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विषय-परिचय इसका अभिप्राय यह है कि मिथ्यात्वपर्यायसे परिणत जीवोंका तीनों ही कालोंमें व्युच्छेद, विरह या अभाव नहीं है, अर्थात् इस संसारमें मिथ्यादृष्टि जीव सर्वकाल पाये जाते हैं। किन्तु एक जीवकी अपेक्षा मिथ्यात्वका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्तकालप्रमाण है। यह जघन्य अन्तरकाल इस प्रकार घटित होता है कि कोई एक मिथ्यादृष्टि जीव परिणामोंकी विशुद्धिके निमित्तसे सम्यक्त्वको प्राप्तकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती हुआ । वह चतुर्थ गुणस्थानमें सबसे छोटे अन्तर्मुहूर्तप्रमाण सम्यक्त्वके साथ रहकर संक्लेश आदि के निमित्तसे गिरा और मिथ्यात्वको प्राप्त होगया, अर्थात् पुनः मिथ्यादृष्टि होगया। इस प्रकार मिथ्यात्व गुणस्थानको छोड़कर अन्य गुणस्थानको प्राप्त होकर पुनः उसी गुणस्थानमें आनेके पूर्व तक जो अन्तर्मुहूर्तकाल मिथ्यात्वपर्यायसे विरहित रहा, यही उस एक जीवकी अपेक्षा मिथ्यादृष्टि गुणस्थानका जघन्य अन्तर माना जायगा !
इसी एक जीवकी अपेक्षा मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो छयासठ अर्थात् एक सौ बत्तीस (१३२) सागरोपम काल है । यह उत्कृष्ट अन्तरकाल इस प्रकार घटित होता है कि कोई एक मिथ्यादृष्टि तियच अथवा मनुष्य चौदह सागरोपम आयुस्थितिवाले लान्तवकापिष्ठ कल्पवासी देवोंमें उत्पन्न हुआ। वहां वह एक सागरोपम कालके पश्चात् सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। तेरह सागरोपम काल वहां सम्यक्त्वके साथ रहकर च्युत हो मनुष्य होगया । उस मनुष्यभवमें संयमको, अथवा संयमासंयमको पालन कर बाईस सागरोपम आयुकी स्थितिवाले आरण-अच्युत कल्पवासी देवोंमें उत्पन्न हुआ। वहांसे च्युत होकर पुनः मनुष्य हुआ । इस मनुष्यभवमें संयम धारण कर मरा और इकतीस सागरोपमकी आयुवाले उपरिम अवेयकके अहमिन्द्रोंमें उत्पन्न हुआ । वहांसे च्युत हो मनुष्य हुआ, और संयम धारण कर पुनः उक्त प्रकारसे बीस, बाईस और चौवीस सागरोपमकी आयुवाले देवों और अहमिन्द्रोंमें क्रमशः उत्पन्न हुआ। इस प्रकार वह पूरे एक सौ बत्तीस ( १३२) सागरोंतक सम्यक्त्वके साथ रहकर अन्तमें पुनः मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। इस तरह मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अन्तर सिद्ध होगया। उक्त विवेचनमें यह बात ध्यान रखनेकी है कि वह जीव जितने वार मनुष्य हुआ, उतने वार मनुष्यभवसम्बन्धी आयुसे कम ही देवायुको प्राप्त हुआ है, अन्यथा बतलाए गए कालसे अधिक अन्तर हो जायगा। कुछ कम दो छयासठ सागरोपम कहनेका अभिप्राय यह है कि वह जीव दो छयासठ सागरोपम कालके प्रारंभमें ही मिथ्यात्वको छोड़कर सम्यक्त्वी बना और उसी दो छयासठ सागरोपमकालके अन्तमें पुनः मिथ्यात्वको प्राप्त हो गया । इसलिए उतना काल उनमेंसे घटा दिया गया।
यहां ध्यान रखने की खास बात यह है कि काल-प्ररूपणामें जिन-जिन गुणस्थानोंका काल नानाजीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल बतलाया गया है, उन-उन गुणस्थानवी जीवोंका नानाजीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं होता है। किन्तु उनके सिवाय शेष सभी गुणस्थानवर्ती जीवोंका नानाजीवोंकी
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