SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 296
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ७, १०. करणस्स अविणट्ठकम्मस्स कधं खइओ भावो ? ण, तस्स वि कम्मक्खयणिमित्तपरिणामुवलंभा । एत्थ वि कम्माणं खए जादो खइओ, खयर्ट जाओ वा खइओ भावो इदि दुविहा सदउप्पत्ती घेत्तव्या । उवयारेण वा अपुव्यकरणस्स खइओ भावो । उवयारे आसइज्जमाणे अइप्पसंगो किण्ण होदीदि चे ण, पच्चासत्तीदो अइप्पसंगपडिसेहादो । ओघाणुगमो समत्तो । आदेसेण गइयाणुवादेण णिरयगईए णेरइएसु मिच्छादिहि त्ति को भावो, ओदइओ भावों ॥ १०॥ कुदो ? मिच्छत्तुदयजणिदअसद्दहणपरिणामुवलंभा । सम्मामिच्छत्तसव्वघादिफद्दयाणमुदयक्खएण तेसिं चेव संतोवसमेण सम्मत्तदेसघादिफद्दयाणमुदयक्खएण तेसिं चेव संतोवसमेण अणुदओवसमेण वा मिच्छत्तसव्वघादिफद्दयाणमुदएण मिच्छाइट्ठी शंका-किसी भी कर्मके नष्ट नहीं करनेवाले अपूर्वकरणसंयतके क्षायिकभाव कैसे माना जा सकता है ? समाधान नहीं, क्योंकि, उसके भी कर्मक्षयके निमित्तभूत परिणाम पाये जाते हैं। यहां पर भी कर्मोंके क्षय होने पर उत्पन्न होनेवाला भाव क्षायिक है, तथा कौके क्षयके लिए उत्पन्न हुआ भाव क्षायिक है, ऐसी दो प्रकारकी शब्द-व्युत्पत्ति ग्रहण करना चाहिए। अथवा उपचारसे अपूर्वकरण संयतके क्षायिक भाव मानना चाहिए। शंका-इस प्रकार सर्वत्र उपचारके आश्रय करने पर अतिप्रसंग दोष क्यों नहीं प्राप्त होगा? समाधान- नहीं, क्योंकि, प्रत्यासत्ति अर्थात् समीपवर्ती अर्थके प्रसंगसे अतिप्रसंग दोषका प्रतिषेध हो जाता है। इस प्रकार ओघ भावानुगम समाप्त हुआ। आदेशकी अपेक्षा गतिमार्गणाके अनुवादसे नरकगतिमें नारकियोंमें मिथ्यादृष्टि यह कौनसा भाव है ? औदयिक भाव है ॥ १०॥ क्योंकि, वहां पर मिथ्यात्वके उदयसे उत्पन्न हुआ अश्रद्धानरूप परिणाम पाया जाता है। शंका-सम्याग्मथ्यात्वप्रकृतिके सर्वघाती स्पर्धकोंके उदयक्षयसे, उन्हींके सक्षवस्थारूप उपशमसे, तथा सम्यक्त्वप्रकृतिके देशघाती स्पर्धकोंके उदयक्षयसे, उन्हींके सववस्थारूप उपशमसे अथवा अनुदयोपशमसे और मिथ्यात्वप्रकृतिके सर्वघाती १ प्रतिषु ‘खयट्ठज्जाओ' इति पाठः । २ विशेषेण गत्यनुवादेन नरकगतौ प्रथमायां पृथिव्यां नारकाणां मिथ्यादृष्टयाद्यसंयतसम्यग्दृष्टयन्तानां सामान्यवत् । स. सि. १,८. ३ अप्रतौ 'सम्मत्सदेसघादि ... ...संतोवसमेण ' इति पाठस्य द्विरावृत्तिः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy