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१, ७, २२.] भावाणुगमे मणुसभाव-परूवणं
[२१९ कुदो ? उवसम-वेदयसम्मादिट्ठीणं चेय तत्थ संभवादो। खइओ भावो किण्ण तत्थ संभवइ ? खइयमम्मादिट्ठीणं बद्धाउआणं त्थीवेदएसु उप्पत्तीए अभावा, मणुसगहवदिरित्तसेसगईसु दंसणमोहणीयक्खवणाए अभावादो च ।
ओदइएण भावेण पुणो असंजदो ॥ २१ ॥ सुगममेदं ।
मणुसगदीए मणुस-मणुसपज्जत्त-मणुसिणीसु मिच्छादिटिप्पडि जाव अजोगिकेवलि त्ति ओघं ॥ २२॥
तिविहमणुससयलगुणट्ठाणाणं ओघसयलगुणट्ठाणेहितो भेदाभावा । मणुसअपज्जत्ततिरिक्खअपज्जत्तमिच्छादिट्ठीणं सुत्ते भावो किण्ण परूविदो ? ण, ओघपरूवणादो चेय तब्भावावगमादो पुध ण परूविदो ।
क्योंकि, पंचेन्द्रियतिथंच योनिमतियों में उपशमसम्यग्दृष्टि और क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टि जीवोंका ही पाया जाना सम्भव है।
शंका- उनमें क्षायिकभाव क्यों नहीं सम्भव है ?
समाधान-क्योंकि, बद्धायुष्क क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंकी स्त्रीवेदियों में उत्पत्ति नहीं होती है, तथा मनुष्यगतिके अतिरिक्त शेष गतियों में दर्शनमोहनीयकर्मकी क्षपणाका अभाव है, इसलिए पंचेन्द्रियतिर्यंच योनिमतियोंमें क्षायिकभाव नहीं पाया जाता।
किन्तु तिथंच असंयतसम्यग्दृष्टियोंका असंयतत्व औदयिकभावसे है ॥ २१॥ यह सूत्र सुगम है।
मनुष्यगतिमें मनुष्य, मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यनियोंमें मिथ्यादृष्टि से लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक भाव ओघके समान हैं ॥ २२ ॥
क्योंकि, तीनों प्रकारके मनुष्योंसम्बन्धी समस्त गुणस्थानोंकी भावप्ररूपणामें भोधके सकल गुणस्थानोंसे कोई भेद नहीं है। ... शंका- लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य और लब्ध्यपर्याप्तक तिर्यंच मिथ्यादृष्टि जीवोंके भावोंका सूत्रमें प्ररूपण क्यों नहीं किया गया ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, ओघसम्बन्धी भावप्ररूपणासे ही उनके भावोंका परिशान हो जाता है, इसलिए उनके भावोंका सूत्र में पृथक् निरूपण नहीं किया गया ।
१ मनुष्यगतौ मनुष्याणां मिथ्यादृष्टयागयोगकेवल्यन्तानां सामान्यवत् । स. सि. १, ८.
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