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________________ १७२] - छक्खंडागमे जीवट्ठाणं - [१, ६, ३८१. ___कुदो ? सागरोवमसदपुधत्तहिदि पडि दोहं साधम्मुवलंभा । णवरि असण्णिट्ठिदिमच्छिय सण्णीसुप्पण्णस्स उक्कस्सहिदी वत्तव्वा । चदुण्हं खवाणमोघं ॥ ३८१ ॥ सुगममेदं । असण्णीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णथि अंतरं, णिरंतरं ॥३८२ ॥ कुदो ? असण्णिपवाहस्स वोच्छेदाभावा । एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ ३८३ ॥ कुदो ? गुणसंकंतीए अभावादो । एवं सण्णिमग्गणा समत्ता । क्योंकि, सागरोपमशतपृथक्त्वस्थितिकी अपेक्षा दोनोंके अन्तरों में समानता पाई जाती है। विशेषता यह है कि असंज्ञी जीवोंकी स्थितिमें रहकर संशी जीवोंमें उत्पन्न हुए जीवके उत्कृष्ट स्थिति कहना चाहिए। संज्ञी चारों क्षपकोंका अन्तर ओघके समान है ।। ३८१ ॥ यह सूत्र सुगम है। असंज्ञी जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ ३८२ ॥ क्योंकि, असंही जीवोंके प्रवाहका कभी विच्छेद नहीं होता है । असंज्ञी जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ ३८३ ॥ क्योंकि, असंशियोंमें गुणस्थानके परिवर्तनका अभाव है। इस प्रकार संज्ञीमार्गणा समाप्त हुई। संख्येयभागोऽन्तर्मुहूर्तश्च । उत्कर्षेण सागरोपमशतपृथक्त्वम् । असंयतसम्यग्दृष्टयाद्यप्रमत्तान्तानां नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहर्तः। उत्कर्षेण सागरोपमशतपृथक्त्वम् | चतुर्णामुपशमकानां नानाजीवापेक्षया सामान्यवत । एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहर्तः। उत्कर्षण सागरोपमशतपृथक्त्वम् । स. सि. १, ८. १ चतुर्णा क्षपकाणां सामान्यवत् । स. सि. १, ८. २ असंज्ञिनां नानाजीवापेक्षयैकजीवापेक्षया च नास्त्यन्तरम् । स. सि. १,८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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