SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 133
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १, ६, ५०.] अंतराणुगमे तिरिक्ख-अंतरपरूवणं [४३ उक्कस्संतरं होदि। पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्तएसु एवं चेव । णवरि सत्तेतालीसपुचकोडीओ अहियाओ त्ति भाणिदव्यं । पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीसु वि एवं चेव । णवरि कोच्छि विसेसो अस्थि, तं परूवमो । तं जहा- एक्को अट्ठावीससंतकम्मिओ पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीसु उववण्णो । दोहि मासेहि गम्भादो णिक्खमिय मुहुत्तपुधत्तेण वेदगसम्मत्तं पडिवण्णो (१) संकिलिट्ठो मिच्छत्तं गंतूणंतरिय पण्णारस पुचकोडीओ भमिय तिपलिदोवमाउढिदिएसु उप्पण्णो। अवसाणे उवसमसम्मत्तं गदो । लद्धमंतरं (२)। छावलियावसेसाए उवसमसम्मत्तद्धाए आसाणं गदो मदो देवो जादो । दोहि अंतोमुहुत्तेहि मुहुत्तपुधत्तब्भहिय-वेमासेहि य ऊणा सगढिदी असंजदसम्मादिट्ठीणमुक्कस्संतरं होदि । ____ संजदासंजदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥४९॥ कुदो ? संजदासंजदविरहिदपंचिंदियतिरिक्खतिगस्स सव्वदाणुवलंभा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥५०॥ असंयतसम्यग्दृष्टियोंका उत्कृष्ट अन्तर होता है। पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्तकोंमें भी इसी प्रकार अन्तर होता है । विशेषता यह है कि इनके सैंतालीस पूर्वकोटियां ही अधिक होती है, ऐसा कहना चाहिए । पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमतियोंमें भी इसी प्रकार अन्तर होता है। केवल जो थोड़ी विशेषता है उसे कहते हैं । वह इस प्रकार है- मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला एक जीव पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमतियोंमें उत्पन्न हुआ। दो मासके पश्चात् गर्भसे निकलकर मुहूर्तपृथक्त्वमें वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ (१) व संक्लिष्ट हो मिथ्यात्वमें जाकर अन्तरको प्राप्त हो पन्द्रह पूर्वकोटिकाल परिभ्रमण करके तीन पल्योपमकी आयुस्थितिवाले भोगभूमियोंमें उत्पन्न हुआ। वहां आयुके अन्तमें उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। इस प्रकार अन्तर प्राप्त हुआ (२) । पुनः उपशमसम्यक्त्वके कालमें छह आवलियां अवशेष रह जाने पर सासादन गुणस्थानको प्राप्त हुआ और मरकर देव होगया। इस प्रकार दो अन्तर्मुहूर्तोंसे और मुहूर्तपृथक्त्वसे अधिक दो मासोंसे कम अपनी स्थिति असंयतसम्यग्दृष्टि योनिमती तिर्यंचोंका उत्कृष्ट अन्तर होता है। तीनों प्रकारके संयतासंयत तियचोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ ४९ ॥ क्योंकि, संयतासंयतोंसे रहित तीनों प्रकारके पंचेन्द्रिय तिर्यंच जीवोंका किसी भी कालमें अभाव नहीं है। उन्हीं तीनों प्रकारके तिर्यंच संयतासंयत जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक अन्तर्मुहूर्त है ॥ ५० ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy