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________________ १, ६, ५४.j अंतराणुगमे तिरिक्ख-अंतरपरूवणं [१५ वे मासे गम्भे अच्छिय णिखतो मुहुत्तपुधत्तेण विसुद्धो वेदगसम्मत्तं संजमासंजमं च जुगवं पडिवण्णो (१)। संकिलिट्ठो मिच्छत्तं गंतूगंतरिय सोलसपुव्वकोडीओ परिभमिय देवाउअंबंधिय अंतोमुहुत्तावसेसे जीविए संजमासंजमं पडिवण्णो (२)। लद्धमंतरं । मदो देवो जादो । बेहि अंतोमुहुत्तेहि मुहुत्तपुधत्तब्भहिय-वेमासेहि य ऊणाओ सोलहपुव्वकोडीओ उक्कस्संतरं होदि । पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्ताणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ ५२ ॥ सुगममेदं सुत्तं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ ५३॥ कुदो ? पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तयस्स अण्णेसु अपज्जत्तएसु खुद्दाभवग्गहणाउद्विदीएसु उववज्जिय पडिणियत्तिय आगदस्स खुद्दाभवग्गहणमेत्ततरुवलंभा । उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियढें ॥ ५४॥ कुदो ? पंचिंदियतिरिक्खअपञ्जत्तयस्स अणप्पिदीयेसु उप्पन्जिय आवलियाए उत्पन्न हुआ व दो मास गर्भमें रहकर निकला, मुहूर्तपृथक्त्वसे विशुद्ध होकर, वेदकसम्यपत्वको और संयमासंयमको एक साथ प्राप्त हुआ (१)। पुनः संक्लिष्ट हो मिथ्यात्वको जाकर, अन्तरको प्राप्त हो, सोलह पूर्वकोटिप्रमाण परिभ्रमण कर और देवायु बांधकर जीवनके अन्तर्मुहूर्तप्रमाण अवशेष रहनेपर संयमासंयमको प्राप्त हुआ (२)। इस प्रकार अन्तर प्राप्त हुआ। पश्चात् मरकर देव हुआ। इस प्रकार दो अन्तर्मुहूतों और मुहूर्तपृथक्त्वसे अधिक दो माससे हीन सोलह पूर्वकोटियां पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमतियोंका उत्कृष्ट अन्तर होता है। पंचेन्द्रिय तिथंच लब्ध्यपर्याप्तकोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥५२॥ __ यह सूत्र सुगम है। पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण है ॥ ५३॥ क्योंकि, पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकका क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण आयुस्थितिवाले अन्य अपर्याप्तक जीवोंमें उत्पन्न होकर और लौटकर आये हुए जीवका क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण अन्तर पाया जाता है। पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकालप्रमाण असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन है ॥५४॥ . क्योंकि, पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकके अविवक्षित जीवोंमें उत्पन्न होकर आव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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