतोंसे कम पूर्वकोटी वर्ष असंयतसम्यग्दृष्टिका उत्कृष्ट अन्तर होता है। संयतासंयत गुणस्थानसे लेकर उपशान्तकषायवीतरागछमस्थ गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती सम्यग्दृष्टियोंका अन्तर अवधिज्ञानियोंके समान है ॥ ३३४ ।। १ प्रतिषु ' संजदप्पहुडि ' इति पाठः । Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ६, ३३५. - जधा ओधिणाणमग्गणाए संजदासंजदादीणमंतरपरूवणा कदा, तधा कादव्या, पत्थि एत्थ कोइ विसेसो। चदुण्हं खवगा अजोगिकेवली ओघं ॥ ३३५॥ सजोगिकेवली ओघं ॥ ३३६ ॥ दो वि सुत्ताणि सुगमाणि । खइयसम्मादिट्ठीसु असंजदसम्मादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णस्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ ३३७ ॥ सुगममेदं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहत्तं ॥ ३३८ ॥ तं जहा- एक्को असंजदसम्मादिट्ठी अण्णगुणं गंतूण सव्वजहण्णकालेण असंजदसम्मादिट्ठी जादो । लद्धमंतरं । - उक्कस्सेण पुवकोडी देसूणं ॥ ३३९ ॥ जिस प्रकारसे अवधिज्ञानमार्गणामें संयतासंयत आदिकोंके अन्तरकी प्ररूपणा की है, उसी प्रकार यहां पर भी करना चाहिए, क्योंकि, उससे यहां पर कोई विशेषता नहीं है। सम्यग्दृष्टि चारों क्षपक और अयोगिकेवलियोंका अन्तर ओघके समान है ॥ ३३५ ॥ सम्यग्दृष्टि सयोगिकेवलीका अन्तर ओघके समान है ॥ ३३६ ॥ ये दोनों ही सूत्र सुगम है। क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ ३३७ ॥ यह सूत्र सुगम है। - उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ ३३८ ।। जैसे- एक असंयतसम्यग्दृष्टि जीव अन्य (संयतासंयतादि) गुणस्थानको जाकर सर्वजघन्य कालसे पुनः असंयतसम्यग्दृष्टि होगया। इस प्रकार अन्तर लब्ध हुआ। उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पूर्वकोटी वर्ष है ॥ ३३९ ॥ १ सम्यक्त्वानुवादेन क्षायिकसम्यग्दृष्टिष्वसंयतसम्यग्दृष्टे नाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् स. सि. १, ८. २ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १,८. ३ उत्कर्षेण पूर्वकोटी देशोना । स. सि. १,८. Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, ३४२. ] अंतराणुगमै खइयसम्मादिद्वि-अंतरपरूवणं [१५७ तं जहा- एक्को पुवकोडाउएसु मणुसेसुत्रवजिय गम्भादिअट्ठवस्सिओ जादो । दंसणमोहणीयं खविय खड्यसम्मादिट्ठी जादो (१)। अंतोमुहुत्तमच्छिदूण (२) संजमासंजमं संजमं वा पडिवज्जिय पुनकोडिं गमिय कालं गदो देवो जादो । अदुवस्सेहि विअंतोमुहुत्तेहि य ऊणिया पुधकोडी अंतरं । ___ संजदासंजद-पमत्तसंजदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ ३४०॥ सुगममेदं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ ३४१ ॥ एदं पि सुगमं । उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि ॥ ३४२ ॥ तं जहा- एक्को पुब्बकोडाउगेसु मणुसेसु उबवण्णो । गम्भादिअहवस्साणमुवरि अंतोमुहुरोण (१) खइयं पट्टविय (२ ) विस्समिय (३) संजमासंजमं पडिवजिय (४) जैसे- एक जीव पूर्वकोटीकी आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न होकर गर्भसे लेकर आठ वर्षका हुआ और दर्शनमोहनीयका क्षय करके क्षायिकसम्यग्दृष्टि होगया (१)। वहां अन्तर्मुहूर्त रह करके (२) संयमासंयम या संयमको प्राप्त होकर और पूर्वकोटी वर्ष बिताकर मरणको प्राप्त हो देव हुआ। इस प्रकार आठ वर्ष और दो अन्तर्मुहूतौसे कम पूर्वकोटी वर्ष असंयत क्षायिकसम्यग्दृष्टिका उत्कृष्ट अन्तर है।। क्षायिकसम्यग्दृष्टि संयतासंयत और प्रमत्तसंयत जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ ३४॥ यह सूत्र सुगम है। उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूते है ॥ ३४१॥ . यह सूत्र भी सुगम है। उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागरोपम है ॥३४२॥ जैसे- एक जीव पूर्वकोटि वर्षकी आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ । गर्भको आदि : लेकर आठ वर्षों के पश्चात् अन्तर्मुहूर्तसे (१) क्षायिकसम्यक्त्वका प्रस्थापनकर (२); विश्राम ले (३) संयमासंयमको प्राप्त कर (४) संयमको प्राप्त हुआ। संयमसहित ; १ संयतासंयतप्रमत्ताप्रमत्तसंयतानां नानाजीवापेक्षया नास्त्यातरम् । स. सि. १,८. २ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १, ८. ३ उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि सातिरेकाणि । स. सि. १,८. प्रतिषु 'पट्टमियं' इति पाठः । dho Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाण [ १, ६, ३४२. संजमं पडिवण्णो । पुवकोडिं गमिय मदो समऊणतेत्तीससागरोवमाउढिदिएसु उववण्णो । तदो चुदो पुचकोडाउएसु मणुसेसुववण्णो । थोवावसेसे जीविए संजमासंजमं गदो (५)। तदो अप्पमत्तादिणवहि अंतीमुहुत्तेहि सिद्धो जादो । अदुवस्सहि चोदसअंतोमुहुत्तेहि य ऊणदोपुधकोडीहिं सादिरेयाणि तेत्तीसं सागरोवमाणि उक्कस्संतरं संजदासंजदस्स । पमत्तस्स उच्चदे- एक्को पमत्तो अप्पमत्तो (१) अपुरो (२) अणियट्टी (३) सुहुमो ( ४ ) उवसंतो (५) पुणो वि सुहुमो (६) अणियट्टी (७) अपुव्यो (८) अप्पमत्तो (९) अद्धाखएण कालं गदो । समऊणतेत्तीससागरोवमाउडिदिएसु देवेसु उबवण्णो । तदो चुदो पुव्यकोडाउएसु मणुसेसु उववण्णो। अंतोमुहुत्तावसेसे जीविए पमत्तो जादो । लद्धमंतरं (१) । तदो अप्पमत्तो (२) । उवरि छ अंतोमुहुत्ता । अंतरस्स बाहिरा अट्ठ अंतोमुहुत्ता, अंतरस्स अब्भंतरिमा वि णव, तेणेगंतोमुहुत्तब्भाहियपुवकोडीए सादिरेयाणि तेत्तीसं सागरोवमाणि उक्कस्संतरं ।। पूर्वकोटीकाल बिताकर मरा और एक समय कम तेतीस सागरोपमकी आयुस्थितिवाले देवोंमें उत्पन्न हुआ। वहांसे च्युत हो पूर्वकोटीकी आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ। जीवनके अल्प अवशेष रह जाने पर संयमासंयमको प्राप्त हुआ (५)। इसके पश्चात् अप्रमत्तादि गुणस्थानसम्बन्धी नौ अन्तर्मुहूतासे (श्रेण्यारोहण करता हुआ) सिद्ध होगया । इस प्रकार आठ वर्ष और चौदह अन्तर्मुहूतोंसे कम दो पूर्वकोटियोंसे साधिक तेतीस सागरोपमकाल क्षायिकसम्यग्दृष्टि संयतासंयतका उत्कृष्ट अन्तर होता है । क्षायिकसम्यग्दृष्टि प्रमत्तसंयतका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं- एक क्षायिकसम्यग्दृष्टि प्रमत्तसंयत जीव अप्रमत्तसंयत (१) अपूर्वकरण (२) अनिवृत्तिकरण (३) सूक्ष्मसाम्पराय (४) उपशान्तकषाय (५) पुनः सूक्ष्मसाम्पराय (६) अनिवृत्तिकरण (७) अपूर्वकरण (८) अप्रमत्तसंयत (९) होकर (गुणस्थान और आयुके) कालक्षयसे मरणको प्राप्त हो एक समय कम तेतीस सागरोपमकी आयुस्थितिवाले देवों में उत्पन्न हुआ। पुनः वहांसे च्युत होकर पूर्वकोटीकी आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ। वहां जीवनके अन्तर्मुहूर्त अवशिष्ट रह जाने पर प्रमत्तसंयत हुआ। इस प्रकार अन्तर लब्ध होगया (१)। पश्चात् अप्रमत्तसंयत हुआ (२)। इनमें ऊपरके छह अन्तर्मुहूर्त और मिलाए । अन्तरके बाहरी आठ अन्तर्मुहूर्त हैं और अन्तरके भीतरी नौ अन्तर्मुहूर्त हैं, इसलिए नौसे आठके घटा देने पर शेष बचे हुए एक अन्तर्मुहूर्तसे अधिक पूर्वकोटीसे साधिक तेतीस सागरोपम क्षायिकसम्यग्दृष्टि प्रमत्तसंयतका उत्कृष्ट अन्तर होता है। १ प्रतिषु 'माहिए ' इति पाठः । Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, ३४२.] अंतराणुगमे खइयसम्मादिट्ठि-अंतरपरूवणं [१५९ अधवा अंतरस्सब्भंतराओ दो अप्पमत्तद्धाओ, तासिं बाहिरिया एक्का पमत्तद्धा सुद्धा । अंतरमंतराओ छ उवसामगद्धाओ, तासिं बाहिरियाओ तिणि खवगद्धाओ सुद्धाओ । अंतरभंतरिमाए उवसंतद्धाए एक्किकिस्से खवगद्धाए अद्धं सुद्धं । अवसेसा अट्ठा अंतोमुहुत्ता। तेहि ऊणियाए पुचकोडीए सादिरेयाणि तेत्तीसं सागरोवमाणि पमत्तस्सुक्कस्संतरं । __ अप्पमत्तस्स उच्चदे- एक्को अप्पमत्तो खइयसम्मादिट्ठी अपुव्वो (१) अणियट्टी (२) सुहुमो (३) उवसंतो (४) पुणो वि सुहुमो (५) अणियट्टी (६) अपुग्यो होदूण (७) कालं गदो समऊणतेत्तीससागरोवमाउट्ठिदिएमु देवेसुववण्णो । तदो चुदो पुवकोडाउएमु मणुसेसु उववण्णो, अंतोमुहुत्तावसेसे संसारे अप्पमत्तो जादो । लद्धमंतरं (१)। तदो पमत्तो (२) पुणो अप्पमत्तो (३)। उवरि छ अंतोमुहुत्ता । अंतरस्स अन्भंतरिमाओ छ उवसामगद्धाओ बाहिििल्लयासु तिसु खवगद्धासु सुद्धाओ । अब्भं ___ अथवा, अन्तरके आभ्यन्तरी दो अप्रमत्तकाल हैं और उनके बाहरी एक प्रमत्तकाल शुद्ध है। (अतएव घटाने पर शून्य शेष रहा, क्योंकि, अप्रमत्तसंयतके कालसे प्रमत्तसंयतका काल दूना होता है।) तथा अन्तरके भीतरी छह उपशामककाल हैं, और उनके बाहरी तीन क्षपककाल शुद्ध हैं। (अतएव घटा देने पर शेष कुछ नहीं रहा, क्योंकि उपशमश्रेणीके कालसे क्षपकश्रेणीका काल दुगुना होता है।) अन्तरके भीतरी उपशामक कालमेंसे एक क्षपककालके आधा घटाने पर क्षपककालका आधा शेष रहता है । इस प्रकार सब मिलाकर साढ़े तीन अन्तर्मुहूर्त अवशेष रहे। उन साढ़े तीन अन्तर्मुहूतौसे कम पूर्वकोटसेि साधिक तेतीस सागरोपमकाल क्षायिकसम्यग्दृष्टि प्रमत्तसंयतका उत्कृष्ट अन्तर होता है। क्षायिकसम्यग्दृष्टि अप्रमत्तसंयतका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं- एक अप्रमत्तसंयत क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव अपूर्वकरण (१) अनिवृत्तिकरण (२) सूक्ष्मसाम्पराय (२) उपशान्तकषाय (४) होकर पुनरपि सूक्ष्मसाम्पराय (५) अनिवृत्तिकरण (६) अपूर्वकरण (७) होकर मरणको प्राप्त हुआ और एक समय कम तेतीस सागरोपमकी आयुस्थितिवाले देवोंमें उत्पन्न हुआ। वहांसे च्युत हो पूर्वकोटीकी आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ और संसारके अन्तर्मुहूर्त अवशिष्ट रह जाने पर अप्रमत्तसंयत हुआ । इस प्रकार अन्तर लब्ध होगया (१)। पश्चात् प्रमत्तसंयत (२) पुनः अप्रमत्तसंयत (३) हुआ । इनमें ऊपरके छह अन्तर्मुहूर्त और मिलाये। अन्तरके आभ्यन्तरी छह उपशामककाल हैं और बाहरी तीन क्षपककाल हैं, अतएव घटा देने पर शेष कुछ नहीं रहा। १ प्रतिषु ' लदं ' इति पाठः । Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ६, ३४३. तरिमाए उवसंतद्धाए खबगद्धाए अद्धं सुद्धं । अवसेसा एअद्धछ?अंतोमुहुत्ता । एदेहि ऊणपुधकोडीए सादिरेयाणि तेत्तीसं सागरोवमाणि अप्पमत्तुक्कस्संतरं । चदुण्हमुवसामगाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ॥ ३४३॥ सुगममेदं । उक्कस्सेण वासपुधत्तं ॥ ३४४ ॥ एवं पि सुगमं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ ३४५ ॥ एदं पि अवगदत्थं । उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि ॥ ३४६ ॥ तं जहा- एक्को पुव्वकोडाउएसु मणुसेसु उववण्णो । अट्ठवस्सेहि अंतोमुहुत्तब्भहिएहि (१) अप्पमत्तो जादो (२)। पमत्तापमत्तपरावत्तसहस्सं कादूण तम्हि चेव अन्तरके भीतरी उपशान्तकालमेंसे क्षपककालका आधा घटाने पर आधा काल शेष रहा। अवशिष्ट साढ़े पांच अन्तर्मुहूर्त रहे । उनसे कम पूर्वकोटीसे साधिक तेतीस सागरोपमकाल क्षायिकसम्यग्दृष्टि अप्रमत्तसंयतका उत्कृष्ट अन्तर होता है। क्षायिकसम्यग्दृष्टि चारों उपशामकोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय अन्तर है ॥ ३४३ ॥ यह सूत्र सुगम है। उक्त जीवों में उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है ॥ ३४४ ॥ यह सूत्र भी सुगम है। उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ ३४५॥ इस सूत्रका भी अर्थ ज्ञात है। उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागरोपम है ॥ ३४६ ॥ जैसे- एक जीव पूर्वकोटीकी आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ। अन्तर्मुहूर्तसे अधिक आठ वर्षों के द्वारा (१) अप्रमत्तसंयत हुआ (२)। पुनः प्रमत्त और अप्रमत्तसंयतसंबंधी सहस्रों परिवर्तनोंको करके उसी कालमें क्षायिकसम्यक्त्वको भी प्रस्थापनकर (३) १ प्रतिषु 'चट्ठ' इति पाठः। २ चतुर्णामुपशमकानां नानाजीवापेक्षया सामान्यवत् । स. सि. १, ८. ३ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १, ८. ४ उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि सातिरेकाणि । स. सि. १, ८. Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, ३४८.] अंतराणुगमे खइयसम्मादिट्ठि-अंतरपरूवणं खइयं पट्टविय (३) उवसमसेडीपाओग्गविसोहीए विसुद्धो (४) अपुग्यो (५) अणियट्टी (६) सुहुमो (७) उवसंतो (८) पुणो सुहुमो (९) अणियट्टी (१०) अपुग्यो जादो (११) अंतरिदो । पुवकोडिं संजममणुपालिय तेत्तीससागरोवमाउट्ठिदिगेसु देवेसु उववण्णो । तदो चुदो पुयकोडाउगेसु मणुसेसु उववण्णो। अंतोमुहुत्तावसेसे जीविए अपुरो जादो (१२) । लद्धमंतरं । तदो अणियट्टी (१३) सुहुमो (१४) उवसंतो (१५) पुणो सुहुमो (१६) अणियट्टी (१७) अपुबो जादो (१८)। उवरि अप्पमत्तादिणवअंतोमुहुत्तेहि सिद्धिं गदो । एवमट्ठवस्सेहि सत्तावीसअंतोमुहुत्तेहि ऊणदोपुव्वकोडीहि सादिरेयाणि तेत्तीसं सागरोवमाणि अंतरं । एवं चेव तिण्हमुवसामगाणं । णवरि पंचवीस तेवीस एक्कवीस मुहुत्ता ऊणा कादव्वा । चदुण्हं खवा अजोगिकेवली ओघं ॥ ३४७ ॥ सजोगिकेवली ओघं ॥३४८॥ उपशमश्रेणीके योग्य विशुद्धिसे विशुद्ध हो (४) अपूर्वकरण (५) अनिवृत्तिकरण (६) सूक्ष्मसाम्पराय (७) उपशान्तकषाय (८) हो, पुनः सूक्ष्मसाम्पराय (९) अनिवृत्तिकरण (१०) अपूर्वकरण हुआ (११) और अन्तरको प्राप्त होगया। पुनः पूर्वकोटि तक संयमको परिपालनकर तेतीस सागरोपमकी आयुस्थितिवाले देवोंमें उत्पन्न हुआ। वहांसे च्युत हो पूर्वकोटीकी आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ। जीवनके अन्तर्मुहूर्त अवशिष्ट रह जाने पर अपूर्वकरण हुआ (१२)। इस प्रकार अन्तर लब्ध होगया। पुनः अनिवृत्तिकरण (१३) सूक्ष्मसाम्पराय (१४) उपशान्तकषाय (१५) पुनः सूक्ष्मसाम्पराय (१६) अनिवृत्तिकरण (१७) और अपूर्वकरण (१८) हुआ। पश्चात् ऊपरके अप्रमत्तादि गुणस्थानसम्बन्धी नौ अन्तर्मुहूर्तोंसे सिद्धिको प्राप्त हुआ। इस प्रकार आठ वर्षोंसे और सत्ताईस अन्तर्मुहूताँसे कम दो पूर्वकोटियोंसे साधिक तेतीस सागरोपमकाल क्षायिकसम्यग्दृष्टि अपूर्घकरणसंयतका उत्कृष्ट अन्तर है । इसी प्रकार शेष तीन उपशामकोंका भी अन्तर जानना चाहिए । विशेषता यह है कि अनिवृत्तिसंयत उपशामकके पच्चीस अन्तर्मुहूर्त, सूक्ष्मसाम्पराय उपशामकके तेवीस अन्तर्मुहूर्त और उपशान्तकषायके इक्कीस अन्तर्मुहूर्त कम करना चाहिए। क्षायिकसम्यग्दृष्टि चारों क्षपक और अयोगिकेवलीका अन्तर ओघके समान है॥ ३४७॥ क्षायिकसम्यग्दृष्टि सयोगिकेवलीका अन्तर ओघके समान है ॥ ३४८ ॥ १ शेषाणां सामान्यवत् । स. सि. १, ८. Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं दाणि दो वित्ताणि सुगमाणि । वेद सम्मादिट्ठीसु असंजदसम्मादिट्टीणं सम्मादिट्टिभंगों ॥ ३४९ ॥ सम्मत्तमग्गणाए ओघम्हि जधा असंजदसम्मादिट्ठीणमंतरं परूविदं तथा एत्थ विविदव्वं । [ १, ६, ३४९. संजदा संजदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ ३५० ॥ सुगममेदं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोहुतं ॥ ३५१ ।। एदं पि सुगमं । उक्कस्सेण छावट्टि सागरोवमाणि देणाणि ॥ ३५२ ॥ ये दोनों ही सूत्र सुगम हैं । वेदकसम्यग्दृष्टियों में असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अन्तर सम्यग्दृष्टिसामान्यके समान है ॥ ३४९ ॥ जिस प्रकार से सम्यक्त्वमार्गणाके ओघ असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अन्तर कहा है, उसी प्रकारसे यहां पर भी कहना चाहिए । वेदकसम्यग्दृष्टियोंमें संयतासंयतोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ ३५० ॥ यह सूत्र सुगम है । उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ ३५१ ॥ यह सूत्र भी सुगम है । उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छ्यासठ सागरोपम ॥ ३५२ ॥ १ क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टिष्वसंयत सम्यग्दृष्टेर्नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । एंकजीवं प्रति जघन्येनान्तमुहूर्तः । उत्कर्षेण पूर्वकोटी देशोना । स. सि. १, ८. २ संयतासंयतस्य नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । स. सि. १, ८. ३ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १, ८. ४ उत्कर्षेण षट्षष्टिसागरोपमाणि देशोनानि । स. सि. १,८. Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, ३५३.] अंतराणुगमे वेदगसम्मादिट्टि-अंतरपरूवणं [१६३ तं जहा- एक्को मिच्छादिट्ठी वेदगसम्मत्तं संजमासंजमं च जुगवं पडिवण्णो । अंतोमुहुत्तमच्छिय संजमं पडिवण्णो अंतरिदो । जत्तियं कालं संजमासंजमेण संजमेण च अच्छिदो तेत्तियमेत्तेणूणतेत्तीससागरोवमाउट्ठिदिदेवेसु उववण्णो । तदो चुदो मणुसेसु उववण्णो । तत्थ जत्तियं कालं असंजमेण संजमेण वा अच्छदि, पुणो सग्गादो मणुसगदिमागंतूण जं वासपुधत्तादिकालमच्छिस्सदि तेहि दोहि वि कालेहि ऊणतेत्तीससागरोवमआउहिदिएसु देवेसु उववण्णो । तदो चुदो मणुसो जादो । वे अंतोमुहुत्तावसेसे वेदगसम्मत्तकाले परिणामपच्चएण संजमासंजमं पडिवण्णो । लद्धमंतरं । तदो अंतोमुहुत्तेण दसणमोहणीयं खविय खइयसम्मादिट्ठी जादो । आदिल्लमेक्कं अंतिल्ला दुवे अंतोमुहुत्ता, एदेहि तीहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणाणि छावट्ठिसागरोवमाणि संजदासंजदुक्कस्संतरं । पमत्त-अप्पमत्तसंजदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ ३५३ ॥ सुगममेदं । जैसे- एक मिथ्यादृष्टि जीव वेदकसम्यक्त्व और संयमासंयमको एक साथ प्राप्त हुआ । अन्तर्मुहूर्त रह कर पुनः संयमको प्राप्त हो अन्तरको प्राप्त हुआ। पुनः मरणकर जितने काल संयमासंयम और संयमके साथ रहा था उतने ही कालसे कम तेतीस सागरोपमकी आयुस्थितिवाले देवोंमें उत्पन्न हुआ। वहांसे च्युत हो मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ। वहां पर जितने काल असंयमके अथवा संयमके साथ रहा है और स्वर्गसे मनुष्यगतिमें आकर जितने वर्षपृथक्त्वादि काल असंयम अथवा संयमके साथ रहेगा उन दोनों ही कालोसे कम तेतीस सागरोपमकी आयुस्थितिवाले देवोंमें उत्पन्न हुआ। वहांसे च्युत हो मनुष्य हुआ। इस प्रकार वेदकसम्यक्त्वके कालमें दो अन्तर्मुहूर्त अवशिष्ट रह जाने पर परिणामोंके निमित्तसे संयमासंयमको प्राप्त हुआ। तब अन्तर लब्ध हुआ। पुनः अन्तर्मुहूर्तसे दर्शनमोहनीयका क्षपणकर क्षायिकसम्यग्दृष्टि होगया। इस प्रकार आदिका एक और अन्तके दो अन्तर्मुहूर्त, इन तीन अन्तर्मुहूतासे कम छयासठ सागरोपमकाल वेदकसम्यग्दृष्टि संयतासंयतका उत्कृष्ट अन्तर है। वेदकसम्यग्दृष्टि प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयतोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ ३५३ ॥ यह सूत्र सुगम है। १ मप्रतौ 'दुमे' इति पाठः। २ प्रमचाप्रमत्सयतयोनानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । स. सि. १, .. Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे जीवद्वाणं एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ ३५४ ॥ एदं पि सुगमं । उक्करण तेत्तीस सागरोवमाणि सादिरेयाणि ॥ ३५५ ॥ १६४] तं जहा- एक्को पत्तो अप्पमत्तो होतॄण अंतोमुहुत्तमच्छिय तेत्तीस सागरोवमाउडिदिए देवसुववण्णो । तदो चुदो पुव्वकोडाउएसु मणुसेसुववण्णो । अंतोमुहुत्तासेसे संसारे पत्तो जादा । लद्धमंतरं । खइयं पट्टविय खवगसेडीपाओग्गअप्पमत्तो होदूण (२) खरगसेढिमारूढो अपुव्वादि छअंतोमुहुत्तेहि णिव्बुदो | अंतरस्स आदिल्लमेक्कमंतोमुत्तं अंतरबाहिरे अअंतोमुहुत्ते सोहिदे अवसेसा सत्त अंतोमुहुत्ता । एदेहि ऊणपुन्त्रकोडीए सादिरेयाणि तेत्तीसं सागरोवमाणि पमत्तसंजदुक्कस्संतरं । अप्पमत्तस्स उच्चदे- एक्को अप्पमत्तो पत्तो होदूण अंतोमुहुत्तमच्छिय ( १ ) समऊणतेत्तीससागरोवमाउट्ठदिदेवेसु उववण्णो । तदो चुदो पुत्रकोडाएस मणुसेसु उव [१, ६, ३५४. उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है || ३५४ || यह सूत्र भी सुगम 1 उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागरोपम है ॥ ३५५ ॥ जैसे- एक प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत हो अन्तर्मुहूर्त रहकर तेतीस सागरोपमकी आयुस्थितिवाले देवोंमें उत्पन्न हुआ। वहांसे च्युत हो पूर्वकोटीकी आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ । संसारके अन्तर्मुहूर्तप्रमाण अवशिष्ट रह जाने पर प्रमत्तसंयत हुआ । इस प्रकार अन्तर लब्ध हुआ । पुनः क्षायिकसम्यक्त्वको प्रस्थापितकर क्षपकश्रेणीके योग्य अप्रमत्तसंयत हो (२) क्षपकश्रेणीपर चढ़ा और अपूर्वकरणादि छह अन्तर्मुहूर्तों से निर्वाणको प्राप्त हुआ । अन्तरके आदिके एक अन्तर्मुहूर्तको अन्तरके बाहिरी आठ अन्तर्मुहूतों में से कम कर देने पर अवशिष्ट सात अन्तर्मुहूर्त रहते हैं, इनसे कम पूर्वकोटीसे साधिक तेतीस सागरोपमकाल प्रमत्तसंयतका उत्कृष्ट अन्तर है । वेदकसम्यग्दृष्टि अप्रमत्तसंयतका अन्तर कहते हैं- एक अप्रमत्ससंयत जीव, प्रमत्तसंयत हो अन्तर्मुहूर्त रहकर ( १ ) एक समय कम तेतीस सागरोपमकी आयुस्थितिवाले देवों में उत्पन्न हुआ। वहांसे च्युत हो पूर्वकोटीकी आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ । १ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १, ८. २ उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि सातिरेकाणि । स. सि. १, ८. Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, ३५८.] अंतराणुगमे उवसमसम्मादिट्ठि-अंतरपरूवर्ण [१६५ वण्णो । अंतोमुहुत्तावसेसे आउए अप्पमत्तो जादो । लद्धमंतरं (१)। पमत्तापमत्तसंजदट्ठाणे खइयं पट्टविय (२) खवगसेडीपाओग्गअप्पमत्तो होदूण (३) खवगसेढीमारूढो अपुव्वादिछहि अंतोमुहुत्तेहि णिव्वुदो । अंतरस्सादिल्लमेक्कं बाहिरेसु णवसु अंतोमुहत्तेसु सोहिदे अवसेसा अट्ट । एदेहि ऊणपुनकोडीए सादिरेयाणि तेत्तीसं सागरोवमाणि अप्पमत्तुक्कस्संतरं। उवसमसम्मादिट्ठीसु असंजदसम्मादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ॥ ३५६ ॥ णिरंतरमुवसमसम्मत्तं पडिवज्जमाणजीवाभावा । उक्कस्सेण सत्त रादिदियाणि ॥ ३५७ ॥ किमत्थो सत्तरादिदियविरहणियमो ? सभावदो । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥३५८ ॥ तं जहा- एकको उवसमसेढीदो ओदरिय असंजदो जादो । अंतोमुहुत्तमच्छिद्ण आयुके अन्तर्मुहूर्त अवशिष्ट रह जाने पर अप्रमत्तसंयत हुआ। इस प्रकार अन्तर लब्ध होगया (१)। तत्पश्चात् प्रमत्त या अप्रमत्तसंयत गुणस्थानमें क्षायिकसम्यक्त्वको प्रस्थापितकर (२) क्षपकश्रेणीके प्रायोग्य अप्रमत्तसंयत होकर (३) क्षपकश्रेणीपर चढ़ा और अपूर्वकरणादि छह अन्तर्मुहूर्तोंसे निर्वाणको प्राप्त हुआ। अन्तरके आदिका एक अन्तर्मुहूर्त बाहरी नौ अन्तर्मुहूर्तोंमेंसे घटा देने पर अवशिष्ट आठ अन्तर्मुहूर्त रहे। इनसे कम पूर्वकोटीसे साधिक तेतीस सागरोपमकाल वेदकसम्यग्दृष्टि अप्रमत्तसंयतका उत्कृष्ट अन्तर होता है। उपशमसम्यग्दृष्टियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय है ॥ ३५६ ॥ क्योंकि, निरन्तर उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले जीवोंका अभाव है। उक्त जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर सात रात-दिन (अहोरात्र) है ॥ ३५७ ॥ शंका--सात रात दिनोंके अन्तरका नियम किसलिए है ? समाधान-स्वभावसे ही है। उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ ३५८ ॥ जैसे- एक संयत उपशमश्रेणीसे उतरकर असंयतसम्यग्दृष्टि हुआ और अन्तर्मुहुर्त १ औपशमिकसम्यग्दृष्टिष्वसंयतसम्यग्दृष्टे नाजीवापेक्षया जघन्येनैकः समयः । स. सि. १, 4. २ उत्कर्षेण सप्त रात्रिदिनानि । स. सि. १, ८. ३ एकजीवं प्रति जघन्यमुत्कृष्टं चान्तर्मुहूर्तः। स. सि. १, ८. Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ ] छक्खंडागमे जीवाणं संजमासंजमं पडिवण्णो । अंतोमुहुत्तेण पुणो असंजदो जादो । लद्धं जहणंतरं । उकस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥ ३५९ ॥ तं जहा - एको सेडीदो ओदरिय असंजदो जादो । तत्थ अंतोमुहुत्तमच्छिय संजमासंजमं पडिवण्णो । तदो अप्पमत्तो पत्तो होदूण असंजदो जादो । लद्ध मुक्कस्संतरं । संजदासंजदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीचं पडुच्च जहणेण एगसमयं ॥ ३६० ॥ सुगममेदं । उक्कस्सेण चोदस रादिंदियाणि ॥ ३६१ ॥ एदं पि सुगमं । एगजीवं पडुच्च जहणेण अंतोमुहुत्तं ॥ ३६२ ॥ तं जहा - एक्को उवसमसेढीदो ओदरिय संजमासंजमं पडिवण्णो । अंतोमुहुत्त रहकर संयमासंयमको प्राप्त हुआ । अन्तर्मुहूर्त से पुनः असंयत होगया । इस प्रकार जघन्य अन्तर लब्ध हुआ । उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ ३५९ ॥ [ १, ६, ३५९. जैसे- - एक संयत उपशमश्रेणीसे उतरकर असंयतसम्यग्दृष्टि हुआ। वहां अन्तमुहूर्त रहकर संयमासंयमको प्राप्त हुआ । पश्चात् अप्रमत्त और प्रमत्तसंयत होकर असंयतसम्यग्दृष्टि होगया । इस प्रकार उत्कृष्ट अन्तर लब्ध हुआ । उपशमसम्यग्दृष्टि संयतासंयतोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय है ।। ३६० ॥ यह सूत्र सुगम है । उक्त जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर चौदह रात-दिन है ॥ ३६१ ॥ यह सूत्र भी सुगम है । उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ ३६२ ॥ जैसे - एक संयत उपशमश्रेणीसे उतरकर संयमासंयमको प्राप्त हुआ और अन्त १ संयतासंयतस्य नानाजीवापेक्षया जघन्येनैकः समयः । स. सि. १, ८. २ उत्कर्षेण चतुर्दश रात्रिदिनानि । स. सि. १, ८. ३ एकजीवं प्रति जघन्यमुत्कृष्टं चान्तर्मुहूर्तः । स. सि, १,८० Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, ३६६.] अंतराणुगमे उवसमसम्मादिट्ठि-अंतरपरूवणं [१६७ मच्छिय असंजदो जादो। पुणो वि अंतोमुहुत्तेण संजमासंजमं पडिवण्णो। लद्धं जहणंतरं । उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥ ३६३ ॥ तं जहा- एक्को सेडीदो ओदरिय संजदासंजदो जादो । अंतोमुहुत्तमच्छिय अप्पमत्तो पमत्तो असंजदो च होदूण संजदासंजदो जादो । लद्धमुक्कस्संतरं । पमत्त-अप्पमत्तसंजदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णण एगसमयं ॥३६४ ॥ सुगममेदं । उक्कस्सेण पण्णारस रादिदियाणि ॥ ३६५॥ एवं पि सुगमं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहत्तं ॥ ३६६ ॥ तं जहा- एको उवसमसेढीदो ओदरिय पमत्तो होदण अंतोमुहुत्तमच्छिय अप्प ..................... मुहूर्त रहकर असंयतसम्यग्दृष्टि होगया। फिर भी अन्तर्मुहूर्तसे संयमासंयमको प्राप्त हुआ। इस प्रकार जघन्य अन्तर लब्ध हुआ। उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ।। ३६३ ।। जैसे- एक संयत उपशमश्रेणीसे उतरकर संयतासंयत हुआ। अन्तर्मुहूर्त रहकर अप्रमत्तसंयत, प्रमत्तसंयत और असंयतसम्यग्दृष्टि होकर संयतासंयत होगया। इस प्रकार उत्कृष्ट अन्तर लब्ध हुआ। उपशमसम्यग्दृष्टि प्रमत्त और अप्रमत्तसंयतोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय है ॥ ३६४ ॥ यह सूत्र सुगम है। उक्त जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर पन्द्रह रात-दिन है ॥ ३६५ ॥ यह सूत्र भी सुगम है। उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ ३६६ ॥ जैसे- एक संयत उपशमश्रेणीसे उतरकर प्रमत्तसंयत हो अन्तर्मुहूर्त रह कर १ प्रमत्ताप्रमत्तसंयतयो नाजीवापेक्षया जघन्येनैकः समयः । स. सि. १, ८. २ उत्कर्षेण पंचदश रात्रिदिनानि । स. सि. १,८. ३ एकजीवं प्रति जघन्यमुत्कृष्टं चान्तर्मुहूर्तः। स. सि. १, ८. Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ६, ३६७. मत्तो जादो । पुणो वि पमत्तत्तं गदो । लद्धमंतरं । एवं चेव अप्पमत्तस्स वि जहण्णंतरं वत्तव्वं । उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥ ३६७॥ तं जहा- एक्को उवसमसेढीदो ओदरिय पमत्तो होदूण पुणो संजदासंजदो असंजदो अप्पमत्तो च होदूण पमत्तो जादो । लद्धमंतरं । अप्पमत्तस्स उच्चदे- एक्को सेडीदो.ओदरिय अप्पमत्तो जादो । पुणो पमत्तो असंजदो संजदासंजदो च होदूण भूओ अप्पमत्तो जादो । लद्धमुक्कस्संतरं । तिण्हमुवसामगाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ॥ ३६८ ॥ उक्कस्सेण वासपुधत्तं ॥ ३६९ ॥ एदाणि दो वि सुत्ताणि सुगमाणि । अप्रमत्तसंयत हुआ। फिर भी प्रमत्त गुणस्थानको प्राप्त हुआ। इस प्रकार अन्तर लब्ध हुआ। इसी प्रकारसे उपशमसम्यग्दृष्टि अप्रमत्तसंयतका भी जघन्य अन्तर कहना चाहिए। उपशमसम्यग्दृष्टि प्रमत्त और अप्रमत्तसंयतोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ ३६७॥ जैसे- एक संयत उपशमश्रेणीसे उतरकर प्रमत्तसंयत होकर पुनः संयतासंयत, असंयत और अप्रमत्तसंयत होकर प्रमत्तसंयत हआ। इस प्रकार अन्तर लब्ध हुआ। उपशमसम्यग्दृष्टि अप्रमत्तसंयतका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं- एक संयत उपशमश्रेणीसे उतरकर अप्रमत्तसंयत हुआ। पुनः प्रमत्तसंयत, असंयत और संयतासंयत होकर फिर भी अप्रमत्तसंयत होगया। इस प्रकार उत्कृष्ट अन्तर लब्ध हुआ। उपशमसम्यग्दृष्टि अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्पराय, इन तीनों उपशामकोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय अन्तर है ॥३६८॥ उक्त जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है ॥ ३६९॥ ये दोनों ही सूत्र सुगम हैं। १ त्रयाणामुपशमकानां नानाजीवापेक्षया जघन्येनैकः समयः । स. सि. १, ८. २ उत्कर्षेण वर्षपृथक्त्वम् ।। स. सि.१, ८. Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, ३७४.] अंतराणुगमे उवसमसम्मादिट्ठि-अंतरपरूवणं [१६९ एगजीवं पडुच्च जहण्णण अंतोमुहत्तं ॥ ३७०॥ तं जहा- उवसमसेढिं चढिय आदि करिय पुणो उवरिं गंतूण ओदरिय अप्पिदगुण पडिवण्णस्स अंतोमुहुत्तमंतर होदि। उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥ ३७१ ॥ एदस्स जहण्णभंगो । णवरि विसेसा विदियवारं चढमाणस्स जहणंतरं, पढमवारं चढिय ओदिण्णस्स उक्कस्संतरं वत्तव्यं ।। उवसंतकसायवीदरागछदुमत्थाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ॥३७२॥ उक्कस्सेण वासपुधत्तं ॥ ३७३॥ एदाणि दो वि सुत्ताणि सुगमाणि । एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ ३७४ ॥ उक्त तीनों उपशामकोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ ३७० ॥ ___ जैसे- उपशमश्रेणीपर चढ़कर आदि करके फिर भी ऊपर जाकर और उतरकर विवक्षित गुणस्थानको प्राप्त होनेवाले जीवमें अन्तर्मुहूर्तप्रमाण जघन्य अन्तर होता है। उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ ३७१ ॥ इस उत्कृष्ट अन्तरकी प्ररूपणा भी जघन्य अन्तरकी प्ररूपणाके समान जानना चाहिए । किन्तु विशेषता यह है कि उपशमश्रेणीपर द्वितीय वार चढ़नेवाले जीवके जघन्य अन्तर होता है और प्रथम वार चढ़कर उतरे हुए जीवके उत्कृष्ट अन्तर होता है, ऐसा कहना चाहिए। उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय है ॥ ३७२ ॥ उक्त जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है ॥ ३७३॥ ये दोनों ही सूत्र सुगम हैं। उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थोंका एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ ३७४ ॥ १ एकजीवं प्रति जघन्यमुत्कृष्टं चान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १,८. • २ उपशान्तकषायस्य नानाजीवापेक्षया सामान्यवत् । स. सि. १, ८. ३ एकजीवं प्रति नास्त्यन्तरम् । स. सि. १,८. Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१,६, ३७५. हेट्ठिमगुणट्ठाणेसु अंतराविय सव्वजहण्णेण कालेण पुणो उवसंतकसायभावं गयस्स जहण्णंतरं किण्ण उच्चदे ? ण, हेट्ठा ओइण्णस्स वेदगसम्मत्तमपडिवज्जिय पुव्वुवसमसम्मत्तेणुवसमसेढीसमारुहणे संभवाभावादो । तं पि कुदो ? उवसमसेडीसमारुहणपाओग्गकालादो सेसुवसमसम्मत्तद्धाए त्थोवत्तुवलंभादो । तं पि कुदो णव्वदे ? उवसंतकसायएगजीवस्संतराभावण्णहाणुववत्तीदो । सासणसम्मादिट्ठि-सम्मामिच्छादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एयसमयं ॥ ३७५॥ सुगममेदं । उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागों ॥३७६ ॥ एदं पि सुगम । शंका-नीचेके गुणस्थानमें अन्तरको प्राप्त कराकर सर्वजघन्य कालसे पुनः उपशान्तकषायताको प्राप्त हुए जीवके जघन्य अन्तर क्यों नहीं कहते हैं ? समाधान-नहीं, क्योंकि, उपशमश्रेणीसे नीचे उतरे हुए जीवके वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुए विना पहलेवाले उपशमसम्यक्त्वके द्वारा पुनः उपशमश्रेणीपर समारोहणकी सम्भावनाका अभाव है। शंका-यह कैसे जाना ? समाधान-क्योंकि, उपशमश्रेणीके समारोहणयोग्य कालसे शेष उपशमसम्यक्त्वका काल अल्प पाया जाता है। शंका-यह भी कैसे जाना? समाधान-उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थके एक जीवके अन्तरका अभाव अन्यथा बन नहीं सकता, इससे जाना जाता है कि उपशान्तकषाय गुणस्थान एक जीवकी अपेक्षा अन्तर रहित है। सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय अन्तर है ॥ ३७५ ॥ यह सूत्र सुगम है। उक्त जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर पल्योपमका असंख्यातवां भाग है ॥ ३७६ ॥ यह सूत्र भी सुगम है। १ सासादनसम्यग्दृष्टिसम्यग्मिथ्यादृष्टयो नाजीवापेक्षया जघन्येनैकः समयः । स. सि. १, ८. २ उत्कर्षेण पल्योपमासंख्येयभागः। स. सि. १, ८. Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, ३८०.] अंतराणुगमे सण्णिय-अंतरपरूवणं एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ ३७७॥ गुणसंकंतीए असंभवादो। मिच्छादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणेगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ ३७८॥ कुदो ? णाणाजीवपवाहस्स वोच्छेदाभावा, गुणंतरसंकंतीए अभावादो । एवं सम्मत्तमग्गणा समत्ता । सण्णियाणुवादेण सण्णीसु मिच्छादिट्ठीणमोघं ॥ ३७९ ।। __कुदो ? णाणाजीवं पडुच्च अंतराभावेण, एगजीवं पडुच्च अंतोमुहुत्तं देसूणवेछावद्विसागरोवममेत्तजहण्णुक्कस्संतरेहि य साधम्मुवलंभा ।। सासणसम्मादिटिप्पहुडि जाव उवसंतकसायवीदरागछदुमत्था त्ति पुरिसवेदभंगों ॥ ३८०॥ उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ ३७७ ॥ क्योंकि, इन दोनोंके गुणस्थानका परिवर्तन असम्भव है। मिथ्यादृष्टि जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना और एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ ३७८ ॥ क्योंकि, नाना जीवोंके प्रवाहका कभी विच्छेद नहीं होता है । तथा एक जीवका अन्य गुणस्थानोंमें संक्रमण भी नहीं होता है । इस प्रकार सम्यक्त्वमार्गणा समाप्त हुई। संज्ञीमार्गणाके अनुवादसे संज्ञी जीवोंमें मिथ्यादृष्टियोंका अन्तर ओघके समान है ॥ ३७९ ॥ __ क्योंकि, नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरका अभाव होनेसे, एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट कुछ कम दो छयासठ सागरोमममात्र अन्तरोंकी अपेक्षा ओघसे समानता पाई जाती है। सासादनसम्यग्दृष्टि से लेकर उपशान्तकषायवीतरागछमस्थ तक संज्ञी जीवोंका अन्तर पुरुषवेदियोंके अन्तरके समान है ॥ ३८०॥ १ एकजीव प्रति नास्त्यन्तरम् । स. सि. १, ८. २ मिथ्यादृष्टे नाजीवापेक्षया एकजीवापेक्षया च मास्त्यन्तरम् । स. सि. १, ८. ३ संज्ञानुवादेन संनिषु मिथ्यादृष्टेः सामान्यवत् । स. सि. १, ८. ४ सासादनसम्यग्राष्टिसम्याग्मिथ्यादृष्टयो नाजीवापेक्षया सामान्यवत् । एकजीवं प्रति जघन्येन पल्योपमा. Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२] - छक्खंडागमे जीवट्ठाणं - [१, ६, ३८१. ___कुदो ? सागरोवमसदपुधत्तहिदि पडि दोहं साधम्मुवलंभा । णवरि असण्णिट्ठिदिमच्छिय सण्णीसुप्पण्णस्स उक्कस्सहिदी वत्तव्वा । चदुण्हं खवाणमोघं ॥ ३८१ ॥ सुगममेदं । असण्णीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णथि अंतरं, णिरंतरं ॥३८२ ॥ कुदो ? असण्णिपवाहस्स वोच्छेदाभावा । एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ ३८३ ॥ कुदो ? गुणसंकंतीए अभावादो । एवं सण्णिमग्गणा समत्ता । क्योंकि, सागरोपमशतपृथक्त्वस्थितिकी अपेक्षा दोनोंके अन्तरों में समानता पाई जाती है। विशेषता यह है कि असंज्ञी जीवोंकी स्थितिमें रहकर संशी जीवोंमें उत्पन्न हुए जीवके उत्कृष्ट स्थिति कहना चाहिए। संज्ञी चारों क्षपकोंका अन्तर ओघके समान है ।। ३८१ ॥ यह सूत्र सुगम है। असंज्ञी जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ ३८२ ॥ क्योंकि, असंही जीवोंके प्रवाहका कभी विच्छेद नहीं होता है । असंज्ञी जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ ३८३ ॥ क्योंकि, असंशियोंमें गुणस्थानके परिवर्तनका अभाव है। इस प्रकार संज्ञीमार्गणा समाप्त हुई। संख्येयभागोऽन्तर्मुहूर्तश्च । उत्कर्षेण सागरोपमशतपृथक्त्वम् । असंयतसम्यग्दृष्टयाद्यप्रमत्तान्तानां नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहर्तः। उत्कर्षेण सागरोपमशतपृथक्त्वम् | चतुर्णामुपशमकानां नानाजीवापेक्षया सामान्यवत । एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहर्तः। उत्कर्षण सागरोपमशतपृथक्त्वम् । स. सि. १, ८. १ चतुर्णा क्षपकाणां सामान्यवत् । स. सि. १, ८. २ असंज्ञिनां नानाजीवापेक्षयैकजीवापेक्षया च नास्त्यन्तरम् । स. सि. १,८. Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, ३८७.] अंतराणुगमे आहारि-अंतरपरूवणं [१७३ आहाराणुवादेण आहारएसु मिच्छादिट्ठीणमोघं ॥ ३८४ ॥ सुगममेदं । सासणसम्मादिट्ठि-सम्मामिच्छादिट्टीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च ओघं ॥ ३८५ ॥ एवं पि सुगमं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, अंतोमुहत्तं ॥ ३८६ ॥ __ एवं पि अवगयत्थं । उक्कस्सेण अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो असंखेज्जासंखेज्जाओ ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीओ ॥ ३८७ ॥ तं जहा- एक्को सासणद्धाए दो समया अस्थि त्ति कालं गदो । एगविग्गहं आहारमार्गणाके अनुवादसे आहारक जीवोंमें मिथ्यादृष्टियोंका अन्तर ओघके समान है ॥ ३८४ ॥ यह सूत्र सुगम है। आहारक सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है ॥ ३८५॥ यह सूत्र भी सुगम है। उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर क्रमशः पल्योपमका असंख्यातवां भाग और अन्तर्मुहूर्त है ।। ३८६ ॥ इस सूत्रका अर्थ ज्ञात है। उक्त जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण असंख्यातासंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल है ॥ ३८७॥ जैसे- एक सासादनसम्यग्दृष्टि जीव सासादनगुणस्थानके कालमें दो समय १ आहारानुवादेन आहारकेषु मिथ्यादृष्टेः सामान्यवत् । स. सि. १, ८. २ सासादनसम्यग्दृष्टिसम्यग्मिथ्यादृष्टयो नाजीवापेक्षया सामान्यवत् । स. सि. १, ८. ३ एकजीवं प्रति जघन्येन पत्योपमासंख्येयभागोऽन्तर्मुहूर्तश्च । स. सि. १, ८. ४ उत्कर्षेणांगुलासंख्येयभागा असंख्येया उत्सर्पिण्यवसार्पण्यः । स. सि. १, ८. Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमै जीवट्ठाण .. [१, ६, ३८८. कादूण विदियसमए आहारी होदूण तदियसमए मिच्छत्तं गंतूणंतरिदो । असंखेज्जासंखेज्जाओ ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीओ परिभमिय अंतोमुहुत्तावसेसे आहारकाले उवसमसम्मत्तं पडिवण्णो । एगसमयावसेसे आहारकाले सासणं गंतूण विग्गहं गदो। दोहि समएहि ऊणो आहारुक्कस्सकालो सासणुक्कस्संतरं । एको अट्ठावीससंतकम्मिओ विग्गहं कादूण देवेसुववण्णो । छहि पज्जतीहि पज्जत्तयदो (१) विस्संतो (२) विसुद्धो (३) सम्मामिच्छत्तं पडिवण्णो (४)। मिच्छत्तं गंतूणंतरिदो । अंगुलस्स असंखेज्जदिभागं परिभमिय सम्मामिच्छत्तं पडिवण्णो (५)। लद्धमंतरं । तदो सम्मत्तेण वा मिच्छत्तेण वा अंतोमुहुत्तमच्छिदूण (६) विग्गहं गदो । छहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणओ आहारकालो सम्मामिच्छादिहिस्स उक्कस्संतरं ।। असंजदसम्मादिटिप्पहुडि जाव अप्पमत्तसंजदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुञ्च पत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥३८८॥ सुगममेदं । अवशिष्ट रहने पर मरणको प्राप्त हुआ। एक विग्रह (मोड़ा ) करके द्वितीय समयमें आहारक होकर और तीसरे समयमें मिथ्यात्वको जाकर अन्तरको प्राप्त हुआ । असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियों तक परिभ्रमणकर आहारककाल में अन्तर्मुहूर्त अवशिष्ट रह जाने पर उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। पुनः आहारककालके एक समयमात्र अवशिष्ट रहने पर सासादनको जाकर विग्रहको प्राप्त हुआ। इस प्रकार दो समयोंसे कम आहारकका उत्कृष्ट काल ही आहारक सासादनसम्यग्दृष्टि जीवका उत्कृष्ट अन्तर होता है। मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला एक मिथ्यादृष्टि जीव विग्रह करके देवों में उत्पन्न हुआ । छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (१) विश्राम ले (२) विशुद्ध हो (३) सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ (४) और मिथ्यात्वको जाकर अन्तरको प्राप्त हुआ। अंगुलके असंख्यातवें भाग कालप्रमाण परिभ्रमण कर सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ (५)। इस प्रकार अन्तर लब्ध होगया। पीछे सम्यक्त्व अथवा मिथ्यात्वके साथ अन्तमुहूते रह कर (६) विग्रहगतिको प्राप्त हुआ। इस प्रकार छह अन्तर्मुहूतौसे कम आहारककाल ही आहारक सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवका उत्कृष्ट अन्तर होता है। असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक आहारक जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ ३८८ ॥ यह सूत्र सुगम है। १ असंयतसम्यग्दृष्टचाचप्रमत्तान्तानां नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । स. सि. १,८. Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, ३९०.] अंतराणुगमे आहारि-अंतरपरूवणं [१७५ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ ३८९ ॥ कुदो ? गुणतरं गंतूण सबजहण्णकालेण पुणो अप्पिदगुणपडिवण्णस्स जहणंतरुवलंभा। उक्कस्सेण अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो असंखेज्जाओ ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीओ ॥ ३९० ॥ ____ असंजदसम्मादिहिस्स उच्चदे- एक्को अट्ठावीससंतकम्मिओ विग्गहं कादूण देवेसुववण्णो । छहि पञ्जत्तीहि पञ्जत्तयदो (१) विस्संतो (२) विसुद्धो (३) वेदगसम्मत्तं पडिवण्णो (४)। मिच्छत्तं गंतूणंतरिदो अंगुलस्स असंखेजदिभागं परिभमिय अंते उवसमसम्मत्तं पडिवण्णो (५)। लद्धमंतरं । उवसमसम्मत्तद्धाए छावलियावसेसाए सासणं गंतूण विग्गहं गदो । पंचहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणओ आहारकालो उक्कस्संतरं । उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ ३८९ ॥ । क्योंकि, विवक्षित गुणस्थानसे अन्य गुणस्थानको जाकर और सर्वजघन्य कालसे लौटकर पुनः अपने विवक्षित गुणस्थानको प्राप्त होनेवाले जीवके जघन्य अन्तर पाया जाता है। उक्त असंयतादि चार गुणस्थानवी आहारक जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल है ॥३९० ॥ आहारक असंयतसम्यग्दृष्टि जीवका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं-मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला एक मिथ्यादृष्टि जीव विग्रह करके देवोंमें उत्पन्न हुआ। छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (१) विश्राम ले (२) विशुद्ध हो (३) वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ (४)। पीछे मिथ्यात्वको जाकर अन्तरको प्राप्त हुआ और अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण कालतक परिभ्रमण करके अन्तमें उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ (५)। इस प्रकार अन्तर लब्ध होगया । पुनः उपशमसम्यक्त्वके कालमें छह आवलियां अवशिष्ट रह जाने पर सासादनमें जाकर विग्रहको प्राप्त हुआ। इस प्रकार पांच अन्तर्मुहूतौसे कम आहारककाल ही आहारक असंयतसम्यग्दृष्टि जीवका उत्कृष्ट अन्तर होता है। ... १ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १, ८. २ उत्कर्षेणायलासंख्येयभागा असंख्येया उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः। स. सि. १,८.. ... ... ... .. । Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .१७६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ६, ३९०. संजदासंजदस्स उच्चदे- एक्को अट्ठावीससंतकम्मिओ विग्गहं कादूण सम्मुच्छिमेसु उववण्णो । छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो (१) विस्संतो (२) विसुद्धो (३) वेदगसम्मत्तं संजमासंजमं च समगं पडिवण्णो (४) । मिच्छत्तं गंतूणंतरिदो अंगुलस्स असंखेज्जदिभागं परिभमिय अंते पढमसम्मत्तं संजमासंजमं च समगं पडिवण्णो (५)। लद्धमंतरं । उवसमसम्मत्तद्धाए छावलियावसेसाए सासणं गंतूण विग्गहं गदो । पंचहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणओ आहारकालो उक्कस्संतरं । पमत्तस्स उच्चदे- एक्को अट्ठावीससंतकम्मिओ विग्गहं कादूग मणुसेसुववण्णो । गम्भादिअट्ठवस्सेहि अप्पमत्तो (१) पमत्तो होदूण (२) मिच्छत्तं गंतूणंतरिदो । अंगुलस्स असंखेज्जदिभागं परिभमिय अंते पमत्तो जादो। लद्धमंतरं (३)। कालं कादूण विग्गहं गदो। तिहि अंतोमुहुत्तेहि अट्ठवस्सेहि य ऊणओ आहारकालो उकस्संतरं। __ अप्पमत्तस्स एवं चेव । णवरि अप्पमत्तो (१) पमत्तो होदूण अंतरिदो सगहिदि परिभमिय अप्पमत्तो होदूण (२) पुणो पमत्तो जादो (३)। कालं करिय विग्गहं आहारक संयतासंयतका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं-मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला एक मिथ्यादृष्टि जीव विग्रह करके पंचेन्द्रिय सम्मूच्छिमोंमें उत्पन्न हुआ। छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (१) विश्राम ले (२) विशुद्ध हो (३) वेदकसम्यक्त्व और संयमासंयमको एक साथ प्राप्त हुआ (४)। पश्चात् मिथ्यात्वको जाकर अन्तरको प्राप्त हो अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक परिभ्रमणकर अन्तमें प्रथमोपशमसम्यक्त्व और संयमासंयमको एक साथ प्राप्त हुआ (५)। इस प्रकार अन्तर लब्ध हुआ। पश्चात् उपशमसम्यक्त्वके कालमें छह आवलियां अवशेष रहने पर सासादनको जाकर विग्रहको प्राप्त हुआ। इस प्रकार पांच अन्तर्मुहूतोंसे कम आहारककाल ही आहारक संयतासंयतका उत्कृष्ट अन्तर ह। आहारक प्रमत्तसंयतका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं-मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला एक जीव विग्रह करके मनुष्यों में उत्पन्न हुआ। गर्भको आदि ले आठ वर्षोंसे अप्रमत्तसंयत (१) और प्रमत्तसंयत हो (२) मिथ्यात्वको जाकर अन्तरको प्राप्त हुआ। अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण कालतक परिभ्रमण करके अन्तमें प्रमत्तसंयत होगया। इस प्रकार अन्तर लब्ध हुआ (३)। पश्चात् मरण करके विग्रहगतिको प्राप्त हुआ। इस प्रकार तीन अन्तर्मुहूर्त और आठ वर्षांसे कम आहारककाल ही आहारक प्रमत्तसंयतका उत्कृष्ट अन्तर है। आहारक अप्रमत्तसंयतका भी अन्तर इसी प्रकार है। विशेषता यह है कि अप्रमत्तसंयत जीव (१) प्रमत्तसंयत होकर अन्तरको प्राप्त हो अपनी स्थितिप्रमाण परिभ्रमण कर अप्रमत्तसंयत हो (२) पुनः प्रमत्तसंयत हुआ (३)। पश्चात् मरण करके विग्रहको प्राप्त Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, ३९३.] अंतराणुगमे आहारि-अंतरपरूवणं [१७ गदो । तिहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणओ आहारकालो उक्कस्संतरं । चदुण्हमुवसामगाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च ओघभंगों ॥ ३९१ ॥ सुगममेदं, बहुसो उत्तत्तादो। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ ३९२ ॥ एदं पि सुगमं । उकस्सेण अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो असंखेज्जासंखेज्जाओ ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीओ ॥ ३९३ ॥ तं जहा- एक्को अट्ठावीससंतकम्मिओ विग्गहं कादूण मणुसेसुववण्णो । अट्ठवस्सिओ सम्मत्तं अप्पमत्तभावेण संजमं च समगं पडिवण्णो (१)। अणंताणुबंधी विसंजोएदूण (२) दंसणमोहणीयमुवसामिय (३) पमत्तापमत्तपरावत्तसहस्सं काण (४) तदो अपुल्यो (५) अणियट्टी (६) सुहुमो (७) उवसंतो (८) पुणो वि परिवडमाणगो हुआ। इस प्रकार तीन अन्तर्मुहूतौसे कम आहारककाल ही आहारक अप्रमत्तसंयतका उत्कृष्ट अन्तर है। आहारक चारों उपशामकोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है ॥ ३९१ ॥ यह सूत्र सुगम है, क्योंकि, इसका अर्थ पहले बहुत वार कहा जा चुका है। उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ ३९२ ॥ यह सूत्र भी सुगम है। आहारक चारों उपशामकोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण असंख्यातासंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी है ॥ ३९३॥ मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला एक मिथ्यादृष्टि जीव विग्रह करके मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ। आठ वर्षका होकर सम्यक्त्वको और अप्रमत्तभावके साथ संयमको एक साथ प्राप्त हुआ (१)। पुनः अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन करके (२)दर्शनमोहनीयका उपशमनकर (३) प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थानसम्बन्धी सहस्रों परिवर्तनोंको करके (४) पश्चात् अपूर्वकरण (५) अनिवृत्तिकरण (६) सूक्ष्मसाम्पराय (७) और उप १ चतुर्णामुपशमकानां नानाजीवापेक्षया सामान्यवत् । स. सि. १,८. २ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १, .. ३ उत्कर्षणांगुलासंख्येयभागा असंख्येयासंख्येया उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः। स. सि. १,८. Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [१, ६, ३९४. मुमो ( ९ ) अणिट्टी (१०) अपुच्वो जादो (११) । हेट्ठा ओदरिदूर्णतरिदो अंगुलस्स असंखेज्जदिभागं परिभमिय अंते अपुत्रो जादो । लद्धमंतरं । तदो णिद्दा - पयलाणं बंधे वोच्छिष्णे मरिय विग्गहं गदो । अट्ठवस्सेहि वारस अंतोमुहुत्तेहि य ऊणओ आहारकालो उक्कस्संतरं । एवं चेव तिण्हमुवसामगाणं । णवरि दस णव अट्ठ अंतो मुहुत्ता समयाहिया ऊणा कादव्वा चदुहं खवाणमोघं ॥ ३९४ ॥ सुगममेदं । सजोगिकेवली ओघं ॥ ३९५ ॥ एदं पि सुगमं । अणाहारा कम्मइयकायजोगिभंगो ॥ ३९६ ॥ शान्तकषाय होकर (८) फिर भी गिरता हुआ सूक्ष्मसाम्पराय ( ९ ) अनिवृत्तिकरण ( १० ) और अपूर्वकरण हुआ (११) । पुनः नीचे उतरकर अन्तरको प्राप्त हो अंगुलके असंख्यातवें भाग कालप्रमाण परिभ्रमणकर अन्तमें अपूर्वकरण उपशामक हुआ । इस प्रकार अन्तर लब्ध हुआ । तत्पश्चात् निद्रा और प्रचला, इन दोनों प्रकृतियोंके बंधसे व्युच्छिन्न होनेपर मरकर विग्रहको प्राप्त हुआ । इस प्रकार आठ वर्ष और बारह अन्तर्मुहूर्तोंसे कम आहारककाल ही अपूर्वकरण उपशामकका उत्कृष्ट अन्तर है । इसी प्रकार शेष तीनों उपशामकोका भी अन्तर कहना चाहिए । विशेषता यह है कि आहारककालमें अनिवृत्तिकरण उपशामकके दश, सूक्ष्मसाम्पराय उपशामकके नौ और उपशान्तकषाय उपशामकके आठ अन्तर्मुहूर्त और एक समय कम करना चाहिए । आहारक चारों क्षपकोंका अन्तर ओघके समान है ॥ ३९४ ॥ यह सूत्र सुगम है । आहारक सयोगिकेवलीका अन्तर ओघके समान है ।। ३९५ ।। यह सूत्र भी सुगम है । अनाहारक जीवोंका अन्तर कार्मणकाययोगियोंके समान है || ३९६ ॥ १ चतुर्णां क्षपकाणां सयोगकेवलिनां च सामान्यवत् । स. सि. १, ८. २ प्रतिषु ' अणाहार ' इति पाठः । ३ अनाहारकेषु मिथ्यादृष्टेर्नानाजीवापेक्षया एकजीवापेक्षया च नास्त्यन्तरम् । सासादनसम्यग्दृष्टेर्नानाजीवापेक्षया जघन्येनैकः समयः । उत्कर्षेण पल्योपमासंख्येयभागः । एकजीवं प्रति नास्त्यन्तरम् । असंयतसम्यग्दृष्टेर्नानाजीवापेक्षया जघन्येनैकः समयः । उत्कर्षेण मासपृथक्त्वम् । एकजीवं प्रति नास्त्यन्तरम् । सयोगिकेवलिनां नानाखीबापेक्षया जघन्येनैकः समयः । उत्कर्षेण वर्षपृथक्त्वम् । एक्जीवं प्रति नास्त्यन्तरम् । स. सि. १,८० Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ६, ३९७. ] अंतरागमे अंणाहारि - अंतरपरूवणं [ १७९ मिच्छादिट्ठीणं णाणेगजीवं पडुच्च अंतराभावेण, सासणसम्मादिट्ठीणं णाणाजीवं पडुच्च एगसमयपलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागजहण्णुक्कस्संतरेहि य, एगजीवं पडुच्च अंतराभावेण य, असंजदसम्मादिट्ठीणं णाणाजीवं पडुच्च एगसमय मासपुधत्तंतेरेहि य, एगजीवं पडुच्च अंतराभावेण य, सजोगिकेवलीणं णाणाजीव पडुच्च एगसमय-वासपुधत्तजहण्णुक्कस्संतरेहि य, एगजीवं पडुच्च अंतराभावेण य दोन्हं साधम्मुवलंभादो । विसेसपदुप्पायणट्टमुत्तरमुत्तं भणदि वरि विसेसा, अजोगिकेवली ओघं ॥ ३९७ ॥ सुगममेदं । ( एवं आहारमग्गणा समत्ता । ) एवमंतराणुगमो चि समत्तमणिओगद्दारं । क्योंकि, मिथ्यादृष्टियोंका नाना और एक जीवकी अपेक्षा अन्तरका अभाव होनेसे सासादनसम्यग्दृष्टियोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य एक समय और उत्कृष्ट पल्योपमका असंख्यातवां भाग अन्तरोंसे, तथा एक जीवकी अपेक्षा अन्तरका अभाव होनेसे, असंयतसम्यग्दृष्टियोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य एक समय और उत्कृष्ट मास· पृथक्त्व अन्तरोंके द्वारा, और एक जीवकी अपेक्षा अन्तरका अभाव होनेसे, सयोगिकेवलियोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य एक समय और उत्कृष्ट वर्षपृथक्त्व अन्तरसे, तथा एक जीवकी अपेक्षा अन्तरका अभाव होनेसे दोनोंमें समानता पाई जाती है । अनाहारक जीवोंमें विशेषता प्रतिपादन करनेके लिए उत्तर सूत्र कहते हैंकिन्तु विशेषता यह है कि अनाहारक अयोगिकेवलीका अन्तर ओधके समान है ॥ ३९७ ॥ यह सूत्र सुगम है। इस प्रकार आहारमार्गणा समाप्त हुई । इस प्रकार अन्तरानुगम अनुयोगद्वार समाप्त हुआ । १ अयोगिकेवलिनां नानाजीवापेक्षया जघन्येनैकः समयः । उत्कर्षेण षण्मासाः । एकजीव प्रति नास्त्यन्तरम् । स. सि. १, ८. २ अन्तरमवगतम् । स. सि. १,८. Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावाणुगमो Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि-भगवंत-पुप्फदंत-भूदबलि-पणीदो छक्खंडागमो सिरि-वीरसेणाइरिय-विरइय-धवला-टीका-समण्णिदो तस्स पढमखंडे जीवट्ठाणे भावाणुगमो अवगयअसुद्धभावे उवगयकम्मक्खउच्चउब्भावे । पणमिय सबरहते भावणिओगं परूवेमो ॥ भावाणुगमेण दुविहो णिदेसो, ओघेण आदेसेण ये ॥ १॥ णाम-द्ववणा-दव्य-भावो त्ति चउन्विहो भावो । भावसदो बज्झत्थणिरवेक्खो अप्पाणम्हि चेव पयट्टो णामभावो होदि। तत्थ ठवणभावो सब्भावासब्भावभेएण दुविहो। विराग-सरागादिभावे अणुहरंती ठवणा सब्भावट्ठवणभावो । तबिवरीदो असब्भावट्ठवण अशुद्ध भावोंसे रहित, कर्मक्षयसे प्राप्त हुए हैं चार अनन्तभाव जिनको, ऐसे सर्व अरहंतोंको प्रणाम करके भावानुयोगद्वारका प्ररूपण करते हैं । भावानुगमद्वारकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है, ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश ॥१॥ नाम, स्थापना, द्रव्य और भावकी अपेक्षा भाव चार प्रकारका है। बाह्य अर्थसे निरपेक्ष अपने आपमें प्रवृत्त 'भाव' यह शब्द नामभावनिक्षेप है । उन चार निक्षेपोंमेंसे स्थापनाभावनिक्षेप, सद्भाव और असद्भाघके भेदसे दो प्रकारका है। उनमेसे विरागी और सरागी आदि भावोंका अनुकरण करनेवाली स्थापना सद्भावस्थापना भावनि है। उससे विपरीत असद्भावस्थापना भावनिक्षेप है । द्रव्यभावनिक्षेप आगम और १ भावो विभाव्यते । स द्विविधः, सामान्येन विशेषेण च । स. सि.१, ८. Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ७, १. भावो । तत्थ दव्यभावो दुविहो आगम-णोआगमभेएण । भावपाहुडजाणओ अणुवजुत्तो आगमदव्यभावो होदि । जो णोआगमदव्यभावो सो तिविहो जाणुगसरीर-भवियतव्वदिरित्तभेएण । तत्थ णोआगमजाणुगसरीरदव्यभावो तिविहो भविय-वट्टमाण-समुज्झादभेएण। भावपाहुडपज्जायपरिणदजीवस्स आहारो जं होसदि सरीरं तं भवियं णाम । भावपाहुडपज्जायपरिणदजीवेण जमेगीभूदं सरीरं तं वट्टमाणं णाम । भावपाहुडपज्जाएण परिणदीवेण एगत्तमुवणमिय जं पुधभूदं सरीरं तं समुज्झादं णाम | भावपाहुडपजयसरूवेण जो जीवो परिणमिस्स दि सो णोआगमभवियदव्यभावो णाम | तव्वदिरित्तणोआगमदव्वभावो तिविहो सचित्ताचित्त-मिस्सभेएण । तत्थ सचित्तो जीवदव्यं । अचित्तो पोग्गल-धम्माधम्म-कालागासदव्याणि । पोग्गल-जीवदव्वाणं संजोगो कधंचि जच्चतरत्तमावण्णो णोआगममिस्सदव्वभावो णाम । कधं दव्वस्स भावव्यवएसो ? ण, भवनं भावः, भूतिर्वा भाव इति भावसहस्स विउप्पत्तिअवलंबणादो । जो भावभावो सो दुविहो आगमणोआगमभेएण । भावपाहुडजाणओ उवजुत्तो आगमभावभावो णाम । णोआगमभावभावो पंचविहं ओदइओ ओवसमिओ खइओ खओवसमिओ पारिणामिओ चेदि । तत्थ कम्मोदय नोआगमके भेदसे दो प्रकारका है। भावप्राभृतज्ञायक किन्तु वर्तमानमें अनुपयुक्त जीव आगमद्रव्यभाव कहलाता है। जो नोआगमद्रव्य भावनिक्षेप है वह शायकशरीर, भव्य और तद्व्यतिरिक्तके भेदसे तीन प्रकार होता है। उनमें नोआगमज्ञायकशरीर द्रव्यभावनिक्षेप भव्य, वर्तमान और समुज्झितके भेदसे तीन प्रकारका है। भावप्राभृतपर्यायसे परिणत जीवका जो शरीर आधार होगा, वह भव्यशरीर है। भावप्राभृतपर्यायसे परिणत जीवके साथ जो एकीभूत शरीर है, वह वर्तमानशरीर है । भावप्राभृतपर्यायसे परि साथ पकत्वको प्राप्त होकर जो पथक हुआ शरीर है वह समज्झितशरीर है। भावप्र तपर्यायस्वरूपसे जो जीव परिणत होगा, वह नोआगमभव्यद्रव्य भावनिक्षेप है। तव्यतिरिक्त नोआगमद्रव्य भावनिक्षप, सचित्त, अचित्त और मिश्रके भेदसे तीन प्रकारका है। उनमें जीवद्रव्य सचित्तभाव है। पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, काल और आकाश द्रव्य अचित्तभाव हैं। कथंचित जात्यन्तर भावको प्राप्त पुद्गल और जीव द्रव्योंका संयोग नोआगममिश्रद्रव्य भावनिक्षेप है। शंका-द्रब्यके 'भाव' ऐसा व्यपदेश कैसे हो सकता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, 'भवनं भावः' अथवा 'भूतिर्वा भावः' इस प्रकार भावशब्दकी व्युत्पत्तिके अवलंबनसे द्रव्यके भी 'भाव' ऐसा व्यपदेश बन जाता है। जो भावनामक भावनिक्षेप है, वह आगम और नोआगमके भेदसे दो प्रकारका है। भाव प्राभृतका शायक और उपयुक्त जीव आगमभावनामक भावनिक्षेप है। नोआगमभाव भावनिक्षेप औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिकके भेदसे Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ७, १.] भावाणुगमे णिदेसपरूवणं [१८५ जणिदो भावो ओदइओ णाम । कम्मुवसमेण समुन्भूदो ओवसमिओ णाम । कम्माणं खवेण पयडीभूदजीवभावो खइओ णाम । कम्मोदए संते वि जं जीवगुणक्खंडमुवलंभदि सो खओवसमिओ भावो णाम । जो चउहि भावेहि पुव्वुत्तेहि वदिरित्तो जीवाजीवगओ सो पारिणामिओ णाम (५)। एदेसु चदुसु भावेसु केण भावेण अहियारो ? णोआगमभावभावेण । तं कधं णव्वदे ? णामादिसेसमावेहि चोदसजीवसमासाणमणप्पभूदेहि इह पओजणाभावा । तिण्णि चेव इह णिक्खेवा होंतु, णाम-ट्ठवणाणं विसेसाभावादो ? ण, णामे णामवंतदव्यज्झारोवणियमाभावादो, णामस्स ह्रवणणियमाभावा, हवणाए इव आयराणुग्गहाणम पांच प्रकारका है। उनमेंसे कर्मोदयजनित भावका नाम औदयिक है। कौके उपशमसे उत्पन्न हुए भावका नाम औपशमिक है। कर्मोंके क्षयसे प्रकट होनेवाला जीवका भाव क्षायिक है । कौके उदय होते हुए भी जो जीवगुणका खंड (अंश) उपलब्ध रहता है, वह क्षायोपशमिकभाव है। जो पूर्वोक्त चारों भावोंसे व्यतिरिक्त जीव और अजीवगत भाव है, वह पारिणामिक भाव है। शंका–उक्त चार निक्षेपरूप भावों से यहां पर किस भावसे अधिकार या प्रयोजन है ? समाधान-यहां नोआगमभावभावसे अधिकार है। शंका-यह कैसे जाना जाता है ? समाधान—चौदह जीवसमासोंके लिए अनात्मभूत नामादि शेष भावनिक्षेपोंसे यहां पर कोई प्रयोजन नहीं है, इसीसे जाना जाता है कि यहां नोआगमभाव भावनिक्षेपसे ही प्रयोजन है। शंका-यहां पर तीन ही निक्षेप होना चाहिए, क्योंकि, नाम और स्थापनामें कोई विशेषता नहीं है ? समाधान नहीं, क्योंकि, नामनिक्षेपमें नामवंत द्रव्यके अध्यारोपका कोई नियम नहीं है इसलिए, तथा नामवाली वस्तुकी स्थापना होनी ही चाहिए, ऐसा कोई नियम नहीं है इसलिए, एवं स्थापनाके समान नामनिक्षेपमें आदर और अनुग्रहका भी १ प्रतिषु ‘जीवगुणं खंड.' इति पाठः। २ कम्मुवसमम्मि उवसमभावो खीणम्मि खइयभावो दु। उदयो जीवस्स गुणो खओवसमिओ हवे भावो ॥ कम्मुदयजकम्मिगुणो ओदयियो तत्थ होदि भावो दु। कारणणिरवेक्खभवो सभावियो होदि परिणामो॥ गो. क. ८१४-८१५. ३ प्रतिषु 'आयारा' इति पाठः। Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ७, १. भावादो च' । भणिदं च अप्पिदआदरभावो अणुग्गहभावो य धम्मभावो । ठवणाए कीरते ण होंति णामम्मि एए दु ॥१॥ णामिणि धम्मुवयारो णाम ढवणा य जस्स तं ठविदं । तद्धम्मे ण वि जादो सुणाम-ठवणाणमविसेसं ॥२॥ तम्हा चउबिहो चेव णिक्खेवो त्ति सिद्धं । तत्थ पंचसु भावेसु केण भावेण इह पओजणं ? पंचहिं मि । कुदो ? जीवेसु पंचभावाणमुवलंभा । ण च सेसदव्येसु पंच भावा अत्थि, पोग्गलदव्वेसु ओदइय-पारिणामियाणं दोण्हं चेव भावाणमुवलंभा, धम्माधम्म-कालागासदव्वेसु एक्कस्स पारिणामियभावस्सेवुवलंभा । भावो णाम जीवपरिणामो तिब्व-मंदणिज्जराभावादिरूवेण अणेयपयारो । तत्थ तिव्य-मंदभावो णाम सम्मत्तुप्पत्तीय वि सावयविरदे अणंतकम्मसे । दंसणमोहक्खवए कसायउवसामए य उवसंते ॥ ३ ॥ खवए य खीणमोहे जिणे य णियमा भवे असंखेज्जा । तव्विवरीदो कालो संखेज्जगुणाए सेडीए ॥ ४ ॥ अभाव है, इसलिए दोनों निक्षेपोंमें भेद है ही। कहा भी है विवक्षित वस्तुके प्रति आदरभाव, अनुग्रहभाव और धर्मभाव स्थापनामें किया जाता है । किन्तु ये बातें नामनिक्षेपमें नहीं होती हैं ॥१॥ नाममें धर्मका उपचार करना नामनिक्षेप है, और जहां उस धर्मकी स्थापना की जाती है, वह स्थापनानिक्षेप है। इस प्रकार धर्मके विषयमें भी नाम और स्थापनाकी अविशेषता अर्थात् एकता सिद्ध नहीं होती ॥२॥ इसलिए निक्षेप चार प्रकारका ही है, यह बात सिद्ध हुई। शंका-पूर्वोक्त पांच भावों से यहां किस भावसे प्रयोजन है ? समाधान-पांचों ही भावोंसे प्रयोजन है, क्योंकि, जीवोंमें पांचों भाव पाये जाते हैं। किन्तु शेष द्रव्योंमें तो पांच भाव नहीं हैं, क्योंकि, पुद्गल द्रव्योंमें औदयिक और परिणामिक, इन दोनों ही भावोंकी उपलब्धि होती है, और धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय, आकाश और काल द्रव्योंमें केवल एक पारिणामिक भाव ही पाया जाता है। शंका-भावनाम जीवके परिणामका है, जो कि तीव्र, मंद निर्जराभाव आदिके रूपसे अनेक प्रकारका है। उनमें तीव मंदभाव नाम है ___ सम्यक्त्वकी उत्पत्तिमें, श्रावकमें, विरतमें, अनन्तानुबन्धी कषायके विसंयोजनमें, दर्शनमोहके क्षपणमें, कषायोंके उपशामकोंमें, उपशान्तकषायमें, क्षपकोंमें, क्षीणमोहमें, और जिन भगवान्में नियमसे असंख्यातगुणीनिर्जरा होती है। किन्तु कालका प्रमाण उक्त गुणश्रेणी निर्जरामें संख्यात गुणश्रेणी क्रमसे विपरीत अर्थात् उत्तरोत्तर हीन है ॥३-४॥ १ नामस्थापनयोरेकत्वं, संज्ञाकर्माविशेषादिति चेन्न, आदरानुग्रहाकांक्षित्वात्स्थापनायाम् । त. रा. वा .१,५. २ गो. जी. ६६-६७. Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ७, १. ] भावागमे सिपरूवणं [ १८७ एदेसि सुद्दिपरिणामाणं पगरिसापगरिसत्तं तिव्व-मंदभावो णाम । एदेहि चेव परिणामेहि असंखेज्जगुणाए सेडीए कम्मसडणं कम्मसडणजणिदजीवपरिणामो वा णिज्जराभावो णाम । तम्हा पंचैव जीवभावा इदि नियमो ण जुज्जदे ? ण एस दोसो, जदि जीवादिदव्यादो तिव्व-मंदादिभावा अभिण्णा होंति, तो ण तेसिं पंचभावेसु अंतभावो, दव्यत्तादो । अह भेदो अवलंबेज्ज, पंचण्हमण्णदरो होज्ज, एदेहिंतो पुधभूदछट्ट भावाणुवलंभा | भणिदं च - ओदइओ उवसमिओ खइओ तह वि य खओवसमिओ य । परिणामिओ दुभावो उदएण दु पोग्गलाणं तु ॥ ५ ॥ भाव णाम किं ? दव्यपरिणामो पुव्यावरकोडिवदिरित्तवट्टमाणपरिणामुवलक्खियदव्यं वा । कस्स भावो ! छण्हं दव्वाणं । अथवा ण कस्सर, परिणामि परिणामाणं इन सूत्रोद्दिष्ट परिणामोंकी प्रकर्षताका नाम तीव्रभाव और अप्रकर्षताका नाम मंदभाव है । इन्हीं परिणामोंके द्वारा असंख्यात गुणश्रेणीरूपसे कर्मोंका झरना, अथवा कर्म-झरनेसे उत्पन्न हुए जीवके परिणामोंको निर्जराभाव कहते हैं । इसलिए पांच ही जीवके भाव हैं, यह नियम युक्तिसंगत नहीं है ? समाधान - यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, यदि जीवादि द्रव्यसे तीव्र, मंद आदि भाव अभिन्न होते हैं, तो उनका पांच भावों में अन्तर्भाव नहीं होता है, क्योंकि, वे स्वयं द्रव्य हो जाते हैं । अथवा, यदि भेद माना जाय, तो पांचों भावोंमेंसे कोई एक होगा, क्योंकि, इन पांच भावोंसे पृथग्भूत छठा भाव नहीं पाया जाता है । कहा भी है औदयिकभाव, औपशमिकभाव, क्षायिकभाव, क्षायोपशमिकभाव और पारिणामिकभाव, ये पांच भाव होते हैं । इनमें पुलोंके उदयसे (औदायिकभाव) होता हैं ॥५॥ ( अब निर्देश, स्वामित्व आदि प्रसिद्ध छह अनुयोगद्वारोंसे भावनामक पदार्थका निर्णय किया जाता है - ) शंका- भाव नाम किस वस्तुका है ? समाधान- द्रव्यके परिणामको अथवा पूर्वापर कोटिसे व्यतिरिक्त वर्तमान पर्याय उपलक्षित द्रव्यको भाव कहते हैं । शंका- भाव किसके होता है, अर्थात् भावका स्वामी कौन है ? समाधान-छहीं द्रव्योंके भाव होता है, अर्थात् भावोंके स्वामी छहों द्रव्य हैं । अथवा, किसी भी द्रव्यके भाव नहीं होता है, क्योंकि, पारिणामी और पारिणामके संग्रह Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ७, १. संगहणयादो भेदाभावा। केण भावो? कम्माणमुदएण खएण खओवसमेण कम्माणमुवसमेण सभावदो वा । तत्थ जीवदव्वस्स भावा उत्तपंचकारणेहिंतो होति । पोग्गलदव्यभावा पुण कम्मोदएण विस्ससादो वा उप्पज्जंति । सेसाणं चदुण्हं दव्वाणं भावा सहावदो उप्पजंति । कत्थ भावो? दव्वम्हि चेव, गुणिव्वदिरेगेण गुणाणमसंभवा । केवचिरो भावो? अणादिओ अपज्जवसिदो जहा- अभव्वाणमसिद्धदा, धम्मत्थिअस्स गमणहेदुत्तं, अधम्मत्थिअस्स ठिदिहेउत्तं, आगासस्स ओगाहणलक्खणत्तं, कालव्यस्स परिणामहेदुत्तमिच्चादि । अणादिओ सपञ्जवसिदो जहा- भव्यस्स असिद्धदा भव्यत्तं मिच्छत्तमसंजमो इच्चादि । सादिओ अपज्जवसिदो जहा- केवलणाणं केवलदसणमिच्चादि । सादिओ सपज्जवसिदो जहासम्मत्तसंजमपच्छायदाणं मिच्छत्तासंजमा इच्चादि । कदिविधो भावो? ओदइओ उवसमिओ खइओ खओवसमिओ पारिणामिओ त्ति पंचविहो । तत्थ जो सो ओदइओ जीवदव्यभावो नयसे कोई भेद नहीं है। शंका-भाव किससे होता है, अर्थात् भावका साधन क्या है ? समाधान-भाव, कौके उदयसे, क्षयसे, क्षयोपशमसे, कर्मों के उपशमसे, अथवा स्वभावसे होता है। उनमेंसे जीवद्रव्यके भाव उक्त पांचों ही कारणोंसे होते हैं, किन्तु पद्धलद्रव्यके भाव कौके उद्यसे, अथवा स्वभावसे उत्पन्न होते हैं। तथा शेष चार द्रव्योंके भाव स्वभावसे ही उत्पन्न होते हैं। शंका-भाव कहां पर होता है, अर्थात् भावका अधिकरण क्या है ? समाधान-भाव द्रव्यमें ही होता है, क्योंकि गुणीके विना गुणोंका रहना असम्भव है। शंका-भाव कितने काल तक होता है ? समाधान-भाव अनादि-निधन है । जैसे- अभव्यजीवोंके असिद्धता, धर्मास्तिकायके गमनहेतुता, अधर्मास्तिकायके स्थितिहेतुता, आकाशद्रव्यके अवगाहनस्वरूपता, और कालद्रब्यके परिणमनहेतुता, इत्यादि । अनादि-सान्तभाव, जैसे- भव्यजीवकी असिद्धता, भव्यत्व, मिथ्यात्व, असंयम, इत्यादि । सादि-अनन्तभाव जैसै-केवलज्ञान, केवलदर्शन, इत्यादि । सादि-सान्त भाव, जैसे- सम्यक्त्व और संयम धारणकर पीछे आए हुए जीवोंके मिथ्यात्व, असंयम इत्यादि । शंका-भाव कितने प्रकारका होता है ? समाधान-औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिकके भेदसे भाव पांच प्रकारका है। उनमेंसे जो औदयिकभाव नामक जीवद्रव्यका भाव १ औपशमिकक्षायिकौ भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिकपारिणामिकौ च । त. सू. २, १. Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ७, १.] भावाणुगमे णिदेसपरूवणं [१८९ सो ठाणदो अट्टविहो, वियप्पदो एक्कवीसविहो। किं ठाणं? उप्पत्तिहेऊ द्वाणं । उत्तं च गदि-लिंग-कसाया वि य मिच्छादसणमसिद्धदण्णाणं । लेस्सा असंजमो चिय होति उदयस्स हाणाई ॥ ६ ॥ संपहि एदेसि वियप्पो उच्चदे- गई चउव्विहो णिरय-तिरिय-णर-देवगई चेदि । लिंगमिदि तिविहं स्थी-पुरिस-णqसयं चेदि । कसाओ चउबिहो कोहो माणो माया लोहो चेदि । मिच्छादसणमेयविहं । असिद्धत्तमेयविहं । किमसिद्धत्तं ? अट्ठकम्मोदयसामण्णं । अण्णाणमेअविहं । लेस्सा छबिहा । असंजमो एयविहो । एदे सव्वे वि एक्कवीस वियप्पा होति' (२१)। पंचजादि-छसंठाण-छसंघडणादिओदइया भावा कत्थ णिवदंति ? गदीए, एदेसिमुदयस्स गदिउदयाविणाभावित्तादो। ण लिंगादीहि वियहिचारो, तत्थ तहाविहविवक्खाभावादो। है, वह स्थानकी अपेक्षा आठ प्रकारका और विकल्पकी अपेक्षा इक्कीस प्रकारका है। शंका-स्थान क्या वस्तु है ? समाधान-भावकी उत्पत्तिके कारणको स्थान कहते हैं । कहा भी है गति, लिंग, कषाय, मिथ्यादर्शन, असिद्धत्व, अज्ञान, लेश्या और असंयम, ये औदयिक भावके आठ स्थान होते हैं ॥ ६॥ अब इन आठ स्थानोंके विकल्प कहते हैं । गति चार प्रकारकी है- नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति और देवगति । लिंग तीन प्रकारका है- स्त्रीलिंग, पुरुषलिंग और नपुंसकलिंग। कषाय चार प्रकारका है-क्रोध, मान, माया और लोभ । मिथ्यादर्शन एक प्रकारका है । असिद्धत्व एक प्रकारका है। शंका-असिद्धत्व क्या वस्तु है ? समाधान-अष्ट कर्मोंके सामान्य उदयको असिद्धत्व कहते हैं। अशान एक प्रकारका है। लेश्या छह प्रकारका है। असंयम एक प्रकारका है। इस प्रकार ये सब मिलकर औदयिकभावके इक्कीस विकल्प होते हैं (२१)। शंका-पांच जातियां, छह संस्थान, छह संहनन आदि औदयिकभाव कहां, अर्थात् किस भावमें अन्तर्गत होते हैं ? समाधान-उक्त जातियों आदिका गतिनामक औदयिकभावमें अन्तर्भाव होता है, क्योंकि, इन जाति, संस्थान आदिका उदय गतिनामकर्मके उदयका अविनाभावी है। इस व्यवस्थामे लिंग, कषाय आदि औदायिकभावोसे भी व्यभिचार नहीं आता है, क्योकि, उन भावों में उस प्रकारकी विवक्षाका अभाव है। १ गतिकषायलिंगमिष्यादर्शनासानासंयतासिद्धलेश्याश्चतुश्चतुरुध्येकैकैकैकषड्भेदाः । त. पू. २, ६. Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ७, १. उवसमिओ भावो ठाणदो दुविहो । वियप्पदो अट्ठविहो । भणिदं च सम्मत्तं चारित्तं दो चेय द्वाणाइमुवसमे होंति । अट्ठवियप्पा य तहा कोहाईया मुणेदव्वा ॥ ७ ॥ ओवसमियस्स भावस्स सम्मत्तं चारित्तं चेदि दोण्णि द्वाणाणि । कुदो ? उवसमसम्मत्तं उवसमचारित्तमिदि दोहं चे उवलंभा । उवसमसम्मत्तमेयविहं । ओवसमिय चारित्तं सत्तविहं । तं जहा- णqसयवेदुवसामणद्धाए एयं चारित्तं, इत्थिवेदुवसामणद्धाए विदियं, पुरिस-छण्णोकसायउवसामणद्धाए तदियं, कोहुवसामणद्धाए चउत्थं, माणुवसामणद्धाए पंचमं, माओवसामणद्धाए छटुं, लोहुत्रसामणद्धाए सत्तममोवसमियं चारित्तं । भिण्णकज्जलिंगेण कारणभेदसिद्धीदो उवसमियं चारित्तं सत्तविहं उत्तं । अण्णहा पुण अणेयपयारं, समयं पडि उवसमसेडिम्हि पुध पुध असंखेज्जगुणसेडिणिज्जराणिमित्तपरिणामुवलंभा । खइओ भावो ठाणदो पंचविहो । वियप्पादो णवविहो । भणिदं च औपशमिकभावस्थानकी अपेक्षा दो प्रकार और विकल्पकी अपेक्षा आठ प्रकारका है । कहा भी है औपशमिकभावमें सम्यक्त्व और चारित्र ये दो ही स्थान होते हैं । तथा औपशमिकभावके विकल्प आठ होते हैं, जो कि क्रोधादि कषायोंके उपशमनरूप जानना चाहिए ॥७॥ __ औपशमिकभावके सम्यक्त्व और चारित्र, ये दो ही स्थान होते हैं, क्योंकि, औपशमिकसम्यक्त्व और औपशमिकचारित्र ये दो ही भाव पाये जाते हैं । इनमेंसे औपशमिकसम्यक्त्व एक प्रकारका है और औपशमिकचारित्र सात प्रकारका है । जैसे- नपुंसकवेदके उपशमनकालमें एक चारित्र, स्त्रीवेदके उपशमनकालमें दूसरा चारित्र, पुरुषवेद और छह नोकषायोंके उपशमनकालमें तीसरा चारित्र, क्रोधसंज्वलनमें उपशमनकालमें चौथा चारित्र, मानसंज्वलनके उपशमनकालमें पांचवां चारित्र, मायासंज्वलनके उपशमनकालमें छठा चारित्र और लोभसंज्वलनके उपशमनकालमें सातवां औपशमिकचारित्र होता है। भिन्न-भिन्न कार्योंके लिंगसे कारणोंमें भी भेदकीसिद्धि होती है, इसलिए औपशमिकचारित्र सात प्रकारका कहा है। अन्यथा, अर्थात् उक्त प्रकारकी विवक्षा न की जाय तो, वह अनेक प्रकारका है, क्योंकि, प्रति समय उपशमश्रेणीमें पृथक् पृथक् असंख्यातगुणश्रेणी निर्जराके निमित्तभूत परिणाम पाये जाते हैं। क्षायिकभाव स्थानकी अपेक्षा पांच प्रकारका है, और विकल्पकी अपेक्षा नौ प्रकारका है। कहा भी है १ सम्यक्त्वचारित्रे । त. सू. २, ३. Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ७, १.] भावाणुगमे णिदेसपरूवणं [ १९१ लद्धीओ सम्मत्तं चारित्तं दंसणं तहा णाणं । ठाणाइं पंच खइए भावे जिणभासियाई तु ॥ ८॥ लद्धी सम्मत्तं चारित्तं गाणं दंसणमिदि पंच ठाणाणि । तत्थ लद्धी पंच वियप्पा दाण-लाह-भोगुवभोग-वीरियमिदि । सम्मत्तमैयवियप्पं । चारित्तमेयवियप्पं । केवलणाणमेयवियप्पं । केवलदसणयवियप्पं । एवं खइओ भावो णववियप्पो' । खओवसमिओ भावो ठाणदो सत्तविहो । वियप्पदो अट्ठारसविहो। भणिदं च णाणण्णाणं च तहा सण-लद्धी तहेव सम्मत्तं । चारित्तं देसजमो सत्तेव य होति ठाणाई ॥ ९॥ णाणमण्णाणं दसणं लद्धी सम्मत्तं चारित्तं संजमासंजमो चेदि सत्त द्वाणाणि । तत्थ पाणं चउव्विहं मदि-सुद-ओधि-मणपज्जवणाणमिदि । केवलणाणं किण्ण गहिदं ? ण, तस्स खाइयभावादो । अण्णाणं तिविहं मदि-सुइ-विहंगअण्णाणमिदि । दमणं तिविहं चक्खु-अचक्खु-ओधिदंसणमिदि । केवलदसणं ण गहिदं । कुदो? अप्पणो विरोहिकम्मस्स दानादि लब्धियां, क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक चारित्र, क्षायिक दर्शन, तथा सायिक ज्ञान, इस प्रकार क्षायिक भावमें जिन-भाषित पांच स्थान होते हैं ॥ ८॥ लब्धि, सम्यक्त्व, चारित्र, ज्ञान, दर्शन, ये पांच स्थान क्षायिकभावमें होते हैं। उनमें लब्धि पांच प्रकारकी है-क्षायिक दान, क्षायिक लाभ, क्षायिक भोग, क्षायिक उपभोग, और क्षायिक वीर्य । क्षायिक सम्यक्त्व एक विकल्पात्मक है। क्षायिक चारित्र एक भेदरूप है। केवलज्ञान एक विकल्पात्मक है और केवलदर्शन एक विकल्परूप है। इस प्रकारसे क्षायिक भावके नौ भेद है । क्षायोपशमिकभाव स्थानकी अपेक्षा सात प्रकार और विकल्पकी अपेक्षा अठारह प्रकारका है। कहा भी है ___ज्ञान, अज्ञान, दर्शन, लब्धि, सम्यक्त्व, चारित्र और देशसंयम, ये सात स्थान क्षायोपशमिक भावमें होते हैं ॥९॥ शान, अज्ञान, दर्शन, लब्धि, सम्यक्त्व, चारित्र और संयमासंयम, ये सात स्थान क्षायोपशमिकभावके हैं। उनमें मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्ययके भेदसे ज्ञान चार प्रकारका है। शंका-यहांपर शानोंमें केवलज्ञानका ग्रहण क्यों नहीं किया गया ? समाधान- नहीं, क्योंकि, वह क्षायिक भाव है। कुमति, कुश्रुत और विभंगके भेदसे अज्ञान तीन प्रकारका है। चक्षु, अचक्षु और अवधिके भेदसे दर्शन तीन प्रकारका है। यहांपर दर्शनों में केवलदर्शनका ग्रहण नहीं १ज्ञानदर्शनदानलामभोगोपभोगवीर्याणि च । त. सू. २, ४. Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ७, १. खएण समुभवादो । लद्धी पंचविहा दाणादिभेएण। सम्मत्तमेयविहं वेदगसम्मत्तवदिरेकेण अण्णसम्मत्ताणमणुवलंभा । चारित्तमेयविहं, सामाइयछेदोवट्ठावण-परिहारसुद्धिसंजमविवक्खाभावा। संजमासंजमो एयविहो। एवमेदे सव्वे वि वियप्पा अट्ठारस होति' (१८)। पारिणामिओ तिविहो भव्वाभव-जीवत्तमिदि। उत्तं च एयं ठाणं तिणि वियप्पा तह पारिणामिए होति ।। भव्वाभव्वा जीवा अत्तवणदो चेव बोद्धव्वा' ॥ १० ॥ एदेसिं पुव्वुत्तभाववियप्पाणं संगहगाहा इगिवीस अह तह णव अट्ठारस तिणि चेव बोद्धव्वा । ओदइयादी भावा वियप्पदो आणुपुव्वीए ॥ ११ ॥ किया गया है, क्योंकि, वह अपने विरोधी कर्मके क्षयसे उत्पन्न होता है। दानादिकके भेदसे लब्धि पांच प्रकारकी है। सम्यक्त्व एक प्रकारका है, क्योंकि, इस भावमें वेदकसम्यक्त्वको छोड़कर अन्य सम्यक्त्वोंका अभाव है। चारित्र एक विकल्परूप ही है, क्योंकि, यहांपर सामायिक, छेदोपस्थापना और परिहारविशुद्धिसंयमकी विवक्षाका अभाव है। संयमासंयम एक भेदरूप है। इस प्रकार मिलकर ये सब विकल्प अठारह होते हैं (१८)। पारिणामिकभाव, भव्य, अभव्य और जीवत्वके भेदसे तीन प्रकारका है। कहा भी है पारिणामिकभावमें स्थान एक तथा भव्य, अभव्य और जीवत्वके भेदसे विकल्प तीन प्रकारके होते हैं। ये विकल्प आत्माके असाधारण भाव होनेसे ग्रहण किये गये जामना चाहिए ॥ १०॥ इन पूर्वोक्त भावोंके विकल्पोंको बतलानेवाली यह संग्रह गाथा है औदयिक आदि भाव विकल्पोंकी अपेक्षा आनुपूर्वीसे इक्कीस, आठ, नौ, अट्ठारह और तीन भेदवाले हैं, ऐसा जानना चाहिए ॥ ११॥ १ज्ञानाज्ञानदर्शनलब्धयश्चतुरित्रिपंचभेदाः सम्यक्त्वचारित्रसंयमासंयमाश्च । त. सू. २, ५. २ जीवभव्याभव्यत्वानि च । त. सू, २, ७. ३ अ-कपत्योः 'अट्ठवणदो' आप्रतौ अट्ठणवदो' मप्रतौ अथवणदो' सप्रतौ 'अधवणदो' इति पाठः। ४ असाधारणा जीवस्य भावाः पारिणामिकास्त्रय एव । स. सि. २, ७. अन्यद्रव्यासाधारणास्रयः पारिणामिकाः | xxx अस्तित्वादयोऽपि पारिणामिकाः भावाः सन्ति xx सूत्रे तेषां ग्रहणं कस्मान्न कृतं ? अन्यद्रव्यसाधारणत्वादसूत्रिताः । त. रा. वा. २, ७. ५ द्विनवाष्टादशैकविंशतित्रिभेदा यथाक्रमम् । त. सू. २, २. Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ७, १.] भावाणुगमे णिदेसपरूवणं [१९३ अधवा सण्णिवादियं पडुच्च छत्तीसभंगा' । सण्णिवादिएत्ति का सण्णा ? एक्कम्हि गुणट्ठाणे जीवसमासे वा बहवो भावा जम्हि सण्णिवदंति तेसिं भावाणं सण्णिवादिएत्ति सण्णा । एग-दु-ति-चदु-पंचसंजोगेण भंगा परूविज्जंति । एगसंजोगेण जधा- ओदइओ ओदइओ त्ति 'मिच्छादिट्ठी असंजदो य' । दसणमोहणीयस्स उदएण मिच्छादिहि त्ति भावो, असंजदो त्ति संजमघादीणं कम्माणमुदएण। एदेण कमेण सव्चे वियप्पा परूवेदव्वा । एत्थ सुत्तगाहा एकोत्तरपदवृद्धो रूपाद्यैर्भाजितं च पदवृद्धः । गच्छः संपातफलं समाहतः सन्निपातफलं ॥१२॥ एदस्स भावस्स अणुगमो भावाणुगमो । तेण दुविहो णिद्देसो, ओघेण संगहिदो, आदेसेण असंगहिदो त्ति णिद्देसो दुविहो होदि, तदियस्स णिद्देसस्स संभवाभावा । अथवा, सांनिपातिककी अपेक्षा भावोंके छत्तीस भंग होते हैं। शंका--सांनिपातिक यह कौनसी संज्ञा है ? समाधान-एक ही गुणस्थान या जीवसमासमें जो बहुतसे भाव आकर एकत्रित होते हैं, उन भावोंकी सांनिपातिक ऐसी संज्ञा है। __अब उक्त भावोंके एक, दो, तीन, चार और पांच भावोंके संयोगसे होनेवाले भंग कहे जाते हैं। उनमेंसे एकसंयोगी भंग इस प्रकार है- औदयिक-औदयिकभाव, जैसे- यह जीव मिथ्यादृष्टि और असंयत है। दर्शनमोहनीयकर्मके उदयसे मिथ्यादृष्टि यह भाव उत्पन्न होता है। संयमघाती कमौके उदयसे 'असंयत' यह भाव उत्पन्न होता है। इसी क्रमसे सभी विकल्पोंकी प्ररूपणा करना चाहिए । इस विषयमें सूत्र-गाथा है ___ एक एक उत्तर पदसे बढ़ते हुए गच्छको रूप (एक) आदि पदप्रमाण बढ़ाई हुई राशिसे भाजित करे, और परस्पर गुणा करे, तब सम्पातफल अर्थात् एकसंयोगी, द्विसंयोगी आदि भंगोंका प्रमाण आता है। तथा इन एक, दो, तीन आदि भंगोको जोड़ देने पर सन्निपातफल अर्थात् सान्निपातिकभंग प्राप्त हो जाते हैं ॥१२॥ (इस करणगाथाका विशेष अर्थ और भंग निकालनेका प्रकार समझनेके लिए देखो भाग ४, पृष्ठ १४३ का विशेषार्थ ।) इस उक्त प्रकारके भावके अनुगमको भावानुगम कहते हैं । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका होता है। ओघसे संगृहीत और आदेशसे असंगृहीत, इस प्रकार निर्देश दो प्रकारका होता है, क्योंकि, तीसरे निर्देशका होना संभव नहीं है। १ अथार्षोक्तः सान्निपातिकमावः कतिविध इत्यत्रोच्यते-पड़िशातिविधः षड्विंशद्विधः एकचत्वारिंशद्विध इत्येवमादिरागमे उक्तः । त. रा. वा. २, ७. २ ठप्पंचादेयंतं स्वृत्तरभाजिदे कमेण हदे । लद्धं मिच्छचउक्के देसे संजोगगुणगारा ॥ गो. क. ७९९. Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ७, २. __ ओघेण मिच्छादिट्टि त्ति को भावो, ओदइओ भावों ॥२॥ 'जहा उद्देसो तहा णिदेसो' त्ति जाणावणट्ठमोघेणेत्ति भणिदं । अत्थाहिहाणपच्चया तुल्लणामधेया इदि णायादो इदि-करणपरो मिच्छादिहिसदो मिच्छत्तभावं भणदि। पंचसु भावेसु एसो को भावो त्ति पुच्छिदे ओदइओ भावो त्ति तित्थयरवयणादो दिव्यज्झुणी विणिग्गया । को भावो, पंचसु भावेसु कदमो भावो त्ति भणिदं होदि । उदये भवो ओदइओ, मिच्छत्तकम्मस्स उदएण उप्पण्णमिच्छत्तपरिणामो कम्मोदयजणिदो त्ति ओदइओ । णणु मिच्छादिहिस्स अण्णे वि भावा अस्थि, णाण-दंसण-गदि-लिंग-कसायभव्वाभव्यादिभावाभावे जीवस्स संसारिणो अभावप्पसंगा। भणिदं च--- मिच्छत्ते दस भंगा आसादण-मिस्सए वि बोद्धव्वा । तिगुणा ते चदुहीणा अविरदसम्मस्स एमेव ॥ १३ ॥ देसे खओवसमिए विरदे खवगाण ऊणवीसं तु । ओसामगेसु पुध पुध पणतीसं भावदो भंगा ॥ १४ ॥ ओघनिर्देशकी अपेक्षा मिथ्यादृष्टि यह कौनसा भाव है ? औदयिक भाव है ॥२॥ 'जैसा उद्देश होता है उसी प्रकार निर्देश होता है' इस न्यायके ज्ञापनार्थ सूत्रमें 'ओघ' ऐसा पद कहा। अर्थ, अभिधान (शब्द) और प्रत्यय (ज्ञान ) तुल्य नामवाले होते हैं, इस न्यायसे 'इति' करणपरक अर्थात् जिसके पश्चात् हेतुवाचक इति आया है, ऐसा 'मिथ्यादृष्टि' यह शब्द मिथ्यात्वके भावको कहता है। पांचों भावोंमेंसे यह कौन भाव है ? ऐसा पूछनेपर यह औदयिक भाव है, इस प्रकार तीर्थंकरके मुखसे दिव्यध्वनि निकली है । यह कौन भाव है, अर्थात् पांचों भावों से यह कौनसा भाव है, यह तात्पर्य होता है । उदयसे जो हो, उसे औदयिक कहते हैं। मिथ्यात्वकर्मके उदयसे उत्पन्न होनेवाला मिथ्यात्वपरिणाम कर्मोदयजनित है, अतएव औदायक है। शंका-मिथ्यादृष्टिके अन्य भी भाव होते हैं, उन शान, दर्शन, गति, लिंग, कषाय, भव्यत्व, अभव्यत्व आदि भावोंके अभाव माननेपर संसारी जीवके अभावका प्रसंग प्राप्त होता है । कहा भी है मिथ्यात्वगुणस्थानमें उक्त भावोसम्बन्धी दश भंग होते हैं । सासादन और मिश्रगुणस्थानमें भी इसी प्रकार दश दश भंग जानना चाहिए । अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें वे ही भंग त्रिगुणित और चतुर्लीन अर्थात् (१०४३-४ = २६) छब्बीस होते हैं । इसी प्रकार ये छब्बीस भंग क्षायोपशमिक देशविरत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानमें भी होते हैं। क्षपकश्रेणीवाले चारों क्षपकोंके उन्नीस उन्नीस भंग होते हैं । १ सामान्येन तावत-मिथ्यादृष्टिरित्यौदयिको भावः। स. सि.१,८.मिच्छे खलु ओदइओ। गो.जी. ११. २ प्रतिषु 'इदिकरणपरे' इति पाठः । Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ७, २.] भावाणुगमे मिच्छादिहिभाव-परूवणं [ १९५ उपशमश्रेणीवाले चारों उपशामकोंमें पृथक् पृथक् पैतीस भंग भावकी अपेक्षा होते हैं ॥ १३-१४॥ ___विशेषार्थ-ऊपर बतलाये गये भंगोंका स्पष्टीकरण इस प्रकार है- औदयिकादि पांचों मूल भावोंमेंसे मिथ्यात्वगुणस्थानमें औदयिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक, थे तीन भाव होते हैं। अतः असंयोगी या प्रत्येकसंयोगकी अपेक्षा ये तीन भंग हुए । इनके द्विसंयोगी भंग भी तीन ही होते हैं- औदयिक-क्षायोपशमिक, औदयिक-पारिणामिक और क्षायोपशमिक-पारिणामिक । तीनों भावोंका संयोगरूप त्रिसंयोगी भंग एक ही होता है । इन सात भंगोंके सिवाय स्वसंयोगी तीन भंग और होते हैं । जैसे- औदयिक-औदयिक, क्षायोपशामिक क्षायोपशमिक और पारिणामिक पारिणामिक । इस प्रकार ये सब मिलाकर (३+३+१+३ = १०) मिथ्यात्वगुणस्थानमें दश भंग होते हैं। ये ही दश भंग सासादन और मिश्र गुणस्थानमें भी जानना चाहिए । अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें पांचों मूलभाव होते हैं, इसलिए यहां प्रत्येकसंयोगी पांच भंग होते हैं। पांचों भावोंके द्विसंयोगी भंग दश होते हैं। किन्तु उनमेंसे इस गुणस्थानमें औपशमिक और क्षायिकभावका संयोगी भंग सम्भव नहीं, क्योंकि, वह उपशमश्रेणीमें ही सम्भव है। अतः दशमेंसे एक घटा देने पर द्विसंयोगी भंग नौ ही पाये जाते हैं। पांचों भावोंके त्रिसंयोगी भंग दश होते हैं। किन्तु उनमेंसे यहांपर क्षायिक-औपशमिक-औदयिक, क्षायिक-औपशमिक-पारिणामिक और क्षायिक-औपशमिक-क्षायोपशमिक, ये तीन भंग सम्भव नहीं है, अतएव शेष सात ही भंग होते हैं । पांचों भावोंके चतुःसंयोगी पांच भंग होते हैं । उनमेंसे यहांपर औदयिक क्षायोपशमिक क्षायिक-पारिणामिक, तथा औदयिक क्षायापशामक-ऑपशमिक-परिणामिक, ये दो ही भग सम्भव है, शेष तीन नहीं। इसका कारण यह है कि यहांपर क्षायिक और औपशमिकभाव साथ साथ नहीं पाये जाते हैं। इसी कारण पंचसंयोगी भंगका भी यहां अभाव है। इनके अतिरिक्त स्वसंयोगी भंगोंमेंसे क्षायोपशमिक-क्षायोपशमिक, औदयिक-औदयिक और पारिणामिक-पारिणामिक, ये तीन भंग और भी होते हैं। औपशमिक और क्षायिकके स्वसंयोगी भंग यहां सम्भव नहीं हैं। इस प्रकार प्रत्येकसंयोगी पांच, द्विसंयोगी नौ, त्रिसंयोगी सात, चतुःसंयोगी दो और स्वसंयोगी तीन, ये सब मिलाकर (५+९+७+२+३ =२६) असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें छब्बीस भंग होते हैं। ये ही छब्बीस भंग देशविरत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानमें भी होते हैं। क्षपकश्रेणीसम्बन्धी चारों गुणस्थानों में औपशमिकभावके विना शेष चार भाव ही होते हैं। अतएव उनके प्रत्येकसंयोगी भंग चार, द्विसंयोगी भंग छह, त्रिसंयोगी भंग चार और चतुःसंयोगी भंग एक होता है। तथा चारों भावोंके स्वसंयोगी चार भंग और भी होते हैं। इस प्रकार सब मिलाकर (४+६+४+१+ ४ = १९) उन्नीस भंग क्षपकश्रेणीके प्रत्येक गुणस्थानमें होते हैं। उपशमश्रेणीसम्बन्धी चारों गुणस्थानों में पांचों ही मूल भाव सम्भव हैं, क्योंकि, यहांपर क्षायिकसम्यक्त्वके साथ औपशमिकचारित्र भी पाया जाता है। अतएव पांचों भावोंके प्रत्येकसंयोगी पांच भंग, द्विसंयोगी दश भंग, त्रिसंयोगी दश भंग, चतुःसंयोगी पांच Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ७, ३. तदो मिच्छादिहिस्स ओदइओ चेव भावो अत्थि, अण्णे भावा णत्थि त्ति णेदं घडदे ? ण एस दोसो, मिच्छादिहिस्स अण्णे भावा णत्थि त्ति सुत्ते पडिसेहाभावा । किंतु मिच्छत्तं मोत्तूण जे अण्णे गदि-लिंगादओ साधारणभावा ते मिच्छादिट्टित्तस्स कारणं ण होति । मिच्छत्तोदओ एक्को चेव मिच्छत्तस्स कारणं, तेण मिच्छादिट्ठि त्ति भावो ओदइओ त्ति परूविदो। सासणसम्मादिहि त्ति को भावो, पारिणामिओ भावों ॥३॥ एत्थ चोदओ भणदि- भावो पारिणामिओ त्ति णेदं घडदे, अण्णेहिंतो अणुप्पण्णस्स परिणामस्स अत्थित्तविरोहा । अह अण्णेहिंतो उप्पत्ती इच्छिज्जदि, ण सो पारिणामिओ, णिक्कारणस्स सकारणत्तविरोहा इदि । परिहारो उच्चदे । तं जहा- जो कम्माणमुदय-उवसम-खइय-खओवसमेहि विणा अण्णेहिंतो उप्पण्णो परिणामो सो पारिणामिओ भण्णदि, ण णिक्कारणो कारणमंतरेणुप्पण्णपरिणामाभावा । सत्त-पमेयत्तादओ भंग होते हैं और पंचसंयोगी एक भंग होता है। तथा स्वसंयोगी भंग चार ही होते हैं, क्योंकि यहांपर क्षायिकसम्यक्त्वके साथ क्षायिकभावका अन्य भेद सम्भव नहीं है। इस प्रकार सब मिलाकर (५ + १० + १० + ५ + १ + ४ = ३५) पैंतीस भंग उपशमश्रेणीके प्रत्येक गुणस्थानमें होते हैं। इसलिए मिथ्यादृष्टि जीवके केवल एक औदयिक भाव ही होता है, और अन्य भाव नहीं होते हैं, यह कथन घटित नहीं होता है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, 'मिथ्यादृष्टिके औदयिक भावके अतिरिक्त अन्य भाव नहीं होते हैं, इस प्रकारका सूत्र में प्रतिषेध नहीं किया गया है। किन्तु मिथ्यात्वको छोड़कर जो अन्य गति, लिंग आदिक साधारण भाव हैं, वे मिथ्यादृष्टित्वके कारण नहीं होते हैं। एक मिथ्यात्वका उदय ही मिथ्यादृष्टित्वका कारण है, इसलिए 'मिथ्यादृष्टि' यह भाव औदयिक कहा गया है। सासादनसम्यग्दृष्टि यह कौनसा भाव है ? पारिणामिक भाव है ॥३॥ शंका-यहां पर शंकाकार कहता है कि 'भाव पारिणामिक है' यह बात घटित नहीं होती है, क्योंकि, दूसरोंसे नहीं उत्पन्न होनेवाले पारिणामके अस्तित्वका विरोध है। यदि अन्यसे उत्पत्ति मानी जावे तो पारिणामिक नहीं रह सकता है, क्योंकि, निष्कारण वस्तुके सकारणत्वका विरोध है ? समाधान-उक्त शंकाका परिहार कहते हैं । वह इस प्रकार है- जो कौके उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपमके विना अन्य कारणोंसे उत्पन्न हुआ परिणाम है, वह पारिणामिक कहा जाता है। न कि निष्कारण भावको पारिणामिक कहते हैं, क्योंकि, १ सासादनसम्यग्दृष्टिरिति पारिणामिको भावः । स. सि. १, ८. विदिये पुण पारिणामिओ भावो। गो.जी. ११. Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ७, ३.1 भावाणुगमे सासणसम्मादिहिभाव-परूवणं [१९७ भावा णिक्कारणा उपलब्भंतीदि चे ण, विसेससत्तादिसरूवेण अपरिणमंतसत्तादिसामण्णाणुवलंभा । सासणसम्मादिट्टित्तं पि सम्मत्त-चारित्तुभयविरोहिअणंताणुबंधिचउक्कस्सुदयमंतरेण ण होदि त्ति ओदइयमिदि किण्णेच्छिज्जदि ? सच्चमेयं, किंतु ण तथा अप्पणा अस्थि, आदिमचदुगुणट्ठाणभावपरूवणाए दसणमोहवदिरित्तसेसकम्मेसु विवक्खाभावा' । तदो अप्पिदस्स दंसणमोहणीयस्स कम्मस्स उदएण उवसमेण खएण खओवसमेण वाण होदि त्ति णिक्कारणं सासणसम्मत्तं, अदो चेव पारिणामियत्तं पि । अणेण णाएण सव्वभावाणं पारिणामियत्तं पसज्जदीदि चे होदु, ण कोइ दोसो, विरोहाभावा । अण्णभावेस पारिणामियववहारो किण्ण कीरदे ? ण, सासणसम्मत्तं मोत्तूण अप्पिदकम्मादो णुप्पण्णस्स अण्णस्स भावस्स अणुवलंभा ।। कारणके विना उत्पन्न होनेवाले परिणामका अभाव है। शंका-सत्त्व, प्रमेयत्व आदिक भाव कारणके विना भी उत्पन्न होनेवाले पाये जाते हैं ? समाधान-नहीं, क्योंकि, विशेष सत्त्व आदिके स्वरूपसे नहीं परिणत होनेवाले सत्त्वादि सामान्य नहीं पाये जाते हैं। शंका-सासादनसम्यग्दृष्टिपना भी सम्यक्त्व और चारित्र, इन दोनोंके विरोधी अनन्तानबन्धी चतुष्कके उदयके विना नहीं होता है, इसलिए इसे औदयिक क्यों नहीं मानते हैं ? समाधान-यह कहना सत्य है, किन्तु उस प्रकारकी यहां विवक्षा नहीं है, क्योंकि, आदिके चार गुणस्थानोसम्बन्धी भावोंकी प्ररूपणामें दर्शनमोहनीय कर्मके सिवाय शेष कर्मोंके उदयकी विवक्षाका अभाव है। इसलिए विवक्षित दर्शनमोहनीयकर्मके उदयसे, उपशमसे, क्षयसे अथवा क्षयोपशमसे नहीं होता है, अतः यह सासादनसम्यक्त्व निष्कारण है और इसीलिए इसके पारिणामिकपना भी है। शंका-इस न्यायके अनुसार तो सभी भावोंके पारिणामिकपनेका प्रसंग प्राप्त होता है ? समाधान-यदि उक्त न्यायके अनुसार सभी भावोंके पारिणामिकपनेका प्रसंग आता है, तो आने दो, कोई दोष नहीं है, क्योंकि, इसमें कोई विरोध नहीं आता। शंका-यदि ऐसा है, तो फिर अन्य भावोंमें पारिणामिकपनेका व्यवहार क्यों नहीं किया जाता है ? समाधान नहीं, क्योंकि, सासादनसम्यक्त्वको छोड़कर विवक्षित कर्मसे नहीं उत्पन्न होनेवाला अन्य कोई भाव नहीं पाया जाता। १ एदे भावा णियमा दंसणमोहं पडुच भणिदा हु। चारितं णत्थि जदो अविरदअंतस ठाणेसु॥गो.जी. १२. Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८) छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ७, ४. सम्मामिच्छादिट्ठि त्ति को भावो, खओवसमिओ भावों ॥४॥ पडिबंधिकम्मोदए संते वि जो उवलब्भइ जीवगुणावयवो सो खओवसमिओ उच्चइ । कुदो ? सव्वघादणसत्तीए अभावो खओ उच्चदि । खओ चेव उवसमो खओवसमो, तम्हि जादो भावो खओवसमिओ । ण च सम्मामिच्छत्तुदए संते सम्मत्तस्स कणिया वि उव्वरदि, सम्मामिच्छत्तस्स सव्वधादित्तण्णहाणुववत्तीदो । तदो सम्मामिच्छत्तं खओवसमियमिदि ण घडदे ? एत्थ परिहारो उच्चदे- सम्मामिच्छत्तुदए संते सद्दहणासदहणप्पओ करंचिओ जीवपरिणामो उप्पज्जइ । तत्थ जो सद्दहणंसो सो सम्मत्तावयवो । तं सम्मामिच्छत्तुदओ ण विणासेदि ति सम्मामिच्छत्तं खओवसमियं । असद्दहणभागेण विणा सद्दहणभागस्सेव सम्मामिच्छत्तववएसो णत्थि त्ति ण सम्मामिच्छत्तं खओवसमियमिदि चे एवंविहविवक्खाए सम्मामिच्छत्तं खओवसमियं मा होदु, किंतु अवयव्यवयवनिराकरणानिराकरणं पडुच्च खओवसमियं सम्मामिच्छत्तदव्वकम्मं पि सव्वघादी चेव होदु, जच्चतरस्स सम्यग्मिथ्यादृष्टि यह कौनसा भाव है ? क्षायोपशमिक भाव है ॥ ४ ॥ शंका--प्रतिबंधी कर्मके उदय होनेपर भी जो जीवके गुणका अवयव (अंश) पाया जाता है, वह गुणांश क्षायोपशमिक कहलाता है, क्योंकि, गुणोंके सम्पूर्णरूपसे घातनेकी शक्तिका अभाव क्षय कहलाता है। क्षयरूप ही जो उपशम होता है, वह क्षयो. पशम कहलाता है। उस क्षयोपशममें उत्पन्न होनेवाला भाव क्षायोपशमिक कहलाता है। किन्तु सम्यग्मिथ्यात्वकर्मके उदय रहते हुए सम्यक्त्वकी कणिका भी अवशिष्ट नहीं रहती है, अन्यथा, सम्यग्मिथ्यात्वकर्मके सर्वघातीपना बन नहीं सकता है। इसलिए सम्यग्मिथ्यात्वभाव क्षायोपशमिक है, यह कहना घटित नहीं होता? ___ समाधान- यहां उक्त शंकाका परिहार करते हैं- सम्यग्मिथ्यात्वकर्मके उदय होने पर श्रद्धानाश्रद्धानात्मक करंचित अर्थात् शबलित या मिश्रित जीवपरिणाम उत्पन्न होता है, उसमें जो श्रद्धानांश है, वह सम्यक्त्वका अवयव है। उसे सम्यग्मिथ्यात्व कर्मका उदय नहीं नष्ट करता है, इसलिये सम्यग्मिथ्यात्वभाव क्षायोपशमिक है।। शंका-अश्रद्धान भागके विना केवल श्रद्धान भागके ही 'सम्यग्मिथ्यात्व' यह संशा नहीं है, इसलिए सम्यग्मिथ्यात्वभाव क्षायोपशमिक नहीं है ? समाधान-उक्त प्रकारकी विवक्षा होने पर सम्यग्मिथ्यात्वभाव क्षायोपशमिक भले ही न होवे, किन्तु अवयवीके निराकरण और अवयवके अनिराकरणकी अपेक्षा वह क्षायोपशमिक है । अर्थात् सम्यग्मिथ्यात्वके उदय रहते हुए अवयवीरूप शुद्ध आत्माका तो निराकरण रहता है, किन्तु अवयवरूप सम्यक्त्वगुणका अंश प्रगट रहता है । इस प्रकार क्षायोपशमिक भी वह सम्यग्मिथ्यात्व द्रव्यकर्म सर्वघाती ही होवे, क्योंकि, १ सम्यग्मिध्यादृष्टिरिति क्षायोपशमिको भावः । स. सि. १,८. मिस्से खओवसमिओ। गो.जी.११. २ प्रतिषु 'तं ओवसमियं' इति पाठः। Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ७, ५.] भावाणुगमे असंजदसम्मादिट्ठिभाव-परूवणं [१९९ सम्मामिच्छत्तस्स सम्मत्ताभावादो। किंतु सद्दहणभागो असद्दहणभागो ण होदि, सद्दहणासद्दहणाणमेयत्तविरोहा । ण च सद्दहणभागो कम्मोदयजणिओ, तत्थ विवरीयत्ताभावा । ण य तत्थ सम्मामिच्छत्तववएसाभावो, समुदाएसु पयट्टाणं तदेगदेसे वि पउत्तिदसणादो। तदो सिद्धं सम्मामिच्छत्तं खओवसमियमिदि । मिच्छत्तस्स सव्वधादिफद्दयाणमुदयक्खएण तेसिं चेव संतोवसमेण सम्मत्तस्स देसघादिफद्दयाणमुदयक्खएण तेसिं चेव संतोवसमेण अणुदओवसमेण वा सम्मामिच्छत्तस्स सव्वघादिफद्दयाणमुदएण सम्मामिच्छत्तभावो होदि त्ति सम्मामिच्छत्तस्स खओवसमियत्तं केई परूवयंति, तण्ण घडदे, मिच्छत्तभावस्स वि खओवसमियत्तप्पसंगा । कुदो ? सम्मामिच्छत्तस्स सव्वधादिफद्दयाणमुदयक्खएण तेसिं चेव संतोवसमेण सम्मत्तदेसघादिफद्दयाणमुदयक्खएण तेसिं चेव संतोवसमेण अणुदओवसमेण वा मिच्छत्तस्स सव्वघादिफद्दयाणमुदएण मिच्छत्तभावुप्पत्तीए उवलंभा । असंजदसम्माइट्टि त्ति को भावो, उवसमिओ वा खइओ वा खओवसमिओ वा भावों ॥५॥ जात्यन्तरभूत सम्यग्मिथ्यात्वकर्मके सम्यक्त्वताका अभाव है। किन्तु श्रद्धानभाग अश्रद्धानभाग नहीं हो जाता है, क्योंकि, श्रद्धान और अश्रद्धानके एकताका विरोध है। और श्रद्धानभाग कर्मोदय-जनित भी नहीं है, क्योंकि, इसमें विपरीतताका अभाव है। और न उनमें सम्यग्मिथ्यात्व संज्ञाका ही अभाव है, क्योंकि, समुदायों में प्रवृत्त हुए शब्दोंकी उनके एक देशमें भी प्रवृत्ति देखी जाती है। इसलिए यह सिद्ध हुआ कि सम्यग्मिथ्यात्व क्षायोपशमिक भाव है। कितने ही आचार्य ऐसा कहते हैं कि मिथ्यात्वके सर्वघाती स्पर्धकोंके उदयक्षयसे, उन्हींके सदवस्थारूप उपशमसे, सम्यक्त्वप्रकृतिके देशघाती स्पर्धकोंके उदयक्षयसे, उन्हींके सदवस्थारूप उपशमसे, अथवा अनुदयरूप उपशमसे और सम्यग्मिथ्यात्व कर्मके सर्वघाती स्पर्धकोंके उदयसे सम्यग्मिथ्यात्वभाव होता है, इसलिए सम्यग्मिथ्यात्वके क्षायोपशमिकता सिद्ध होती है। किन्तु उनका यह कथन घटित नहीं होता है, क्योंकि, ऐसा मानने पर तो मिथ्यात्वभावके भी क्षायोपशमिकताका प्रसंग प्राप्त होगा, क्योंकि, सम्यग्मिथ्यात्वके सर्वघाती स्पर्धकोंके उदयक्षयसे, उन्हींके सदवस्थारूप उपशमसे और सम्यक्त्वदेशघाती स्पर्धकोंके उदयक्षयसे, उन्हींके सदवस्थारूप उपशमसे, अथवा अनुदयरूप उपशमसे, तथा मिथ्यात्वके सर्वघाती स्पर्धकोंके उदयसे मिथ्यात्वभावकी उत्पत्ति पाई जाती है। __ असंयतसम्यग्दृष्टि यह कौनसा भाव है ? औपशमिक भाव भी है, क्षायिक भाव भी है और क्षायोपशमिक भाव भी है ॥५॥ १ असंयतसम्यग्दृष्टिरिति औपशमिको वा क्षायिको वा क्षायोपशमिको वा भावः । स. सि. १,८. भविरदसम्मम्हि तिण्णेव ॥ गो. जी. ११. Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ७, ५. तं जहा - मिच्छत्त सम्मामिच्छत्तसव्त्रघादिफद्दयाणं सम्मत्तदेसघादिफद्दयाणं च उवसमेण उद्याभावलक्खणेण उवसमसम्मत्तमुप्पज्जदि त्ति तमोवसमियं । एदेसिं चेव खरण उप्पण्णो खइओ भावो । सम्मत्तस्स देसवादिफदयाणमुदएण सह वट्टमाणो सम्मत्तपरिणामो खओवसमिओ । मिच्छत्तस्स सव्वघादिफद्दयाणमुदयक्खएण तेसिं चेव संतोवसमेण सम्मामिच्छत्तस्स सव्वघादिफद्दयाणमुदयक्खएण तेसिं चेत्र संतोवसमेण अणुदओवसमेण वा सम्मत्तस्स देसघादिफद्दयाणमुदएण खओवसमिओ भावो त्ति केई भणति, तण्ण घडदे, अवत्तिदोसप्पसंगादो । कधं पुण घडदे ? जहट्ठियट्ठसद्दहणघायण सत्ती सम्मत्तफएस खीणा त्ति तेसिं खइयसण्णा । खयाणमुवसमो पसण्णदा खओवसमो । तत्थुप्पण्णत्तादो खओवसमियं वेद्गसम्मत्तमिदि घडदे । एवं सम्मत्ते तिष्णि भावा, अण्णे णत्थि । गदिलिंगादओ भावा तत्थुवलंत इदि चे होदु णाम तेसिमत्थित्तं, किंतु ण तेहिंतो सम्मत्तमुपज्जदि । तदो सम्मादिट्ठी वि ओदइयादिववएसं ण लहदि त्ति घेत्तं । जैसे - मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिके सर्वघाती स्पर्धकोंके तथा सम्यक्त्वप्रकृतिके देशघाती स्पर्धकोंके उदयाभावरूप लक्षणवाले उपशम से उपशमसम्यक्त्व उत्पन्न होता है, इसलिए ' असंयतसम्यग्दृष्टि ' यह भाव औपशमिक है । इन्हीं तीनों प्रकृतियोंके क्षयसे उत्पन्न होनेवाले भावको क्षायिक कहते हैं । सम्यक्त्वप्रकृतिके देशघाती स्पर्धकोंके उदयके साथ रहनेवाला सम्यक्त्वपरिणाम क्षायोपशमिक कहलाता है । मिथ्यात्व के सर्वघाती स्पर्धकोंके उदद्याभावरूप क्षयसे, उन्हींके सदवस्थारूप उपशमसे और सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिके सर्वघाती स्पर्धकोंके उदयक्षयसे, तथा उन्हींके सदवस्थारूप उपशम से अथवा अनुदयोपशमनसे, और सम्यक्त्वप्रकृतिकें देशघाती स्पर्धकोंके उदयसे क्षायोपशमिक भाव कितने ही आचार्य कहते हैं, किन्तु यह कथन घटित नहीं होता है, क्योंकि, वैसा मानने पर अतिव्याप्ति दोषका प्रसंग आता है । शंका -- तो फिर क्षायोपशमिकभाव कैसे घटित होता है ? समाधान - - यथास्थित अर्थके श्रद्धानको घात करनेवाली शक्ति जब सम्यक्त्वप्रकृतिके स्पर्धकोंमें क्षीण हो जाती है, तब उनकी क्षायिकसंज्ञा है । क्षीण हुए स्पर्धकोंके उपशमको अर्थात् प्रसन्नताको क्षयोपशम कहते । उसमें उत्पन्न होनेसे वेदकसम्यक्त्व क्षायोपशमिक है, यह कथन घटित हो जाता है । इस प्रकार सम्यक्त्वमें तीन भाव होते हैं, अन्य भाव नहीं होते हैं । शंका - असंयतसम्यग्दृष्टिमें गति, लिंग आदि भाव पाये जाते हैं, फिर उनका ग्रहण यहां क्यों नहीं किया ? समाधान -- असंयतसम्यग्दृष्टिमें भले ही गति, लिंग आदि भावोंका अस्तित्व रहा आवे, किन्तु उनसे सम्यक्त्व उत्पन्न नहीं होता है, इसलिए सम्यग्दृष्टि भी औदयिक आदि भावोंके व्यपदेशको नहीं प्राप्त होता है, ऐसा अर्थ ग्रहण करना चाहिए । १ प्रतिषु ' पसण्णदो ' इति पाठः । Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ७, ७.) भावाणुगमे संजदासंजद-पमत्त-अप्पमत्तभाव-परूवणं [२.१. ओदइएण भावेण पुणो असंजदों ॥६॥ सन्मादिट्ठीए तिण्णि भाव भणिऊण असंजदत्तस्स कदमो भावो होदि त्ति जाणावणट्ठमेदं सुत्तमागदं । संजमघादीणं कम्माणमुदएण जेणेसो असंजदो तेण असंजदो त्ति ओदइओ भावो । हेडिल्लाणं गुणट्ठाणाणमोदइयमसंजदत्तं किण्ण परूविदं ? ण एस दोसो, एदेणेव तेसिमोदइयअसंजदभावोवलद्धीदो। जेणेदमंतदीवयं सुत्तं तेणते ठाइदूण अइकंतसव्वसुत्ताणमवयवसरूवं पडिवज्जदि, तत्थ अप्पणो अत्थित्तं वा पयासेदि, तेण अदीदगुणट्ठाणाणं सव्वेसिमोदइओ असंजमभावो अस्थि त्ति सिद्धं । एदमादीए अभणिय एत्थ भणंतस्स को अभिप्पाओ ? उच्चदे- असंजमभावस्स पज्जवसाणपरूवणमुवरिमाणमसंजमभावपडिसेहट्टं चेत्थेदं उच्चदे ।। ___ संजदासंजद-पमत्त-अप्पमत्तसंजदा त्ति को भावो, खओवसमिओ भावो ॥७॥ किन्तु असंयतसम्यग्दृष्टिका असंयतत्व औदायकभावसे है ॥ ६॥ सम्यग्दृष्टिके तीनों भाव कहकर असंयतके उसके असंयतत्वकी अपेक्षा कौनसा भाव होता है, इस बातके बतलानेके लिए यह सूत्र आया है। चूंकि संयमके घात करनेवाले कर्मोके उदयसे यह असंयतरूप होता है, इसलिए 'असंयत' यह औदयिकभाव है। शंका-अधस्तन गुणस्थानोंके असंयतपनेको औदयिक क्यों नहीं कहा? समाधान—यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, इसी ही सूत्रसे उन अधस्तन गुणस्थानोंके औदयिक असंयतभावकी उपलब्धि होती है। चूंकि यह सूत्र अन्तदीपक है, इसलिए असंयतभावको अन्तमें रख देनेसे वह पूर्वोक्त सभी सूत्रोंका अंग बन जाता है। अथवा, अतीत सर्व सूत्रोंमें अपने अस्तित्वको प्रकाशित करता है, इसलिए सभी अतीत गुणस्थानोंका असंयमभाव औदयिक होता है, यह बात सिद्ध हुई। शंका-यह 'असंयत' पद आदिमें न कहकर यहांपर कहनेका क्या अभिप्राय है? समाधान—यहां तकके गुणस्थानोंके असंयमभावकी अन्तिम सीमा बतानेके लिए और ऊपरके गुणस्थानोंके असंयमभावके प्रतिषेध करनेके लिए यह असंयत पद यहांपर कहा है। संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत, यह कौनसा भाव है ? क्षायोपशमिक भाव है ॥७॥ १ असंयतः पुनरौदयिकेन भावेन । स. सि. १, ८. २ संयतासंयतः प्रमत्तसंयतोऽप्रमत्तसंयत इति च क्षायोपशमिको भावः। स. सि. १,८. देसविरदे पमत्ते इदरे य खओवसमियभावो दु । सो खलु चरित्तमोहं पडुच्च भणियं तहा उवरं । गो. जी. १३. Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ७, ७. तं जहा- चारित्तमोहणीयकम्मोदर खओवसमसण्णिदे संते जदो संजदासंजदपमत्तसंजद - अप्पमत्त संजदत्तं च उप्पज्जदि, तेणेदे तिण्णि वि भावा खओवसमिया । पच्चक्खाणावरण-चदुसंजलण-णवणोकसायाणमुदयस्स सव्वष्पणा चारित्तविणासणसत्तीए अभावादी तस्स खयसण्णा । तेसिं चेव उप्पण्णचारित्तं सेडिं वावारंतस्स उवसमसण्णा | हि दोहिंतो उप्पण्णा एदे तिण्णि वि भावा खओवसमिया जादा । एवं संते पच्चक्खाणावरणस्स सव्वघादित्तं फिट्टदि ति उत्ते ण फिट्टदि, पच्चक्खाणं सव्वं घादयदि तितं सव्वधादी उच्चदि । सव्वमपच्चक्खाणं ण घादेदि, तस्स तत्थ वावाराभावा । तेण तप्परिणदस्स सव्वघादिसण्णा । जस्सोदए संते जमुप्पज्जमाणमुवलब्भदि ण तं पडि तं सव्वघाइववएसं लहह, अइप्पसंगादो | अपच्चक्खाणावरणचउक्कस्स सव्वघादिफद्दयाणमुदयक्खएण तेसिं चैव संतोवसमेण चदुसंजल-णवणोकसायाणं सव्वघादिफद्दयाणमुदयक्खएण तेसिं चेव संतोवसमेण देसघादिफद्दयाणमुदएण पच्चक्खाणावरणचदुक्कस्स सव्त्रघादिफद्दयाणमुदएण देससंजमो चूंकि क्षयोपशमनामक चारित्रमोहनीयकर्मका उदय होने पर संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयतपना उत्पन्न होता है, इसलिए ये तीनों ही भाव क्षायोपशमिक हैं । प्रत्याख्यानावरणचतुष्क, संज्वलनचतुष्क और नव नोकषायके उदयके सर्व प्रकारसे चारित्र विनाश करनेकी शक्तिका अभाव है, इसलिए उनके उदयकी क्षय संज्ञा है। उन्हीं प्रकृतियों की उत्पन्न हुए चारित्रको अथवा श्रेणीको आवरण नहीं करनेके कारण उपशम संज्ञा है । क्षय और उपशम, इन दोनोंके द्वारा उत्पन्न हुए ये उक्त तीनों भाव भी क्षायोशमिक हो जाते हैं । शंका- यदि ऐसा माना जाय, तो प्रत्याख्यानावरण कषायका सर्वघातिपना नष्ट हो जाता है ? समाधान -- वैसा माननेपर भी प्रत्याख्यानावरण कषायका सर्वघातिपना नष्ट नहीं होता है, क्योंकि, प्रत्याख्यानावरण कषाय अपने प्रतिपक्षी सर्व प्रत्याख्यान (संयम) गुणको घातता है, इसलिए वह सर्वघाती कहा जाता है । किन्तु सर्व अप्रत्याख्यानको नहीं घातता है, क्योंकि, उसका इस विषय में व्यापार नहीं है । इसलिए इस प्रकार से परिणत प्रत्याख्यानावरण कषायके सर्वघाती संज्ञा सिद्ध है । जिस प्रकृतिके उदय होने पर जो गुण उत्पन्न होता हुआ देखा जाता है, उसकी अपेक्षा वह प्रकृति सर्वघाति संज्ञाको नहीं प्राप्त होती है । यदि ऐसा न माना जाय तो अतिप्रसंग दोष आजायगा । अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कके सर्वघाती स्पर्धकोंके उदयक्षयसे और उन्हींके सदवस्थारूप उपशमसे, तथा चारों संज्वलन और नवों नोकषायोंके सर्वघाती स्पर्धकोंके उदयाभावी क्षयसे और उन्हींके सदवस्थारूप उपशमसे तथा देशघाती स्पर्धकोंके उदयसे और प्रत्याख्यानावरण कषायचतुष्कके सर्वघाती स्पर्धकोंके उदयसे देशसयंम उत्पन्न होता Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ७, ७.] भावाणुगमे संजदासजद पमत्त अप्पमत्तभाव-परूवणं [२०३ उप्पज्जदि । वारसकसायाणं सव्वधादिफद्दयाणमुदयक्खएण तेसिं चेव संतोवसमेण चद्संजुलण-णवणोकसायाणं सव्वघादिफद्दयाणमुदयक्खएण तेसिं चेव संतोवसमेण देसघादिफद्दयाणमुदएण पमत्तापमत्तसंजमा उप्पजंति, तेणेदे तिण्णि वि भावा खओवसमिया इदि के वि भणंति । ण च एवं समंजसं । कुदो ? उदयाभावो उवसमो त्ति कट्ट उदयविरहिदसव्वपयडीहि द्विदि-अणुभागफद्दएहि अ उवसमसण्णा लद्धा । संपहि ण क्खओ अस्थि, उदयस्स विज्जमाणस्स खयव्ववएसविरोहादो। तदो एदे तिण्णि भावा उदओवसमियत्तं पत्ता । ण च एवं, एदेसिमुदओवसमियत्तपदुप्पायणसुत्ताभावा । ण च फलं दाऊण णिज्जरियगयकम्मक्खंडाणं खयव्यवएसं काऊण एदेसिं खओवसमियचं वोत्तुं जुत्तं, मिच्छादिद्विआदि सव्वभावाणं एवं सते खओवसमियत्तप्पसंगा। तम्हा पुग्विल्लो चेय अत्थो घेत्तव्यो, णिरवज्जत्तादो । दसणमोहणीयकम्मस्स उवसम-खय-खओवसमे अस्सिदूण संजदासंजदादीणमोवसमियादिभावा किण्ण परूविदा? ण, तदो संजमासंजमादिभावाणमुप्पत्तीए अभावादो। ण च एत्थ सम्मत्तविसया पुच्छा अत्थि, जेण दंसणहै । अनन्तानुबन्धी आदि बारह कषायोंके सर्वघाती स्पर्धकोंके उदयक्षयसे, उन्हींके सदवस्थारूप उपशमसे चारों संज्वलन और नवों नोकषायोंके सर्वघाती स्पर्धकोके उदयक्षयसे, तथा उन्हींके सदवस्थारूप उदयसे और देशघाती स्पर्धकोंके उदयसे प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थानसम्बन्धी संयम उत्पन्न होता है, इसलिए उक्त तीनों ही भाव क्षायोपशमिक हैं, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं। किन्तु उनका यह कथन युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि, उदयके अभावको उपशम कहते हैं, ऐसा अर्थ करके उदयसे विरहित सर्वप्रकृतियोंको तथा उन्हींके स्थिति और अनुभागके स्पर्धकोको उपशमसंक्षा प्राप्त हो जाती है। अभी वर्तमानमें क्षय नहीं है, क्योंकि, जिस प्रकृतिका उदय विद्यमान है, उसके क्षय संज्ञा होनेका विरोध है। इसलिए ये तीनों ही भाव उदयोपशमिकपनेको प्राप्त होते हैं। किन्तु ऐसा माना नहीं जा सकता है, क्योंकि, उक्त तीनों गुणस्थानों के उदयोपशमिकपना प्रतिपादन करनेवाले सूत्रका अभाव है। और, फलको देकर एवं निर्जराको प्राप्त होकर गये हुए कर्मस्कंधोंके 'क्षय' संज्ञा करके उक्त गुणस्थानोंको क्षायोपशमिक कहना भी युक्त नहीं है, क्योंकि ऐसा होनेपर मिथ्यादृष्टि आदि सभी भावोंके क्षायोपशमिकताका प्रसंग प्राप्त हो जायगा। इसलिए पूर्वोक्त ही अर्थ ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि, वही निरवद्य (निर्दोष ) है। शंका-दर्शनमोहनीयकर्मके उपशम, क्षय और क्षयोपशमका आश्रय करके संयतासंयतादिकोंके औपशमिकादि भाव क्यों नहीं बताये गये ? समाधान नहीं, क्योंकि, दर्शनमोहनीयकर्मके उपशमादिकसे संयमासंयमादि भावोंकी उत्पत्ति नहीं होती। दूसरे, यहां पर सम्यक्त्व-विषयक पृच्छा (प्रश्न) भी नहीं है, १ प्रतिषु 'संजमो' इति पाठः। Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खडागमे जीवद्वाणं मोहणिबंधणओवसमियादिभावेहि संजदासंजदादीणं ववएसो होज्ज । तधावलंभा । ३०४ ] चदुण्हमुवसमा त्ति को भावो, ओवसमिओ भावों ॥ ८ ॥ तं जहा - एक्कवीसपयडीओ उवसामेति त्ति चदुन्हं ओवसमिओ भावो । होदु णाम उवसंतकसायस्स ओवसमिओ भावो उवसमिदासेस कसायत्तादो | ण सेसाणं, तत्थ असेसमोहस्सुवसमाभावा ? ण, अणियट्टिबादरसांपराइय- मुहुमसांपराइयाणं उवसमिदथोवकसायजणिदुवसमपरिणामा ओवसमियभावस्त अत्थित्ताविरोहा । अपुव्वकरणस्स अणुवसंतासेसकसायस्स कधमोवसमिओ भावो ! ण, तस्स वि अपुव्त्रकरणेहि पडि - समयमसंखेज्जगुणाए सेडीए कम्मक्खंडे णिज्जरंतस्स डिदि - अणुभागखंडयाणि घादिदूण कमेण ठिदि-अणुभागे संखेज्जाणंतगुणहीणे करेंतस्स पारद्भुवसमण किरियस्स तदविरोहा । जिससे कि दर्शनमोहनीय- निमित्तक औपशमिकादि भावोंकी अपेक्षा संयतासंयतादिकके औपशमिकादि भावोंका व्यपदेश हो सके। ऐसा है नहीं, क्योंकि, उस प्रकारकी व्यवस्था नहीं पाई जाती है । [ १, ७, ८. ण च एवं, अपूर्वकरण आदि चारों गुणस्थानवर्ती उपशामक यह कौनसा भाव है ? औपशमिक भाव है ॥ ८ ॥ वह इस प्रकार है- चारित्रमोहनीयकर्मकी इक्कीस प्रकृतियोंका उपशमन करते हैं, इसलिए चारों गुणस्थानवर्ती जीवोंके औपशमिकभाव माना गया है । शंका-समस्त कषाय और नोकषायोंके उपशमन करनेसे उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ जीवके औपशमिक भाव भले ही रहा आवे, किन्तु अपूर्वकरणादि शेष गुणस्थानवर्ती जीवोंके औपशमिक भाव नहीं माना जा सकता है, क्योंकि, उन गुणस्थानोंमें समस्त मोहनीयकर्मके उपशमका अभाव है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, कुछ कषायोंके उपशमन किए जानेसे उत्पन्न हुआ है उपशम परिणाम जिनके, ऐसे अनिवृत्तिकरण बादरसाम्पराय और सूक्ष्मसाम्पराय - संयतके उपशमभावका अस्तित्व माननेमें कोई विरोध नहीं है । 2 शंका- नहीं उपशमन किया है किसी भी कषायका जिसने ऐसे अपूर्वकरणसंयतके औपशमिक भाव कैसे माना जा सकता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, अपूर्वकरण-परिणामोंके द्वारा प्रतिसमय असंख्यातगुणश्रेणीरूप से कर्मस्कंधोंकी निर्जरा करनेवाले, तथा स्थिति और अनुभागकांडकोंको घात करके क्रमसे कषायकी स्थिति और अनुभागको असंख्यात और अनन्तगुणित हीन करनेवाले, तथा उपशमनक्रियाका प्रारंभ करनेवाले, ऐसे अपूर्वकरणसंयतके उपशमभावके मानने में कोई विरोध नहीं है । १ प्रतिषु ' उवसमो' इति पाठः । २ चतुर्णामुपशमकानामौपशमिको भावः । स. सि. १, ८. उवसमभावो उवसामगेसु । गो. जी १४. Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ७, ९. j भावागमे खगभाव - परुवर्ण [ २०५ कम्माणमुवसमेण उप्पण्णो भावो ओवसमिओ भण्णइ । अपुव्त्रकरणस्स तदभावा गोवसमिओ भावो इदि चे ण उवसमणसत्तिसमण्णिदअपुव्वकरणस्स तदत्थित्ताविरोहा । तथा च उवसमे जादो उवसमियकम्माणमुवसमणङ्कं जादो वि ओवसमिओ भाओ ति सिद्धं । अधवा भविस्समाणे भूदोवयारादो अपुव्यकरणस्स ओवसमिओ भावो, सयलासंजमे चक्करस्स तित्थयरववएसो व्व । चदुहं खवा सजोगिकेवली अजोगिकेवलि त्ति को भावो, खइओ भावो ॥ ९ ॥ सजोगि-अजोगिकेवलीणं खविदधाइकम्माणं होदु णाम खइओ भावो । खीणकसायरस वि हो, खविदमोहणीयत्तादो | ण सेसाणं, तत्थ कम्मक्खयाणुवलंभा ? ण, बादर-सुहुमसांपराइयाणं पि खवियमो हेयदेसाणं कम्मक्खयजणिदभावोवलंभा । अपुच्च शंका--कर्मोंके उपशमनसे उत्पन्न होनेवाला भाव औपशमिक कहलाता है । किन्तु अपूर्वकरणसंयतके कर्मोंके उपशमका अभाव है, इसलिए उसके औपशमिक भाव नहीं मानना चाहिए ? समाधान- नहीं, क्योंकि, उपशमनशक्तिसे समन्वित अपूर्वकरणसंयतके औपशमिकभाव के अस्तित्वको माननेमें कोई विरोध नहीं है । इस प्रकार उपशम होनेपर उत्पन्न होनेवाला और उपशमन होने योग्य कर्मोंके उपशमनार्थ उत्पन्न हुआ भी भाव औपशमिक कहलाता है, यह बात सिद्ध हुई । अथवा, भविष्य में होनेवाले उपशम भावमें भूतकालका उपचार करनेसे अपूर्वकरणके औपशमिक भाव बन जाता है, जिस प्रकार कि सर्व प्रकार के असंयममें प्रवृत्त हुए चक्रवर्ती तीर्थकरके 'तीर्थकर ' यह व्यपदेश बन जाता है । चारों क्षपक, सयोगिकेवली और अयोगिकेवली, यह कौनसा भाव है ? क्षायिक भाव है ॥ ९॥ & शंका-घातिकमोंके क्षय करनेवाले सयोगिकेवली और अयोगिकेवलीके क्षायिक भाव भले ही रहा आवे । क्षीणकषाय वीतरागछद्मस्थके भी क्षायिक भाव रहा आवे, क्योंकि, उसके भी मोहनीय कर्मका क्षय हो गया है। किन्तु सूक्ष्मसाम्पराय आदि शेष क्षपकोंके क्षायिक भाव मानना युक्ति-संगत नहीं है, क्योंकि, उनमें किसी भी कर्मका क्षय नहीं पाया जाता है ? समाधान —— नहीं, क्योंकि, मोहनीयकर्मके एक देशके क्षपण करनेवाले बादरसाम्पराय और सूक्ष्मसाम्पराय क्षपकोंके भी कर्मक्षय-जनित भाव पाया जाता है । १ चतुर्षु क्षपकेषु सयोगायोगकेवलिनोश्च क्षायिको भावः । स. सि. ३, ८. खवगेसु खइओ भावो णियमा अजोगिचरिमो ति सिद्धे य ॥ गो. जी. १४. Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ७, १०. करणस्स अविणट्ठकम्मस्स कधं खइओ भावो ? ण, तस्स वि कम्मक्खयणिमित्तपरिणामुवलंभा । एत्थ वि कम्माणं खए जादो खइओ, खयर्ट जाओ वा खइओ भावो इदि दुविहा सदउप्पत्ती घेत्तव्या । उवयारेण वा अपुव्यकरणस्स खइओ भावो । उवयारे आसइज्जमाणे अइप्पसंगो किण्ण होदीदि चे ण, पच्चासत्तीदो अइप्पसंगपडिसेहादो । ओघाणुगमो समत्तो । आदेसेण गइयाणुवादेण णिरयगईए णेरइएसु मिच्छादिहि त्ति को भावो, ओदइओ भावों ॥ १०॥ कुदो ? मिच्छत्तुदयजणिदअसद्दहणपरिणामुवलंभा । सम्मामिच्छत्तसव्वघादिफद्दयाणमुदयक्खएण तेसिं चेव संतोवसमेण सम्मत्तदेसघादिफद्दयाणमुदयक्खएण तेसिं चेव संतोवसमेण अणुदओवसमेण वा मिच्छत्तसव्वघादिफद्दयाणमुदएण मिच्छाइट्ठी शंका-किसी भी कर्मके नष्ट नहीं करनेवाले अपूर्वकरणसंयतके क्षायिकभाव कैसे माना जा सकता है ? समाधान नहीं, क्योंकि, उसके भी कर्मक्षयके निमित्तभूत परिणाम पाये जाते हैं। यहां पर भी कर्मोंके क्षय होने पर उत्पन्न होनेवाला भाव क्षायिक है, तथा कौके क्षयके लिए उत्पन्न हुआ भाव क्षायिक है, ऐसी दो प्रकारकी शब्द-व्युत्पत्ति ग्रहण करना चाहिए। अथवा उपचारसे अपूर्वकरण संयतके क्षायिक भाव मानना चाहिए। शंका-इस प्रकार सर्वत्र उपचारके आश्रय करने पर अतिप्रसंग दोष क्यों नहीं प्राप्त होगा? समाधान- नहीं, क्योंकि, प्रत्यासत्ति अर्थात् समीपवर्ती अर्थके प्रसंगसे अतिप्रसंग दोषका प्रतिषेध हो जाता है। इस प्रकार ओघ भावानुगम समाप्त हुआ। आदेशकी अपेक्षा गतिमार्गणाके अनुवादसे नरकगतिमें नारकियोंमें मिथ्यादृष्टि यह कौनसा भाव है ? औदयिक भाव है ॥ १०॥ क्योंकि, वहां पर मिथ्यात्वके उदयसे उत्पन्न हुआ अश्रद्धानरूप परिणाम पाया जाता है। शंका-सम्याग्मथ्यात्वप्रकृतिके सर्वघाती स्पर्धकोंके उदयक्षयसे, उन्हींके सक्षवस्थारूप उपशमसे, तथा सम्यक्त्वप्रकृतिके देशघाती स्पर्धकोंके उदयक्षयसे, उन्हींके सववस्थारूप उपशमसे अथवा अनुदयोपशमसे और मिथ्यात्वप्रकृतिके सर्वघाती १ प्रतिषु ‘खयट्ठज्जाओ' इति पाठः । २ विशेषेण गत्यनुवादेन नरकगतौ प्रथमायां पृथिव्यां नारकाणां मिथ्यादृष्टयाद्यसंयतसम्यग्दृष्टयन्तानां सामान्यवत् । स. सि. १,८. ३ अप्रतौ 'सम्मत्सदेसघादि ... ...संतोवसमेण ' इति पाठस्य द्विरावृत्तिः। Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १,७, ११.] भावाणुगमे णेरइयभाव-परूवणं [२०७ उप्पज्जदि त्ति खओवसमिओ सो किण्ण होदि ? उच्चदे- ण ताव सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तदेसघादिफद्दयाणमुदयक्खओ संतोवसमो अणुदओवसमो वा मिच्छादिट्ठीए कारणं, सव्वहिचारित्तादो । जं जदो णियमेण उप्पज्जदि तं तस्स कारणं, अण्णहा अणवत्थाप्पसंगादो । जदि मिच्छत्तुप्पज्जणकाले विज्जमाणा तक्कारणत्तं पडिवज्जंति तो णाण-दंसण-असंजमादओ वि तक्कारणं होति । ण चेवं, तहाविहववहाराभावा । मिच्छादिट्ठीए पुण मिच्छत्तुदओ कारणं, तेण विणा तदणुप्पत्तीए । सासणसम्माइट्टि त्ति को भावो, पारिणामिओ भावो ॥११॥ अर्णताणुबंधीणमुदएणेव सासणसम्मादिट्ठी होदि त्ति ओदइओ भावो किण्ण उच्चदे ? ण, आइल्लेसु चदुसु वि गुणट्ठाणेसु चारित्तावरणतिव्योदएण पत्तासंजमेसु दंसणमोहणिबंधणेसु चारित्तमोहविवक्खाभावा । अप्पिदस्स दंसणमोहणीयस्स उदएण उवसमेण खएण खओवसमेण वा सासणसम्मादिट्ठी ण होदि त्ति पारिणामिओ भावो । स्पर्धकोंके उदयसे मिथ्यादृष्टिभाव उत्पन्न होता है, इसलिए उसे क्षायोपशमिक क्यों न माना जाय? समाधान न तो सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व, इन दोनों प्रकृतियोंके देशघाती. स्पर्धकोंका उदयक्षय, अथवा सदवस्थारूप उपशम, अथवा अनुदयरूप उपशम मिथ्यादृष्टिभावका कारण है, क्योंकि, उसमें व्यभिचार दोष आता है । जो जिससे नियमतः उत्पन्न होता है, वह उसका कारण होता है। यदि ऐसा न माना जावे, तो अनवस्था दोषका प्रसंग आता है। यदि यह कहा जाय कि मिथ्यात्वके उत्पन्न होनेके कालमें जो भाव विद्यमान हैं, वे उसके कारणपनेको प्राप्त होते हैं। तो फिर ज्ञान, दर्शन, असंयम आदि भी मिथ्यात्वके कारण हो जावेंगे। किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, उस प्रकारका व्यवहार नहीं पाया जाता है । इसलिए यही सिद्ध होता है कि मिथ्यादृष्टिका कारण मिथ्यात्वका उदय ही है, क्योंकि, उसके विना मिथ्यात्वभावकी उत्पत्ति नहीं होती है। नारकी सासादनसम्यग्दृष्टि यह कौनसा भाव है ? पारिणामिक भाव है ॥११॥ शंका-अनन्तानुबन्धी चारों कषायोंके उदयसे ही जीव सासादनसम्यग्दृष्टि होता है, इसलिए उसे औदयिकभाव क्यों नहीं कहते हैं ? समाधान नहीं,क्योंकि, दर्शनमोहनीयनिबन्धनक आदिके चारों ही गुणस्थानोंमें चारित्रको आवरण करनेवाले मोहकर्मके तीव्र उदयसे असंयमभावके प्राप्त होनेपर भी चारित्रमोहनीयको विवक्षा नहीं की गई है। अतएव विवक्षित दर्शनमोहनीय कर्मके उदयसे, उपशमसे, क्षयसे, अथवा क्षयोपशमसे सासादनसम्यग्दृष्टि नहीं होता है, इसलिए वह पारिणामिक भाव है। १ अ-कप्रत्योः 'अणवद्धा' इति पाठः। Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ७, १२. सम्मामिच्छादिट्ठि त्ति को भावो, खओवसमिओ भावो ॥१२॥ कुदो ? सम्मामिच्छत्तुदए संते वि सम्मदंसणेगदेसमुवलंभा। सम्मामिच्छत्तभावे पत्तजच्चंतरे अंसंसीभावो णत्थि त्ति ण तत्थ सम्मदंसणस्स एगदेस इदि चे, होदु णाम अभेदविवक्खाए जच्चतरत्तं । भेदे पुण विवक्खिदे सम्मईसणभागो अत्थि चेव, अण्णहा जच्चतरत्तविरोहा । ण च सम्मामिच्छत्तस्स सव्वघाइत्तमेवं संते विरुज्झइ, पत्तजच्चंतरे सम्मइंसणंसाभावदो तस्स सव्वघाइत्ताविरोहा । मिच्छत्तसव्वघाइफद्दयाणं उदयक्खएण तेसिं चेव संतोवसमेण सम्मत्तस्स देसघादिफद्दयाणमुदयक्खएण तेसिं चेव संतोवसमेण अणुदओवसमेण वा सम्मामिच्छत्तसव्वघादिफद्दयाणमुदएण सम्मामिच्छत्तं होदि त्ति तस्स खओवसमियत्तं केई भणंति, तण्ण घडदे । कुदो ? सबहिचारित्तादो। विउचारो पुव्वं परूविदो त्ति णेह परूविज्जदे । असंजदसम्मादिहि ति को भावो, उवसमिओ वा, खइओ वा, खओवसमिओ वा भावो ॥ १३॥ नारकी सम्यग्मिथ्यादृष्टि यह कौनसा भाव है ? क्षायोपशमिक भाव है ॥१२॥ क्योंकि, सम्यग्मिथ्यात्वकर्मके उदय होनेपर भी सम्यग्दर्शनका एक देश पाया जाता है। शंका-जात्यन्तरत्व (भिन्न जातीयता) को प्राप्त सम्यग्मिथ्यात्वभावमें अंशांशी (अवयव-अवयवी ) भाव नहीं है, इसलिए उसमें सम्यग्दर्शनका एक देश नहीं है ? समाधान-अभेदकी विवक्षामें सम्यग्मिथ्यात्वके भिन्नजातीयता भले ही रही आवे, किन्तु भेदकी विवक्षा करनेपर उसमें सम्यग्दर्शनका एक भाग (अंश) है ही। यदि ऐसा न माना जाय, तो उसके जात्यन्तरत्वके माननेमें विरोध आता है । और, ऐसा मानमेपर सम्यग्मिथ्यात्वके सर्वघातिपना भी विरोधको प्राप्त नहीं होता है, क्योंकि, सम्यग्मिथ्यात्वके भिन्नजातीयता प्राप्त होनेपर सम्यग्दर्शनके एक देशका अभाव है; इसलिए उसके सर्वघातिपना माननेमें कोई विरोध नहीं आता। कितने ही आचार्य, मिथ्यात्वप्रकृतिके सर्वघाती स्पर्धकोंके उदयक्षयसे, उन्हींके सदवस्थारूप उपशमसे, तथा सम्यक्त्वप्रकृतिके देशघाती स्पर्धकोंके उदयक्षयसे और उन्हींके सदवस्थारूप उपशम, अथवा अनुदयरूप उपशमसे, और सम्यग्मिथ्यात्वके सर्वघाती स्पर्धकोंके उदयसे सम्यग्मिथ्यात्वभाव होता है, इसलिए उसके क्षायोपशमिकता कहते हैं। किन्तु उनका यह कथन घटित नहीं होता है, क्योंकि, उक्त लक्षण सव्यभिचारी है। व्यभिचार पहले प्ररूपण किया जा चुका है, (देखो पृ. १९९) इसलिए यहां नहीं कहते हैं। नारकी असंयतसम्यग्दृष्टि यह कौनसा भाव है ? औपशमिक भाव भी है, क्षायिकभाव भी है और क्षायोपशामिक भाव भी है ॥ १३ ॥ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १,७,१५.] भावाणुगमे णेरइयभाव परूवणं [२.९ तं जहा- तिण्णि वि करणाणि काऊण सम्मत्तं पडिवण्णजीवाणं ओवसमिओ भावो, दंसणमोहणीयस्स तत्थुदयाभावा । खविददंसणमोहणीयाणं सम्मादिट्ठीणं खइयो, पडिवक्खकम्मक्खएणुप्पण्णत्तादो । इदरेसिं सम्मादिट्ठीणं खओवसमिओ, पडिवक्खकम्मोदएण सह लद्धप्पसरूवत्तादो । मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्ताणं सव्वघादिफद्दयाणमुदयक्खएण तेसिं चेव संतोवसमेण अणुदओवसमेण वा सम्मत्तदेसघादिफद्दयाणमुदएण सम्मादिट्ठी उप्पज्जदि ति तिस्से खओवसमियत्तं केई भणंति, तण्ण घडदे, विउचारदसणादो, अइप्पसंगादो वा। ओदइएण भावेण पुणो असंजदो ॥ १४ ॥ संजमघादीणं कम्माणमुदएण असंजमो होदि, तदो असंजदो त्ति ओदइओ भावो। एदेण अंतदीवएण सुत्तेण अइक्कतसव्वगुणट्ठाणेसु ओदइयमसंजदत्तमस्थि त्ति भणिदं होदि। एवं पढमाए पुढवीए णेरइयाणं ॥ १५॥ कुदो ? मिच्छादिट्टि त्ति ओदइओ, सासणसम्मादिहि त्ति पारिणामिओ, सम्मामिच्छादिट्टि त्ति खओवसमिओ, असंजदसम्मादिट्टि ति उपसमिओ खइओ खओव जैसे- अधःकरण आदि तीनों ही करणोंको करके सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले जीवोंके औपशमिक भाव होता है, क्योंकि, वहांपर दर्शनमोहनीयकर्मके उदयका अभाव है । दर्शनमोहनीयकर्मके क्षपण करनेवाले सम्यग्दृष्टि जीवोंके क्षायिकभाव होता है, क्योंकि, वह अपने प्रतिपक्षी कर्मके क्षयसे उत्पन्न होता है। अन्य सम्यग्दृष्टि जीवोंके क्षायोपशमिकभाव होता है, क्योंकि, प्रतिपक्षी कर्मके उदयके साथ उसके आत्मस्वरूपकी प्राप्ति होती है । मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व, इन दोनों प्रकृतियोंके सर्वघाती स्पर्धकोंके उदयक्षयसे, उन्हींके सदवस्थारूप उपशमसे, अथवा अनुदयरूप उपशमसे, तथा सम्यपत्वप्रकृतिके देशघाती स्पर्धकोंके उदयसे सम्यग्दृष्टि उत्पन्न होती है. इसलिए उसके भी क्षायोपशमिकता कितने ही आचार्य कहते हैं। किन्तु वह घटित नहीं होती है, क्योंकि, वैसा माननेपर व्यभिचार देखा जाता है, अथवा अतिप्रसंग दोष आता है। किन्तु नारकी असंयतसम्यग्दृष्टिका असंयतत्व औदयिक भावसे है॥१४॥ चूंकि, असंयमभाव संयमको घात करनेवाले कौके उदयसे होता है, इसलिए 'असंयत' यह औदयिकभाव है। इस अन्तदीपक सूत्रसे अतिक्रान्त सर्व गुणस्थानोंमें असंयतपना औदयिक है, यह सूचित किया गया है। इस प्रकार प्रथम पृथिवीमें नारकियोंके सर्व गुणस्थानोंसम्बन्धी भाव होते हैं ॥१५॥ क्योंकि, मिथ्यादृष्टि यह औदयिक भाव है, सासादनसम्यग्दृष्टि यह पारिणामिकभाव है, सम्यग्मिथ्यादृष्टि यह क्षायोपशमिकभाव है और असंयतसम्यग्दृष्टि यह Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ७, १६. समिओ वा भावो; संजमघादीणं कम्माणमुदएण असंजदो त्ति इच्चेदेहि णिरओघादो विसेसाभावा । विदियाए जाव सत्तमीए पुढवीए णेरइएसु मिच्छाइट्टि-सासणसम्मादिट्ठि-सम्मामिच्छादिट्ठीणमोघं ॥ १६ ॥ सुगममेदं । असंजदसम्मादिट्ठि ति को भावो, उवसमिओ वा खओवसमिओ वा भावो ॥ १७ ॥ तं जहा- देसणमोहणीयस्स उवसमेण उदयाभावलक्खणेण जेणुप्पज्जइ उवसमसम्मादिट्ठी तेण सा ओवसमिया । जदि उदयाभावो वि उबसमो उच्चइ, तो देवत्तं पि ओवसमियं होज्ज, तिण्हं गईणमुदयाभावेण उप्पज्जमाणत्तादो ? ण, तिण्हं गईणं त्थिउक्कसंकमेण उदयस्सुवलंभा, देवगइणामाए उदओवलंभादो वा । वेदगसम्मत्तस्स दंसण औपशमिकभाव भी है, क्षायिकभाव भी है और क्षायोपशमिकभाव भी है, तथा संयमघाती कौके उदयसे असंयत है। इस प्रकार नारकसामान्यकी भावप्ररूपणासे कोई विशेषता नहीं है। द्वितीय पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक नारकोंमें मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंके भाव ओघके समान हैं ॥१६॥ यह सूत्र सुगम है। उक्त नारकोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि यह कौनसा भाव है ? औपशमिक भाव भी है और क्षायोपशमिक भाव भी है ॥ १७॥ चूंकि, दर्शनमोहनीयके उदयाभावलक्षणवाले उपशमके द्वारा उपशमसम्यग्दृष्टि उत्पन्न होती है, इसलिए वह औपशमिक है। शंका-यदि उदयाभावको भी उपशम कहते हैं तो देवपना भी औपशमिक होगा, क्योंकि, वह शेष तीनों गतियोंके उदयाभावसे उत्पन्न होता है ? समाधान नहीं, क्योंकि, वहांपर तीनों गतियोंका स्तिवुकसंक्रमणके द्वारा उदय पाया जाता है, अथवा देवगतिनामकर्मका उदय पाया जाता है, इसलिए देवपर्यायको औपशमिक नहीं कहा जा सकता। १ द्वितीयादिष्वा सप्तम्या मिथ्यादृष्टिसासादनसम्यग्दृष्टिसम्यग्मिथ्यादृष्टीनां सामान्यवत् । स. सि. १,८. २ प्रतिषु 'वा' इति पाठो नास्ति । ३ असंयतसम्यग्दृष्टेगैपशमिको वा क्षायोपशमिको वा भावः । स. सि. १,८. ४ पिंडपगईण जा उदयसंगया तीए अणुदयगयाओ। संकामिऊण वेयइ जं एसो थिबुगसंकामो॥ पं.स., संक्रम., .. Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ७, १८.] भावाणुगमे णेरइयभाव-परूवणं [२११ मोहणीयावयवस्स देसघादिलक्खणस्स उदयादो उप्पण्णसम्मादिहिभावो खओवसमिओ । वेदगसम्मत्तफद्दयाणं खयसण्णा, सम्मत्तपडिबंधणसत्तीए तत्थाभावा । मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुदयाभावो उवसमो । तेहि दोहि उप्पण्णत्तादो सम्माइट्ठिभावो खइओवसमिओ । खइओ भावो किण्गोवलब्भदे ? ण, विदियादिसु पुढवीसु खइयसम्मादिट्ठीणमुप्पत्तीए अभावा । ओदइएण भावेण पुणो असंजदों ॥ १८ ॥ सम्मादिट्टित्तं दुभावसण्णिदं सोच्चा असंजदभावावगमत्थं पुच्छिदसिस्ससंदेह विशेषार्थ-गति, जाति आदि पिंड-प्रकृतियों से जिस किसी विवक्षित एक प्रकृतिके उदय आने पर अनुदय-प्राप्त शेष प्रकृतियोंका जो उसी प्रकृतिमें संक्रमण होकर उदय आता है, उसे स्तिबुकसंक्रमण कहते हैं। जैसे- एकेन्द्रिय जीवोंके उदय प्राप्त एकेन्द्रिय जातिनामकर्ममें अनुदय प्राप्त द्वीन्द्रिय जाति आदिका संक्रमण होकर उदयमें आना । गति नामकर्म भी पिंड-प्रकृति है। उसके चारों भेदामेसे किसी एकके उदय होनेपर अनुदय-प्राप्त शेष तीनों गतियोंका स्तिबुकसंक्रमणके द्वारा संक्रमण होकर विपाक . होता है । प्रकृतमें यही बात देवगतिको लक्ष्यमें रखकर कही गई है कि देवगति नामकर्मके उद्यकालमें शेष तीनों गतियोंका स्तिबुकसंक्रमणके द्वारा उदय पाया जाता है। दर्शनमोहनीयकर्मकी अवयवस्वरूप और देशघाती लक्षणवाली वेदकसम्यक्त्वप्रकृतिके उदयसे उत्पन्न होनेवाला सम्यग्दृष्टिभाव क्षायोपशमिक कहलाता है । वेदकसम्यक्त्वप्रकृतिके स्पर्धकोंकी क्षय संशा है, क्योंकि, उसमें सम्यग्दर्शनके प्रतिवन्धनकी शक्तिका अभाव है । मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व, इन दोनों प्रकृतियोंके उदयाभावको उपशम कहते हैं । इस प्रकार उपर्युक्त क्षय और उपशम, इन दोनोंके द्वारा उत्पन्न होनेसे सम्यग्दृष्टिभाव क्षायोपशमिक कहलाता है । शंका--यहां क्षायिक भाव क्यों नहीं पाया जाता ? समाधान नहीं, क्योंकि, द्वितीयादि पृथिवियोंमें क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंकी उत्पत्तिका अभाव है। किन्तु उक्त नारकी असंयतसम्यग्दृष्टियोंका असंयतत्व औदयिक भावसे है ॥