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________________ ५४] छक्खंडागमे जीवट्ठाण [१, ६, ५१. कुदो ? पंचिंदियतिरिक्खतिगसंजदासंजदस्स दिट्ठमग्गस्स अण्णगुणं गंतूण अइदहरकालेण पुणरागदस्स अंतोमुहुर्ततरुवलंभा । उक्कस्सेण पुवकोडिपुधत्तं ॥ ५१ ॥ तत्थ ताव पंचिंदियतिरिक्खसंजदासंजदाणं उच्चदे । तं जहा- एक्को अट्ठावीससंतकम्मिओ सण्णिपंचिंदियतिरिक्खसम्मुच्छिमपज्जत्तएसु उववण्णो छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो (१) विस्संतो (२) विसुद्धो (३) वेदगसम्मत्तं संजमासंजमं च जुगवं पडिवण्णो (४) संकिलिट्ठो मिच्छत्तं गंतूणंतरिय छण्णउदिपुधकोडीओ परिभमिय अपच्छिमाए पुव्बकोडीए मिच्छत्तेण सम्मत्तेण वा सोहम्मादिसु आउअंबंधिय अंतोमुहृत्तावसेसे जीविए संजमासजम पडिवण्णो (५) कालं करिय देवो जादो । पंचहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणाओ छण्णउदिपुचकोडीओ उक्कस्संतरं जादं । ___पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्तएसु एवं चेव । णवरि अद्वैतालीसपुव्यकोडीओ ति भाणिदव्यं । पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीसु वि एवं चेव । णवरि कोइ विसेसो अस्थि तं भणिस्सामो । तं जहा- एक्को अट्ठावीससंतकम्मिओ पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीसु उप्पण्णो - क्योंकि, देखा है मार्गको जिन्होंने, ऐसे तीनों प्रकारके पंचेन्द्रिय तिर्यंच संयतासंयतके अन्य गुणस्थानको जाकर अतिस्वल्पकालसे पुनः उसी गुणस्थानमें आने पर अन्तर्मुहूर्तप्रमाण काल पाया जाता है। उन्हीं तीनों प्रकारके तिर्यंच संयतासंयत जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व है ॥५१॥ इनमेंसे पहले पंचेन्द्रिय तिर्यंच संयतासंयतोंका अन्तर कहते हैं। जैसे-मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला एक जीव संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यच सम्मूञ्छिम पर्याप्तकोंमें उत्पन्न हुआ, व छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (१) विश्राम ले (२) विशुद्ध हो (३) वेदकसम्यक्त्व और संयमासंयमको एक साथ प्राप्त हुआ (४) तथा संक्लिष्ट हो मिथ्यात्वको जाकर और अन्तरको प्राप्त हो छयानवे पूर्वकोटिप्रमाण परिभ्रमण कर अन्तिम पूर्वकोटिमें मिथ्यात्व अथवा सम्यक्त्वके साथ सौधर्मादि कल्पोंकी आयुको बांधकर व जीवनके अन्तर्मुहूर्त अवशेष रह जाने पर संयमासंयमको प्राप्त हुआ (५) और मरण कर देव हुआ । इस प्रकार पांच अन्तर्मुहूर्तोसे हीन छयानवे पूर्वकोटियां पंचेन्द्रिय तिर्यंच संयतासंयतोंका उत्कृष्ट अन्तर होता है । पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्तकोंमें भी इसी प्रकार अन्तर होता है। विशेषता यह है कि इनके अड़तालीस पूर्वकोटिप्रमाण अन्तरकाल कहना चाहिए। पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिमतियों में भी इसी प्रकार अन्तर होता है। केवल कुछ विशेषता है उसे कहते हैं । जैसेमोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला एक जीव पंचेन्द्रिय तिथंच योनिमतियों में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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