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________________ ४०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ६, ४५. _उक्कस्सेण तिण्णि पलिदोवमाणि पुवकोडिपुधत्तेणभहियाणि ॥४५॥ __ एत्थ ताव पंचिंदियतिरिक्खसासणाणं उच्चदे । तं जहा- एक्को मणुसो णेरइओ देवो वा एगसमयावसेसाए सासणद्धाए पंचिंदियतिरिक्खेसु उववण्णो । तत्थ पंचाणउदिपुव्वकोडिअब्भहियतिण्णि पलिदोवमाणि गमिय अवसाणे ( उवसमसम्मत्तं घेत्तूण) एगसमयावसेसे आउए आसाणं गदो कालं करिय देवो जादो । एवं दुसमऊणसगहिदी सासणुक्कस्संतरं होदि । __ सम्मामिच्छादिट्ठीणमुच्चदे - एक्को मणुसो अट्ठावीससंतकम्मिओ सण्णिपंचिंदियतिरिक्खसम्मुच्छिमपज्जत्तएसु उववण्णो छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो (१) विस्संतो (२) विसुद्धो (३) सम्मामिच्छत्तं पडिवण्णो (४) अंतरिय पंचाणउदिपुव्बकोडीओ परिभमिय तिपलिदोवमिएसु उववज्जिय अवसाणे पढमसम्मत्तं घेत्तूण सम्मामिच्छत्तं गदो । लद्धमंतरं (५)। सम्मत्तं वा मिच्छत्तं वा जेण गुणेण आउअं बद्धं तं पडिवजिय (६) देवेसु उववण्णो । छहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणा सगढिदी उक्कस्संतरं होदि । एवं पंचिं उक्त दोनों गुणस्थानवर्ती तीनों प्रकारके तिर्यंचोंका अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक तीन पल्योपम है ॥४५॥ ___इनमेंसे पहले पंचेन्द्रिय तिर्यंच सासादनसम्यग्दृष्टिका अन्तर कहते हैं । जैसेकोई एक मनुष्य, नारकी अथवा देव सासादन गुणस्थानके कालमें एक समय अवशेष रह जानेपर पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंमें उत्पन्न हुआ। उनमें पंचानवे पूर्वकोटिकालसे अधिक तीन पल्योपम बिताकर अन्तमें (उपशमसम्यक्त्व ग्रहण करके) आयुके एक समय अवशेष रह जाने पर सासादन गुणस्थानको प्राप्त हुआ और मरण करके देव उत्पन्न हुआ। इस प्रकार दो समय कम अपनी स्थिति सासादन गुणस्थानका उत्कृष्ट अन्तर होता है । अब तिर्यंचत्रिक सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका अन्तर कहते हैं-मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्ता रखनेवाला कोई एक मनुष्य, संशी पंचेन्द्रिय तिर्यंच सम्मूर्चिछम पर्याप्तकोंमें उत्पन्न हुआ और छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (१) विश्राम ले (२) विशुद्ध हो (३) सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ (४) तथा अन्तरको प्राप्त होकर पंचानवे पूर्वकोटि कालप्रमाण उन्हीं तिर्यंचोंमें परिभ्रमण करके तीन पल्योपमकी आयुवाले तिर्यंचोंमें उत्पन्न होकर और अन्तमें प्रथम सम्यक्त्वको ग्रहण करके सम्यग्मिथ्यात्वको गया। इस प्रकार अन्तर प्राप्त हुआ (५)। पीछे जिस गुणस्थानसे आयु बांधी थी उसी सम्यक्त्व अथवा मिथ्यात्व गुणस्थानको प्राप्त होकर (६) देवोंमें उत्पन्न हुआ। इस प्रकार छह अन्तर्मुहूतौसे कम अपनी स्थिति ही इस गुणस्थानका उत्कृष्ट अन्तर है। इसी प्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्तकोंका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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