१८॥ द्वितीयादि पृथिवियोंके सम्यग्दृष्टित्वको औपशमिक और क्षायोपशमिक, इन दो भावोंसे संयुक्त सुन कर वहां असंयतभावके परिज्ञानार्थ प्रश्न करनेवाले शिष्यके १ असंयतः पुनरौदयिकेन भावेन । स. सि. १, ८. Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ७, १९. विणासणट्ठमागदमिदं सुत्तं । संजमघादिचारित्त मोहणीयकम्मोदयसमुप्पण्णत्तादो असंजदभावो ओदइओ | अदीदगुणट्ठाणेसु असंजदभावस्स अत्थितं एदेण सुतेण परूविदं । तिरिक्खगदीए तिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्ख-पंचिंदियपज्जत्त-पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीसु मिच्छादिट्टि पहुडि जाव संजदासंजदाणमोघं ॥ १९ ॥ कुदो ? मिच्छादिति ओदइओ, सासणसम्मादिट्ठि त्ति पारिणामिओ, सम्मामिच्छादिट्टि त्ति खओवसमिओ, सम्मादिट्ठि त्ति ओवसमिओ खइओ खओवसमिओ वा; ओदइएण भावेण पुणो असंजदो, संजदासंजदो त्ति खओवसमिओ भावो इच्चेदेहि ओघादो चउव्विहतिरिक्खाणं भेदाभावा । पंचिदियतिरिक्खजोणिणीसु भेदपदुप्पायणढमुत्तरमुत्तं भणदि णवरि विसेसो, पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीसु असंजदसम्मादिट्टि त्ति को भावो, ओवसमिओ वा खओवसमिओ वा भावो ॥ २० ॥ संदेहको विनाश करनेके लिए यह सूत्र आया है । द्वितीयादि पृथिवीगत असंयत सम्यदृष्टि नारकियोंका असंयतभाव संयमघाती चारित्रमोहनीयकर्मके उदयसे उत्पन्न होने के कारण औदयिक है । तथा, इस सूत्र के द्वारा अतीत गुणस्थानोंमें असंयतभावके अस्तित्वका निरूपण किया गया है । तिर्यंचगतिमें तिर्यंच, पंचेन्द्रियतिर्यंच, पंचेन्द्रियतिर्यंचपर्याप्त और पंचेन्द्रियतियंच योनिमतियों में मिथ्यादृष्टिसे लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक भाव ओघके समान हैं ॥ १९ ॥ क्योंकि, मिथ्यादृष्टि यह औदयिकभाव है, सासादनसम्यग्दृष्टि यह पारिणामिकभाष है, सम्यग्मिथ्यादृष्टि यह क्षायोपशमिकभाव है, सम्यग्दृष्टि यह औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक भाव है, तथा औदयिकभावकी अपेक्षा वह असंयत है; संयतासंयत यह क्षायोपशमिक भाव है । इस प्रकार ओघसे चारों प्रकारके तिर्यचोंकी भावप्ररूपणा में कोई भेद नहीं है । अब पंचेन्द्रियतिर्यच योनिमतियों में भेद प्रतिपादन करनेके लिए उत्तर सूत्र कहते हैं विशेष बात यह है कि पंचेन्द्रियतिर्यंच योनिमतियों में असंयतसम्यग्दृष्टि यह कौनसा भाव है ? औपशमिक भाव भी है और क्षायोपशमिक भाव भी है ॥ २० ॥ १ तिर्यग्गतौ तिरश्चां मिथ्यादृष्टयादिसंयतासंयतान्तानां सामान्यवत् । स. सि. १,८० Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ७, २२.] भावाणुगमे मणुसभाव-परूवणं [२१९ कुदो ? उवसम-वेदयसम्मादिट्ठीणं चेय तत्थ संभवादो। खइओ भावो किण्ण तत्थ संभवइ ? खइयमम्मादिट्ठीणं बद्धाउआणं त्थीवेदएसु उप्पत्तीए अभावा, मणुसगहवदिरित्तसेसगईसु दंसणमोहणीयक्खवणाए अभावादो च । ओदइएण भावेण पुणो असंजदो ॥ २१ ॥ सुगममेदं । मणुसगदीए मणुस-मणुसपज्जत्त-मणुसिणीसु मिच्छादिटिप्पडि जाव अजोगिकेवलि त्ति ओघं ॥ २२॥ तिविहमणुससयलगुणट्ठाणाणं ओघसयलगुणट्ठाणेहितो भेदाभावा । मणुसअपज्जत्ततिरिक्खअपज्जत्तमिच्छादिट्ठीणं सुत्ते भावो किण्ण परूविदो ? ण, ओघपरूवणादो चेय तब्भावावगमादो पुध ण परूविदो । क्योंकि, पंचेन्द्रियतिथंच योनिमतियों में उपशमसम्यग्दृष्टि और क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टि जीवोंका ही पाया जाना सम्भव है। शंका- उनमें क्षायिकभाव क्यों नहीं सम्भव है ? समाधान-क्योंकि, बद्धायुष्क क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंकी स्त्रीवेदियों में उत्पत्ति नहीं होती है, तथा मनुष्यगतिके अतिरिक्त शेष गतियों में दर्शनमोहनीयकर्मकी क्षपणाका अभाव है, इसलिए पंचेन्द्रियतिर्यंच योनिमतियोंमें क्षायिकभाव नहीं पाया जाता। किन्तु तिथंच असंयतसम्यग्दृष्टियोंका असंयतत्व औदयिकभावसे है ॥ २१॥ यह सूत्र सुगम है। मनुष्यगतिमें मनुष्य, मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यनियोंमें मिथ्यादृष्टि से लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक भाव ओघके समान हैं ॥ २२ ॥ क्योंकि, तीनों प्रकारके मनुष्योंसम्बन्धी समस्त गुणस्थानोंकी भावप्ररूपणामें भोधके सकल गुणस्थानोंसे कोई भेद नहीं है। ... शंका- लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य और लब्ध्यपर्याप्तक तिर्यंच मिथ्यादृष्टि जीवोंके भावोंका सूत्रमें प्ररूपण क्यों नहीं किया गया ? समाधान-नहीं, क्योंकि, ओघसम्बन्धी भावप्ररूपणासे ही उनके भावोंका परिशान हो जाता है, इसलिए उनके भावोंका सूत्र में पृथक् निरूपण नहीं किया गया । १ मनुष्यगतौ मनुष्याणां मिथ्यादृष्टयागयोगकेवल्यन्तानां सामान्यवत् । स. सि. १, ८. Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४] ___ छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ७, २३. देवगदीए देवेसु मिच्छादिहिप्पहुडि जाव असंजदसम्मादिट्ठि ति ओघं ॥ २३॥ कुदो ? मिच्छादिट्ठीणमोदएण, सासणाणं पारिणामिएण, सम्मामिच्छादिट्ठीणं खओवसमिएण, असंजदसम्मादिट्ठीणं ओवसमिय-खइय-खओवसमिएहि भावेहि ओघमिच्छादिद्वि-सासणसम्मादिट्ठि-सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीहि साधम्मुवलंभा । भवणवासिय-वाणवेंतर-जोदिसियदेवा देवीओ सोधम्मीसाणकप्पवासियदेवीओ च मिच्छादिट्ठी सासणसम्मादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्ठी ओघं ॥ २४ ॥ कुदो ? एदेसि सुत्तुत्तगुणट्ठाणाणं सधपयारेण ओघादो भेदाभावा । असंजदसम्मादिहि त्ति को भावो, उवसमिओ वा खओवसमिओ वा भावो ॥२५॥ कुदो ? तत्थ उवसम-वेदगसम्मत्ताणं दोहं चेय संभवादो । खइओ भावो एत्थ देवगतिमें देवोंमें मिथ्यादृष्टिसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक भाव ओघके समान हैं ॥२३॥ क्योंकि, देवमिथ्यादृष्टियोंकी औदयिकभावसे, देवसासादनसम्यग्दृष्टियोंकी पारिणामिकभावसे, देवसम्यग्मिथ्यादृष्टियोंकी क्षायोपशमिकभावसे और देवअसंयतसम्यग्दृष्टियोंकी औपशमिक, क्षायिक तथा क्षायोपशमिक भावोंकी अपेक्षा ओघ मिथ्यारष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके भावोंके साथ समानता पाई जाती है। भवनवासी, वानव्यन्तर और ज्योतिष्क देव एवं देवियां, तथा सौधर्म ईशान कल्पवासी देवियां, इनके मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि ये भाव ओघके समान हैं ॥२४॥ __ क्योंकि, इन सूत्रोक्त गुणस्थानोंका सर्व प्रकार ओघसे कोई भेद नहीं है। असंयतसम्यग्दृष्टि उक्त देव और देवियोंके कौनसा भाव है ? औपशमिक भाव भी है और क्षायोपशमिक भाव भी है ॥ २५ ॥ क्योंकि, उनमें उपशमसम्यक्त्व और क्षायोपशमिकसम्यक्त्व, इन दोनोंका ही पाया जाना सम्भव है। १देवगतौ देवानां मिथ्यादृष्टयाधसंयतसम्यग्दृष्टयान्तानां सामान्यवत् । स. सि. १,८. Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ७, २८.] भावाणुगमे देवभाव-परूवणं [२१५ किण्ण परूविदो ? ण, भवणवासिय-वाण।तर-जोदिसिय-विदियादिछपुढविणेरइय-सव्वविगलिंदिय-लद्धिअपज्जत्तित्थीवेदेसु सम्मादिट्ठीणमुववादाभावा, मणुसगइवदिरित्तण्णगईसु दंसणमोहणीयस्स खवणाभावा च । ओदइएण भावेण पुणो असंजदो ॥ २६ ॥ सुगममेदं । सोधम्मीसाणप्पहुडि जाव णवगेवज्जविमाणवासियदेवेसु मिच्छादिटिप्पहुडि जाव असंजदसम्मादिहि त्ति ओघं ॥ २७ ॥ कुदो ? एत्थतणगुणट्ठाणाणं ओघचदुगुणट्ठाणेहिंतो अप्पिदभावेहि भेदाभावा । अणुदिसादि जाव सव्वट्ठसिद्धिविमाणवासियदेवेसु असंजदसम्मादिहि त्ति को भावो, ओवसमिओ वा खइओ वा खओवसमिओ वा भावो ॥ २८ ॥ शंका-उक्त भवनत्रिक आदि देव और देवियोंमें क्षायिकभाव क्यों नहीं बतलाया? समाधान -नहीं, क्योंकि, भवनवासी, वानव्यन्तर, ज्योतिष्क देव, द्वितीयादि छह पृथिवियोंके नारकी, सर्व विकलेन्द्रिय, सर्व लब्ध्यपर्याप्तक और स्त्रीवेदियोंमें सम्यग्दृष्टि जीवोंकी उत्पत्ति नहीं होती है, तथा मनुष्यगतिके अतिरिक्त अन्य गतियोंमें दर्शनमोहनीयकर्मकी क्षपणाका अभाव है, इसलिए उक्त भवनत्रिक आदि देव और देवियोंमें क्षायिकभाव नहीं बतलाया गया। किन्तु उक्त असंयतसम्यग्दृष्टि देव और देवियोंका असंयतत्व औदयिक भावसे है ॥ २६ ॥ यह सूत्र सुगम है। सौधर्म-ईशानकल्पसे लेकर नव ग्रैवेयक पर्यंत विमानवासी देवोंमें मिथ्यादृष्टिसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक भाव ओघके समान हैं ॥ २७॥ क्योंकि, सौधर्मादि विमानवासी चारों गुणस्थानवर्ती देवोंके ओघसम्बन्धी चारों गुणस्थानोंकी अपेक्षा विवक्षित भावोंके साथ कोई भेद नहीं है। अनुदिश आदिसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक विमानवासी देवोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि यह कौनसा भाव है ? औपशमिक भी है, क्षायिक भी है और क्षायोपशमिक भाव भी है ॥ २८ ॥ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ७, २९. ते जहा- वेदगसम्मादिट्ठीणं खओवसमिओ भावो, खइयसम्मादिट्ठीणं खइओ, उवसमसम्मादिट्ठीणं ओवसमिओ भावो । तत्थ मिच्छादिट्ठीणमभावे संते कधमुवसमसम्मादिट्ठीणं संभवो, कारणाभावे कज्जस्स उप्पत्तिविरोहादो ? ण एस दोसो, उवसमसम्मत्तेण सह उवसमसेडिं चडंत-ओदरंताणं संजदाणं कालं करिय देवेसुप्पण्णाणमुवसमसम्मत्तुवलंभा। तिसु हाणेसु पउत्तो वासदो अणत्थओ, एगेणेव इट्टकज्जसिद्धीदो ? ण, मंदबुद्धिसिस्साणुग्गहट्टत्तादो । ओदइएण भावेण पुणो असंजदो ॥ २९ ॥ सुगममेदं । एवं गइमग्गणा सम्मत्ता । इंदियाणुवादेण पंचिंदियपज्जत्तएसु मिच्छादिटिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि ति ओघं ॥ ३०॥ जैसे-वेदकसम्यग्दृष्टि देवोंके क्षायोपशमिक भाव, क्षायिकसम्यग्दृष्टि देवोंके क्षायिक भाव और उपशमसम्यग्दृष्टि देवोंके औपशमिक भाव होता है। शंका--अनुदिश आदि विमानोंमें मिथ्यादृष्टि जीवोंका अभाव होते हुए उपशमसम्यग्दृष्टियोंका होना कैसे सम्भव है, क्योंकि, कारणके अभाव होनेपर कार्यकी उत्पत्तिका विरोध है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, उपशमसम्यक्त्वके साथ उपशमश्रेणीपर चढ़ते और उतरते हुए मरणकर देवोंमें उत्पन्न होनेवाले संयतोंके उपशमसम्यक्त्व पाया जाता है। शंका-सूत्रमें तीन स्थानोंपर प्रयुक्त हुआ 'वा' शब्द अनर्थक है, क्योंकि, एक ही 'वा' शब्दसे इष्ट कार्यकी सिद्धि हो जाती है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, मंदबुद्धि शिष्योंके अनुग्रहार्थ सूत्रमें तीन स्थानोंपर 'वा'शब्दका प्रयोग किया गया है। किन्तु उक्त असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंका असंयतत्व औदयिकभावसे है ॥ २९ ॥ यह सूत्र सुगम है। ___ इस प्रकार गतिमार्गणा समाप्त हुई। इन्द्रियमार्गणाके अनुवादसे पंचेन्द्रियपर्याप्तकोंमें मिथ्यादृष्टि से लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक भाव ओघके समान हैं ॥ ३०॥ १ इन्द्रियानुवादेन एकेन्द्रियविकलेन्द्रियाणामौदयिको भावः । पंचेन्द्रियेषु मिथ्यादृष्टयाचयोगकेवल्यन्तानां सामान्यवत् । स. सि. १, ८. Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ७, ३१.] भावाणुगमे तसकाइयभाव-परूवणं [२१७ कुदो ? एत्थतणगुणट्ठाणाणमोघगुणट्ठाणेहिंतो अप्पिदभावं पडि भेदाभावा । एइंदिय-वेईदिय-तेइंदिय-चउरािंदिय-पंचिंदियअपजत्तमिच्छादिट्ठीणं भावो किण्ण परूविदो? ण एस दोसो, परूवणाए विणा वि तत्थ भावोवलद्धीदो । परूवणा कीरदे परावबोहणटुं, ण च अवगयअट्टपरूवणा फलवंता, परूवणाकज्जस्स अवगमस्स पुव्वमेवुप्पण्णत्तादो। एवमिंदियमग्गणा समत्ता । कायाणुवादेण तसकाइय-तसकाइयपज्जत्तएसु मिच्छादिट्टिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति ओघं ॥३१॥ ___ कुदो ? ओघगुणहाणेहिंतो एत्थतणगुणट्ठाणाणमप्पिदभावेहि भेदाभावा । सव्वपुढवी-सव्वआउ-सव्वतेउ-सव्ववाउ-सव्यवणप्फदि-तसअपज्जत्तमिच्छादिट्ठीणं भावपरूवणा सुत्ते ण कदा, अवगदपरूवणाए फलाभावा । तस-तसपज्जत्तगुणट्ठाणभावो ओघादो चेव णज्जदि त्ति तब्भावपरूवणमणत्थयमिदि तप्परूवणं पि मा किज्जदु त्ति भणिदे ण, तत्थ क्योंकि, पंचेन्द्रियपर्याप्तकों में होनेवाले गुणस्थानोंका ओघगुणस्थानोंकी अपेक्षा विवक्षित भावोंके प्रति कोई भेद नहीं है। शंका-यहांपर एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक मिथ्यादृष्टि जीवोंके भावोंकी प्ररूपणा क्यों नहीं की? समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, प्ररूपणाके विना भी उनमें होनेवाले भावोंका ज्ञान पाया जाता है। प्ररूपणा दूसरोंके परिज्ञानके लिये की जाती है, किन्तु जाने हुए अर्थकी प्ररूपणा फलवती नहीं होती है, क्योंकि, प्ररूपणाका कार्यभूत ज्ञान प्ररूपणा करनेके पूर्व में ही उत्पन्न हो चुका है। इस प्रकार इन्द्रियमार्गणा समाप्त हुई। कायमार्गणाके अनुवादसे त्रसकायिक और त्रसकायिक पर्याप्तकोंमें मिथ्यादृष्टिसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक भाव ओघके समान हैं ॥ ३१॥ क्योंकि, ओघगुणस्थानोंकी अपेक्षा त्रसकायिक और त्रसकायिकपर्याप्तकोंमें होनेवाले गुणस्थानोंका विवक्षित भावोंके साथ कोई भेद नहीं है। सर्व पृथिवीकायिक, सर्व जलकायिक, सर्व तेजस्कायिक, सर्व वायुकायिक, सर्व वनस्पतिकायिक और त्रस लब्ध्यपर्याप्तक मिथ्यादृष्टि जीवोंकी भावप्ररूपणा सूत्रमें नहीं की गई है, क्योंकि, जाने हुए भावोंकी प्ररूपणा करने में कोई फल नहीं है। शंका--त्रसकायिक और त्रसकायिक पर्याप्त जीवोंमें सम्भव गुणस्थानोंके भाव ओघसे ही ज्ञात हो जाते हैं, इसलिए उनके भावोंका प्ररूपण करना अनर्थक है, अतः उनका प्ररूपण भी नहीं करना चाहिए ? १ कायानुवादेन स्थावरकायिकानामौदयिको भावः । त्रसकायिकानां सामान्यमेव । स. सि. १,८.. Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ७, ३२. बहुसु गुणहाणेसु संतेसु किण्णु कस्सइ अण्णो भावो होदि, ण होदि त्ति संदेहो मा होहदि त्ति तप्पडिसेहटुं तप्परूवणाकरणादो । एवं कायमग्गणा समत्ता । जोगाणुवादेण पंचमणजोगि-पंचवचिजोगि-कायजोगि-ओरालियकायजोगीसु मिच्छादिटिप्पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति ओघं ॥ ३२ ॥ सुगममेदं । __ओरालियमिस्सकायजोगीसु मिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीणं ओघं ॥३३॥ एदं पि सुगमं । असंजदसम्मादिहि ति को भावो, खडओ वा खओवसमिओ वा भावो ॥ ३४॥ कुदो ? खइय-वेदगसम्मादिट्ठीणं देव-णेरइय-मणुसाणं तिरिक्ख-मणुसेसु उप्पज्ज समाधान--नहीं, क्योंकि, त्रसकायिक और त्रसकायिकपर्याप्तकोंमें बहुतसे गुणस्थागोंके होनेपर क्या किसी जीवके कोई अन्य भाव होता है, अथवा नहीं होता है, इस प्रकारका सन्देह न होवे, इस कारण उसके प्रतिषेध करनेके लिए उनके भावोंकी प्ररू ___ इस प्रकार कायमार्गणा समाप्त हुई। योगमार्गणाके अनुवादसे पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी और औदारिककाययोगियोंमें मिथ्यादृष्टिसे लेकर सयोगिकवली गुणस्थान तक भाव ओघके समान हैं ॥ ३२॥ यह सूत्र सुगम है। औदारिकमिश्रकाययोगियोंमें मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टियोंके भाव ओघके समान हैं ॥ ३३॥ यह सूत्र भी सुगम है। औदारिकमिश्रकाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टि यह कौनसा भाव है ? क्षायिक भाव भी है और क्षायोपशमिक भाव भी है ॥ ३४ ॥ क्योंकि, तिर्यंच और मनुष्योंमें उत्पन्न होनेवाले क्षायिकसम्यग्दृष्टि तथा वेदक १ योगानुवादेन कायवाङ्मानसयोगिनां मिथ्यादृष्टयादिसयोगकेवल्यन्तानामयोगकेवलिनां च सामान्यमेव । त. सि. १,८. पणा की गई है। . www.jainelibrary.on Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ७, ३७.] भावाणुगमे वेउब्वियकायजोगिभाव-परूवणं माणाणमुवलंभा । ओवसमिओ भावो एत्थ किण्ण परूविदो ? ण, चउग्गइउवसमसम्मादिट्ठीणं मरणाभावादो ओरालियमिस्सम्हि उवसमसम्मत्तस्सुवलंभाभावा । उवसमसेडिं चढंत-ओअरंतसंजदाणमुवसमसम्मत्तेण मरणं अत्थि त्ति चे सच्चमत्थि, किंतु ण ते उवसमसम्मत्तेण ओरालियमिस्सकायजोगिणो होति, देवगदि मोत्तूण तेसिमण्णत्थ उप्पत्तीए अभावा। ओदइएण भावेण पुणो असंजदो ॥ ३५॥ सुगममेदं । सजोगिकेवलि त्ति को भावो, खइओ भावो ॥ ३६॥ एदं पि सुगमं । वेउब्वियकायजोगीसु मिच्छादिटिप्पहुडि जाव असंजदसम्मादिहि त्ति ओघभंगो ॥ ३७॥ सम्यग्दृष्टि देव, नारकी और मनुष्य पाये जाते हैं। शंका-यहां, अर्थात् औदारिकमिश्रकाययोगी जीवों में, औपशमिकभाव क्यों नहीं बतलाया ? समाधान-नहीं, क्योंकि, चारों गतियोंके उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंका मरण नहीं होनेसे औदारिकमिश्रकाययोगमें उपशमसम्यक्त्वका सद्भाव नहीं पाया जाता। शंका-उपशमश्रेणीपर चढ़ते और उतरते हुए संयत जीवोंका उपशमसम्यक्त्वके साथ तो मरण पाया जाता है ? समाधान-यह कथन सत्य है, किन्तु उपशमश्रेणीमें मरनेवाले वे जीव उपशामसम्यक्त्वके साथ औदारिकमिश्रकाययोगी नहीं होते हैं, क्योंकि, देवगतिको छोड़कर उनकी अन्यत्र उत्पत्तिका अभाव है। किन्तु औदारिकमिश्रकाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टिका असंयतत्व औदयिक भावसे है ॥ ३५॥ यह सूत्र सुगम है। औदारिकमिश्रकाययोगी सयोगिकेवली यह कौनसा भाव है ? क्षायिक भाव है ॥ ३६॥ यह सूत्र भी सुगम है। वैक्रियिककाययोगियोंमें मिथ्यादृष्टिसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक भाव ओघके समान हैं ॥ ३७॥ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० छक्खंडागमे जीवठ्ठाणं [ १, ७, ३८. एदं पि सुगमं । वेउब्वियमिस्सकायजोगीसु मिच्छादिट्ठी सासणसम्मादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी ओघं ॥ ३८ ॥ कुदो ? मिच्छादिट्ठीणमोदइएण, सासणसम्मादिट्ठीणं, पारिणामिएण, असंजदसम्मादिट्ठीणं ओवसमिय-खइय-खओवसमियभावेहि ओघमिच्छादिद्विआदीहि साधम्मुवलंभा । आहारकायजोगि-आहारमिस्सकायजोगीसु पमत्तसंजदा त्ति को भावो, खओवसमिओ भावो ॥ ३९ ॥ कुदो ? चारित्तावरणचदुसंजलण-सत्तणोकसायाणमुदए संते वि पमादाणुविद्धसंजमुवलंभा । कथमेत्थ खओवसमो ? पत्तोदयएक्कारसचारित्तमोहणीयपयडिदेसघादिफद्दयाणमुवसमसण्णा, हिरवसेसेण चारित्तघायणसत्तीए तत्थुवसमुवलंभा । तेसिं चेव सव्वघादिफद्दयाणं खयसण्णा, गट्ठोदयभावत्तादो । तेहि दोहिं मि उप्पण्णो संजमो खओव यह सूत्र भी सुगम है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंमें मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि ये भाव ओघके समान हैं ॥ ३८ ॥ । क्योंकि, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी मिथ्यादृष्टियोंके औदयिकभावसे, सासादनसम्यग्दृष्टियोंके पारिणामिकभावसे, तथा असंयतसम्यग्दृष्टियोंके औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक भावोंकी अपेक्षा ओघ मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानोंके भावोंके साथ समानता पाई जाती है। आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगियोंमें प्रमत्तसंयत यह कौनसा भाव है ? क्षायोपशमिक भाव है ॥ ३९॥ क्योंकि, यथाख्यातचारित्रके आवरण करनेवाले चारों संज्वलन और सात नोकषायोंके उदय होने पर भी प्रमादसंयुक्त संयम पाया जाता है। शंका-यहां पर क्षायोपशमिकभाव कैसे कहा? समाधान-आहारक और आहारकमिश्रकाययोगियोंमें क्षायोपशमिकभाव होनेका कारण यह है कि उदयको प्राप्त चार संज्वलन और सात नोकषाय, इन ग्यारह चारित्रमोहनीय प्रकृतियोंके देशघाती स्पर्धकोंकी उपशमसंज्ञा है, क्योंकि, सम्पूर्णरूपसे चारित्र घातनेकी शक्तिका वहां पर उपशम पाया जाता है। तथा, उन्हीं ग्यारह चारित्रमोहनीय प्रकृतियोंके सर्वघाती स्पर्धकोंकी क्षयसंज्ञा है, क्योंकि, वहां पर उनका उदयमें आना नष्ट हो चुका है। इस प्रकार क्षय और उपशम, इन दोनोंसे उत्पन्न होनेवाला Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ७, ४१.] भावाणुगमे इस्थि-पुरिस-णउसयवेदिभाव-परूवणं [२२१ समिओ । अधवा एक्कारसकम्माणमुदयस्सेव खओवसमसण्णा । कुदो ? चारित्तघायणसत्तीए अभावस्सेव तव्ववएसादो । तेण उप्पण्ण इदि खओवसमिओ पमादाणुविद्धसंजमो । कम्मइयकायजोगीसु मिच्छादिट्ठी सासणसम्मादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी सजोगिकेवली ओघं ॥ ४० ॥ ___ कुदो ? मिच्छादिट्ठीणमोदइएण, सासणाणं पारिणामिएण, कम्मइयकायजोगिअसंजदसम्मादिट्ठीणं ओवसमिय-खइय-खओवसमियभावेहि , सजोगिकेवलीणं खइएण भावण ओघम्मि गदगुणट्ठाणेहि साधम्मुवलंभा । ___ एवं जोगमग्गणा समत्ता । वेदाणुवादेण इत्थिवेद-पुरिसवेद-णउंसयवेदएसु मिच्छादिट्टिप्पहुडि जाव अणियट्टि त्ति ओघं ॥ ४१ ॥ सुगममेदं, एदस्सट्टपरूवणाए विणा वि अत्थोवलद्धीदो । संयम क्षायोपशमिक कहलता है। अथवा, चारित्रमोहसम्बन्धी उक्त ग्यारह कर्मप्रकृतियोंके उदयकी ही क्षयोपशमसंज्ञा है, क्योंकि, चारित्रके घातनेकी शक्तिके अभावकी ही क्षयोपशमसंज्ञा है । इस प्रकारके क्षयोपशमसे उत्पन्न होनेवाला प्रमादयुक्त संयम क्षायोपशमिक है। कार्मणकाययोगियों में मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और सयोगिकेवली ये भाव ओघके समान हैं ॥ ४० ॥ क्योंकि, कार्मणकाययोगी मिथ्यादृष्टियोंके औदयिकभावसे, सासादनसम्यग्दृष्टियोंके पारिणामिकभावसे, असंयतसम्यग्दृष्टियोंके औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक भावोंकी अपेक्षा, तथा सयोगिकेवलियोंके क्षायिकभावोंकी अपेक्षा ओघमें कहे गये गुणस्थानोंके भावोंके साथ समानता पाई जाती है । इस प्रकार योगमार्गणा समाप्त हुई । वेदमार्गणाके अनुवादसे स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी और नपुंसकवेदियोंमें मिथ्यादृष्टिसे लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक भाव ओघके समान हैं ॥४१॥ यह सूत्र सुगम है, क्योंकि, इसके अर्थकी प्ररूपणाके विना भी अर्थका ज्ञान हो जाता है। १ प्रतिषु 'ओघं पि' इति पाठः। २ वेदानुवादेन स्त्रीपुन्नपुंसकवेदानां xx सामान्यवत् । स. सि. १, ८. Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ७, ४२. अवगदवेदएसु अणियट्टिप्पहुडि जाव अजोगिकेवली ओघं ॥४२॥ एत्थ चोदगो भणदि- जोणि-मेहणादीहि समण्णिदं सरीरं वेदो, ण तस्स विणासो अस्थि, संजदाणं मरणप्पसंगा। ण भाववेदविणासो वि अस्थि, सरीरे अविणढे तम्भावस्स विणासाविरोहा । तदो णावगदवेदत्तं जुज्जदे इदि ? एत्थ परिहारो उच्चदे- ण सरीरमित्थि-पुरिसवेदो, णामकम्मजणिदस्स सरीरस्स मोहणीयत्तविरोहा । ण मोहणीयजणिदमवि सरीरं, जीवविवाइणो मोहणीयस्स पोग्गलविवाइत्तविरोहा । ण सरीरभावो वि वेदो, तस्स तदो पुधभूदस्स अणुवलंभा । परिसेसादो मोहणीयदव्वकम्मक्खंधो तज्जणिदजीवपरिणामो वा वेदो। तत्थ तज्जणिदजीवपरिणामस्स वा परिणामेण सह कम्मक्खंधस्स वा अभावेण अवगदवेदो होदि त्ति तेण णेस दोसो त्ति सिद्धं । सेसं सुगमं । एवं वेदमग्गणा समत्ता । अपगतवेदियोंमें अनिवृत्तिकरणसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक भाव ओषके समान हैं ॥ ४२ ॥ __ शंका-यहांपर शंकाकार कहता है कि योनि और लिंग आदिसे संयुक्त शरीर वेद कहलाता है। सो अपगतवेदियोंके इस प्रकारके वेदका विनाश नहीं होता है, क्योंकि, यदि योनि, लिंग आदिसे समन्वित शरीरका विनाश माना जाय, तो अपगतवेदी संयतोके मरणका प्रसंग प्राप्त होगा। इसी प्रकार अपगतवेदी जीवोंके भाववेदका विनाश भी नहीं है, क्योंकि, जब तक शरीरका विनाश नहीं होता, तब तक शरीरके धर्मका विनाश मानने में विरोध आता है । इसलिए अपगतवेदता युक्तिसंगत नहीं है ? समाधान-अब यहां उपर्युक्त शंकाका परिहार कहते हैं- न तो शरीर, स्त्री या पुरुषवेद है, क्योंकि, नामकर्मसे उत्पन्न होनेवाले शरीरके मोहनीयपनका विरोध है। और न शरीर मोहनीयकर्मसे ही उत्पन्न होता है, क्योंकि, जीवविपाकी मोहनीयकर्मके पुद्गलविपाकी होनेका विरोध है। न शरीरका धर्म ही वेद है, क्योंकि, शरीरसे पृथग्भूत वेद पाया नहीं जाता। पारिशेष न्यायसे मोहनीयके द्रव्यकर्मस्कंधको, अथवा मोहनीयकर्मसे उत्पन्न होनेवाले जीवके परिणामको वेद कहते हैं। उनमें वेदजनित जीवके परिणामका, अथवा परिणामके साथ मोहकर्मस्कंधका अभाव होनेसे जीव अपगतवेदी होता है। इसलिए अपगतवेदता माननेमें उपर्युक्त कोई दोष नहीं आता है, यह सिद्ध हुआ। शेष सूत्रार्थ सुगम है। इस प्रकार वेदमार्गणा समाप्त हुई । - १xxx अवेवानां च सामान्यवत् । स. सि. १, ८. Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ७, ४४.] भावाणुगमे चदुकसाइ-अकसाइभाव-परूवणं [ २२३ कसायाणुवादेण कोधकसाइ-माणकसाइ-मायकसाइ-लोभकसाईसु मिच्छादिटिप्पहुडि जाव सुहुमसांपराइयउवसमा खवा ओघं ॥४३॥ सुगममेदं । अकसाईसु चदुट्ठाणी ओघं ॥४४॥ चोदओ भणदि- कसाओ णाम जीवगुणो, ण तस्स विणासो अत्थि, णाण-दंसणाणमिव । विणासे वा जीवस्स विणासेण होदव्वं, णाण-दसणविणासेणेव । तदो ण अकसायत्तं घडदे इदि ? होदु णाण-दसणाणं विणासम्हि जीवविणासो, तेसिं तल्लक्षणत्तादो । ण कसाओ जीवस्स लक्खणं, कम्मजणिदस्स तल्लक्खणत्तविरोहा । ण कसायाणं कम्मणिदत्तमसिद्धं, कसायवड्डीए जीवलक्खणणाणहाणिअण्णहाणुववत्तीदो तस्स कम्मजणिदत्तसिद्धीदो । ण च गुणो गुणंतरविरोहे, अण्णत्थ तहाणुवलंभा । सेसं सुगमं । एवं कसायमग्गणा समत्ता । कषायमार्गणाके अनुवादसे क्रोधकषायी, मानकषायी, मायाकषायी और लोभकषायी जीवोंमें मिथ्यादृष्टि से लेकर सूक्ष्मसाम्पराय उपशामक और क्षपक गुणस्थान तक भाव ओघके समान हैं ॥४३॥ यह सूत्र सुगम है। ___अकषायी जीवोंमें उपशान्तकषाय आदि चारों गुणस्थानवर्ती भाव ओघके समान हैं ।। ४४ ॥ शंका- यहां शंकाकार कहता है कि कषाय नाम जीवके गुणका है । इसलिए उसका विनाश नहीं हो सकता, जिस प्रकार कि ज्ञान और दर्शन, इन दोनों जीवके गुणोंका विनाश नहीं होता है। यदि जीवके गुणोंका विनाश माना जाय, तो शान और दर्शनके विनाशके समान जीवका भी विनाश हो जाना चाहिए । इसलिए सूत्रमें कही गई अकषायता घटित नहीं होती है ? समाधान-शान और दर्शनके विनाश होनेपर जीवका विनाश भले ही हो जावे, क्योंकि, वे जीवके लक्षण हैं। किन्तु कषाय तो जीवका लक्षण नहीं है, क्योंकि, कर्मजनित कषायको जीवका लक्षण मानने में विरोध आता है। और न कषायोंका कर्मसे उत्पन्न होना असिद्ध है, क्योंकि, कषायोंकी वृद्धि होनेपर जीवके लक्षणभूत ज्ञानकी हानि अन्यथा बन नहीं सकती है। इसलिए कषायका कर्मसे उत्पन्न होना सिद्ध है। तथा गुण गुणान्तरका विरोधी नहीं होता, क्योंकि, अन्यत्र वैसा देखा नहीं जाता। शेष सूत्रार्थ सुगम है। इस प्रकार कषायमार्गणा समाप्त हुई। १ कषायानुवादेन क्रोधमानमायालोभकषायाणां xx सामान्यवत् । स. सि. १, ८. २xxx अकषायाणां च सामान्यवत् । स. सि. १, ८. ३ प्रतिषु तदो शुकसायत्तं ' इति पाठः। Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ७, ४५. णाणाणुवादेणमदिअण्णाणि-सुदअण्णाणि-विभंगणाणीसुमिच्छादिट्ठी सासणसम्मादिट्ठी ओघं ॥४५॥ __ कधं मिच्छादिट्ठिणाणस्स अण्णाणत्तं ? णाणकज्जाकरणादो । किं णाणकजं ? णादत्थसद्दहणं । ण तं मिच्छादिट्ठिम्हि अस्थि । तदो णाणमेव अण्णाणं, अण्णहा जीवविणासप्पसंगा। अवगयदवधम्मणाइसु मिच्छादिविम्हि सद्दहणमुवलंभए चे ण, अत्तागमपयत्थसद्दहणविरहियस्स दवधम्मणाइसु जहट्ठसदहणविरोहा । ण च एस ववहारो लोगे अप्पसिद्धो, पुत्तकज्जमकुणंते पुत्ते वि लोगे अपुत्तववहारदसणादो । तिसु अण्णाणेसु णिरुद्धेसु सम्मामिच्छादिद्विभावो किण्ण परूविदो ? ण, तस्स सद्दहणासदहणेहि ज्ञानमार्गणाके अनुवादसे मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी और विभंगज्ञानी जीवोंमें मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि भाव ओघके समान हैं ॥ ४५ ॥ शंका-मिथ्यादृष्टि जीवोंके ज्ञानको अज्ञानपना कैसे कहा? समाधान-क्योंकि, उनका ज्ञान ज्ञानका कार्य नहीं करता है। शंका--ज्ञानका कार्य क्या है ? समाधान--जाने हुए पदार्थका श्रद्धान करना ज्ञानका कार्य है। इस प्रकारका ज्ञानकार्य मिथ्यादृष्टि जीवमें पाया नहीं जाता है। इसलिए उनके ज्ञानको ही अज्ञान कहा है। (यहांपर अज्ञानका अर्थ ज्ञानका अभाव नहीं लेना चाहिए) अन्यथा (ज्ञानरूप जीवके लक्षणका विनाश होनेसे लक्ष्यरूप) जीवके विनाशका प्रसंग प्राप्त होगा। शंका-दयाधर्मसे रहित जातियों में उत्पन्न हुए मिथ्यादृष्टि जीवमें तो श्रद्धान पाया जाता है (फिर उसके ज्ञानको अज्ञान क्यों माना जाय)? समाधान नहीं, क्योंकि, आप्त, आगम और पदार्थके श्रद्धानसे रहित जीवके दयाधर्म आदिमें यथार्थ श्रद्धानके होनेका विरोध है (अतएव उनका ज्ञान अज्ञान ही है)। शानका कार्य नहीं करने पर ज्ञानमें अज्ञानका व्यवहार लोकमें अप्रसिद्ध भी नहीं है, क्योंकि, पुत्रकार्यको नहीं करनेवाले पुत्र में भी लोकके भीतर अपुत्र कहनेका व्यवहार देखा जाता है। __ शंका–तीनों अज्ञानोंको निरुद्ध अर्थात् आश्रय कर उनकी भावप्ररूपणा करते हुए सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानका भाव क्यों नहीं बतलाया? समाधान नहीं, क्योंकि, श्रद्धान और अश्रद्धान, इन दोनोंसे एक साथ अनुविद्ध १ ज्ञानानुवादेन मत्यज्ञानिश्रुताज्ञानिविभंगज्ञानिनां xx सामान्यवत् । स. सि. १, ८. Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ७, ४८.] भावाणुगमे पंचणाणिभाव-पख्वणं [२२५ दोहिं मि अक्कमेण अणुविद्धस्स संजदासजदो व्व पत्तजच्चतरस्स गाणेसु अण्णाणेसु वा अत्थित्तविरोहा । सेसं सुगमं । आभिणिबोहिय-सुद-ओधिणाणीसु असंजदसम्मादिट्टिप्पहुडि जाव खीणकसायवीदरागछदुमत्था ओघं ॥४६॥ सुगममेदं, ओघादो भावं पडि भेदाभावा । मणपज्जवणाणीसु पमत्तसंजदप्पहुडि जाव खीणकसायवीदरागछदुमत्था ओघं ॥ ४७ ॥ एदं पि सुगमं । केवलणाणीसु सजोगिकेवली ओघं ॥४८॥ कुदो ? खइयभावं पडि भेदाभावा। सजोगो त्ति को भावो? अणादिपारिणामिओ भावो । णोवसमिओ, मोहणीए अणुवसते वि जोगुवलंभा। ण खइओ, अणप्पसरूवस्स कम्माणं खएणुप्पत्तिविरोहा । ण घादिकम्मोदयजणिओ, णडे वि धादिकम्मोदए केवहोनेके कारण संयतासंयतके समान भिन्नजातीयताको प्राप्त सम्यग्मिथ्यात्वका पांचों शानोंमें, अथवा तीनों अज्ञानों में अस्तित्व होनेका विरोध है। शेष सूत्रार्थ सुगम है। आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर क्षीणकषायवीतरागछमस्थ गुणस्थान तक भाव ओघके समान हैं ॥ ४६॥ यह सूत्र सुगम है, क्योंकि, ज्ञानमार्गणामें ओघसे भावकी अपेक्षा कोई भेद नहीं है। मनःपर्ययज्ञानियोंमें प्रमत्तसंयतसे लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक भाव ओघके समान हैं ॥४७॥ यह सूत्र भी सुगम है। केवलज्ञानियोंमें सयोगिकेवली भाव ओघके समान है॥४८॥ फ्योंकि, क्षायिकभावके प्रति कोई भेद नहीं है। शंका-'संयोग' यह कौनसा भाव है ? । समाधान-'सयोग' यह अनादि पारिणामिक भाव है। इसका कारण यह है कि यह योग न तो औपशमिक भाव है, क्योंकि, मोहनीयकर्मके उपशम नहीं होने पर भी योग पाया जाता है। न वह क्षायिक भाव है, क्योंकि, आत्मस्वरूपसे रहित योगकी कौके क्षयसे उत्पत्ति माननेमें विरोध आता है। योग घातिकर्मोदय-जनित भी नहीं है, १xxx मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलज्ञानिनां च सामान्यवत् । स. सि. १, . Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ७, ४८. लिम्हि जोगुवलंमा। णो अघादिकम्मोदयजणिदो वि, संते वि अघादिकम्मोदए अजोगिम्हि जोगाणुवलंभा । ण सरीरणामकम्मोदयजणिदो वि, पोग्गलविवाइयाणं जीवपरिफद्दणहेउत्तविरोहा । कम्मइयसरीरं ण पोग्गलविवाई, तदो पोग्गलाणं वण्ण-रस-गंध-फास-मंठाणागमणादीणमणुवलंभा। तदुप्पाइदो जोगो होदु चे ण, कम्मइयसरीरं पि पोग्गलविवाई चेव, सव्वकम्माणमासयत्तादो । कम्मइओदयविणट्ठसमए चेव जोगविणासदसणादो कम्मइयसरीरजणिदो जोगो चे ण, अघाइकम्मोदयविणासाणंतरं विणस्संतभवियत्तस्स पारिणामियस्स ओदइयत्तप्पसंगा । तदो सिद्ध जोगस्स पारिणामियत्तं । अधवा ओदइओ जोगो, सरीरणामकम्मोदयविणासाणंतरं जोगविणासुवलंभा। ण च भवियत्तेण विउवचारो, कम्मसंबंधविरोहिणो तस्स कम्मजणिदत्तविरोहा । सेसं सुगमं । एवं णाणमग्गणा समत्ता ।। क्योंकि, घातिकर्मोदयके नष्ट होने पर भी सयोगिकेवलीमें योगका सद्भाव पाया जाता है। न योग अघातिकर्मोदय-जनित भी है, क्योंकि, अघातिकर्मोदयके रहने पर भी अयोगिकेबली में योग नहीं पाया जाता । योग शरीरनामकर्मोदय-जनित भी नहीं है, क्योंकि, पुद्गलविपाकी प्रकृतियोंके जीव-परिस्पंदनका कारण होनेमें विरोध है। शंका-कार्मणशरीर पुद्गलविपाकी नहीं है, क्योंकि, उससे पुद्गलोंके वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श और संस्थान आदिका आगमन आदि नहीं पाया जाता है । इसलिए योगको कार्मणशरीरसे उत्पन्न होनेवाला मान लेना चाहिए? समाधान नहीं, क्योंकि, सर्व कौका आश्रय होनेसे कार्मणशरीर भी पुद्गलविपाकी ही है । इसका कारण यह है कि वह सर्व कमौका आश्रय या आधार है। शंका-कार्मणशरीरके उदय विनष्ट होनेके समयमें ही योगका विनाश देखा जाता है । इसलिए योग कार्मणशरीर-जनित है, ऐसा मानना चाहिए ? समाधान नहीं, क्योंकि, यदि ऐसा माना जाय तो अघातिकर्मोदयके विनाश होनेके अनन्तर ही विनष्ट होनेवाले पारिणामिक भव्यत्वभावके भी औदयिकपनेका प्रसंग प्राप्त होगा। इस प्रकार उपर्युक्त विवेचनसे योगके पारिणामिकपना सिद्ध हुआ। अथवा, 'योग' यह औदयिकभाव है, क्योंकि, शरीरनामकर्मके उदयका विनाश होनेके पश्चात् ही योगका विनाश पाया जाता है । और, ऐसा माननेपर भव्यत्वभावके साथ व्यभिचार भी नहीं आता है, क्योंकि, कर्मसम्बन्धके विरोधी पारिणामिकभावकी कर्मसे उत्पत्ति मानने में विरोध आता है। शेष सूत्रार्थ सुगम है। इस प्रकार ज्ञानमार्गणा समाप्त हुई। निरुपभोगमन्त्यम् । त. सू. २,४४। अन्ते भवमन्त्यम् । किं तत् ? कार्मणम् । इन्द्रियप्रणालिकया दादीनामुपलब्धिरुपमोगः । तदभावानिरंपभोगम् । स. सि. २, ४४. Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावागमे संजदभाव - परूवणं संजमाणुवादेण संजदेसु पमत्तसंजदप्पहुडि जाव अजोगिकेवली १, ७, ५२. ] ओघं ॥ ४९ ॥ सुगममेदं । सामाइयछेदोवडावणसुद्धिसंजदेसु पमत्तसंजद पहुडि जाव अणियट्टि त्ति ओघं ॥ ५० ॥ एदं पि सुगमं । परिहारसुद्धिसंजदेसु पमत्त अप्पमत्तसंजदा ओघं ॥ ५१ ॥ कुदो ? खओवसमियं भावं पडि विसेसाभावा । पमत्तापमत्त संजदेसु अण्णे वि भावा संति, एत्थ ते किष्ण परूविदा ? ण, तेसिं पमत्तापमत्तसंजमत्ताभावा । पमत्तापत्तसंजदाणं भावे पुच्छिदेसु ण हि सम्मत्तादिभावाणं परूवणा णाओववण्णेत्ति' । सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदेसु सुहुमसांपराइया उवसमा खवा ओघं ॥ ५२ ॥ संयममार्गणा के अनुवाद से संयतों में प्रमत्तसंयत से लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक भाव ओघ के समान हैं ॥ ४९ ॥ यह सूत्र सुगम है। सामायिक और छेदोपस्थापना शुद्धिसंयतों में प्रमत्तसंयतसे लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक भाव ओघके समान हैं ॥ ५० ॥ यह सूत्र भी सुगम है । परिहारशुद्धिसंयतों में प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत ये भाव ओघके समान हैं ॥ ५१ ॥ २२७ क्योंकि, क्षायोपशमिक भावके प्रति दोनोंमें कोई विशेषता नहीं है । शंका - प्रमत्त और अप्रमत्त संयत जीवोंमें अन्य भाव भी होते यहांपर वे क्यों नहीं कहे ? समाधान- नहीं, क्योंकि, वे भाव प्रमत्त और अप्रमत्त संयम होनेके कारण नहीं हैं। दूसरी बात यह है कि प्रमत्त और अप्रमत्तसंयतोंके भाव पूछने पर सम्यक्त्व आदि भावकी प्ररूपणा करना न्याय संगत नहीं है । सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयतों में सूक्ष्मसाम्परायिक उपशामक और क्षपक भाव ओके समान हैं ॥ ५२ ॥ १ संयमानुवादेन सर्वेषां संयतानां xxx सामान्यवत् । स. सि. १, ८. २ प्रतिषु ' णाओववण्णो ति ' इति पाठः । Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ७, ५३. उवसामगाणमुवसमिओ भावो, खवगाणं खइओ भावो त्ति उत्तं होदि । जहाक्खादविहारसुद्धिसंजदेसु चदुट्ठाणी ओघं ॥ ५३॥ सुगममेदं । संजदासजदा ओघं ॥ ५४॥ एवं पि सुगमं । असंजदेसु मिच्छादिट्ठिप्पहुडि जाव असंजदसम्मादिहि त्ति ओघं ॥ ५५॥ सुगममेदं, पुव्वं परूविदत्तादो । एवं संजममग्गणा समत्ता । दंसणाणुवादेण चक्खुदंसणि-अचक्खुदंसणीसु मिच्छादिहिप्पहुडि जाव खीणकसायवीदरागछदुमत्था ति ओघं ॥ ५६ ॥ उपशामकोंके औपशमिक भाव और क्षपोंके क्षायिक भाव होता है, यह अर्थ सूत्रद्वारा कहा गया है। यथाख्यातविहारशुद्धिसंयतोंमें उपशान्तकषाय आदि चारों गुणस्थानवर्ती भाव ओघके समान हैं ॥ ५३ ॥ यह सूत्र सुगम है। संयतासंयत भाव ओघके समान है ॥५४॥ यह सूत्र भी सुगम है। असंयतोंमें मिथ्यादृष्टि से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक भाव ओघके समान हैं ॥५५॥ यह सूत्र सुगम है, क्योंकि, पहले प्ररूपण किया जा चुका है। इस प्रकार संयममार्गणा समाप्त हुई। दर्शनमार्गणाके अनुवादसे चक्षुदर्शनी और अचक्षुदर्शनियोंमें मिथ्यादृष्टि से लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक भाव ओघके समान हैं ॥ ५६ ॥ १xx संयतासंयताना xx सामान्यवत् । स. सि. १,८. २xxx असंयतानां च सामान्यवत् । स. सि. १,८. ३ दर्शनानुवादेन चक्षुर्दर्शनाचक्षुर्दर्शनावधिदर्शनकेवलदर्शनिनां सामान्यवत् । स. सि. १, ८. Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ७, ६०. ] भावागमे लेस्सियभाव- परूवणं [ २२९ कुदो ! मिच्छादिपिडि खीणकसायपज्जंतसव्वगुणट्ठाणाणं चक्खु अचक्खुदंसणविरहियाणमणुवलंभा । ओहिदंसणी ओहिणाणिभंगो ॥ ५७ ॥ केवलदंसणी केवलणाणिभंगो ।। ५८ ।। दाणि दो वित्ताणि सुगमाणि । एवं दंसणमग्गणा समत्ता । लेस्साणुवादेण किण्हलेस्सिय-णीललेस्सिय काउलेस्सिएसु चदुट्टाणी ओघं ॥ ५९ ॥ चदुण्हं ठाणाणं समाहारो चदुट्टाणी । केण समाहारो ? एगलेस्साए । सेसं सुगमं । तेउलेस्सिय-पम्मलेस्सिएसु मिच्छादिट्टि पहुडि जाव अप्पमत्तसंजदा ति ओघं ॥ ६० ॥ एदं सुमं । क्योंकि, मिथ्यादृष्टिसे लेकर क्षीणकषाय पर्यंत कोई गुणस्थान चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शनवाले जीवोंसे रहित नहीं पाया जाता है । अवधिदर्शनी जीवोंके भाव अवधिज्ञानियोंके भावोंके समान हैं ॥ ५७ ॥ केवलदर्शनी जीवोंके भाव केवलज्ञानियोंके भावों के समान हैं ॥ ५८ ॥ ये दोनों ही सूत्र सुगम हैं । इस प्रकार दर्शनमार्गणा समाप्त हुई । श्यामार्गणा अनुवादसे कृष्णलेश्या, नीललेश्या और कापोतलेश्या वालोंमें आदिके चार गुणस्थानवर्ती भाव ओघके समान हैं ॥ ५९ ॥ चार स्थानोंके समाहारको चतुःस्थानी कहते हैं । शंका- चारों गुणस्थानोंका समाहार किस अपेक्षासे है ? समाधान — एक लेइयाकी अपेक्षासे है, अर्थात् आदिके चारों गुणस्थानों में एकसी लेश्या पाई जाती है । शेष सूत्रार्थ सुगम है । तेजोलेश्या और पद्मलेश्या वालोंमें मिथ्यादृष्टिसे लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक भाव ओघके समान हैं ॥ ६० ॥ यह सूत्र सुगम है । १ लेश्यानुवादेन षड्लेश्यानामलेश्यानां च सामान्यवत् । स. सि. १, ८. Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ७, ६१. सुक्कले स्सिएसु मिच्छादिट्टि पहुडि जाव सजोगिकेवलित्ति ओघं ॥ ६१ ॥ सुगममेदं । एवं लेस्सामग्गणा समत्ता । भवियाणुवादेण भवसिद्धिएसु मिच्छादिट्टिप्पहुडि जाव अजोगि केवलित्ति ओधं ॥ ६२ ॥ कुदो ? एत्थतणगुणणाणं ओघगुणट्ठाणेहिंतो भवियत्तं पडि भेदाभावा । अभवसिद्धियत्तिको भावो, पारिणामिओ भावों ॥ ६३ ॥ कुदो ? कम्माणमुदएण उवसमेण खएण खओवसमेण वा अभवियत्ताणुप्पत्तीदो | भवियत्तस्स वि पारिणामिओ चेय भावो, कम्माणमुदय उवसम खय खओवसमेहि भवियताणुष्पत्तदो । गुणद्वाणस्स भावमभणिय मग्गणड्डाणभावं परूवेंतस्स कोभिप्पाओ ! शुक्लश्यावालों में मिथ्यादृष्टिसे लेकर सयोगिकेवली गुणस्थान तक भाव ओघके समान हैं ॥ ६१ ॥ यह सूत्र सुगम है । इस प्रकार लेश्यामार्गणा समाप्त हुई । to मार्गणा के अनुवाद से भव्यसिद्धिकों में मिध्यादृष्टिसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक भाव ओघके समान हैं ॥ ६२ ॥ क्योंकि, भव्यमार्गणासम्बन्धी गुणस्थानोंका ओघ गुणस्थानोंसे भव्यत्व नामक पारिणामिकभावके प्रति कोई भेद नहीं है । अभयसिद्धिक यह कौनसा भाव है ? पारिणामिक भाव है ॥ ६३ ॥ क्योंकि, कर्मोंके उदयसे, उपशमसे, क्षयसे, अथवा क्षयोपशम से अभव्यत्व भाव उत्पन्न नहीं होता है । इसी प्रकार भव्यत्व भी पारिणामिक भाव ही है, क्योंकि, कर्मोंके उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशमसे भव्यत्व भाव उत्पन्न नहीं होता । शंका- यहां पर गुणस्थान के भावको न कह कर मार्गणास्थानसम्बन्धी भाषका प्ररूपण करते हुए आचार्यका क्या अभिप्राय है ? १ भव्यानुवादेन मध्यानां मिथ्यादृष्ट्याद्ययोगकेवल्यन्तानां सामान्यवत् । स. सि. १,८० २ अभव्याना पारिणामिको भावः । स. सि. १, ८. Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ७, ६६.] भावाणुगमे सम्मादिहिभाव-परूवणं [ २३१ गुणट्ठाणभावो अउत्तो वि णाणिज्जओ। अभवियत्तं पुण उवदेसमवेक्खदे, पुन्धमपरूविदसरूवत्तादो । तेण मग्गणाभावो उत्तो त्ति । एवं भवियमग्गणा समत्ता । सम्मत्ताणुवादेण सम्मादिट्ठीसु असंजदसम्मादिटिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति ओघं ॥ ६४ ॥ सुगममेदं । खइयसम्मादिट्ठीसु असंजदसम्मादिहि ति को भावो, खडओ भावों॥६५॥ कुदो ? दंसणमोहणीयस्स णिम्मूलक्खएणुप्पण्णसम्मत्तादो । खइयं सम्मत्तं ॥६६॥ खइयसम्मादिट्ठीसु सम्मत्तं खइयं चेव होदि त्ति अणुत्तसिद्धीदो णेदं सुत्तमाढवेदव्वं ? ण एस दोसो । कुदो ? ण ताव खइयसम्मादिट्ठी सण्णा खइयस्स सम्मत्तस्स समाधान-गुणस्थानसम्बन्धी भाव तो विना कहे भी जाना जाता है । किन्तु अभव्यत्व ( कौनसा भाव है यह ) उपदेशकी अपेक्षा रखता है, क्योंकि, उसके स्वरूपका पहले प्ररूपण नहीं किया गया है। इसलिए यहांपर (गुणस्थानका भाव न कह कर) मार्गणासम्बन्धी भाव कहा है। इस प्रकार भव्यमार्गणा समाप्त हुई। सम्यक्त्वमार्गणाके अनुवादसे सम्यग्दृष्टियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक भाव ओघके समान हैं ॥ ६४ ॥ यह सूत्र सुगम है। क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि यह कौनसा भाव है ? क्षायिक भाव क्योंकि, दर्शनमोहनीयकर्मके निर्मूल क्षयसे क्षायिकसम्यक्त्व उत्पन्न होता है। उक्त जीवोंके क्षायिक सम्यक्त्व होता है ॥ ६६ ॥ शंका--क्षायिकसम्यग्दृष्टियों में सम्यग्दर्शन क्षायिक ही होता है, यह बात अनुक्तसिद्ध है, इसलिए इस सूत्रका आरम्भ नहीं करना चाहिए? समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि यह संशा क्षायिक १ सम्यक्त्वानुवादेन क्षायिकसम्यग्दृष्टिषु असंयतसम्यग्दृष्टेः क्षायिको भावः । स. सि. १, ८. २ क्षायिकं सम्यक्त्वम् । स. सि. १, ८. Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ७, ६७. अत्थित्तं गमयदि, तवण-भक्खरादिणामस्स अणणुअट्ठस्स वि उवलंभा । ण च अण्णं किंचि खइयसम्मत्तस्स अत्थित्तम्हि चिण्हमत्थि । तदो खइयसम्मादिहिस्स खइयं चेव सम्मत्तं होदि त्ति जाणाविदं । अवरं च ण सव्वे सिस्सा उप्पण्णा चेव, किंतु अउप्पण्णा वि अस्थि । तेहि खइयसम्मादिट्ठीणं किमुवसमसम्मत्तं, किं खइयसम्मत्तं, किं वेदगसम्मत्तं होदि त्ति पुच्छिद एदस्स मुत्तस्स अवयारो जादो, खइयसम्मादिट्ठीणं खइयं चेव सम्मत्तं होदि, ण सेसदोसम्मत्ताणि त्ति जाणावणहूँ अपुधकरणक्खवयाणं खइयभावाणं खड्यचरित्तस्सेव दंसणमोहखवयाणं पि खड्यभावाणं तस्संबंधण वेदयसम्मत्तोदए संते वि खइयसम्मत्तस्स अत्थित्तप्पसंगे तप्पडिसेहढे वा। ओदइएण भावेण पुणो असंजदों ॥ ६७ ॥ सुगममेदं । संजदासंजद-पमत्त-अप्पमत्तसंजदा त्ति को भावो,खओवसमिओ भावों ॥ ६८ ॥ सम्यक्त्वके अस्तित्वका शान नहीं कराती है। इसका कारण यह है लोकमें तपन, भास्कर आदि अनन्वर्थ (अर्थशून्य या रूढ) नाम भी पाये जाते हैं । इसके अतिरिक्त अन्य कोई चिन्ह क्षायिकसम्यक्त्यके अस्तित्वका है नहीं। इसलिए क्षायिकसम्यग्दृष्टिके क्षायिक सम्यक्त्व ही होता है, यह बात इस सूत्रसे ज्ञापित की गई है। दूसरी बात यह भी है कि सभी शिष्य व्युत्पन्न नहीं होते, किन्तु कुछ अव्युत्पन्न भी होते हैं। उनके द्वारा क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंके क्या उपशमसम्यक्त्व है, किंवा क्षायिकसम्यक्त्व है, किंवा वेदकसम्यक्त्व ता है. ऐसा पछने पर क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंके क्षायिक ही सम्यक्त्व होता है, शेष दो सम्यक्त्व नहीं होते हैं, इस बातके जतलानेके लिए, अथवा क्षायिकभाववाले अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती क्षपकोंके क्षायिक चारित्रके समान क्षायिकभाववाले भी जीवोंके दर्शनमोहनीयका क्षपण करते हुए उसके सम्बन्धसे वेदकसम्यक्त्वप्रकृतिके उदय रहने पर भी क्षायिकसम्यक्त्वके अस्तित्वका प्रसंग प्राप्त होनेपर उसका प्रतिषेध करनेके लिए इस सूत्रका अवतार हुआ है। किन्तु क्षायिकसम्यग्दृष्टिका असंयतत्व औदयिक भावसे है ॥ ६७ ॥ यह सूत्र सुगम है। क्षायिकसम्यग्दृष्टि संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत यह कौनसा भाव है ? क्षायोपशमिक भाव है ॥ ६८ ॥ १ असंयतत्वमौदयिकेन मावेन । स. सि. १,८. २ संयतासंयतप्रमत्ताप्रमत्तसंयतानां क्षायोपशमिको भावः । स. सि. १,८. Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ७, ७२.] भावाणुगमे सम्मादिदिभाव-परूवणं [२३३ कुदो ? चारित्तावरणकम्मोदए संते वि जीवसहावचारित्तेगदेसस्स संजमासजमपमत्त-अप्पमत्तसंजमस्स आविब्भावस्सुवलंभा । खइयं सम्मत्तं ॥ ६९॥ सुगममेदं । चदुण्हमुवसमा त्ति को भावो, ओवसमिओ भावो ॥ ७० ॥ मोहणीयस्सुवसमेणुप्पण्णचरित्तत्तादो, मोहोवसमणहेदुचारित्तसमण्णिदत्तादो य । खइयं सम्मत्तं ॥ ७१ ॥ पारद्धदसणमोहणीयक्खवणो कदकरणिज्जो वा उवसमसेटिं ण चढदि त्ति जाणावणट्ठमेदं सुत्तं भणिदं । सेसं सुगमं । चदुण्हं खवा सजोगिकेवली अजोगिकेवलि त्ति को भावो, खइओ भावों ॥७२॥ क्योंकि, चारित्रावरणकर्मके उदय होने पर भी जीवके स्वभावभूत चारित्रके एक देशरूप संयमासंयम, प्रमत्तसंयम और अप्रमत्तसंयमका (उक्त जीवोंके क्रमशः) आविर्भाव पाया जाता है। उक्त जीवोंके सम्यग्दर्शन क्षायिक ही होता है ॥ ६९ ॥ यह सूत्र सुगम है। अपूर्वकरण आदि चार गुणस्थानोंके क्षायिकसम्यग्दृष्टि उपशामक यह कौनसा भाव है ? औपशमिक भाव है ॥ ७० ॥ क्योंकि, उपशान्तकषायके मोहनीयकर्मके उपशमसे उत्पन्न हुआ चारित्र पाया जानेसे और शेष तीन उपशामकोंके मोहोपशमके कारणभूत चारित्रसे समन्वित होनेसे औपशमिकभाव पाया जाता है। क्षायिकसम्यग्दृष्टि चारों उपशामकोंके सम्यग्दर्शन क्षायिक ही होता है ॥७१॥ दर्शनमोहनीयकर्मके क्षपणका प्रारम्भ करनेवाला जीव, अथवा कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव, उपशमश्रेणीपर नहीं चढ़ता है, इस बातका शान करानेके लिए यह सूत्र कहा गया है। शेष सूत्रार्थ सुगम है । क्षायिकसम्यग्दृष्टि चारों गुणस्थानोंके क्षपक, सयोगिकेवली और अयोगिकेवली यह कौनसा भाव है ? क्षायिक भाव है ॥ ७२ ॥ १ क्षायिकं सम्यक्त्वम् । स. सि. १, ८. २ चतुर्णामुपशमकानामौपशमिको भावः । स. सि. १,८... ३ क्षायिकं सम्यक्त्वम् । स. सि. १,८. ४ शेषाणां सामान्यवत् । स. सि. १.८. Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ७, ७३. कुदो ! मोहणीयस्स खवणहेदुअपुव्वसण्णिदचारित्तसमण्णिदत्तादो मोहक्खएणुप्पण्णचारितादो घादिक्खएणुप्पण्णणवकेवललद्धीहिंतो । खइयं सम्मतं ॥ ७३ ॥ सुगममेदं । वेदयसम्मादिट्टी समिओ भावो ॥ ७४ ॥ सुगममेदं । असंजदसम्मादिट्टि त्ति को भावो, खओव खओवसमियं सम्मत्तं ॥ ७५ ॥ ओम्म असजद सम्मादिट्ठिस्स तिष्णि भावा सामण्णेण परूविदा, एदं सम्मत्तमोसमयं खइयं खओवसमियं वेत्ति ण परूविदं । संपहि सम्मत्तमग्गणाए एदं सम्मत्तमोवसमियं खइयं खओवसमियं वेत्ति देहि सुत्तेहि जाणाविदं । सेसं सुगमं । क्योंकि, अपूर्वकरण आदि तीन क्षपकोंका मोहनीयकर्मके क्षपणके कारणभूत अपूर्वसंज्ञावाले चारित्रसे समन्वित होनेके कारण, क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थके मोहक्षयसे उत्पन्न हुआ चारित्र होनेके कारण, तथा सयोगिकेवली और अयोगिकेवलीके घातिया कर्मोंका क्षय हो जानेसे उत्पन्न नव केवललब्धियोंकी अपेक्षा क्षायिक भाव पाया जाता है। चारों क्षपक, सयोगिकेवली और अयोगिकेवली के सम्यग्दर्शन क्षायिक ही होता है ॥ ७३ ॥ यह सूत्र सुगम है । वेदकसम्यग्दृष्टियों में असंयतसम्यग्दृष्टि यह कौनसा भाव है ? क्षायोपशमिक भाव है ॥ ७४ ॥ यह सूत्र सुगम है । वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके सम्यग्दर्शन क्षायोपशमिक होता है ।। ७५ ।। ओघप्ररूपणामें असंयतसम्यग्दृष्टि जीवके सामान्यसे तीन भाव कहे हैं; किन्तु उनका यह सम्यग्दर्शन औपशमिक है, या क्षायिक है, किंवा क्षायोपशमिक है, यह प्ररूपण नहीं किया है । अब सम्यक्त्वमार्गणामें असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका यह सम्यग्दर्शन औपशमिकसम्यक्त्वियोंके औपशमिक होता है, क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंके क्षायिक होता है और वेदकसम्यग्दृष्टियोंके क्षायोपशमिक होता है, यह बात इन सूत्रोंसे सूचित की गई है । शेष सूत्रार्थ सुगम है । १ क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टिषु असंयतसम्यग्दृष्टेः क्षायोपशमिको भावः । स. सि. १,८० २ क्षायोपशमिकं सम्यक्त्वम् । स. सि. १, ८. Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावामै सम्मादिट्टिभाव-परूवणं ओदइएण भावेण पुणो असंजदों ॥ ७६ ॥ अवगत्थमेदं । १, ७, ८०. ] संजदासंजद - पमत्त - अप्पमत्तसंजदा त्ति को भावो, खओवसमिओ भावों ॥ ७७ ॥ दमेयं । खओवसमियं सम्मत्तं ॥ ७८ ॥ कुदो ? दंसणमोहोदए संते वि जीवगुणीभूदसद्दहणस्स उप्पत्तीए उवलंभा । उवसम सम्मादिट्टी असंजदसम्मादिट्टि त्ति को भावो, उवसमिओ भावो ॥ ७९ ॥ दो ? दंसणमवसमेप्पण्णसम्मत्तादो । उवसामियं सम्मत्तं ॥ ८० ॥ किन्तु वेदकसम्यग्दृष्टिका असंयतत्व औदयिक भाव से है ।। ७६ ।। इस सूत्र का अर्थ जाना हुआ है । वेदकसम्यग्दृष्टि संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत यह कौनसा भाव है ? क्षायोपशमिकभाव है ॥ ७७ ॥ इस सूत्र का अर्थ ज्ञात है । उक्त जीवोंके सम्यग्दर्शन क्षायोपशमिक होता है ॥ ७८ ॥ क्योंकि, दर्शनमोहनीयके ( अंगभूत सम्यक्त्वप्रकृतिके ) उदय रहने पर भी जीवके गुणस्वरूप श्रद्धानकी उत्पत्ति पाई जाती है । उपशमसम्यग्दृष्टियों में असंयतसम्यग्दृष्टि यह कौनसा भाव है ? औपशमिक भाव है ॥ ७९ ॥ क्योंकि, उपशमसम्यग्दृष्टियोंका सम्यक्त्व दर्शनमोहनीयकर्मके उपशमसे उत्पन्न हुआ है। उक्त जीवोंके सम्यग्दर्शन औपशमिक होता है ॥ ८० ॥ [ २३५ १ असंयतः पुनरौदयिकेन भावेन । स. सि. १, ८. २ संयतासंयत प्रमचाप्रमत्तसंयतानां क्षायोपशमिको भावः । स. सि. १, ८, ३ क्षायोपशमिकं सम्यक्त्वम् । स. सि. १, ८. ४ औपशमिकसम्यग्दृष्टिषु असंयत सम्यग्दृष्टेरोपशमिको भावः । स. सि. १, ८. ५ औपशमिकं सम्यक्त्वम् । स. सि. १, ८. Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ ] छक्खडागमे जीवद्वाणं ओदइएण भावेण पुणो असंजदों ॥ ८१ ॥ दो वि सुत्ताणि सुगमाणि । संजदासंजद- पमत्त अप्पमत्तसंजदा त्ति को भावो, खओवसमिओ भावो ॥ ८२ ॥ सुगममेदं । उवसमियं सम्मत्तं ॥ ८३ ॥ एदं पि सुगमं । चदुण्हमुवसमा त्ति को भावो, उवसमिओ भावों ॥ ८४ ॥ उवसमियं सम्मत्तं ॥ ८५ ॥ दो वि सुत्ताणि सुगमाणि । सास सम्मादिट्ठी ओघं ॥ ८६ ॥ किन्तु उपशमसम्यक्त्व असंयतसम्यग्दृष्टि जीवका असंयतत्व औदयिक भावसे है ॥ ८१ ॥ [ १, ७, ८१. ये दोनों ही सूत्र सुगम हैं । उपशमसम्यग्दृष्टि संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत यह कौनसा भाव है ? क्षायोपशमिक भाव है ।। ८२ ।। यह सूत्र सुगम है । उक्त जीवोंके सम्यग्दर्शन औपशमिक होता है ॥ ८३ ॥ यह सूत्र भी सुगम है । अपूर्वकरण आदि चार गुणस्थानोंके उपशमसम्यग्दृष्टि उपशामक यह कौनसा भाव है ? औपशमिक भाव है ॥ ८४ ॥ उक्त जीवोंके सम्यग्दर्शन औपशमिक होता है ॥ ८५ ॥ ये दोनों ही सूत्र सुगम हैं । सासादनसम्यग्दृष्टि भाव ओघके समान है ॥ ८६ ॥ १ असंयतः पुनरौदयिकेन भावेन । स. सि. १, ८. २ संयतासंयत प्रमत्ताप्रमत्तसंयतानां क्षायोपशमिको भावः । स. सि. १, ८. ३ औपशमिकं सम्यक्त्वम् । स. सि. १, ८. ४ चतुर्णामुपशमकानामौपशमिको भावः । स. सि. १, ८. ५ औपशमिकं सम्यक्त्वम् । स. सि. १,८. ६ सासादनसम्यग्दृष्टेः पारिणामिको भावः । स. सि. १, ८. Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ७, ९०.] भावाणुगमे सण्णि-असण्णिभाव-परूवणं [२३७ सम्मामिच्छादिट्टी ओघं ॥ ८७ ॥ मिच्छादिट्ठी ओघं ॥ ८८ ॥ तिणि वि सुत्ताणि अवगयत्थाणि । एवं सम्मत्तमग्गणा समत्ता । सण्णियाणुवादेण सण्णीसु मिच्छादिहिप्पहुडि जाव खीणकसायवीदरागछदुमत्था त्ति ओघं ॥ ८९ ॥ सुगममेदं। असण्णि त्ति को भावो, ओदइओ भावों ॥ ९० ॥ कुदो ? णोइंदियावरणस्स सव्वधादिफद्दयाणमुदएण असण्णित्तुप्पत्तीदो। असण्णिगुणट्ठाणभावो किण्ण परूविदो ? ण, उवदेसमंतरेण तदवगमादो। एवं सण्णिमग्गणा समत्ता । सम्यग्मिथ्यादृष्टि भाव ओघके समान है ॥ ८७ ॥ मिथ्यादृष्टि भाव ओघके समान है ॥ ८८ ॥ इन तीनों ही सूत्रोंका अर्थ ज्ञात है। ___ इस प्रकार सम्यक्त्वमार्गणा समाप्त हुई। संज्ञिमार्गणाके अनुवादसे संज्ञियोंमें मिथ्यादृष्टिसे लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ तक भाव ओघके समान हैं ॥ ८९ ॥ यह सूत्र सुगम है। असंज्ञी यह कौनसा भाव है ? औदयिक भाव है ॥ ९० ॥ क्योंकि, नोइन्द्रियावरणकर्मके सर्वघाती स्पर्धकोंके उदयसे असंशित्व भाव उत्पन्न होता है। शंका--यहांपर असंज्ञी जीवोंके गुणस्थानसम्बन्धी भावको क्यों नहीं बतलाया? समाधान-नहीं, क्योंकि, उपदेशके विना ही उसका ज्ञान हो जाता है । इस प्रकार संज्ञीमार्गणा समाप्त हुई। १ सम्यग्मिथ्यादृष्टेः क्षायोपशमिको भावः। स. सि. १, ८. २ मिथ्यादृष्टेरौदयिको मावः। स. सि. १, ८. ३ संज्ञानुवादेन संज्ञिनां सामान्यवत् । स. सि. १,८. ४ असंज्ञिनामौदयिको भावः। स. सि. १, ८. ५ तदुभयव्यपदेशरहितानां सामान्यवत् । स. सि. १,८. Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ७, ९१. आहाराणुवादेण आहारएसु मिच्छादिटिप्पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति ओघं ॥ ९१ ॥ सुगममेदं । अणाहाराणं कम्मइयभंगों ॥ ९२ ॥ एदं पि सुगमं । कम्मइयादो विसेसपदुप्पायण उत्तरसुत्तं भणदि णवरि विसेसो, अजोगिकेवलि त्ति को भावो, खइओ भावो ॥ ९३॥ सुगममेदं। ( एवं आहारमग्गणा समत्ता) एवं भावाणुगमो त्ति समत्तमणिओगद्दारं । आहारमार्गणाके अनुवादसे आहारकोंमें मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगिकेवली तक भाव ओघके समान हैं ।। ९१ ॥ यह सूत्र सुगम है। अनाहारक जीवोंके भाव कार्मणकाययोगियों के समान हैं ॥ ९२ ॥ यह सूत्र भी सुगम है। कार्मणकाययोगियोंमें विशेषता प्रतिपादन करनेके लिए उत्तर सूत्र कहते हैं किन्तु विशेषता यह है कि कार्मणकाययोगी अयोगिकेवली यह कौनसा भाव है ? क्षायिक भाव है ॥ ९३ ॥ यह सूत्र सुगम है। (इस प्रकार आहारमार्गणा समाप्त हुई।) इस प्रकार भावानुगमनामक अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। १ आहारानुवादेन आहारकाणांxx सामाभ्यवत् । स. सि. १,८. २xx अनाहारकाणां च सामान्यवत् । स. सि. १,८. ३ भावः परिसमाप्तः । स. सि. १, ८. Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुगाणुगमो Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aohitiatha तस्स सिरि-भगवंत-पुप्फदंत-भूदबलि-पणीदो छक्खंडागमो सिरि-वीरसेणाइरिय-विरइय धवला-टीका-समण्णिदो पढमखंडे जीवट्ठाणे अप्पाबहुगाणुगमो केवलणाणुजोइयलोयालोए जिणे णमंसित्ता । अप्पबहुआणिओअं जहोवएस परूवेमो ॥ अप्पाबहुआणुगमेण दुविहो णिदेसो, ओघेण आदेसेण यं ॥१॥ तत्थ णाम-ढवणा-दव्व-भावभेएण अप्पाबहुअं चउविहं । अप्पाबहुअसद्दो णामप्पाबहुअं। एदम्हादो एदस्स बहुत्तमप्पत्तं वा एदमिदि एयत्तज्झारोवेण दृविदं ठवणप्पाबहुगं। दव्वप्पाबहुअं दुविहं आगम-णोआगमभेएण। अप्पाबहुअपाहुडजाणओ अणुवजुत्तो केवलज्ञानके द्वारा लोक और अलोकको प्रकाशित करनेवाले श्री जिनेन्द्र देवोंको नमस्कार करके जिस प्रकारसे उपदेश प्राप्त हुआ है, उसके अनुसार अल्पबहुत्व अनुयोगद्वारका प्ररूपण करते हैं । अल्पबहुत्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है, ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश ॥१॥ नाम, स्थापना द्रव्य और भावके भेदसे अल्पबहुत्व चार प्रकारका है। उनमेंसे अल्पबहुत्व शब्द नामअल्पबहुत्व है। यह इससे बहुत है, अथवा यह इससे अल्प है, इस प्रकार एकत्वके अध्यारोपसे स्थापना करना स्थापनाअल्पबहुत्व है। द्रव्यअल्पबहुत्व आगम और नोआगमके भेदसे दो प्रकारका है। जो अल्पबहुत्व-विषयक प्राभृतको जाननेवाला है, परंतु वर्तमानमें उसके उपयोगसे रहित है उसे आगमद्रव्य अल्पबहुत्व १ अल्पबहुत्वमुपवर्ण्यते । तत् द्विविधं सामान्येन विशेषेण च । स. सि. १,८. Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ ] छखंडागमे जीवाणं [ १, ८, १. आगमदव्वष्पाबहुअं । गोआगमदब्वप्पाबहुअं तिविहं जाणुअसरीर-भविय-तव्यदिरित्तभेदा । तत्थ जाणुअसरीरं भविय- वट्टमाण-समुज्झादमिदि तिविहमवि अवगयत्थं । भवियं भविस्सकाले अप्पाबहुअपाहुडजाणओ । तव्वदिरित्तअप्पा बहुअं तिविहं सचित्तमचित्तं मिस्समिदि । जीवदव्वप्पाबहुअं सचित्तं । सेसदव्वप्याबहुअमचित्तं । दोहं पि अप्पा बहुअं मिस्सं । भावप्पाबहुअं दुविहं आगम - गोआगमभेएण । अप्पा बहुअपाहुडजाणओ उवजुत्तो आगमभावप्पाबहुअं । णाण-दंसणाणुभाग- जोगादिविसयं णोआगमभावप्पा बहुअं | देसु अप्पा बहुए केण पयदं ! सचित्तदव्वपाब हुएण पयदं । किमप्पा बहुअं ? संखाधम्मो, एदम्हादो एदं तिगुणं चदुगुणमिदि बुद्धिगेज्झो । कस्सप्पाबहुअं : जीवदव्वस्स, धम्मिवदिरित्तसंखाधम्माणुवलंभा । केणप्पा बहुअं ? पारिणामिएण भावेण । कहते हैं । नोआगमद्रव्य अल्पबहुत्व ज्ञायकशरीर, भावी और तद्व्यतिरिक्त के भेदसे तीन प्रकारका है। उनमेंसे भावी, वर्तमान और अतीत, इन तीनों ही प्रकारके ज्ञायकशरीरका अर्थ जाना जा चुका है । जो भविष्यकालमें अल्पबहुत्व प्राभृतका जाननेवाला होगा, उसे भावी नोआगमद्रव्य अल्पबहुत्वनिक्षेप कहते हैं । तद्व्यतिरिक्त अल्पबहुत्व तीन प्रकारका है- सचित्त, अचित्त और मिश्र । जीवद्रव्य-विषयक अल्पबहुत्व सचित्त है, शेष द्रव्यविषयक अल्पबहुत्व अचित्त है, और इन दोनोंका अल्पबहुत्व मिश्र है । आगम और नोआगमके भेदसे भाव - अल्पबहुत्व दो प्रकारका है । जो अल्पबहुत्व- प्राभृतका जाननेवाला है और वर्तमानमें उसके उपयोग से युक्त है उसे आगमभाव अल्पबहुत्व कहते हैं । आत्माके ज्ञान और दर्शनको, तथा पुद्गलकर्मोंके अनुभाग और योगादिको विषय करनेवाला नोआगमभाव अल्पबहुत्व है । शंका- इन अल्पबहुत्वोंमेंसे प्रकृतमें किससे प्रयोजन है ? समाधान - प्रकृतमें सचित्त द्रव्यके अल्पबहुत्वसे प्रयोजन है । ( अब निर्देश, स्वामित्वादि प्रसिद्ध छह अनुयोगद्वारोंसे अल्पबहुत्वका निर्णय किया जाता है | ) शंका- - अल्पबहुत्व क्या है ? समाधान—यह उससे तिगुणा है, अथवा चतुर्गुणा है, इस प्रकार बुद्धिके द्वारा ग्रहण करने योग्य संख्याके धर्मको अल्पबहुत्व कहते हैं । शंका- अल्पबहुत्व किसके होता है, अर्थात् अल्पबहुत्वका स्वामी कौन है ? समाधान — जीवद्रव्यके अल्पबहुत्व होता है, अर्थात् जीवद्रव्य उसका स्वामी है, क्योंकि, धर्मीको छोड़कर संख्याधर्म पृथक् नहीं पाया जाता । शंका-अल्पबहुत्व किससे होता है, अर्थात् उसका साधन क्या है ? समाधान - अल्पबहुत्व पारिणामिक भावसे होता है । Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२११ १, ८, २.] अप्पाबहुगाणुगमे णिदेस-परूवणं कत्थप्पाबहुअं ? जीवदव्वे । केवचिरमप्पाबहुअं ? अणादि-अपज्जवसिदं । कुदो ? सव्वेसि गुणट्ठाणाणमेदेणेव पमाणेण सव्वकालमवट्ठाणादो । कइविहमप्पाबहुअं? मग्गणभेयभिण्णगुणट्ठाणमेत्तं । अप्पं च बहुअंच अप्पाबहुआणि । तेसिमणुगमो अप्पाबहुआणुगमो । तेण अप्पाबहुआणुगमेण णिद्देसो दुविहो होदि ओघो आदेसो त्ति । संगहिदवयणकलावो दबट्ठियणिबंधणो ओपो णाम । असंगहिदवयणकलाओ पुव्विल्लत्यावयवणिबंधो पजवट्ठियणिबंधणो आदेसो णाम । ओघेण तिसु अद्धासु उवसमा पवेसणेण तुल्ला थोवा ॥२॥ तिसु अद्धासु त्ति वयणं चत्तारि अद्धाओ पडिसेहढें । उवसमा त्ति वयणं खवयादिपडिसेहफलं । पवेसणेणेत्ति वयणं संचयपडिसेहफलं । तुल्ला त्ति वयणेण विसरिसत्तपडिसेहो कदो । आदिमेसु तिसु गुणट्ठाणेसु उवसामया पवेसणेण तुल्ला सरिसा । कुदो ? शंका-अल्पबहुत्व किसमें होता है, अर्थात् उसका अधिकरण क्या है ? समाधान-जीवद्रव्यमें, अर्थात् जीवद्रव्य अल्पबहुत्वका अधिकरण है। शंका-अल्पबहुत्व कितने समय तक होता है ? समाधान-अल्पबहुत्व अनादि और अनन्त है, क्योंकि, सभी गुणस्थानोंका इसी प्रमाणसे सर्वकाल अवस्थान रहता है। शंका-अल्पबहुत्व कितने प्रकारका है ? समाधान-मार्गणाओंके भेदसे गुणस्थानोंके जितने भेद होते हैं, उतने प्रकारका अल्पबहुत्व होता है। अल्प और बहुत्वको अर्थात् हीनता और अधिकताको अल्पबहुत्व कहते हैं। उनका अनुगम अल्पबहुत्वानुगम है । उससे अर्थात् अल्पबहुत्वानुगमसे निर्देश दो प्रकारका है, ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । जिसमें सम्पूर्ण वचन-कलाप संगृहीत है, और जो द्रव्यार्थिकनय-निमित्तक है, वह ओघनिर्देश है। जिसमें सम्पूर्ण वचन-कलाप संगृहीत नहीं है, जो पूर्वोक्त अर्थावयव अर्थात् ओघानुगममें बतलाये गये भेदोंके आश्रित है और जो पर्यायार्थिकनय-निमित्तक है वह आदेशनिर्देश है। ओघनिर्देशसे अपूर्वकरणादि तीन गुणस्थानोंमें उपशामक जीव प्रवेशकी अपेक्षा परस्पर तुल्य हैं, तथा अन्य सब गुणस्थानोंके प्रमाणसे अल्प हैं ॥२॥ 'तीनों गुणस्थानोंमें' यह वचन चार उपशामक गुणस्थानोंके प्रतिषेध करनेके लिए दिया है । ' उपशामक' यह वचन क्षपकादिके प्रतिषेधके लिए दिया है । 'प्रवेशकी अपेक्षा' इस वचनका फल संचयका प्रतिषेध है। 'तुल्य' इस वचनसे विसदृशताका प्रतिषेध किया है। श्रेणीसम्बन्धी आदिके तीन गुणस्थानोंमें उपशामक जीव प्रवेशकी १ प्रतिषु 'पुव्विलद्धा' इति पाठः । मप्रतौ तु स्वीकृतपाठः। २ सामान्येन तावत् त्रय उपशमकाः सर्वतः स्तोकाःस्वगुणस्थानकालेषु प्रवेशेन तुल्यसंख्याः।स. सि.१.. Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ८, २. एआदिचउण्णमेत्तजीवाणं पवेसं पडि पडिसेहाभावा । ण च सव्वद्धं. तिसु उवसामगेसु पविसंतजीवेहि सरिसत्तणियमो, संभवं पडुच्च सरिसत्तउत्तीदो । एदेसि संचओ सरिसो असरिसो त्ति वा किण्ण परूविदो? ण.