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१, ६, ३८०.] अंतराणुगमे सण्णिय-अंतरपरूवणं
एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ ३७७॥ गुणसंकंतीए असंभवादो।
मिच्छादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणेगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ ३७८॥ कुदो ? णाणाजीवपवाहस्स वोच्छेदाभावा, गुणंतरसंकंतीए अभावादो ।
एवं सम्मत्तमग्गणा समत्ता । सण्णियाणुवादेण सण्णीसु मिच्छादिट्ठीणमोघं ॥ ३७९ ।। __कुदो ? णाणाजीवं पडुच्च अंतराभावेण, एगजीवं पडुच्च अंतोमुहुत्तं देसूणवेछावद्विसागरोवममेत्तजहण्णुक्कस्संतरेहि य साधम्मुवलंभा ।।
सासणसम्मादिटिप्पहुडि जाव उवसंतकसायवीदरागछदुमत्था त्ति पुरिसवेदभंगों ॥ ३८०॥
उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ ३७७ ॥ क्योंकि, इन दोनोंके गुणस्थानका परिवर्तन असम्भव है।
मिथ्यादृष्टि जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना और एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ ३७८ ॥
क्योंकि, नाना जीवोंके प्रवाहका कभी विच्छेद नहीं होता है । तथा एक जीवका अन्य गुणस्थानोंमें संक्रमण भी नहीं होता है ।
इस प्रकार सम्यक्त्वमार्गणा समाप्त हुई। संज्ञीमार्गणाके अनुवादसे संज्ञी जीवोंमें मिथ्यादृष्टियोंका अन्तर ओघके समान है ॥ ३७९ ॥
__ क्योंकि, नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरका अभाव होनेसे, एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट कुछ कम दो छयासठ सागरोमममात्र अन्तरोंकी अपेक्षा ओघसे समानता पाई जाती है।
सासादनसम्यग्दृष्टि से लेकर उपशान्तकषायवीतरागछमस्थ तक संज्ञी जीवोंका अन्तर पुरुषवेदियोंके अन्तरके समान है ॥ ३८०॥
१ एकजीव प्रति नास्त्यन्तरम् । स. सि. १, ८. २ मिथ्यादृष्टे नाजीवापेक्षया एकजीवापेक्षया च मास्त्यन्तरम् । स. सि. १, ८. ३ संज्ञानुवादेन संनिषु मिथ्यादृष्टेः सामान्यवत् । स. सि. १, ८. ४ सासादनसम्यग्राष्टिसम्याग्मिथ्यादृष्टयो नाजीवापेक्षया सामान्यवत् । एकजीवं प्रति जघन्येन पल्योपमा.
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