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१, ६, ३९३.] अंतराणुगमे आहारि-अंतरपरूवणं
[१७ गदो । तिहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणओ आहारकालो उक्कस्संतरं ।
चदुण्हमुवसामगाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च ओघभंगों ॥ ३९१ ॥
सुगममेदं, बहुसो उत्तत्तादो। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ ३९२ ॥ एदं पि सुगमं ।
उकस्सेण अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो असंखेज्जासंखेज्जाओ ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीओ ॥ ३९३ ॥
तं जहा- एक्को अट्ठावीससंतकम्मिओ विग्गहं कादूण मणुसेसुववण्णो । अट्ठवस्सिओ सम्मत्तं अप्पमत्तभावेण संजमं च समगं पडिवण्णो (१)। अणंताणुबंधी विसंजोएदूण (२) दंसणमोहणीयमुवसामिय (३) पमत्तापमत्तपरावत्तसहस्सं काण (४) तदो अपुल्यो (५) अणियट्टी (६) सुहुमो (७) उवसंतो (८) पुणो वि परिवडमाणगो
हुआ। इस प्रकार तीन अन्तर्मुहूतौसे कम आहारककाल ही आहारक अप्रमत्तसंयतका उत्कृष्ट अन्तर है।
आहारक चारों उपशामकोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है ॥ ३९१ ॥
यह सूत्र सुगम है, क्योंकि, इसका अर्थ पहले बहुत वार कहा जा चुका है। उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ ३९२ ॥ यह सूत्र भी सुगम है।
आहारक चारों उपशामकोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण असंख्यातासंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी है ॥ ३९३॥
मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला एक मिथ्यादृष्टि जीव विग्रह करके मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ। आठ वर्षका होकर सम्यक्त्वको और अप्रमत्तभावके साथ संयमको एक साथ प्राप्त हुआ (१)। पुनः अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन करके (२)दर्शनमोहनीयका उपशमनकर (३) प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थानसम्बन्धी सहस्रों परिवर्तनोंको करके (४) पश्चात् अपूर्वकरण (५) अनिवृत्तिकरण (६) सूक्ष्मसाम्पराय (७) और उप
१ चतुर्णामुपशमकानां नानाजीवापेक्षया सामान्यवत् । स. सि. १,८. २ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १, .. ३ उत्कर्षणांगुलासंख्येयभागा असंख्येयासंख्येया उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः। स. सि. १,८.
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