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________________ छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ६, ६०. सासणसम्मादिट्टि -सम्मामिच्छादिट्टीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ॥ ६० ॥ कुदो ! तिविहमणुसेसु द्विदसासणसम्मादिट्ठि सम्मामिच्छादिट्ठिगुणपरिणदजीवेसु अण्णगुणं गदेसु गुणतरस्स जहण्णेण एगसमयदंसणादो । उक्कस्त्रेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ॥ ६१ ॥ कुदो ? सासणसम्मादिट्ठि सम्मामिच्छादिट्ठिगुणट्ठाणेहि विणा तिविहमणुस्साणं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तकालमवाणदंसणादो । एगजीवं पडुच्च जहणेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, अंतोमुहुतं ॥ ६२ ॥ सासणस्स जहणंतरं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । कुदो ! एत्तिएण कालेण विणा पढमसम्मत्तग्गहणपाओग्गाए सम्मत्त सम्मामिच्छत्तट्ठिदीए सागरोवमपुधत्तादो हेट्ठिमार उप्पत्तीए अभावा । सम्मामिच्छादिट्ठिस्स अंतोमुहुत्तं जहणंतरं, अण्णगुणं ४८ ] उक्त तीनों प्रकारके मनुष्य सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टियों का अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय अन्तर है ॥ ६० ॥ क्योंकि, तीनों ही प्रकारके मनुष्यों में स्थित सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे परिणत सभी जीवोंके अन्य गुणस्थानको चले जानेपर इन गुणस्थानोंका अन्तर जघन्य से एक समय देखा जाता है । उक्त मनुष्योंका उत्कृष्ट अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है ॥ ६१ ॥ क्योंकि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानके विना तीनों ही प्रकारके मनुष्योंके पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र काल तक अवस्थान देखा जाता है । उक्त तीनों प्रकारके मनुष्योंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर क्रमशः पल्योपमका असंख्यातवां भाग और अन्तर्मुहूर्त है ॥ ६२ ॥ सासादन गुणस्थानका जघन्य अन्तर पल्योपमका असंख्यातवां भाग है, क्योंकि, इतने कालके विना प्रथमसम्यक्त्वके ग्रहण करने योग्य सागरोपमपृथक्त्वसे नीचे होनेवाली सम्यक्त्वप्रकृति तथा सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिकी स्थितिकी उत्पत्तिका अभाव है । सम्यग्मिथ्यादृष्टिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त होता है, क्योंकि, उसका अन्य गुणस्थानको Jain Education International १ सासादनसम्यग्दृष्टि सम्यग्मिथ्यादृष्टयोर्नानाजीवापेक्षया सामान्यवत् । स. सि. १, ८. २ एक्जीवं प्रति जघन्येन पल्योपमासंख्येयभागोऽन्तर्मुहूर्तश्च । स. सि. १, ८. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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