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(३८)
षट्खंडागमकी प्रस्तावना तथा एक जीवकी अपेक्षा अन्तर होता है । इस प्रकार नानाजीवोंकी अपेक्षा कभी भी विरहको नहीं प्राप्त होनेवाले छह गुणस्थान हैं- १ मिथ्यादृष्टि, २ असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, ४ प्रमत्तसंयत, ५ अप्रमत्तसंयत और ६ सयोगिकेवली। इन गुणस्थानोंमें केवल एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर बतलाया गया है, जिसे ग्रन्थ-अध्ययनसे पाठक भली भांति जान सकेंगे।
जिस प्रकार ओबसे अन्तरका निरूपण किया गया है, उसी प्रकार आदेशकी अपेक्षा भी उन-उन मार्गणाओंमें संभव गुणस्थानोंका अन्तर जानना चाहिए। मार्गणाओंमें आठ सान्तरमार्गणाएं होती हैं, अर्थात् जिनका अन्तर होता है। जैसे- १ उपशमसम्यक्त्वमार्गणा, २ सूक्ष्मसाम्परायसंयममार्गणा, ३ आहारककाययोगमार्गणा, ४ आहारकमिश्रकाययोगमार्गणा, ५ वैक्रियिकमिश्रकाययोगमार्गणा, ६ लब्ध्यपर्याप्तमनुष्यगतिमार्गणा, ७ सासादनसम्यक्त्वमार्गणा
और सम्यग्मिथ्यात्वमार्गणा । इन आठोंका उत्कृष्ट अन्तर काल क्रमशः १ सात दिन, २ छह मास, ३ वर्षपृथक्त्व, ४ वर्षपृथक्त्व, ५ बारह मुहूर्त, और अन्तिम तीन सान्तर मार्गणाओंका अन्तरकाल पृथक् पृथक् पल्योपमका असंख्यातवां भाग है । इन सब सान्तर मार्गणाओंका जघन्य अन्तरकाल एक समयप्रमाण ही है। इन सान्तर मार्गणाओंके अतिरिक्त शेष सब मार्गणाएं नानाजीवोंकी अपेक्षा अन्तर-रहित हैं, यह ग्रन्यके स्वाध्यायसे सरलतापूर्वक हृदयंगम किया जा सकेगा।
२ भावानुगम कोंके उपशम, क्षय आदिके निमित्तसे जीवके जो परिणामविशेष होते हैं, उन्हें भाव कहते हैं। वे भाव पांच प्रकारके होते हैं- १ औदयिकभाव, २ औपशामकभाव, ३ क्षायिकभाव, ४ क्षायोपशमिकभाव और पारिणामिकभाव । कर्मोंके उदयसे होनेवाले भावोंको औदयिक भाव कहते हैं। इसके इक्कीस भेद हैं- चार गतियां ( नरक, तिथंच, मनुष्य और देवगति ), तीन लिंग ( स्त्री, पुरुष, और नपुंसकलिंग ), चार कषाय (क्रोध, मान, माया और लोभ ), मिथ्यादर्शन, असिद्धत्व, अज्ञान, छह लेश्याएं ( कृष्ण, नील, कापोत, तेज, पद्म और शुक्ललेश्या), तथा असंयम । मोहनीयकर्मके उपशमसे ( क्योंकि, शेष सात कर्मोंका उपशम नहीं होता है) उत्पन्न होनेवाले भावोंको औपशमिक भाव कहते हैं । इसके दो भेद हैं-१ औपशमिकसम्यक्त्व और २ औपशमिकचारित्र । काँके क्षयसे उत्पन्न होनेवाले भावोंको क्षायिकभाव कहते हैं। इसके नौ भेद हैं - १ क्षायिकसम्यक्त्व, २ क्षायिकचारित्र, ३ क्षायिकज्ञान, ४. क्षायिकदर्शन, ५ क्षायिकदान, ६ क्षायिकलाभ, ७ क्षायिकभोग, ८ क्षायिकउपभोग और ९ क्षायिकवीर्य । कर्मोंके क्षयोपशमसे उत्पन्न होनेवाले भावोंको क्षायोपशमिकभाव कहते हैं । इसके अट्ठारह भेद हैं- चार ज्ञान (मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्ययज्ञान), तीन अज्ञान
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