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________________ १, ६, ४६.] अंतराणुगमे तिरिक्ख-अंतरपरूवणं [५१ दियतिरिक्खपज्जत्ताणं । णवरि सत्तेतालीसपुधकोडीओ तिण्णि पलिदोवमाणि च पुन्वुत्तदोसमयछेअंतोमुहुत्तेहि य ऊणाणि उक्कस्संतर होदि । एवं जोणिणीसु वि । णवरि सम्मामिच्छादिट्ठिउक्कस्सम्हि अस्थि विसेसो । उच्चदे- एक्को णेरइओ देवो वा मणुसो वा अट्ठावीससंतकम्मिओ पंचिंदियतिरिक्खजोणिणिकुक्कुड-मक्कडेसु उववण्णो वे मासे गम्भे अच्छिय णिक्खंतो मुहुत्तपुधत्तेण विसुद्धो सम्मामिच्छत्तं पडिवण्णो। पण्णारस पुचकोडीओ परिभमिय कुरवेसु उववण्णो । सम्मत्तेण वा मिच्छत्तेण वा अच्छिय अवसाणे सम्मामिच्छत्तं गदो। लद्धमंतरं । जेण गुणेण आउअं बद्धं, तेणेव गुणेण मदो देवो जादो । दोहि अंतोमुहुत्तेहि मुहुत्तपुधत्ताहिय-वेमासेहि य ऊणाणि पुव्यकोडिपुधत्तब्भहियतिण्णि पलिदोवमाणि उक्कस्संतरं होदि । सम्मुच्छिमेसुप्पाइय सम्मामिच्छत्तं किण्ण पडिवज्जाविदो ? ण, तत्थ इत्थिवेदाभावा । सम्मुच्छिमेसु इत्थि-पुरिसवेदा किमहूं ण होंति ? सहावदो चेय। असंजदसम्मादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ ४६॥ उत्कृष्ट अन्तर जानना चाहिए। विशेषता यह है कि सैंतालीस पूर्वकोटियां और पूर्वोक्त दो समय और छह अन्तर्मुहूतौसे कम तीन पल्योपमकाल इनका उत्कृष्ट अन्तर होता है। इसी प्रकार योनिमतियोंका भी अन्तर जानना चाहिए । केवल उनके सम्यग्मिथ्यादृष्टिसम्बन्धी उत्कृष्ट अन्तरमें विशेषता है, उसे कहते हैं- मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्ता रखनेवाला एक नारकी, देव अथवा मनुष्य, पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती कुक्कुट, मर्कट आदिमें उत्पन्न हुआ, दो मास गर्भमें रहकर निकला व मुहूर्तपृथक्त्वसे विशुद्ध होकर सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। (पश्चात् मिथ्यात्वमें जाकर) पन्द्रह पूर्वकोटिकालप्रमाण परिभ्रमण करके देवकुरु, उत्तरकुरु, इन दो भोगभूमियोंमें उत्पन्न हुआ। वहां सम्यक्त्व अथवा मिथ्यात्वके साथ रहकर आयुके अन्तमें सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। इस प्रकार अन्तर प्राप्त होगया। पश्चात् जिस गुणस्थानसे आयुको बांधा था उसी गुणस्थानसे मरकर देव हुआ। इस प्रकार दो अन्तर्मुहूर्त और मुहूर्तपृथक्त्वसे अधिक दो मासोंसे हीन पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक तीन पल्योपमकाल उत्कृष्ट अन्तर होता है। शंका--सम्मूच्छिम तिर्यंचोंमें उत्पन्न कराकर पुनः सम्यग्मिथ्यात्वको क्यों नहीं प्राप्त कराया? समाधान नहीं, क्योंकि, सम्मूछिम जीवों में स्त्रीवेदका अभाव है। शंका-सम्मूछिम जीवोंमें स्त्रीवेद और पुरुषवेद क्यों नहीं होते हैं ? समाधान -स्वभावसे ही नहीं होते हैं। उक्त तीनों असंयतसम्यग्दृष्टि तिर्यंचोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है॥ ४६॥ १ प्रतिषु छ ' इति पाठो नास्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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