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________________ १७०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१,६, ३७५. हेट्ठिमगुणट्ठाणेसु अंतराविय सव्वजहण्णेण कालेण पुणो उवसंतकसायभावं गयस्स जहण्णंतरं किण्ण उच्चदे ? ण, हेट्ठा ओइण्णस्स वेदगसम्मत्तमपडिवज्जिय पुव्वुवसमसम्मत्तेणुवसमसेढीसमारुहणे संभवाभावादो । तं पि कुदो ? उवसमसेडीसमारुहणपाओग्गकालादो सेसुवसमसम्मत्तद्धाए त्थोवत्तुवलंभादो । तं पि कुदो णव्वदे ? उवसंतकसायएगजीवस्संतराभावण्णहाणुववत्तीदो । सासणसम्मादिट्ठि-सम्मामिच्छादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एयसमयं ॥ ३७५॥ सुगममेदं । उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागों ॥३७६ ॥ एदं पि सुगम । शंका-नीचेके गुणस्थानमें अन्तरको प्राप्त कराकर सर्वजघन्य कालसे पुनः उपशान्तकषायताको प्राप्त हुए जीवके जघन्य अन्तर क्यों नहीं कहते हैं ? समाधान-नहीं, क्योंकि, उपशमश्रेणीसे नीचे उतरे हुए जीवके वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुए विना पहलेवाले उपशमसम्यक्त्वके द्वारा पुनः उपशमश्रेणीपर समारोहणकी सम्भावनाका अभाव है। शंका-यह कैसे जाना ? समाधान-क्योंकि, उपशमश्रेणीके समारोहणयोग्य कालसे शेष उपशमसम्यक्त्वका काल अल्प पाया जाता है। शंका-यह भी कैसे जाना? समाधान-उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थके एक जीवके अन्तरका अभाव अन्यथा बन नहीं सकता, इससे जाना जाता है कि उपशान्तकषाय गुणस्थान एक जीवकी अपेक्षा अन्तर रहित है। सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय अन्तर है ॥ ३७५ ॥ यह सूत्र सुगम है। उक्त जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर पल्योपमका असंख्यातवां भाग है ॥ ३७६ ॥ यह सूत्र भी सुगम है। १ सासादनसम्यग्दृष्टिसम्यग्मिथ्यादृष्टयो नाजीवापेक्षया जघन्येनैकः समयः । स. सि. १, ८. २ उत्कर्षेण पल्योपमासंख्येयभागः। स. सि. १, ८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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