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________________ अंतरागमे मणुस - अंतरपरूवणं १, ६, ६३. ] गंतूण अंतमुहुत्ते पुणरागमुवलंभा । उक्कस्सेण तिष्णि पलिदोवमाणि पुव्वकोडिपुधत्तेण भहियाणि' [ ४९. ॥ ६३ ॥ मणुस सासणसम्मादिट्ठीणं ताव उच्चदे- एक्को तिरिक्खो देवो णेरइओ वा सासणद्धाए एगो समओ अस्थि त्ति मणुसो जादो । विदियसमए मिच्छत्तं गतूण अंतरिय सत्तेतालीसपुव्यको डिअब्भहियतिष्णि पलिदोवमाणि भमिय पच्छा उवसमसम्मत्तं गदो । तम्हि एगो समओ अस्थि त्ति सासणं गंतूण मदो देवो जादो । दुसमऊणा मणुसुक्कस्सट्ठिी सासणुक संतरं जादं । सम्मामिच्छादिट्ठिस्स उच्चदे एक्को अट्ठावीस संतकम्मिओ अण्णगदीदो आगदो मणुसेसु उवण्णो । गन्भादिअट्ठवस्सेसु गदेसु विसुद्धो सम्मामिच्छत्तं पडिवण्णो (१) । मिच्छत्तं गदो सत्तेतालीसपुच्त्रकोडीओ गमेदूण तिपलिदोवमिएस मणुसेसु उववण्णो आउअ बंधिय अवसाणे सम्मामिच्छत्तं गदो । लद्धमंतरं (२) । तदो मिच्छत्त-सम्मत्ताणं जेण आउअं बद्धं तं गुणं गंतूण मदो देवो जादो (३) । एवं तीहि अंतोमुहुत्ते हि अवस्से हि जाकर अन्तर्मुहूर्तसे पुनः आगमन पाया जाता है । उक्त मनुष्योंका उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिवर्षपृथक्त्वसे अधिक तीन पल्योपमकाल है ॥ ६३ ॥ Jain Education International I पहले मनुष्य सासादनसम्यग्दृष्टियों का उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं- एक तिर्यंच, देव अथवा नारकी जीव सासादन गुणस्थानके कालमें एक समय अवशेष रहने पर मनुष्य हुआ । द्वितीय समयमें मिथ्यात्वको जाकर और अन्तरको प्राप्त होकर सैंतालीस पूर्वकोटियों से अधिक तीन पल्योपमकाल परिभ्रमणकर पीछे उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ । उस उपशमसम्यक्त्वके काल में एक समय अवशेष रहनेपर सासादन गुणस्थानको जाकर मरा और देव होगया । इस प्रकार दो समय कम मनुष्यकी उत्कृष्ट स्थिति सासादन गुणस्थानका उत्कृष्ट अन्तर होगया । अब मनुष्य सम्यग्मिथ्यादृष्टिका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं - मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला कोई एक जीव अन्य गतिसे आकर मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ । गर्भको आदि लेकर आठ वर्षोंके व्यतीत होने पर विशुद्ध हो सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ (१) । पुनः मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ, सैंतालीस पूर्वकोटियां बिताकर, तीन पल्योपमकी स्थितिवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ और आयुको बांधकर अन्तमें सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ । इस प्रकार से अन्तर लब्ध हुआ (२) । तत्पश्चात् मिथ्यात्व और सम्यक्त्वमें से जिसके द्वारा आयु बांधी थी, उसी गुणस्थानको जाकर मरा और देव होगया (३) । इस प्रकार तीन १ उत्कर्षेण त्रीणि पल्योपमानि पूर्वकोटीपृथक्त्वैरभ्यधिकानि । स. सि. १, ' 16. २ प्रतिषु 'दुसमऊणाणमणुक्कस्सट्ठिदी ' इति पाठः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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