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________________ ४६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ६, ५५. असंखेन्जदिभागमेत्तपोग्गलपरियट्टाणि परियट्टिय पडिणियत्तिय आगंतूण पंचिंदियतिरिक्खापज्जत्तेसु उप्पण्णस्स सुत्तुतंतरुवलंभा । एदं गदिं पडुच्च अंतरं ॥ ५५॥ जीवद्वाणम्हि मग्गणविसेसिदगुणट्ठाणाणं जहण्णुक्कस्संतरं वत्तव्यं । अदीदसुत्ते पुणो मग्गणाए उत्तमंतरं । तदो णेदं घडदि त्ति आसंकिय गंथकत्तारो परिहारं भणदिएवमेदं गर्दि पडुच्च उत्तं सिस्समइविप्फारणहूं । तदो ण दोसो त्ति । गुणं पडुच्च उभयदो वि णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥५६॥ एदस्सत्थो- गुणं पडुच्च अंतरे भण्णमाणे उभयदो जहण्णुक्कस्सेहिंतो णाणेगजीवेहि वा अंतरं णस्थि, गुणंतरगहणाभावा पवाहवोच्छेदाभावाच्च । मणुसगदीए मणुस-मणुसपज्जत्त-मणुसिणीसु मिच्छादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, जिरंतरं ॥ ५७ ॥ लीके असंख्यातवें भागमात्र पुद्गलपरिवर्तन परिभ्रमण करके पुनः लौटकर पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकोंमें उत्पन्न हुए जीवका सूत्रोक्त उत्कृष्ट अन्तर पाया जाता है। यह अन्तर गतिकी अपेक्षा कहा गया है ॥ ५५॥ यहां जीवस्थानखंडमें मार्गणाविशेषित गुणस्थानोंका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर कहना चाहिए। किन्तु, गत सूत्रमें तो मार्गणाकी अपेक्षा अन्तर कहा है और इसलिए वह यहां घटित नहीं होता है। ऐसी आशंका करके ग्रंथकर्ता उसका परिहार करते हुए कहते हैं कि यहां यह अन्तर-कथन गतिकी अपेक्षा शिष्योंकी बुद्धि चिस्फुरित करनेके लिए किया है, अतः उसमें कोई दोष नहीं है। गुणस्थानकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट, इन दोनों प्रकारोंसे अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥५६॥ - इसका अर्थ-गुणस्थानकी अपेक्षा अन्तर कहने पर जघन्य और उत्कृष्ट, इन दोनों ही प्रकारोंसे, अथवा नाना जीव और एक जीव इन दोनों अपेक्षाओंसे, अन्तर नहीं है; क्योंकि, उनके मिथ्यादृष्टि गुणस्थानके सिवाय अन्य गुणस्थानके ग्रहण करनेका अभाव है, तथा उनके प्रवाहका कभी उच्छेद भी नहीं होता है। मनुष्यगतिमें मनुष्य, मनुष्यपर्याप्तक और मनुष्यनियोंमें मिथ्यादृष्टि जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥५७॥ १ मनुष्यगतौ मनुष्याणां मिथ्यादृष्टेस्तिर्यग्वत् । स. सि. १, ८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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