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१, ६, . ५९] अंतराणुगमे मणुस्स-अंतरपरूवणं
सुगममेदं सुत्तं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ ५८ ॥
कुदो ? तिविहमणुसमिच्छादिट्ठिस्स दिट्ठमग्गस्स गुणंतरं पडिवज्जिय अइदहरकालेण पडिणियत्तिय आगदस्स सबजहण्णंतोमुहुर्ततरुवलंभा ।
उक्कस्सेण तिण्णि पलिदोवमाणि देसूणाणि ॥ ५९॥
ताव मणुसमिच्छादिट्ठीणं उच्चदे । तं जधा- एक्को तिरिक्खो मणुस्सो वा अट्ठावीससंतकम्मिओ तिपलिदोवमिएसु मणुसेसु उववण्णो । णव मासे गन्भे अच्छिदो । उत्ताणसेज्जाए अंगुलिआहारेण सत्त, रंगतो सत्त, अथिरगमणेण सत्त, थिरगमणेण सत्त, कलासु सत्त, गुणेसु सत्त, अण्णे वि सत्त दिवसे गमिय विसुद्धो वेदगसम्मत्तं पडिवण्णो। तिण्णि पलिदोवमाणि गमेदूण मिच्छत्तं गदो। लद्धमंतरं (१)। सम्मत्तं पडिवज्जिय (२) मदो देवो जादो । एगूणवण्णदिवसब्भहियणवहि मासेहि बेअंतोमुहुत्तेहि य ऊणाणि तिण्णि पलिदोवमाणि मिच्छत्तुक्कस्संतरं जादं । एवं मणुसपज्जत्त-मणुसिणीसु वत्तव्यं, भेदाभावा ।
यह सूत्र सुगम है।
उक्त तीनों प्रकारके मनुष्य मिथ्यादृष्टियोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ ५८ ॥
क्योंकि, दृष्टमार्गी तीनों ही प्रकारके मनुष्य मिथ्यादृष्टिके किसी अन्य गुणस्थानको प्राप्त होकर अति स्वल्पकालसे लौटकर आजाने पर सर्व जघन्य अन्तर्मुहूर्तप्रमाण अन्तर पाया जाता है।
- उक्त तीनों प्रकारके मनुष्य मिथ्यादृष्टियोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्योपम है ॥ ५९॥
उनमेंसे पहले मनुष्य सामान्य मिथ्यादृष्टिका अन्तर कहते हैं । वह इस प्रकार हैमोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला कोई एक तिर्यंच अथवा मनुष्य जीव तीन पल्योपमकी स्थितिवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ। नौ मास गर्भमें रहकर निकला। फिर उत्तानशय्यासे अंगुष्ठको चूसते हुए सात, रेंगते हुए सात, अस्थिर गमनसे सात, स्थिर गमनसे सात, कलाओंमें सात, गुणोंमें सात, तथा और भी सात दिन बिताकर विशुद्ध हो वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। पश्चात् तीन पल्योपम बिताकर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। इस प्रकारसे अन्तर प्राप्त होगया (१)। पीछे सम्यक्त्वको प्राप्त होकर (२) मरा और देव होगया । इस प्रकार उनचास दिनोंसे अधिक नौ मास और दो अन्तर्मुहूतौसे कम तीन पल्योपम सामान्य मनुष्यके मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अन्तर होता है। इसी प्रकारसे मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोंमें अन्तर कहना चाहिए, क्योंकि, इनसे उनमें कोई भेद नहीं है।
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