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________________ १, ७, ९. j भावागमे खगभाव - परुवर्ण [ २०५ कम्माणमुवसमेण उप्पण्णो भावो ओवसमिओ भण्णइ । अपुव्त्रकरणस्स तदभावा गोवसमिओ भावो इदि चे ण उवसमणसत्तिसमण्णिदअपुव्वकरणस्स तदत्थित्ताविरोहा । तथा च उवसमे जादो उवसमियकम्माणमुवसमणङ्कं जादो वि ओवसमिओ भाओ ति सिद्धं । अधवा भविस्समाणे भूदोवयारादो अपुव्यकरणस्स ओवसमिओ भावो, सयलासंजमे चक्करस्स तित्थयरववएसो व्व । चदुहं खवा सजोगिकेवली अजोगिकेवलि त्ति को भावो, खइओ भावो ॥ ९ ॥ सजोगि-अजोगिकेवलीणं खविदधाइकम्माणं होदु णाम खइओ भावो । खीणकसायरस वि हो, खविदमोहणीयत्तादो | ण सेसाणं, तत्थ कम्मक्खयाणुवलंभा ? ण, बादर-सुहुमसांपराइयाणं पि खवियमो हेयदेसाणं कम्मक्खयजणिदभावोवलंभा । अपुच्च शंका--कर्मोंके उपशमनसे उत्पन्न होनेवाला भाव औपशमिक कहलाता है । किन्तु अपूर्वकरणसंयतके कर्मोंके उपशमका अभाव है, इसलिए उसके औपशमिक भाव नहीं मानना चाहिए ? समाधान- नहीं, क्योंकि, उपशमनशक्तिसे समन्वित अपूर्वकरणसंयतके औपशमिकभाव के अस्तित्वको माननेमें कोई विरोध नहीं है । इस प्रकार उपशम होनेपर उत्पन्न होनेवाला और उपशमन होने योग्य कर्मोंके उपशमनार्थ उत्पन्न हुआ भी भाव औपशमिक कहलाता है, यह बात सिद्ध हुई । अथवा, भविष्य में होनेवाले उपशम भावमें भूतकालका उपचार करनेसे अपूर्वकरणके औपशमिक भाव बन जाता है, जिस प्रकार कि सर्व प्रकार के असंयममें प्रवृत्त हुए चक्रवर्ती तीर्थकरके 'तीर्थकर ' यह व्यपदेश बन जाता है । चारों क्षपक, सयोगिकेवली और अयोगिकेवली, यह कौनसा भाव है ? क्षायिक भाव है ॥ ९॥ & शंका-घातिकमोंके क्षय करनेवाले सयोगिकेवली और अयोगिकेवलीके क्षायिक भाव भले ही रहा आवे । क्षीणकषाय वीतरागछद्मस्थके भी क्षायिक भाव रहा आवे, क्योंकि, उसके भी मोहनीय कर्मका क्षय हो गया है। किन्तु सूक्ष्मसाम्पराय आदि शेष क्षपकोंके क्षायिक भाव मानना युक्ति-संगत नहीं है, क्योंकि, उनमें किसी भी कर्मका क्षय नहीं पाया जाता है ? समाधान —— नहीं, क्योंकि, मोहनीयकर्मके एक देशके क्षपण करनेवाले बादरसाम्पराय और सूक्ष्मसाम्पराय क्षपकोंके भी कर्मक्षय-जनित भाव पाया जाता है । १ चतुर्षु क्षपकेषु सयोगायोगकेवलिनोश्च क्षायिको भावः । स. सि. ३, ८. खवगेसु खइओ भावो णियमा अजोगिचरिमो ति सिद्धे य ॥ गो. जी. १४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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