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________________ ४२] छक्खंडागमे जीवाणं [१, ६, ४७. कुदो ? असंजदसम्मादिद्विविरहिदपंचिंदियतिरिक्खतिगस्स सव्वद्धमणुवलंभा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ ४७ ॥ __ कुदो ? पंचिंदियतिरिक्खतियअसंजदसम्मादिट्ठीणं दिट्ठमग्गाणं अण्णगुणं पडिवज्जिय अइदहरकालेण पुणरागयाणमंतोमुहुत्तंतरुवलंभा । ___ उक्कस्सेण तिण्णि पलिदोवमाणि पुवकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि ॥४८॥ पंचिंदियतिरिक्खअसंजदसम्मादिट्ठीणं ताव उच्चदे- एक्को मणुसो अट्ठावीससंतकम्मिओ सण्णिपंचिंदियतिरिक्खसम्मुच्छिमपज्जत्तएसु उववण्णो छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो (१) विस्संतो (२) विसुद्धो (३) वेदगसम्मत्तं पडिवण्णो (४) संकलिट्ठो मिच्छत्तं गंतूणंतरिय पंचाणउदिपुव्वकोडीओ गमेदूण तिपलिदोवमाउटिदिएसुववण्णो थोवावसेसे जीविए उवसमसम्मत्तं पडिवण्णो। लद्धमंतरं (५)। तदो उवसमसम्मत्तद्धाए छ आवलियाओ अस्थि त्ति आसाणं गंतूण देवो जादो। पंचहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणाणि पंचाणउदिपुवकोडिअब्भहियतिण्णि पलिदोवमाणि पंचिंदियतिरिक्खअसंजदसम्मादिट्ठीणं क्योंकि, असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंसे विरहित पंचेन्द्रिय तिर्यचत्रिक किसी भी कालमें नहीं पाये जाते हैं। उक्त तीनों असंयतसम्यग्दृष्टि तिर्यंचोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥४७॥ ___ क्योंकि, देखा है मार्गको जिन्होंने ऐसे तीनों प्रकारके पंचेन्द्रिय तिर्यंच असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके अन्य गुणस्थानको प्राप्त होकर अत्यल्प कालसे पुनः उसी गुणस्थानमें आनेपर अन्तर्मुहूर्त कालप्रमाण अन्तर पाया जाता है। उक्त तीनों असंयतसम्यग्दृष्टि तिर्यंचोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अंतर पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक तीन पल्योपमकाल है ॥४८॥ ___ पहले पंचेन्द्रिय तिर्यंच असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अन्तर कहते हैं- मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला एक मनुष्य, संझीपंचेन्द्रियतिथंच सम्मूच्छिम पर्याप्तकों में उत्पन्न हुआ व छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (१) विश्राम ले (२) विशुद्ध हो (३) वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हो (४) संक्लिष्ट हो मिथ्यात्वमें जाकर व अंतरको प्राप्त होकर पंचानवे पूर्वकोटियां बिताकर तीन पल्योपमकी आयुस्थितिवाले उत्तम भोगभूमियां तिर्यंचोंमें उत्पन्न हुआ और जीवनके अल्प अवशेष रहने पर उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। इस प्रकार अन्तर प्राप्त हुआ (५) । पश्चात् उपशमसम्यक्त्वके कालमें छह आवलियां अवशेष रह जानेपर सासादन गुणस्थानमें जाकर मरा और देव हुआ। इस प्रकार पांच अन्तमुहूतौसे कम पंचानवे पूर्वकोटियोंसे अधिक तीन पल्योपम प्रमाणकाल पंचेन्द्रिय तिथंच Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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