एस दोसो, पवेससारिच्छेण तेसिं संचयसारिच्छस्स वि अवगमादो। पविस्समाणजीवाणं विसरिसत्ते संते संचयस्स विसरिसत्तं, अण्णहा दिडविरोहादो । अपुव्वादिअद्धाणं थोव-बहुत्तादो विसरिसत्तं संचयस्स किण्ण होदि त्ति पुच्छिदे ण होदि, तिण्हमुवसामगाणमद्धाहिंतो उक्कस्सपवेसंतरस्स बहुत्तुवदेसादो । तम्हा तिण्हं संचओ वि सरिसो चेय । थोवा उवरि उच्चमाणगुणहाणाण संखं पेक्खिय थोवा त्ति भणिदा। अपेक्षा तुल्य अर्थात् सदृश होते हैं, क्योंकि, एकसे लेकर चौपन मात्र जीवोंके प्रवेशके प्रति कोई प्रतिषेध नहीं है। किन्तु सर्वकाल तीनों उपशामकोंमें प्रवेश करनेवाले जीवोंकी अपेक्षा सदृशताका नियम नहीं है, क्योंकि, संभावनाकी अपेक्षा सदृशताका कथन किया गया है। शंका--इन तीनों उपशामकोंका संचय सदृश होता है, या असदृश होता है, इस बातका प्ररूपण क्यों नहीं किया? . समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, प्रवेशकी सदृशतासे उनके संचयकी सहशताका भी ज्ञान हो जाता है। प्रविश्यमान जीवोंकी विसदृशता होने पर ही संचयकी विसदृशता होती है; यदि ऐसा न माना जाय तो प्रत्यक्षसे विरोध आता है। शंका-अपूर्वकरण आदिके कालोंमें परस्पर अल्पबहुत्व होनेसे संचयके विसदृशता क्यों नहीं हो जाती है ? समाधान-ऐसी आशंकापर आचार्य उत्तर देते हैं कि अपूर्वकरण आदिके कालके हीनाधिक होनेसे संचयके विसदृशता नहीं होती है, क्योंकि, तीनों उपशामकोंके कालोंसे उत्कृष्ट प्रवेशान्तरका काल बहुत है ऐसा उपदेश पाया जाता है। इसलिए तीनोंका संचय भी सदृश ही होता है। विशेषार्थ-यहां पर शंकाकारने यह शंका उठाई है कि जब अपूर्वकरण आदि गुणस्थानोंका काल हीनाधिक है, अर्थात् अपूर्वकरणका जितना काल है, उससे संख्यातगुणा हान अनिवृत्तिकरणका काल है और उससे संख्यातगुणा हीन सूक्ष्मसाम्परायका काल है, तब इन गुणस्थानोंमें संचित होनेवाली जीवराशिका प्रमाण भी हीनाधिक ही होना चाहिए, सदृश नहीं होना चाहिए ? इसके समाधानमें यह कहा गया है कि तीनों उपशामकोंके कालोसे उत्कृष्ट प्रवेशान्तरके बहुत होनेका उपदेश पाया जाता है । इसका अभिप्राय यह है कि यद्यपि अपूर्वकरण आदि गुणस्थानोंका काल हीनाधिक है, तथापि वह प्रत्येक अन्तर्मुहूर्त या असंख्यात समयप्रमाण है। किन्तु इन गुणस्थानों में प्रवेश कर संचित होनेवाले जीव संख्यात अर्थात् उपशमश्रेणीके प्रत्येक गुणस्थानमें अधिकसे अधिक तीन १ प्रतिषु पडिसेहाभावाणं च ' इति पाठः। २ प्रतिषु णण्णहा' इति पाठः । Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ८, ४.] अप्पाबहुगाणुगमे ओघ-अप्पाबहुगपरूवणं [२४५ उवसंतकसायवीदरागछदुमत्था तत्तिया चेय ॥३॥ पुधसुत्तारंभो किमट्ठो ? उवसंतकसायस्स कसाउवसामगाणं च पञ्चासत्तीए अभावस्स संदसणफलो । जेसि पच्चासत्ती अत्थि तेसिमेगजोगो, इदरेसिं भिण्णजोगो होदि त्ति एदेण जाणाविदं । खवा संखेज्जगुणा ॥४॥ कुदो ? उत्रसामगगुणहाणमुक्कस्सेण पविस्समाणचउवण्णजीवेहिंतो खवगेगगुणसौ चार (३०४) और क्षपकश्रेणीके प्रत्येक गुणस्थानमें अधिकसे अधिक छह सौ आठ (६०८) ही होते हैं। यदि सर्वजघन्य प्रमाणकी भी अपेक्षासे एक समयमें एक ही जीवका प्रवेश माना जाय, तो भी प्रत्येक गुणस्थानके प्रवेशकालके समय संख्यात अर्थात् उपशमश्रेणीके प्रत्येक गुणस्थानमें अधिकसे अधिक तीन सौ चार और क्षपकश्रेणीके प्रत्येक गुणस्थानमें अधिकसे अधिक छह सौ आठ ही होंगे। यहां यह स्मरण रखना चाहिए कि उपशम या क्षपकश्रेणीमें निरन्तर प्रवेश करनेका सर्वोत्कृष्ट काल आठ समय ही है । इससे ऊपर जितना भी प्रवेशकाल है, वह सब सान्तर ही है। इससे यह अर्थ निकलता है कि अपूर्वकरणादि गुणस्थानों में प्रवेशान्तर अर्थात् जीवोंके प्रवेश नहीं करनेका काल असंख्यात समयप्रमाण है। चूंकि, सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानसे अनिवृत्तिकरणका काल संख्यातगुणा है इसलिए उसके प्रवेशान्तरका उत्कृष्ट काल भी संख्यातगुणा ही होगा। इसी प्रकार चूंकि अनिवृत्तिकरणके कालसे अपूर्वकरणका काल संख्यातगुणा है, अतः उसके प्रवेशान्तरका काल भी संख्यातगुणा ही होगा। इसका यही निष्कर्ष निकलता है कि तीनों उपशामकोंके कालोंसे तीनोंके उत्कृष्ट प्रवेशान्तरका काल बहुत है, अर्थात् प्रवेश करनेके समय सदृश हैं, अतएव उनका संचय भी सदृश ही होता है। उपर्युक्त जीव आगे कही जानेवाली गुणस्थानोंकी संख्याको ‘देखकर अल्प हैं' ऐसा कहा है। उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ पूर्वोक्त प्रमाण ही हैं ॥३॥ शंका-पृथक् सूत्रका प्रारम्भ किस लिये किया है ? समाधान--उपशान्तकषायका और कषायके उपशम करनेवाले उपशामकोंकी परस्पर प्रत्यासत्तिका अभाव दिखाना इसका फल है। जिनकी प्रत्यासत्ति पाई जाती है उनका ही एक योग अर्थात् एक समास हो सकता है और दूसरोंका भिन्न योग होता है, यह बात इस सूत्रसे सूचित की गई है। उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थोंसे क्षपक संख्यातगुणित हैं ॥ ४ ॥ क्योंकि, उपशामकके गुणस्थानमें उत्कर्षसे प्रवेश करनेवाले चौपन जीवोंकी १ उपशान्तकषायास्तावन्त एव । स. सि. १,८. २त्रयःक्षपकाः संख्येयगुणाः । स. सि. १,८. Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ८, ५. मुक्कस्सेण पविस्समाणअद्रुत्तरसदजीवाणं दुगुणत्तुवलंभा, पंचूण-चदुरुत्तरतिसदमेत्तेगुवसामगगुणट्ठाणुक्कस्ससंचयादो वि खवगेगगुणट्ठाणुक्कस्ससंचयस्स दुरूऊणछस्सदमेत्तस्स दुगुणत्तदंसणादो। खीणकसायवीदरागछदुमत्था तत्तिया चेव ॥५॥ पुधसुत्तारंभस्स कारणं पुव्वं व वत्तव्वं । सेसं सुगम । सजोगकेवली अजोगकेवली पवेसणेण दो वि तुल्ला तत्तिया चेव ॥६॥ घाइयघादिकम्माणं छदुमत्थेहि पच्चासत्तीए अभावादो पुधसत्तारंभो जादो । पवेसणेण तेत्तिया चेवेत्ति उत्ते पवेस-संचएहि अद्वत्तरसददुरूऊणछस्सदमेत्ता कमेण होति त्ति घेत्तव्यं । दो वि तुल्ला ति उत्ते दो वि अण्णोण्णेण सरिसा त्ति भणिदं होदि । अजोगिकेवलिसंचओ पुबिल्लगुणट्ठाणसंचएहि सरिसो जधा, तधा सजोगिकेवलिसंचयस्स वि सरिसत्ती । विसरिसत्तपदुप्पायणट्टमुत्तरसुत्तं भणदिअपेक्षा क्षपकके एक गुणस्थानमें उत्कर्षसे प्रवेश करनेवाले एकसौ आठ जीवोंके दुगुणता पाई जाती है। तथा संचयकी अपेक्षा उपशामकके एक गुणस्थानमें उत्कृष्टरूपसे पांच कम तीनसौ चार अर्थात् दो सौ निन्यानवे (२९९) संचयसे भी क्षपकके एक गुणस्थानको दो कम छह सौ (५९८) रूप संचयके दुगुणता देखी जाती है। क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ पूर्वोक्त प्रमाण ही हैं ॥५॥ पृथक् सूत्र बनानेका कारण पहलेके समान कहना चाहिए । शेष सूत्रार्थ सुगम है। सयोगिकेवली और अयोगिकेवली प्रवेशकी अपेक्षा दोनों ही तुल्य और पूर्वोक्त प्रमाण हैं ॥६॥ घाति-कर्मीका घात करनेवाले सयोगिकेवली और अयोगिकेवलीकी छद्मस्थ जीवोंके साथ प्रत्यासत्तिका अभाव होनेसे पृथक् सूत्र बनाया गया है। प्रवेशकी अपेक्षा पूर्वोक्त प्रमाण ही हैं, ऐसा कहनेपर प्रवेशसे एक सौ आठ (१०८) और संचयसे दो कम छह सौ अर्थात् पांच सौ अट्रानवे (५९८) क्रमसे होते हैं, ऐसा अर्थ ग्रहण करना चाहिए । दोनों ही तुल्य हैं, ऐसा कहनेसे दोनों ही परस्पर समान है, ऐसा अर्थ सूचित होता है। जिस प्रकार अयोगिकेवलीका संचय पूर्व गुणस्थानोंके संचयके सदृश होता है, उसी प्रकार सयोगिकेवलीके संचयके भी सदृशताकी प्राप्ति होती है, अतएव उनके संचयकी विसदृशताके प्रतिपादन करनेके लिए उत्तर सूत्र कहते हैं १ क्षीणकषायवीतरागच्छमस्थास्तावन्त एव । स. सि. १,८. १सयोगकेबलिनोऽयोगकेबलिनश्च प्रवेशेन तुल्यसंख्याः । स.ति. १,८. Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ८, ९.] अप्पाबहुगाणुगमे ओघ-अप्पाबहुगपरूवणं [२१७ सजोगिकेवली अद्धं पडुच्च संखेज्जगुणा ॥७॥ कुदो ? दुरूवूणछस्सदमेत्तजीहितो अट्ठलक्ख-अट्ठाणउदिसहस्स-दुरहियपंचसदमेत्तजीवाणं संखेजगुणत्तुवलंभा। हेट्ठिमरासिणा उवरिमरासि छेत्तूण गुणयारो उप्पादेदव्यो। अप्पमत्तसंजदा अक्खवा अणुवसमा संखेज्जगुणा ॥८॥ खवगुवसामगअप्पमत्तसंजदपडिसेहो किमहूँ कीरदे ? ण, अप्पमत्तसामण्णेण तेसिं पि गहणप्पसंगा । सजोगिरासिणा बेकोडि-छण्णउदिलक्ख-णवणउइसहस्स-तिउत्तरसदमेत्तअप्पमत्तरासिम्हि भागे हिदे जं लद्धं सो गुणगारो होदि। पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा ॥९॥ को गुणगारो ? दोण्णि रूवाणि । कुदो णबदे ? आइरियपरंपरागदुवदेसादो । सयोगिकेवली कालकी अपेक्षा संख्यातगुणित हैं ॥७॥ क्योंकि, दो कम छह सौ, अर्थात् पांच सौ अट्ठानवे मात्र जीवोंकी अपेक्षा आठ लाख, अट्ठानवे हजार पांच सौ दो संख्याप्रमाण जीवोंके संख्यातगुणितता पाई जाती है । यहां पर अधस्तनराशिसे उपरिम राशिको छेदकर (भाग देकर) गुणकार उत्पन्न करना चाहिए। सयोगिकेवलियोंसे अक्षपक और अनुपशामक अप्रमत्तसंयत जीव संख्यातगुणित हैं ॥ ८॥ शंका-यहांपर क्षपक और उपशामक अप्रमत्तसंयतोंका निषेध किस लिए किया गया है ? समाधान नहीं, क्योंकि, 'अप्रमत्त' इस सामान्य पदसे उनके भी ग्रहणका प्रसंग आता है, इसलिए क्षपक और उपशामक अप्रमत्तसंयतोंका निषेध किया गया है। सयोगिकेवलीकी राशिसे दो करोड़ छयानवे लाख निन्यानवे हजार एक सौ तीन संख्याप्रमाण अप्रमत्तसंयतोंकी राशिमें भाग देनेपर जो लब्ध आवे, वह यहां पर गुणकार होता है। अप्रमत्तसंयतोंसे प्रमत्तसंयत संख्यातगुणित हैं ॥ ९ ॥ गुणकार क्या है ? दो संख्या गुणकार है। शंका-यह कैसे जाना जाता है ? समाधान-आचार्य परम्पराके द्वारा आये हुये उपदेशसे जाना जाता है । १ सयोगकेवलिनः स्वकालेन समुदिताः संख्येयगुणाः। (८९८५०२)। स. सि. १,८. २ अप्रमत्तसंयताः संख्येयगुणाः (२९६९९१०३)। स. सि. १,८.. ३ प्रमचसंयताः संख्येयगुणाः (५९३९८२०६) । स. सि. १, ८. Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ८, १०. पुव्युत्तअप्पमत्तरासिणा पंचकोडि - तिण्णउइलक्ख - अट्ठाणउइसहस्स छन्भहियदोसदमेत्ताम्हि पमत्त सिम्हि भागे हिदे जं भागलद्धं सो गुणगारो । संजदासंजदा असंखेज्जगुणा ॥ १० ॥ कुदो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तत्तादो | माणुसखेत्तव्यंतरे चेय संजदासंजदा होंति, णो बहिद्धा; भोगभूमिम्हि संजमासंजमभावविरोहा । ण च माणुसखेत्तब्भंतरे असंखेज्जाणं संजदासंजदाणमत्थि संभवो, तेत्तियमेत्ताणमेत्थावद्वाणविरोहा | तदो संखेज्जगुणेहि संजदासंजदेहि होदव्यमिदि ? ण, सयंपहपव्वदपरभागे असंखेज्ज - जोयणवित्थडे कम्मभूमिपडिभाए तिरिक्खाणमसंखेज्जाणं संजमासंजमगुणसहिदाणमुवलंभा । को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो, असंखेज्जाणि पलिदोवमपढमवग्गमूलाणि । को पडिभागो ? अंतो मुहुत्त गुणिदपमत्तसंजदरासी पडिभागो । सासणसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥ ११ ॥ पूर्वोक्त अप्रमत्तराशिसे पांच करोड़ तिरानवे लाख, अट्ठानवे हजार, दो सौ छह संख्याप्रमाण प्रमत्तसंयतराशिमें भाग देनेपर जो भाग लब्ध आवे, वह यहांपर गुणकार है । प्रमत्तसंयतोंसे संयतासंयत असंख्यातगुणित हैं ॥ १० ॥ क्योंकि, वे पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । 'शंका - संयतासंयत मनुष्यक्षेत्र के भीतर ही होते हैं, बाहर नहीं, क्योंकि, भोगभूमिमें संयमासंयमके उत्पन्न होंनेका विरोध है । तथा मनुष्यक्षेत्र के भीतर असंख्यात संयतासंयतोंका पाया जाना सम्भव नहीं है, क्योंकि, उतने संयतासंयतोंका यहां मनुष्य क्षेत्रके भीतर अवस्थान माननेमें विरोध आता है । इसलिए प्रमत्तसंयतोंसे संयतासंयत संख्यातगुणित होना चाहिए ? समाधान नहीं, क्योंकि, असंख्यात योजन विस्तृत एवं कर्मभूमिके प्रतिभागरूप स्वयंप्रभ पर्वतके परभागमें संयमासंयम गुणसहित असंख्यात तिर्यंच पाये जाते हैं । गुणकार क्या है ? पल्योपमका असंख्यातवां भाग गुणकार है, जो पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूल प्रमाण है । प्रतिभाग क्या है ? अन्तर्मुहूर्त से प्रमत्तसंयतराशिको गुणित करनेपर जो लब्ध आवे, वह प्रतिभाग है । संयतासंयतों से सासादनसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं ॥। ११ ॥ १ संयतासंयताः असंख्येयगुणाः । स. सि. १, ८. २ प्रतिषु 'मेचा-' इति पाठः । ३ सासादनसम्यग्दृष्टथोऽसंख्येयगुणाः । स. सि. १, ८. Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ८, ११.] अप्पाबहुगाणुगमे ओघ-अप्पाबहुगपरूवणं [ २४९ कुदो ? तिविहसम्मत्तट्ठिदसंजदासंजदेहिंतो एगुवसमसम्मत्तादो सासणगुणं पडिवज्जिय छसु आवलियासु संचिदजीवाणमसंखेज्जगुणत्तुवदेसादो । तं पि कधं णव्वदे ? एगसमयम्हि संजमासंजमं पडिवज्जमाणजीवेहिंतो एक्कसमयम्हि चेव सासणगुणं पडिवज्जमाणजीवाणमसंखेज्जगुणत्तदंसणादो । तं पि' कुदो ? अणंतसंसारविच्छेयहेउसंजमासंजमलंभस्स अइदुल्लभत्तादो । को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो । हेडिमरासिणा उवरिमरासिम्हि भागे हिदे गुणगारो आगच्छदि, उवरिमरासिअवहारकालेण हेट्ठिमरासिअवहारकाले भागे हिदे गुणगारो होदि, उवरिमरासिअवहारकालगुणिदहेट्ठिमरासिणा पलिदोवमे भागे हिदे गुणगारो होदि । एवं तीहि पयारेहि गुणयारो समाणभज्जमाणरासीसु सव्वत्थ साहेदव्यो । णवरि हेट्ठिमरासिणा उवरिमरासिम्हि भागे हिदे गुणगारो आगच्छदि त्ति एवं समाणासमाणभज्जमाणरासीणं साहारणं, दोसु वि एदस्स पउत्तीए बाहाणुवलंभा। क्योंकि, तीन प्रकारके सम्यक्त्वके साथ स्थित संयतासंयतोंकी अपेक्षा एक उपशमसम्यक्त्वसे सासादनगुणस्थानको प्राप्त होकर छह आवलियोंसे संचित जीव असंख्यातगुणित हैं, ऐसा उपदेश पाया जाता है। शंका-यह भी कैसे जाना जाता है ? समाधान-एक समयमें संयमासंयमको प्राप्त होनेवाले जीवोंसे एक समयमें ही सासादनगुणस्थानको प्राप्त होनेवाले जीव असंख्यातगुणित देखे जाते हैं। शंका-इसका भी कारण क्या है ? समाधान-क्योंकि, अनन्त संसारके विच्छेदका कारणभूत संयमासंयमका पाना अतिदुर्लभ है। ___ गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है। अधस्तनराशिसे उपरिमराशिमें भाग देनेपर गुणकारका प्रमाण आता है । अथवा, उपरिमराशिके अवहारकालसे अधस्तनराशिके अवहारकालमें भाग देनेपर गुणकार होता है। अथवा, उपरिमराशिके अवहारकालसे अधस्तनराशिको गुणित करके जो लब्ध आवे उसका पल्योपममें . भाग देनेपर गुणकार आता है। ऐसे इन तीन प्रकारोंसे समान भज्यमान राशियों में सर्वत्र गुणकार साधित कर लेना चाहिए। केवल विशेषता यह है कि अधस्तनराशिका उपरिमराशिमें भाग देनेपर गुणकार आता है, यह नियम समान और असमान, दोनों भज्यमान राशियोंमें साधारण है, क्योंकि, उक्त दोनों राशियों में भी इस नियमकी प्रवृत्ति होने में बाधा नहीं पाई जाती है। १ प्रतिषु तं हि' इति पाठः। Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ८, १२. सम्मामिच्छादिट्ठी संखेज्जगुणा ॥ १२॥ एदस्सत्थो उच्चदे- सम्मामिच्छादिट्ठिअद्धा अंतोमुहुत्तमेत्ता, सासणसम्मादिट्ठिअद्धा वि छावलियमेत्ता । किंतु सासणसम्मादिट्ठिअद्धादो सम्मामिच्छाइटिअद्धा संखेज्जगुणा । संखेज्जगुणद्धाए उवक्कमणकालो वि सासणद्धावक्कमणकालादो संखेज्जगुणो उवक्कमणविरोहा विरहकालाणमुहयत्थ साधम्मादो । तेण दोगुणहाणाणि पडिवज्जमाणरासी जदि वि सरिसो, तो वि सासणसम्मादिट्ठीहितो सम्मामिच्छादिट्ठी संखेज्जगुणा होति । किंतु सासणगुणमुवसमसम्मादिट्ठिणो चेय पडिवज्जंति, सम्मामिच्छत्तगुणं पुण वेदगुवसमसम्मादिविणो अट्ठावीससंतकम्मियमिच्छादिट्ठिणो य पडिवज्जंति । तेण सासणं पडिवज्जमाणरासीदो सम्मामिच्छत्तं पडिवज्जमाणरासी संखेज्जगुणो। तदो संखेज्जगुणायादो संखेज्जगुणउवक्कमणकालादो च सासणेहिंतो सम्मामिच्छादिट्ठिणो संखेज्जगुणा, उवसमसम्मादिट्ठीहिंतो वेदगसम्मादिट्टिणो असंखेज्जगुणा, 'कारणाणुसारिणा कज्जेण होदव्वमिदि' णायादो। सासणेहिंतो सम्मामिच्छादिट्टिणो असंखेज्जगुणा किण्ण होति त्ति उत्ते ण होति, अणेयणिग्गमादो । जदि तेहि पडिवज्जमाणगुणट्ठाणमेक्कं चेव होदि, सासादनसम्यग्दृष्टियोंसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं ॥१२॥ इस सूत्रका अर्थ कहते हैं- सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानका काल अन्तर्मुहूर्तमात्र है और सासादनसम्यग्दृष्टिका काल भी छह आवलीप्रमाण है, किन्तु फिर भी सासादनसम्यग्दृष्टिके कालसे सम्यग्मिथ्यादृष्टिका काल संख्यातगुणा है। संख्यातगुणित कालका उपक्रमणकाल भी सासादनके कालके उपक्रमणकालसे संख्यातगुणा है। अन्यथा उपक्रमणकालमें विरोध आजायगा, क्योंकि, विरहकाल दोनों जगह समान है । इसलिए इन दोनों गुणस्थानोंको प्राप्त होनेवाली राशि यद्यपि समान है तो भी सासादनसम्यग्दृष्टियोंसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि संख्यातगुणित हैं। किन्तु सासादन गुणस्थानको उपशमसम्यग्दृष्टि ही प्राप्त होते हैं, परन्तु सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानको वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि और मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाले मिथ्यादृष्टि जीव भी प्राप्त होते हैं। इसलिये सासादनगुणस्थानको प्राप्त होनेवाली राशिसे सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त होनेवाली राशि संख्यातगुणी है । अतः संख्यातगुणी आय होनेसे और संख्यातगुणा उपक्रमणकाल होनेसे सासादनसम्यग्दृष्टियोंसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव संख्यातगुणित होते हैं। उपशमसम्यग्दृष्टियोसे वेदकसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगणित हैं. क्योंकि. 'कारणके अनुसार कार्य होता है' ऐसा न्याय है।सासादनसम्यग्दृष्टियोंसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि असंख्यातगुणित क्यों नहीं होते हैं, ऐसा पूछने पर आचार्य उत्तर देते हैं कि नहीं होते हैं, क्योंकि, निर्गमके अर्थात् जानेके मार्ग अनेक हैं। यदि वेदकसम्यग्दृष्टियोंके द्वारा प्राप्त किया १ सम्यग्मिथ्यादृष्टयः संख्येयगुणाः । स. सि. १, ८. २ प्रतिषु 'पडिमाणरासीदो' इति पाठः। ३ प्रतिषु । मेतं' इति पाठः। Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ८, १३. ] बहुगागमे ओघ - अप्पा बहुगपरूवणं [ २५१ तो एस ण्णाओ वोत्तुं' जुत्तो । किंतु वेदगसम्मादिट्ठिणो मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तं च पडिवज्जंति, सम्मामिच्छत्तं पडिवज्जमाणेहिंतो मिच्छत्तं पडिवज्जमाणवेदग सम्मादिट्टिण असंखेज्जगुणा, तेण पुव्वत्तं ण घडदे इदि । ण चासंखेज्जगुणरासिवओ अण्णरासिम - क्खयं होदि, तस्स अप्पणो आयाणुसरणसहावत्तादो । एदमेवं चेव होदि ति कथं णव्वदे ? सासणेहिंतो सम्मामिच्छादिट्टिणो संखेज्जगुणा त्ति सुत्तण्णहाणुववत्तीदो णव्वदे । असंजदसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥ १३ ॥ at गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो । सम्मामिच्छादिट्ठिरासी अंतोमुहुत्त संचिदो, असंजदसम्मादिट्ठिरासी पुण वेसागरोवमसंचिदो । सम्मामिच्छादिडिअद्धादो वेसागरोवमकालो पलिदोवमासंखेज्जदिभागगुणो । सम्मामिच्छादिट्टिउवक्कमणकालादो वि असंजदसम्मादिट्टिउवक्कमणकालो पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागगुणो, उवक्कमणकालस्स अद्धाणुसारित्तदंसणादो | तेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण गुणगारेण होदव्यमिदि ? ण, असंजदसम्मादिङ्किरासिस्स असंखेज्जपलिदोवमप्पमाणप्पसंगा । तं जानेवाला गुणस्थान एक ही हो, तो यह न्याय कहने योग्य है । किन्तु वेदकसम्यग्दृष्टि, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन दोनों गुणस्थानोंको प्राप्त होते हैं । तथा सम्यमिथ्यात्वको प्राप्त होनेवाले वेदकसम्यग्दृष्टियों से मिथ्यात्वको प्राप्त होनेवाले वेदकसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं, इसलिए पूर्वोक्त कथन घटित नहीं होता है । दूसरी बात यह है कि असंख्यातगुणी राशिका व्यय अन्य राशिकी अपेक्षासे नहीं होता है, क्योंकि, वह अपने आयके अनुसार व्ययशील स्वभाववाला होता है । शंका- यह इसी प्रकार होता है, यह कैसे जाना जाता है ? समाधान - सासादन सम्यग्दृष्टियों से सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव संख्यातगुणित होते हैं, यह सूत्र अन्यथा बन नहीं सकता है, इस अन्यथानुपपत्तिसे जाना जाता है कि सासादनसम्यग्दृष्टियोंसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव संख्यातगुणित होते हैं । सम्यग्मिथ्यादृष्टियों से असंयतसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं ॥ १३ ॥ गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है । शंका - - सम्यग्मिथ्यादृष्टि राशि अन्तर्मुहूर्त - संचित है और असंयतसम्यग्दृष्टि राशि दो सागरोपम-संचित है। सम्यग्मिथ्यादृष्टिके कालसे दो सागरोपमकाल पल्योपमके असंख्यातवें भाग गुणितप्रमाण है । सम्यग्मिथ्यादृष्टिके उपक्रमणकालसे भी असंयतसम्यग्दृष्टिका उपक्रमणकाल पल्योपमके संख्यातवें भागगुणित है, क्योंकि, उपक्रमणकाल गुणस्थानकालके अनुसार देखा जाता है । इसलिए पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार होना चाहिए ? समाधान- नहीं, क्योंकि, गुणकारको पल्योपमके असंख्यातवें भाग मानने पर असंयतसम्यग्दृष्टि राशिको असंख्यात पत्योपमप्रमाण होनेका प्रसंग प्राप्त होगा । १ प्रतिषु ' जोतुं ' इति पाठः । २ असंयत सम्यग्दृष्टोऽसंख्येयगुणाः । स. सि. १, ८. ३ म २ प्रतौ ' -दो वि असंजदसम्मादिट्ठि उवकमणकालो ' इति पाठो नास्ति । Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२) छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ८, १४. जधा- 'एदेहि पलिदोवममवहिरदि अंतोमुहुत्तेण कालेणेत्ति' दवाणिओगद्दारसुत्तादो णव्वदि जधा पलिदोवममंतोमुहुत्तेण खंडिदेयखंडमेत्ता सम्मामिच्छादिद्विणो होति त्ति । पुणो एवं रासिं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण गुणिदे असंखेज्जपलिदोवममेत्तो' असंजदसम्मादिहिरासी होदि । ण चेदं, एदेहि पलिदोवममवहिरदि अंतोमुहुत्तेण कालेणेत्ति एदेण सुत्तेण सह विरोहा । कधं पुण आवलियाए असंखेज्जदिभागगुणगारस्स सिद्धी ? उच्चदे- सम्मामिच्छादिडिअद्धादो तप्पाओग्गअसंखेज्जगुणद्धाए संचिदो असंजदसम्मादिहिरासी घेत्तव्यो, एदिस्से अद्धाए सम्मामिच्छादिट्ठिउवक्कमणकालादो असंखेज्जगुणउवक्कमणकालुवलंभा । एत्थ संचिद-असंजदसम्मादिहिरासीए वि आवलियाए असंखेज्जदिभागेण गुणिदमेत्तो होदि । अधवा दोण्हं उवक्कमणकाला जदि वि सरिसा होति त्ति तो वि सम्मामिच्छादिट्ठीहिंतो असंजदसम्मादिट्ठी आवलियाए संखेज्जभागगुणा । कुदो ? सम्मामिच्छत्तं पडिवज्जमाणरासीदो सम्मत्तं पडिवज्जमाणरासिस्स आवलियाए असंखेज्जदिभागगुणत्तादो। मिच्छादिट्ठी अणंतगुणा ॥ १४ ॥ उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है- इन सासादनसम्यग्दृष्टि आदि जीवोंकी अपेक्षा अन्तर्मुहूर्तकालसे पल्योपम अपहृत होता है, इस द्रव्यानुयोगद्वारके सूत्रसे जाना जाता है कि पल्योपमको अन्तर्मुहूर्तसे खंडित करने पर एक खंडप्रमाण सम्यग्मिथ्यादृष्टि होते हैं। पुनः इस राशिको पल्योपमके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर असंख्यात पल्योपमप्रमाण असंयतसम्यग्दृष्टिराशि होती है। परंतु यह ठीक नहीं है, क्योंकि, 'इन गुणस्थानवी जीवोंकी अपेक्षा अन्तर्मुहूर्तकालसे पल्योपम अपहृत होता है' इस सूत्रके साथ पूर्वोक्त कथनका विरोध आता है। शंका-फिर आवलोके असंख्यातवें भागरूप गुणकारकी सिद्धि कैसे होती है ? समाधान--सम्यग्मिथ्यादृष्टिके कालसे उसके योग्य असंख्यातगुणित कालसे संचित असंयतसम्यग्दृष्टि राशि ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि, इस कालका सम्याग्मथ्याहाष्टिके उपक्रमणकालसे असंख्यातगुणा उपक्रमणकाल पाया जाता है । यहां पर संचित असंयतसम्यग्दृष्टि राशि भी आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणितमात्र है। अथवा, दोनोंके उपक्रमणकाल यद्यपि सदृश होते हैं, तो भी सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंसे असंयतसम्यदृष्टि जीव आवलीके संख्यात भागगुणित हैं, क्योंकि, सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त होनेवाली राशिसे सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाली राशि आवलीके असंख्यातवें भागगुणित है। असंयतसम्यग्दृष्टियोंसे मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तगुणित हैं ॥१४॥ १ दव्वाणु. ६. (मा. ३ पृ. ६३.) २ अ-कप्रत्योः ' -पलिदोवमेचो' इति पाठः। ३ मिण्यारण्योऽनन्तगुणाः । स. सि. १,८. प्रतिषु 'अणंतगुणो' इति पारः। Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ८, १६.] अप्पाबहुगाणुगमे ओघ-अप्पाबहुगपरूवणं [२५१ कुदो ? मिच्छादिट्ठीणमाणंतियादो । को गुणगारो ? अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो, सिद्धेहि वि अणंतगुणो, अणंताणि सव्यजीवरासिपढमवग्गमूलाणि । को पडिभागो ? असंजदसम्मादिट्ठी पडिभागो । असंजदसम्मादिडिट्ठाणे सव्वत्थोवा उवसमसम्मादिट्ठी ॥१५॥ संजदासजदादिट्ठाणपडिसेहट्टं असंजदसम्मादिट्ठिट्ठाणवयणं । उवरिमुच्चमाणरासिअवेक्खं सव्वत्थोववयणं । सेससम्मादिट्टिपडिसेहट्टमुवसमसम्मादिहिवयणं । खइयसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥ १६ ॥ उवसमसम्मत्तादो खइयसम्मत्तमइदुल्लहं, दंसणमोहणीयक्खएण उक्कस्सेण छम्मासमंतरिय उक्कस्सेण अद्वत्तरसदमेत्ताणं चेव उप्पज्जमाणत्तादो। खइयसम्मत्तादो उवसमसम्मत्तमइसुलहं, सत्तरादिदियाणि अंतरिय एगसमएण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तजीवेसु तदुप्पत्तिदंसणादो । तदो खइयसम्मादिट्ठीहिंतो उवसमसम्मादिट्ठीहिं असंखेजगुणेहि होदव्यमिदि ? सच्चमेदं, किंतु संचयकालमाहप्पेण उवसमसम्मादिट्टीहिंतो खइय क्योंकि, मिथ्यादृष्टि अनन्त होते हैं । शंका--गुणकार क्या है ? समाधान-अभव्यसिद्धोंसे अनन्तगुणा और सिद्धोंसे भी अनन्तगुणा गुणकार है, जो सम्पूर्ण जीवराशिके अनन्त प्रथम वर्गमूलप्रमाण है। शंका-प्रतिभाग क्या है ? समाधान--असंयतसम्यग्दृष्टि राशिका प्रमाण प्रतिभाग है। असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं ॥ १५ ॥ संयतासंयत आदि गुणस्थानोंका निषेध करनेके लिये सूत्र में 'असंयतसम्यग्दृष्टिस्थान' यह वचन दिया है । आगे कही जानेवाली राशियोंकी अपेक्षा 'सबसे कम' यह वचन दिया है। शेष सम्यग्दृष्टियोंका प्रतिषेध करनेके लिये 'उपशमसम्यग्दृष्टि' यह वचन दिया है। ___ असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें उपशमसम्यग्दृष्टियोंसे क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं ॥ १६ ॥ शंका–उपशमसम्यक्त्वसे क्षायिकसम्यक्त्व अतिदुर्लभ है, क्योंकि, दर्शनमोहनीयके क्षयद्वारा उत्कृष्ट छह मासके अंतरालसे अधिकसे अधिक एकसौ आठ जीवोंकी ही उत्पत्ति होती है। परंतु क्षायिकसम्यक्त्वसे उपशमसम्यक्त्व अतिसुलभ है, क्योंकि, सात रात-दिनके अंतरालसे एक समयमें पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमित जीवोंमें उपशमसम्यक्त्वकी उत्पत्ति देखी जाती है। इसलिये क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंसे उपशमसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणित होना चाहिए ? समाधान—यह कहना सत्य है, किन्तु संचयकालके माहात्म्यसे उपशमसम्य Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ८, १६. सम्माइद्विणो असंखेज्जगुणा जादा । तं जहा- उवसमसम्मत्तद्धा उक्कस्सिया वि अंतोमुहुत्तमेत्ता चेय। खइयसम्मत्तद्धा पुण जहणिया अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सिया दोपुव्वकोडिअब्भहियतेत्तीससागरोवममेत्ता । तत्थ मज्झिमकालो दिवड्डपलिदोवममेत्तो । एत्थ अंतोमुहुत्तमंतरिय संखेज्जोवक्कमणसमएसु घेप्पमाणेसु पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेतोवक्कमणकालो लब्भइ । एदेण कालेण संचिदर्जावा वि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता होदण आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तुवक्कमणकालेण समयं पडि उवक्कंतपलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तजीवेण संचिदउवसमसम्मादिट्ठीहितो असंखेज्जगुणा होति । ण सेसवियप्पा संभवंति, ताणमसंखेज्जगुणसुत्तेण सह विरोहा । एत्थ चोदओ भणदि- आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तंतरेण खइयसम्मादिट्ठीण सोहम्मे जइ संचओ कीरदि पवेसाणुसारिणिग्गमादो मणुसेस्सु असंखेज्जा खइयसम्मादिद्रिणो पावेंति । अह संखेज्जावलियंतरेण ट्ठिइसंचओ कीरदि, तो संखेज्जावलियाहि पलिदोवमे खंडिदे एयक्खंडमेत्ता खइयसम्मादिद्विणो पावेति । ण च एवं, आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तभागहारब्भुवगमादो। तदो दोहि वि पयारेहि दोसो चेय ढुक्कदि ग्दृष्टियोंसे क्षायिकसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणित हो जाते हैं । वह इस प्रकार है- उपशमसम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल भी अन्तर्मुहूर्तमात्र ही है । परन्तु क्षायिकसम्यक्त्वका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल दो पूर्वकोटिसे अधिक तेतीस सागरोपमप्रमाण है। उसमें मध्यम काल डेढ़ पल्योपमप्रमाण है। यहां पर अन्तर्मुहर्तकालको अन्तरित करके उपक्रमणके संख्यात समयोंके ग्रहण करने पर पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र उपक्रमणकाल प्राप्त होता है। इस उपक्रमणकालके द्वारा संचित हुए जीव पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र हो करके भी आवलीके असंख्यातवें भागमात्र उपक्रमणकालके द्वारा प्रत्येक समयमें प्राप्त होनेवाले पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र जीवोंसे संचित हुए उपशमसम्यग्दृष्टियोंकी अपेक्षा असंख्यातगुणित होते हैं। यहां शेप विकल्प संभव नहीं है, क्योंकि, उन विकल्पोंका असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें 'उपशमसम्यग्दृष्टियोंसे क्षायिकसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणित हैं ' इस सूत्रके साथ विरोध आता है। शंका-यहां पर शंकाकार कहता है कि आवलीके असंख्यातवें भागमात्र अन्तरसे क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंका सौधर्म स्वर्गमें यदि संचय किया जाता है तो प्रवेशके अनुसार निर्गम होनेसे अर्थात् आयके अनुसार व्यय होनेसे मनुष्योंमें असंख्यात क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव प्राप्त होते हैं। और यदि संख्यात आवलियोंके अन्तरालसे स्थितिका संचय करते हैं तो संख्यात आवलियोंसे पल्योपमके खंडित करने पर एक खंडमात्र क्षायिकसम्यग्दृष्टि प्राप्त होते हैं। परंतु ऐसा है नहीं, क्योंकि, आवलिके असंख्यातवें भागमात्र भागहार स्वीकार किया गया है। इसलिए दोनों प्रकारोंसे भी दोष ही प्राप्त होता है ? Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ८, १६.] अप्पाबहुगाणुगमे ओघ-अप्पाबहुगपरूवणं [२५५ त्ति ? ण एस दोसो, खइयसम्मादिट्ठीणं पमाणागमणटुं पलिदोवमस्स संखेज्जावलियमेत्तभागहारस्स जुत्तीए उवलंभादो । तं जहा- अट्ठसमयब्भहियछम्मासम्भंतरे जदि संखेज्जुवक्कमणसमया लब्भंति, तो दिवड्वपलिदोवमभंतरे किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए उवक्क्रमणकालो लब्भदि । तम्मि संखेज्जजीवेहि गुणिदे संखेज्जावलियाहि ओवट्टिदपलिदोवममेत्ता खइयसम्मादिद्विणो लब्भंति । तेण आवलियाए असंखेज्जदिभागो भागहारो ति ण घेत्तव्यो । उवक्कमणंतरे आवलियाए असंखेज्जदिभागे संते एदंण घडदि त्ति णासंकणिज्ज, मणुसेसु खइयसम्मादिट्ठीणं असंखेज्जाणमत्थित्तप्पसंगादो। एवं संते सासणादीणमसंखेज्जावलियाहि भागहारेण होदव्यं ? ण एस दोसो, इट्टत्तादो । ण अण्णेसिमाइरियाणं वक्खाणेण विरुद्धं ति एदस्स वक्खाणस्स अभद्दत्तं, सुत्तेण सह अविरुद्धस्स अभद्दत्तविरोहादो । एदेहि पलिदोवममवहिरदि अंतोमुहुत्तेण कालेणेत्ति सुत्तेण वि ण विरोहो, तस्स उवयारणिबंधणत्तादो । ..................... समाधान--यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंके प्रमाण लानेके लिए पल्योपमका संख्यात आवलिमात्र भागहार युक्तिसे प्राप्त हो जाता है । जैसे- आठ समय अधिक छह मासके भीतर यदि संख्यात उपक्रमणके समय प्राप्त होते हैं, तो डेढ पल्योपमके भीतर कितने समय प्राप्त होंगे? इस प्रकार त्रैराशिक करने पर प्रमाणराशिसे फलराशिको गुणित करके और इच्छाराशिसे भाजित कर देने पर उपक्रमणकाल प्राप्त होता है। उसे संख्यात जीवोंसे गुणित कर देने पर पल्योपममें संख्यात आवलियोंका भाग देने पर जो लब्ध आवे उतने क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव प्राप्त होते इसलिए यहां आवलीका असंख्यातवां भाग भागहार है, ऐसा नहीं ग्रहण करना चाहिए। उपक्रमणकालका अन्तर आवलीका असंख्यातवां भाग होने पर उपर्युक्त व्याख्यान घटित नहीं होता है, ऐसी आशंका भी नहीं करना चाहिए, क्योंकि, ऐसा मानने पर मनुष्योंमें असंख्यात क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंके अस्तित्वका प्रसंग आता है। शंका--यदि ऐसा है तो सासादनसम्यग्दृष्टि आदिके असंख्यात आवलियां भागहार होना चाहिए ? समाधान यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, वह इष्ट ही है। तथा, यह व्याख्यान अन्य आचार्योंके व्याख्यानसे विरुद्ध है, इसलिये इसव्याख्यानके अभद्रता (अयुक्ति-संगतता) भी नहीं है, क्योंकि, इस व्याख्यानका सूत्रके साथ विरोध नहीं है, इसलिये उसके अभद्रताके माननेमें विरोध आता है। 'इन राशियोंके प्रमाणकी अपेक्षा अन्तर्मुहूर्तकालसे पल्योपम अपहृत होता है' इस द्रव्यानुयोगद्वारके सूत्रके साथ भी उक्त व्याख्यानका विरोध नहीं आता है, क्योंकि, वह सूत्र उपचार-निमित्तक है। Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ८, १७. वेदगसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥ १७ ॥ कुदो ? दंसणमोहणीयक्खएणुप्पण्णखइयसम्मत्तादो खओवसमियवेदगसम्मत्तस्स सुट्ट सुलहत्तुवलंभा। को गुणगारो? आवलियाए असंखेज्जदिभागो। कुदो ? ओघसोहम्मअसंजदसम्मादिट्ठिभागहारस्स आवलियाए असंखेज्जदिभागपमाणत्तादो । संजदासंजदाणे सव्वत्थोवा खइयसम्मादिट्ठी॥ १८॥ कुदो ? अणुब्धयसहिदखइयसम्मादिट्ठीणमइदुल्लभत्तादो । ण च तिरिक्खेसु खइयसम्मत्तेण सह संजमासंजमो लब्भदि, तत्थ दंसणमोहणीयक्खवणाभावा । तं पि कुदो णव्वदे ? 'णियमा मणुसगदीए' इदि सुत्तादो । जे वि पुव्वं बद्धतिरिक्खाउआ मणुसा तिरिक्खेसु खइयसम्मत्तेणुप्पज्जंति, तेसिं ण संजमासंजमो अस्थि, भोगभूमि मोत्तूण अण्णत्थुप्पत्तीए असंभवादो। तेण खइयसम्मादिट्ठिणो संजदासंजदा संखेज्जा चेय, असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंसे वेदकसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं ॥१७॥ क्योंकि, दर्शनमोहनीय कर्मके क्षयसे उत्पन्न हुए क्षायिकसम्यक्त्वकी अपेक्षा क्षायोपशमिक वेदकसम्यक्त्वका पाना अति सुलभ है। शंका-गुणकार क्या है ? समाधान-आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है, क्योंकि, सामान्यसे सौधर्मस्वर्गके असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंका भागहार आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है। संयतासंयत गुणस्थानमें क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं ॥ १८ ॥ क्योंकि, अणुव्रतसहित क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंका होना अत्यन्त दुर्लभ है। तथा तिर्यंचोंमें क्षायिकसम्यक्त्वके साथ संयमासंयम पाया नहीं जाता है, क्योंकि, तिर्यंचोंमें दर्शनमोहनीयकर्मकी क्षपणाका अभाव है। शंका-यह कैसे जाना जाता है ? समाधान-'दर्शनमोहनीयका क्षपण करनेवाले जीव नियमसे मनुष्यगतिमें होते हैं। इस सूत्रसे जाना जाता है। तथा जिन्होंने पहले तिर्यंचायुका बंध कर लिया है ऐसे जो भी मनुष्य क्षायिक सम्यक्त्वके साथ तिर्यंचोंमें उत्पन्न होते हैं उनके संयमासंयम नहीं होता है, क्योंकि, भोगभूमिको छोड़कर उनकी अन्यत्र उत्पत्ति असंभव है। इसलिये क्षायिकसम्यग्दृष्टि संयतासंयत जीव संख्यात ही होते हैं, क्योंकि, संयमासंयमके साथ क्षायिकसम्यक्त्व १ दसणमोहक्खवणापट्ठवगो कम्मभूमिजादो दु।णियमा मणुसगदीए णिट्ठवगो चावि सव्वत्थ ॥१॥ कसायपाहुडे, खवणाहियारे, १. Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ८, २०.] अप्पाबहुगाणुगमे ओघ-अप्पाबहुगपरूवणं [२५७ मणुसपज्जत्ते मोत्तूण अण्णत्थाभावा । अदो चेय भणिस्समाणासंखेज्जरासीहितो थोवा । उवसमसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥ १९॥ को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, असंखेज्जाणि पलिदोवमपढमवग्गमूलाणि । को पडिभागो ? खइयसम्मादिट्ठिसंजदासंजदमेत्तसंखेजरूवपडिभागो। कुदो? असंखेज्जावलियाहि पलिदोवमे खंडिदे तत्थ एयखंडमेत्ताणमुवसमसम्मत्तेण सह संजदासंजदाणमुवलंभा । वेदगसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥ २० ॥ को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो । एसो उवसमसम्मादिट्ठिउक्कस्ससंचयादो वेदगसम्मादिट्ठिउक्कस्ससंचयस्स सांतरस्स' गुणगारो, अण्णहा पुण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो गुणगारो, उवसमसम्मादिहिरासिस्स सांतरस्स कयाइ एगजीवस्स वि उवलंभा । वेदगसम्मादिहिरासी पुण सव्वकालं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तो चेय, णिरंतरस्स समाणायव्वयस्स अण्णरूवावत्तिविरोहा । पर्याप्त मनुष्योंको छोड़कर दूसरी गतिमें नहीं पाया जाता है। और इसीलिये संयतासंयत क्षायिकसम्यग्दृष्टि आगे कही जानेवाली असंख्यात राशियोंसे कम होते हैं। संयतासंयत गुणस्थानमें क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंसे उपशमसम्यग्दृष्टि संयतासंयत असंख्यातगुणित हैं ॥ १९॥ गुणकार क्या है ? पल्योपमका असंख्यातवां भाग गुणकार है, जो पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण है। प्रतिभाग क्या है ? क्षायिकसम्यग्दृष्टि संयतासंयतोंकी जितनी संख्या है तत्प्रमाण संख्यातरूप प्रतिभाग है, क्योंकि, असंख्यात आवलियोंसे पल्योपमके खंडित करने पर उनमेंसे एक खंड मात्र उपशमसम्यक्त्वके साथ संयतासंयत जीव पाये जाते हैं। ___ संयतासंयत गुणस्थानमें उपशमसम्यग्दृष्टियोंसे वेदकसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणित हैं ॥ २०॥ गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है । उपशमसम्यग्दृष्टियोंके उत्कृष्ट संचयसे वेदकसम्यग्दृष्टियोंके उत्कृष्ट सान्तर संचयका यह गुणकार है। अन्यथा पल्योपमका असंख्यातवां भाग गुणकार होता है, क्योंकि, उपशमसम्यग्दृष्टिराशि सान्तर है, इसलिए कदाचित् एक जीवकी भी उपलब्धि होती है। परंतु वेदकसम्यग्दृष्टिराशि सर्वकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र ही रहती है, क्योंकि, जिस राशिका आय और व्यय समान है और जो अन्तर-रहित है, उसको अन्यरूप मानने में विरोध आता है। १ 'सौतरस्स' इति पाठः केवलं म १ प्रतौ अस्ति, अन्यप्रतिषु नास्ति । Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ८, २१. पमत्तापमत्तसंजदट्टाणे सव्वत्थोवा उवसमसम्मादिट्ठी ॥ २१ ॥ कुदो ? अंतोमुहुत्तद्धासंचयादो, उवसमसम्मत्तेण सह पाएण संजमं पडिवज्जताणमभावादो च। खइयसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा ॥ २२ ॥ अंतोमुहुत्तेण संचिदउवसमसम्मादिट्ठीहिंतो देसूणपुव्वकोडीसंचिदखइयसम्मादिट्ठीणं संखेजगुणत्तं पडि विरोहाभावा । को गुणगारो ? संखेज्जा समया । वेदगसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा ॥ २३ ॥ कुदो ? खइयादो खओवसमियस्स सम्मत्तस्स पाएण संभवा । को गुणगारो ? संखेज्जा समया। एवं तिसु वि अद्धासु ॥ २४ ॥ जधा पमत्तापमत्तसंजदाणं सम्मत्तप्पाबहुअं परूविदं, तहा तिसु उवसामगद्धासु परूवेदव्वं । तं जहा- सव्वत्थोवा उवसमसम्मादिट्ठी। खइयसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा । प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानमें उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं ॥ २१॥ क्योंकि, एक तो उपशमसम्यग्दृष्टियोंके संचयका काल अन्तर्मुहूर्तमात्र है, और दूसरे उपशमसम्यक्त्वके साथ बहुलतासे संयमको प्राप्त होनेवाले जीवोंका अभाव है। प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानमें उपशमसम्यग्दृष्टियोंसे क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं ॥ २२ ॥ __ अन्तर्मुहूर्तसे संचित होनेवाले उपशमसम्यग्दृष्टियोंकी अपेक्षा कुछ कम पूर्वकोटि कालसे संचित होनेवाले क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंके संख्यातगुणित होनेमें कोई विरोध नहीं है। गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है। प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानमें क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंसे वेदकसम्यग्दृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं ॥ २३ ॥ क्योंकि, क्षायिकसम्यक्त्वकी अपेक्षा क्षायोपशमिकसम्यक्त्वका होना अधिकतासे सम्भव है । गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है। इसी प्रकार अपूर्वकरण आदि तीन उपशामक गुणस्थानोंमें सम्यक्त्वसम्बन्धी अल्पबहुत्व है ॥ २४ ॥ जिस प्रकार प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत जीवोंके सम्यक्त्वका अल्पबहुत्व कहा है, उसी प्रकार आदिके तीन उपशामक गुणस्थानोंमें भी प्ररूपण करना चाहिए। वह इस प्रकार है-तीनों उपशामक गुणस्थानों में उपशमसम्यग्दृष्टि जीप सबसे कम है। उनसे Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ८, २५.] अप्पाबहुगाणुगमे ओघ-अप्पाबहुगपरूवणं [२५९ कारणं, दव्वाहियत्तादो । वेदगसम्मादिट्ठी णत्थि, तेण सह उवसमसेडीआरोहणाभावा । उवसंतकसाएसु सम्मत्तप्पाबहुगं किण्ण परूविदं ? ण एस दोसो, तिसु अद्धासु सम्मत्तप्पाबहुगे अवगदे तत्थ वि तदवगमादो । सुहं गहणटुं चदुसु उवसमाएसु ति किण्ण परूविदं १ ण, 'एगजोगणिद्दिवाणमगदेसो णाणुवट्टदि' त्ति णायादो उवरि चदुण्हमणुउतिप्पसंगा'। होदु चे ण, पडिजोगीणं चदुण्हमुवसामगाणमभावा। सव्वत्थोवा उवसमा ॥२५॥ कुदो ? थोवायुपदेसादो' संकलिदसंचयस्स वि थोवत्तस्स णायसिद्धत्तादो । सायिकसम्यग्दृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं, क्योंकि, क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंका यहां द्रव्यप्रमाण अधिक पाया जाता है। उपशमश्रेणीमें वेदकसम्यग्दृष्टि जीव नहीं पाये जाते हैं, क्योंकि, घेदकसम्यक्त्वके साथ उपशमश्रेणीके आरोहणका अभाव है। शंका--उपशान्तकषाय गुणस्थानवी जीवोंमें सम्यक्त्वका अल्पबहुत्व क्यों नहीं कहा? समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, तीनों उपशामक गुणस्थानोंमें सम्यक्त्वका अल्पबहुत्व ज्ञात हो जाने पर उपशान्तकषाय गुणस्थानमें भी उसका ज्ञान हो जाता है। शंका-सुख अर्थात् सुगमतापूर्वक ज्ञान होनेके लिए 'चारों उपशामक गुणस्थानोंमें' ऐसा सूत्र में क्यों नहीं कहा ? समाधान नहीं, क्योंकि, 'जिनका निर्देश एक समासके द्वारा किया जाता है उनके एक देशकी अनुवृत्ति नहीं होती है' इस न्यायके अनुसार आगे कहे जानेवाले सूत्रोंमें चारों गुणस्थानोंकी अनुवृत्तिका प्रसंग प्राप्त होगा। शंका-यदि आगे चारों उपशामकोंकी अनुवृत्तिका प्रसंग आता है, तो आने दो, क्या दोष है ? समाधान नहीं, क्योंकि, चारों उपशामकोंके प्रतियोगियोंका अभाव है। अर्थात जिस प्रकार अपूर्वकरण आदि तीन गुणस्थानोंके भीतर उपशामक और उनके प्रतियोगी क्षपक पाये जाते हैं, उसी प्रकार चौथे उपशामक अर्थात् ग्यारहवें गुणस्थानमें उपशामकोंके प्रतियोगी क्षपक नहीं पाये जाते हैं। अपूर्वकरण आदि तीन गुणस्थानोंमें उपशामक जीव सबसे कम हैं ॥ २५ ॥ क्योंकि, अल्प आयका उपदेश होनेसे संचित होनेवाली राशिके स्तोकपना अर्थात् कम होना न्यायसिद्ध है। १ प्रतिषु ' उवसामए सुते' इति पाठः। ३ प्रतिषु 'थोवए पदेसादो' इति पाठः। २ प्रतिषु ' -मणउत्तिप्पसंगा' इति पाठः। ४ प्रतिषु संगलिदसंचयस्स' इति पाठः। Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६.] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ८, २६. खवा संखेज्जगुणा ॥ २६ ॥ कुदो ? संखेज्जगुणायादो संचउवलंभा । उवसम-खवगाणमेदमप्पाबहुगं पुवं परूविदमिदि एत्थ ण परूविदव्वं ? ण, पुवमुवसामग-खवगपवेसगाणमप्पाबहुगकथणादो। तदो चेव संचयप्पाबहुगसिद्धीए होदीदि चे सच्चं होदि, जुत्तीदो। जुत्तिवादे अणिउणसत्ताणुग्गह?मेदमप्पाबहुअं पुणो वि परूविदं । खवगसेडीए सम्मत्तप्पाबहुअं किण्ण परूविदं ? ण, तेसिं खइयसम्मत्तं मोत्तूण अण्णसम्मत्ताभावा । तं कुदो णव्यदे ? खवगेसु उवसम-वेदगसम्मादिविदव्वादिपरूवयसुत्ताणुवलंभा । उवसमा खवा त्ति सद्दा उवसमसम्मत्त-खइयसम्मत्ताणं वाचया ण होति त्ति भणताणमभिप्पाएण खइयसम्मत्तस्स अपूर्वकरण आदि तीन गुणस्थानवर्ती उपशामकोंसे तीनों गुणस्थानवर्ती क्षपक जीव संख्यातगुणित हैं ॥ २६॥ क्योंकि, संख्यातगुणित आयसे क्षपकोंका संचय पाया जाता है। शंका–उपशामक और क्षपकोंका यह अल्पबहुत्व पहले कह आये हैं, इसलिये यहां नहीं कहना चाहिये ? समाधान नहीं, क्योंकि, पहले उपशामक और क्षपक जीवोंके प्रवेशकी अपेक्षा अल्पबहुत्व कहा है। शंका-उसीसे संचयके अल्पबहुत्वकी सिद्धि हो जायगी (फिर उसे पृथक् क्यों कहा)? समाधान यह सत्य है कि युक्तिसे अल्पबहुत्वकी सिद्धि हो सकती है। किन्तु जो शिष्य युक्तिवादमें निपुण नहीं हैं, उनके अनुग्रहके लिये यह अल्पबहुत्व पुनः भी कहा है। शंका-क्षपकश्रेणीमें सम्यक्त्वका अल्पबहुत्व क्यों नहीं कहा? समाधान-नहीं, क्योंकि, क्षपकश्रेणीवालोंके क्षायिकसम्यक्त्वको छोड़कर अन्य सम्यक्त्व नहीं पाया जाता है। शंका-यह कैसे जाना जाता है ? समाधान-क्योंकि, क्षपकश्रेणीवाले जीवोंमें उपशमसम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके द्रव्य अर्थात् संख्या और आदि पदसे क्षेत्र, स्पर्शन आदिके प्ररूपक सूत्र नहीं पाये जाते हैं। उपशामक और क्षपक, ये दोनों शब्द क्रमशः उपशमसम्यक्त्व और क्षायिकसम्यक्त्वके वाचक नहीं हैं, ऐसा कथन करनेवाले आचार्योंके अभिप्रायसे १ प्रतिषु · अणिऊणसंतागुग्गहठ्ठ-' इति पाठः। Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ८, २८.] अप्पाबहुगाणुगमे णेरइय-अप्पाबहुगपरूवणं [२६१ अप्पाबहुवपरूवयाणि, पुव्वमपरूविदखवगुवसामगसंचयस्स अप्पाबहुवपरूवयाणि वा दो वि सुत्ताणि त्ति घेत्तव्यं । एवं ओघपरूवणा समत्ता। __ आदेसेण गदियाणुवादेण णिरयगदीए णेरइएसु सव्वत्थोवा सासणसम्मादिट्ठीं ॥ २७ ॥ ___ आदेसवयणं ओघपडिसेहफलं । सेसमग्गणादिपडिसेहटुं गदियाणुवादवयणं । सेसगदिपडिसेहणट्ठो णिरयगदिणिदेसो । सेसगुणहाणपडिसेहट्ठो सासणणिद्देसो । उवरि उच्चमाणगुणट्ठाणदव्वेहिंतो सासणा दव्वपमाणेण थोवा अप्पा इदि उत्तं होदि । सम्मामिच्छादिट्ठी संखेज्जगुणा ॥२८॥ कुदो ? सासणुवक्कमणकालादो सम्मामिच्छादिट्ठिउवक्कमणकालस्स संखेज्जगुणस्स उवलंभा । को गुणगारो ? संखेज्जसमया। हेट्ठिमरासिणा उवरिमरासिम्हि भागे ये दोनों सूत्र क्षायिकसम्यक्त्वके अल्पबहुत्वके प्ररूपक हैं, तथा पहले नहीं प्ररूपण किये गये क्षपक और उपशामकसम्बन्धी संचयके अल्पबहुत्वके प्ररूपक हैं, ऐसा अर्थ ग्रहण करना चाहिए। इस प्रकार ओघप्ररूपणा समाप्त हुई। आदेशकी अपेक्षा गतिमार्गणाके अनुवादसे नरकगतिमें नारकियोंमें सासादनसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं ॥२७॥ सूत्रमें 'आदेश' यह वचन ओघका प्रतिषेध करनेके लिए है। शेष मार्गणा आदिके प्रतिषेध करनेके लिए 'गतिमार्गणाके अनुवादसे' यह वचन कहा है। शेष गतियोंके प्रतिषेधके लिए 'नरकगति' इस पदका निर्देश किया। शेष गुणस्थानोंके प्रतिषेधार्थ 'सासादन' इस पदका निर्देश किया। ऊपर कहे जानेवाले शेष गुणस्थानोंके द्रव्यप्रमाणोंकी अपेक्षा सासादनसम्यग्दृष्टि जीव द्रव्यप्रमाणसे स्तोक अर्थात् अल्प होते हैं, यह अर्थ कहा गया है। नारकियोंमें सासादनसम्यग्दृष्टियोंसे सम्यग्मिथ्या दृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं ॥ २८॥ क्योंकि, सासादनसम्यग्दृष्टियोंके उष्क्रमणकालसे सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका उपक्रमणकाल संख्यातगुणा पाया जाता है । गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है। अधस्तनराशिका उपरिमराशियोंमें भाग देने पर गुणकारका प्रमाण आता है । अधस्तन १ विशेषेण गत्यनुवादेन नरकगतौ सर्वासु प्रथिवीसु सर्वतः स्तोकाः सासादनसम्यग्दृष्टयः। स.सि. १,८. २ सम्यग्मिध्यादृष्टयः संख्येयगुणाः। स. सि. १,८. Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ८, २९. हिदे गुणगारो आगच्छदि । को हेट्ठिमरासी ? जो थोवो। जो पुण बहु सो उवरिमरासी । एदमत्थपदं जहावसरं सव्वत्थ वत्तव्वं । . असंजदसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥ २९ ॥ कुदो ? सम्मामिच्छादिविउवक्कमणकालादो असंजदसम्मादिहिउवक्कमणकालस्स असंखेज्जगुणस्स संभवुवलंभा, सम्मामिच्छत्तं पडिवज्जमाणजीवेहिंतो सम्मत्तं पडिवज्जमाणजीवाणमसंखेज्जगुणत्तादो वा । को गुणगारो? आवलियाए असंखेज्जदिभागो। हेडिमरासिणा उवरिमरासिमोवट्टिय गुणगारो साहेयव्यो । मिच्छादिट्टी असंखेज्जगुणा ॥३०॥ को गुणगारो ? असंखेज्जाओ सेडीओ पदरस्स असंखेजदिभागो। तासि सेढीणं विक्खंभसूची अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो, असंखेज्जाणि अंगुलवग्गमूलाणि विदियवग्गमूलस्स असंखेज्जभागमेत्ताणि । तं जधा- असंजदसम्मादिट्ठीहि सूचिअंगुलविदियवग्गमूलं गुणेदण तेण सूचिअंगुले भागे हिदे लद्धमंगुलस्स असंखेज्जदिभागो। असंखेज्जाणि अंगुलवग्गमूलाणि गुणगारविक्खंभसूची होदि त्ति कधं णव्वदे ? उच्चदे- असंजदसम्मादिट्ठीहि राशि कौनसी है ? जो अल्प होती है, वह अधस्तनराशि है, और जो बहुत होती है, वह उपरिमराशि है । यह अर्थपद यथावसर सर्वत्र कहना चाहिए। नारकियोंमें सम्यमिग्थ्यादृष्टियोंसे असंयतसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणित हैं ॥२९॥ क्योंकि, सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंके उपक्रमणकालसे असंयतसम्यग्दृष्टियोंका उपक्रमणकाल असंख्यातगुणा पाया जाता है । अथवा, सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त होनेवाले जीवोंसे सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले जीव असंख्यातगुणित होते हैं । गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है। अधस्तनराशिसे उपरिमराशिको अपवर्तित करके गुणकार सिद्ध कर लेना चाहिए। नारकियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टियोंसे मिथ्यादृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं ॥३०॥ गुणकार क्या है ? असंख्यात जगश्रेणियां गुणकार है, जो जगश्रेणियां जगप्रतरके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । उन जगश्रेणियोंकी विष्कंभसूची अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है । जिसका प्रमाण अंगुलके द्वितीय वर्गमूलके असंख्यातवें भागमात्र असंख्यात प्रथम वर्गमूल है, वह इस प्रकार है- असंयतसम्यग्दृष्टियोंके प्रमाणसे सूच्यंगुलके द्वितीय घर्गमूलको गुणित करके जो लब्ध आवे, उससे सूच्यंगुलमें भाग देने पर अंगुलका असंख्यातवां भाग लब्ध आता है। शंका-अंगुलके असंख्यात वर्गमूल गुणकार-विष्कंभसूची है, यह कैसे जाना नाता है? समाधान-असंयतसम्यग्दृष्टियोंके प्रमाणसे सूच्यंगुलके द्वितीय वर्गमूलके १ असंयतसम्यग्दृष्टयोऽसंख्येयगुणाः । स. सि. १, ८. २ मिथ्यादृष्टयोऽसंख्येयाणाः । स. सि. १,6. Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ८, ३२.] . अप्पाबहुगाणुगमे णेरइय-अप्पाबहुगपरूवणं [२१३ बूचिअंगुलविदियवग्गमूले भागे हिदे लद्धम्मि जत्तियाणि स्वाणि तत्तियाणि अंगुलपढमवग्गमूलाणि । कुदो? दव्वविक्खंभसूची घणंगुलविदियवग्गमूलमत्ता, असंजदसम्मादिट्ठीहि तम्मि घणंगुलविदियवग्गमूले ओवट्टिदे असंखेज्जाणि सूचिअंगुलपढमवग्गमूलाणि होति त्ति तंत-जुत्तिसिद्धीदो। तत्थ जेत्तियाणि रूवाणि तेत्तियमेत्ता सेडीओ गुणगारो होदि। असंजदसम्माइडिट्ठाणे सव्वत्थोवा उवसमसम्मादिट्ठी ॥ ३१॥ कुदो ? अंतोमुहुत्तमेत्तुवसमसम्मत्तद्धाए उवक्कमणकालेण आवलियाए असंखेजदिभागेण संचिदत्तादो उच्चमाणसव्वसम्मादिहिरासीहिंतो उवसमसम्मादिट्ठी थोवा होति । खइयसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥ ३२ ॥ कुदो ? सहावदो चेव उवसमसम्मादिट्ठीहिंतो असंखेज्जगुणसरूवेण खइयसम्माइट्ठीणमणाइणिहणमवट्ठाणादो, संखेज्जपलिदोवमभंतरे पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तुवक्कमणकालेण संचिदत्तादो असंखेज्जगुणा ति वुत्तं होदि । एत्थतणखइयसम्मादिट्ठीणं भागहारो असंखेज्जावलियाओ । कुदो ? ओघासंजदसम्मादिट्ठीहितो असंखेज्ज ......................... भाजित करने पर लब्धमे जितना प्रमाण आवे, उतने सूच्यंगुलके प्रथम वर्गमूल गुणकारविष्कंभसूचीमें होते हैं, क्योंकि, द्रव्यविष्कंभसूची घनांगुलके द्वितीय वर्गमूलमात्र है। इसलिए असंयतसम्यग्दृष्टियोंके प्रमाणसे उस घनांगुलके द्वितीय वर्गमूलके अपवर्तित कर देनेपर सूच्यंगुलके असंख्यात प्रथम वर्गमूल होते हैं, यह प्रकार आगम और युक्तिसे सिद्ध है । अतएव वहांपर जितनी संख्या हो तन्मात्र जगश्रेणियां यहांपर गुणकार है। नारकियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें उपशमसम्यग्दृष्टि सबसे कम हैं ॥३१॥ क्योंकि, अन्तर्मुहूर्तमात्र उपशमसम्यक्त्वके कालमें आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण उपक्रमणकाल द्वारा संचित होनेके कारण आगे कहे जानेवाले सर्व प्रकारके सम्यग्दृष्टियोंकी राशियोंसे उपशमसम्यग्दृष्टि जीव थोड़े होते हैं। नारकियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें उपशमसम्यग्दृष्टियोंसे क्षायिकसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणित हैं ॥ ३२ ॥ ___क्योंकि, स्वभावसे ही उपशमसम्यग्दृष्टियोंकी अपेक्षा क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंका असंख्यातगुणितरूपसे अनादिनिधन अवस्थान है, जिसका तात्पर्य यह है कि संख्यात पल्योपमके भीतर पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र उपक्रमणकाल द्वारा संचित होनेसे क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव उपशमसम्यग्दृष्टियोंसे असंख्यातगुणित हैं । यहां नारकियों में जो क्षायिकसम्यग्दृष्टि हैं उनके प्रमाणके लानेके लिए भागहारका प्रमाण असंख्यात आवलियां हैं, क्योंकि, ओघ असंयतसम्यग्दृष्टियोंसे असंख्यातगुणित हीन ओघ क्षायिकसम्यग्दृष्टि Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६.] छक्खंडागमें जीवट्ठाणं [ १, ८, ३३. गुणहीणओघखइयसम्मादिट्ठीणं असंखेज्जदिभागमेत्तादो । ण वासपुधत्तंतरसुत्रेण सह विरोहो, सोहम्मीसाणकप्पं मोत्तूण अण्णत्थ द्विदखइयसम्मादिट्ठीणं वासपुधत्तस्स विउलत्तवाइणो' गहणादो । तं तहा घेप्पदि त्ति कुदो णव्वदे ? ओघुवसमसम्मादिट्ठीहितो ओघखइयसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा त्ति अप्पाबहुअसुत्तादो । वेदगसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥ ३३ ॥ कुदो ? खइयसम्मत्तादो खओवसमियस्स वेदगसम्मत्तस्स सुलहत्तुवलंभा । को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो । कधमेदं णव्वदे ? आइरियपरंपरागदुवदेसादो। एवं पढमाए पुढवीए णेरड्या ॥ ३४ ॥ जहा सामण्णणेरइयाणमप्पाबहुअं परूविदं, तहा पढमपुढवीणेरइयाणमप्पाबहुअंपरूवेदव्वं, ओघणेरइयअप्पाबहुआलावादो ढमपुढवीणेरइयाणमप्पाबहुआलावस्स भेदाभावा । जीव असंख्यातवें भाग ही होते हैं। इस कथनका वर्षपृथक्त्व अन्तर बतानेवाले सूत्रके साथ विरोध भी नहीं आता है, क्योंकि, सौधर्म और ऐशानकल्पको छोड़कर अन्यत्र स्थित क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंके अन्तरमें कहे गये वर्षपृथक्त्वके 'पृथक्त्व' शब्दको वैपुल्यवाची ग्रहण किया गया है। शंका-यहां पर पृथक्त्वका अर्थ वैपुल्यवाची ग्रहण किया गया है, यह कैसे जाना जाता है ? समाधान- 'ओघ उपशमसम्यग्दृष्टियोंसे ओघ क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं ' इस अल्पबहुत्वके प्रतिपादक सूत्रसे जाना जाता है। नारकियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंसे वेदकसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणित हैं ॥ ३३॥ क्योंकि, क्षायिकसम्यक्त्वकी अपेक्षा क्षायोपशमिक वेदकसम्यक्त्वकी प्राप्ति सुलभ है । गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है। शंका-यह कैसे जाना जाता है ? समाधान-आचार्य परम्परासे आये हुए उपदेशके द्वारा जाना जाता है। इसी प्रकार प्रथम पृथिवीमें नारकियोंका अल्पबहुत्व है ॥ ३४ ॥ जिस प्रकार सामान्य नारकियोंका अल्पवहुत्व कहा है, उसी प्रकार पहली पृथिवीके नारकियोंका अल्पबहुत्व कहना चाहिए, क्योंकि, सामान्य नारकियोंके अल्पबहुत्वके कथनसे पहली पृथिवीके नारकियोंके अल्पबहुत्वके कथनमें कोई भेद नहीं है। किन्तु ___ १ पुहुत्सद्दो बहुत्तवाई । क. प. चूर्णि. Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ८, ३६.] अप्पाबहुगाणुगमे णेरइय-अप्पाबहुगपरूवणं [२५५ पज्जवट्ठियणए अवलंबिज्जमाणे अस्थि विसेसो, सो जाणिय वत्तव्यो । विदियाए जाव सत्तमाए पुढवीए णेरइएसु सम्वत्थोवा सासणसम्मादिट्ठी ॥ ३५॥ विदियादिछण्हं पुढवीणं सासणसम्मादिविणो बुद्धीए पुध पुध द्वविय सव्वत्थोवा त्ति उत्तं । कुदो ? छण्हमप्पाबहुआणमेयत्तविरोहादो। सव्वेहितो थोवा सव्वत्थोवा । आदि-अंतेसु णेरइएसु णिद्दिद्वेसु सेसमज्झिमणेरइया सव्वे णिहिट्ठा चये, जावसद्दच्चारणण्णहाणुववत्तीदो । जावसदेण सत्तमपुढवीणरइयाण मज्जादत्ताए ठविदाएं, विदियपुढवीणेरइयाणमादित्तमावादिदं । आदी अंता च मज्झेण विणा ण होति ति चदुण्डं पुढवीणेरइयाणं मज्झिमत्तं पि जावसद्देणेव परूविदं । तदो पुध पुध पुढवीणमुच्चारणा ण कदा। सम्मामिच्छादिट्ठी संखेज्जगुणा ॥३६॥ विदियपुढवीआदिसत्तमपुढवीपज्जंतसासणाणमुवरि पुध पुध छपुढवीसम्मामिच्छादिविणो संखेज्जगुणा, सासणसम्मादिहिउवक्कमणकालादो सम्मामिच्छादिट्ठिउवक्कमणपर्यायार्थिकनयका अवलम्बन करने पर कुछ विशेषता है, सो जानकर कहना चाहिए। (देखो भाग ३, पृ. १६२ इत्यादि।) नारकियोंमें दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक सासादनसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं ॥ ३५॥ दूसरीको आदि लेकर छहों पृथिवियोंके सासादनसम्यग्दृष्टियोंको बुद्धिके द्वारा पृथक् पृथक् स्थापित करके प्रत्येक सबसे कम हैं, ऐसा अर्थ कहा गया है, क्योंकि, छहों अल्पबहुत्वोंको एक माननेमें विरोध आता है। सबसे थोड़ोंको सर्वस्तोक कहते हैं। आदिम और अन्तिम नारकियोंके निर्देश कर देने पर शेष मध्यम सभी नारकियोंका निर्देश हो ही जाता है, अन्यथा यावत् शब्दका उच्चारण नहीं बन सकता है। यावत् शब्दके द्वारा सातवीं पृथिवीके नारकियोंके मर्यादारूपसे स्थापित किये जानेपर दूसरी पृथि के नारकियोंके आदिपना अपने आप आ जाता है। आदि और अन्त मध्यके विना नहीं होते हैं, इसलिए चार पृथिवियोंके नारकियोंके मध्यमपना भी यावत् शब्दके द्वारा ही प्ररूपित कर दिया गया । इसी कारण पृथक् पृथक् रूपसे पृथिवियोंका नामनिर्देशपूर्वक उच्चारण नहीं किया गया है। नारकियोंमें दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक सासादनसम्यग्दृष्टियोंसे सम्यग्मिध्यादृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं ॥ ३६ ॥ दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक सासादनसम्यग्दृष्टियोंके ऊपर पृथक् पृथक् छह पृथिवियोंके सम्यग्मिथ्यादृष्टि नारकी संख्यातगुणित हैं, क्योंकि, सासादनसम्यग्दृष्टियोंके उपक्रमणकालसे सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका उपक्रमणकाल युक्तिसे संख्यात १ आ-कप्रत्योः ‘णेरइया' इति पाठः। २ प्रतिषु — ठविदा' इति पाठः। Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं १,८,३७. कालस्स जुत्तीए संखेज्जगुणत्तुवलंभा । को गुणगारो ? संखेज्जा समया । असंजदसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥ ३७॥ कुदो ? छप्पुढविसम्मामिच्छादिट्ठिउवक्कमणकालेहिंतो छप्पुढविअसंजदसम्मादिहिउवक्कमणकालाणमसंखेजगुणत्तदंसणादो, एगसमएण सम्मामिच्छत्तमुवक्किमंतजीवेहितो एगसमएण वेदयसम्मत्तमुक्क्कमंतजीवाणमसंखेज्जगुणत्तादो वा । को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो । कधमेदं णव्वदे ? ' एदेहि पलिदोवममवहिरदि अंतोमुहुत्तेण कालेणोत्ति' सुत्तादो । असंखेज्जावलियाहि अंतोमुहुत्तत्तं किण्ण विरुज्झदि त्ति उत्ते ण, ओघअसंजदसम्मादिट्ठिअवहारकालं मोत्तूण सेसगुणपडिवण्णाणमवहारकालस्स कज्जे कारणोवयारेण अंतोमुहुत्तसिद्धीदो। मिच्छादिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥ ३८ ॥ छण्हं पुढवीणमसंजदसम्मादिट्ठीहिंतो सेडीवारस-दसम-अट्ठम-छह-तइय-विदियवग्ग गुणा पाया जाता है । गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है। नारकियोंमें दूसरीसे सातवीं पृथिवी तक सभ्यग्मिथ्यादृष्टियोंसे असंयतसम्यग्दृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं ॥ ३७॥ क्योंकि, छह पृथिवियोंसम्बन्धी सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंके उपक्रमणकालोसे छह पृथिवीगत असंयतसम्यग्दृष्टियोंका उपक्रमणकाल असंख्यातगुणा देखा जाता है। अथवा, एक समयके द्वारा सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त होनेवाले जीवोंकी अपेक्षा एक समयके द्वारा वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले जीव असंख्यातगुणित होते हैं । गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है। शंका-यह कैसे जाना जाता है ? । समाधान--' इन जीवराशियोंके द्वारा अन्तर्मुहूर्तकालसे पल्योपम अपहृत होता है,' इस द्रव्यानुयोगद्वारके सूत्रसे जाना जाता है। शंका-अन्तर्मुहूर्तका अर्थ असंख्यात आवलियां लेनेसे उसका अन्तर्मुहूर्तपना विरोधको क्यों नहीं प्राप्त होता है ? समाधान नहीं, क्योंकि, ओघअसंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके अवहारकालको छोड़कर शेष गुणस्थान-प्रतिपन्न जीवोंके अवहारकालका कार्यमें कारणका उपचार कर लेनेसे अन्तर्मुहूर्तपना सिद्ध हो जाता है। नाराकयोंमें दूसरीसे सातवीं पृथिवी तक असंयतसम्यग्दृष्टियोंसे मिथ्यादृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं ॥ ३८॥ द्वितीयादि छहों पृथिवियोंके असंयतसम्यग्दृष्टियोंसे जगश्रेणीके वारहवें, दशवें, Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ८, ४०. ] अप्पा बहुगागमे रइय- अप्पा बहुगपरूवणं [ २६७ मूलोवट्टिदसेडी मेछपुढविमिच्छादिट्टिणो असंखेज्जगुणा होति । को गुणगारो १ सेडीए असंखेज्जदिभागो, असंखेज्जाणि सेडीपढमवग्गमूलाणि । को पडिभागो ? असंखेज्जाणि सेडीवारसम-दसम- अट्टम-छट्ट-तदिय-विदियवग्गमूलाणि । कुदो ? असंजदसम्मादिट्ठिरासिणा गुणदादो | असंजदसम्मादिट्टिट्टाणे सव्वत्थोवा उवसमसम्मादिट्ठी ॥ ३९ ॥ सव्वेहि उच्चमाणट्ठाणेहिंतो त्थोवा त्ति सव्वत्थोवा । कुदो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्त उवक्कमणकालेण संचिदत्तादो । वेद सम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥ ४० ॥ एत्थ पुत्रं व तीहि पयारेहि सेचियसरूवेहि गुणयारो परूवेदव्वो । एत्थ खइयसम्मादिट्टिणो ण परूविदा, हेट्टिमछप्पुढवीसु तेसिमुववादाभावा, मणुसगई मुच्चा अण्णत्थ दंसणमोहणीयखवणाभावादो च । आठवें, छटवें, तीसरे और दूसरे वर्गमूलसे भाजित जगश्रेणीप्रमाण छह पृथिवियोंके मिथ्यादृष्टि नारकी असंख्यातगुणित होते हैं। गुणकार क्या है ? जगश्रेणीका असंख्यातवां भाग गुणकार है, जो जगश्रेणके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण है । प्रतिभाग क्या है ? जगश्रेणी के बारहवें, दशवे, आठवें, छठवें, तीसरे और दूसरे असंख्यात वर्गमूलप्रमाण प्रतिभाग है, क्योंकि, ये सब असंयतसम्यग्दृष्टिराशिसे गुणित हैं । नारकियों में द्वितीयादि छह पृथिवियोंके असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं ॥ ३९ ॥ आगे कहे जानेवाले स्थानोंसे उपशमसम्यग्दृष्टि थोड़े होते हैं, इसलिये वे सर्वस्तोक कहलाते हैं, क्योंकि, आवलीके असंख्यातवें भागमात्र उपक्रमणकालसे उनका संचय होता है । नारकियों में द्वितीयादि छह पृथिवियोंके असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें उपशमसम्यग्दृष्टियों से वेदकसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं ॥ ४० ॥ यहां पर पहले के समान सेचिकस्वरूप अर्थात् मापके विशेष भेदस्वरूप तीनों प्रकारोंसे गुणकारका प्ररूपण करना चाहिए ( देखो पृ. २४९ ) । यहां क्षायिकसम्यग्दृष्टिका प्ररूपण नहीं किया है, क्योंकि, नीचेकी छह पृथिवियोंमें क्षायिकसम्यग्दृष्टियों की उत्पत्ति नहीं होती है, और मनुष्यगतिको छोड़कर अन्य गतियोंमें दर्शनमोहनीयकी क्षपणा नहीं होती है । Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ८, ४१. तिरिक्खगदीए तिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्ख-पंचिंदियपज्जततिरिक्ख-पंचिंदियजोणिणीसु सव्वत्थोवा संजदासंजदा ॥४१॥ पयदचउबिहतिरिक्खेसु जे देसव्वइणो ते तेसिं चेव सेसगुणट्ठाणजीवहिंतो थोवा त्ति चदुण्हमप्पाबहुआणं मूलपदमेदेण परूविदं । किमé देसव्वइणो थोवा ? संजमासंजमुवलंभस्स सुदुल्लहत्तादो । सासणसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥ ४२ ॥ चउव्विहतिरिक्खाणं जे सासणसम्मादिद्विणो ते सग-सगसंजदासंजदेहितो असंखेज्जगुणा, संजमासंजमुवलंभादो सासणगुणलंभस्स सुलहत्तुवलंभा। को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो। तं कधं णव्वदे ? अंतोमुहुत्तसुत्तादो, आइरियपरंपरागदुवदेसादो वा। सम्मामिच्छादिहिणो संखेज्जगुणा ॥ ४३ ॥ तिर्यचगतिमें तिर्यंच, पंचेन्द्रियतिर्यंच, पंचेन्द्रियपर्याप्त और पंचेन्द्रिययोनिमती तिर्यच जीवोंमें संयतासंयत सबसे कम हैं ॥४१॥ प्रकृत चारों प्रकारोंके तिर्यंचोंमें जो तिर्यंच देशव्रती हैं, वे अपने ही शेष गुणस्थानवी जीवोंसे थोड़े हैं, इस प्रकार इससे चारों प्रकारके तिर्यंचोंके अल्पबहुत्वका मूलपद प्ररूपण किया गया है। शंका--देशव्रती अल्प क्यों होते हैं ? समाधान-क्योंकि, संयमासंयमकी प्राप्ति अतिदुर्लभ है। उक्त चारों प्रकारके तिर्यंचोंमें संयतासंयतोंसे सासादनसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं ॥४२॥ चारों प्रकारके तिर्यंचोंमें जो सासादनसम्यग्दृष्टि जीव हैं, वे अपने अपने संयतासंयतोंसे असंख्यातगुणित हैं, क्योंकि, संयमासंयम-प्राप्तिकी अपेक्षा सासादन गुणस्थानकी प्राप्ति सुलभ है । गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है । शंका यह कैसे जाना जाता है ? समाधान-अन्तर्मुहूर्त अवहारकालके प्रतिपादक सूत्रसे और आचार्य-परम्परासे आये हुए उपदेशसे यह जाना जाता है। उक्त चारों प्रकारके तिर्यंचोंमें सासादनसम्यग्दृष्टियोंसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं ॥ ४३ ॥ १तिर्यग्गतौ तिरश्चां सर्वतः स्तोकाः संयतासंयताः । स. सि. १,८. २ इतरेषां सामान्यवत् । स. सि.१, ८. Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ८, ४५.1 अप्पाबहुगाणुगमे तिरिक्ख-अप्पाबहुगपरूवणं [ २६९ चउबिहतिरिक्खसासणसम्मादिट्ठीहिंतो सग-सगसम्मामिच्छादिट्टिणो संखेज्जगुणा । कुदो ? सासणुवक्कमणकालादो सम्मामिच्छादिट्ठीणमुवक्कमणकालस्स तंत-जुत्तीए संखेज्जगुणत्तुवलंभा । को गुणगारो ? संखेज्जसमया। असंजदसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा ।। ४४ ॥ चउन्विहतिरिक्खसम्मामिच्छादिट्ठीहितो तेसिं चेव असंजदसम्मादिविणो असंखेजगुणा । कुदो ? सम्मामिच्छत्तमुवक्कमंतजीवेहितो सम्मत्तमुवक्कमंतजीवाणमसंखेजगुणतादो । को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो । तं कुदो णव्वदे ? 'पलिदोवममवहिरदि अंतोमुहुत्तेणेत्ति' सुत्तादो, आइरियपरंपरागदुवदेसादो वा ।। मिच्छादिट्ठी अणंतगुणा, मिच्छादिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥४५॥ ___ चदुण्हं तिरिक्खाणमसंजदसम्मादिट्ठीहिंतो तेसिं चेव मिच्छादिट्ठी अणंतगुणा असंखेज्जगुणा य । विप्पडिसिद्धमिदं । जदि अणंतगुणा, कधमसंखेज्जगुणतं ? अह चारों प्रकारके सासादनसम्यग्दृष्टि तिर्यंचों से अपने अपने सम्यग्मिथ्यादृष्टि तिर्यंच संख्यातगुणित हैं, क्योंकि, सासादनंसम्यग्दृष्टियोंके उपक्रमणकालसे सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका उपक्रमणकाल आगम और युक्तिसे संख्यातगुणा पाया जाता है। गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है। उक्त चारों प्रकारके तियचोंमें सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंसे असंयतसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं ॥४४॥ चारों प्रकारके सम्यग्मिथ्यादृष्टि तिर्यंचोंसे उनके ही असंयतसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं, क्योंकि, सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त होनेवाले जीवोंसे सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले जीव असंख्यातगुणित होते हैं । गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है। शंका--यह कैसे जाना जाता है ? समाधान--' इन जीवराशियोंके प्रमाणद्वारा अन्तर्मुहूर्त कालसे पल्योपम अपहृत होता है' इस द्रव्यानुयोगद्वारके सूत्रसे और आचार्य परम्परासे आये हुए उपदेशसे जाना जाता है। उक्त चारों प्रकारके तिर्यचोंमें असंयतसम्यग्दृष्टियोंसे मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तगुणित हैं, और मिथ्यादृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं ॥ ४५ ॥ चारों प्रकारके असंयतसम्यग्दृष्टि तिर्यंचोंसे उनके ही मिथ्यादृष्टि तिर्यंच अनन्तगुणित हैं और असंख्यातगुणित भी हैं। शंका-यह बात तो विप्रतिषिद्ध अर्थात् परस्पर-विरोधी है। यदि अनन्तगुणित हैं, तो वहां असंख्यातगुणत्व नहीं बन सकता है और यदि असंख्यातगुणित हैं, तो Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७.1 छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ८, ४६. असंखेज्जगुणा, कधमणंतगुणत्तं; दोण्हमक्कमेण एयत्थ पउत्तिविरोहा ? एत्थ परिहारो उच्चदे- 'जहा उद्देसो तहा णिदेसो' ति णायादो ‘तिरिक्खमिच्छादिट्ठी केवडिया, अणंता, सेसतिरिक्खतियमिच्छादिट्ठी असंखेज्जा' इदि सुत्तादो वा एवं संबंधो कीरदेतिरिक्खमिच्छादिट्ठी अणंतगुणा, सेसतिरिक्खतियमिच्छादिट्ठी असंखेज्जगुणा त्ति, अण्णहा दोण्हमुच्चारणाए विहलत्तप्पसंगा । को गुणगारो ? तिरिक्खमिच्छादिट्ठीणमभवसिद्धिएहि अणंतगुणो, सिद्धेहि वि अणंतगुणो, अणंताणि सव्यजीवरासिपढमवग्गमूलाणि गुणगारो । को पडिभागो ? तिरिक्खअसंजदसम्मादिहिरासी पडिभागो। सेसतिरिक्खतियमिच्छादिट्ठणिं गुणगारो पदरस्स असंखेज्जदिभागो, असंखेजाओ सेडीओ असंखेज्जसेडीपढमवग्गमूलमेत्ताओ । को पडिभागो १ घणंगुलस्स असंखेज्जदिभागो, पलिदोवमस्सासंखेज्जदिभागमेत्तपदरंगुलाणि वा पडिभागो । अधया सग-सगदव्याणमसंखेज्जदिभागो ( गुणगारो ) । को पडिभागो ? सग-सगअसंजदसम्मादिट्ठी पडिभागो । असंजदसम्मादिविट्ठाणे सव्वत्थोवा उवसमसम्मादिट्ठी ॥४६॥ अनन्तगुणत्व कैसे बन सकता है, क्योंकि, दोनोंकी एक साथ एक अर्थमें प्रवृत्ति होनेका विरोध है ? समाधान-इस शंकाका परिहार करते हैं- 'उद्देशके अनुसार निर्देश किया जाता है' इस न्यायसे, अथवा 'मिथ्यादृष्टि सामान्य तिर्यंच कितने हैं ? अनन्त हैं, शेष तीन प्रकारके मिथ्यादृष्टि तिर्यंच असंख्यात हैं' इस सूत्रसे इस प्रकार सम्बन्ध करना चाहिए- मिथ्यादृष्टि सामान्यतिर्यंच अनन्तगुणित हैं और शेष तीन प्रकारके मिथ्यादृष्टि तिर्यंच असंख्यातगुणित हैं। यदि ऐसा न माना जायगा, तो दोनों पदोंकी उच्चारणाके विफलताका प्रसंग प्राप्त होगा। यहांपर गुणकार क्या है ? अभव्यसिद्धोंसे अनन्तगुणा और सिद्धोंसे भी अनन्तगुणा तिर्यंच मिथ्यादृष्टियोंका गुणकार है, जो सम्पूर्ण जीवराशिके अनन्त प्रथम वर्गमूलप्रमाण है। प्रतिभाग क्या है ? असंयतसम्यग्दृष्टि तिर्यंचराशि प्रतिभाग है। शेष तीन प्रकारके तिर्यंच मिथ्यादृष्टियोंका गुणकार जगप्रतरका असंख्यातवां भाग है, जो जगश्रेणीके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमित असंख्यात जगश्रेणीप्रमाण है। प्रतिभाग क्या है ? घनांगुलका असंख्यातवां भाग प्रतिभाग है । अथवा, पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमित प्रतरांगुल प्रतिभाग है । अथवा, अपने अपने द्रव्यका असंख्यातवां भाग गुणकार है। प्रतिभाग क्या है ? अपने अपने असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका प्रमाण प्रतिभाग है। तियंचोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ८, ४८.] अप्पाबहुगाणुगमे तिरिक्ख-अप्पाबहुगपरूवणं तं जहा- चउबिहेसु तिरिक्खेसु भणिस्समाणसव्वसम्माइट्ठिदव्वादो उवसमसम्माइट्ठी थोवा, आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तउवक्कमणकालब्भंतरे संचिदत्तादो । खइयसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥ १७ ॥ कुदो ? असंखेज्जवस्साउगेसु पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तकालेण संचिदत्तादो, अणाइणिहणसरूवेण उवसमसम्मादिट्ठीहिंतो खइयसम्मादिट्ठीणं आवलियाए असंखेज्जदिभागगुणत्तेण अवट्ठाणादो वा । आवलियाए असंखेज्जदिभागो गुणगारो त्ति कधं णव्वदे ? आइरियपरंपरागदुवदेसादो । वेदगसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥४८॥ कुदो १ दंसणमोहीयक्खएणुप्पण्णखइयसम्मत्ताणं सम्मत्तुप्पत्तीदो पुन्चमेव बद्धतिरिक्खाउआणं पउरं संभवाभावा । ण य लोए सारदव्याणं दुल्लहत्तमप्पसिद्धं, अस्सहत्थि-पत्थरादिसु साराणं लोए दुल्लहत्तुवलंभा । वह इस प्रकार है- चारों प्रकारके तिर्यंचोंमें आगे कहे जानेवाले सर्व सम्यग्दृष्टियोंके द्रव्यप्रमाणसे उपशमसम्यग्दृष्टि जीव अल्प हैं, क्योंकि, आवलीके असंख्यातवें भागमात्र उपक्रमणकालके भीतर उनका संचय होता है। तिर्यंचोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें उपशमसम्यग्दृष्टियोंसे क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं ॥ ४७ ॥ . क्योंकि, असंख्यात वर्षकी आयुवाले जीवोंमें पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र कालके द्वारा संचित होनेसे, अथवा अनादिनिधनस्वरूपसे उपशमसम्यग्दृष्टियोंकी अपेक्षा क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंका आवलीके असंख्यातवें भाग गुणितप्रमाणसे अवस्थान पाया जाता है। शंका--यहां आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है, यह कैसे जाना जाता है ? समाधान-आचार्य-परम्परासे आए हुए उपदेशसे जाना जाता है। तिर्यंचोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंसे वेदकसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं ॥४८॥ क्योंकि, जिन्होंने सम्यक्त्वकी उत्पत्तिसे पूर्व ही तिर्यंच आयुका बंध कर लिया है, ऐसे दर्शनमोहनयिके क्षयसे उत्पन्न हुए क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंका प्रचुरतासे होना संभव नहीं है। और, लोकमें सार पदार्थोकी दुर्लभता अप्रसिद्ध भी नहीं है, क्योंकि, अश्व, हस्ती और पाषाणादिकोंमें सार पदार्थोंकी सर्वत्र दुर्लभता पाई जाती है । Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२१ छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ८, ४९. संजदासंजदट्ठाणे सव्वत्थोवा उवसमसम्माइट्ठी ॥ ४९॥ कुदो १ देसब्धयाणुविद्धवसमसम्मत्तस्स दुल्लहत्तादो । वेदगसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥ ५० ॥ को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो । एदम्हादो गुणगारादो णव्वदे समयं पडि तदुवचयादो असंखेज्जगुणत्तेणुवचिदा त्ति असंखेज्जगुणत्तं । एत्थ खइयसम्माइट्ठीणमप्पाबहुअं किण्ण परूविदं ? ण, तिरिक्खेसु असंखेज्जवस्साउएसु चेय खइयसम्मादिट्ठीणमुक्वादुवलंभा । पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीसु सम्मत्तप्पाबहुअविसेसपदुप्पायणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि णवरि विसेसो, पचिंदियातरिक्खजोणिणीसु असंजदसम्मादिदिसंजदासंजदट्टाणे सव्वत्थोवा उवसमसम्मादिट्ठी ॥५१॥ सुगममेदं । वेदगसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥ ५२॥ तिर्यंचोंमें संयतासंयत गुणस्थानमें उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं ॥४९॥ क्योंकि, देशवतसहित उपशमसम्यक्त्वका होना दुर्लभ है। तिर्यचोंमें संयतासंयत गुणस्थानमें उपशमसम्यग्दृष्टियोंसे वेदकसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं ॥ ५० ॥ गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है । इस गुणकारसे यह जाना जाता है कि प्रतिसमय उनका उपचय होनेसे वे असंख्यातगुणित संचित हो जाते हैं, इसलिए उनके प्रमाणके असंख्यातगुणितता बन जाती है। शंका-यहां संयतासंयत गुणस्थानमें क्षायिकसम्यग्दृष्टि तिर्यंचोंका अल्पबहुत्व क्यों नहीं कहा? समाधान--नहीं, क्योंकि, असंख्यात वर्षकी आयुवाले भोगभूमियां तिर्यंचोंमें ही क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंका उपपाद पाया जाता है। अब पंचेन्द्रियतिर्यंच योनिमतियोंमें सम्यक्त्वके अल्पबहुत्वसम्बन्धी विशेषके प्रतिपादन करनेके लिए उत्तर सूत्र कहते हैं विशेषता यह है कि पंचेन्द्रियतिर्यंच योनिमतियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत गुणस्थानमें उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं ॥ ५१ ॥ __ यह सूत्र सुगम है। पंचेन्द्रियतियंच योनिमतियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत गुणस्थानमें उपशमसम्यग्दृष्टियोंसे वेदकसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं ॥ ५२ ॥ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ८, ५४. ] अप्पा बहुगागमे मणुस - अप्पा बहुगपरूवणं [ २७३ को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो । एत्थ खइयसम्मादिट्टीणमप्पाबहुअं णत्थि, सव्वित्थीसु सम्मादिट्ठीणमुववादाभावा, मणुसगइवदिरित्तण्णगईसु दंसणमोहणीयखवणाभावाच्च । सगदी मणुस - मणुसपज्जत्त- मणुसिणीसु तिसु अद्धासु उवसमा पवेसणेण तुल्ला थोवा ॥ ५३ ॥ तिसु वि मणुसेसु तिणि वि उवसामया पवेसणेण अण्णोष्णमवेक्खिय तुल्ला सरिसा, चउवण्णमेत्तत्तादो । ते च्चेय थोवा, उवरिमगुणट्ठाणजीवावेक्खाए । उवसंतकसायवीदरा गछदुमत्था तेतिया चेव ॥ ५४ ॥ दो ? हेमिगुणट्ठाणे पडिवण्णजीवाणं चेय उव संतकसायवीदरागछदुमत्थपज्जाएण परिणामुवलंभा । संचयस्स अप्पाबहुअं किण्ण परूविदं ? ण, पवेसप्पाबहुएण चेय तदवगमादो | जदो संचओ णाम पवेसाहीणो, तदो पवेसप्पाब हुएण सरिसो संचयप्पा बहुओ ति पुध ण उत्तो । गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है। यहां पंचेन्द्रियतिर्यंच योनिमतियोंमें क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंका अल्पबहुत्व नहीं है, क्योंकि, सर्व प्रकारकी स्त्रियों में सम्यग्दृष्टि जीवोंका उपपाद नहीं होता है, तथा मनुष्यगतिको छोड़कर अन्य गतियों में दर्शनमोहनीयकर्मकी क्षपणाका भी अभाव है । मनुष्यगति में मनुष्य, मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यनियोंमें अपूर्वकरण आदि तीन गुणस्थानोंमें उपशामक जीव प्रवेशकी अपेक्षा तुल्य और अल्प हैं ॥ ५३ ॥ सूत्रोक्त तीनों प्रकारके मनुष्यों में अपूर्वकरण आदि तीनों ही उपशामक जीव प्रवेशसे परस्परकी अपेक्षा तुल्य अर्थात् सदृश हैं, क्योंकि, एक समय में अधिक से अधिक चौपन जीवोंका प्रवेश पाया जाता है । तथा, ये जीव ही उपरिम गुणस्थानोंके जीवोंकी अपेक्षा अल्प हैं । उपशान्तकपायवीतरागछद्मस्थ जीव प्रवेशसे पूर्वोक्त प्रमाण ही हैं ॥ ५४ ॥ क्योंकि, अधस्तन गुणस्थानोंको प्राप्त हुए जीवोंका ही उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थरूप पर्यायसे परिणमण पाया जाता है । शंका- - यहां उपशामकोंके संचयका अल्पबहुत्व क्यों नहीं बतलाया ? समाधान — नहीं, क्योंकि, प्रवेशसम्बन्धी अल्पबहुत्वसे ही उसका ज्ञान हो जाता है। चूंकि, संचय प्रवेशके आधीन होता है, इसलिए प्रवेश के अल्पबहुत्वसे संचयका अल्पबहुत्व सदृश है, अतएव उसे पृथक् नहीं बतलाया । १ मनुष्यगतौ मनुष्याणामुपशमकादिप्रमत्तसंयतान्तानां सामान्यवत् । स. सि. १,८. २ अ प्रतौ ' पवेसहीणो ' आ-कप्रत्योः ' पवेसाहिणो ' इति पाठः । Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ८,५५. खवा संखेज्जगुणा ॥ ५५॥ कुदो ? अदुत्तरसदमेत्तत्तादो। खीणकसायवीदरागछदुमत्था तत्तिया चेव ॥ ५६ ॥ सुगममेदं । सजोगिकेवली अजोगिकेवली पवेसणेण दो वि तुल्ला तत्तिया चेय ॥ ५७॥ कुदो ? खीणकसायपज्जाएण परिणदाणं चेय उत्तरगुणट्ठाणुवक्कमुवलंभा । सजोगिकेवली अद्धं पडुच्च संखेज्जगुणा ॥ ५८ ॥ मणुस-मणुसपज्जत्तएसु ओघसजोगिरासिं ठविय हेडिमरासिणा ओवट्टिय गुणगारो उप्पादेदव्यो । मणुसिणीसु पुण तप्पाओग्गसंखेज्जसजोगिजीवे हविय अदुत्तरसदं मुच्चा तप्पाओग्गसंखेज्जखीणकसाएहि ओवट्टिय गुणगारो उप्पादेदव्यो । तीनों प्रकारके मनुष्योंमें उपशान्तकषायवीतरागछमस्थोंसे क्षपक जीव संख्यातगुणित हैं ॥ ५५ ॥ । क्योंकि, क्षपकसम्बन्धी एक गुणस्थानमें एक साथ प्रवेश करनेवाले जीवोंका प्रमाण एक सौ आठ है। तीनों प्रकारके मनुष्योंमें क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ जीव पूर्वोक्त प्रमाण ही हैं ॥५६॥ यह सूत्र सुगम है। तीनों प्रकारके मनुष्योंमें सयोगिकेवली और अयोगिकेवली, ये दोनों भी प्रवेशसे तुल्य और पूर्वोक्त प्रमाण ही हैं ॥ ५७॥ क्योंकि, क्षीणकषायरूप पर्यायसे परिणत जीवोंका ही आगेके गुणस्थानोंमें उपक्रमण (गमन) पाया जाता है। तीनों प्रकारके मनुष्योंमें सयोगिकेवली संचयकालकी अपेक्षा संख्यातगुणित हैं ॥५८॥ __सामान्य मनुष्य और पर्याप्त मनुष्योमेसे ओघ सयोगिकेवलीराशिको स्थापित के और उसे अधस्तनराशिसे भाजित करके गुणकार उत्पन्न करना चाहिए। किन्त मनुष्यनियोंमें उनके योग्य संख्यात सयोगिकेवली जीवोंको स्थापित करके एक सौ आठ संख्याको छोड़कर उनके योग्य संख्यात क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थोंके प्रमाणसे भाजित करके गुणकार उत्पन्न करना चाहिए । . Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ८, ६२. ] अप्पा बहुगागमे मणुस - अप्पाबहुगपरूवणं [ २७५ अप्पमत्तसंजदा अक्खवा अणुवसमा संखेज्जगुणा ॥ ५९ ॥ मणुस मणुसपज्जत्ताणं ओघम्हि उत्त- अप्पमत्तरासी चेव होदि । मणुसिणीसु पुण तप्पा ओग्गसंखेज्जमेत्तो होदि । सेसं सुगमं । पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा ॥ ६० ॥ एदं पि सुगमं । संजदासंजदा' संखेज्जगुणां ॥ ६१ ॥ मणुस - मणुसपज्जत्तएस संजदासंजदा संखेज्जकोडिमेत्ता । मणुसिणीसु पुण तप्पा ओग्गसंखेज्जरूवमेत्ता त्ति घेत्तव्वा, वट्टमाणकाले एत्तिया त्ति उवदेसाभावा । सेस सुगमं । सासणसम्मादिट्टी संखेज्जगुणा ॥ ६२ ॥ कुदो ? तत्तो संखेज्जगुणको डिमेत्तत्तादो । मणुसिणीसु तदो संखेज्जगुणा, तप्पा ओग्गसंखेज्जरुवमेत्तत्तादो । सेसं सुगमं । तीनों प्रकारके मनुष्यों में सयोगिकेवली से अक्षपक और अनुपशामक अप्रमत्तसंयत संख्यातगुणित हैं ॥ ५९ ॥ प्ररूपणा ही हुई अप्रमत्तसंयतोंकी राशि ही मनुष्य -सामान्य और मनुष्यपर्याप्तक अप्रमत्तसंयतोंका प्रमाण है । किन्तु मनुष्यनियोंमें उनके योग्य संख्यात भागमात्र राशि होती है। शेष सूत्रार्थ सुगम है । तीनों प्रकारके मनुष्यों में अप्रमत्त संयतयों से प्रमत्तसंयत संख्यातगुणित हैं ॥६०॥ यह सूत्र भी सुगम है । तीनों प्रकारके मनुष्यों में प्रमत्तसंयतों से संयतासंयत संख्यातगुणित हैं ।। ६१ ॥ मनुष्य- सामान्य और मनुष्य-पर्याप्तकों में संयतासंयत जीव संख्यात कोटिप्रमाण होते हैं । किन्तु मनुष्यनियोंमें उनके योग्य संख्यात रूपमात्र होते हैं, ऐसा अर्थ ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि, वे इतने ही होते हैं, इस प्रकारका वर्तमान कालमें उपदेश नहीं पाया जाता । शेष सूत्रार्थ सुगम है । तीनों प्रकारके मनुष्योंमें संयतासंयतोंसे सासादनसम्यग्दृष्टि संख्यातगुणित हैं ॥ ६२ ॥ क्योंकि, वे संयतासंयतोंके प्रमाणसे संख्यातगुणित कोटिमात्र होते हैं। मनुष्यनियोंमें सासादन सम्यग्दृष्टि जीव मनुष्य- सामान्य और मनुष्य पर्याप्तक सासादनसम्यटियोंसे संख्यातगुणित होते हैं, क्योंकि, उनका प्रमाण उनके योग्य संख्यात रूपमात्र है। शेष सूत्रार्थ सुगम है । २ ततः संख्येयगुणाः संयतासंयताः । स. सि. १,८, १ प्रतिषु ' संजदा ' इति पाठः । ३ सासादनसम्यग्दृष्टयः संख्येयगुणा । स. सि. १,८० Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे जीवद्वाणं सम्मामिच्छादिट्ठी संखेज्जगुणा ॥ ६३ ॥ एदं पि सुगमं । असंजदसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा ॥ ६४ ॥ कुदो ! सत्तकोडिसयमेत्तत्तादो । सेसं सुगमं । मिच्छादिट्ठी असंखेज्जगुणा, मिच्छादिट्ठी संखेज्जगुणा ॥ ६५ ॥ असंखेज्ज-संखेज्जगुणाणमेगत्थ संभवाभावा एवं संबंधो कीरदे - मणुसमिच्छादिट्ठी असंखेज्जगुणा । कुदो ! सेडीए असंखेज्जदिभागपरिमाणत्तादो । मणुसपज्जत्तमसिणी मिच्छादिट्ठी संखेज्जगुणा, संखेज्जरूवपरिमाणत्तादो | सेसं सुगमं । असंजद सम्मादिट्ठट्ठाणे सव्वत्थोवा उवसमसम्मादिट्ठी ॥ ६६ ॥ २७६ ] तीनों प्रकारके मनुष्यों में सासादनसम्यग्दृष्टियों से सम्यग्मिथ्यादृष्टि संख्यातगुणित हैं ॥ ६३ ॥ यह सूत्र भी सुगम है । तीनों प्रकारके मनुष्यों में सम्यग्मिथ्यादृष्टियों से असंयतसम्यग्दृष्टि संख्यातगुणित है ॥ ६४॥ क्योंकि, असंयतसम्यग्दृष्टि मनुष्योंका प्रमाण सात सौ कोटिमात्र है । शेष सूत्रार्थ [ १, ८, १३. सुगम है। तीनों प्रकारके मनुष्यों में असंयत सम्यग्दृष्टियों से मिथ्यादृष्टि असंख्यातगुणित हैं, और मिथ्यादृष्टि संख्यातगुणित हैं ।। ६५ ।। असंख्यातगुणित और संख्यातगुणित जीवोंका एक अर्थ में होना संभव नहीं है, इसलिए इस प्रकार सम्बन्ध करना चाहिए- असंयतसम्यग्दृष्टि सामान्य मनुष्यों से मिथ्यादृष्टि सामान्य मनुष्य असंख्यातगुणित होते हैं, क्योंकि, उनका प्रमाण जगश्रेणीके असंख्यातवें भाग है । तथा मनुष्य- पर्याप्त और मनुष्यनी असंयतसम्यग्दृष्टियों से मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यनी मिथ्यादृष्टि संख्यातगुणित होते हैं, क्योंकि, उनका प्रमाण संख्यात रूपमात्र ही पाया जाता है। शेष सूत्रार्थ सुगम है । तीनों प्रकारके मनुष्योंमें असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें उपशमसम्यग्दृष्टि सबसे कम हैं ॥ ६६ ॥ १ सम्यग्मिथ्यादृष्टयः संख्येयगुणाः । स. सि. १, ८. २ असंयत सम्यग्दृष्टयः संख्येयगुणाः । स. सि. १,८. ३ मिथ्यादृष्टयोऽसंख्येयगुणाः । स. सि. १, ८. Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ८, ७१.] अप्पाबहुगाणुगमे मणुस-अप्पाबहुगपरूवणं [२७० खइयसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा ॥ ६७ ॥ वेदगसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा ॥ ६८ ॥ एदाणि तिण्णि वि सुत्ताणि सुगमाणि । संजदासंजदहाणे सव्वत्थोवा खइयसम्मादिट्ठी ॥ ६९ ॥ खीणदंसणमोहणीयाणं देससंजमे वदृताणं बहूणमभावा । खीणदंसणमोहणीया पाएण असंजदा होदूण अच्छंति । ते संजमं पडिवज्जंता पाएण महब्बयाई चेव पडिवज्जंति, ण देसव्वयाई ति उत्तं होदि । उवसमसम्मादिदी संखेज्जगुणा ॥ ७० ॥ खइयसम्मादिद्विसंजदासंजदेहिंतो उवसमसम्मादिहिसंजदासंजदाणं बहूणमुवलंभा। वेदगसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा ॥ ७१ ॥ कुदो ? बहुवायत्तादो, संचयकालस्स बहुत्तादो वा, उवसमसम्मत्तं पेक्खिय वेदगसम्मत्तस्स सुलहत्तादो वा । उपशमसम्यग्दृष्टियोंसे क्षायिकसम्यग्दृष्टि संख्यातगुणित हैं ॥ ६७ ॥ क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंसे वेदकसम्यग्दृष्टि संख्यातगुणित हैं ॥ ६८ ॥ ये तीनों ही सूत्र सुगम हैं। तीनों प्रकारके मनुष्योंमें संयतासंयत गुणस्थानमें क्षायिकसम्यग्दृष्टि सबसे कम हैं ।। ६९॥ क्योंकि, दर्शनमोहनीयकर्मका क्षय करनेवाले और देशसंयममें वर्तमान बहुत जीवोंका अभाव है । दर्शनमोहनीयका क्षय करनेवाले मनुष्य प्रायः असंयमी होकर रहते हैं। वे संयमको प्राप्त होते हुए प्रायः महाव्रतोंको ही धारण करते हैं, अणुव्रतोंको नहीं; यह अर्थ कहा गया है। तीनों प्रकारके मनुष्योंमें संयतासंयत गुणस्थानमें क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंसे उपशमसम्यग्दृष्टि संख्यातगुणित हैं ॥ ७० ॥ क्योंकि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि संयतासंयतोंसे उपशमसम्यग्दृष्टि संयतासंयत मनुष्य बहुत पाये जाते हैं। ___ तीनों प्रकारके मनुष्योंमें संयतासंयत गुणस्थानमें उपशमसम्यग्दृष्टियोंसे वेदकसम्यग्दृष्टि संख्यातगुणित हैं ।। ७१ ॥ क्योंकि, उपशमसम्यग्दृष्टियोंकी अपेक्षा वेदकसम्यग्दृष्टियोंकी आय अधिक है, अथवा संचयकाल बहुत है, अथवा उपशमसम्यक्त्वको देखते हुए अर्थात् उसकी अपेक्षा वेदकसम्यक्त्वका पाना सुलभ है। Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ८, ७३. पमत्त-अप्पमत्तसंजट्टाणे सव्वत्थोवा उवसमसम्मादिट्ठी ॥७२॥ कुदो ? थोवकालसंचयादो । खइयसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा ॥ ७३ ॥ बहुकालसंचयादो। वेदगसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा ॥ ७४॥ खइयसम्मत्तेण संजमं पडिवज्जमाणजीहितो वेदगसम्मत्तेण संजमं पडिवजमाणजीवाणं बहुत्तुवलंभा । मणुसिणीगयविसेसपदुप्पायणटुं उवरिमसुत्तं भणदि णवरि विसेसो, मणुसिणीसु असंजद-संजदासंजद-पमत्तापमत्तसंजदट्ठाणे सव्वत्थोवा खइयसम्मादिट्ठी ॥ ७५॥ कुदो ? अप्पसत्थवेदोदएण दंसणमोहणीयं खतजीवाणं बहूणमणुवलंभा । उवसमसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा ॥ ७६॥ तीनों प्रकारके मनुष्यों में प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानमें उपशमसम्यग्दृष्टि सबसे कम हैं ॥ ७२ ॥ क्योंकि, इनका संचयकाल अल्प है। तीनों प्रकारके मनुष्योंमें प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानमें उपशमसम्यग्दृष्टियोंसे क्षायिकसम्यग्दृष्टि संख्यातगुणित हैं ॥ ७३ ॥ क्योंकि, इनका संचयकाल बहुत है। ___तीनों प्रकारके मनुष्योंमें प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानमें क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंसे वेदकसम्यग्दृष्टि संख्यातगुणित हैं ॥ ७४ ॥ क्योंकि, क्षायिकसम्यक्त्वके साथ संयमको प्राप्त होनेवाले जीवोंकी अपेक्षा वेदकसम्यक्त्वके साथ संयमको प्राप्त होनेवाले जीवोंकी अधिकता पाई जाती है । अब मनुष्यनियों में होनेवाली विशेषताके प्रतिपादन करनेके लिए उत्तर सूत्र कहते हैं केवल विशेषता यह है कि मनुष्यनियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानमें क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं ॥७५ ॥ क्योंकि, अप्रशस्त वेदके उदयके साथ दर्शनमोहनीयको क्षपण करनेवाले जीव बहुत नहीं पाये जाते हैं। __ असंयतसम्यग्दृष्टि आदि चार गुणस्थानवी मनुष्यनियोंमें क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंसे उपशमसम्यग्दृष्टि संख्यातगुणित हैं ॥ ७६ ॥ प्रतिषु 'बणमुवलंभा' इति पाठः। . Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ८, ७९.] अप्पाबहुगाणुगमे मणुस-अप्पाबहुगपरूवणं [२७९ अप्पसत्थवेदोदएण' दंसणमोहणीयं खतजीवहिंतो अप्पसत्थवेदोदएण चेव दसणमोहणीय उवसमेंतजीवाणं मणुसेसु संखेज्जगुणाणमुवलंमा । वेदगसम्मादिड्डी संखेज्जगुणा ।। ७७ ।। सुगममेदं । एवं तिसु अद्धासु ॥ ७८॥ एदस्सत्थो- मणुस-मणुसपज्जत्तएसु णिरुद्धेसु तिसु अद्धासु उवसमसम्मादिट्ठी थोवा, थोवकारणत्तादो। खइयसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा, बहुकारणादो । मणुसिणीसु पुण खइयसम्मादिट्ठी थोवा, उवसमसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा । एत्थ पुव्वुत्तमेव कारणं । उवसामग-खवगाणं संचयस्स अप्पाबहुअपरूवणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि सम्वत्थोवा उवसमा ॥ ७९ ॥ थोवपवेसादो । क्योंकि, अप्रशस्त वेदके उदयके साथ दर्शनमोहनीयका क्षपण करनेवाले जीवोंसे अप्रशस्त वेदके उदयके साथ ही दर्शनमोहनीयका उपशम करनेवाले जीव मनुष्योंमें संख्यातगुणित पाये जाते हैं। असंयतसम्यग्दृष्टि आदि चार गुणस्थानवी मनुष्यनियोंमें उपशमसम्यग्दृष्टियोंसे वेदकसम्यग्दृष्टि संख्यातगुणित हैं ॥ ७७ ।। यह सूत्र सुगम है। इसी प्रकार तीनों प्रकारके मनुष्योंमें अपूर्वकरण आदि तीन उपशामक गुणस्थानोंमें सम्यक्त्वसम्बन्धी अल्पबहुत्व है ।। ७८ ॥ ___ इस सूत्रका अर्थ कहते हैं- मनुष्य-सामान्य और मनुष्य-पर्याप्तकोसे निरुद्ध अपूर्वकरण आदि तीन उपशामक गुणस्थानोंमें उपशमसम्यग्दृष्टि जीव अल्प होते हैं, क्योंकि, उनके अल्प होनेका कारण पाया जाता है। उनसे क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव संख्यातगुणित होते हैं, क्योंकि, उनके बहुत होनेका कारण पाया जाता है। किन्तु मनुष्यनियोंमें क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव अल्प हैं, और उनसे उपशमसम्यग्दृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं। यहां संख्यातगुणित होनेका कारण पूर्वोक्त ही है (देखो सूत्र नं.७५)। ___ उपशामक और क्षपकोंके संचयका अल्पबहुत्व प्ररूपण करनेके लिए उत्तर सूत्र कहते हैं तीनों प्रकारके मनुष्योंमें उपशामक जीव सबसे कम हैं ॥ ७९ ॥ क्योंकि, इनका प्रवेश अल्प होता है। १ प्रतिषु अप्पमत्तवेदोदएण' इति पाठः। Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं खवा संखेज्जगुणा ॥ ८० ॥ बहुपदो | देवदीए देवसु सव्वत्थोवा सासणसम्मादिडी ॥ ८१ ॥ सम्मामिच्छादिडी संखेज्जगुणा ॥ ८२ ॥ असंजदसम्मादिट्टी असंखेजगुणा ॥ ८३ ॥ दाणि तिणि वित्ताणि सुबोज्झाणि, बहुसो परुविदत्तादो । मिच्छादिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥ ८४ ॥ को गुणगारो ? जगपदरस्स असंखेज्जदिभागो, असंखेजाओ सेडीओ । केत्तियमेत्ताओ ? सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ताओ । को पडिभागो ? घणंगुलस्स असंखेज्जदिभागो, असंखेज्जपदरंगुलाणि वा पडिभागो । सेसं सुगमं । असंजदसम्मादिट्टिट्ठाणे सव्वत्थोवा उवसमसम्मादिट्ठी ॥ ८५ ॥ बोज्झमिदं सुतं । खइयसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥ ८६ ॥ [ १, ८, ८०. तीनों प्रकारके मनुष्योंमें उपशामकों से क्षपक जीव संख्यातगुणित हैं ॥ ८० ॥ क्योंकि, इनका प्रवेश बहुत होता है । देवगति में देवों में सासादनसम्यग्दृष्टि सबसे कम हैं ॥ ८१ ॥ सासादन सम्यग्दृष्टियों से सम्यग्मिथ्यादृष्टि देव संख्यातगुणित हैं ॥ ८२ ॥ सम्यग्मिथ्यादृष्टियों से असंयतसम्यग्दृष्टि देव असंख्यातगुणित हैं || ८३॥ ये तीनों ही सूत्र सुबोध्य अर्थात् सरलता से समझने योग्य हैं, क्योंकि, इनका बहुत वार प्ररूपण किया जा चुका 1 देवोंमें असंयतसम्यग्दृष्टियोंसे मिथ्यादृष्टि असंख्यातगुणित हैं || ८४ ॥ गुणकार क्या है ? जगप्रतरका असंख्यातवां भाग गुणकार है, जो असंख्यात जगणीप्रमाण है । वे जगश्रेणियां कितनी हैं ? जगश्रेणीके असंख्यातवें भागमात्र हैं । प्रतिभाग क्या है ? घनांगुलका असंख्यातवां भाग प्रतिभाग है, अथवा असंख्यात प्रतरांगुल प्रतिभाग है । शेष सूत्रार्थ सुगम है । देवों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें उपशमसम्यग्दृष्टि सबसे कम हैं ॥ ८५ ॥ यह सूत्र सुबोध्य है । देवों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें उपशमसम्यग्दृष्टियों से क्षायिकसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणित हैं || ८६ ॥ २ देवगतौ देवानां नारकवत् । स. सि. १, ८. Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पा बहुगागमे देव - अप्पाबहुगपरूवणं को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो । सेसं सुबोज्झं । वेद सम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥ ८७ ॥ १, ८, ८८. ] at गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो । सेसं सुगमं । भवणवासिय-वाणवेंतर- जोदिसियदेवा देवीओ सोधम्मीसाणकप्पवासियदेवीओ च सत्तमा पुढवीए भंगो ॥ ८८ ॥ [ २८१ एसिमिदि एत्थज्झाहारो कायव्वो, अण्णहा संबंधाभावा । खइयसम्मादिट्ठीणमभावं पडि साधम्मुवलंभा सत्तमाए पुढवीए भंगो देसिं होदि । अत्थदो पुण विसेसो अत्थि, तं भणिस्सामो- सव्वत्थोवा भवणवासियसासणसम्माइट्ठी । सम्मामिच्छादिट्ठी संखेज्जगुणा । असंजदसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो । मिच्छाइट्ठी असंखेज्जगुणा । को गुणगारो : जगपदरस्स असंखेज्जदिभागो, असंखेज्जाओ सेडीओ | केत्तियमेत्ताओ ! घणंगुलपढमवग्गमूलस्स असंखेज्जदिभागताओ । को पडिभागो ? असंजदसम्मादिट्ठिरासी पडिभागो । 1 गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है । शेष सूत्रार्थ सुबोध्य (सुगम) है । देवोंमें क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंसे वेदकसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणित हैं ॥ ८७ ॥ गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है । शेष सूत्रार्थ सुगम है। देवों में भवनवासी, वानव्यन्तर, ज्योतिष्क देव और देवियां, तथा सौधर्म-ईशानकल्पवासिनी देवियां, इनका अल्पबहुत्व सातवीं पृथिवीके अल्पबहुत्वके समान है ॥८८॥ इस सूत्र में 'इनका इस पदका अध्याहार करना चाहिए, अन्यथा प्रकृतमें इसका सम्बन्ध नहीं बनता है । क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंके अभावकी अपेक्षा समानता पाई जानेसे इन सूत्रोक्त देव देवियोंका सातवीं पृथिवीके समान अल्पबहुत्व है । किन्तु अर्थकी अपेक्षा कुछ विशेषता है, उसे कहते हैं- भवनवासी सासादनसम्यग्दृष्टि देव आगे कही जानेवाली राशियोंकी अपेक्षा सबसे कम हैं। उनसे भवनवासी सम्यग्मिथ्यादृष्टि संख्यातगुणित हैं। उनसे भवनवासी असंयतसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणित हैं । गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है । उनसे भवनवासी मिथ्यादृष्टि असंख्यातगुणित हैं । गुणकार क्या है ? जगप्रतरका असंख्यातवां भाग गुणकार है, जो असंख्यात जगश्रेणीप्रमाण है । वे जगश्रेणियां कितनी हैं ? घनांगुलके प्रथम वर्गमूलके असंख्यातवें भागमात्र हैं । प्रतिभाग क्या है ? असंयतसम्यग्दृष्टि जीवराशि प्रतिभाग है । Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ८, ८९, सव्वत्थोवा वाणवेंतरसासणसम्मादिट्ठी । सम्मामिच्छादिट्ठी संखेज्जगुणा । असंजदसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? आवलियाए असंखेजदिभागो । मिच्छादिट्ठी असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? जगपदरस्स असंखेज्जदिभागो, असंखेज्जाओ सेडीओ। केत्तियमेत्ताओ ? सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ताओ। को पडिभागो ? घणंगुलस्स असंखेज्जदिभागो, असंखेज्जपदरंगुलाणि वा पडिभागो । एवं जोदिसियाणं पि वत्तव्वं । सग-सगइत्थिवेदाणं सग-सगोधभंगो । सेसं सुगमं । सोहम्मीसाण जाव सदर-सहस्सारकप्पवासियदेवेसु जहा देवगइ. भंगो ॥ ८९॥ जहा देवोधम्हि अप्पाबहुअं उत्तं, तधा एदेसिमप्पाबहुगं वत्तव्वं । तं जहासव्वत्थोवा सग-सगकप्पत्था सासणा। सग-सगकप्पसम्मामिच्छादिविणो संखेज्जगुणा । सग-सगकप्पअसंजदसम्मादिट्टिणो असंखेज्जगुणा । सग-सगमिच्छादिट्ठी असंखेज्जगुणा । एत्थ गुणगारो जाणिय वत्तव्यो, एगसरूवत्ताभावा । अणंतरउत्तकप्पेसु असंजदसम्ना वानव्यन्तर सासादनसम्यग्दृष्टि देव आगे कही जानेवाली राशियोंकी अपेक्षा सबसे कम हैं । उनसे वानव्यन्तर सम्यग्मिथ्यादृष्टि देव संख्यातगुणित हैं। उनसे वानव्यन्तर असंयतसम्यग्दृष्टि देव असंख्यातगुणित हैं । गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है । वानव्यन्तर असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंसे वानव्यन्तर मिथ्यादृष्टि देव असंख्यातगुणित हैं । गुणकार क्या है ? जगप्रतरका असंख्यातवां भाग गुणकार है, जो असंख्यात जगश्रेणीप्रमाण है। वे जगश्रेणियां कितनी हैं ? जगश्रेणीके असंख्यातवें भागमात्र हैं। प्रतिभाग क्या है ? घनांगुलका असंख्यातवां भाग प्रतिभाग है, अथवा असंख्यात प्रतरांगुल प्रतिभाग है। इसी प्रकार ज्योतिष्क देवोंके अल्पबहुत्वको भी कहना चाहिए । भवनवासी आदि निकायों में अपने अपने स्त्रीवेदियोंका अल्पबहुत्व अपने अपने ओघ-अल्पवहुत्वके समान है । शेष सूत्रार्थ सुगम है। सौधर्म-ईशान कल्पसे लेकर शतार-सहस्रार कल्प तक कल्पवासी देवोंमें अल्पबहुत्व देवगति सामान्यके अल्पबहुत्वके समान हैं ।। ८९ ।। जिस प्रकार सामान्य देवोंमें अल्पबहुत्वका कथन किया है, उसी प्रकार इनके अल्पबहुत्वको कहना चाहिए। वह इस प्रकार है- अपने अपने कल्पमें रहनेवाले सासादनसम्यग्दृष्टि देव सबसे कम हैं। इनसे अपने अपने कल्पके सम्यग्मिथ्यादृष्टि देव संख्यातगुणित है। इनसे अपने अपने कल्पके असंयतसम्यग्दृष्टि देव असंख्यातगुणित हैं। इनसे अपने अपने कल्पके मिथ्यादृष्टि देव असंख्यातगुणित हैं । यहांपर गुणकार जानकर कहना चाहिए, क्योंकि, इन देवोंमें गुणकारकी एकरूपताका अभाव है। अभी इन पीछे Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ८, ९३.] अप्पाबहुगाणुगमे देव-अप्पाबहुगपरूवणं [२८३ दिविट्ठाणे सव्वत्थोवा उवसमसम्मादिट्ठी । खइयसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा । वेदगसमादिट्ठी असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? सव्वत्थ आवलियाए असंखेज्जदिभागो त्ति । सेसं सुगमं । आणद जाव गवगेवज्जविमाणवासियदेवेसु सव्वत्थोवा सासणसम्मादिट्टी ॥ ९०॥ सुगममेदं सुत्तं । सम्मामिच्छादिट्ठी संखेज्जगुणा ॥ ९१ ॥ एदं पि सुगमं । मिच्छादिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥ ९२ ॥ को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो। कधमेदं णव्वदे ? दव्वाणिओगद्दारसुत्तादो। असंजदसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा ॥ ९३ ॥ कहे गये कल्पोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें उपशमसम्यग्दृष्टि देव सबसे कम हैं । इनसे क्षायिकसम्यग्दृष्टि देव असंख्यातगुणित हैं। इनसे वेदकसम्यग्दृष्टि देव असंख्यातगुणित हैं। गुणकार क्या है ? सर्वत्र आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है। शेष सूत्रार्थ सुगम है। आनत-प्राणत कल्पसे लेकर नवग्रैवेयक विमानों तक विमानवासी देवोंमें सासादनसम्यग्दृष्टि सबसे कम हैं ॥ ९॥ यह सूत्र सुगम है। उक्त विमानोंमें सासादनसम्यग्दृष्टियोंसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि देव संख्यातगुणित हैं ॥ ९१॥ यह सूत्र भी सुगम है। उक्त विमानोंमें सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंसे मिथ्यादृष्टि देव असंख्यातगुणित हैं ॥ ९२ ॥ गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है । शंका-यह कैसे जाना जाता है ? समाधान-द्रव्यानुयोगद्वारसूत्रसे जाना जाता है कि उक्त कल्पोंमें मिथ्यादृष्टि देवोंका गुणकार आवलीका असंख्यातवां भाग है। उक्त विमानोंमें मिथ्यादृष्टियोंसे असंयतसम्यग्दृष्टि देव संख्यातगुणित हैं ॥९३॥ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८१] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ८, ९४. कुदो ? मणुसेहितो आणदादिसु उप्पज्जमाणमिच्छादिट्ठी पेक्खिय तत्थुप्पज्जमाणसम्मादिट्ठीणं संखेज्जगुणत्तादो । देवलोए सम्मत्तमिच्छत्ताणि पडिवज्जमाणजीवाणं किण्ण पहाणत्तं ? ण, तेसिं मूलरासिस्स असंखेज्जदिभागत्तादो। को गुणगारो ? संखेज्जसमया । असंजदसम्मादिहिट्ठाणे सव्वत्थोवा उवसमसम्मादिट्ठी॥९४॥ कुदो ? अंतोमुहुत्तकालसंचिदत्तादो। खइयसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥ ९५ ॥ कुदो ? संखेजसागरोवमकालेण संचिदत्तादो। को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो । संचयकालपडिभागेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो गुणगारो किण्ण उच्चदे ? ण, एगसमएण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तजीवाणं उवसमसम्मत्तं पडिवज्जमाणाणमुवलंभा। । क्योंकि, मनुष्योंसे आनत आदि विमानोंमें उत्पन्न होनेवाले मिथ्यादृष्टियोंकी अपेक्षा वहांपर उत्पन्न होनेवाले सम्यग्दृष्टि जीव संख्यातगुणित होते हैं। शंका-देवलोकमें सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त होनेवाले जीवोंकी प्रधानता क्यों नहीं है? समाधान--नहीं, क्योंकि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव मूलराशिके असंख्यातवें भागमात्र होते हैं। उक्त विमानोंमें सम्यग्दृष्टियोंका गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है। आनत-प्राणत कल्पसे लेकर नवग्रैवेयक तक असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें उपशमसम्यग्दृष्टि देव सबसे कम हैं ॥ ९४ ॥ क्योंकि, वे केवल अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा संचित होते हैं। उक्त विमानोंमें उपशमसम्यग्दृष्टियोंसे क्षायिकसम्यग्दृष्टि देव असंख्यातगुणित हैं ॥ ९५॥ क्योंकि, वे संख्यात सागरोपम कालके द्वारा संचित होते हैं। गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है। शंका-संचयकालरूप प्रतिभाग होनेकी अपेक्षा पल्योपमका असंख्यातवां भाग गुणकार क्यों नहीं कहा है ? समाधान नहीं, क्योंकि, एक समयके द्वारा पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र जीव उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त होते हुए पाये जाते हैं । Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ८, ९९.] अप्पाबहुगाणुगमे देव-अप्पाबहुगपरूवणं (२८५ वेदगसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा ॥ ९६॥ कुदो ? तत्थुप्पज्जमाणखइयसम्मादिट्ठीहितो संखेज्जगुणवेदगसम्मादिट्ठीणं तत्थुप्पत्तिदंसणादो। अणुदिसादि जाव अवराइदविमाणवासियदेवेसु असंजदसम्मादिहिट्ठाणे सव्वत्थोवा उवसमसम्मादिट्टी ॥ ९७ ॥ ___ कुदो ? उवसमसेडीचडणोयरणकिरियावावदुवसमसम्मत्तसहिदसंखेज्जसंजदाणमेथुप्पण्णाणमंतोमुहुत्तसंचिदाणमुवलंभा । खइयसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥ ९८ ॥ को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागस्स संखेज्जदिभागो। को पडिभागो ? संखेज्जुवसमसम्मादिट्ठिजीवा पडिभागो। वेदगसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा ॥ ९९ ॥ कुदो ? खइयसम्मत्तेणुप्पज्जमाणसंजदेहितो वेदगसम्मत्तेणुप्पज्जमाणसंजदाणं संखेज उक्त विमानों में क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंसे वेदकसम्यग्दृष्टि देव संख्यातगुणित हैं ॥ ९६ ॥ क्योंकि, उन आनतादि कल्पवासी देवोंमें उत्पन्न होनेवाले क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंसे संख्यातगुणित वेदकसम्यग्दृष्टियोंकी वहां उत्पत्ति देखी जाती है। नव अनुदिशोंको आदि लेकर अपराजित नामक अनुत्तरविमान तक विमानवासी देवोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें उपशमसम्यग्दृष्टि सबसे कम हैं ॥९७॥ क्योंकि, उपशमश्रेणीपर आरोहण और अवतरणरूप क्रियामें लगे हुए, अर्थात् चढ़ते और उतरते हुए मरकर उपशमसम्यक्त्वसहित यहां उत्पन्न हुए, और अन्तर्मुहूर्तकालके द्वारा संचित हुए संख्यात उपशमसम्यग्दृष्टि संयत पाये जाते हैं। उक्त विमानोंमें उपशमसम्यग्दृष्टियोंसे क्षायिकसम्यग्दृष्टि देव असंख्यातगुणित हैं ॥ ९८ ॥ गुणकार क्या है ? पल्योपमके असंख्यातवें भागका संख्यातवां भाग गुणकार है। प्रतिभाग क्या है ? संख्यात उपशमसम्यग्दृष्टि जीव प्रतिभाग है। उक्त विमानोंमें क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंसे वेदकसम्यग्दृष्टि देव संख्यातगुणित हैं ॥ ९९ ॥ क्योंकि, क्षायिकसम्यक्त्वके साथ मरण कर यहां उत्पन्न होनेवाले संयोंकी Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ ] छक्खंडागमेजवाण [ १, ८, १००. गुणा । तं पणव्वदे ? कारणाणुसारिकज्जदंसणादो मणुसेसु खइयसम्मादिट्ठी संजदा थोवा, वेदगसम्मादिट्ठी संजदा संखेज्जगुणा; तेण तेहिंतो देवेसुप्पज्ज माणसंजदा वि तप्पडिभागिया चेवेत्ति वेत्तव्यं । एत्थ सम्मत्तप्पाबहुअं चेव, सेसगुणड्डाणाभावा । sahi road ? म्हादो चेत्र सुत्तादो | सव्वट्टसिद्धिविमाणवासियदेवेसु असंजदसम्मादिट्टिट्ठाणे सव्व त्थोवा उवसमसम्मादिट्ठी ॥ १०० ॥ खइयसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा ॥ वेद सम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा ॥ १०१ ॥ १०२ ॥ दाणि तिणि वित्ताणि सुगमाणि । सव्वसिद्धिम्हि तेत्तीसाउडिदिम्हि असंखेज्जजीवरासी किण्ण होदि ९ ण, तत्थ पलिदोवमस्स संखेज्जदि भागमेत्तंतर म्हि अपेक्षा वेदकसम्यक्त्वके साथ मरण कर यहां उत्पन्न होनेवाले संयत संख्यातगुणित होते हैं । शंका --- यह कैसे जाना जाता है ? समाधान- क्योंकि, 'कारण के अनुसार कार्य देखा जाता है, ' इस न्यायके अनुसार मनुष्यों में क्षायिकसम्यग्दृष्टि संयत अल्प होते हैं, उनसे वेदकसम्यग्दृष्टि संयत संख्यातगुणित होते हैं। इसलिए उनसे देवों में उत्पन्न होनेवाले संयत भी तत्प्रतिभागी ही होते हैं, यह अर्थ ग्रहण करना चाहिए। इन कल्पों में यही सम्यक्त्वसम्बन्धी अल्पबहुत्व है, क्योंकि, वहां शेष गुणस्थानोंका अभाव है । शंका- यह कैसे जाना जाता है ? समाधान — इस सूत्र से ही जाना जाता है कि अनुदिश आदि विमानोंमें केवल एक असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान होता है, शेष गुणस्थान नहीं होते हैं । सर्वार्थसिद्धि विमानवासी देवोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें उपशमसम्यग्दृष्टि सबसे कम हैं ।। १०० ॥ उपशमसम्यग्दृष्टियों से क्षायिक सम्यग्दृष्टि देव संख्यातगुणित हैं ॥ १०१ ॥ क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंसे वेदकसम्यग्दृष्टि देव संख्यातगुणित हैं ।। १०२ ॥ ये तीनों ही सूत्र सुगम हैं । शंका - तेतीस सागरोपमकी आयुस्थितिवाले सर्वार्थसिद्धिविमान में असंख्यात जीवराशि क्यों नहीं होती है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, वहांपर पत्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण कालका अन्तर है, इसलिए वहां असंख्यात जीवराशिका होना असम्भव है । Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ८, १०२.] अप्पाबहुगाणुगमे देव-अप्पाबहुगपरूवणं [२८७ तदसंभवा । जदि एवं, तो आणदादिदेवेसु वासपुधत्तंतरेसु संखेज्जावलिओवट्टिदपलिदोवममेत्ता जीवा किण्ण होंति ? ण, तत्थतणमिच्छादिद्विआदीणमवहारकालस्स असंखेज्जावलियत्तं फिट्टिदूण संखेज्जावलियमेत्तअवहारकालप्पसंगा। होदु चे ण, 'आणद-पाणद जाव णवगेवज्जविमाणवासियदेवेसु मिच्छादिटिप्पहुडि जाव असंजदसम्मादिट्ठी दबपमाणेण केवडिया, पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । एदेहि पलिदोवममवहिरदि अंतोमुहुत्तेण । अणुदिसादि जाव अवराइदविमाणवासियदेवेसु असंजदसम्मादिट्ठी दव्वपमाणेण केवडिया, पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। एदेहि पलिदोवममवहिरदि अंतोमुत्तेणेत्ति। एदेण दव्वसुत्तेण जुत्तीए सिद्धअसंखेज्जावलियभागहारगब्भेण सह विरोहा । __ एवं गदिमग्गणा समत्ता । शंका- यदि ऐसा है तो वर्षपृथक्त्वके अन्तरसे युक्त आनतादि कल्पवासी देवोंमें संख्यात आवलियोंसे भाजित पल्योपमप्रमाण जीव क्यों नहीं होते हैं ? समाधान नहीं, क्योंकि, ऐसा माननेपर वहांके मिथ्यादृष्टि आदिकोंके अवहारकालके असंख्यात आवलीपना न रहकर संख्यात आवलीमात्र अवहारकाल प्राप्त होनेका प्रसंग आ जायगा। शंका-यदि मिथ्यादृष्टि आदि जीवोंके अवहारकाल संख्यात आवलीप्रमाण प्राप्त होते हैं, तो होने दो? समाधान-नहीं, क्योंकि, ऐसा मानने पर 'आनत-प्राणतकल्पसे लेकर नवग्रैवेयक विमानवासी देवोंमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने है ? पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। इन जीवराशियोंके द्वारा अन्तर्मुहूर्तकालसे पल्योपम अपहृत होता है। नव अनुदिशोंसे लेकर अपराजितनामक अनुत्तर विमान तक विमानवासी देवोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। इन जीवराशियोंके द्वारा अन्तर्मुहूर्तकालसे पल्योपम अपहृत होता है । इस प्रकार युक्तिसे सिद्ध असंख्यात आवलीप्रमाण भागहार जिनके गर्भ में है, ऐसे इन द्रव्यानुयोगद्वारके सूत्रोंके साथ पूर्वोक्त कथनका विरोध आता है । इस प्रकार गतिमार्गणा समाप्त हुई। दव्वाणु. ७१-७२. (भा. ३, पृ. २८१-२८२.) Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ८, १०२. इंदियाणुवादेण पंचिंदिय - पंचिंदियपज्जत्तएस ओघं । णवरि मिच्छादिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥ १०३ ॥ दस्स सुत्तस्स अत्थो बुच्चदे - सेसिंदिएस एगगुणट्ठाणेसु अप्पाबहुअस्साभावपदुप्पायणमुहेण पंचिंदियप्पा बहुअपदुप्पायण पंचिंदिय-पंचिंदिय पज्जत्तगहणं कदं । जधा ओघम्मि अप्पाबहुअं कदं, तथा एत्थ वि अणूणाहियमप्पा बहुअं कायव्वं । णवरि एत्थ असंजदसम्मादिट्ठीहिंतो मिच्छादिट्ठी अनंतगुणा त्ति अभणिदूण असंखेज्जगुणा त्ति वत्तव्यं, अणंताणं पंचिदियाणमभावा । को गुणगारो ? पदरस्स असंखेज्जदिभागो, असंखेज्जाओ सेडीओ। केत्तियमेत्ताओ ? सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ताओ। को पडिभागो ? घणंगुलस्स असंखेज्जदिभागो, असंखेज्जाणि पदरंगुलाणि । अथवा पंचिदिय-पंचिदियपज्जत्तमिच्छादिट्ठीणमसंखेज्जदिभागो । को पडिभागो ? सग-सगअसंजदसम्मादिट्ठिरासी । २८८ ] इन्द्रियमार्गणाके अनुवाद से पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रियपर्याप्तकोंमें अल्पबहुत्व ओके समान है । केवल विशेषता यह है कि असंयतसम्यग्दृष्टियोंसे मिथ्यादृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं ॥ १०३ ॥ इस सूत्रका अर्थ कहते हैं- शेष इन्द्रियवाले अर्थात् पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रियपर्याप्तकोंसे अतिरिक्त जीवोंमें एक गुणस्थान होता है, इसलिए उनमें अल्पबहुत्वके अभावके प्रतिपादनद्वारा पंचेन्द्रियोंके अल्पबहुत्वके प्रतिपादन करनेके लिए सूत्र में पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय-पर्याप्तक पदका ग्रहण किया है। जिस प्रकार ओघमें अल्पबहुत्वका कथन किया है, उसी प्रकार यहां भी हीनता और अधिकता से रहित अल्पबहुत्वका कथन करना चाहिए | केवल इतनी विशेषता है कि यहांपर असंयतसम्यग्दृष्टि पंचेन्द्रियोंसे मिथ्यादृष्टि पंचेन्द्रिय अनन्तगुणित हैं, ऐसा न कहकर असंख्यातगुणित हैं, ऐसा कहना चाहिए, क्योंकि, अनन्त पंचेन्द्रिय जीवोंका अभाव है । पंचेन्द्रिय असंयतसम्यग्दृष्टियोंसे पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं, यहां गुणकार क्या है ? जगप्रतरका असंख्यातवां भाग गुणकार है, जो असंख्यात जगश्रेणीप्रमाण है । वे जगश्रेणियां कितनी हैं ? जगश्रेणीके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । प्रतिभाग क्या है ? घनांगुलका असंख्यातवां भाग प्रतिभाग है, जो असंख्यात प्रतरांगुलप्रमाण है । अथवा, पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रियपर्याप्तक मिथ्यादृष्टियोंका असंख्यातवां भाग गुणकार है । प्रतिभाग क्या है ? अपनी अपनी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवराशि प्रतिभाग है । १ इन्द्रियानुवादेन एकेन्द्रिय - विकलेन्द्रियेषु गुणस्थानभेदो नास्तीत्यल्पबहुत्वाभावः । इन्द्रियं प्रत्युच्यतेपंचेन्द्रियाद्येकेन्द्रियान्ता उत्तरोत्तरं बहवः । पंचेन्द्रियाणां सामान्यवत् । अयं तु विशेषः - मिथ्यादृष्टयोऽसंख्येयगुणाः । स. सि. १, ८. Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ८, १०४.] अप्पाबहुगाणुगमे तसकाइय-अप्पाबहुगपरूवणं [२८९ सत्थाण-सव्वपरत्थाणअप्पाबहुआणि एत्थ किण्ण परूविदाणि १ ण, परत्थाणादो चेव तेसिं दोण्हमवगमा । एवं इंदियमग्गणा सम्मत्ता। कायाणुवादेण तसकाइय-तसकाइयपज्जत्तएसु ओघं । णवरि मिच्छादिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥ १०४ ॥ एदस्सत्थो- एगगुणट्ठाण-सेसकाएसु अप्पाबहुअं णत्थि त्ति जाणावणटुं तसकाइयतसकाइयपज्जत्तगहणं कदं । एदेसु दोसु वि अप्पाबहुअं जधा ओघम्मि कदं, तधा कादव्वं, विसेसाभावा । णवरि सग-सगअसंजदसम्मादिट्ठीहिंतो मिच्छादिट्ठीणं अणंतगुणत्ते पत्ते तप्पडिसेहट्ठमसंखेजगुणा त्ति उत्तं, तसकाइय-तसकाइयपज्जत्ताणमाणंतियाभावादो । को गुणगारो ? पदरस्स असंखेज्जदिभागो, असंखेजाओ सेडीओ सेडीए असंखेज्जदि शंका--स्वस्थान-अल्पबहुत्व और सर्वपरस्थान-अल्पबहुत्व यहांपर क्यों नहीं कहे? समाधान-नहीं, क्योंकि, परस्थान-अल्पबहुत्वसे ही उन दोनों प्रकारके अल्पबहुत्वोंका ज्ञान हो जाता है। इस प्रकार इन्द्रियमार्गणा समाप्त हुई। कायमार्गणाके अनुवादसे त्रसकायिक और त्रसकायिक-पर्याप्तकोंमें अल्पबहुत्व ओघके समान है। केवल विशेषता यह है कि असंयतसम्यग्दृष्टियोंसे मिथ्यादृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं ॥ १०४॥ इस सूत्रका अर्थ कहते हैं- एकमात्र मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवाले शेष स्थावरकायिक और त्रसकायिक लब्ध्यपर्याप्तकों में अल्पबहत्व नहीं पाया जाता है, करानेके लिए सूत्रमें त्रसकायिक और त्रसकायिक-पर्याप्तक पदका ग्रहण किया है। जिस प्रकार ओघप्ररूपणामें अल्पवहुत्व कह आए हैं, उसी प्रकार त्रसकायिक और त्रसकायिक-पर्याप्तक, इन दोनोंमें भी अल्पवहुत्वका कथन करना चाहिए, क्योंकि, ओघअल्पबहुत्वसे इनके अल्पबहुत्वमें कोई विशेषता नहीं है। केवल अपने अपने असंयतसम्यग्दृष्टियोंके प्रमाणसे मिथ्यादृष्टियोंके प्रमाणके अनन्तगुणत्व प्राप्त होनेपर उसके प्रतिषेध करनेके लिए असंयतसम्यग्दृष्टियोंसे मिथ्यादृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं, ऐसा कहा है, क्योंकि, त्रसकायिक और त्रसकायिक-पर्याप्तक जीवोंका प्रमाण अनन्त नहीं है । गुणकार क्या है ? जगप्रतरका असंख्यातवां भाग गुणकार है, जो जगश्रेणीके असं १ कायानुवादेन स्थावरकायेषु गुणस्थानभेदाभावादल्पबहुत्वाभावः। कायं प्रत्युच्यते । सर्वतस्तेजस्कायिका अल्पाः । ततो बहवः पृथिवीकायिकाः। ततोऽप्कायिकाः। ततो वातकायिकाः । सर्वतोऽनन्तगुणा वनस्पतयः । वसकायिकानां पचेन्द्रियवत् । स. सि. १, ८.। Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९.] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ८, १०५. भागमेत्ताओ। को पडिभागो १ घणंगुलस्स असंखेज्जदिभागो, असंखेज्जाणि पदरंगुलाणि । सेसं सुगम। एवं कायमग्गणा समत्ता । जोगाणुवादेण पंचमणजोगि-पंचवचिजोगि-कायजोगि-ओरालियकायजोगीसु तीसु अद्धासु उवसमा पवेसणेण तुल्ला थोवा ॥१०५॥ एदेहि उत्तसव्वजोगेहि सह उवसमसेढिं चढ़ताणं वुक्कस्सेण चउवण्णत्तमत्थि त्ति तुल्लत्तं परूविदं । उवरिमगुणट्ठाणजीवेहितो ऊणा त्ति थोवा ति परूविदा । एदेसि वारसण्हमप्पाबहुआणं तिसु अद्धासु द्विदउवसमगा मूलपदं जादा । उवसंतकसायवीदरागछदुमत्था तेत्तिया चेव ॥ १०६॥ सुगममेदं । खवा संखेज्जगुणा ॥ १०७ ॥ अदुत्तरसदपरिमाणत्तादो । ख्यातवें भागमात्र असंख्यात जगश्रेणीप्रमाण है। प्रतिभाग क्या है ? घनांगुलका असंख्यातवां भाग प्रतिभाग है, जो असंख्यात प्रतरांगुलप्रमाण है। शेष सूत्रार्थ सुगम है। इस प्रकार कायमार्गणा समाप्त हुई।। योगमार्गणाके अनुवादसे पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी और औदारिककाययोगियोंमें अपूर्वकरण आदि तीन गुणस्थानोंमें उपशामक जीव प्रवेशकी अपेक्षा परस्पर तुल्य और अल्प हैं ॥ १०५॥ इन सूत्रोक्त सर्व योगोंके साथ उपशमश्रेणी पर चढ़नेवाले उपशामक जीवोंकी संख्या उत्कर्षसे चौपन होती है, इसलिए उनकी तुल्यता कही है। तथा उपरिम अर्थात् क्षपकश्रेणीसम्बन्धी गुणस्थानवी जीवोंसे कम होते हैं, इसलिए उन्हें अल्प कहा है। इस प्रकार पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी और औदारिककाययोगी, इन बारह अल्पबहुत्वोंका प्रमाण लानेके लिए अपूर्वकरण आदि तीनों गुणस्थानोंमें स्थित उपशामक मूलपद अर्थात् अल्पबहुत्वके आधार हुए। उक्त बारह योगवाले उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ जीव पूर्वोक्त प्रमाण ही हैं ॥१०६॥ यह सूत्र सुगम है। उक्त बारह योगवाले उपशान्तकषायवीतरागछमस्थोंसे क्षपक जीव संख्यातगुणित हैं ॥ १०७॥ क्योंकि, क्षपकोंकी संख्याका प्रमाण एक सौ आठ है । १योगानुवादेन वाङ्मानसयोगिनां पंचेन्द्रियवत् । काययोगिनां सामान्यवत् । स.सि. १,८. Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुगागमै जोग - अप्पा बहुगपरूवणं खीणकसायवीदरागछदुमत्था तेत्तिया चेव ॥ १०८ ॥ १, ८, ११२. ] सुगममेदं । सजोगिकेवली पवेसणेण तत्तिया चेव ॥ १०९ ॥ एदं पि सुगमं । जेसु जोगेसु सजोगिगुणट्ठाणं संभवदि, तेसिं चेवेदमप्पा बहुअं घेवं । सजोगिकेवली अर्द्ध पडुच्च संखेज्जगुणा ॥ ११० ॥ को गुणगारो ? संखेज्जसमया । जहा ओघम्हि संखेज्जसमयसाहणं कदं, तहा एत्थ विकाव्यं । [ २९१ अप्पमत्तसंजदा अक्खवा अणुवसमा संखेज्जगुणा ॥ १११ ॥ एत्थ वि जहा ओघहि गुणगारो साहिदो तहा साहेदव्त्रो । णवरि अप्पिदजोगजीवरा सिपमाणं णादूण अप्पाबहुअं कायव्यं । पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा ॥ ११२ ॥ उक्त बारह योगवाले क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ जीव पूर्वोक्त प्रमाण ही हैं ॥ १०८ ॥ यह सूत्र सुगम है । सयोगिकेवली जीव प्रवेशकी अपेक्षा पूर्वोक्त प्रमाण ही हैं ।। १०९ ।। यह सूत्र भी सुगम है । किन्तु उपर्युक्त बारह योगोंमेंसे जिन योगों में सयोगिकेवल गुणस्थान सम्भव है, उन योगोंका ही यह अल्पबहुत्व ग्रहण करना चाहिए । सयोगिकेवली संचयकालकी अपेक्षा संख्यातगुणित हैं ॥ ११० ॥ गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है। जिस प्रकार ओघमें संख्यात समयरूप गुणकारका साधन किया है, उसी प्रकार यहांपर भी करना चाहिए । सयोगिकेवलीसे उपर्युक्त बारह योगवाले अक्षपक और अनुपशामक अप्रमत्तसंयत जीव संख्यातगुणित हैं ।। १११ ॥ जिस प्रकार से ओघ में गुणकार सिद्ध किया है, उसी प्रकारसे यहां पर भी सिद्ध करना चाहिए । केवल विशेषता यह है कि विवक्षित योगवाली जीवराशिके प्रमाणको जानकर अल्पबहुत्व करना चाहिए । बारह योगवाले अप्रमत्तसंयतयों से प्रमत्तसंयत जीव संख्यातगुणित उक्त हैं ॥ ११२ ॥ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२) छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१,८,११३. सुगममेदं । संजदासजदा असंखेज्जगुणा ॥ ११३ ॥ को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेजदिभागस्स संखेजदिभागो । सेसं सुगमं । . सासणसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥ ११४ ॥ को गुणगारो ? आवलियाए असंखेजदिभागो । कारणं जाणिदूण वत्तव्वं । सम्मामिच्छादिट्ठी संखेज्जगुणा ॥ ११५ ॥ को गुणगारो ? संखेज्जसमया । एत्थ वि कारणं णिहालिय वत्तव्यं । असंजदसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥ ११६ ॥ को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो। जोगद्धाणं समासं कादण तेण सामण्णरासिमोवट्टिय अप्पिदजोगद्धाए गुणिदे इच्छिद-इच्छिदरासीओ होति । अणेण पयारेण सव्वत्थ दव्वपमाणमुप्पाइय अप्पाबहुअं वत्तव्यं । यह सूत्र सुगम है। उक्त बारह योगवाले प्रमत्तसंयतोंसे संयतासंयत जीव असंख्यातगुणित हैं ॥११३॥ गुणकार क्या है ? पल्योपमके असंख्यातवे भागका संख्यातवां भाग गुणकार है। शेष सूत्रार्थ सुगम है। उक्त बारह योगवाले संयतासंयतोंसे सासादनसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं ॥ ११४ ॥ गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है। इसका कारण जानकर कहना चाहिए (देखो इसी भागका पृ. २४९)। उक्त बारह योगवाले सासादनसम्यग्दृष्टियोंसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं ॥ ११५ ॥ गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है। यहां पर भी इसका कारण स्मरण कर कहना चाहिए (देखो इसी भागका पृ. २५०)। उक्त बारह योगवाले सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंसे असंयतसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं ॥११६॥ गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है। योगसम्बन्धी कालोंका समास (योग) करके उससे सामान्यराशिको भाजित कर पुनः विवक्षित योगके कालसे गुणा करनेपर इच्छित इच्छित योगवाले जीवोंकी राशियां हो जाती हैं । इस प्रकारसे सर्वत्र द्रव्यप्रमाणको उत्पन्न करके उनका अल्पबहुत्व कहना चाहिए । Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पा बहुगाणुगमे जोगि- अप्पा बहुगपरूवणं [ २९३ मिच्छादिट्ठी असंखेज्जगुणा, मिच्छादिट्ठी अनंतगुणा ॥११७॥ एत्थ एवं संबंधो कायव्वो । तं जहा - पंचमणजोगि- पंचवचिजोगि असंजदसम्मादिट्ठीहिंतो तेसिं चेव जोगाणं मिच्छादिट्ठी असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? पदरस्स असंखेज्जदिभागो, असंखेज्जाओ सेडीओ । केत्तियमेत्ताओ ? सेडीए असंखेज्जदिभागताओ । को पडिभागो ? घणंगुलस्स असंखेज्जदिभागो, असंखेज्जाणि पदरंगुलाणि । कायजोगि-ओरालियकायजोगिअसं जदसम्मादिट्ठी हिंतो तेसिं चेव जोगाणं मिच्छादिट्ठी अनंतगुणा । को गुणगारो ? अभवसिद्धिएहिं अनंतगुणो, सिद्धेहिं वि अनंतगुणो, अर्णताणि सव्वजीवरासि पढमवग्गमूलाणित्ति । १, ८, ११८. ] असंजद सम्मादिट्टि -संजदासंजद- पमत्तापमत्त संजदाणे सम्मत्तप्पा बहुअमोघं ॥ ११८ ॥ एदेसिं गुणट्ठाणाणं जधा ओघम्हि सम्मत्तप्पाबहुअं उत्तं, तथा एत्थ वि अणूणाहियं वत्तव्यं । उक्त बारह योगवाले असंयत सम्यग्दृष्टियों से ( पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी ) मिध्यादृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं, और ( काययोगी तथा औदारिककाययोग) मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तगुणित हैं ॥ ११७ ॥ यहांपर इस प्रकार सम्बन्ध करना चाहिए। जैसे- पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी असंयतसम्यग्दृष्टियों से उन्हीं योगोंके मिथ्यादृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं । गुणकार क्या है ? जगप्रतरका असंख्यातवां भाग गुणकार है, जो असंख्यात जगश्रेणीप्रमाण है । वे जगश्रेणियां कितनी हैं ? जगश्रेणीके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । प्रतिभाग क्या है ? घनांगुलका असंख्यातवां भाग प्रतिभाग है, जो असंख्यात प्रतरांगुलप्रमाण है । काययोगी और औदारिककाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टियों से उन्हीं योगोंके मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तगुणित हैं । गुणकार क्या है ? अभव्यसिद्धोंसे अनन्तगुणित और सिद्धोंसे भी अनन्तगुणित राशि गुणकार है, जो सर्व जीवराशिके अनन्त प्रथम वर्गमूलप्रमाण है । उक्त बारह योगवाले जीवोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानमें सम्यक्त्वसम्बन्धी अल्पबहुत्व ओघ के समान है ॥ ११८ ॥ इन सूत्रोक्त चारों गुणस्थानोंका जिस प्रकार ओघमें सम्यक्त्वसम्बन्धी अल्पबहुत्व कहा है, उसी प्रकार यहांपर भी हीनता और अधिकता से रहित अर्थात् तत्प्रमाण ही अल्पबहुत्व कहना चाहिए । Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४) छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ८, ११९ एवं तिसु अद्धासु ॥ ११९ ॥ सुगममेदं । सव्वत्थोवा उवसमा ॥ १२० ॥ एदं पि सुगमं । खवा संखेज्जगुणा ॥ १२१ ॥ अप्पिदजोगउवसामगेहितो अप्पिदजोगाणं खवा संखेज्जगुणा । एत्थ पक्खेवसंखेवेण मूलरासिमोवट्टिय अप्पिदपक्खेवेण गुणिय इच्छिदरासिपमाणमुप्पाएदव्यं । ओरालियमिस्सकायजोगीसु सव्वत्थोवा सजोगिकेवली ॥१२२॥ कवाडे चडणोयरणकिरियावावदचालीसजीवमवलंबादो थोवा जादा । असंजदसम्मादिट्ठी संखेनगुणा ॥ १२३॥ कुदो ? देव-णेरइय-मणुस्सेहितो आगंतूण तिरिक्खमणुसेसुप्पण्णाणं असंजदसम्मादिट्ठीणमोरालियमिस्सम्हि सजोगिकेवलीहिंतो संखेज्जगुणाणमुवलंभा। इसी प्रकार उक्त बारह योगवाले जीवोंमें अपूर्वकरण आदि तीन गुणस्थानोंमें सम्यक्त्वसम्बन्धी अल्पबहुत्व है ॥ ११९ ॥ यह सूत्र सुगम है। उक्त बारह योगवाले जीवोंमें उपशामक जीव सबसे कम है ॥ १२० ॥ यह सूत्र भी सुगम है। उक्त बारह योगवाले उपशामकोंसे क्षपक जीव संख्यातगुणित हैं ।। १२१ ॥ विवक्षित योगवाले उपशामकोंसे विवक्षित योगवाले क्षपक जीव संख्यातगुणित होते हैं । यहांपर प्रक्षेप-संक्षेपके द्वारा मूलजीवराशिको भाजित करके विवक्षित प्रक्षेपराशिसे गुणा कर इच्छित राशिका प्रमाण उत्पन्न कर लेना चाहिए (देखो द्रव्यप्र. भाग ३ पृ. ४८-४९)। औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें सयोगिकेवली सबसे कम हैं ॥ १२२ ॥ क्योंकि, कपाटसमुद्धातके समय आरोहण और अवतरणक्रियामें संलग्न चालीस जीवोंके अवलम्बनसे औदारिकमिश्रकाययोगियोंमें सयोगिकेवली सबसे कम हो जाते हैं। औदारिकमिश्रकाययोगियोंमें सयोगिकेवली जिनोंसे असंयतसम्यग्दृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं ॥ १२३ ॥ क्योंकि, देव, नारकी और मनुष्योंसे आकर तिर्यंच और मनुष्यों में उत्पन्न होने बाले असंयतसम्यग्दृष्टि जीव औदारिकमिश्रकाययोगमें सयोगिकेवली जिनोंसे संख्यातगुणित पाये जाते हैं। Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पा बहुगागमे जोगि अप्पाबहुगपरूवणं सासणसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥ १२४ ॥ को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, असंखेज्जाणि पलिदोवमपढमचग्गमूलाणि । मिच्छादिट्टी अनंतगुणा ॥ १२५ ॥ को गुणगारो ? अभवसिद्धिएहि अनंतगुणो, सिद्धेहि वि अनंतगुणो, अनंताणि सव्वजीवरासिपढमवग्गमूलाणि । १, ८, १२८. ] [ २९५ असजद सम्माइट्टिट्ठाणे सव्वत्थोवा खइयसम्मादिट्ठी ॥ १२६ ॥ दंसणमोहणीयखएणुप्पण्णसद्दहणाणं जीवाणमइदुल्लभत्तादो । वेद सम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा ॥ १२७ ॥ खओवस मियसम्मत्ताणं जीवाणं बहूणमुवलंभा । को गुणगारो ? संखेज्जा समया । व्वियका जोगी देवगदिभंगो ॥ १२८ ॥ औदारिकमिश्रकाययोगियों में असंयतसम्यग्दृष्टियों से सासादनसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं ।। १२४ ॥ गुणकार क्या है ? पल्योपमका असंख्यातवां भाग गुणकार है, जो पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण है । औदारिकमिश्रकाययोगियों में सासादनसम्यग्दृष्टियों से मिध्यादृष्टि जीव अनन्तगुणित हैं ।। १२५ ।। गुणकार क्या है ? अभव्यसिद्धों से अनन्तगुणित और सिद्धोंसे भी अनन्तगुणित राशि गुणकार है, जो सर्व जीवराशिके अनन्त प्रथम वर्गमूलप्रमाण है । औदारिक मिश्रकाययोगियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं ॥ १२६॥ क्योंकि, दर्शनमोहनीयकर्मके क्षयसे उत्पन्न हुए श्रद्धानवाले जीवोंका होना अतिदुर्लभ है। औदारिकमिश्रकाययोगियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंसे वेदकसम्यग्दृष्टि संख्यातगुणित हैं ।। १२७ ॥ क्योंकि, क्षायोपशमिक सम्यक्त्ववाले जीव बहुत पाये जाते हैं। गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है । वैक्रियिककाययोगियों में ( संभव गुणस्थानवर्ती जीवोंका ) अल्पबहुत्व देवगतिके समान है ।। १२८ ॥ Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ८, १२९. जधा देवग दिम्हि अप्पा बहुअं उत्तं, तथा वेउब्वियकायजोगीसु वत्तव्यं । तं जधासव्वत्थोवा सासणसम्मादिट्ठी । सम्मामिच्छादिट्ठी संखेज्जगुणा । असंजद सम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा । मिच्छादिट्ठी असंखेज्जगुणा । असंजदसम्मादिट्ठिट्ठाणे सव्वत्थोवा उवसमसम्मादिट्ठी । खइयसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा । वेदगसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा । वेव्वियामि स्कायजोगीसु सव्वत्थोवा सासणसम्मादिट्ठी ॥ १२९ ॥ कारणं पुत्रं व वत्तव्यं । असंजदसम्मादिट्टी संखेज्जगुणा ।। १३० ।। को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो । एत्थ कारणं संभालिय वत्तव्यं । मिच्छादिट्टी असंखेज्जगुणा ॥ १३१ ॥ को गुणगारो ? पदरस्स असंखेज्जदिभागो, असंखेज्जाओ सेडीओ सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ताओ । को पडिभागो ? घणंगुलस्स असंखेज्जदिभागो, असंखेज्जाणि पदरंगुलाणि । जिस प्रकार देवगतिमें जीवोंका अल्पबहुत्व कहा है, उसी प्रकार वैक्रियिककाययोगियों में कहना चाहिए। जैसे- वैक्रियिककाययोगी सासादनसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं। उनसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं। उनसे असंयतसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं। उनसे मिथ्यादृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं। असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें वैक्रियिककाययोगी उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं। उनसे क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं। उनसे वेदकसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं । वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंमें सासादनसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं ॥ १२९ ॥ इसका कारण पूर्वके समान कहना चाहिए । वैक्रियिकमिश्रकाययोगियों में सासादनसम्यग्दृष्टियोंसे असंयतसम्यग्दृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं ।। १३० ॥ गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है । यहां पर कारण संभालकर कहना चाहिए । वैक्रियिकमिश्रकाययोगियों में असंयतसम्यग्दृष्टियोंसे मिथ्यादृष्टि जीव असंख्यात - गुण हैं ।। १३१ ॥ गुणकार क्या है ? जगप्रतरका असंख्यातवां भाग गुणकार है, जो असंख्यात जगणप्रमाण है । वे जगश्रेणियां भी जगश्रेणी के असंख्यातवें भागमात्र हैं । प्रतिभाग क्या है ? घनांगुलका असंख्यातवां भाग प्रतिभाग है, जो असंख्यात प्रतरांगुलप्रमाण है । Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पा बहुगागमे जोगि- अप्पा बहुगपरूवणं [ २९७ असंजदसम्मादिट्ठाणे सव्वत्थोवा उवसमसम्मादिट्ठी ॥ १३२ ॥ कुदो ? उवसमसम्मत्तेण सह उवसमसेढिम्हि मदजीवाणमथोवत्तादो | खइयसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा ॥ १३३ ॥ सामगेर्हितो संखेज्जगुणअसंजदसम्मादिट्ठि आदिगुणट्ठाणेहिंतो संचयसंभवादो । वेद सम्मादिट्टी असंखेज्जगुणा ॥ १३४ ॥ १, ८, १३५. ] तिरिक्खेहिंतो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्त वेदगसम्मादिट्टिजीवाणं देवेसु उववादसंभवादो। को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, असंखेज्जाणि पलिदो - वमपढमवग्गमूलाणि । पमत्तसंजदट्ठाणे आहारकाय जोगि आहारमिस्स कायजोगीसु सव्वत्थोवा खइयसम्मादिट्ठी ॥ १३५ ॥ मे | वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं ॥ १३२ ॥ क्योंकि, उपशमसम्यक्त्वके साथ उपशमश्रेणीमें मरे हुए जीवोंका प्रमाण अत्यन्त अल्प होता है । वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें उपशमसम्यग्दृष्टियोंसे क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं ।। १३३ ॥ क्योंकि, उपशमश्रेणीमें मरे हुए उपशामकोंसे संख्यातगुणित असंयत सम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थानों की अपेक्षा क्षायिकसम्यग्दृष्टियों का संचय सम्भव है । वैक्रियिकमिश्रकाययोगियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में क्षायिकसम्यग्दृष्टियों से वेदकसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं ।। १३४ ॥ क्योंकि, तिर्यंचोंसे पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंका देवोंमें उत्पन्न होना संभव है । गुणकार क्या है ? पल्योपमका असंख्यातवां भाग गुणकार है, जो पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण है । आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगियों में प्रमत्तसंयत गुणस्थान में क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं ।। १३५ ॥ यह सूत्र सुगम है । Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ८, १३६. वेदगसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा ॥ १३६ ॥ एदं पि सुगमं । उवसमसम्मादिट्ठीणमेत्थ संभवाभावा तेसिमप्पाबहुगं ण कहिंदं । किमट्ठ उवसमसम्मत्तेण आहाररिद्धी ण उप्पज्जदि ? उवसमसम्मत्तकालम्हि अइदहरम्हि तदुप्पत्तीए संभवाभावा । ण उवसमसेडिम्हि उवसमसम्मत्तेण आहाररिद्धीओ लब्भइ, तत्थ पमादाभावा । ण च तत्तो ओइण्णाण आहाररिद्धी उवलब्भइ, जत्तियमेत्तेण कालेण आहाररिद्धी उप्पज्जइ, उसमसम्मत्तस्स तत्तियमेत्तकालमवहाणाभावा । कम्मइयकायजोगीसु सव्वत्थोवा सजोगिकेवली ॥ १३७ ॥ कुदो ? पदर-लोगपूरणेसु उक्कस्सेण सहिमेत्तसजोगिकेवलीणमुवलंभा। सासणसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥ १३८ ॥ को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, असंखेन्जाणि पलिदोवमपढमवग्गमूलाणि । आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगियोंमें प्रमत्तसंयत गुणस्थानमें क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंसे वेदकसम्यग्दृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं ॥ १३६ ॥ यह सूत्र भी सुगम है। इन दोनों योगोंमें उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंका होना सम्भव नहीं है, इसलिए उनका अल्पबहुत्व नहीं कहा है। शंका--उपशमसम्यक्त्वके साथ आहारकऋद्धि क्यों नहीं उत्पन्न होती है ? समाधान-क्योंकि, अत्यन्त अल्प उपशमसम्यक्त्वके कालमें आहारकऋद्धिका उत्पन्न होना सम्भव नहीं है। न उपशमसम्यक्त्वके साथ उपशमश्रेणीमें आहारकऋद्धि पाई जाती है, क्योंकि, वहांपर प्रमादका अभाव है। न उपशमश्रेणीसे उतरे हुए जीवोंके भी उपशमसम्यक्त्वके साथ आहारकऋद्धि पाई जाती है, क्योंकि, जितने कालके द्वारा आहारकऋद्धि उत्पन्न होती है, उपशमसम्यक्त्वका उतने काल तक अवस्थान नहीं रहता है। कार्मणकाययोगियोंमें सयोगिकेवली जिन सबसे कम हैं ॥ १३७ ॥ क्योंकि, प्रतर और लोकपूरणसमुद्धातमें अधिकसे अधिक केवल साठ सयोगिकेवली जिन पाये जाते हैं। ___कार्मणकाययोगियोंमें सयोगिकेवली जिनों से सासादनसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं ॥ १३८॥ गुणकार क्या है ? पल्योपमका असंख्यातवां भाग गुणकार है, जो पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण है। www.jainelibrar Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ८, १४२. ] अप्पा बहुगागमे जोगि अप्पा बहुगपरूवणं असंजदसम्मादिट्टी असंखेज्जगुणा ॥ १३९ ॥ को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो । एत्थ कारणं णादूण वत्तव्त्रं । मिच्छादिट्टी अनंतगुणा ॥ १४० ॥ को गुणगा ? अभवसिद्धिएहि अनंतगुणो, सिद्धेहि वि अनंतगुणो, अनंता णि सव्वजीवरा सिपढमवग्गमूलाणि । [ २९९ असंजदमम्मादिट्टिट्ठाणे सवत्थोवा उवसमसम्मादिट्ठी ॥ १४१ ॥ कुदो ? उवसममेडिम्हि उवसमसम्मत्तेण मदसंजदाणं संखेज्जत्तादो । खइयसम्मादिडी संखेज्जगुणा ॥ १४२ ॥ पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तख इय सम्मादिट्ठीहिंतो असंखेज्जजीवा विग्गहं किष्ण करेंति त्ति उत्ते उच्चदे - ण ताव देवा खइयसम्मादिट्टिणो असंखेज्जा अक्कमेण मरंति, मणुसेसु असंखेज्जखइय सम्मादिट्ठिष्पसंगा । ण च मणुसेसु असंखेज्जा मरंति, कार्मणकाययोगियों में सासादनसम्यग्दृष्टियों से असंयतसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यात - गुण हैं ।। १३९ ॥ गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है । यहांपर इसका कारण जानकर कहना चाहिए। (देखो इसी भागका पृ. २५१ और तृतीय भागका पृ. ४११ ) कार्मणकाययोगियों में असंयतसम्यग्दृष्टियों से मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तगुणित हैं ।। १४० ॥ गुणकार क्या है ? अभव्यसिद्धोंसे अनन्तगुणा और सिद्धोंसे भी अनन्तगुणा गुणकार है, जो सर्व जीवराशिके अनन्त प्रथम वर्गमूलप्रमाण है । कार्मणकाययोगियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं ।। १४१ ॥ क्योंकि, उपशमश्रेणीमें उपशमसम्यक्त्वके साथ मरे हुए संयतोंका प्रमाण संख्यात ही होता है । कार्मणकाययोगियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में उपशमसम्यग्दृष्टियों से क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं ॥ १४२ ॥ शंका- पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षायिकसम्यग्दृष्टियों से असंख्यात जीव विग्रह क्यों नहीं करते हैं ? समाधान - ऐसी आशंकापर आचार्य कहते हैं कि न तो असंख्यात क्षायिकसम्यग्दृष्टि देव एक साथ मरते हैं, अन्यथा मनुष्योंमें असंख्यात क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंके होनेका प्रसंग आ जायगा । न मनुष्योंमें ही असंख्यात क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव मरते हैं, Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३.०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ८, १४३. तत्थासंखेज्जाणं सम्मादिट्ठीणमभावा । ण तिरिक्खा असंखेज्जा मारणंतियं करेंति, तत्थ आयाणुसारिवयत्तादो। तेण विग्गहगदीए खइयसम्मादिविणो संखेज्जा चेव होति । होता वि उवसमसम्मादिट्ठीहिंतो संखेज्जगुणा, उवसमसम्मादिट्ठिकारणादो खइयसम्मादिट्ठिकारणस्स संखेजगुणत्तादो । वेदगसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥ १४३॥ को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, असंखेज्जाणि पलिदोवमपढमवग्गमलाणि । को पडिभागो ? खइयसम्मादिद्विरासिगुणिदअसंखेज्जावलियाओ। एवं जोगमग्गणा समत्ता । वेदाणुवादेण इत्थिवेदएसु दोसु वि अद्धासु उवसमा पवेसणेण तुल्ला थोवा ॥ १४४ ॥ क्योंकि, उनमें असंख्यात क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंका अभाव है। न असंख्यात क्षायिकसम्यग्दृष्टि तिर्यंच ही मारणान्तिकसमुद्धात करते हैं, क्योंकि, उनमें आयके अनुसार व्यय होता है। इसलिए विग्रहगतिमें क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव संख्यात ही होते हैं। तथा संख्यात होते हुए भी वे उपशमसम्यग्दृष्टियोंसे संख्यातगुणित होते हैं, क्योंकि, उपशमसम्यग्दृष्टियोंके (आयके) कारणसे क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंके (आयका) कारण संख्यातगुणा है। विशेषार्थ-कार्मणकाययोगमें पाये जानेवाले उपशमसम्यग्दृष्टि जीव तो केवल उपशमश्रेणीसे मरकर ही आते हैं, किन्तु क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव उपशमश्रेणीके अतिरिक्त असंयतसम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थानोंसे मरकर भी कार्मणकाययोगमें पाये जाते हैं । अतः उनका संख्यातगुणित पाया जाना स्वतः सिद्ध है। कार्मणकाययोगियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंसे वेदकसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं ॥ १४३ ॥ गुणकार क्या है ? पल्योपमका असंख्यातवां भाग गुणकार है, जो पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण है। प्रतिभाग क्या है ? क्षायिकसम्यग्दृष्टि राशिसे गुणित असंख्यात आवलियां प्रतिभाग है। ___ इस प्रकार योगमार्गणा समाप्त हुई। वेदमार्गणाके अनुवादसे स्त्रीवेदियोंमें अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण, इन दोनों ही गुणस्थानोंमें उपशामक जीव प्रवेशकी अपेक्षा तुल्य और अल्प हैं ॥ १४४ ॥ १ बेदानुवादेन स्त्री-पुंवेदानां पंचेन्द्रियवत् । स. सि. १,८. Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ८, १४९.] अप्पाबहुगाणुगमे इत्थिवेदि-अप्पाबहुगपरूवणं दसपरिमाणत्तादो। खवा संखेज्जगुणा ॥ १४५॥ बीसपरिमाणत्तादो। अप्पमत्तसंजदा अक्खवा अणुवसमा संखेज्जगुणा ॥ १४६॥ को गुणगारो ? संखेज्जसमया। पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा ॥ १४७ ॥ को गुणगारो ? दो रूवाणि । संजदासंजदा असंखेज्जगुणा ॥ १४८ ॥ को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, असंखेज्जाणि पलिदोवमपढमवग्गमूलाणि । को पडिभागो ? संखेज्जरूवगुणिदअसंखेज्जावलियाओ। सासणसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥ १४९ ॥ को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो। किं कारण ? असुहसासणगुणस्स क्योंकि, स्त्रीवेदी उपशामक जीवोंका प्रमाण दस है। स्त्रीवेदियोंमें उपशामकोंसे क्षपक जीव संख्यातगुणित हैं ॥ १४५ ॥ क्योंकि, उनका परिमाण बीस है। स्त्रीवेदियोंमें क्षपकोंसे अक्षपक और अनुपशामक अप्रमत्तसंयत जीव संख्यातगुणित हैं ॥ १४६॥ गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है। स्त्रीवेदियोंमें अप्रमत्तसंयतोंसे प्रमत्तसंयत जीव संख्यातगुणित हैं ॥ १४७ ॥ गुणकार क्या है ? दो रूप गुणकार है। स्त्रीवेदियोंमें प्रमत्तसंयतोंसे संयतासंयत जीव असंख्यातगुणित हैं ॥ १४८॥ गुणकार क्या है ? पल्योपमका असंख्यातवां भाग गुणकार है, जो पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण है। प्रतिभाग क्या है ? संख्यात रूपोंसे गुणित असंख्यात आवलियां प्रतिभाग है। स्त्रीवेदियोंमें संयतासंयतोंसे सासादनसम्यग्दृष्टि जीवं असंख्यातगुणित हैं॥१४९॥ गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है। शंका-इसका कारण क्या है ? समाधान-क्योंकि, अशुभ सासादनगुणस्थानका पाना सुलभ है । १ गो. जी. ६३०. वीसित्थीगाउ. प्रवच. द्वा. ५३. Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२) छक्खंडागमै जीवट्ठाणं [१,८,१५०. सुलहत्तादो। सम्मामिच्छाइट्टी संखेज्जगुणा ॥ १५० ॥ को गुणगारो ? संखेज्जसमया । किं कारण ? सासणायादो संखेज्जगुणायसंभवादो। असंजदसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥ १५१ ॥ को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो। किं कारणं? सम्मामिच्छादिट्टिआयं पेक्खिदूण असंखेज्जगुणायत्तादो। मिच्छादिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥ १५२ ॥ को गुणगारो ? पदरस्स असंखेज्जदिभागो, असंखेज्जाओ सेडीओ सेडीए असंखेजदिभागमेत्ताओ । को पडिभागो ? घगंगुलस्स असंखेज्जदिभागो, असंखेज्जाणि पदरंगुलाणि । असंजदसम्मादिट्टि-संजदासंजदट्ठाणे सव्वत्थोवा खइयसम्मादिट्ठी ॥१५३॥ स्त्रीवेदियोंमें सासादनसम्यग्दृष्टियोंसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं ॥ १५०॥ गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है। इसका कारण यह है कि सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानकी आयसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंकी संख्यातगुणित आय सम्भव व है, अर्थात् दूसरे गुणस्थानमें जितने जीव आते है, उनसे संख्यातगुणित जीव तीसरे गुणस्थानमें आते हैं । स्त्रीवेदियोंमें सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंसे असंयतसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं ॥ १५१ ॥ गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है। इसका कारण यह है कि सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंकी आयको देखते हुए असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंकी असंख्यातगुणी आय होती है। स्त्रीवेदियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टियोंसे मिथ्यादृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं ॥१५२॥ गुणकार क्या है ? जगप्रतरका असंख्यातवां भाग गुणकार है, जो जगश्रेणीके असंख्यातवें भागमात्र असंख्यात जगश्रेणीप्रमाण है। प्रतिभाग क्या है ? घनांगुलका असंख्यातवां भाग प्रतिभाग है जो असंख्यात प्रतरांगुलप्रमाण है। स्त्रीवेदियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत गुणस्थानमें क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं ॥ १५३ ॥ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ८, १५९.] अप्पाबहुगाणुगमे इत्थिवेदि-अप्पाबहुगपरूवणं [३०३ संखेज्जरूवमेतत्तादो। उवसमसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥ १५४ ॥ को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, असंखेज्जाणि पलिदोवमपढमवग्गमूलाणि । को पडिभागो ? असंखेज्जावलियपडिभागो। वेदगसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥ १५५ ॥ को गुणगारो ? आवलियाए असंखेजदिभागो । पमत्त-अप्पमत्तसंजदट्ठाणे सव्वत्थोवा खइयसम्मादिट्ठी॥१५६॥ उवसमसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा ॥ १५७ ॥ वेदगसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा ॥ १५८ ॥ एदाणि तिण्णि वि सुत्ताणि सुगमाणि । एवं दोसु अद्धासु ॥ १५९ ॥ क्योंकि, स्त्रीवेदियों में संख्यात रूपमात्र ही क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव पाये जाते हैं। स्त्रीवेदियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत गुणस्थानमें क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंसे उपशमसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं ॥ १५४ ॥ गुणकार क्या है ? पल्योपमका असंख्यातवां भाग गुणकार है, जो पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण है। प्रतिभाग क्या है ? असंख्यात आवलियां प्रतिभाग है। स्त्रीवेदियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत गुणस्थानमें उपशमसम्यग्दृष्टियोंसे वेदकसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं ॥ १५५ ॥ गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है । स्त्रीवेदियोंमें प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानमें क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं ॥१५६॥ क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंसे उपशमसम्यग्दृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं ॥ १५७ ॥ उपशमसम्यग्दृष्टियोंसे वेदकसम्यग्दृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं ॥ १५८ ॥ ये तीनों ही सूत्र सुगम हैं। इसी प्रकार अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण, इन दोनों गुणस्थानों में स्त्रीवेदियोंका अल्पबहुत्व है ॥ १५९ ॥ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ८, १६.. सव्वत्थोवा खइयसम्मादिट्ठी, उवसमसम्मादिट्ठी संखेजगुणा, इच्चेदेण साधम्मादो । सव्वत्थोवा उवसमा ॥ १६०॥ एदं सुत्तं पुणरुत्तं किण्ण होदि ? ण, एत्थ पवेसएहि अहियाराभावा । संचएण एत्थ अहियारो, ण सो पुव्वं परूविदो । तदो ण पुणरुत्तत्तमिदि । खवा संखेज्जगुणा ॥ १६१ ॥ सुगममेदं । पुरिसवेदएसु दोसु अद्धासु उवसमा पवेसणेण तुल्ला थोवा ॥१६२ ॥ चउवण्णपमाणसादों। खवा संखेज्जगुणा ॥ १६३॥ अदुत्तरसदमेत्तत्तादो। क्योंकि, इन दोनों गुणस्थानोंमें स्त्रीवेदी क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम है, और उपशमसम्यग्दृष्टि जीव उनसे संख्यातगुणित होते हैं, इस प्रकार ओघके साथ समानता पाई जाती है। स्त्रीवेदियोंमें उपशामक जीव सबसे कम हैं ॥ १६० ॥ शंका-यह सूत्र पुनरुक्त क्यों नहीं है ? समाधान नहीं, क्योंकि, यहां पर प्रवेशकी अपेक्षा इस सूत्रका अधिकार नहीं है, किन्तु संचयकी अपेक्षा यहांपर अधिकार है और वह संचय पहले प्ररूपण नहीं किया गया है । इसलिये यहांपर कहे गये सूत्रके पुनरुक्तता नहीं है। स्त्रीवेदियोंमें उपशामकोंसे क्षपक जीव संख्यातगुणित हैं ॥ १६१ ॥ यह सूत्र सुगम है। पुरुषवोदियोंमें अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण, इन दोनों गुणस्थानोंमें उपशामक जीव प्रवेशकी अपेक्षा तुल्य और अल्प हैं ॥ १६२ ।। क्योंकि, उनका प्रमाण चौपन है। पुरुषवेदियोंमें उक्त दोनों गुणस्थानोंमें उपशामकोंसे क्षपक जीव संख्यातगुणित हैं ॥ १६३ ॥ क्योंकि, उनका प्रमाण एक सौ आठ है । २ गो. जी. ६२९. २ गो. जी. ६२९. पुरिसाण अट्ठसयं एगसमयओ सिझे । प्रवच, द्वा. ५३. Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ८, १६८.] अप्पाबहुगाणुगमे पुरिसवेदि-अप्पाबहुगपरूवणं [ ३०५ अप्पमत्तसंजदा अक्खवा अणुवसमा संखेज्जगुणा ॥ १६४ ॥ को गुणगारो ? संखेज्जसमया । पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा ॥ १६५॥ को गुणगारो ? दोण्णि रूवाणि । संजदासजदा असंखेज्जगुणा ॥ १६६ ॥ को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, असंखेज्जाणि पलिदोवमपढमवग्गमूलाणि । सासणसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥ १६७ ॥ को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो । सेसं सुगम । सम्मामिच्छादिट्ठी संखेज्जगुणा ॥ १६८ ॥ को गुणगारो ? संखेज्जसमया । सेसं सुगमं । पुरुषवेदियोंमें दोनों गुणस्थानों में क्षपकोंसे अक्षपक और अनुपशामक अप्रमत्तसंयत संख्यातगुणित हैं ॥ १६४ ॥ गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है । पुरुषवेदियोंमें अप्रमत्तसंयतोंसे प्रमत्तसंयत जीव संख्यातगुणित हैं ।। १६५॥ गुणकार क्या है ? दो रूप गुणकार है। पुरुषवेदियोंमें प्रमत्तसंयतोंसे संयतासंयत जीव असंख्यातगुणित हैं ॥१६६ ॥ गुणकार क्या है ? पल्योपमका असंख्यातवां भाग गुणकार है, जो पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण है। पुरुषवेदियोंमें संयतासंयतोंसे सासादनसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं ॥ १६७ ॥ __गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है। शेष सूत्रार्थ सुगम है। पुरुषवेदियोंमें सासादनसम्यग्दृष्टियोंसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं ॥१६८ ॥ गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है । शेष सूत्रार्थ सुगम है । Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ८, १६९. असंजदसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥ १६९ ॥ को गुणगारो ? आवलियाए असंखेजदिभागो। मिच्छांदिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥ १७० ॥ को गुणगारो ? पदरस्स असंखेज्जदिभागो, असंखेज्जाओ सेडीओ सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ताओ। असंजदसम्मादिहि-संजदासंजद-पमत्त-अप्पमत्तसंजदट्ठाणे सम्मत्तप्पाबहुअमोघं ॥ १७१ ॥ एदेसिं जधा ओघम्हि सम्मत्तप्पाबहुअं उत्तं तधा वत्तव्वं । एवं दोसु अद्धासु ॥ १७२ ॥ सव्वत्थोवा उवसमसम्मादिट्ठी, खइयसम्मादिट्ठी संखेजगुणा; इच्चेदेहि साधम्मादो। सव्वत्थोवा उवसमा ॥ १७३ ॥ पुरुषवेदियोंमें सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंसे असंयतसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं ॥ १६९ ॥ गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है । पुरुषवेदियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टियोंसे मिथ्यादृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं ॥ १७ ॥ ___ गुणकार क्या है ? जगप्रतरका असंख्यातवां भाग गुणकार है, जो जगश्रेणीके असंख्यातवें भागमात्र असंख्यात जगश्रेणीप्रमाण है। पुरुषवेदियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानमें सम्यक्त्वसम्बन्धी अल्पबहुत्व ओघके समान है ॥ १७१ ॥ इन गुणस्थानोंका जिस प्रकार ओघमें सम्यक्त्वसम्बन्धी अल्पबहुत्व कहा है, उसी प्रकार यहांपर कहना चाहिए। इसी प्रकार पुरुषवेदियोंमें अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण, इन दोनों गुणस्थानों में सम्यक्त्वसम्बन्धी अल्पबहुत्व है ॥ १७२॥ क्योंकि, उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम है और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव उनसे संख्यातगुणित हैं, इस प्रकार ओघके साथ समानता पाई जाती है । पुरुषवेदियोंमें उपशामक जीव सबसे कम हैं ॥ १७३ ।। १ प्रतिषु ' एवं ' इति पाठः। Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ८, १७८. 1 अप्पाबहुगाणुगमे णqसयवेदि-अप्पाबहुगपरूवणं [३०७ खवा संखेज्जगुणा ॥ १७४॥ दो वि सुत्ताणि सुगमाणि । णउंसयवेदएसु दोसु अद्धासु उवसमा पवेसणेण तुल्ला थोवा ॥ १७५॥ कुदो ? पंचपरिमाणत्तादों। खवा संखेज्जगुणा ॥ १७६ ॥ कुदो ? दसपरिमाणत्तादो। अप्पमत्तसंजदा अक्खवा अणुवसमा संखेज्जगुणा ॥ १७७ ॥ कुदो ? संचयरासिपडिग्गहादो। पमत्तसंजदा संखेनगुणा ॥ १७८ ॥ को गुणगारो ? दोण्णि रूवाणि । उपशामकोंसे क्षपक जीव संख्यातगुणित हैं ॥ १७४ ॥ ये दोनों ही सूत्र सुगम है। नपुंसकवेदियोंमें अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण, इन दोनों गुणस्थानोंमें उपशामक जीव प्रवेशकी अपेक्षा तुल्य और अल्प हैं ॥ १७५ ॥ क्योंकि, उनका परिमाण पांच है। नपुंसकवेदियोंमें अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण, इन दोनों गुणस्थानोंमें उपशामकोंसे क्षपक जीव प्रवेशकी अपेक्षा संख्यातगुणित हैं ॥ १७६ ॥ क्योंकि, उनका परिमाण दस है। नपुंसकवेदियोंमें क्षपकोंसे अक्षपक और अनुपशामक अप्रमत्तसंयत जीव संख्यातगुणित हैं ॥ १७७ ॥ क्योंकि, उनकी संचयराशिको ग्रहण किया गया है। नपुंसकवेदियोंमें अप्रमत्तसंयतोंसे प्रमत्तसंयत जीव संख्यातगुणित हैं ॥१७८॥ गुणकार क्या है ? दो रूप गुणकार है। १ नपुंसकवेदानां xx सामान्यवत् । स. सि. १, ८. २ गो.जी. ६३०. दस चेव नपुंसा तह । प्रवच. द्वा. ५३. Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे जीवट्ठाणं संजदासंजदा असंखेज्जगुणा ।। १७९ ।। को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, असंखेज्जाणि पलिदोवमपढमवगमूलाणि । ३०८] सासणसम्मादिट्टी असंखेज्जगुणा ॥ १८० ॥ को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो । सेसं सुगमं । सम्मामिच्छादिट्टी संखेज्जगुणा ॥ १८१ ॥ को गुणगारो ? संखेज्जसमया । कारणं चिंतिय वत्तव्वं । असंजदसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥ १८२ ॥ को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो । मिच्छादिड्डी अनंतगुणा ॥ १८३ ॥ को गुणगारो ? अभवसिद्धिएहि अनंतगुणो, अनंताणि सव्वजीवरासि पढममूलाणि । नपुंसकवेदियों में प्रमत्तसंयतों से संयतासंयत जीव असंख्यातगुणित हैं ।। १७९ ॥ गुणकार क्या है ? पल्योपमका असंख्यातवां भाग गुणकार है, जो पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण है । नपुंसकवेदियों में संयतासंयतों से सासादनसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं ।। १८० ।। [ १, ८, १७९. सुगम है। गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है । शेष सूत्रार्थ नपुंसकवेदियों में सासादनसम्यग्दृष्टियों से सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं ॥ १८१ ॥ गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है । इसका कारण विचारकर कहना चाहिए (देखो भाग ३ पृ. ४१८ इत्यादि ) । नपुंसकवेदियों में सम्यग्मिथ्यादृष्टियों से असंयतसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं ।। १८२ ॥ गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है । नपुंसकवेदियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टियों से मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तगुणित हैं ॥ १८३॥ गुणकार क्या है ? अभव्यसिद्धोंसे अनन्तगुणा गुणकार है, जो सर्व जीवराशिके अनन्त प्रथम वर्गमूलप्रमाण है । Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ८, १८५.] अप्पाबहुगाणुगमे णqसयवेदि-अप्पाबहुगपरूवणं [ ३०९ असंजदसम्मादिट्ठि-संजदासंजदट्ठाणे सम्मत्तप्पाबहुअमोघं ॥ १८४॥ असंजदसम्मादिट्ठीणं ताव उच्चदे- सव्वत्थोवा उवसमसम्मादिट्ठी । खइयसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो। कुदो ? पढमपुढवीखइयसम्मादिट्ठीणं पहाणत्तब्भुवगमादो । वेदगसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो।। संजदासजदाणं-सव्वत्थोवा खइयसम्मादिट्ठी। कुदो ? मणुसपज्जत्तणउंसयवेदे मोत्तूण तेसिमण्णत्थाभावा । उवसमसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो, असंखेज्जाणि पलिदोवमपढमवग्गमूलाणि । वेदगसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? आवलियाए असंखेजदिभागो।। पमत्त-अपमत्तसंजदहाणे सव्वत्थोवा खइयसम्मादिट्ठी॥१८५॥ नपुंसकवेदियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत गुणस्थानमें सम्यक्त्वसम्बन्धी अल्पबहुत्व ओघके समान है ।। १८४ ॥ इनमेंसे पहले असंयतसम्यग्दृष्टि नपुंसकवेदी जीवोंका अल्पबहुत्व कहते हैंनपुंसकवेदी उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं । उनसे नपुंसकवेदी क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं । गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है, क्योंकि, यहांपर प्रथम पृथिवीके क्षायिकसम्यग्दृष्टि नारकी जीवोंकी प्रधानता स्वीकार की गई है । नपुंसकवेदी क्षायिकसम्यग्दृष्टियों से नपुंसकवेदी वेदकसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं । गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है । संयतासंयत नपुंसकवेदी जीवोंका अल्पबहुत्व कहते हैं- नपुंसकवेदी संयतासंयत क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं, क्योंकि, मनुष्य-पर्याप्तक नपुंसकवेदी जीवोंको छोड़कर उनका अन्यत्र अभाव है। नपुंसकवेदी संयतासंयत क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंसे उपशमसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं। गुणकार क्या है ? पल्योपमका असंख्यातवां भाग गुणकार है, जो पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण है। नपुंसकवेदी संयतासंयत उपशमसम्यग्दृष्टियोंसे वेदकसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं। गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है। नपुंसकवेदियोंमें प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानमें क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं ॥ १८५॥ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ८, १८६. कुदो ? अप्पसत्थवेदोदएण बहूणं दंसणमोहणीयखवगाणमभावा । उवसमसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा ॥ १८६ ॥ वेदगसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा ।। १८७॥ सुगमाणि दो वि सुत्ताणि । एवं दोसु अद्धासु ॥ १८८ ॥ जधा पमत्तापमत्ताणं सम्मत्तप्पाबहुअं परूविदं, तधा दोसु अद्धासु सव्वत्थोवा खइयसम्मादिट्ठी, उवसमसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा त्ति परूवेयव्यं । सव्वत्थोवा उवसमा ॥ १८९ ॥ खवा संखेज्जगुणा ॥ १९० ॥ दो वि सुत्ताणि सुगमाणि । क्योंकि, अप्रशस्त वेदके उदयके साथ दर्शनमोहनीयके क्षपण करनेवाले बहुत जीवोंका अभाव है। नपुंसकवेदियोंमें प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानमें क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंसे उपशमसम्यग्दृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं ॥ १८६ ॥ उपशमसम्यग्दृष्टियोंसे वेदकसम्यग्दृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं ॥ १८७ ॥ ये दोनों ही सूत्र सुगम हैं । इसी प्रकार नपुंसकवेदियोंमें अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण, इन दोनों गुणस्थानों में सम्यक्त्वसम्बन्धी अल्पबहुत्व है ॥ १८८॥ जिस प्रकारसे नपुंसकवेदी प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयतोंका सम्यक्त्वसम्बन्धी अल्पबहुत्व कहा है, उसी प्रकार अपूर्वकरण आदि दो गुणस्थानोंमें 'क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम है, उनसे उपशमसम्यग्दृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं ' इस प्रकार प्ररूपण करना चाहिए नपुंसकवेदियोंमें उपशामक जीव सबसे कम हैं ॥ १८९ ॥ उपशामकोंसे क्षपक जीव संख्यातगुणित हैं ॥ १९० ॥ ये दोनों ही सूत्र सुगम हैं। Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ८, १९६.] अप्पाबहुगाणुगमे अबगदवेदि-अप्पाबहुगपरूवणं [३११ अवगदवेदएसु दोसु अद्धासु उवसमा पवेसणेण तुल्ला थोवा ॥ १९१॥ उवसंतकसायवीदरागछदुमत्था तत्तिया चेव ॥ १९२ ॥ दो वि सुत्ताणि सुगमाणि । खवा संखेज्जगुणा ॥ १९३॥ कुदो ? अदुत्तरसदपमाणत्तादो। खीणकसायवीदरागछदुमत्था तत्तिया चेव ॥ १९४ ॥ सजोगिकेवली अजोगिकेवली पवेसणेण दो वि तुल्ला तत्तिया चेव ॥ १९५॥ दो वि सुत्ताणि सुगमाणि । सजोगिकेवली अद्धं पडुच्च संखेज्जगुणा ॥ १९६ ॥ एदं पि सुगमं । एवं वेदमग्गणा समत्ता । अपगतवेदियोंमें अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण, इन दोनों गुणस्थानोंमें उपशामक जीव प्रवेशकी अपेक्षा तुल्य और अल्प हैं ॥ १९१ ॥ उपशान्तकषायवीतरागछमस्थ जीव पूर्वोक्त प्रमाण ही हैं ॥ १९२ ॥ ये दोनों ही सूत्र सुगम हैं। अपगतवेदियोंमें उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थोंसे क्षपक जीव संख्यातगुणित हैं ॥ १९३ ॥ क्योंकि, इनका प्रमाण एक सौ आठ है । अपगतवेदियोंमें क्षीणकषायवीतरागछमस्थ पूर्वोक्त प्रमाण ही हैं ॥ १९४ ॥ सयोगिकेवली और अयोगिकेवली ये दोनों ही प्रवेशकी अपेक्षा तुल्य और पूर्वोक्त प्रमाण ही हैं ॥ १९५ ॥ ये दोनों ही सूत्र सुगम हैं। सयोगिकेवली संचयकालकी अपेक्षा संख्यातगुणित हैं ॥ १९६ ॥ यह सूत्र भी सुगम है। इस प्रकार वेदमार्गणा समाप्त हुई। १xx अवेदानां च सामान्यवत् । स. सि. १, ८. २ गो. जी. ६२९. Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ८, १९७. कसायाणुवादेण कोधकसाइ-माणकसाइ-मायकसाइ-लोभकसाईसु दोसु अद्धासु उवसमा पवेसणेण तुल्ला थोवा ॥ १९७ ॥ सुगममेदं । खवा संखेज्जगुणा ॥ १९८ ॥ को गुणगारो ? दो रूवाणि । णवरि विसेसा, लोभकसाईसु सुहुमसांपराइय-उवसमा विसेसाहिया ॥ १९९ ॥ दोउवसामयपवेसएहितो संखेज्जगुणे दोगुणट्ठाणपवेसयक्खवए पेक्खिदण कधं सुहुमसांपराइयउवसामया विसेसाहिया ? ण एस दोसो, लोभकसाएण खवएसु पविसंतजीवे पेक्खिदूण तेसिं सुहुमसांपराइयउवसामएसु पविसंताणं चउवण्णपरिमाणाणं कषायमार्गणाके अनुवादसे क्रोधकषायी, मानकषायी, मायाकषायी और लोभकषायियोंमें अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण, इन दोनों गुणस्थानोंमें उपशामक जीव प्रवेशकी अपेक्षा तुल्य और अल्प हैं ॥ १९७ ॥ यह सूत्र सुगम है। चारों कषायवाले जीवोंमें उपशामकोंसे क्षपक संख्यातगुणित हैं ॥ १९८॥ गुणकार क्या है ? दो रूप गुणकार है । केवल विशेषता यह है कि लोभकषायी जीवोंमें क्षपकोंसे सूक्ष्मसाम्परायिक उपशामक विशेष अधिक हैं ॥ १९९ ॥ शंका-अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण, इन दो उपशामक गुणस्थानोंमें प्रवेश करनेवाले जीवोंसे संख्यातगुणित प्रमाणवाले इन्हीं दो गुणस्थानों में प्रवेश करनेवाले क्षपकोंको देखकर अर्थात् उनकी अपेक्षासे सूक्ष्मसाम्परायिक उपशामक विशेष अधिक कैसे हो सकते हैं ? समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, लोभकषायके उदयसे क्षपकोंमें प्रवेश करनेवाले जीवोंको देखते हुए लोभकषायके उदयसे सूक्ष्मसाम्परायिक उपशामकोंमें प्रवेश करनेवाले और चौपन संख्यारूप परिमाणवाले उन लोभकषायी जीवोंके विशेष १ कषायानुवादेन क्रोधमानमायाकषायाणां पुंवेदवत् ।xxx लोभकषायाणां द्वयोरुपशमकयोस्तुल्या संख्या । क्षपकाः संख्येयगुणाः । सूक्ष्मसाम्परायशुद्धयुपशमकसंयताः विशेषाधिकाः । सूक्ष्मसाम्परायक्षपकाः संख्येयगुणाः । शेषाणां सामान्यवत् । स. सि. १, ८. २ प्रतिषु — संखेज्जगुणो' इति पाठः । Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ८, २०२. ] अप्पाबहुग|णुगमे चदुकसाइ- अप्पाबहुगपरूवणं विसेसाहियत्ताविरोहा । कुदो ? लोभकसाईसुति विसेसणादो । खवा संखेज्जगुणा ॥ २०० ॥ उवसामगेहिंतो खवगाणं दुगुणत्तुवलंभा । अप्पमत्तसंजदा अक्खवा अणुवसमा संखेज्जगुणा ॥ २०१ ॥ को गुणगारो ? संखेज्जा समया । पमत्त संजदा संखेज्जगुणा ॥ २०२ ॥ को गुणगारो ? दो रुवाणि । चदुकसायअप्पमत्तसंजदाणमेत्थ संदिट्ठी २ । ३। ४ । ७ । पमत्त संजदाणं संदिट्ठी ४ । ६ । ८ । १४ । [ ३१३ अधिक होने में कोई विरोध नहीं है । विरोध न होनेका कारण यह है कि सूत्रमें 'लोभकषायी जीवों में ' ऐसा विशेषणपद दिया गया है । लोभकषायी जीवोंमें सूक्ष्मसाम्परायिक उपशामकोंसे सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपक संख्यातगुणित हैं ।। २००॥ क्योंकि, उपशामकोंसे क्षपक जीवोंका प्रमाण दुगुणा पाया जाता है । चारों कषायवाले जीवोंमें क्षपकोंसे अक्षपक और अनुपशामक अप्रमत्तसंयत संख्यातगुणित हैं ।। २०१ ॥ गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है । चारों कषायवाले जीवोंमें अप्रमत्तसंयतों से प्रमत्त संयत संख्यातगुणित हैं ॥ २०२॥ गुणकार क्या है ? दो रूप गुणकार है । यहां चारों कषायवाले अप्रमत्त संयतोंका प्रमाण या अल्पबहुत्व बतलानेवाली अंकसंदृष्टि इस प्रकार है - २।३।४।७। तथा चारों कषायवाले प्रमत्तसंयतोंकी अंकसंदृष्टि ४ । ६ । ८ और १४ है । विशेषार्थ - यहां पर चतुःकषायी अप्रमत्त और प्रमत्त संयतोंके प्रमाणका ज्ञान करानेके लिये जो अंकसंदृष्टि बतलाई गई है, उसका अभिप्राय यह है कि मनुष्य तिर्यचों में मानकषायका काल सबसे कम है, उससे क्रोध, माया और लोभकषायका काल उत्तरोउत्तर विशेष अधिक होता है । (देखो भाग ३, पृ. ४२५ ) । तदनुसार यहां पर अप्रमत्तसंयत और प्रमत्तसंयतोंका अंकसंदृष्टि द्वारा प्रमाण बतलाया गया है कि मानकषायवाले अप्रमत्तसंयत सबसे कम है, जिनका प्रमाण अंकसदृष्टिमें (२) दो बतलाया गया है । इनसे क्रोधकषायवाले अप्रमत्तसंयत विशेष अधिक होते हैं, जिनका प्रमाण अंकसंदृष्टि (३) तीन बतलाया गया है। इनसे मायाकषायवाले अप्रमत्त संयत विशेष अधिक होते हैं, जिनका प्रमाण अंकसंदृष्टिमें (४) चार बतलाया गया है । इनसे लोभकषायवाले अप्रमत्तसंयत विशेष अधिक होते हैं, जिनका प्रमाण अंकसंदृष्टिमें (७) सात बतलाया गया है । चूंकि अप्रमत्तसंयतोंसे प्रमत्तसंयतोंका प्रमाण दुगुणा माना गया है, इसलिए यहां अंकसंदृष्टिमें भी उनका प्रमाण क्रमशः दूना ४, ६, ८ और १४ बतलाया गया है । यह अंकसंख्या काल्पनिक है, और उसका अभिप्राय स्थूल रूपसे चारों कषायका Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१,८, २०३. संजदासंजदा असंखेज्जगुणा ॥२०३ ॥ को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो, असंखेज्जाणि पलिदोवमपढमवग्गमूलाणि । सासणसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥ २०४ ॥ को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो । सम्मामिच्छादिट्ठी संखेज्जगुणा ॥ २०५॥ को गुणगारो ? संखेज्जा समया । असंजदसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥ २०६ ॥ को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो। मिच्छादिट्ठी अणंतगुणा ॥ २०७॥ को गुणगारो ? अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो, सिद्धेहि वि अणंतगुणो, अणंताणि सव्वजीवरासिपढमवग्गमूलाणि । परस्पर आपेक्षिक प्रमाण बतलाना मात्र है। इसी हीनाधिकताके लिए देखो भाग ३, पृ. ४३४ आदि। चारों कषायवाले जीवों में प्रमत्तसंयतोंसे संयतासंयत असंख्यातगुणित हैं॥२०३॥ गुणकार क्या है ? पल्योपमका असंख्यातवां भाग गुणकार है, जो पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण है। चारों कषायवाले जीवोंमें संयतासंयतोंसे सासादनसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणित हैं ॥ २०४॥ गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है। चारों कषायवाले जीवोंमें सासादनसम्यग्दृष्टियोंसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि संख्यातगुणित हैं ॥ २०५॥ गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है। चारों कषायवाले जीवोंमें सभ्यग्मिथ्यादृष्टियोंसे असंयतसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणित हैं ॥ २०६॥ गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है । चारों कषायवाले जीवोंमें असंयतसम्यग्दृष्टियोंसे मिथ्यादृष्टि अनन्तगुणित हैं॥ २०७॥ गुणकार क्या है ? अभव्यसिद्धोंसे अनन्तगुणा और सिद्धोंसे भी अनन्तगुणा प्रमाण गुणकार है, जो सर्व जीवराशिके अनन्त प्रथम वर्गमूलप्रमाण है। १ प्रतिषु 'संजदासंजदासखेज्जगुणा' इति पाठः। २ अयं तु विशेषः मिथ्यादृष्टयोऽनन्तगुणाः । स. सि. १, ८. Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ८, २११.] अप्पाबहुगाणुगमे चदुकसाइ-अप्पाबहुगपरूवणं [३१५ असंजदसम्मादिहि-संजदासंजद-पमत्त-अप्पमत्तसंजदट्ठाणे सम्मत्तप्पाबहुअमोघं ॥ २०८ ॥ एदेसिं जधा ओघम्हि सम्मत्तप्पाबहुअं उत्तं तधा वत्तव्यं, विसेसाभावादो । एवं दोसु अद्धासु ॥ २०९॥ जधा पमत्तापमत्ताणं सम्मत्तप्पाबहुअं परूविदं, तधा दोसु अद्धासु परूवेदव्वं । णवरि लोभकसायस्स एवं तिसु अद्धासु त्ति वत्तव्यं, जाव सुहुमसांपराइओ ति लोभकसायउवलंभा । एवं सुत्ते किण्ण परूविदं ? परूविदमेव पवेसप्पाबहुअसुत्तेण । तेणेव एसो अत्थो णव्वदि त्ति पुध ण परूविदो । सव्वत्थोवा उवसमा ॥ २१० ॥ खवा संखेज्जगुणा ॥ २११ ॥ दो वि सुत्ताणि सुगमाणि ।। चारों कषायवाले जीवोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानमें सम्यक्त्वसम्बन्धी अल्पबहुत्व ओघके समान है ॥ २०८॥ इन सूत्रोक्त गुणस्थानोंका जिस प्रकार ओघमें सम्यक्त्वसम्बन्धी अल्पबहुत्व कहा है, उसी प्रकार यहांपर कहना चाहिए, क्योंकि, दोनोंमें कोई विशेषता नहीं है। इसी प्रकार अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण, इन दोनों गुणस्थानोंमें चारों कषायवाले जीवोंका सम्यक्वसम्बन्धी अल्पबहुत्व है ॥ २०९ ॥ जिस प्रकारसे चारों कषायवाले प्रमत्त और अप्रमत्तसंयतोंका सम्यक्त्वसम्बन्धी अल्पवहुत्व कहा है, उसी प्रकार अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण, इन दो गुणस्थानोंमें कहना चाहिए । किन्तु विशेषता यह है कि लोभकषायका इसी प्रकार अपूर्वकरण आदि तीन गुणस्थानों में सम्यक्त्वसम्बन्धी अल्पबहुत्व है, ऐसा कहना चाहिए, क्योंकि, सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान तक लोभकषायका सद्भाव पाया जाता है। शंका--यदि ऐसा है, तो इसी प्रकारसे सूत्रमें क्यों नहीं प्ररूपण किया ? समाधान-प्रवेशसम्बन्धी अल्पबहुत्व सूत्रके द्वारा सूत्रमें उक्त बात प्ररूपित की ही गई है । और उसी प्रवेशसम्बन्धी अल्पबहुत्व सूत्रके द्वारा यह ऊपर कहा गया अर्थ जाना जाता है, इसलिए उसे यहांपर पृथक नहीं कहा है। चारों कषायवाले उपशामक जीव सबसे कम हैं ॥ २१० ॥ उपशामकोंसे क्षपक जीव संख्यातगुणित हैं ॥ २११ ।। ये दोनों ही सूत्र सुगम हैं। Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ८, २१२. अकसाईसु सव्वत्थोवा उवसंतकसायवीदरागछदुमत्था ॥२१२॥ चउवण्णपरिमाणत्तादों। खीणकसायवीदरागछदुमत्था संखेज्जगुणा ॥ २१३ ॥ अट्टत्तरसदपरिमाणत्तादो। सजोगिकेवली अजोगिकेवली पवेसणेण दो वि तुल्ला तत्तिया चेव ॥ २१४ ॥ सुगममेदं । सजोगिकेवली अद्धं पडुच्च संखेज्जगुणा ॥ २१५ ॥ कुदो ? अणूणाधियओघरासित्तादो । एवं कसायमग्गणा समत्ता । णाणाणुवादेण मदिअण्णाणि-सुदअण्णाणि-विभंगण्णाणीसु सव्वत्थोवा सासणसम्मादिट्ठी ॥ २१६ ॥ अकषायी जीवोंमें उपशान्तकषायवीतरागछमस्थ सबसे कम हैं ॥ २१२ ॥ क्योंकि, उनका प्रमाण चौपन है। अकषायी जीवोंमें उपशान्तकषायवीतरागछमस्थोंसे क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ संख्यातगुणित हैं ॥ २१३ ॥ क्योंकि, उनका परिमाण एक सौ आठ है। - अकषायी जीवोंमें सयोगिकेवली और अयोगिकेवली, ये दोनों ही प्रवेशकी अपेक्षा तुल्य और पूर्वोक्त प्रमाण ही हैं ॥ २१४ ॥ यह सूत्र सुगम है। अकषायी जीवोंमें सयोगिकेवली संचयकालकी अपेक्षा संख्यातगुणित हैं ॥२१५॥ क्योंकि, उनका प्रमाण ओघराशिसे न कम है, न अधिक है। इस प्रकार कषायमार्गणा समाप्त हुई। ज्ञानमार्गणाके अनुवादसे मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी और विभंगज्ञानी जीवोंमें सासादनसम्यग्दृष्टि सबसे कम हैं ॥ २१६॥ १ गो. जी. ६२९. २ ज्ञानानुवादेन मत्यज्ञानि-श्रुतानानिषु सर्वतः स्तोकाः सासादनसम्यग्दृष्टयः। स. सि. १, ८. Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ८, २१९.] अप्पाबहुगाणुगमे मदि-सुद-ओधिणाणि-अप्पाबहुगपरूवणं [३१७ कुदो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागपरिमाणत्तादो । मिच्छादिट्ठी अणंतगुणा, मिच्छादिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥२१७॥ एत्थ एवं संबंधो कीरदे- मदि-सुदअण्णाणिसासणेहिंतो मिच्छादिट्ठी अणंतगुणा । को गुणगारो ? सव्वजीवरासिस्स असंखेज्जदिभागो। विभंगणाणिसासणेहितो तेसिं चेव मिच्छादिट्ठी असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? पदरस्स असंखेज्जदिभागो, असंखेजाओ सेडीओ, सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ताओ। को पडिभागो ? घणंगुलस्स असंखेज्जदिभागो, असंखेज्जाणि पदरंगुलाणि त्ति । अण्णहा विप्पडिसेहत्तादो । आभिणिबोहिय-सुद-आधिणाणीसु तिसु अद्धासु उवसमा पवेसणेण तुल्ला थोवा ॥ २१८ ॥ सुगममेदं । उवसंतकसायवीदरागछदुमत्था तत्तिया चेव ॥ २१९ ।। क्योंकि, उनका परिमाण पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र है। उक्त तीनों अज्ञानी जीवोंमें मिथ्यादृष्टि अनन्तगुणित हैं, मिथ्यादृष्टि असंख्यातगुणित हैं ॥ २१७॥ यहांपर इस प्रकार सूत्रार्थ-सम्बन्ध करना चाहिए- मत्यज्ञानी और श्रुताशानी सासादन सम्यग्दृष्टियोंसे मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तगुणित हैं। गुणकार क्या है ? सर्व जीवराशिका असंख्यातवां भाग गुणकार है। विभंगज्ञानी सासादनसम्यग्दृष्टियोंसे उनके ही मिथ्यादृष्टि अर्थात् विभंगशानी मिथ्यादृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं। गुणकार क्या है ? जगप्रतरका असंख्यातवां भाग गुणकार है, जो जगश्रेणीके असंख्यातवें भागमात्र असंख्यात जगश्रेणीप्रमाण है। प्रतिभाग क्या है ? घनांगुलका असंख्यातवां भाग प्रतिभाग है, जो असंख्यात प्रतरांगुलप्रमाण है। यदि इस प्रकार सूत्रका अर्थ न किया जायगा, तो परस्पर विरोध प्राप्त होगा। आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें अपूर्वकरण आदि तीन गुणस्थानोंमें उपशामक प्रवेशकी अपेक्षा तुल्य और अल्प हैं ॥ २१८ ।। यह सूत्र सुगम है। मति, श्रुत और अवधिज्ञानियोंमें उपशान्तकषायवीतरागछमस्थ पूर्वोक्त प्रमाण. ही हैं ॥ २१९॥ १ मिथ्यादृष्टयोऽसंख्येयगुणाः।स. सि. १,८. २ प्रतिषु 'एदं' इति पाठः। ३ मतिश्रुतावधिलानिषु सर्वतः स्तोकाश्चत्वार उपशामकाः।स. सि. १,८. Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९८) . छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ८, २१.. एवं पि सुगमं । खवा संखेज्जगुणा॥ २२०॥ को गुणगारो ? दोण्णि रूवाणि । खीणकसायवीदरागछदुमत्था तेत्तिया चेव ॥ २२१ ॥ सुगममेदं । अप्पमत्तसंजदा अक्खवा अणुवसमा संखेज्जगुणा ॥ २२२ ॥ कुदो ? अणूणाहियओघरासित्तादो । पमत्तसंजदा संखेनगुणा ॥ २२३॥ को गुणगारो ? दोण्णि रूवाणि । संजदासंजदा असंखेज्जगुणा ॥ २२४ ॥ यह सूत्र भी सुगम है। मति, श्रुत और अवधिज्ञानियोंमें उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थोंसे क्षपक जीव संख्यातगुणित हैं ।। २२० ॥ गुणकार क्या है ? दो रूप गुणकार है। मति, श्रुत और अवधिज्ञानियोंमें क्षपकोंसे क्षीणकषायवीतरागछमस्थ पूर्वोक्त प्रमाण ही हैं ॥ २२१ ॥ यह सूत्र सुगम है। मति, श्रुत और अवधिज्ञानियोंमें क्षीणकषायवीतरागछअस्थोंसे अक्षपक और अनुपशामक अप्रमत्तसंयत जीव संख्यातगुणित हैं ॥ २२२ ॥ क्योंकि, उनका प्रमाण ओघराशिसे न कम है, न अधिक है। मति, श्रुत और अवधिज्ञानियोंमें अप्रमत्तसंयतोंसे प्रमत्तसंयत जीव संख्यातगुणित हैं ॥ २२३॥ गुणकार क्या है ? दो रूप गुणकार है। मति, श्रुत और अवधिज्ञानियोंमें प्रमत्तसंयतोंसे संयतासंयत जीव असंख्यातगुणित हैं ॥ २२४ ॥ १ चत्वारः क्षपकाः संख्येयगुणाः । स. सि. १, ८. २ अप्रमत्तसंयताः संख्येयगुणाः । स. सि. १, ८. ३ प्रमत्तसंयताः संख्येयगुणाः । स. सि. १,८. ४ संयतासंबताः (अ.) संख्येयगुणाः । स. सि. १, . Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ८, २२९. ] अप्पा बहुगागमे मदि-सुद-ओधिणाणि - अप्पाबहुगपरूवणं [ ३१९ कुदो ? पलिदोवस्त असंखेज्जदिभागपरिमाणत्तादो । को गुणगारो ? पलिदोत्रमस्स असंखेज्जदिभागो, असंखेज्जाणि पलिदोवमपढमवग्गमूलाणि । असंजदसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणां ॥ २२५ ॥ कुदो ? पहाणीकयदेव असंजदसम्मादिट्ठिरासित्तादो । को गुणगारो ? आवलियाए असंखेजदिभागो । असंजदसम्मादिट्टि -संजदासंजद- पमत्त अप्पमत्तसंजदट्ठाणे सम्मत्तपाबहुगमोघं ॥ २२६ ॥ जधा ओघहि देसि सम्मत्तप्पाबहुअं परूविदं, तधा परूवेदव्वमिदि वुत्तं होदि । एवं तिसु अद्धासु ॥ २२७ ॥ सव्वत्थोवा उवसमा ॥ २२८ ॥ खवा संखेज्जगुणा ॥ २२९ ॥ दाणि तिणि वित्ताणि सुगमाणि । क्योंकि, उनका परिमाण पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है । गुणकार क्या है ? पल्योपमका असंख्यातवां भाग गुणकार है, जो पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण है । मति, श्रुत और अवधिज्ञानियों में संयतासंयतोंसे असंयतसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं ।। २२५ ॥ क्योंकि, यहांपर असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंकी राशि प्रधानतासे स्वीकार की गई है । गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है । मति, श्रुत और अवधिज्ञानियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में सम्यक्त्वसम्बन्धी अल्पबहुत्व ओघके समान है ॥ २२६॥ जिस प्रकार ओघमें इन गुणस्थानोंका सम्यक्त्वसम्बन्धी अल्पबहुत्व कहा है, उसी प्रकार यहांपर भी प्ररूपण करना चाहिए, यह अर्थ कहा गया है । इसी प्रकार मति, श्रुत और अवधिज्ञानी जीवोंमें अपूर्वकरण आदि तीन गुणस्थानोंमें सम्यक्त्वसम्बन्धी अल्पबहुत्व है ।। २२७ ॥ मति, श्रुत और अवधिज्ञानियोंमें उपशामक जीव सबसे कम हैं || २२८ ॥ उपशामकों से क्षपक जीव संख्यातगुणित हैं ।। २२९ ॥ ये तीनों ही सूत्र सुगम हैं । १ असंयतसम्यग्दृष्टयः (अ ) संख्येयगुणाः । स. सि. १,८. Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ८, २३०. ___ मणपज्जवणाणीसुतिसु अद्धासु उवसमा पवेसणेण तुल्ला थोवा ॥ २३० ॥ उवसंतकसायवीदरागछदुमत्था तत्तिया चेव ॥२३१ ॥ खवा संखेज्जगुणा ॥२३२॥ खीणकसायवीदरागछदुमत्था तत्तिया चेव ॥ २२३ ॥ एदाणि सुत्ताणि सुगमाणि । अप्पमत्तसंजदा अक्खवा अणुवसमा संखेज्जगुणा ॥ २३४ ॥ को गुणगारो ? संखेज्जरूवाणि । पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा ॥ २३५ ॥ को गुणगारो ? दोण्णि रूवाणि । पमत्त-अप्पमत्तसंजदट्ठाणे सव्वत्थोवा उवसमसम्मादिट्ठी ॥२३६॥ मनःपर्ययज्ञानियोंमें अपूर्वकरण आदि तीन गुणस्थानोंमें उपशामक जीव प्रवेशकी अपेक्षा तुल्य और अल्प हैं ॥ २३० ॥ उपशान्तकषायवीतरागछमस्थ जीव पूर्वोक्त प्रमाण ही हैं ॥ २३१ ॥ उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थोंसे क्षपक जीव संख्यातगुणित हैं ।। २३२ ॥ क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ पूर्वोक्त प्रमाण ही हैं ॥ २३३ ॥ ये सूत्र सुगम है। मनःपर्ययज्ञानियोंमें क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थोंसे अक्षपक और अनुपशामक अप्रमत्तंसंयत जीव संख्यातगुणित हैं ।। २३४ ॥ गुणकार क्या है ? संख्यात रूप गुणकार है। मनःपर्ययज्ञानियोंमें अप्रमत्तसंयतोंसे प्रमत्तसंयत जीव संख्यातगुणित हैं ॥२३५॥ गुणकार क्या है ? दो रूप गुणकार है। मनःपर्ययज्ञानियोंमें प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानमें उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं ॥ २३६ ॥ १ मनःपर्ययज्ञानिषु सर्वतः स्तोकाश्चत्वार उपशामकाः। स.सि. १, ८. तेषां संख्या १० गो. जी. ६३.. २ चत्वारः क्षपकाः संख्येयगुणाः । स. सि. १, ८, तेषां संख्या २० । गो. जी. ६३०. ३ अप्रमत्तसंयताः संख्येयगुणाः । स. सि. १,८. ४ प्रमत्तसंयताः संख्येयगुणाः । स. सि. १,८. . Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ८, २४२.] अप्पाबहुगाणुगमे मणपज्जव-केवलणाणि-अप्पाबहुगपरूवणं [३२१ उवसमसेडीदो ओदिण्णाणं उबसमसेटिं चढमाणाणं वा उवसमसम्मत्तेण थोवाणं जीवाणमुवलंभा । खइयसम्माइट्ठी संखेज्जगुणा ॥ २३७ ॥ खइयसम्मत्तेण मणपज्जवणाणिमुणिवराणं बहूणमुवलंभा । वेदगसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा ॥ २३८ ॥ सुगममेदं । एवं तिसु अद्धासु ॥ २३९ ॥ सव्वत्थोवा उवसमा ॥ २४० ॥ खवा संखेज्जगुणा ॥ २४१ ॥ एदाणि तिणि सुत्ताणि सुगमाणि, बहुसो परविदत्तादो । केवलणाणीसु सजोगिकेवली अजोगिकेवली पवेसणेण दो वि तुल्ला तत्तिया चेव ॥ २४२ ॥ क्योंकि, उपशमश्रेणीसे उतरनेवाले, अथवा उपशमश्रेणीपर चढ़नेवाले मनःपर्ययशानी थोड़े जीव उपशमसम्यक्त्वके साथ पाये जाते हैं। __मनःपर्ययज्ञानियों में प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानमें उपशमसम्यग्दृष्टियोंसे क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं ॥ २३७ ॥ क्योंकि, उक्त गुणस्थानोंमें क्षायिकसम्यक्त्वके साथ बहुतसे मनापर्ययशानी मुनिवर पाये जाते हैं। ... मनःपर्ययज्ञानियोंमें प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानमें क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंसे वेदकसम्यग्दृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं ॥ २३८ ॥ यह सूत्र सुगम है। इसी प्रकार मनःपर्ययज्ञानियोंमें अपूर्वकरण आदि तीन उपशामक गुणस्थानों में सम्यक्त्वसम्बन्धी अल्पबहुत्व है ॥ २३९ ॥ मनःपर्ययज्ञानियों में उपशामक जीव सबसे कम हैं ॥ २४० ॥ उपशामक जीवोंसे क्षपक जीव संख्यातगुणित हैं ॥ २४१ ।। ये तीनों सूत्र सुगम हैं, क्योंकि, वे वहुत वार प्ररूपण किये जा चुके हैं। केवलज्ञानियोंमें सयोगिकेवली और अयोगिकेवली जिन प्रवेशकी अपेक्षा दोनों ही तुल्य और तावन्मात्र ही हैं ॥ २४२ ॥ १ अपत्योः 'ओहिणाणं आपतौ ओधिणाणं ' इति पाठः ।. . Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ८, २४३. तुल्ला तत्तिया सद्दा हेउ-हेउमंतभावेण जोजेयव्या । तं कधं ? जेण तुल्ला, तेण तत्तिया ति । केत्तिया ते ? अट्टत्तरसयमेत्ता । सजोगिकेवली अद्धं पडुच्च संखेज्जगुणा ॥ २४३॥ पुनकोडिकालम्हि संचयं गदा सजोगिकेवलिणो एगसमयपवेसगेहिंतो संखेज्जगुणा, संखेज्जगुणेण कालेण मिलिदत्तादो । एवं णाणमग्गणा समत्ता । संजमाणुवादेण संजदेसु तिसु अद्धासु उवसमा पवेसणेण तुल्ला थोवा ॥ २४४ ॥ कुदो ? चउवण्णपमाणत्तादो। उवसंतकसायवीदरागछदुमत्था तत्तिया चेव ॥ २४५॥ सुगममेदं। खवा संखेज्जगुणा ॥ २४६ ॥ तुल्य और तावन्मात्र, ये दोनों शब्द हेतु-हेतुमद्भावसे सम्बन्धित करना चाहिए। शंका वह कैसे? समाधान-चूंकि, सयोगिकेवली और अयोगिकेवली परस्पर तुल्य हैं, इसलिए वे तावन्मात्र अर्थात् पूर्वोक्त प्रमाण हैं। शंका-वे कितने हैं ? समाधान-वे एक सौ आठ संख्याप्रमाण हैं । केवलज्ञानियोंमें सयोगिकेवली संचयकालकी अपेक्षा संख्यातगुणित हैं ॥२४३॥ पूर्वकोटीप्रमाण कालमें संचयको प्राप्त हुए सयोगिकेवली एक समयमें प्रवेश करनेवालोंकी अपेक्षा संख्यातगुणित हैं, क्योंकि, वे संख्यातगुणित कालसे संचित इस प्रकार ज्ञानमार्गणा समाप्त हुई । संयममार्गणाके अनुवादसे संयतोंमें अपूर्वकरण आदि तीन गुणस्थानों में उपशामक जीव प्रवेशकी अपेक्षा तुल्य और अल्प हैं ।। २४४ ।। क्योंकि, उनका प्रमाण चौपन है। संयतोंमें उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ जीव पूर्वोक्त प्रमाण ही हैं ॥ २४५ ॥ यह सूत्र सुगम है। संयतोंमें उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थोंसे क्षपक जीव संख्यातगुणित हैं ॥२४६॥ १ फेवलबाजिपु अयोगकेवलिभ्यः सयोगकेवलिनः संख्येयगुणाः । स.सि. १, ८. Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ८, २४७.] अप्पाबहुगाणुगमे संजद-अप्पाबहुगपरूवर्ण [ १२३ को गुणगारो १ दोण्णि रूवाणि । किं कारणं ? जेण णाण-वेदादिसव्ववियप्पेसु उवसमसेडिं चडंतजीवेहिंतो खवगसेडिं चढंतजीवा दुगुणा त्ति आइरिओवदेसादो। एगसमएण तित्थयरा छ खवगसेडिं चडंति । दस पत्तेयबुद्धा चढंति, बोहियबुद्धा अद्वत्तरसयमेत्ता, सग्गच्चुआ तत्तिया चेव । उक्कस्सोगाहणाए दोण्णि खवगसेडिं चडंति', जहण्णोगाहणाए चत्तारि, मज्झिमोगाहणाए अट्ठ । पुरिसवेदेण अत्तरसयमेत्ता, णउंसयवेदेण दस, इथिवेदेण वीसं । एदेसिमद्धमेत्ता उवसमसेटिं चढंति त्ति घेत्तव्यं । खीगकसायवीदरागछदुमत्था तत्तिया चेव ॥ २४७॥ केत्तिया ? अदुत्तरसयमेत्ता । कुदो ? संजमसामण्णविवक्खादो । गुणकार क्या है ? दो रूप गुणकार है। शंका--क्षपकोंका गुणकार दो होनेका कारण क्या है ? समाधान-चूंकि, ज्ञान, वेद आदि सर्व विकल्पोंमें उपशमश्रेणीपर चढ़नेवाले जीवोंसे क्षपकश्रेणीपर चढ़नेवाले जीव दुगुणे होते हैं, इस प्रकार आचार्योंका उपदेश पाया जाता है। एक समयमें एक साथ छह तीर्थकर क्षपकश्रेणीपर चढ़ते हैं । दश प्रत्येकबुद्ध, एक सौ आठ बोधितवुद्ध और स्वर्गसे च्युत होकर आये हुए उतने ही जीव अर्थात् एक सौ आठ जीव क्षपकश्रेणीपर चढ़ते हैं। उत्कृष्ट अवगाहनावाले दो जीव क्षपक श्रेणीपर चढ़ते हैं। जघन्य अवगाहनावाले चार और ठीक मध्यम अवगाहनावाले आठ जीव एक साथ क्षपकश्रेणीपर चढ़ते हैं । पुरुषवेदके उदयके साथ एक सौ आठ, नपुंसकवेदके उदयसे दश और स्त्रीवेदके उदयसे बीस जीव क्षपकश्रेणीपर चढ़ते हैं। इन उपर्युक्त जीवोंके आधे प्रमाण जीव उपशमश्रेणीपर चढ़ते हैं, ऐसा अर्थ ग्रहण करना चाहिए। संयतोंमें क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ जीव पूर्वोक्त प्रमाण ही हैं ॥ २४७॥ शंका-क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ कितने होते हैं ? समाधान-एक सौ आठ होते हैं, क्योंकि, यहांपर संयम-सामान्यकी विवक्षा की गई है। १दो चेवुकोसाए चउर जहनाए मज्झिमाए । अढहियं सयं खलु सिज्झइ ओगाहणार तहा ॥ प्रवच द्वा. ५०, ४७५. २ होति खवा इगिसमये बोहियबुद्धा य पुरिसवेदा य । उकस्सेण?त्तरसयप्पमा सग्गदो य चुदा ॥ पत्तेयबुद्धतित्थयरस्थिणउंसयमणोहिणाणजुदा । दसछकवीसदसवीसट्ठावीसं जहाकमसो ॥ जेट्ठावरबहुमझिमओगाहणगा दुचारि अवेव । जुगवं हवंति खवगा उवसमगा अद्धमेदेसि ॥ गो. जी. ६२९-६३१. Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ८, २४८. सजोगिकेवली अजोगिकेवली पवेसणेण दो वि तुल्ला तत्तिया चेव ॥ २४८॥ सुबोज्झमेदं । सजोगिकेवली अद्धं पडुच्च संखेज्जगुणा ॥ २४९ ॥ कुदो ? एगसमयादो संचयकालसमूहस्स संखेज्जगुणतुवलंभा। अप्पमत्तसंजदा अक्खवा अणुवसमा संखेज्जगुणा ॥ २५० ॥ को गुणगारो ? संखेज्जसमया । एत्थ ओघकारणं चिंतिय बत्तव्वं । पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा ॥२५१ ॥ को गुणगारो ? दोण्णि रूवाणि । पमत्त-अप्पमत्तसंजदट्टाणे सव्वत्थोवा उवसमसम्मादिट्ठी॥२५२॥ कुदो ? अंतोमुहुत्तसंचयादो। खइयसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा ॥२५३ ॥ संयतोंमें सयोगिकेवली और अयोगिकेवर्ली जिन ये दोनों ही प्रवेशकी अपेक्षा तुल्य और पूर्वोक्त प्रमाण ही हैं ॥ २४८ ॥ यह सूत्र सुगम है। संयतोंमें सयोगिकेवली संचयकालकी अपेक्षा संख्यातगुणित हैं ॥ २४९ ॥ क्योंकि, एक समयकी अपेक्षा संचयकालका समूह संख्यातगुणा पाया जाता है। संयतोंमें सयोगिकेवली जिनोंसे अक्षपक और अनुपशामक अप्रमत्तसंयत जीव संख्यातगुणित हैं ॥ २५० ॥ गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है। यहांपर राशिके ओघके समान होनेका कारण चिन्तवन कर कहना चाहिए। इसका कारण यह है कि दोनों स्थानोंपर संयम-सामान्य ही विवक्षित है (देखो सूत्र नं. ८)। संयतोंमें अप्रमत्तसंयतोंसे प्रमत्तसंयत जीव संख्यातगुणित हैं ॥ २५१ ॥ गुणकार क्या है ? दो रूप गुणकार है। संयतोंमें प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानमें उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं ॥ २५२ ॥ क्योंकि, उनका संचयकाल अन्तर्मुहूर्त है। संयतोंमें प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानमें उपशमसम्यग्दृष्टियोंसे क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं ॥ २५३ ।। www.jainelibrary Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ८, २६०.] अप्पाबहुगाणुगमे संजद-अप्पाबहुगपरूवणं [ ३२५ कुदो ? पुव्वकोडिसंचयादो। वेदगसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा ॥ २५४ ॥ खओवसमियसम्मत्तादो। एवं तिसु अद्धासु ॥ २५५ ॥ सव्वत्थोवा उवसमा ॥ २५६ ॥ खवा संखेज्जगुणा ॥ २५७ ॥ एदाणि तिण्णि वि सुत्ताणि सुगमाणि । सामाइयच्छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदेसु दोसु अद्धासु उवसमा पवेसणेण तुल्ला थोवा ॥ २५८ ॥ खवा संखेज्जगुणा ॥२५९ ॥ अप्पमत्तसंजदा अक्खवा अणुवसमा संखेज्जगुणा ॥ २६०॥ क्योंकि, उनका संचयकाल पूर्वकोटी वर्ष है। संयतोंमें प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानमें क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंसे वेदकसम्यग्दृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं ॥ २५४ ॥ क्योंकि, वेदकसम्यग्दृष्टियोंके क्षायोपशमिक सम्यक्त्व होता है (जिसकी प्राप्ति ___ इसी प्रकार संयतोंमें अपूर्वकरण आदि तीन गुणस्थानोंमें सम्यक्त्वसम्बन्धी अल्पबहुत्व है ॥ २५५ ॥ उक्त गुणस्थानों में उपशामक जीव सबसे कम हैं ॥ २५६ ॥ उपशामकोंसे क्षपक जीव संख्यातगुणित हैं ।। २५७ ॥ ये तीनों ही सूत्र सुगम हैं। सामायिक और छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयतोंमें अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण, इन दोनों गुणस्थानों में उपशामक जीव प्रवेशकी अपेक्षा तुल्य और अल्प हैं ॥ २५८ ॥ उपशामकोंसे क्षपक जीव संख्यातगुणित हैं ॥ २५९ ॥ क्षपकोंसे अक्षपक और अनुपशामक अप्रमत्तसंयत संख्यातगुणित हैं ।। २६०॥ १ संयमानुवादेन सामायिकच्छेदोपस्थापनशुद्धिसंयतेषु द्वयोरुपशमकयोस्तुल्यसंख्या । स. सि. १, ८. २ ततः संख्येयगुणौ क्षपको । स. सि. १, ८. ३ अप्रमत्ताः संख्येयगुणा: स. सि. १, ८. सुलभ है)। Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ८, २६१. पमत्तसंजदा संखेजगुणा ॥२६१ ॥ एदाणि सुत्ताणि सुगमाणि । पमत्त-अप्पमत्तसंजदट्ठाणे सव्वत्थोवा उवसमसम्मादिट्ठी ॥२६२॥ कुदो ? अंतोमुहुत्तसंचयादो। खइयसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा ॥ २६३ ॥ पुव्वकोडिसंचयादो। वेदगसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा ॥ २६४ ॥ खओवसमियसम्मत्तादो । एवं दोसु अद्धासु ॥ २६५॥ सव्वत्थोवा उवसमा ॥ २६६ ॥ खवा संखेज्जगुणा ॥ २६७॥ एदाणि तिण्णि वि सुत्ताणि सुगमाणि । अप्रमत्तसंयतोंसे प्रमत्तसंयत संख्यातगुणित हैं ॥ २६१ ॥ ये सूत्र सुगम हैं। सामायिक और छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयतोंमें प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानमें उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं ॥ २६२ ॥ क्योंकि, उनका संचयकाल अन्तर्मुहूर्त है। सामायिक और छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयतोंमें प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानमें उपशमसम्यग्दृष्टियोंसे क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं ।। २६३ ॥ क्योंकि, उनका संचयकाल पूर्वकोटी वर्ष है। सामायिक और छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयतोंमें प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानमें क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंसे वेदकसम्यग्दृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं ॥ २६४॥ क्योंकि, वेदकसम्यग्दृष्टियोंके क्षायोपशमिक सम्यक्त्व होता है (जिसकी प्राप्ति सुलभ है)। इसी प्रकार उक्त जीवोंका अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण, इन दोनों गुणस्थानोंमें सम्यक्त्वसम्बन्धी अल्पबहुत्व है ॥ २६५॥ उक्त जीवोंमें उपशामक सबसे कम हैं ॥ २६६ ॥ उपशामकोंसे क्षपक संख्यातगुणित हैं ॥ २६७ ॥ ये तीनों ही सूत्र सुगम हैं। १ प्रमाः संख्येयगुणाः । स. सि. १, ८. Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ८, २७१.] अप्पाबहुगाणुगमे संजद-अप्पाबहुगपख्वणं [३२७ परिहारसुद्धिसंजदेसु सव्वत्थोवा अप्पमत्तसंजदा ॥२६८ ॥ सुगममेदं। पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा ॥२६९ ॥ को गुणगारो ? दो रूवाणि। पमत्त-अप्पमत्तसंजदट्टाणे सव्वत्थोवा खइयसम्मादिट्ठी ॥२७०॥ कुदो ? खइयसम्मत्तस्स पउरं संभवाभावा । वेदगसम्मादिट्टी संखेज्जगुणा ॥ २७१॥ कुदो ? खओवसमियसम्मत्तस्स पउरं संभवादो । एत्थ उवसमसम्मत्तं णत्थि, तीसं वासेण विणा परिहारसुद्धिसंजमस्स संभवाभावा । ण च तेत्तियकालमुवसमसम्मतस्सावट्ठाणमस्थि, जेण परिहारसुद्धिसंजमेण उवसमसम्मत्तस्सुवलद्धी होज ? ण च परिहारसुद्धिसंजमछदंतस्स उवसमसेडीचडणटुं दंसणमोहणीयस्सुवसामण्णं पि संभवइ, जेणुवसमसेडिम्हि दोण्हं पि संजोगो होज । परिहारशुद्धिसंयतोंमें अप्रमत्तसंयत जीव सबसे कम हैं ॥ २६८ ॥ यह सूत्र सुगम है। परिहारशुद्धिसंयतोंमें अप्रमत्तसंयतोंसे प्रमत्तसंयत संख्यातगुणित हैं ॥ २६९ ॥ गुणकार क्या है ? दो रूप गुणकार है। परिहारशुद्धिसंयतोंमें प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानमें क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं ॥ २७० ॥ क्योंकि, क्षायिकसम्यक्त्वका प्रचुरतासे होना संभव नहीं है। ___ परिहारशुद्धिसंयतोंमें प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानमें क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंसे वेदकसम्यग्दृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं ॥ २७१ ॥ _ क्योंकि, क्षायोपशमिकसम्यक्त्वका प्रचुरतासे होना संभव है। यहां परिहारशुद्धिसंयतोंमें उपशमसम्यक्त्व नहीं होता है, क्योंकि, तीस वर्षके विना परिहारशुद्धिसंयमका होना संभव नहीं है। और न उतने काल तक उपशमसम्यक्त्वका अवस्थान रहता है, जिससे कि परिहारशुद्धिसंयमके साथ उपशमसम्यक्त्वकी उपलब्धि हो सके ? दूसरी बात यह है कि परिहारशुद्धिसंयमको नहीं छोड़नेवाले जीवके उपशमश्रेणीपर चढ़नेके लिए दर्शनमोहनीयकर्मका उपशमन होना भी संभव नहीं है, जिससे कि उपशमश्रेणीमें उपशमसम्यक्त्व और परिहारशुद्धिसंयम, इन दोनोंका भी संयोग हो सके। १ परिहारविशुद्धिसंयतेषु अप्रमतेभ्यः प्रमत्ताः संख्येयाणाः । स.सि. १, .......... Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ८, २७२. सुहुमसां पराइयमुद्धिसंजदेसु सुहुमसां पराइयज्वसमा थोवा' ॥ २७२ ॥ कुदो ? चउवण्णपमाणत्तादो । खवा संखेज्जगुणा ॥ २७३ ॥ को गुणगारो ? दोणि रुवाणि । जधाक्खादविहार सुद्धिसंजदेसु अक्साइभंगो ॥ २७४ ॥ जधा अकसाईणमप्पाबहुगं उत्तं तथा जहाक्खादविहार सुद्धिसंजदाणं पि कादव्त्रमिदि उत्तं होदि । संजदासंजदेसु अप्पाबहुअं णत्थि ॥ २७५ ॥ पदत्ताद । एत्थ सम्मत्तप्पा बहुअं उच्चदे । तं जहासंजदासंजदाणे सव्वत्थोवा खइयसम्मादिट्टी ॥ २७६ ॥ कुदो ? संखेज्जपमाणत्तादो । सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयतोंमें सूक्ष्मसाम्परायिक उपशामक जीव अल्प हैं ॥ २७२ ॥ क्योंकि, उनका प्रमाण चौपन है । सूक्ष्मसाम्परायिक शुद्धिसंयतों में उपशामकों से क्षपक जीव संख्यातगुणित हैं ।। २७३ ॥ गुणकार क्या है ? दो रूप गुणकार है । यथाख्यातविहारशुद्धिसंयतों में अल्पबहुत्व अकषायी जीवोंके समान है || २७४॥ जिस प्रकार अकषायी जीवोंका अल्पबहुत्व कहा है, उसी प्रकार यथाख्यातविहारशुद्धिसंयतोंका भी अल्पबहुत्व करना चाहिए, यह अर्थ कहा गया है । संयतासंयत जीवोंमें अल्पबहुत्व नहीं है ।। २७५ ।। क्योंकि, संयतासंयत जीवोंके एक ही गुणस्थान होता है । यहांपर सम्यक्त्वसम्बन्धी अल्पबहुत्व कहते हैं । वह इस इस प्रकार है संयतासंयत गुणस्थान में क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं || २७६ ॥ क्योंकि, उनका प्रमाण संख्यात ही है । १ सूक्ष्मसाम्परायशुद्धिसंयतेषु उपशमकेभ्यः क्षपकाः संख्ये यगुणाः । स. सि. १, ८. २ यथाख्यातविहारशुद्धिसंयतेषु उपशान्तकषायेभ्यः क्षीणकषायाः संख्येयगणाः । अयोगिकेवलिनस्तावन्त ए । स्योगिकेवलिनः संख्येयगुणाः । स. सि. १,८० ३. संत संतान नास्त्यस्य बहुत्वम् । स. सि. १, ८. Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ८, २८१.] अप्पाबहुगाणुगमे संजदासजद-असंजद-अप्पाबहुगपरूवणं [३२९ उवसमसम्मादिट्टी असंखेज्जगुणा ॥ २७७ ॥ को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, असंखेज्जाणि पलिदोवमपढमवग्गमूलाणि । वेदगसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥ २७८ ॥ को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो । कारणं जाणिदूण वत्तव्यं । असंजदेसु सव्वत्थोवा सासणसम्मादिट्ठी ॥ २७९ ॥ कुदो ? छावलियसंचयादो । सम्मामिच्छादिट्ठी संखेज्जगुणा ॥२८०॥ कुदो ? संखेज्जावलियसंचयादो। असंजदसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥२८१ ॥ को गुणगारो ? आवलियाए असंखेञ्जदिभागो । कुदो ? साभावियादो । संयतासंयत गुणस्थानमें क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंसे उपशमसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं ॥ २७७ ॥ गुणकार क्या है ? पल्योपमका असंख्यातवां भाग गुणकार है, जो पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण है। संयतासंयत गुणस्थानमें उपशमसम्यग्दृष्टियोंसे वेदकसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणित है ।। २७८ ॥ गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है। इसका कारण जानकर कहना चाहिए । (देखो सूत्र नं. २०)। असंयतोंमें सासादनसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं ॥ २७९॥ क्योंकि, उनका संचयकाल छह आवलीमात्र है। असंयतोंमें सासादनसम्यग्दृष्टियोंसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं ॥ २८०॥ क्योंकि, उनका संचयकाल संख्यात आवलीप्रमाण है। असंयतोंमें सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंसे असंयतसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं ॥ २८१ ॥ गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है, क्योंकि, यह स्वाभाविक है। १ असंयतेषु सर्वतः स्तोकाः सासादनसम्यग्दृष्टयः । स. सि. १, ८. २ सम्यग्मिथ्यादृष्टयः संख्येयगुणाः । स. सि. १, ८. ३ असंयतसम्यग्दृष्टयोऽसंख्येयगुणाः । स.सि. १,८. Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ८, २८२० मिच्छादिट्ठी अणंतगुणा ॥ २८२ ॥ को गुणगारो ? अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो, सिद्धेहि वि अणंतगुणो, अणंताणि सव्वजीवरासिपढमवग्गमूलाणि । कुदो ? साभावियादो । असंजदसम्मादिहिट्ठाणे सव्वत्थोवा उवसमसम्मादिट्ठी ॥२८३॥ कुदो ? अंतोमुहुत्तसंचयादो। खइयसम्मादिट्टी असंखेज्जगुणा ॥ २८४ ॥ कुदो ? सागरोवमसंचयादो। को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो। कुदो ? साभावियादो। वेदगसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥ २८५॥ को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो । कुदो ? साभावियादो । एवं संजममग्गणा समत्ता। असंयतोंमें असंयतसम्यग्दृष्टियोंसे मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तगुणित हैं ॥२८२ ॥ गुणकार क्या है ? अभव्यसिद्धोंसे अनन्तगुणित और सिद्धोंसे भी अनन्तगुणित राशि गुणकार है, जो सर्व जीवराशिके अनन्त प्रथम वर्गमूलप्रमाण है, क्योंकि, यह स्वाभाविक है। __ असंयतोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं ॥ २८३ ॥ क्योंकि, उनका संचयकाल अन्तर्मुहूर्त है। असंयतोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें उपशमसम्यग्दृष्टियोंसे क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं ॥ २८४ ॥ क्योंकि, उनका संचयकाल सागरोपम है । गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है, क्योंकि, यह स्वाभाविक है। असंयतोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंसे वेदकसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं ॥ २८५ ॥ गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है, क्योंकि, यह स्वाभाविक है। इस प्रकार संयममार्गणा समाप्त हुई। १ मिथ्यादृष्टयोऽनन्तगुणाः । स. सि. १, ८. Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ८, २८९.] अप्पाबहुगाणुगमे चदुदंसणि-अप्पाबहुगपरूवणं [३३१ दंसणाणुवादेण चक्खुदसणि-अचक्खुदंसणीसु मिच्छादिटिप्पहुडि जाव खीणकसायवीदरागछदुमत्था त्ति ओघं ॥२८६ ॥ जधा ओघम्हि एदेसिमप्पाबहुगं परूविदं तधा एत्थ वि परूवेदव्यं, विसेसाभावा । विसेसपरूवणट्टमुत्तरसुत्तं भणदि णवरि चक्खुदंसणीसु मिच्छादिट्ठी असंखज्जगुणा ॥२८७॥ को गुणगारो ? पदरस्स असंखेज्जदिभागो, असंखेज्जाओ सेडीओ, सेडीए' असंखेज्जदिमागमेत्ताओ । कुदो ? साभावियादो । ओधिदंसणी ओधिणाणिभंगो ॥ २८८ ॥ केवलदसणी केवलणाणिभंगों ॥ २८९ ॥ दो वि सुत्ताणि सुगमाणि । एवं दंसणमग्गणा समत्ता । दर्शनमार्गणाके अनुवादसे चक्षुदर्शनी और अचक्षुदर्शनी जीवोंमें मिथ्यादृष्टिसे लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक अल्पबहुत्व ओघके समान है ॥ २८६ ॥ जिस प्रकार ओघमें इन गुणस्थानवर्ती जीवोंका अल्पबहुत्व कहा है, उसी प्रकार यहांपर भी कहना चाहिए, क्योंकि, दोनों में कोई विशेषता नहीं है। अब चक्षुदर्शनी जीवोंमें सम्भव विशेषताके प्ररूपण करनेके लिए उत्तर सूत्र कहते हैं विशेषता यह है कि चक्षुदर्शनी जीवोंमें असंयतसम्यग्दृष्टियोंसे मिथ्यादृष्टि असंख्यातगुणित हैं ॥ २८७ ॥ गुणकार क्या है ? जगप्रतरका असंख्यातवां भाग गुणकार है, जो असंख्यात जगणिप्रमाण है। वे जगणियां भी जगश्रेणीके असंख्यातवें भागमात्र हैं । इसका कारण क्या है ? ऐसा स्वभावसे है। अवधिदर्शनी जीवोंका अल्पबहुत्व अवधिज्ञानियोंके समान है ॥ २८८ ॥ केवलदर्शनी जीवोंका अल्पबहुत्व केवलज्ञानियोंके समान है ।। २८९ ॥ ये दोनों ही सूत्र सुगम हैं। इस प्रकार दर्शनमार्गणा समाप्त हुई। १ दर्शनानुवादेन चक्षुर्दर्शनिना मनोयोगिवत् । अचक्षुर्दर्शनिना काययोगिवत् । स. सि. १, ८. २ प्रतिषु । सेडीओ खवगसेडी असंखेज्जदिभागो सेडीए' इति पाठः। ३ अनधिदर्शनिनामवधिज्ञानिवत् । स.सि.१,८. ४ केवलदर्शनिनां केवलज्ञानिवत् । स. सि.१,८. Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं ...[ १, ८, २९०. लेस्साणुवादेण किण्हलेस्सिय-णीललेस्सिय-काउलेस्सिएसु सव्वत्थोवा सासणसम्मादिट्ठीं ॥ २९० ॥ सुगममेदं । सम्मामिच्छादिट्ठी संखेज्जगुणा ॥ २९१ ॥ को गुणगारो ? संखेज्जसमया । असंजदसम्मादिट्री असंखेज्जगुणा ॥ २९२ ॥ को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो । कुदो ? साभावियादो । मिच्छादिट्ठी अणंतगुणा ॥ २९३ ॥ को गुणगारो ? अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो, सिद्धेहि वि अणंतगुणो, अणंताणि सव्वजीवरासिपढमवग्गमूलाणि । असंजदसम्मादिडिट्ठाणे सव्वत्थोवा खइयसम्मादिट्ठी ।। २९४ ॥ लेश्यामार्गणाके अनुवादसे कृष्णलेश्या, नीललेश्या और कापोतलेश्यावाले जीवोंमें सासादनसम्यग्दृष्टि सबसे कम हैं ॥ २९० ।। यह सूत्र सुगम है। कृष्ण, नील और कापोतलेश्यावालोमें सासादनसम्यग्दृष्टियोंसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं ॥ २९१ ॥ गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है । कृष्ण, नील और कापोतलेश्यावालोंमें सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंसे असंयतसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं ।। २९२ ॥ गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है, क्योंकि, यह स्वाभाविक है। कृष्ण, नील और कापोतलेश्यावालोंमें असंयतसम्यग्दृष्टियोंसे मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तगुणित हैं ॥ २९३ ॥ गुणकार क्या है ? अभव्यसिद्धोंसे अनन्तगुणित और सिद्धोंसे भी अनन्तगुणित राशि गुणकार है, जो सर्व जीवराशिके अनन्त प्रथम वर्गमूलप्रमाण है। कृष्ण, नील और कापोतलेश्यावालोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें क्षायिकसम्यग्दृष्टि सबसे कम हैं ॥ २९४ ॥ १ लेश्यानुवादेन कृष्णनीलकापोतलेश्यानां असंयतवत् । स. सि. १, ८. Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ८, २९८.] अप्पाबहुगाणुगमे किण्ह-णील-काउलेस्सिय-अप्पाबहुगपरूवणं [३३३ कुदो ? मणुसकिण्ह-णीललेस्सियसंखेज्जखइयसम्मादिविपरिग्गहादो । उवसमसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥ २९५ ॥ को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो । कुदो ? गैरइएसु किण्हलेस्सिएसु पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्तउत्रसमसम्मादिट्ठीणमुवलंभा। वेदगसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥ २९६ ॥ को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो । सेसं सुगमं । णवरि विसेसो, काउलेस्सिएसु असंजदसम्मादिहिट्ठाणे सव्वत्थोवा उवसमसम्मादिट्ठी ॥ २९७ ॥ कुदो ? अंतोमुहुत्तसंचयादो। खइयसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥ २९८ ॥ कुदो ? पढमपुढविहिं संचिदखइयसम्मादिट्टिग्गहणादो । को गुणगारो ? आवलियाए असंखेजदिभागो । क्योंकि, यहां पर कृष्ण और नीललेश्यावाले संख्यात क्षायिकसम्यग्दृष्टि मनुष्योंका ग्रहण किया गया है । कृष्ण, नील और कापोतलेश्यावालोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंसे उपशमसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं ॥ २९५ ॥ गुणकार क्या है ? पल्योपमका असंख्यातवां भाग गुणकार है, क्योंकि, कृष्णलेश्यावाले नारकियोंमें पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंका सद्भाव पाया जाता है। कृष्ण, नील और कापोतलेश्यावालोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें उपशमसम्यग्दृष्टियोंसे वेदकसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं ॥ २९६ ॥ गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है। शेष सूत्रार्थ सुगम है। केवल विशेषता यह है कि कापोतलेश्यावालोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं ॥ २९७ ॥ क्योंकि, उनका संचयकाल अन्तर्मुहूर्त है। कापोतलेश्यावालोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें उपशमसम्यदृष्टियोंसे क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं ॥ २९८ ॥ क्योंकि, यहां पर प्रथम पृथिवीमें संचित क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंका ग्रहण किया गया है । गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है। Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेक्खडागमे जीवट्ठाण [१, ८, २९९. वेदगसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥ २९९ ॥ को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो । तेउलेस्सिय-पम्मलेस्सिएसु सव्वत्थोवा अप्पमत्तसंजदा ॥३०॥ कुदो ? संखेज्जपरिमाणत्तादो । पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा ॥ ३०१ ॥ को गुणगारो ? दो रूवाणि । संजदासजदा असंखेज्जगुणा ॥३०२॥ को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, असंखेज्जाणि पलिदोवमपढमवग्गमूलाणि । सासणसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥३०३ ॥ को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो । कुदो ? सोहम्मीसाण-सणक्कुमारमाहिंदरासिपरिग्गहादो। कापोतलेश्यावालोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंसे वेदकसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं ॥ २९९ ॥ गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है। तेजोलेश्या और पद्मलेश्यावालोंमें अप्रमत्तसंयत जीव सबसे कम हैं ॥ ३०० ॥ क्योंकि, उनका परिमाण संख्यात है। तेजोलेश्या और पद्मलेश्यावालोंमें अप्रमत्तसंयतोंसे प्रमत्तसंयत जीव संख्यातगुणित हैं ॥ ३०१॥ गुणकार क्या है ? दो रूप गुणकार है। तेजोलेश्या और पालेश्यावालोंमें प्रमत्तसंयतोंसे संयतासंयत जीव असंख्यातगुणित हैं ॥ ३०२॥ गुणकार क्या है ? पल्योपमका असंख्यातवां भाग गुणकार है, जो पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण है। तेजोलेश्या और पद्मलेश्यावालोंमें संयतासंयतोंसे सासादनसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं ॥ ३०३॥ गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है, क्योंकि, यहां पर सौधर्म-ईशान और सनत्कुमार-माहेन्द्र कल्पसम्बन्धी देवराशिको ग्रहण किया गया है। १ तेजःपालेश्यानां सर्वतः स्तोका अप्रमत्ताः । स. सि. १.४. २ प्रमत्ता: संख्येयगुणाः । स. सि. १, ८. ३ एवमितरेषां पंचेन्द्रियवत् । स. सि. १,८. Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३३५ १, ८, ३०७.] अप्पाबहुगाणुगमे तेउ-पम्मलेस्सिय-अप्पाबहुगपरूवणं सम्मामिच्छादिट्टी संखेज्जगुणा ॥ ३०४ ॥ को गुणगारो ? संखेज्जा समया । असंजदसम्मादिट्ठी असंखेजगुणा ॥ ३०५॥ को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो । सेसं सुबोझं । मिच्छादिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥ ३०६॥ को गुणगारो ? पदरस्स असंखेज्जदिभागो, असंखेज्जाओ सेडीओ, सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ताओ । को पडिभागो ? घणंगुलस्स असंखेज्जदिभागो, असंखेजाणि पदरंगुलाणि । असंजदसम्मादिट्टि-संजदासंजद-पमत्त-अप्पमत्तसंजदट्ठाणे सम्मत्तप्पाबहुअमोघं ॥ ३०७॥ जधा ओघम्हि अप्पाबहुअमेदेसिं उत्तं सम्मत्तं पडि, तधा एत्थ सम्मत्तप्पाबहुगं वत्तव्यमिदि वुत्तं होइ। तेजोलेश्या और पद्मलेश्यावालोंमें सासादनसम्यग्दृष्टियोंसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं ॥ ३०४ ॥ गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है । तेजोलेश्या और पद्मलेश्यावालोंमें सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंसे असंयतसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं ॥ ३०५॥ ___ गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है। शेष सूत्रार्थ सुगम है। तेजोलेश्या और पद्मलेश्यावालोंमें असंयतसम्यग्दृष्टियोंसे मिथ्यादृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं ।। ३०६॥ गुणकार क्या है ? जगप्रतरका असंख्यातवां भाग गुणकार है, जो जगश्रेणीके असंख्यातवें भागमात्र असंख्यात जगश्रेणीप्रमाण है। प्रतिभाग क्या है ? घनांगुलका असंख्यातवां भाग प्रतिभाग है, जो असंख्यात प्रतरांगुलप्रमाण है। तेजोलेश्या और पद्मलेश्यावालोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानमें सम्यक्त्वसम्बन्धी अल्पबहुत्व ओघके समान है ॥३०७॥ जिस प्रकार ओघमें इन गुणस्थानोंका सम्यक्त्वसम्बन्धी अल्पबहुत्व कहा है, उसी प्रकार यहांपर सम्यक्त्वसम्बन्धी अल्पबहुत्व कहना चाहिए, यह अर्थ कहा गया है। Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ८, ३०८. सुकले स्सिएस तिसु अद्धासु उवसमा पवेसणेण तुल्ला थोवा' 11 306 11 सुगममेदं । उवसंतकसायवीदरा गछदुमत्था तत्तिया चेव ॥ ३०९ ॥ कुदो ? चउवण्णपमाणत्तादो । खवा संखेज्जगुणा ॥ ३१० ॥ अङ्कुत्तरसदपरिमाणत्तादो । खीण कसायवीदरागछदुमत्था तत्तिया चेव ॥ ३११ ॥ सुगममेदं । सजोगिकेवली पवेसणेण तत्तिया चेव ॥ ३१२ ॥ एदं पि सुगमं । सजोगिकेवली अद्धं पडुच्च संखेज्जगुणा ॥ ३१३ ॥ शुक्लश्यावालों में अपूर्वकरण आदि तीन गुणस्थानोंमें उपशामक जीव प्रवेशकी अपेक्षा तुल्य और अल्प हैं ॥ ३०८ ॥ यह सूत्र सुगम है । शुक्कलेश्यावालोंमें उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ जीव पूर्वोक्त प्रमाण ही हैं ॥ ३०९ ॥ क्योंकि, उनका प्रमाण चौपन है । शुक्कलेश्यावालों में उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थोंसे क्षपक जीव संख्यातगुणित हैं ॥ ३१० ॥ क्योंकि, उनका परिमाण एक सौ आठ है । शुक्लेश्यावालों में क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ जीव पूर्वोक्त प्रमाण ही हैं ॥ ३११ ॥ यह सूत्र सुगम है । शुक्ललेश्यावालों में सयोगिकेवली प्रवेशकी अपेक्षा पूर्वोक्त प्रमाण ही हैं ॥ ३१२॥ 'यह सूत्र भी सुगम है । शुक्ललेश्यावालोंमें सयोगिकेवली संचयकालकी अपेक्षा संख्यातगुणित हैं ॥ ३१३ ॥ १ शुक्ललेश्यानां सर्वतः स्तोका उपशमकाः । स. सि. १, ८. २ क्षपकाः संख्ये यगुणाः । स. सि. १, ८. ३ सयोगकेवलिनः संख्येयगुणाः । स. सि. १, ८. Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ८, ३१८.] अप्पाबहुगाणुगमे सुक्कलेस्सिय-अप्पाबहुगपरूवणं को गुणगारो ? ओघसिद्धो । अप्पमत्तसंजदा अक्खवा अणुवसमा संखेज्जगुणा ॥ ३१४ ॥ को गुणगारो ? संखेज्जसमया । पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा ॥३१५॥ को गुणगारो ? दोण्णि रूवाणि । संजदासजदा असंखेजगुणा ॥ ३१६ ॥ को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, असंखेज्जाणि पलिदोवमपढमवग्गमूलाणि । सासणसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥ ३१७॥ को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो । सम्मामिच्छादिट्ठी संखेज्जगुणा ॥३१८ ॥ गुणकार क्या है ? ओघमें बतलाया गया गुणकार ही यहांपर गुणकार है। शुक्ललेश्यावालोंमें सयोगिकेवली जिनोंसे अक्षपक और अनुपशामक अप्रमत्तसंयत जीव संख्यातगुणित हैं ॥ ३१४ ॥ गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है। शुक्ललेश्यावालोंमें अप्रमत्तसंयतोंसे प्रमत्तसंयत जीव संख्यातगुणित हैं ॥३१५॥ गुणकार क्या है ? दो रूप गुणकार है। शुक्ललेश्यावालोंमें प्रमत्तसंयतोंसे संयतासंयत जीव असंख्यातगुणित हैं ॥३१६॥ गुणकार क्या है ? पल्योपमका असंख्यातवां भाग गुणकार है, जो पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण है। शुक्ललेश्यावालोंमें संयतासंयतोंसे सासादनसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं ॥ ३१७॥ गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है। शुक्ललेश्यावालोंमें सासादनसम्यग्दृष्टियोंसे सम्यग्मिध्यादृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं ॥ ३१८॥ ........................... १ अप्रमत्तसंयताः संख्येयगुणाः । स. सि. १, ८. २ प्रमत्तसंयताः संख्येयगुणाः । स. सि. १, ८. ३ संयतासंयताः (अ.) संख्येयगुणाः । स. सि. १,८. ४ सासादनसम्यग्दृष्टयः (अ.) संख्येयगुणाः । स. सि. १,८. ५ सम्यग्मिध्यादृष्टयः संख्येयगुणाः । स. सि. १,८. Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ८, ३१९. को गुणगारो ? संखेज्जा समया। मिच्छादिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥ ३१९ ॥ को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो । असंजदसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा ॥ ३२० ॥ आरणच्चुदरासिस्स पहाणत्तपरियप्पणादो।। असंजदसम्मादिहिट्ठाणे सव्वत्थोवा उवसमसम्मादिट्ठी॥३२१ ॥ कुदो ? अंतोमुहुत्तसंचयादो । खइयसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥ ३२२ ॥ को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो। वेदगसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा ॥ ३२३ ॥ खओवसमियसम्मत्तादो। गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है। शुक्ललेश्यावालोंमें सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंसे मिथ्यादृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं ॥ ३१९ ॥ गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है। शुक्ललेश्यावालोंमें मिथ्यादृष्टियोंसे असंयतसम्यग्दृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं ॥ ३२०॥ क्योंकि, यहांपर आरण-अच्युतकल्पसम्बन्धी देवराशिकी प्रधानता विवक्षित है। शुक्ललेश्यावालोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं ॥ ३२१ ॥ क्योंकि, उनका संचयकाल अन्तर्मुहूर्त है। शुक्ललेश्यावालोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें उपशमसम्यग्दृष्टियोंसे क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं ॥३२२ ॥ गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है। शुक्ललेश्यावालोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंसे वेदकसम्यग्दृष्टि संख्यातगुणित हैं ॥ ३२३ ॥ क्योंकि, वेदकसम्यग्दृष्टियोंके क्षायोपशमिक सम्यक्त्व होता है (जिसकी प्राप्ति सुलभ है)। १ मिथ्यादृष्टयोऽसंख्येयगुणाः । स. सि. १, ८. २ असंयतसम्यग्दृष्टयोऽसंख्येयगुणाः (१)। स. सि. १, ८. Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ८, ३२८.] अप्पाबहुगाणुगमे भविय-अप्पाबहुगपरूवर्ण [३३९ __ संजदासंजद-पमत्त-अप्पमत्तसंजदट्ठाणे सम्मत्तप्पाबहुगमोघं ॥ ३२४॥ जधा एदेसिमोघम्हि सम्मत्तप्पाबहुगं वुत्तं, तहा वत्तव्वं । एवं तिसु अद्धासु ॥ ३२५॥ सव्वत्थोवा उवसमा ॥ ३२६ ॥ खवा संखेज्जगुणा ॥ ३२७ ॥ एदाणि तिण्णि वि सुत्ताणि सुगमाणि । एवं लेस्सामग्गणा' समत्ता । भवियाणुवादेण भवसिद्धिएसु मिच्छाइट्ठी जाव अजोगिकेवाल त्ति ओघं ।। ३२८ ॥ एत्थ ओघअप्पाबहुअं अणूणाहियं वत्तव्यं । .............. शुक्ललेश्यावालोंमें संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानमें सम्यक्त्वसम्बन्धी अल्पबहुत्व ओघके समान है ।। ३२४ ॥ जिस प्रकार इन गुणस्थानोंका ओघमें सम्यक्त्वसम्बन्धी अल्पबहुत्व कहा है, उसी प्रकार यहांपर भी कहना चाहिए। इसी प्रकार शुक्ललेश्यावालोंमें अपूर्वकरण आदि तीन गुणस्थानोंमें सम्यक्त्वसम्बन्धी अल्पबहुत्व है ।। ३२५ ॥ उक्त गुणस्थानोंमें उपशामक जीव सबसे कम हैं ॥ ३२६ ॥ उपशामकोंसे क्षपक जीव संख्यातगुणित हैं ॥ ३२७॥ ये तीनों ही सूत्र सुगम हैं। इस प्रकार लेश्यामार्गणा समाप्त हुई। भव्यमार्गणाके अनुवादसे भव्यसिद्धोंमें मिथ्यादृष्टिसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक जीवोंका अल्पबहुत्व ओघके समान है ॥ ३२८ ॥ यहांपर ओघसम्बन्धी अल्पबहुत्व हीनता और अधिकतासे रहित अर्थात् तस्प्रमाण ही कहना चाहिए। १ अ-आप्रत्योः 'लेस्समग्गणा' इति पाठः। २ भव्यानुवादेन भव्यानां सामान्यवत् । स. सि. १,८. Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१.] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ८, ३२९. अभवसिद्धिएसु अप्पाबहुअं णत्थि ॥ ३२९ ॥ कुदो ? एगपदत्तादो। एवं भवियमग्गणा समत्ता । सम्मत्ताणुवादेण सम्मादिट्ठीसु ओधिणाणिभंगो ॥ ३३० ॥ जधा ओधिणाणीणमप्पाबहुगं परूविदं, तधा एत्थ परूवेदव्वं । णवरि सजोगिअजोगिपदाणि वि एत्थ अस्थि, सम्मत्तसामण्णे अहियारादो । खइयसम्मादिट्ठीसु तिसु अद्धासु उवसमा पवेसणेण तुल्ला थोवा ॥३३१॥ तप्पाओग्गसंखेज्जपमाणत्तादो। उवसंतकसायवीदरागछदुमत्था तत्तिया चेव ॥३३२ ॥ सुगममेदं । अभव्यसिद्धोंमें अल्पबहुत्व नहीं है ॥ ३२९ ॥ क्योंकि, उनके एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान ही होता है । इस प्रकार भव्यमार्गणा समाप्त हुई। सम्यक्त्वमार्गणाके अनुवादसे सम्यग्दृष्टि जीवोंमें अल्पबहुत्व अवधिज्ञानियोंके समान है ॥ ३३०॥ जिस प्रकार ज्ञानमार्गणामें अवधिशानियोंका अल्पबहुत्व कहा है, उसी प्रकार यहांपर भी कहना चाहिए। केवल विशेषता यह है कि सयोगिकेवली और अयोगिकेवली, ये दो गुणस्थानपद यहांपर होते हैं, क्योंकि, यहांपर सम्यक्त्वसामान्यका अधिकार है। क्षायिकसभ्यग्दृष्टियोंमें अपूर्वकरण आदि तीन गुणस्थानोंमें उपशामक जीव प्रवेशकी अपेक्षा तुल्य और अल्प हैं ॥ ३३१ ॥ क्योंकि, उनका तत्प्रायोग्य संख्यात प्रमाण है। क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें उपशान्तकषायवीतरागछमस्थ जीव पूर्वोक्त प्रमाण ही हैं ॥ ३३२ ॥ यह सूत्र सुगम है। १ अभव्यानां नास्त्यल्पबहुत्वम् । स. सि. १,८. २ सम्यक्त्वानुवादेन क्षायिकसम्यग्दृष्टिषु सर्वतः स्तोकाश्चत्वार उपशमकाः । स. सि. १,८. ३इतरेषां प्रमत्तान्तानां सामान्यवत् । स. सि. १,८, Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ८, ३३८.] अप्पाबहुगाणुगमे खइयसम्मादिहि-अप्पाबहुगपरूवणं [३४१ खवा संखेज्जगुणा ॥ ३३३ ॥ खीणकसायवीदरागछदुमत्था तत्तिया चेव ॥ ३३४ ॥ सजोगिकेवली अजोगिकेवली पवेसणेण दो वि तुल्ला तत्तिया चेव ॥ ३३५॥ एदाणि सुत्ताणि सुगमाणि । सजोगिकेवली अद्धं पडुच्च संखेज्जगुणा ॥ ३३६॥ गुणगारो ओघसिद्धो, खइयसम्मत्तविरहिदसजोगीणमभावा । अप्पमत्तसंजदा अक्खवा अणुवसमा संखेज्जगुणा ॥ ३३७ ॥ को गुणगारो ? तप्पाओग्गसंखेज्जरूवाणि । पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा ॥ ३३८ ॥ को गुणगारो ? दो रूवाणि । क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थोंसे क्षपक जीव संख्यातगुणित हैं ॥ ३३३ ॥ क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ पूर्वोक्त प्रमाण ही हैं ॥ ३३४ ॥ सयोगिकेवली और अयोगिकेवली, ये दोनों ही प्रवेशकी अपेक्षा तुल्य और पूर्वोक्त प्रमाण ही हैं ॥ ३३५ ॥ ये सूत्र सुगम हैं। सयोगिकेवली जिन संचयकालकी अपेक्षा संख्यातगुणित हैं ॥ ३३६ ॥ यहांपर गुणकार ओघ-कथित है, क्योंकि, क्षायिकसम्यक्त्वसे रहित सयोगिकेवली नहीं पाये जाते हैं। क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें अक्षपक और अनुपशामक अप्रमत्तसंयत जीव संख्यातगुणित हैं ॥ ३३७ ॥ गुणकार क्या है ? अप्रमत्तसंयतोंके योग्य संख्यातरूप गुणकार है। क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें अप्रमत्तसंयतोंसे प्रमत्तसंयत जीव संख्यातगुणित हैं ॥ ३३८॥ गुणकार क्या है ? दो रूप गुणकार है। Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ८, ३३९. संजदासजदा संखेज्जगुणा ॥ ३३९॥ मणुसगदि मोत्तूण अण्णत्थ खझ्यसम्मादिट्ठिसंजदासंजदाणमभावा । असंजदसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥ ३४०॥ को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, असंखेज्जाणि पलिदोवमपढमवग्गमूलाणि । असंजदसम्मादिट्ठि-संजदासंजद-पमत्त-अप्पमत्तसंजदट्ठाणे खइयसम्मत्तस्स भेदो णत्थि ॥ ३४१ ॥ एदस्स अहिप्पाओ- जेण खइयसम्मत्तस्स एदेसु गुणट्ठाणेसु भेदो णत्थि, तेण णत्थि सम्मत्तप्पाबहुगं, एयपयत्तादो । एसो अत्थो एदेण परूविदो होदि । वेदगसम्मादिट्ठीसु सव्वत्थोवा अप्पमत्तसंजदा ॥ ३४२ ॥ कुदो ? तप्पाओग्गसंखेजपमाणत्तादो । क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें प्रमत्तसंयतोंसे संयतासंयत जीव संख्यातगुणित हैं ॥३३९॥ क्योंकि, मनुष्यगतिको छोड़कर अन्य गतियों में क्षायिकसम्यग्दृष्टि संयतासंयत जीवोंका अभाव है। क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें संयतासंयतोंसे असंयतसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं ॥ ३४०॥ गुणकार क्या है ? पल्योपमका असंख्यातवां भाग गुणकार है, जो पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण है। क्षायिकसम्यग्दृष्टियों में असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानमें क्षायिकसम्यक्त्वका भेद नहीं है ॥ ३४१ ।। इस सूत्रका अभिप्राय यह है कि इन असंयतसम्यग्दृष्टि आदि चारों गुणस्थानोंमें क्षायिकसम्यक्त्वकी अपेक्षा कोई भेद नहीं है, इसलिए उनमें सम्यक्त्वसम्बन्धी अल्पबहुत्व नहीं है, क्योंकि, उन सबमें क्षायिकसम्यक्त्वरूप एक पद ही विवक्षित है। यह अर्थ इस सूत्रके द्वारा प्ररूपित किया गया है। वेदकसम्यग्दृष्टियोंमें अप्रमत्तसंयत जीव सबसे कम हैं ॥ ३४२ ।। क्योंकि, उनका तत्प्रायोग्य संख्यातरूप प्रमाण है। १ततः संयतासंयताः संख्येयगुणाः । स. सि. १,८. २ असंयतसम्यग्दृष्टयोऽसंख्येयगुणाः । स. सि. १, ८. ३सायोपशमिकसम्यग्दृष्टिषु सर्वतः स्तोकाः अप्रमत्ताः। स. सि. १,८. Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ८, ३४६.] अप्पाबहुगाणुगमे वेदगसम्मादिहि-अप्पाबहुगपरूवणं [३४३ पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा ॥ ३४३ ॥ को गुणगारो ? दो रूवाणि। संजदासजदा असंखेज्जगुणा ॥ ३४४ ॥ को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, असंखेज्जाणि पलिदोवमपढमवग्गमूलाणि । असंजदसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥ ३४५॥ को गुणगारो ? आवलियाए असंखेजदिभागो । असंजदसम्मादिहि-संजदासंजद-पमत्त-अप्पमत्तसंजदट्ठाणे वेदगसम्मत्तस्स भेदो पत्थि ॥ ३४६॥ एत्थ भेदसद्दो अप्पाबहुअपज्जाओ घेत्तव्यो, सद्दाणमणेयत्थत्तादो। वेदगसम्मत्तस्स भेदो अप्पाबहुअं णत्थि त्ति उत्तं होदि । वेदकसम्यग्दृष्टियोंमें अप्रमत्तसंयतोंसे प्रमत्तसंयत जीव संख्यातगुणित हैं ॥३४३॥ गुणकार क्या है ? दो रूप गुणकार है। वेदकसम्यग्दृष्टियोंमें प्रमत्तसंयतोंसे संयतासंयत जीव असंख्यातगुणित हैं ॥३४४॥ गुणकार क्या है ? पल्योपमका असंख्यातवां भाग गुणकार है, जो पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण है। वेदकसम्यग्दृष्टियोंमें संयतासंयतोंसे असंयतसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं ॥ ३४५ ॥ गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है । वेदकसम्यग्दृष्टियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानमें वेदकसम्यक्त्वका भेद नहीं है ॥ ३४६॥ यहांपर भेद शब्द अल्पबहुत्वका पर्यायवाचक ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि, शब्दोंके अनेक अर्थ होते हैं। इस प्रकार इस सूत्र द्वारा यह अर्थ कहा गया है कि इन गुणस्थानोंमें वेदकसम्यक्त्वका भेद अर्थात् अल्पबहुत्व नहीं है। १ प्रमत्ताः संख्येयगुणाः । स. सि. १, ८. २ संयतासंयताः (अ.) संख्येयगुणाः स. सि. १,८. ३ असंयतसम्यग्दृष्टयोऽसंख्येयगुणाः । स. सि. १,८. Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ८, ३४७. उवसमसम्मादिट्टीसु तिसु अद्धासु उवसमा पवेसणेण तुल्ला थोवा ॥ ३४७ ॥ ३४४ ] उवसंतकसायवीदरागछदुमत्था तत्तिया चेव ॥ ३४८ ॥ अप्पमत्त संजदा अणुवसमा संखेज्जगुणा ।। ३४९ ॥ दाणि सुत्ताणि सुगमाणि । पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा ॥ ३५० ॥ को गुणगारो ? दो रूवाणि । संजदासंजदा असंखेज्जगुणा ॥ ३५९ ॥ को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, असंखेज्जाणि पलिदोवमपढमवग्गमूलाणि । असंजदसम्मादिट्टी असंखेज्जगुणा ॥ ३५२ ॥ उपशमसम्यग्दृष्टियों में अपूर्वकरण आदि तीन गुणस्थानों में उपशामक जीव प्रवेशकी अपेक्षा तुल्य और अल्प हैं || ३४७ | उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ जीव पूर्वोक्त प्रमाण ही हैं ॥ ३४८ ॥ उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थोंसे अनुपशामक अप्रमत्तसंयत जीव संख्यातगुणित हैं ॥ ३४९ ॥ ये सूत्र सुगम हैं । उपशमसम्यग्दृष्टियों में अप्रमत्तसंयतोंसे प्रमत्तसंयत जीव संख्यातगुणित हैं ॥ ३५० ॥ गुणकार क्या है ? दो रूप गुणकार है । उपशमसम्यग्दृष्टियों में प्रमत्तसंयतों से संयतासंयत जीव असंख्यातगुणित हैं ।। ३५१ ।। गुणकार क्या है ? पल्योपमका असंख्यातवां भाग गुणकार है, जो पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण है । उपशमसम्यग्दृष्टियों में संयतासंयतों से असंयतसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं ।। ३५२ ॥ १ औपशमिकसम्यग्दृष्टीनां सर्वतः स्तोकाश्रत्वार उपशमकाः । स. सि. १, ८. २ अप्रमत्ताः संख्येयगुणाः । स. सि. १, ८. ४ संयतासंयताः ( अ ) संख्येयगुणाः । स. सि. १, ८. ५ असंयतसम्यग्दृष्टयोऽसंख्येयगुणाः । स. सि. १,८. ३ प्रमत्ताः संख्येयगुणाः । स. सि. १, ८. Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३१५ १, ८, ३५५.] अप्पाबहुगाणुगमे सण्णि-अप्पाबहुगपरूवणं को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो। असंजदसम्मादिहि-संजदासंजद-पमत्त-अप्पमत्तसंजदट्ठाणे उवसमसम्मत्तस्स भेदो णत्थि ॥ ३५३॥ सुगममेदं। सासणसम्मादिट्ठि-सम्मा(मिच्छादिहि)-मिच्छादिट्ठीणंणत्थि अप्पाबहुअं॥३५४ ॥ कुदो ? एगपदत्तादो। ___ एवं सम्मत्तमग्गणा समत्ता । सण्णियाणुवादेण सण्णीसु मिच्छादिटिप्पहुडि जाव खीणकसायवीदरागछदुमत्था त्ति ओघं ॥ ३५५॥ जधा ओघम्हि अप्पाबहुगं परूविदं तधा एत्थ परूवेदव्वं, सण्णित्तं पडि उहयत्थ भेदाभावा । विसेसपदुप्पायणमुत्तरसुत्तं भणदि गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है। उपशमसम्यग्दृष्टियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानमें उपशमसम्यक्त्वका अल्पबहुत्व नहीं है ॥ ३५३ ॥ यह सूत्र सुगम है। सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और मिथ्यादृष्टि जीवोंका अल्पबहुत्व नहीं है ॥ ३५४ ॥ क्योंकि, तीनों प्रकारके जीवोंके एक गुणस्थानरूप ही पद है। इस प्रकार सम्यक्त्वमार्गणा समाप्त हुई । संज्ञिमार्गणाके अनुवादसे संज्ञियोंमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर क्षीणकपायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक जीवोंका अल्पबहुत्व ओघके समान है ॥ ३५५ ॥ जिस प्रकार ओघमें इन गुणस्थानोंका अल्पबहुत्व कहा है, उसी प्रकार यहां पर भी प्ररूपण करना चाहिए, क्योंकि, संज्ञित्वकी अपेक्षा दोनों स्थानोंपर कोई भेद नहीं है । अब संशियोंमें संभव विशेषके प्रतिपादनके लिए उत्तर सूत्र कहते हैं १ शेषाणां नास्त्यल्पबहुत्वम्, विपक्षे एकैकगुणस्थानग्रहणात् । स. सि. १, ८. २ संज्ञानुवादेन संझिनां चक्षुर्दर्शनिबत् । स. सि. १, ८. Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ८, ३५६. णवरि मिच्छादिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥३५६॥ ओपमिदि वुत्ते अणंतगुणत्तं पत्तं, तण्णिरायरणटुं असंखेजगुणा इदि उत्तं । गुणगारो पदरस्स असंखेज्जदिभागो, असंखेज्जाओं सेडीओ, सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ताओ। असण्णीसु णत्थि अप्पाबहुअं ॥ ३५७ ॥ कुदो ? एगपदत्तादो। एवं सण्णिमग्गणा समत्ता । आहाराणुवादेण आहारएसु तिसु अद्धासु उवसमा पवेसणेण तुल्ला थोवा ॥ ३५८ ॥ चउवण्णपमाणत्तादो। उवसंतकसायवीदरागछदुमत्था तत्तिया चेव ॥३५९ ॥ सुगममेदं । विशेषता यह है कि संज्ञियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टियोंसे मिथ्यादृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं ।। ३५६ ॥ उपर्युक्त सूत्रमें 'ओघ' इस पदके कह देने पर असंयतसम्यग्दृष्टियोंसे संशी मिथ्यादृष्टि जीवोंके अनन्तगुणितता प्राप्त होती थी, उसके निराकरणके लिए इस सूत्रमें 'असंख्यातगुणित हैं ' ऐसा पद कहा है। यहां पर गुणकार जगप्रतरका असंख्यातवां भाग है, जो जगश्रेणीके असंख्यातवें भागमात्र असंख्यात जगश्रेणीप्रमाण है। असंज्ञी जीवोंमें अल्पबहुत्व नहीं है ॥ ३५७ ॥ . . क्योंकि, उनमें एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान ही होता है। __इस प्रकार संशिमार्गणा समाप्त हुई। आहारमार्गणाके अनुवादसे आहारकोंमें अपूर्वकरण आदि तीन गुणस्थानोंमें उपशामक जीव प्रवेशकी अपेक्षा तुल्य और अल्प हैं ॥ ३५८॥ क्योंकि, उनका प्रमाण चौपन है। आहारकोंमें उपशान्तकषायवीतरागछमस्थ जीव पूर्वोक्त प्रमाण ही हैं ॥३५९॥ यह सूत्र सुगम है। १ प्रतिषु 'अणंतरे गुणत्' इति पाठः। २ प्रतिषु ' असंखेज्जदि' इति पाठः। ३ असंशिनां नास्त्यल्पबहुत्वम् । स. सि. १, ८. ४ आहारानुवादेन आहारकाणां काययोगिवत् । स. सि. १,८. Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ८, ३६८.] अप्पाबहुगाणुगमे आहारय-अप्पाबहुगपरूवणं [३४० खवा संखेज्जगुणा ॥ ३६० ॥ अद्रुत्तरसदपमाणतादो। खीणकसायवीदरागछदुमत्था तत्तिया चेव ॥ ३६१ ॥ सुगममेदं । सजोगिकेवली पवेसणेण तत्तिया चेव ॥ ३६२ ॥ सजोगिकेवली अद्धं पडुच्च संखेज्जगुणा ॥ ३६३ ॥ अप्पमत्तसंजदा अक्खवा अणुवसमा संखेज्जगुणा ॥३६४ ॥ पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा ॥ ३६५॥ एदाणि सुत्ताणि सुगमाणि । संजदासंजदा असंखेज्जगुणा ॥ ३६६ ॥ को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो। सासणसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥ ३६७ ॥ सम्मामिच्छादिट्ठी संखेज्जगुणा ॥ ३६८॥ आहारकोंमें उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थोंसे क्षपक जीव संख्यातगुणित हैं ॥ ३६०॥ क्योंकि, उनका प्रमाण एक सौ आठ है । आहारकोंमें क्षीणकषायवीतरागछमस्थ जीव पूर्वोक्त प्रमाण ही हैं ॥ ३६१ ॥ यह सूत्र सुगम है। आहारकोंमें सयोगिकेवली जिन प्रवेशकी अपेक्षा पूर्वोक्त प्रमाण ही हैं ॥ ३६२॥ सयोगिकेवली जिन संचयकालकी अपेक्षा संख्यातगुणित हैं ॥३६३॥ सयोगिकेवली जिनोंसे अक्षपक और अनुपशामक अप्रमत्तसंयत जीव संख्यातगुणित हैं ॥ ३६४ ॥ अप्रमत्तसंयतोंसे प्रमत्तसंयत जीव संख्यातगुणित हैं ॥ ३६५ ॥ ये सूत्र सुगम हैं। आहारकोंमें प्रमत्तसंयतोंसे संयतासंयत जीव असंख्यातगुणित हैं ॥ ३६६ ॥ गुणकार क्या है ? पल्योपमका असंख्यातवां भाग गुणकार है। आहारकोंमें संयतासंयतोंसे सासादनसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं॥३६७॥ सासादनसम्यग्दृष्टियोंसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं ।। ३६८ ॥ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ ] छक्खडागमे जीवाणं असंजदसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥ ३६९ ॥ मिच्छादिट्ठी अनंतगुणा ॥ ३७० ॥ दाणि सुत्ताणि सुगमाणि । प्पाबहुअमोघं ॥ ३७१ ॥ असंजदसम्मादिट्ठि-संजदासंजद- पमत्त - अप्पमत्तसंजदट्टाणे सम्मत्त एवं तिसु अद्धासु ॥ ३७२ ॥ सव्वत्थोवा उवसमा ॥ ३७३ ॥ खवा संखेज्जगुणा ॥ ३७४ ॥ दाणि सुत्ताणि सुगमाणि । • अणाहारसु सव्वत्थोवा सजोगिकेवली ॥ ३७५ ॥ कुदो ? सहियमाणत्तादो । अजोगिकेवली संखेज्जगुणा ॥ ३७६ ॥ कुदो ? दुरूऊणछस्सदपमाणत्तादो । सम्यग्मिथ्यादृष्टियों से असंयतसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं || ३६९ ॥ असंयतसम्यग्दृष्टियोंसे मिध्यादृष्टि जीव अनन्तगुणित हैं || ३७० ॥ [ १, ८, ३६९. सूत्र सुगम हैं । आहारकोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में सम्यक्त्वसम्बन्धी अल्पबहुत्व ओघके समान है ॥ ३७१ ॥ इसी प्रकार अपूर्वकरण आदि तीन गुणस्थानोंमें सम्यक्त्वसम्बन्धी अल्पबहुत्व ओके समान है || ३७२ ॥ उक्त गुणस्थानोंमें उपशामक जीव सबसे कम हैं ॥ ३७३ ॥ उपशामकोंसे क्षपक जीव संख्यातगुणित हैं ।। ३७४ ।। ये सूत्र सुगम हैं। अनाहारकों में सयोगिकेवली जिन सबसे कम हैं ॥ ३७५ ॥ १ अनाहारकाणां सर्वतः स्तोकाः सयोगकेवलिनः । स. सि. १, ८. २ अयोगकेवलिनः संख्येयगुणाः । स. सि. १,८. क्योंकि, उनका प्रमाण साठ है । अनाहारकों में अयोगिकेवली जिन संख्यातगुणित हैं ॥ ३७६ ॥ क्योंकि, उनका प्रमाण दो कम छह सौ अर्थात् पांच सौ अठ्यानवे (५९८ ) है । Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ८, ३८०.] अप्पाबहुगाणुगमे अणाहारय-अप्पाबहुगपरूवणं सासणसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥ ३७७ ॥ को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, असंखेज्जाणि पलिदोवमपढमवग्गमूलाणि । असंजदसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥ ३७८ ॥ को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो । मिच्छादिट्ठी अणंतगुणा ॥ ३७९ ॥ को गुणगारो ? अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो, सिद्धेहि वि अणंतगुणो, अणंताणि सव्वजीवरासिपढमवग्गमूलाणि । असंजदसम्मादिहिट्ठाणे सव्वत्थोवा उवसमसम्मादिट्ठी ॥३८०॥ कुदो ? संखेज्जजीवपमाणत्तादो। अनाहारकोंमें अयोगिकेवली जिनोंसे सासादनसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं ।। ३७७॥ गुणकार क्या है ? पल्योपमका असंख्यातवां भाग गुणकार है, जो पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण है। अनाहारकोंमें सासादनसम्यग्दृष्टियोंसे असंयतसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं ॥ ३७८ ॥ गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है। अनाहारकोंमें असंयतसम्यग्दृष्टियोंसे मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तगुणित हैं।॥३७९॥ गुणकार क्या है ? अभव्यसिद्धोंसे अनन्तगुणित, सिद्धोंसे भी अनन्तगुणित राशि गुणकार है, जो सर्व जीवराशिके अनन्त प्रथम वर्गमूलप्रमाण है। अनाहारकोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं ॥ ३८० ॥ क्योंकि, अनाहारक उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंका प्रमाण संख्यात है। १ सासादनसम्यग्दृष्टयोऽसंख्येयगुणाः । स. सि. १, ८. २ असंयतसम्यग्दृष्टयोऽसंख्येयगुणाः । स. सि. १, ८. ३ मिच्यादृष्टयोऽनन्तगुणाः । स. सि. १, ८. Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५०) छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ८, २८१. खहयसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा ॥ ३८१ ॥ को गुणगारो ? संखेज्जसमया। वेदगसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥ ३८२ ॥ को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, असंखेज्जाणि पलिदोवमस्स पढमवग्गमूलाणि । (एवं आहारमग्गणा समत्ता ।) एवमप्पाबहुगाणुगमो त्ति समत्तमणिओगद्दारं । अनाहारकोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें उपशमसम्यग्दृष्टियोंसे क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं ॥ ३८१ ॥ गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है । अनाहारकोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंसे वेदकसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं ।। ३८२ ॥ गुणकार क्या है ? पल्योपमका असंख्यातवां भाग गुणकार है, जो पल्योपमके भसंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण है। (इस प्रकार आहारमार्गणा समाप्त हुई।) इस प्रकार अल्पबहुत्वानुगम नामक अनुयोगद्वार समाप्त हुआ । Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतरपरूवणासुत्ताणि । कवास सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या संख्या सूत्र सूत्र पृष्ठ १ अंतराणुगमेण दुविहो णिद्देसो, ११ उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियट्ट ओघेण आदेसेण य। देसूणं । २ ओघेण मिच्छादिट्ठीणमंतरं केव- १२ चदुण्हमुवसामगाणमंतरं केवचिरं चिरं कालादो होदि, णाणाजीवं । कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं । ४ जहण्णेण एगसमयं । १७ ३ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतो- | १३ उक्कस्सेण वासपुधत्तं । १८ मुहुत्तं । ५ | १४ एगंजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतो४ उक्कस्सेण वे छावहिसागरोव- मुहुत्तं । माणि देसूणाणि । ६ | १५ उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियर्छ । ५ सासणसम्मादिट्ठि-सम्मामिच्छा देसूणं । १९ दिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो | १६ चदुण्हं खवग-अजोगिकेवलीणमंतरं होदि, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण । केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं एगसमय। पडुच्च जहण्णेण एगसमयं । २० ६ उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असं- १७ उक्कस्सेण छम्मासं। २१ खेज्जदिभागो। ८ १८ एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं; ७ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण पलि- | णिरंतरं । दोक्मस्स असंखेजदिभागो, अंतो- १९ सजोगिकेवलीणमंतर केवचिरं मुहुत्तं । कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च ८ उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियट्टू णत्थि अंतरं, णिरंतरं । देसूणं । ११ | २० एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, ९ असंजदसम्मादिटिप्पहुडि जाव णिरंतरं । . अप्पमत्तसंजदा त्ति अंतरं केवचिरं २१ आदेसेण गदियाणुवादेण णिरय कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च गदीए णेरइएसु मिच्छादिट्ठि-असं णत्थि अंतरं, णिरंतरं । १३ जदसम्मादिट्ठीणमंतरं केवचिरं १० एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतो- कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च मुहुत्तं । णत्थि अंतरं, णिरंतरं । Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) परिशष्ट सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ २२ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतो- ३२ उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेमुहुत्तं । २२ जदिभागो। २९ २३ उक्कस्सेण तेत्तीस सागरोवमाणि ३३ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण पलिदेसूणाणि । २३ | दोवमस्स असंखेजदिभागो, अंतो२४ सासणसम्मादिहि-सम्मामिच्छा- मुहुत्तं । दिट्ठीणमंतर केवचिरं कालादो ३४ उक्कस्सेण सागरोवमं तिण्णि सत्त। होदि, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण दस सत्तारस वावीस तेत्तीसं एगसमयं । २४ सागरोवमाणि देसूणाणि । " २५ उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखे- ३५ तिरिक्खगदीए तिरिक्खेसु ज्जदिभागो। मिच्छादिट्ठीणमंतरं केवचिरं २६ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण पलि- कालादो होदि, णाणाजीवं दोवमस्स असंखेज्जदिभागो, पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं। ३१ अंतोमुहुत्तं । २५ | ३६ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतो२७ उक्कस्सेण तेत्तीस सागरोवमाणि । मुहुत्तं । देसूणाणि । २६ | ३७ उक्कस्सेण तिण्णि पलिदोवमाणि २८ पढमादि जाव सत्तमीए पुढवीए । देसूणाणि । ३२ णेरइएसु मिच्छादिट्ठि-असंजद- ३८ सासणसम्मादिढिप्पहुडि जाव सम्मादिट्ठीणमंतर केवचिरं कालादो। संजदासजदा त्ति ओघ । ३३ होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि ३९ पंचिंदियतिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्खअंतरं, णिरंतरं । पज्जत्त-पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीसु २९ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतो- मिच्छादिट्ठीणमंतरं केवचिरं मुहुत्तं । कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च ३० उक्कस्सेण सागरोवमं तिण्णि णत्थि अंतरं, णिरंतरं । ३७ सत्त दस सत्तारस वासि ४० एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोतेत्तीसं सागरोवमाणि देसूणाणि। " मुहुत्तं । ३१ सासणसम्मादिद्वि-सम्मामिच्छा- | ४१ उक्कस्सेण तिण्णि पलिदोवमाणि दिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीव पडुच्च जहण्णेण ४२ सासणसम्मादिट्ठि-सम्मामिच्छाएगसमयं । २९ दिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो | Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र संख्या अंतरपरूवणासुत्ताणि सूत्र होदि, णाणाजीव पडुच्च जहण्णेण एगसमयं । ४३ उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । ४४ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, अंतोमुहुतं । पृष्ठ सूत्र संख्या ३८ ३९ 27 ४५ उक्कस्सेण तिणि पलिदोवमाणि पुत्रको डिपुधत्ते णन्महियाणि । ४० ४६ असंजदसम्मादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं । ४७ एगजीवं पडुच्च जहणेण अंतोमुहुतं । ४१ ४८ उक्कस्सेण तिणि पलिदोवमाणि पुत्रको डिपुधत्तेण भहियाणि । ४९ संजदासंजदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतर, णिरंतरं । ५० एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुतं । ५१ उक्कस्सेण पुव्वकोडि धत्तं । ५२ पंचिदियतिरिक्खअपज्जत्ताणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं णिरंतरं । ५३ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गणं । ५४ उक्कस्सेण अनंतकालमसंखेज्ज पोग्गलपरियङ्कं । ४२ 77 ४३ 97 ४४ ४५ 11 17 (*) सूत्र ५५ एदं गर्दि पडुच्च अंतरं । | ५६ गुणं पडुच्च उभयदो वि णत्थि अंतरं, णिरंतरं । ५७ मणुसगदीए मणुस मणुसपज्जतमणुसिणीसु मिच्छादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, गाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं । ५८ एगजीवं पडुच्च जहणेण अंतोमुहुतं । ५९ उक्कस्सेण तिणि पलिदोवमाणि देणाणि । ६० सासणसम्मादिट्टि -सम्मामिच्छादिट्ठणिमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च जहणेण समयं । ६१ उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । ६२ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण पलिदोवस् असंखेज्जदिभागो, अंतोमुहुतं । ६३ उक्कस्सेण तिणि पलिदोवमाणि पुव्वको डिपुधत्तेण भहियाणि । ६४ असंजदसम्मादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं । पृष्ठ ४६ ६६ उक्कस्सेण तिणि पलिदोवमाणि पुव्वको डिपुधत्तेण भद्दियाणि । 19 " ४७ 99 ४८ 19 99 ५० ६५ एगजीवं पडुच्च जहणेण अंतोमुहुत्तं । ४९ 19 " Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " कालादा हाणा (४) परिशिष्ट सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र ६७ संजदासंजदप्पहुडि जाव अप्पमत्त- । ८२ एदं गर्दि पडुच्च अंतरं । ५७ संजदाणमंतरं केवचिरं कालादो ८३ गुणं पडुच्च उभयदो वि णत्थि होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं । अंतर णित । __५१ ८४ देवगदीए देवेसु मिच्छादिट्ठि ५१ | 2 टेवगटी से ६८ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतो असंजदसम्मादिट्ठीणमंतरं केवचिरं मुहुत्तं । कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च ६९ उक्कस्सेण पुव्वकोडिपुधत्तं। ५२ ।। पत्थि अंतरं, णिरंतरं । " ७० चदुण्हमुवसामगाणमंतरं केवचिरं ८५ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतो कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं । ५३ | ८६ उक्कस्सेण एक्कत्तीसं सागरो७१ उक्कस्सेण वासपुधत्तं । | वमाणि देसूणाणि। ५८ ७२ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतो- ८७ सासणसम्मादिट्ठि-सम्मामिच्छामुहुत्तं । ५४ दिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो ७३ उक्कस्सेण पुन्चकोडिपुधत्तं । , होदि, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण ७४ चदुण्हं खवा अजोगिकेवलीणमंतरं एगसमयं । केवचिरं कालादो होदि, गाणाजीवं८८ उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखे पडुच्च जहण्णेण एगसमयं । . ५५ । ज्जदिभागो। ७५ उक्कस्सेण छम्मासं, वासपुधत्तं । " | ८९ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण पलिदो७६ एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, । वमस्स असंखेज्जदिभागो, अंतो णिरंतरं । ७७ सजोगिकेवली ओघं । ५६ / ९० उक्कस्सेण एक्कत्तीसं सागरो७८ मणुसअपज्जत्ताणमंतरं केवचिरं वमाणि देसूणाणि । कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च ९१ भवणवासिय-वाण-तर-जोदिसियजहण्णेण एगसमयं ।। सोधम्मीसाणप्पहुडि जाव सदार७९ उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखे सहस्सारकप्पवासियदेवेसु मिच्छाजदिभागो। दिद्वि--असंजदसम्मादिट्ठीणमंतरं ८० एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दा- केवचिरं कालादो होदि, णाणाभवग्गहणं । जीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं। ६१ ८१ उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्ज- ९२ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोपोग्गलपरियट्टं। मुहुत्तं । मुहुत्तं । Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६७ अंतरपरूवणासुत्ताणि (५) सूत्र संख्या पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ ९३ उक्कस्सेण सागरोवमं पलिदोवमं । भवग्गहणं । वे सत्तदस चोद्दस सोलस अट्ठारस | १०३ उक्कस्सेण वे सागरोवमसह सागरोवमाणि सादिरेयाणि । ६१ स्साणि पुवकोडिपुत्तेणब्भ९४ सासणसम्मादिहि-सम्मामिच्छा हियाणि । दिद्वीण सत्थाणोघं । ६२ | १०४ बादरेइंदियाणमंतरं केवचिरं ९५ आणद जाव णवगेवज्जविमाण कालादो होदि, णाणाजीवं वासियदेवेसु मिच्छादिट्ठि-असं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं। ६६ जदसम्मादिट्ठीणमंतरं केवचिरं १०५ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाकालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च भवग्गहणं । णत्थि अंतरं, णिरंतरं । | १०६ उक्कस्सेण असंखेज्जा लोगा। , ९६ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतो- १०७ एवं बादरेइंदियपज्जत्त-अपञ्जमुहुत्तं। त्ताणं । ९७ उक्कस्सेण वीस वावीस तेवीसं १०८ सुहुमेइंदिय-सुहुमेइंदियपज्जत्तचउवीसं पणवीसं छव्वीसं सत्ता अपजत्ताणमंतरं केवचिरं कालादो वीसं अट्ठावीसं ऊणत्तीसं तीसं होदि, णाणाजीवं पडुच्च णस्थि एक्कत्तीसं सागरोवमाणि देसू अंतरं, णिरंतरं । णाणि । ६३ / १०९ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दा९८ सासणसम्मादिद्वि-सम्मामिच्छा भवग्गहणं । दिट्ठीणं सत्थाणमोघं । ६४ | ११० उक्कस्सेण अंगुलस्स असंखे९९ अणुदिसादि जाव सव्वट्ठसिद्धि ज्जदिभागो, असंखेज्जासंखेविमाणवासियदेवेसु असंजद ज्जाओ ओसप्पिणि-उस्सप्पिसम्मादिट्ठीणमंतरं केवचिरं णीओ। कालादोहोदि, णाणाजीवं पडुच्च । १११ बीइंदिय-तीइंदिय-चदुरिंदिय (णत्थि) अंतरं, णिरंतरं। , तस्सेव पज्जत्त-अपजत्ताणमंतर १०० एगजीवं पडुच्च पत्थि अंतरं, केवचिरं कालादो होदि, गाणाणिरंतरं । जीवं पड्डुच्च णत्थि अंतरं, १०१ इंदियाणुवादेण एइंदियाणमंतरं पिरंतरं । केवचिरं कालादो होदि, णाणा- | ११२ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दा जीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं। ६५ | भवग्गहणं । १०२ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दा- ११३ उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्ज देम ६८ Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७ परिशिष्ट . सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ पोग्गलपरियट्ट । ६८ | याणि, सागरोवमसदपुधत्तं । ७५ ११४ पंचिंदिय-पंचिंदियपज्जत्तएसु मि- १२५ चदुई खवा अजोगिकेवली । च्छादिट्ठी ओघं। ओघ । ११५ सासणसम्मादिहि-सम्मामिच्छा- १२६ सजोगिकेवली ओघं । दिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो । | १२७ पंचिंदियअपज्जत्ताणं बेइंदियहोदि, णाणाजीवं पडुच्च जह अपज्जत्ताणं भंगो। ण्णेण एगसमयं । १२८ एदमिंदियं पडुच्च अंतरं। , ११६ उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखे- १२९ गुणं पडुच्च उभयदो वि णत्थि । ज्जदिभागो। अंतरं, णिरंतरं । ११७ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण । १३० कायाणुवादेण पुढविकाइय पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, आउकाइय-तेउकाइय-वाउकाइयअंतोमुहुत्तं । ७० बादर-सुहुम-पज्जत्त-अपज्जत्ताण११८ उक्कस्सेण सागरोवमसह- मंतरं केवचिरं कालादो होदि, स्साणि पुवकोडिपुधत्तेणब्भहि- णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, याणि सागरोवमसदपुधत्तं । , णिरंतरं । ११९ असंजदसम्मादिटिप्पहुडि जाव | १३१ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दा अप्पमत्तसंजदाणमंतर केवचिरं । . भवग्गहणं । कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च १३२ उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्ज णत्थि अंतरं, णिरंतरं । ७१ पोग्गलपरियट्ट । १२० एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतो १३३ वणप्फदिकाइय-णिगोदजीवमुहुत्तं । ७२ । बादर-सुहुम-पज्जत्त-अपजत्ताण१२१ उक्कस्सेण सागरोवमसह- मंतरं केवचिरं कालादो होदि, स्साणि पुव्वकोडिपुधत्तेणब्भहि- णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, याणि, सागरोवमसदपुधत्तं । " णिरंतरं । ७९ १२२ चदुण्हमुवसामगाणं णाणाजीवं | १३४ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दापडि ओघ । भवग्गहणं । १२३ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतो- | १३५ उक्कस्सेण असंखेज्जा लोगा। , मुहुत्तं । " | १३६ बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीर१२४ उक्कस्सेण सागरोवमसह- पज्जत्त-अपज्जत्ताणमंतरं केव स्साणि पुन्चकोडिपुत्तेणब्भहि- चिरं कालादो होदि, णाणा Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र संख्या अंतर परूवणासुत्ताणि सूत्र जीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं । १३७ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गणं । १३८ उक्कस्सेण अड्डाइज्जपोग्गलपरियहं । १३९ तसकाइय-तसकाइयपज्जत्तएसु मिच्छादिट्ठी ओघं । १४६ चदुण्हमुवसामगाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च पृष्ठ सूत्र संख्या ७९ ८० 97 "" १४० सासणसम्मादिट्ठि सम्मामिच्छादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च ओघं । १४१ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, अंतोमुहुतं । १४२ उक्कस्सेण वे सागरोवमसहस्पाणि पुव्वकोडिपुधत्तेणन्भहियाणि, वे सागरोवमसहस्साणि सूणाणि । १४३ असंजदसम्मादिट्ठिप्प हुडि जान अप्पमत्त संजदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच णत्थि अंतर, णिरंतरं । १४४ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुतं । ८३ १४५ उक्कस्सेण वे सागरोवमसहसाणि पुव्वको डिपुध तेणन्भहियाणि, वे सागरोवमसहस्साणि देणाणि । 