________________
१,७, ११.] भावाणुगमे णेरइयभाव-परूवणं
[२०७ उप्पज्जदि त्ति खओवसमिओ सो किण्ण होदि ? उच्चदे- ण ताव सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तदेसघादिफद्दयाणमुदयक्खओ संतोवसमो अणुदओवसमो वा मिच्छादिट्ठीए कारणं, सव्वहिचारित्तादो । जं जदो णियमेण उप्पज्जदि तं तस्स कारणं, अण्णहा अणवत्थाप्पसंगादो । जदि मिच्छत्तुप्पज्जणकाले विज्जमाणा तक्कारणत्तं पडिवज्जंति तो णाण-दंसण-असंजमादओ वि तक्कारणं होति । ण चेवं, तहाविहववहाराभावा । मिच्छादिट्ठीए पुण मिच्छत्तुदओ कारणं, तेण विणा तदणुप्पत्तीए ।
सासणसम्माइट्टि त्ति को भावो, पारिणामिओ भावो ॥११॥
अर्णताणुबंधीणमुदएणेव सासणसम्मादिट्ठी होदि त्ति ओदइओ भावो किण्ण उच्चदे ? ण, आइल्लेसु चदुसु वि गुणट्ठाणेसु चारित्तावरणतिव्योदएण पत्तासंजमेसु दंसणमोहणिबंधणेसु चारित्तमोहविवक्खाभावा । अप्पिदस्स दंसणमोहणीयस्स उदएण उवसमेण खएण खओवसमेण वा सासणसम्मादिट्ठी ण होदि त्ति पारिणामिओ भावो । स्पर्धकोंके उदयसे मिथ्यादृष्टिभाव उत्पन्न होता है, इसलिए उसे क्षायोपशमिक क्यों न माना जाय?
समाधान न तो सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व, इन दोनों प्रकृतियोंके देशघाती. स्पर्धकोंका उदयक्षय, अथवा सदवस्थारूप उपशम, अथवा अनुदयरूप उपशम मिथ्यादृष्टिभावका कारण है, क्योंकि, उसमें व्यभिचार दोष आता है । जो जिससे नियमतः उत्पन्न होता है, वह उसका कारण होता है। यदि ऐसा न माना जावे, तो अनवस्था दोषका प्रसंग आता है। यदि यह कहा जाय कि मिथ्यात्वके उत्पन्न होनेके कालमें जो भाव विद्यमान हैं, वे उसके कारणपनेको प्राप्त होते हैं। तो फिर ज्ञान, दर्शन, असंयम आदि भी मिथ्यात्वके कारण हो जावेंगे। किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, उस प्रकारका व्यवहार नहीं पाया जाता है । इसलिए यही सिद्ध होता है कि मिथ्यादृष्टिका कारण मिथ्यात्वका उदय ही है, क्योंकि, उसके विना मिथ्यात्वभावकी उत्पत्ति नहीं होती है।
नारकी सासादनसम्यग्दृष्टि यह कौनसा भाव है ? पारिणामिक भाव है ॥११॥
शंका-अनन्तानुबन्धी चारों कषायोंके उदयसे ही जीव सासादनसम्यग्दृष्टि होता है, इसलिए उसे औदयिकभाव क्यों नहीं कहते हैं ?
समाधान नहीं,क्योंकि, दर्शनमोहनीयनिबन्धनक आदिके चारों ही गुणस्थानोंमें चारित्रको आवरण करनेवाले मोहकर्मके तीव्र उदयसे असंयमभावके प्राप्त होनेपर भी चारित्रमोहनीयको विवक्षा नहीं की गई है। अतएव विवक्षित दर्शनमोहनीय कर्मके उदयसे, उपशमसे, क्षयसे, अथवा क्षयोपशमसे सासादनसम्यग्दृष्टि नहीं होता है, इसलिए वह पारिणामिक भाव है।
१ अ-कप्रत्योः 'अणवद्धा' इति पाठः।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org