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________________ १, ६, ३८७.] अंतराणुगमे आहारि-अंतरपरूवणं [१७३ आहाराणुवादेण आहारएसु मिच्छादिट्ठीणमोघं ॥ ३८४ ॥ सुगममेदं । सासणसम्मादिट्ठि-सम्मामिच्छादिट्टीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च ओघं ॥ ३८५ ॥ एवं पि सुगमं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, अंतोमुहत्तं ॥ ३८६ ॥ __ एवं पि अवगयत्थं । उक्कस्सेण अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो असंखेज्जासंखेज्जाओ ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीओ ॥ ३८७ ॥ तं जहा- एक्को सासणद्धाए दो समया अस्थि त्ति कालं गदो । एगविग्गहं आहारमार्गणाके अनुवादसे आहारक जीवोंमें मिथ्यादृष्टियोंका अन्तर ओघके समान है ॥ ३८४ ॥ यह सूत्र सुगम है। आहारक सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है ॥ ३८५॥ यह सूत्र भी सुगम है। उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर क्रमशः पल्योपमका असंख्यातवां भाग और अन्तर्मुहूर्त है ।। ३८६ ॥ इस सूत्रका अर्थ ज्ञात है। उक्त जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण असंख्यातासंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल है ॥ ३८७॥ जैसे- एक सासादनसम्यग्दृष्टि जीव सासादनगुणस्थानके कालमें दो समय १ आहारानुवादेन आहारकेषु मिथ्यादृष्टेः सामान्यवत् । स. सि. १, ८. २ सासादनसम्यग्दृष्टिसम्यग्मिथ्यादृष्टयो नाजीवापेक्षया सामान्यवत् । स. सि. १, ८. ३ एकजीवं प्रति जघन्येन पत्योपमासंख्येयभागोऽन्तर्मुहूर्तश्च । स. सि. १, ८. ४ उत्कर्षेणांगुलासंख्येयभागा असंख्येया उत्सर्पिण्यवसार्पण्यः । स. सि. १, ८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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