27 ८१ 17 " सूत्र (७) ओघं । १४७ एगजीवं पडुच्च जहणेण अंतोमुहुतं । १४८ उक्कस्सेण वे सागरोवमसहस्साणि पुव्वकोडि पुधत्तेण भहियाणि, वे सागरोवम सहस्साणि देणाणि । ८६ १४९ चदुण्हं खवा अजोगिकेवली ओघं । १५० सजोगिकेवली ओघं । १५१ तसकाइयअपजत्ताणं पंचिंदियअपज्जत्तभंगो | १५२ एदं कार्यं पडुच्च अंतरं । गुणं पडुच्च उभयदो वि णत्थि अंतरं, णिरंतरं । १५३ जोगाणुवादेण पंचमणजोगिपंचवचिजोगीसु कायजोगिओरालियकायजोगीसु मिच्छादिट्टि असंजदसम्मादिट्ठि-संजदासंजद - पमत्त - अप्पमत्तसंजदसजोगिकेवलीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणेगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं । १५४ सासणसम्मादिट्ठि सम्मामिच्छादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च जहपण एगसमयं । १५५ उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । १५६ एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं पृष्ठ ८५ ** "" "" "" ८७ "" ८८ 77 Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) परिशिष्ट सुख संख्या सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र णिरंतरं । ८८ णीण मणजोगिभंगो। १५७ चदुण्हमुवसामगाणमंतर केवचिरं | १७० वेउव्वियमिस्सकायजोगीसु मि कालादो होदि, णाणाजीवं । च्छादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो पडुच्च ओघं । होदि, णाणाजीवं पडुच्च जह१५८ एगजीवं पडुच्च गत्थि अंतरं, पणेण एगसमयं । णिरंतरं । ८९ | १७१ उक्कस्सेण बारस मुहुत्तं । ९२ १५९ चदुहं खवाणमोघं। , १७२ एगजीवं पडुच्च णस्थि अंतरं, १६० ओरालियमिस्सकायजोगीसु मि-" णिरंतरं । च्छादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो १७३ सासणसम्मादिट्ठि-असंजदसम्माहोदि, णाणेगजीवं पडुच्च | दिट्ठीणं ओरालियमिस्सभंगो। , णत्थि अंतरं, णिरंतरं । , १७४ आहारकायजोगीसु आहार१६१ सासणसम्मादिट्ठीणमंतरं केव- मिस्सकायजोगीसु पमत्तसंज चिरं कालादो होदि, णाणाजीवं। दाणमंतरं केवचिरं कालादो पडुच्च ओघं । होदि, णाणाजीवं पडुच्च जह१६२ एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, ण्णेण एगसमयं । ९३ णिरंतरं । ९० | १७५ उक्कस्सेण वासपुधत्तं । , १६३ असंजदसम्मादिट्ठीणमंतरं केव- १७६ एगजीवं पहुच्च णत्थि अंतरं, चिरं कालादो होदि, णाणा णिरंतरं । जीवं पडुच्च जहण्णेण एग- १७७ कम्मइयकायजोगीसु मिच्छासमयं । दिट्ठि-सासणसम्मादिट्ठि-असं१६४ उक्कस्सेण वासपुधत्तं । , जदसम्मादिहि-सजोगिकेवलीणं १६५ एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, ओरालियमिस्सभंगो। णिरंतरं । | १७८ वेदाणुवादेण इत्थिवेदेसु मिच्छा१६६ सजोगिकवलीणमंतर केवचिरं दिट्ठीणमंतर केवचिरं कालादो कालादो होदि, णाणाजीवं होदि, णाणाजीवं पड्डुच्च णत्थि पडुच्च जहण्णेण एगसमयं । ९१ अंतरं णिरंतरं । ९४ १६७ उक्कस्सेण वासपुधत्तं । , | १७९ एगजीवं पडुच्च जपणेण अंतो१६८ एमजीवं पडुच्च गत्थि अंतरं, मुहुत्तं । णिरंतरं । " | १८० उक्कस्सेण पणवण्ण पलिदोव१६९ वेउन्वियकायजोगीसु चदुट्ठा- माणि देसूणाणि । Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ पुधत्तं । अंतरपरूवणासुत्ताणि सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र १८१ सासणसम्मादिट्ठि-सम्मामिच्छा- । १९३ पुरिसवेदएसु मिच्छादिट्ठी दिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो ओघं। होदि, गाणाजीवं पडुच्च ओघं। ९५ १९४ सासणसम्मादिहि-सम्मामिच्छा१८२ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण दिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो पलिदोवमस्स असंखेज्जदि होदि, णाणाजीवं पडुच्च __ भागो, अंतोमुहुत्तं । " जहण्णेण एगसमयं । १०१ १८३ उक्कस्सेण पलिदोवमसद- १९५ उक्कस्सेण पलिदोवमस्स पुधत्तं । असंखेज्जदिभागो। १८४ असंजदसम्मादिट्टिप्पहुडि जाव १९६ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अप्पमससंजदाणमंतरं केवचिरं पलिदोवमस्स असंखेजदिकालादो होदि, णाणाजीवं भागो, अंतोमुहुत्तं । पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं। ९७ / १९७ उक्कस्सेण सागरोवमसद१८५ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । १९८ असंजदसम्मादिटिप्पहुडि जाव १८६ उक्कस्सेण पलिदोवमसद अप्पमत्तसंजदाणमंतरं केवचिरं पुधत्तं । कालादो होदि, णाणाजीवं १८७ दोण्हमुवसामगाणमंतर केवचिरं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं । १०२ कालादो होदि, णाणाजीवं १९९ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण __ पडुच्च जहण्णुक्कस्समोघं । ९९ अंतोमुहुत्वं । २०० उक्कस्सेण सागरोवमसद१८८ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण पुधत्तं । अंतोमुहुत्तं । २०१ दोण्हमुवसामगाणमंतरं केव१८९ उक्कस्सेण पलिदोवमसद चिरंकालादो होदि, णाणाजीवं पुधत्तं । पडुच्च ओघं। १९० दोण्हं खवाणमंतर केवचिरं २०२ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण कालादो होदि, णाणाजीवं अंतोमुहुत्तं । पडुच्च जहण्णेण एगसमयं । १०० २०३ उक्कस्सेण सागरोवमसद१९१ उक्कस्सेण वासपुधत्तं । १९२ एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, २०४ दोण्हं खवाणमंतरं केवचिरं निरंतरं। कालादो होदि, णाणाजीवं * १०३ १०४ पुधत्तं । Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) परिशिष्ट सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ पडुच्च जहण्णेण एगसमयं । १०५ । २१७ उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । ११० २०५ उक्कस्सेण वासं सादिरेयं । १०६ / २१८ उवसंतकसायवीदरागछदुमत्था२०६ एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णिरंतरं । णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण २०७ णqसयवेदएसु मिच्छादिट्ठीण ___ एगसमयं । मंतरं केवचिरं कालादो होदि, २१९ उक्कस्सेण वासपुधत्तं । णाणाजीवं पडुच्च णत्थि २२० एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं। १११ अंतरं, णिरंतरं । १०६ २२१ अणियट्टिखवा सुहमखवा २०८ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण | खीणकसायवीदरागछदुमत्था अंतोमुहुत्तं । १०७ __ अजोगिकेवली ओघं। " २०९ उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोव | २२२ सजोगिकेवली ओघं। " माणि देसूणाणि । २२३ कसायाणुवादेण कोधकसाइ२१० सासणसम्मादिढिप्पडि जाव माणकसाइ-मायकसाइ-लोहअणियट्टिउवसामिदो त्ति कसाईसु मिच्छादिटिप्पहुडि मूलोघं । जाव सुहुमसांपराइयउवसमा २११ दोण्हं खवाणमंतर केवचिरं खवा त्ति मणजोगिभंगो। कालादो होदि, णाणाजीवं २२४ अकसाईसु उवसंतकसायवीद पडुच्च जहण्णेण एगसमयं । १०९ रागछदुमत्थाणमंतरं केवचिरं २१२ उक्कस्सेण वासपुधत्तं । , कालादो होदि, णाणाजीवं २१३ एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, पडुच्च जहण्णेण एगसमयं । ११३ णिरंतरं । २२५ उक्कस्सेण वासपुधत्तं । , २१४ अवगदवेदएसु अणियट्टिउव- २२६ एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, सम-सुहुमउवसमाणमंतरं केव णिरंतरं । चिरं कालादो होदि, णाणा- २२७ खीणकसायवीदरागछदुमत्था जीवं पडुच्च जहण्णेण एग अजोगिकेवली ओघं। समयं । २२८ सजोगिकेवली ओघं। २१५ उक्कस्सेण वासपुधत्तं । २२९ णाणाणुवादेण मदिअण्णाणि२१६ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण सुदअण्णाणि-विभंगणाणीसु अंतोमुहुत्तं । ११० मिच्छादिट्ठीणमंतरं केवचिरं Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतरपरूवणासुत्ताणि सूत्र संख्या सूत्र . पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र कालादो होदि, णाणेगजीवं ) २४१ चदुण्हमुवसामगाणमंतरं केव- . पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं । ११४ चिरं कालादो होदि, णाणाजीवं २३० सासणसम्मादिट्ठीणमंतरं केव पडुच्च जहण्णेण एगसमयं । १२२ चिरं कालादो होदि, णाणा- २४२ उक्कस्सेण वासपुधत्तं । , जीवं पडुच्च ओघं । | २४३ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण २३१ एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, अंतोमुहुत्तं । णिरंतरं । २४४ उक्कस्सेण छावद्विसागरो२३२ आभिणिबोहिय सुद-ओहि ___ वमाणि सादिरेयाणि । , णाणीसु असंजदसम्मादिट्ठीण २४५ चदुण्हं खवगाणमोघं । णवरि. मंतरं केवचिरं कालादो होदि, विसेसो ओधिणाणीसु खवाणं णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, वासपुधत्तं । णिरंतरं । - १२४ . २४६ मणपज्जवणाणीसु २३३ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण पमत्त अप्पमत्तसंजदाणमंतर केवचिरं अंतोमुहुत्तं । ११५ कालादो होदि, णाणाजीवं २३४ उक्कस्सेण पुव्यकोडी देसूर्ण , पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं । , २३५ संजदासजदाणमंतर केवचिर २४७ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण कालादो होदि, णाणाजीवं अंतोमुहुत्तं । पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं। ११६ २३६ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण २४८ उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । , अंतोमुहुत्तं। २४९ चदुण्हमुवसामगाणमंतरं केव२३७ उक्कस्सेण छावट्ठिसागरोव चिरं कालादो होदि, णाणाजीवं माणि सादिरेयाणि । " पडुच्च जहण्णेण एगसमयं । १२५ २३८ पमत्त-अप्पमत्तसंजदाणमंतरं २५० उक्कस्सेण वासपुधचं। केवचिरं कालादो होदि, णाणा | २५१ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण. जीवं पडुच्च णथि अंतरं, अंतोमुहुत्तं । १२६ णिरंतरं । ११९ | २५२ उक्कस्सेण पुन्चकोडी देखणं। , २३९ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण २५३ चदुण्हं खवगाणमंतर केवअंतोमुहुत्तं । १२० चिरं कालादो होदि, णाणाजीवं २४० उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि पडुच्च जहण्णेण एगसमयं । १२७ सादिरेयाणि । । २५४ उक्कस्सेण वासपुधत्तं । .. . Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओघं। (१२) परिशिष्ट सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ २५५ एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । कालादो होदि, णाणाजीवं णिरंतरं । १२७ पड्डुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं । १३१ २५६ केवलणाणीसु सजोगिकेवली २७० एगजीवं पडुच्च जहण्णेण । ओघं। अंतोमुहुत्तं । २५७ अजोगिकेवली ओघं। २७१ उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । , २५८ संजमाणुवादेण संजदेसु पमत्त २७२ सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदेसु सुसंजदप्पहुडि जाव उवसंत हुमसांपराइयउवसमाणमंतर केकसायवीदरागछदुमत्था त्ति वचिरं कालादो होदि, णाणामणपज्जवणाणिभंगो। १२८ जीवं पडुच्च जहण्णेण एग२५९ चदुण्डं खवा अजोगिकेवली समयं । १३२ २६० सजोगिकेवली ओघं। २७३ उक्कस्सेण वासपुधत्तं ।। २६१ सामाइय-छेदोवट्ठावणसुद्धि २७४ एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, संजदेसु पमसापमत्तसंजदाण णिरंतरं । मंतरं केवचिरं कालादो होदि, २७५ खवाणमोघं । णाणाजीव पड्डुच्च णत्थि अंतरं, २७६ जहाक्खादविहारसुद्धिसंजदेसु णिरंतरं । अकसाइभंगो। २६२ एगजीवं पड्डच्च जहण्णेण २७७ संजदासजदाणमंतरं केवचिरं अंतोमुहुत्तं । १२९ कालादो होदि, णाणेगजीवं २६३ उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । , पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं । १३३ २६५ दोण्हमुवसामगाणमंतरं केव- २७८ असंजदेसु मिच्छादिट्ठीणमंतरं चिरं कालादो होदि, गाणाजीवं केवचिरं कालादो होदि, पडुच्च जहण्णेण एगसमयं। , णाणाजीवं पडुच्च णत्थि २६५ उक्कस्सेण वासपुधत्तं । , अंतरं, जिरंतरं। २६६ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण २७९ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण ____अंतोमुहुत्वं । अंतोमुहुत्तं । २६७ उक्कस्सेण पुवकोडी देसूणं। " २८० उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोव२६८ दोण्हं खवाणमोघं। १३१ माणि देसूणाणि । १३४ २६९ परिहारसुद्धिसंजदेसु पमत्ता- | २८१ सासणसम्मादिवि-सम्मामिच्छापमत्तसंजदाणमंतरं केवचिरं दिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीणमोघं। " Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतरपरूवणासुत्ताणि (११) सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या २८२ ईसणाणुवादेण चक्खुदंसणीसु २९४ ओधिदसणी ओधिणाणिभंगो। १४३ मिच्छादिट्ठीणमोघं । १३५ २९५ केवलदसणी केवलणाणिभंगो। , २८३ सासणसम्मादिद्वि-सम्मामिच्छा- २९६ लेस्साणवादेण किण्डलेस्सियदिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो णीललेस्सिय-काउलेस्सिएसु होदि, णाणाजीवं पडुच्च मिच्छादिट्ठि-असंजदसम्माओघ। दिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो २८४ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण होदि, णाणाजीवं पडुच्च पलिदोवमस्स असंखेज्जदि णत्थि अंतर, णिरंतरं । " ___ भागो, अंतोमुहुत्तं । " २९७ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण २८५ उक्कस्सेण वे सागरोवमसह अंतोमुहुत्तं । स्साणि देसूणाणि। " २९८ उक्कस्सेण तेत्तीसं सत्तारस २८६ असंजदसम्मादिट्टिप्पहुडि जाव सत्त सागरोवमाणि देसूणाणि । १४४ अप्पमत्तसंजदाणमंतरं केवचिरं २९९ सासणसम्मादिट्ठि-सम्मामिच्छाकालादो होदि, णाणाजीवंपडुच्च दिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो णत्थि अंतरं, णिरंतरं । १३८ । होदि, णाणाजीवं पडुच्च २८७ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण ओघं। १४५ अंतामुहुत्तं । " | ३०० एगजीवं पडुच्च जहण्णेण २८८ उक्कस्सेण वे सागरोवमसह पलिदोवमस्स असंखेजदिस्साणि देसूणाणि । भागो, अंतोमुहुत्तं । " २८९ चदुण्हमुवसामगाणमंतरं केव | ३०१ उक्कस्सेण तेत्तीस सत्तारस सत्त चिरंकालादो होदि, णाणाजीवं सागरोवमाणि देसूणाणि। " पडुच्च ओघ । १४१ ३०२ तेउलेस्सिय--पम्मलेस्सिएसु २९० एगजीवं पडुच्च जहण्णेण मिच्छादिट्ठि-असंजदसम्माअंतोमुहुत्तं । दिट्ठीणमंतर केवचिरं कालादो २९१ उक्कस्सेण वे सागरोवमसह होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि स्साणि देसूणाणि । । अंतरं, णिरंतरं । १४६ २९२ चदुण्हं खवाणमोघं । १४२ | ३०३ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण २९३ अचक्खुदंसणीसु मिच्छादिट्टि अंतोमुहुत्तं । प्पडुडि जाव खीणकसायवीद- ३०४ उक्कस्सेण वे अट्ठारस सागरोरागछदुमत्था ओघ । १४३ ' वमाणि सादिरेयाणि । १४७ Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ ओघं। १४७ परिशिष्ट सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र ३०५ सासणसम्मादिट्ठि-सम्मामिच्छा- ३१५ संजदासंजद-पमत्तसंजदाण दिद्वीणमंतर केवचिरं कालादो । मंतर केवचिरं कालादो होदि, होदि, णाणाजीवं पडुच्च णाणेगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं । १५१ ३०६ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण ३१६ अप्पमत्तसंजदाणमंतरं केवचिरं । पलिदोवमस्स असंखेज्जदि कालादो होदि, णाणाजीवं भागो, अंतोमुहुत्तं । १४८ पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं । " ३०७ उक्कस्सेण वे अट्ठारस सागरो- | ३१७ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण वमाणि सादिरेयाणि । अंतोमुहुत्तं । ३०८ संजदासंजद-पमत्त-अप्पमत्त ३१८ उक्कस्समंतामुहुत्तं । " संजदाणमंतरं केवचिरं कालादो ३१९ तिण्हमुवसामगाणमंतरं केवहोदि, णाणेगजीवं पडुच्च चिरं कालादो होदि, णाणाणत्थि अंतरं, णिरंतरं । जीवं पडुच्च जहण्णेण एग३.९ सुक्कलेस्सिएसु मिच्छादिद्वि समयं । असंजदसम्मादिट्ठीणमंतरं केव ३२० उक्कस्सेण वासपुधत्तं । " - चिरं कालादो होदि, णाणा ३२१ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण जीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, __ अंतोमुहुत्तं । णिरंतरं । १४९ ३२२ उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । , ३१० एगजीवं पडुच्च जहण्णेण | ३२३ उवसंतकसायवीदरागछदुमअंतामुहुत्तं । स्थाणमंतरं केवचिरं कालादो ३११ उक्कस्सेण एक्कत्तीसं सागरो होदि, णाणाजीवं पडुच्च जहवमाणि देसूणाणि । ण्णेण एगसमयं । १५३ ३१२ सासणसम्मादिद्वि-सम्मामिच्छा- ३२४ उक्कस्सेण वासपुधत्तं । , दिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो ३२५ एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, होदि, णाणाजीवं पडुच्च ओघं। , णिरंतरं । ३१३ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण | ३२६ चदुण्हं खवा ओघं । । पलिदोवमस्स असंखेजदि- ३२७ सजोगिकेवली ओघ । १५४. भागो, अंतोमुहुत्तं । " ३२८ भवियाणुवादेण भवसिद्धिएसुः . ३१४ उक्कस्सेण एक्कत्तीसं सागरो मिच्छादिट्टिप्पहुडि जाव .. वमाणि देसूणाणिः। अजोगिकेवलि ति ओघं । Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र संख्या ३२९ अभवसिद्धियाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं । ३३० एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं णिरंतरं । ३३१ सम्मत्ताणुवादेण सम्मादिवसि असंजदसम्मादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, निरंतरं । १५५ ३३२ एगजीवं पडुच्च जहणेण अंतोमुहुत्तं । ३३३ उक्कस्सेण पुचकोडी देसूणं । ३३४ संजदासंजद पहुडि उवसंतकसायवीदरागछदुमत्था ओधिणाणिभंगो । जाव अंतरवरूवणासुत्ताणि सूत्र ३३५ चदुण्हं खवगा अजोगिकेवली ओघ । ३३६ सजोगिकेवली ओघं । ३३७ खइयसम्मादिट्ठीसु असंजदकेवचिरं सम्मादिट्टणमंतरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं । ३३८ एगजीवं पडुच्च जहणेण अंतोमुहुत्तं । ३३९ उक्कस्सेण पुव्वकोडी देखूणं । ३४० संजदासंजद - पमत्तसंजदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, निरंतरं । ३४१ एगजीवं पच्च जहणेण पृष्ठ सूत्र संख्या १५४ 93 " 19 17 १५६ .. 17 91 "" १५७ सूत्र ( १५ ) अंतो मुहुतं । ३४२ उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि । ३४३ चदुण्हमुवसामगाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं । १६० ३४४ उक्कस्से वासपुधत्तं । ३४५ एगजीवं पच्च जहण्णेण अंतमुतं । ३४६ उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवाणि सादिरेयाणि | ३४७ चदुण्हं खवा अजोगिकेवली ओघं । ३४८ सजोगिकेवली ओघं । ३४९ वेदगसम्मादिट्ठीसु असंजदसम्मादिट्ठीणं सम्मादिट्टिभंगो । १६२ ३५० संजदासंजदाणमंतरं केव चिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं णिरंतरं । ३५१ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । ३५२ उक्कस्सेण छावट्टिसागरोवमाणि देणाणि । ३५३ पमत्त - अप्पमत्तसंजदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं । ३५४ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुडुतं । पृष्ठ १५७ 19 19 " "? १६१ 11 " 27 19 १६३ १६४ Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या ३५५ उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरो- ३७० एगजीवं पडुच्च जहण्णेण वमाणि सादिरेयाणि । अंतोमुहुत्तं । १६९ ३५६ उवसमसम्मादिट्ठीसु असंजद- ३७१ उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । सम्मादिट्ठीणमंतरं केवचिरं | ३७२ उवसंतकसायवीदरागछदुमत्थाकालादो होदि, णाणाजीवं णमंतर केवचिरं कालादो होदि, पडुच्च जहण्णेण एगसमयं । १६५ णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण ३५७ उक्कस्सेण सत्त रादिदियाणि। . एगसमयं । ३५८ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण ३७३ उक्कस्सेण वासपुधत्तं । अंतोमुहुत्तं । ३७४ एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, ३५९ उक्कस्सेण अंतोमुहत्तं । १६६ णिरंतरं । ३६० संजदासजदाणमंतरं केवचिरं ३७५ सासणसम्मादिहि-सम्मा-- कालादो होदि, णाणाजीवं मिच्छादिट्ठीणमंतरं केवचिरं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं । , कालादो होदि, णाणाजीवं ३६१ उक्कस्सेण चोद्दस रादिदियाणि। " पडुच्च जहण्णेण एगसमयं । १७० ३६२ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण | ३७६ उकस्सेण पलिदोवमस्स असंखे___ अंतोमुहुवं । ज्जदिभागो। ३६३ उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । १६७ ३७७ एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, ३६४ पमत्त-अप्पमत्तसंजदाणमंतरं णिरंतरं। १७१ केवचिरं कालादो होदि, णाणा- ३७८ मिच्छादिट्ठीणमंतरं केवचिरं जीव पडुच्च जहण्णेण एग कालादो होदि, णाणेगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं। , ३६५ उक्कस्सेण पण्णारस रादि- ३७९ सण्णियाणुवादेण सण्णीसु दियाणि । मिच्छादिट्ठीणमोघं। ३६६ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण " ३८० सासणसम्मादिट्टिप्पहुडि जाव अंतोमुहुत्तं । उवसंतकसायवीदरागछदुमत्था ३६७ उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं। १६८ त्ति पुरिसवेदभंगो। " ३६८ तिण्हमुवसामगाणमंतरं केवचिरं ३८१ चदुण्डं खवाणमोघं । १७२ कालादो होदि, णाणाजीवं ३८२ असण्णीणमंतरं केवचिरंकालादो पडुच्च जहण्णेण एगसमयं । | होदि, णाणाजीवं पडुच्च ३६९ उक्कस्सेण वासपुधत्तं । " णत्थि अंतरं, णिरंतरं । समयं । पण्णारस Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावपरूवणासुत्ताणि (१७) सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ ३८३ एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, अंतोमुहुत्तं । १७५ णिरंतरं। १७२ | ३९० उक्कस्सेण अंगुलस्स असंखे३८४ आहाराणुवादेण आहारएसु ज्जदिभागो असंखेज्जाओ मिच्छादिट्ठीणमोघं । १७३ ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीओ। " ३८५ सासणसम्मादिट्ठि-सम्मामिच्छा- ३९१ चदुण्हमुवसामगाणमंतरं केवदिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो चिरं कालादो होदि, णाणाहोदि, णाणाजीवं पडुच्च ओघं। , जीवं पडुच्च ओघभंगो। १७७ ३८६ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण ३९२ एगजीवं पडच्च जहण्णेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदि अंतोमुहुत्तं । भागो, अंतोमुहुत्तं । " | ३९३ उक्कस्सेण अंगुलस्स असंखे३८७ उक्कस्सेण अंगुलस्स असंखे ज्जदिभागो असंखेज्जासंखेज्जदिमागो, असंखेज्जासंखे ज्जाओ ओसप्पिणि-उस्सप्पिज्जाओ ओसप्पिणि-उस्स- __णीओ। प्पिणीओ। ३९४ चदुण्हं खवाणमोघं । १७८ ३८८ असंजदसम्मादिट्ठिप्पहुडि जाव | ३९५ सजोगिकवली ओघं । अप्पमत्तसंजदाणमंतरं केवचिरं ३९६ अणाहारा कम्मइयकायजोगिकालादो होदि, णाणाजीवं भंगो। पडुच्च णत्थि अंतर, णिरंतरं । १७४ | ३९७ णवरि विसेसा, अजोगि३८९ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण केवली ओघं। . १७९ भावपरूवणासुत्ताणि । सूत्र संख्या सूत्र . पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ १ भावाणुगमेण दुविहो णिदेसो, । __ भावो, पारिणामिओ भावो। १९६ ओघेण आदेसेण य । १८३ ४ सम्मामिच्छादिढि त्ति को २ ओघेण मिच्छादिहि त्ति को । ___ भावो, खओवसमिओ भावो । १९८ भावो, ओदइओ भावो।. १९४ ५ असंजदसम्मादिट्टि ति को ३ सासणसम्मादिहि त्ति को । भावो, उवसमिओ वा खइओ Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशष्ट २१० २१२ (१८) सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ वा खओवसमिओ वा भावो। १९९ । वा भावो । ६ ओदइएण भावेण पुणो १८ ओदइएण भावेण पुणो असंजदो। २११ असंजदो। २०१] १९ तिरिक्खगदीए तिरिक्ख-पंचिं७ संजदासंजद-पमत्त-अप्पमत्त दियतिरिक्ख-पंचिंदियपज्जतसंजदा त्ति को भावो, खओव पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीसु मिसमिओ भावो। च्छादिढिप्पहुडि जाव संजदा८ चदुण्हमुवसमा त्ति को भावो, संजदाणमोघं । २१२ ओक्समिओ भावो। २०४ | २० णवरि विसेसो, पंचिंदिय९ चदण्हं खवा सजोगिकेवली तिरिक्खजोणिणीसु असंजद अजोगिकेवलि ति को भावो, सम्मादिहि त्ति को भावो, खइओ भावो। २०५ । ओवसमिओ वा खओवसमिओ १० आदेसेण गइयाणुवादेण णिरय वा भावो । • गईए णेरइएसु मिच्छादिहि त्ति २१ ओदइएण भावेण पुणो असंजदो। २१३ को भावो, ओदइओ भावो। २०६ / २२ मणुसगदीए मणुस-मणुसपज्जत्त११ सासणसम्माइट्टि त्ति को भावो, मणुसिणीसु मिच्छादिटिप्पहुडि पारिणामिओ भावो। २०७ जाव अजोगिकेवलि त्ति ओघ । , १२ सम्मामिच्छदिट्ठि त्ति को भावो, २३ देवगदीए देवेसु मिच्छादिट्ठि खओवसमिओ भावो। २०८ | प्पहुडि जाव असंजदसम्मादिहि १३ असंजदसम्मादिहित्ति को भावो, त्ति ओघं । २१४ उवसमिओ वा खइओ वा २४ भवणवासिय-वाण-तर-जोदिखओवसमिओ वा भावो।। सियदेवा देवीओ, सोधम्मीसाण१४ ओदइएण भावेण पुणो असंजदो। २०९ / कप्पवासियदेवीओ च मिच्छा१५ एवं पढमाए पुढवीए णेरइयाणं। " दिट्ठी सासणसम्मादिट्ठी सम्मा१६ विदियाए जाव सत्तमीए पुढवीए मिच्छादिट्ठी ओघ । , णेरइएसु मिच्छादिट्ठि-सासण- २५ असंजदसम्मादिहि त्ति को भावो, सम्मादिवि-सम्मामिच्छादिट्ठीण- __ उवसमिओ वा खओवसमिओ मोघं । २१० वा भावो। १७ असंजदसम्मादिवित्तिको भावो, २६ ओदइएण भावेण पुणो असंजदो। २१५ उपसमिओ का खओवसमिओ । २७ सोधम्मीसाणप्पहुडि जाव णव Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ २२९ सो भावपख्वणासुत्ताणि सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र गेवजविमाणवासियदेवेसु मिच्छा- । खइओ भावो। दिटिप्पहुडि जाव असंजदसम्मा- |३७ वेउध्वियकायजोगासु मिच्छा दिट्टि त्ति ओघं। २१५ दिढिप्पहुडि जाव असंजदसम्मा२८ अणुदिसादि जाव सबट्टसिद्धि दिहि त्ति ओघभंगो। " विमाणवासियदेवेसु असंजद- | ३८ वेउब्धियमिस्सकायजोगीसु मिसम्मादिहि ति को भावो, च्छादिट्ठी सासणसम्मादिट्ठी ओवसमिओ वा खइओ वा असंजदसम्मादिट्ठी ओघ । २२० खओवसमिओ वा भावो। " ३९ आहारकायजोगि-आहारमिस्स२९ ओदइएण भावेण पुणो असंजदो। २१६ कायजोगीसु पमत्तसंजदा त्ति ३० इंदियाणुवादेण पंचिंदियपजत्त- ___ को भावो, खओवसमिओ भावो। " एसु मिच्छादिट्टिप्पहुडि जाव ४० कम्मइयकायजोगासु मिच्छाअजोगिकेवलि त्ति ओघं। दिट्ठी सासणसम्मादिट्ठी असंजद३१ कायाणुवादेण तसकाइय-तस सम्मादिट्ठी सजोगिकेवली ओघं। २२१ काइयपज्जत्तएसु मिच्छादिहि- ४१ वेदाणुवादेण इत्थिवेद-पुरिसवेदप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति णउंसयवेदएसु मिच्छादिहिओघं। २१७ प्पहुडि जाव अणियट्टि त्ति ३२ जोगाणुवादेण पंचमणजोगि ओघं। पंचवचिजोगि-कायजोगि-ओरा ४२ अवगदवेदएसु अणियट्टिप्पहुडि लियकायजोगीसु मिच्छादिट्ठि जाव अजोगिकेवली ओघ । २२२ प्पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति ४३ कसायाणुवादेण कोधकसाइओघं। २१८ माणकसाइ-मायकसाइ-लोभ३३ ओरालियमिस्सकायजोगीसु मि कसाईसुमिच्छादिटिप्पहुडि जाव च्छादिद्वि--सासणसम्मादिट्ठीणं सुहुमसांपराइयउवसमा खवा ओघं। आघा २२३ ३४ असंजदसम्मादिवित्तिको भावो, ४४ अकसाईसु चदुट्ठाणी ओघं। , खइओ वा खओवसमिओ वा ४५ णाणाणुवादेण मदिअण्णाणिभावो। सुदअण्णाणि-विभंगणाणीसु मि३५ ओदइएण भावेण पुणो असंजदो। २१९ च्छादिट्ठी सासणसम्मादिट्ठी ३६ सजोगिकेवलि तिको भावो, । ओघं। २२४ Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओघं। (२०) परिशिष्ट सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ ४६ आभिणिबोहिय-सुद-ओधिणा- ५७ ओहिदंसणी ओहिणाणिभंगो। २२९ णीसु असंजदसम्मादिटिप्पहुडि | ५८ केवलदंसणी केवलणाणिभंगो। , जाव खीणकसायवीदरागछदु ५९ लेस्साणुवादेण किण्हलेस्सियमत्था ओघं । २२५ णीललेस्सिय काउलेस्सिएसुचदु४७ मणपज्जवणाणीसु पमत्तसंजद- हाणी ओघं। प्पहाडि जाव खीणकसायीद- ६० तेउलेस्सिय-पम्मलेस्सिएसु मिच्छारागछदुमत्था ओघं। दिट्टिप्पहुडि जाव अप्पमत्त४८ केवलणाणीसु सजोगिकेवली संजदा त्ति ओघं । " (अजोगिकेवली) ओघं । " |६१ सुक्कलेस्सिएसु मिच्छादिहि- .. ४९ संजमाणुवादेण संजदेसु पमत्त | पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति संजदप्पहुडि जाव अजोगिकेवली ओघं । २२७ | ६२ भविषाणुवादेण भवसिद्धिएमु ५० सामाइयछेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदेसु मिच्छादिटिप्पहुडि जाव अजोगिपमत्तसंजदप्पहुडि जाव अणि केवलि त्ति ओघ । यट्टि त्ति ओघं । " ५१ परिहारसुद्धिसंजदेसु पमत्त-अप्प ६३ अभवसिद्धिय त्ति को भावो, मत्तसंजदा ओघं। . पारिणामिओ भावो। " ५२ सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदेसु सुहु "६४ सम्मत्ताणुवादेण सम्मादिट्ठीसु मसांपराइया उवसमाखवा ओघं। , | | असंजदसम्मादिट्टिप्पहुडि जाव __ अजोगिकेवलि त्ति ओघं। २३१ ५३ जहाक्खादविहारसुद्धिसंजदेसु चदुट्ठाणी ओघ । २२८ | ६५ खइयसम्मादिट्ठीसु असंजद सम्मादिहि त्ति को भावो, ५४ संजदासजदा ओघं। । खइओ भावो। " ५५ असंजदेसु मिच्छादिढिप्पहुडि ६६ खइयं सम्मत्तं । जाव असंजदसम्मादिट्टि ति ओघं । ६७ ओदइएण भावेण पुणो असंजदो। २३२ ५६ दंसणाणुवादेण चक्खुदंसणि- ६८ संजदासंजद-पमत्त-अप्पमत्त अचक्खुदंसणीसु मिच्छादिट्ठि- संजदा त्ति को भावो, खओवप्पहुडि जाव खीणकसायवीद समिओ भावो। रागछदुमत्था त्ति ओघं । .., । ६९ खइयं सम्मत्तं । २३३ Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुगपरूवणासुत्ताणि (२१) सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र ७० चण्हमुवसमा त्ति को भावो, ८२ संजदासजद-पमत्त-अप्पमत्त___ओवसमिओ भावो । २३३ | संजदा त्ति को भावो, खओव७१ खइयं सम्मत्तं । समिओ भावो। २३६ ७२ चदुहं खवा सजोगिकेवली ८३ उवसमियं सम्मत्तं । अजोगिकेवलि त्ति को भावो, । ८४ चदुण्हमुवसमा त्ति को भावो, खइओ भावो । उपसमिओ भावो। ७३ खइयं सम्मत्तं । २३४ ८५ उवसमियं सम्मत्तं । ७४ वेदयसम्मादिट्ठीसुअसंजदसम्मा- ८६ सासणसम्मादिट्ठी ओघं । दिहि त्ति को भावो, खओव- ८७ सम्मामिच्छादिट्ठी ओघं। २३७ समिओ भावो। " ८८ मिच्छादिट्ठी ओघं।। ७५ खओवसमियं सम्मत्तं । ८९ सणियाणुवादेण सण्णीसु मिच्छा७६ ओदइएण भावेण पुणो असंजदो । २३५ दिटिप्पहुडि जाव खीणकसाय७७ संजदासंजद-पमत्त-अप्पमत्त वीदरागछदुमत्था त्ति ओघं। , संजदा त्ति को भावो, खओव- ९० असण्णि त्ति को भावो, ओदइओ समिओ भावो । भावो। ७८ खओक्समियं सम्मत्तं । ९१ आहाराणुवादेण आहारएसु ७९ उवसमसम्मादिट्ठीसु असंजद- मिच्छादिद्विप्पहुडिजाव सजोगिसम्मादिहि त्ति को भावो, उव केवलि त्ति ओघं । २३८ समिओ भावो। , ९२ अणाहाराणं कम्मइयभंगो। .. ८० उवसामिय सम्मत्तं । ९३ णवरि विसेसो, अजोगिकेवलि ८१ ओदइएण भावेण पुणो असंजदो। २३६ | त्ति को भावो, खइओ भावो । , अप्पाबहुगपरूवणासुत्ताणि । सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र १ अप्पाबहुआणुगमेण दुविहो । २ ओघेण तिसु अद्धासु उवसमा णिद्देसो, ओघेण आदेसेण य । २४१ / पवेसणेण तुल्ला थोवा। २४३ Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२) सूत्र संख्या सूत्र ३ उवसंत कसायवीदरागछदुमत्था तत्तिया चेय | ४ खवा संखेज्जगुणा । ५ खीणक सायवीदर गछदुमत्था त त्तिया चैत्र । ६ सजोगकेवली अजोगकेवली पवेसणेण दो वितुल्ला तत्तिया चेव । परिशिष्ट पृष्ठ सूत्र संख्या २४५ 19 २४६ " ७ सजोगिकेवली अद्धुं पडुच्च संखेज गुणा । ८ अप्पमत्तसंजदा अक्खवा अणुवसमा संखेजगुणा । ९ पमत्त संजदा संखेज्जगुणा । १० संजदासंजदा असंखेज्जगुणा । ११ सासणसम्मादिट्ठी असंखेञ्जगुणा । १२ सम्मामिच्छादिट्ठी संखेज्जगुणा । १३ असंजदसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा । २५३ १४ मिच्छादिट्ठी अनंतगुणा । १५ असंजद सम्मादिट्ठिट्ठाणे सव्वत्थावा उवसमसम्मादिट्ठी । १६ खइयसम्मादिट्ठी असंखेञ्जगुणा । १७ वेदसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा । २५६ १८ संजदासंजदट्ठाणे 29 सव्वत्थोवा खइयसम्मादिट्ठी । १९ उवसमसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा । २० वेदगसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा । २१ पत्तापमत्तसंजदट्ठाणे सव्व २४७ 19 "" २४८ 19 २५० २५१ २५२ 29 २५७ 29 सूत्र त्थोवा उवसमसम्मादिट्ठी । २२ खइयसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा । २३ वेदसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा । २४ एवं तिमुवि अद्धासु । २५ सव्वत्थोवा उवसमा । २६ खवा संखेज्जगुणा । २७ आदेसेण गदियाणुवादेण णिरय गदीए णेरइएसु सव्वत्थोवा सास सम्मादिट्ठी । ३६ सम्मामिच्छादिट्ठी संखेज्जगुणा । ३७ असंजदसम्मादिट्ठी असंखेज्ज पृष्ठ २५८ गुणा । ३८ मिच्छादिट्ठी असंखेज्जगुणा । ३९ असंजदसम्मादिट्ठिट्ठाणे सव्वत्थोवा उवसमसम्मादिट्ठी । ४० वेद्गसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा । " २६१ २८ सम्मामिच्छादिट्ठी संखेज्जगुणा ।" २९ असंजदसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा । ३० मिच्छादिट्ठी असंखज्जगुणा । ३१ असंजदसम्मादिट्ठाणे सव्वत्थोवा उवसमसम्मादिट्ठी । ३२ खइयसम्मादिट्ठी असंखेज्ज "1 27 २५९ २६० २६२ गुणा । 99 77 ३३ वेद सम्मादिट्ठी असंखेजगुणा । २६४ ३४ एवं पढमाए पुढवीए णेरइया । ३५ विदिया जाव सत्तमाए पुढवीए इस सव्वत्थोवा सासणसम्मादिट्ठी । " २६३ २६५ " २६६ 77 २६७ " Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुगपरूवणासुत्ताणि पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र संख्या सूत्र ४१ तिरिक्खगदीए तिरिक्ख-पंचिदियतिरिक्ख - - पंचिदियपज्जत्ततिरिक्ख --- पंचिदियजोणिणीसु सव्वत्थोवा संजदासंजदा | २६८ ४२ सासणसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा । ४३ सम्मामिच्छादिट्टिणो संखेज्ज - गुणा । ४४ असंजदसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा । ४५ मिच्छादिट्ठी अनंतगुणा, मिच्छादिट्ठी असंखेज्जगुणा | ४६ असंजद सम्मादिट्ठिट्ठाणे सव्त्रत्थोवा उवसमसम्मादिट्ठी । असंखेज्ज ४७ खइयसम्मादिट्ठी गुणा । असंखेज्ज ४८ वेद सम्मादिट्ठी गुणा । ४९ संजदासंजदट्ठाणे सव्वत्थोवा समसम्माट्ठी । ५० वेदसम्मादिट्ठी गुणा । असंखेज्ज ५१ णवरि विसेसो, पंचिदियतिरिक्खजोणिर्णासु असंजदसम्मादिट्ठि-संजदासंजदट्ठाणे सव्व त्थोवा उवसमसम्मादिट्ठी | ५२ वेदगसम्मादिट्ठी गुणा । असंखेज्ज " 27 २६९ 97 २७० २७१ 17 २७२ "" 99 99 ( २३ ) सूत्र ५३ मणुसगदीए मणुस मणुसपञ्जत्तमसिणीसु तिसु अद्धासु उवसमा पवेसणेण तुल्ला थोवा । २७३ ५४ उवसंतकसायवीदरागछदुमत्था तेत्तिया चेव । ५५ खवा संखेज्जगुणा । ५६ खीणकसायवीदरागछदुमत्था तत्तिया चेव । ५७ सजोगिकेवली अजोगिकेवली पवेसण दो वितुल्ला, तत्तिया चैव । ५८ सजोगिकेवली अद्धं पडुच्च संखेज्जगुणा । ५९ अप्पमत्तसजदा अक्खवा अणुवसमा संखेज्जगुणा | ६६ असंजदसम्मादिट्ठिट्ठाणे सव्वत्थोवा उवसमसम्मादिट्ठी । पृष्ठ सम्मादिट्ठी | ७० उवसमसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा । 17 २७४ 17 77 17 ६० पमत्तसजदा संखेज्जगुणा । ६१ संजदासंजदा संखेज्जगुणा । ६२ सासणसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा । ६३ सम्मामिच्छादिट्ठी संखेज्जगुणा । २७६ ६४ असंजदसम्मादिट्ठी संखेजगुणा । ६५ मिच्छादिट्ठी 17 असंखेज्जगुणा, मिच्छादिट्ठी संखेज्जगुणा । 97 २७५ "" " " ६७ खइयसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा । २७७ ६८ वेद सम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा । ६९ संजदासंजदट्ठाणे सन्वत्थोवा 27 17 11 "" Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र (२४) परिशिष्ट सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या पृष्ठ ७१ वेदगसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा। २७७ ८९ सोहम्मीसाण जाव सदार-सह७२ पमत्त-अप्पमत्तसंजदट्ठाणे सब स्सारकप्पवासियदेवेसु जहा त्थोवा उवसमसम्मादिट्ठी। २७८ देवगइभंगो। २८२ ७३ खइयसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा। , ९० आणदंजाव णवगेवज्जविमाण७४ वेदगसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा। , वासियदेवेसु सव्वत्थोवा ७५ णवरि विसेसो, मणुसिणीसु। सासणसम्मादिट्ठी। ३८३ ९१ सम्मामिच्छादिट्ठी संखेज्जअसंजद-संजदासंजद-पमत्तापमत्त गुणा। संजदट्ठाणे सव्वत्थोवा खइयसम्मादिट्ठी। ९२ मिच्छादिट्ठी असंखेज्जगुणा। , ९३ असंजदसम्मादिट्ठी संखेजगुणा। , ७६ उवसमसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा। , ९४ असंजदसम्मादिहिट्ठाणे सन्च७७ वेदगसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा । २७९ ___ त्थोवा उवसमसम्मादिट्ठी। २८४ ७८ एवं तिसु अद्धासु । ९५ खइयसम्मादिट्ठी असंखेज्ज७९ सव्वत्थोवा उवसमा। २७९ गुणा। ८० खवा संखेज्जगुणा । २८० ९६ वेदगसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा । २८५ ८१ देवगदीए देवेसु सम्वत्थोवा ९७ अणुदिसादि जाव अवराइदसासणसम्मादिट्ठी। विमाणवासियदेवेसु असंजद८२ सम्मामिच्छादिट्ठी संखेज्जगुणा। ,, सम्मादिहिट्ठाणे सव्वत्थोवा ८३ असंजदसम्मादिट्ठी असंखेज्ज उवसमसम्मादिट्टी। ९८ खइयसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा । गुणा। ८४ मिच्छादिट्ठी असंखेज्जगुणा । , ९९ वेदगसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा। " ८५ असंजदसम्मादिहिट्ठाणे सब- १०० सव्वट्ठसिद्धिविमाणवासियदेवेसु त्थोवा उवसमसम्मादिट्ठी। , असंजदसम्मादिट्टिट्ठाणे सब८६ खइयसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा। , त्थोवा उवसमसम्मादिट्ठी। २८६ ८७ वेदगसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा । २८१ | १०१ खइयसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा। ,, ८८ भवणवासिय-वाण-तर-जोदि- १०२ वेदगसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा। , सियदेवा देवीओ सोधम्मीसाण- | १०३ इंदियाणुवादेण पंचिंदिय-पंचिंकप्पवासियदेवीओ च सत्तमाए दियपज्जत्तएसु ओघ । णवरि पुढवीए भंगो। मिच्छादिट्ठी असंखेज्जगुणा। २८८ Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुगपरूवणासुत्ताणि सूत्र संख्या सूत्र १०४ कायाणुवादेण तसकाइय- तसकाइयपजत्सु ओघं । णवरि मिच्छादिट्ठी असंखेज्जगुणा । २८९ १०५ जोगाणुवादेण पंचमणजोग - पंचवचिजोगि -- कायजोगि-ओरालियकायजोगीसु तीसु अद्धा पवेसण तुला थोवा । २९० १०६ उवसंतकसायवीदरागछदुमत्था तेत्तिया चेव । १०७ खवा संखेज्जगुणा । १०८ खीणक सायवीदरागछदुमत्था तेत्तिया चेव । १०९ सजोगिकेवली पवेसणेण तत्तिया चेव । ११० सजोगिकेवली अद्धं पडुच्च संजगुण | ११६ असंजदसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा । ११७ मिच्छादिट्ठी असंखेज्जगुणा, मिच्छादिट्ठी अनंतगुणा । ११८ असंजदसम्मादिट्ठि --संजदा- पृष्ठ सूत्र संख्या "" "" २९१ 11 १११ अप्पमत्तसंजदा अक्खवा अणुवसमा संखेज्जगुणा । ११२ पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा । "" ११३ संजदासंजदा असंखेजगुणा । २९२ ११४ सासणसम्मादिट्ठी असंखेज्ज - गुणा । ११५ सम्मामिच्छादिट्ठी संखेज्जगुणा । "7 77 "" 99 "7 २९३ सूत्र (२५) संजद - मत्तापमत्त संजदट्ठाणे सम्मत्तप्पाबहुअमोघं । ११९ एवं तिसु अद्धासु । १२० सव्वत्थोवा उवसमा । १२१ खवा संखेज्जगुणा । १२२ ओरालियमिस्सकायजोगीसु सव्वत्थोवा सजोगिकेवली पृष्ठ २९३ २९४ " " " १२३ असंजदसम्मादिट्ठी संखेज्ज गुणा । १२४ सास सम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा । १२५ मिच्छादिट्ठी अनंतगुणा । १२६ असंजदसम्माइट्ठिट्ठाणे सव्वत्थोवा खइयसम्मादिट्ठी । १२७ वेदगसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा । १२८ वेउब्वियकायजोगीसु देवगदिभंगो । १२९ वेडव्त्रियमिस्सकायजोगीसु सव्वत्थोवा सासणसम्मादिट्ठी । २९६ १३० असंजदसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा । १३१ मिच्छादिट्ठी असंखेज्जगुणा । १३२ असंजदसम्मादिट्ठिट्ठाणे सव्वत्थोवा उवसमसम्मादिट्ठी । १३३ खइयसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा । १३४ वेदसम्मादी असंखेज्जगुणा । १३५ आहारकायजोगि आहारमिस्स "" २९५ "" "" " "" 29 19 २९७ 19 "" Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ २९९ (२६) परिशिष्ट सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र कायजोगीसु पमससंजदट्ठाणे । १५२ मिच्छादिट्ठी असंखेज्जगुणा । ३०२ सव्वत्थोवा खइयसम्मादिट्ठी । २९७ १५३ असंजदसम्मादिहि-संजदासंजद१३६ वेदगसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा। २९८ ट्ठाणे सव्वत्थोवा खइयसम्मा१३७ कम्मइयकायजोगीसु सव्व दिट्ठी। त्थोवा सजोगिकेवली। , । १५४ उवसमसम्मादिट्ठी असंखेज्ज१३८ सासणसम्मादिट्ठी असंखेज्ज गुणा। ३०३ गुणा । १५५ वेदगसम्मादिट्ठी असंखेज्ज१३९ असंजदसम्मादिट्ठी असंखेज्ज गुणा। ___ गुणा। १५६ पमत्त-अप्पमत्तसंजदट्ठाणे सव्व१४० मिच्छादिट्ठी अणंतगुणा। त्थोवा खइयसम्मादिट्ठी। " १४१ असंजदसम्मादिडिट्ठाणे सव्व- | १५७ उवसमसम्मादिट्ठी संखेजगुणा। ,, स्थोवा उवसमसम्मादिट्ठी। , १५८ वेदगसम्मादिट्ठी संखेज१४२ खइयसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा। , गुणा । १४३ वेदगसम्मादिट्ठी असंखेज्ज- १५९ एवं दोसु अद्धासु । गुणा। १६० सव्वत्थोवा उवसमा । ३०४ १४४ वेदाणुवादेण इत्थिवेदएसु दोसु १६१ खवा संखेज्जगुणा । " वि अद्धासु उवसमा पवेसणेण १६२ पुरिसवेदएसु दोसु अद्धासु तुल्ला थोवा। " उवसमा पवेसणेण तुल्ला थोवा। , १५५ खवा संखेज्जगुणा । ३०१ १६३ खवा संखेज्जगुणा । १४६ अप्पमत्तसंजदा अक्खवा अणुवसमा संखेजगुणा। अक्खवा १६४ अप्पमत्तसंजदा , अणुवसमा संखेज्जगुणा। ३०५ १४७ पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा। , १४८ संजदासजदा असंखेज्जगुणा। , १६५ पमत्तसंजदा संखेजगुणा । १४९ सासणसम्मादिट्ठी असंखेज्ज १६६ संजदासजदा असंखेजगुणा। , १६७ सासणसम्मादिट्ठी असंखेज्ज१५० सम्मामिच्छादिट्ठी संखेज्ज गुणा। गुणा । ३०२ १६८ सम्मामिच्छादिट्ठी संखेज्ज१५१ असंजदसम्मादिट्ठी असंखेज्ज गुणा। गुणा। " । १६९ असंजदसम्मादिट्ठी असंखेज्ज गुणा। Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र संख्या सूत्र गुणा । १७० मिच्छादिट्ठी असंखेज्जगुणा । १७१ असंजदसम्मादिट्टि -संजदा-संजद - पमत्त - अप्पमत्त संजदट्ठाणे सम्मत्तप्पाबहुअमोघं । १७२ एवं दो अद्धासु । १७३ सव्वत्थोवा उवसमा । अप्पा बहुगपरूवणासुत्ताणि पृष्ठ सूत्र संख्या १७४ खवा संखेज्जगुणा । १७५ णउंसयवेदसु दोसु अद्धामु उवसमा पवेसणेण तुल्ला थोवा । ३०६ 27 "" १८५ पमत्त-अपमत्तसंजदट्ठाणे सव्वत्थोवा खइयसम्मादिट्ठी । १८६ उवसमसम्मादिट्ठी संखेज्ज 77 "" ३०७ १७६ खवा संखेज्जगुणा । १७७ अप्पमत्त संजदा अक्खवा अणुवसमा संखेज्जगुणा । १७८ पमत्त संजदा संखेज्जगुणा । 19 १७९ संजदासंजदा असंखेज्जगुणा । ३०८ १८० सास सम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा । १८१ सम्मामिच्छादिट्ठी संखेज्जगुणा । १८२ असंजदसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा । १८३ मिच्छादिट्ठी अणंतगुणा । १८४ असंजदसम्मादिट्टि -संजदा-संजदट्ठाणे सम्मत्तप्पाबहुअमोघं । "" " 17 " " " " ३०९ "7 सूत्र (२७) पृष्ठ ३१० गुणा । १८७ वेदगसम्मादिड्डी संखेज्जगुणा । १८८ एवं दो अद्धासु । १८९ सव्वत्थोवा उवसमा । १९३ खवा संखेज्जगुणा । १९४ खीणकसायवीदरागछदुमत्था तत्तिया चेत्र । १९५ सजोगकेवली अजोगकेवली पवेसण दो वितुल्ला तत्तिया चेव । १९६ सजोगिकेवली अद्धं पडुच्च संखेज्जगुणा । १९७ कसायाणुवादे कोधकसाइमाणकसाइ- मायकसाइ-लोभकंसाई दोमु अद्धासु उवसमा पवेसणेण तुल्ला थोवा | १९८ खवा संखेज्जगुणा । १९९ वर विसेसा, लोभकसाईसु सुमसां पराइ उवसमा विसेसाहिया । १९० खवा संखेज्जगुणा । १९१ अवगदवेदसु दोसु अद्धासु उसमा पवेसणेण तुल्ला थोवा । ३११ १९२ उवसंतकसायवीदरागछदुमत्था तत्तिया चेव । २०० खवा संखेञ्जगुणा । २०१ अप्पमत्त संजदा अक्खवा अणुवसमा संखेज्जगुणा । २०२ पमत्तसजदा संखेज्जगुणा । 19 19 " 17 39 11 66 19 17 ३१२ 19 19 ३१३ 19 " Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ परिशिष्ट सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या २०३ संजदासजदा असंखेज्जगुणा । ३१४ । णीसु तिसु अद्धासु उवसमा २०४ सासणसम्मादिट्ठी असंखेज्ज पवेसणेण तुल्ला थोवा । ३१७ गुणा । २१९ उवसंतकसायवीदरागछदुमत्था २०५ सम्मामिच्छादिट्ठी संखेज्ज तत्तिया चेव । गुणा । २२० खवा संखेज्जगुणा। ३१८ २०६ असंजदसम्मादिट्ठी असंखेज- २२१ खीणकसायवीदरागछदुमत्था गुणा। तेत्तिया चेव । २०७ मिच्छादिट्ठी अणंतगुणा। , | २२२ अप्पमत्तसंजदा अक्खवा अणु२०८ असंजदसम्मादिहि--संजदा-- वसमा संखेज्जगुणा। संजद-पमत्त-अप्पमत्तसंजद २२३ पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा। , डाणे सम्मत्तप्पाबहुअमोघं । ३१५ २२४ संजदासजदा असंखेज्जगुणा । , २०९ एवं दोसु अद्धासु । २२५ असंजदसम्मादिट्ठी असंखेज्ज- .. २१० सव्वत्थोवा उवसमा । गुणा । २११ खवा संखेज्जगुणा । २२६ असंजदसम्मादिट्ठि--संजदा२१२ अकसाईसु सव्वत्थोवा उवसंत संजद-पमत्त-अप्पमत्तसंजदट्ठाणे कसायवीदरागछदुमत्था ।। ३१६ सम्मत्तप्पाबहुगमोघं। २१३ खीणकसायवीदरागछदुमत्था २२७ एवं तिसु अद्धासु । संखेज्जगुणा। २२८ सव्वत्थोवा उवसमा । २१४ सजोगिकेवली . अजोगिकेवली २२९ खवा संखेज्जगुणा। पवेसणेण दो वि तुल्ला तत्तिया २३० मणपज्जवणाणीसुतिसु अद्धासु चेव । . .. " उवसमा पवेसणेण तुल्ला थोवा । ३२० २१५ सजोगिकेवली अद्धं पहुच्च । २३१ उवसंतकसायीदरागछदुमत्था संखेज्जगुणा तत्तिया चेव । २१६ णाणाणुवादेण मदिअण्णाणि- २३२ खवा संखेज्जगुणा। सुदअण्णाणि-विभंगण्णाणीसु २३३ खीणकसायवीदरागछ दुमत्था । सव्वत्थोवा सासणसम्मादिट्ठी। , तत्तिया चेव ।। २१७ मिच्छादिट्ठी अणंतगुणा, | २३४ अप्पमत्तसंजदा अक्खवा अणु मिच्छादिट्ठी असंखेज्जगुणा । ३१७ वसमा संखेज्जगुणा । २१८ आभिणिबोहिय-सुद-ओधिणा- २३५ पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा । ३१९ Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२९) अप्पाबहुगपरूवणासुत्ताणि सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ २३६ पमत्त-अप्पमत्तसंजदट्ठाणे सव्व त्थोवा उवसमसम्मादिट्ठी। ३२४ त्थोवा उवसमसम्मादिट्ठी। ३२० २५३ खइयसम्मादिट्ठी संखेज्ज२३७ खइयसम्माइट्ठी संखेज्जगुणा। ३२१ गुणा । २३८ वेदगसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा। , २५४ वेदगसम्मादिट्ठी संखेजगुणा । ३२५ २३९ एवं तिसु अद्धासु। २५५ एवं तिसु अद्धासु । " २४० सव्वत्थोवा उवसमा। " २५६ सव्वत्थोवा उवसमा। " २४१ खवा संखेज्जगुणा । २५७ खवा संखेज्जगुणा । २४२ केवलणाणासु सजोगिकेवली २५८ सामाइयच्छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजअजोगिकेवली पवेसणेण दो देसु दोसु अद्धासु उवसमा वि तुल्ला तत्तिया चेव । पवेसणेण तुल्ला थोवा। २४३ सजोगिकेवली अद्धं पडुच्च . २५९ खवा संखेज्जगुणा। संखेज्जगुणा । ३२२ २६० अप्पमत्तसंजदा अक्खवा अणु२४४ संजमाणुवादेण संजदेसु तिसु वसमा संखेज्जगुणा । अद्धासु उवसमा पवेसणेण २६१ पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा। ३२६ तुल्ला थोवा। २६२ पमत्त-अप्पमत्तसंजदट्ठाणे सव्य२४५ उवसंतकसायवीदरागछदुमत्था त्थोवा उवसमसम्मादिट्ठी। , तत्सिया चेव । २६३ खइयसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा। , २४६ खवा संखेज्जगुणा । २६४ वेदगसम्मादिट्टी संखेज्जगुणा। , २४७ खीणकसायीदरागछदुमत्था २६५ एवं दोसु अद्धासु । तत्तिया चेव । ३२३ २६६ सव्वत्थोवा उवसमा । , २४८ सजोगिकेवली अजोगिकेवली २६७ खवा संखेज्जगुणा।। पवेसणेण दो वि तुल्ला तत्तिया २६८ परिहारसुद्धिसंजदेसु सबचेव। ३२४ त्थोवा अप्पमत्तसंजदा। ३२७ २४९ सजोगिकेवली अद्धं पडुच्च | २६९ पमत्तसजदा संखजगुणा। , __संखेज्जगुणा। | २७० पमत्त-अप्पमत्तसंजदट्ठाणे सव्व२५. अप्पमत्तसंजदा अक्खवा । त्थोवा खइयसम्मादिट्ठी। , अणुवसमा संखेज्जगुणा । , २७१ वेदगसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा। , २५१ पमससंजदा संखेज्जगुणा । " | २७२ सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदेसु सु२५२ पमत्त-अप्पमत्तसंजदहाणे सव्व- । हुमसांपराझ्यउवसमा थोवा । ३२८ Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणा । (३०) परिशिष्ट सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ २७३ खवा संखेज्जगुणा। ३२८ । दिट्ठी असंखेज्जगुणा । ३३१ २७४ जधाक्खादविहारसुद्धिसंजदेसु | २८८ ओधिदंसणी ओधिणाणिभंगो। , अकसाइभंगो। | २८९ केवलदसणी केवलणाणिभंगो। , २७५ संजदासंजदेसु अप्पाबहुअं २९० लेस्साणुवादेण किण्हलेस्सियणथि । णीललेस्सिय-काउलेस्सिएसु २७६ संजदासंजदट्ठाणे सव्वत्थोवा सव्वत्थोवा सासणसम्मादिट्ठी। ३३२ खइयसम्मादिट्ठी ।। २९१ सम्मामिच्छादिट्ठी संखेज्ज२७७ उवसमसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा। ३२९ २९२ असंजदसम्मादिट्ठी असंखेज्ज२७८ वेदगसम्मादिट्ठी असंखेज्ज गुणा। गुणा। २९३ मिच्छादिट्ठी अर्णतगुणा। , २७९ असंजदेसु सव्वत्थोवा सासण- २९४ असंजदसम्मादिडिट्ठाणे सव्वसम्मादिट्ठी। त्थोवा खड्यसम्मादिट्ठी । , २८० सम्मामिच्छादिट्ठी संखेज्ज- २९५ उवसमसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा। गुणा। ३३३ २८१ असंजदसम्मादिट्ठी असंखेज्ज- ३९६ वेदगसम्मादिट्ठी असंखेज्ज गुणा । २८२ मिच्छादिट्ठी अणंतगुणा। ३३० | | २९७ णवरि विसेसो, काउलेस्सिएसु २८३ असंजदसम्मादिट्टिट्ठाणे सव्व असंजदसम्मादिहिट्ठाणे सव्वत्थोवा उवसमसम्मादिट्ठी। , त्थोवा उवसमसम्मादिट्ठी। , २८४ खइयसम्मादिट्ठी असंखेज्ज | २९८ खइयसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा । गुणा। २८५ वेदगसम्मादिट्ठी असंखेज्ज २९९ वेदगसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा। ३३४ २८६ दंसणाणुवादेण चक्खुदंसणि ३०० तेउलेस्सिय--पम्मलेस्सिएसु अचक्खुदंसणीसु मिच्छादिट्ठि सव्वत्थोवा अप्पमत्तसंजदा। , प्पहुडि जाव खीणकसायवीद | ३०१ पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा । " रागछदुमत्था त्ति ओघ । ३३१ ३०२ संजदासंजदा असंखेज्जगुणा । , २८७ णवरि चक्खुदंसणीसु मिच्छा- । ३०३ सासणसम्मादिट्ठी असंखेज्ज गुणा। Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणा। अप्पाबहुगपरूवणासुत्ताणि (३१) सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ • ३३४ | ३२१ असंजदसम्मादिविट्ठाणे सव्व३०४ सम्मामिच्छादिट्ठी संखेज्ज त्थोवा उवसमसम्माइट्ठी। ३३८ गुणा। ३३५, ३२२ खइयसम्मादिट्ठी असंखेज्ज३०५ असंजदसम्मादिट्ठी असंखेज्ज गुणा। गुणा। | ३२३ वेदगसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा। , ३०६ मिच्छादिट्ठी असंखेज्जगुणा। , ३२४ संजदासंजद-पमत्त-अप्पमत्त३०७ असंजदसम्मादिहि--संजदा-- संजदट्ठाणे सम्मत्तप्पाबहुगसंजद-पमत्त-अप्पमत्तसंजदट्ठाणे मोघं । ३३९ सम्मत्तप्पाबहुअमोघं । " | ३२५ एवं तिसु अद्धासु । ३०८ सुक्कलेस्सिएमु तिसु अद्धासु ३२६ सव्वत्थोवा उवसमा। उवसमा पवेसणेण तुल्ला थोवा। ३३६ ३२७ खवा संखेज्जगुणा । ३०९ उपसंतकसायीदरागछदुमत्था ३२८ भवियाणुवादेण भवसिद्धिएम तत्तिया चेव । ३१० खवा संखेज्जगुणा । मिच्छादिट्ठी जाव अजोगि केवलि त्ति ओघं । ३११ खीणकसायवीदरागछदुमत्था तत्तिया चेव । ३२९ अभवसिद्धिएसु अप्पाबहुअं णत्थि । ३१२ सजोगिकेवली पवेसणेण तत्तिया ३३० सम्मत्ताणुवादेण सम्मादिट्ठीसु चेव। ओधिणाणिभंगो। " ३१३ सजोगिकेवली अद्धं पडुच्च ३३१ खइयसम्मादिट्ठीसुतिसु अद्धासु संखेज्जगुणा। उवसमा पवेसणेण तुल्लाथोवा। , ३१४ अप्पमत्तसंजदा अक्खवा अणुवसमा संखेज्जगुणा । ३३२ उवसंतकसायवीदरागछदुमत्था ३१५ पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा । तत्तिया चेव । , ३१६ संजदासजदा असंखेज्जगुणा। , ३३३ खवा संखेज्जगुणा। ३४१ ३१७ सासणसम्मादिट्ठी असंखेज्ज ३३४ खीणकसायवीदरागछदुमत्था गुणा। तत्तिया चेव । ३१८ सम्मामिच्छादिट्ठी संखेजगुणा। ,, | ३३५ सजोगिकेवली अजोगिकेवली ३१९ मिच्छादिट्ठी असंखेज्जगुणा। ३३८ पवेसणेण दो वि तुल्ला तत्तिया ३२० असंजदसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा । है | ३३६ सजोगिकेवली अद्धं पडुच्च सज्ज " चेव । Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२ ) सूत्र संख्या सूत्र संखेज्जगुणा । ३३७ अप्पमत्तसंजदा अक्खवा अणुवसमा संखेज्जगुणा । ३३८ पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा । ३३९ संजदासंजदा संखेज्जगुणा । ३४० असंजदसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा । ३४१ असंजदसम्मादिट्ठि - संजदा-संजद - पमत्त - अप्पमत्त संजदट्ठाणे खइयसम्मत्तस्स भेदो णत्थि । ३४२ वेद सम्मादिट्ठीसु सव्वत्थोवा अप्पमत्त संजदा । ३४३ पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा । ३४४ संजदासंजदा असंखेज्जगुणा । ३४५ असंजदसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा । ३४६ असंजदसम्मादिट्ठि - संजदा-संजद - पमत्त - अप्पमत्तसंजदद्वा वेदगसम्मत्तस्स भेदो णत्थि । तिसु ३४७ उवसमसम्मादिट्ठीसु अद्धासु उवसमा पवेसणेण तुल्ला थोवा । ३४९ अप्पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा । अणुवसमा ३५० पमत्त संजदा संखेज्जगुणा । ३५१ संजदासंजदा असंखेज्जगुणा । परिशिष्ट पृष्ठ सूत्र संख्या ३४१ | ३५२ असंजदसम्मादिट्ठी असंखेज्ज गुणा । ३५३ असंजदसम्मादिट्ठि - संजदा-संजद - पमत्त - अप्पमत्तसंजदट्ठाणे उवसमसम्मत्तस्स भेदो णत्थि । ३५४ सासणसम्मादिट्ठि- सम्मामिच्छादिट्टि -मिच्छादिट्ठीणं णत्थि अप्पा बहुअं । ३५५ सणियाणुवादेण सणीसु मिच्छादिट्टि पहुडि जान खीणकसायवीदरागछदुमत्था त्ति ३४८ उबसंतकसायवीदरागछदुमत्था तत्तिया चेव । 33 ३४२ 77 97 " " ३४३ "" "" 77 ३४४ "" 77 "" 97 सूत्र गुणा । ३५७ असण्णी ३५८ आहाराणुवादेण ओघं । ३५६ णवरि, मिच्छादिट्ठी असंखेज्ज ३४४ त्थि अग्पाबहुअं । आहारएसु तिसु अद्धासु उवसमा पवेसणेण तुल्ला थोवा । ३४५ ३५९ उवसंतकसायवीदरा गछदुमत्था तत्तिया चेव । ३६० खत्रा संखेज्जगुणा । ३६१ खीणकंसायवीदरागछदुमत्था तत्तिया चेव । ३६२ सजोगिकेवली तत्तिया चेव । पवेसणेण ३६३ सजोगिकेवली अद्धं पडुच्च संखेज्जगुणा । ३६४ अप्पमत्तसंजदा अणुवसमा संखेज्जगुणा । पृष्ठ अक्खवा 17 "" ३४६ 77 17 97 ३४७ 17 19 " 19 Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवतरण-गाथा-सूची (३१) सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ ३६५ पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा। ३४७ | ३७४ खवा संखेज्जगुणा। ३४८ ३६६ संजदासजदा असंखेज्जगुणा। , ३७५ अणाहारएसु सव्वत्थोवा ३६७ सासणसम्मादिट्ठी असंखेज्ज सजोगिकेवली। गुणा। ___" | ३७६ अजोगिकेवली संखेज्जगुणा । " ३६८ सम्मामिच्छादिट्ठी संखेज्ज- ३७७ सासणसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा। गुणा। ३४९ ३६९ असंजदसम्मादिट्ठी असंखेज्ज ३७८ असंजदसम्मादिट्ठी असंखेज्ज गुणा। ३७० मिच्छादिट्ठी अणंतगुणा । , ३७९ मिच्छादिट्ठी अणंतगुणा। , ३७१ असंजदसम्मादिट्टि--संजदा-- ३८० असंजदसम्मादिडिट्ठाणे सव्वसंजद-पमत्त-अप्पमत्तसंजद त्थोवा उवसमसम्मादिट्टी। " ट्ठाणे सम्मत्तप्पाबहुअमोघं । , ३८१ खइयसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा। ३५० ३७२ एवं तिसु अद्धासु । ३८२ वेदगसम्मादिट्ठी असंखेज३७३ सव्वत्थोवा उवसमा । गुणा। गुणा। ३४८ २ अवतरण-गाथा-सूची (भावप्ररूपणा) +sks क्रम संख्या गाथा पृष्ठ अन्यत्र कहां क्रम संख्या गाथा पृष्ठ अन्यत्र कहाँ १ अप्पिदआदरभावो १८६ ९णाणण्णाणं च तहा १९१ ११ इगिवीस अट्ठ तहणव १९२ २णामिणि धम्मुवयारो १८६ १२ एकोत्तरपदवृद्धो १९३ १४ देसे खओवसमिए १९४ १० एयं ठाणं तिण्णि विय-१९२ १३ मिच्छत्ते दस भंगा , ५ ओदइओ उवसमिओ १८७ ८ लद्धीओ सम्मत्तं १९१ ४ खवए य खीणमोहे १८६ षट्खंडा. ३ सम्मत्तुप्पत्तीय वि १८६ षखंडा. वेदनाखंड. वेदनाखंड, गो.जी. ६७. गो. जी. ६६. ६गदि-लिंग-कसाया वि १८९ | ७ सम्मत्तं चारित्तं दो १९० Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ न्यायोक्तियां क्रम संख्या न्याय पृष्ठ क्रम संख्या न्याय १ एगजोगणिहिट्ठाणमेगदेसो | ३ कारणाणुसारिणा कज्जेण णाणुवट्टदि त्ति णायादो। २५९ होदव्वमिदि णायादो । २ जहा उद्देसो तहा णिहेसो। ४, ९, २५, २७, ७१, ४ समुदाएसु पयहाणं तदेग१९४, २७० देसे वि पउत्तिदंसणादो। ४ ग्रन्थोल्लेख १ चूलियासुत्त १. तं कधं णव्वदे? 'पंचिदिएसु उवसातो गम्भोवकंतिएसु उवसामेदि, णो सम्मुच्छिमेसु' त्ति चूलियासुत्तादो। २ दवाणिओगद्दार १. एदेहि पलिदोवममवहिरदि अंतोमुहुत्तेण कालेणेत्ति दवाणिओगहारसुत्तादो णव्वदि । २५२ __२. आणद-पाणद जाव णवगेवज्जविमाणवासियदेवेसु मिच्छादिटिप्पहुडि जाव असंजदसम्मादिट्ठी दब्वपमाणेण केवडिया, पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। एदेहि पलिदोवममवहिरदि अंतोमुहुत्तेण । अणुदिसादि जाव अवराइदविमाणवासियदेवेसु असंजदसम्मादिट्ठी दव्वपमाणेण केवडिया, पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो । एदेहि पलिदोवममवहिरदि अंतोमुहुत्तेणेत्ति एदेण व्वसुत्तेण । २८७ ३ पाहुडसुत्त (कषायप्राभृत) १. चदुण्हं कसायाणमुक्कस्संतरस्स छम्मासमेत्तस्सेव सिद्धीदो। ण पाहुडसुत्तेण वियहिचारो, तस्स भिण्णोवदेसत्तादो । ११२ २. तं पि कुदो णव्वदे ? 'णियमा मणुगसदीए' इदि सुत्तादो। २५६ ४ सूत्रपुस्तक १. केसु वि सुत्तपोत्थएसु पुरिसवेदस्संतरं छम्मासा। Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द अतिप्रसंग अधस्तनराशि अनर्पित अकषायत्व अचक्षुदर्शनस्थिति अचित्ततदूव्यतिरिक्तद्रव्यान्तर अनात्मभूतभाव अनात्मस्वरूप अनादिपारिणामिक अनुदयोपशम अन्तदीपक अन्तर अन्तरानुगम अन्तर्मुहूर्त अन्यथानुपपत्ति अपगतवेदत्व अपश्चिम अपूर्वाद्धा अभिधान अर्थ अर्धपुद्गल परिवर्तन अर्पित अल्पान्तर अवहारकाल अंशांशिभाव असंशिस्थिति असंयम अ असद्भावस्थापनान्तर असद्भावस्थापनाभाव असिद्धता ५ पारिभाषिक शब्दसूची पृष्ठ २२३ १३७, १३८ ३ २०६, २०९ २४९, २६२ ४५ १८५ २२५ २२५ २०७ २०१, २०० ३ १ ९ २२३ રરર ૪૪, ૯૪ ५४ १९४ १९४ ११ ६३ ११७ २४९ २०८ १७२ १८८ २ १८४ १८८ शब्द आगमद्रव्यान्तर आगमद्रव्यभाव आगमद्रव्याल्पबहुत्व आगमभावभाव आगमभावान्तर आगमभावाल्पबहुत्व आदेश आवली आसादन आहारकऋद्धि आहारककाल उच्छेद उत्कीरणकाल उत्तरप्रतिपत्ति उत्तानशय्या उद्वेलनकाल उद्वेलना उद्वेलनाकांडक उपक्रमणकाल उपदेश उपरिमराशि उपशम उपशमश्रेणी उपशामक उपशामकाद्धा आ उपशमसम्यक्त्वाद्धा उपशान्तकषायाद्धा ओघ पृष्ठ ओ २ १८४ २४२ १८४ ३ २४२ १, २४३ ७ २४ २९८ १७४ ३ ३२ २४९, २६२ २००, २०२, २०३, २११, २२० ११, १५१ १५, २५४ १९ १२५, २६० १५९, १६० १० ३२ ४७ ३४ ३३ १०, २५ २५०, २५१, २५५ १, २४३ Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६) परिशिष्ट शब्द पृष्ठ शब्द १८५, २०४ २७७ औदयिकभाव १८५, १९४ डहरकाल ४२, ४४, ४७,५६ औपशमिकभाव तव्यतिरिक्तअल्पबहुत्व २४२ तव्यतिरिक्तनोआगमद्रव्यभाव कपाटपर्याय १८४ तीर्थकर १९४, ३२३ करण ११ तीव्र-मन्दभाव कषाय २२३ त्रसपर्याप्तस्थिति ८४, ८५ कृतकरणीय त्रसस्थिति १४, १५, १६, ९९, १०५, १३९, २३३ क्रोधोपशामनाद्धा दक्षिणप्रतिपत्ति ३२ क्षपक १०५, १२४, २६० दिवसपृथक्त्व ९८, १०३ क्षपकश्रेणी १२, १०६ दिव्यध्वनि क्षपकाद्धा १५९, १६० दीर्घान्तर क्षय १९८,२०२, २११, २२० दृष्टमार्ग २२,३८ क्षायिकभाव १८५, २०५,२०६ देवलोक २८४ क्षायिकसम्यक्त्वाद्धा २५४ देशघातिस्पर्धक १९९ क्षायिकसंज्ञा २०० देशव्रत क्षायोपशमिक २००, २११, २२० देशसंयम २०२ क्षायोपशमिकभाव १८५, १९८ द्रव्यविष्कम्भसूची क्षुद्रभवग्रहण द्रव्यान्तर द्रव्याल्पबहुत्व २४१ ग द्रयलिंगी ५८, ६३, १४९ गुणकार २४७, २५७, २६२, २७४ गुणकाल गुणस्थानपरिपाटी नपुंसकवेदोपशामनाद्धा नामभाव १८३ गुणाद्धा गुणान्तरसंक्रान्ति नामान्तर ८९, १५४, १७१ नामाल्पबहुत्व २४१ निदर्शन ६, २५, ३२ धनांगुल ३१७, ३३५ निरन्तर ५६, २५७ निर्जराभाव १८७ निर्वाण ३५ चक्षुदर्शनस्थिति १३७, १३९ नोआगमअचित्तद्रव्यभाव नोआगमद्रव्यभाव १८४ जीवविपाकी २२२ नोआगमद्रव्यान्तर शानकार्य २२४ । नोआगमभव्यद्रव्यभाव १८४ १९० Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द नोआगमभावभाव नोआगमभावान्तर नोआगममिश्रद्रव्यभाव नोआगमद्रव्याल्पबहुत्व नोआगमभावाल्पबहुत्व नोआगमसचित्तद्रव्यभाव नोइन्द्रियावरण परमार्थ परस्थानाल्पय हुत्व परिपाटी पल्योपम प्रत्यय प्रत्येक बुद्ध बोषितबुद्ध २८९ २० ७, ९ पारिणामिकभाव १८५, २०७, १९६, २३० ५७ पुद्गल परिवर्तन पुद्गलविपाकित्व पुलविपाकी २२२ २२६ १९० पुरुष वेदोपशामनाद्धा पूर्वकोटीपृथक्त्व ४२, ५२, ७२ प्रक्षेपसंक्षेप प्रतरांगुल प्रतिभाग भव्यत्व भाव भाववेद भुवन महाव्रत मानोपशामनाद्धा मायोपशामनादा मासपृथक्त्व प पारिभाषिक शब्दसूची भ पृष्ठ १८४ ३ १८४ २४२ मुहूर्त पृथक्त्व २४२ १८४ २३७ २९४ ३१७, ३३५ २७०, २९० १९४ ३२३ ३२३ १८८ १८६ २२२ ६३ शब्द २७७ १९० १९० ३२, ९३ मासपृथक्त्वान्सर मिथ्यात्व मिश्रान्तर योग योगान्तरसंक्रान्ति लेश्यान्तर संक्रान्ति लेश्याद्धा लोभोपशामनाद्धा वर्गमूल वर्षपृथक्त्व वर्षपृथक्त्वान्तर वर्षपृथक्त्वायु विकल्प विग्रह विग्रहगति विरह व्यभिचार श्रेणी षण्मास सचित्तान्तर सदुपशम ल नोकषायोपशामनाडा सद्भावस्थापनाभाव सद्भावस्थापनान्तर सम्मूछिम श ( ३७ ) पृष्ठ १७९ स ६ ३ ३२, ४५ २२६ ८९ २६७ १८, ५३, ५५, २६४ १८ १५३ १५१ १९० ३६ १८९ १७३ ३०० ३ १८९, २०८ १६६ १९० २१ ३ २०७ ૩૮૩ २ ४१ Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३८) परिशिष्ट शब्द पृष्ठ शब्द २४४,२७३ २७७ २८४ २५३ सम्यक्त्व ६] संचय सम्यग्मिथ्यात्व संचयकाल सर्वघातित्व संचयकालप्रतिभाग सर्वघातिस्पर्धक १९९,२३७ संचयकालमाहात्म्य संचयराशि सर्वघाती २०२ सर्वपरस्थानाल्पबहुत्व संयम २८९ संयमासंयम सागरोपम स्तिबुकसंक्रमण सागरोपमपृथक्त्व स्थान सागरोपमशतपृथक्त्व स्थापनान्तर सातासातबंधपरावृत्ति १३०, १४२ स्थापनाभाव साधारणभाव १९६ स्थापनाल्पबहुत्व सान्तर २५७ स्थावरस्थिति सान्निपातिभाव १९३ स्त्रीवेदस्थिति सासादनगुण स्त्रीवेदोपशामनाद्धा सासादनपश्चादागतमिथ्यादृष्टि स्वस्थानाल्पबहुत्व सासंयमसम्यक्त्व सिद्धयत्काल सूक्ष्माद्धा सोचकस्वरूप २६७ हेतुहेतुमद्भाव २४१ ९६, ९८ २८९ १०४ ३२२ Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational