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१, ६, ३९०.] अंतराणुगमे आहारि-अंतरपरूवणं
[१७५ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ ३८९ ॥
कुदो ? गुणतरं गंतूण सबजहण्णकालेण पुणो अप्पिदगुणपडिवण्णस्स जहणंतरुवलंभा।
उक्कस्सेण अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो असंखेज्जाओ ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीओ ॥ ३९० ॥
____ असंजदसम्मादिहिस्स उच्चदे- एक्को अट्ठावीससंतकम्मिओ विग्गहं कादूण देवेसुववण्णो । छहि पञ्जत्तीहि पञ्जत्तयदो (१) विस्संतो (२) विसुद्धो (३) वेदगसम्मत्तं पडिवण्णो (४)। मिच्छत्तं गंतूणंतरिदो अंगुलस्स असंखेजदिभागं परिभमिय अंते उवसमसम्मत्तं पडिवण्णो (५)। लद्धमंतरं । उवसमसम्मत्तद्धाए छावलियावसेसाए सासणं गंतूण विग्गहं गदो । पंचहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणओ आहारकालो उक्कस्संतरं ।
उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ ३८९ ॥ । क्योंकि, विवक्षित गुणस्थानसे अन्य गुणस्थानको जाकर और सर्वजघन्य कालसे लौटकर पुनः अपने विवक्षित गुणस्थानको प्राप्त होनेवाले जीवके जघन्य अन्तर पाया जाता है।
उक्त असंयतादि चार गुणस्थानवी आहारक जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल है ॥३९० ॥
आहारक असंयतसम्यग्दृष्टि जीवका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं-मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला एक मिथ्यादृष्टि जीव विग्रह करके देवोंमें उत्पन्न हुआ। छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (१) विश्राम ले (२) विशुद्ध हो (३) वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ (४)। पीछे मिथ्यात्वको जाकर अन्तरको प्राप्त हुआ और अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण कालतक परिभ्रमण करके अन्तमें उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ (५)। इस प्रकार अन्तर लब्ध होगया । पुनः उपशमसम्यक्त्वके कालमें छह आवलियां अवशिष्ट रह जाने पर सासादनमें जाकर विग्रहको प्राप्त हुआ। इस प्रकार पांच अन्तर्मुहूतौसे कम आहारककाल ही आहारक असंयतसम्यग्दृष्टि जीवका उत्कृष्ट अन्तर होता है। ...
१ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १, ८. २ उत्कर्षेणायलासंख्येयभागा असंख्येया उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः। स. सि. १,८.. ... ... ... .. ।
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