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________________ .१७६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ६, ३९०. संजदासंजदस्स उच्चदे- एक्को अट्ठावीससंतकम्मिओ विग्गहं कादूण सम्मुच्छिमेसु उववण्णो । छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो (१) विस्संतो (२) विसुद्धो (३) वेदगसम्मत्तं संजमासंजमं च समगं पडिवण्णो (४) । मिच्छत्तं गंतूणंतरिदो अंगुलस्स असंखेज्जदिभागं परिभमिय अंते पढमसम्मत्तं संजमासंजमं च समगं पडिवण्णो (५)। लद्धमंतरं । उवसमसम्मत्तद्धाए छावलियावसेसाए सासणं गंतूण विग्गहं गदो । पंचहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणओ आहारकालो उक्कस्संतरं । पमत्तस्स उच्चदे- एक्को अट्ठावीससंतकम्मिओ विग्गहं कादूग मणुसेसुववण्णो । गम्भादिअट्ठवस्सेहि अप्पमत्तो (१) पमत्तो होदूण (२) मिच्छत्तं गंतूणंतरिदो । अंगुलस्स असंखेज्जदिभागं परिभमिय अंते पमत्तो जादो। लद्धमंतरं (३)। कालं कादूण विग्गहं गदो। तिहि अंतोमुहुत्तेहि अट्ठवस्सेहि य ऊणओ आहारकालो उकस्संतरं। __ अप्पमत्तस्स एवं चेव । णवरि अप्पमत्तो (१) पमत्तो होदूण अंतरिदो सगहिदि परिभमिय अप्पमत्तो होदूण (२) पुणो पमत्तो जादो (३)। कालं करिय विग्गहं आहारक संयतासंयतका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं-मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला एक मिथ्यादृष्टि जीव विग्रह करके पंचेन्द्रिय सम्मूच्छिमोंमें उत्पन्न हुआ। छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (१) विश्राम ले (२) विशुद्ध हो (३) वेदकसम्यक्त्व और संयमासंयमको एक साथ प्राप्त हुआ (४)। पश्चात् मिथ्यात्वको जाकर अन्तरको प्राप्त हो अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक परिभ्रमणकर अन्तमें प्रथमोपशमसम्यक्त्व और संयमासंयमको एक साथ प्राप्त हुआ (५)। इस प्रकार अन्तर लब्ध हुआ। पश्चात् उपशमसम्यक्त्वके कालमें छह आवलियां अवशेष रहने पर सासादनको जाकर विग्रहको प्राप्त हुआ। इस प्रकार पांच अन्तर्मुहूतोंसे कम आहारककाल ही आहारक संयतासंयतका उत्कृष्ट अन्तर ह। आहारक प्रमत्तसंयतका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं-मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला एक जीव विग्रह करके मनुष्यों में उत्पन्न हुआ। गर्भको आदि ले आठ वर्षोंसे अप्रमत्तसंयत (१) और प्रमत्तसंयत हो (२) मिथ्यात्वको जाकर अन्तरको प्राप्त हुआ। अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण कालतक परिभ्रमण करके अन्तमें प्रमत्तसंयत होगया। इस प्रकार अन्तर लब्ध हुआ (३)। पश्चात् मरण करके विग्रहगतिको प्राप्त हुआ। इस प्रकार तीन अन्तर्मुहूर्त और आठ वर्षांसे कम आहारककाल ही आहारक प्रमत्तसंयतका उत्कृष्ट अन्तर है। आहारक अप्रमत्तसंयतका भी अन्तर इसी प्रकार है। विशेषता यह है कि अप्रमत्तसंयत जीव (१) प्रमत्तसंयत होकर अन्तरको प्राप्त हो अपनी स्थितिप्रमाण परिभ्रमण कर अप्रमत्तसंयत हो (२) पुनः प्रमत्तसंयत हुआ (३)। पश्चात् मरण करके विग्रहको प्राप्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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