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५०] छक्खंडागमे जीवठ्ठाणं
[१, ६, ६४. य ऊणा सगट्ठिदी सम्मामिच्छत्तुक्कस्संतरं ।
एवं मणुसपज्जत्त-मणुसिणीणं पि । णवरि मणुसपज्जत्तेसु तेवीस पुव्वकोडीओ, मणुसिणीसु सत्त पुव्वकोडीओ तिसु पलिदोवमेसु अहियाओ त्ति वत्तव्यं ।
असंजदसम्मादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ ६४ ॥
सुगममेदं सुत्तं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुत्तं ॥६५॥
कुदो ? तिविहमणुसेसु द्विदअसंजदसम्मादिस्सि अण्णगुणं गंतूणंतरिय पडिणियत्तिय अंतोमुहुत्तेण आगमणुवलंभा ।
उक्कस्सेण तिण्णि पलिदोवमाणि पुरकोडिपुधत्तेणभहियाणि ॥६६॥
मणुसअसंजदसम्मादिट्ठीणं ताव उच्चदे- एक्को अट्ठावीससंतकम्मिओ अण्णगदीदो अन्तर्मुहूर्त और आठ वर्षोंसे कम अपनी स्थिति सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अन्तर है।
इसी प्रकार मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यनियोंका भी अन्तर जानना चाहिए । विशेष बात यह है कि मनुष्यपर्याप्तकोंमें तेवीस पूर्वकोटियां और तीन पल्योपमका अन्तर कहना चाहिए । और मनुष्यनियोंमें सात पूर्वकोटियां तीन पल्योपमोंमें अधिक कहना चाहिए।
असंयतसम्यग्दृष्टि मनुष्यत्रिकका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ ६४ ॥
यह सूत्र सुगम है। एक जीवकी अपेक्षा मनुष्यत्रिकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ ६५ ॥
क्योंकि, तीन प्रकारके मनुष्योंमें स्थित असंयतसम्यग्दृष्टिका अन्य गुणस्थानको जाकर अन्तरको प्राप्त हो और लौटकर अन्तर्मुहूर्तसे आगमन पाया जाता है ।
असंयतसम्यग्दृष्टि मनुष्यत्रिकका उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिवर्षपृथक्त्वसे अधिक तीन पल्योपम है ॥६६॥
इनमेंसे पहले मनुष्य असंयतसम्यग्दृष्टिका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं- अट्ठाईस मोह१ असंयतसम्यग्दृष्टेर्नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । स. सि. १, ८. २ एकजीवापेक्षया जघन्येनान्तर्मुहूर्तः। स. सि. १, ८. ३ उत्कर्षेण त्रीणि पल्योपमानि पूर्वकोटीपृथक्त्वैरभ्यधिकानि । स. सि. १,८.
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