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________________ १, ६, ३७४.] अंतराणुगमे उवसमसम्मादिट्ठि-अंतरपरूवणं [१६९ एगजीवं पडुच्च जहण्णण अंतोमुहत्तं ॥ ३७०॥ तं जहा- उवसमसेढिं चढिय आदि करिय पुणो उवरिं गंतूण ओदरिय अप्पिदगुण पडिवण्णस्स अंतोमुहुत्तमंतर होदि। उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥ ३७१ ॥ एदस्स जहण्णभंगो । णवरि विसेसा विदियवारं चढमाणस्स जहणंतरं, पढमवारं चढिय ओदिण्णस्स उक्कस्संतरं वत्तव्यं ।। उवसंतकसायवीदरागछदुमत्थाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ॥३७२॥ उक्कस्सेण वासपुधत्तं ॥ ३७३॥ एदाणि दो वि सुत्ताणि सुगमाणि । एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ ३७४ ॥ उक्त तीनों उपशामकोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ ३७० ॥ ___ जैसे- उपशमश्रेणीपर चढ़कर आदि करके फिर भी ऊपर जाकर और उतरकर विवक्षित गुणस्थानको प्राप्त होनेवाले जीवमें अन्तर्मुहूर्तप्रमाण जघन्य अन्तर होता है। उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ ३७१ ॥ इस उत्कृष्ट अन्तरकी प्ररूपणा भी जघन्य अन्तरकी प्ररूपणाके समान जानना चाहिए । किन्तु विशेषता यह है कि उपशमश्रेणीपर द्वितीय वार चढ़नेवाले जीवके जघन्य अन्तर होता है और प्रथम वार चढ़कर उतरे हुए जीवके उत्कृष्ट अन्तर होता है, ऐसा कहना चाहिए। उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय है ॥ ३७२ ॥ उक्त जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है ॥ ३७३॥ ये दोनों ही सूत्र सुगम हैं। उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थोंका एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ ३७४ ॥ १ एकजीवं प्रति जघन्यमुत्कृष्टं चान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १,८. • २ उपशान्तकषायस्य नानाजीवापेक्षया सामान्यवत् । स. सि. १, ८. ३ एकजीवं प्रति नास्त्यन्तरम् । स. सि. १,८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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