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________________ २०८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ७, १२. सम्मामिच्छादिट्ठि त्ति को भावो, खओवसमिओ भावो ॥१२॥ कुदो ? सम्मामिच्छत्तुदए संते वि सम्मदंसणेगदेसमुवलंभा। सम्मामिच्छत्तभावे पत्तजच्चंतरे अंसंसीभावो णत्थि त्ति ण तत्थ सम्मदंसणस्स एगदेस इदि चे, होदु णाम अभेदविवक्खाए जच्चतरत्तं । भेदे पुण विवक्खिदे सम्मईसणभागो अत्थि चेव, अण्णहा जच्चतरत्तविरोहा । ण च सम्मामिच्छत्तस्स सव्वघाइत्तमेवं संते विरुज्झइ, पत्तजच्चंतरे सम्मइंसणंसाभावदो तस्स सव्वघाइत्ताविरोहा । मिच्छत्तसव्वघाइफद्दयाणं उदयक्खएण तेसिं चेव संतोवसमेण सम्मत्तस्स देसघादिफद्दयाणमुदयक्खएण तेसिं चेव संतोवसमेण अणुदओवसमेण वा सम्मामिच्छत्तसव्वघादिफद्दयाणमुदएण सम्मामिच्छत्तं होदि त्ति तस्स खओवसमियत्तं केई भणंति, तण्ण घडदे । कुदो ? सबहिचारित्तादो। विउचारो पुव्वं परूविदो त्ति णेह परूविज्जदे । असंजदसम्मादिहि ति को भावो, उवसमिओ वा, खइओ वा, खओवसमिओ वा भावो ॥ १३॥ नारकी सम्यग्मिथ्यादृष्टि यह कौनसा भाव है ? क्षायोपशमिक भाव है ॥१२॥ क्योंकि, सम्यग्मिथ्यात्वकर्मके उदय होनेपर भी सम्यग्दर्शनका एक देश पाया जाता है। शंका-जात्यन्तरत्व (भिन्न जातीयता) को प्राप्त सम्यग्मिथ्यात्वभावमें अंशांशी (अवयव-अवयवी ) भाव नहीं है, इसलिए उसमें सम्यग्दर्शनका एक देश नहीं है ? समाधान-अभेदकी विवक्षामें सम्यग्मिथ्यात्वके भिन्नजातीयता भले ही रही आवे, किन्तु भेदकी विवक्षा करनेपर उसमें सम्यग्दर्शनका एक भाग (अंश) है ही। यदि ऐसा न माना जाय, तो उसके जात्यन्तरत्वके माननेमें विरोध आता है । और, ऐसा मानमेपर सम्यग्मिथ्यात्वके सर्वघातिपना भी विरोधको प्राप्त नहीं होता है, क्योंकि, सम्यग्मिथ्यात्वके भिन्नजातीयता प्राप्त होनेपर सम्यग्दर्शनके एक देशका अभाव है; इसलिए उसके सर्वघातिपना माननेमें कोई विरोध नहीं आता। कितने ही आचार्य, मिथ्यात्वप्रकृतिके सर्वघाती स्पर्धकोंके उदयक्षयसे, उन्हींके सदवस्थारूप उपशमसे, तथा सम्यक्त्वप्रकृतिके देशघाती स्पर्धकोंके उदयक्षयसे और उन्हींके सदवस्थारूप उपशम, अथवा अनुदयरूप उपशमसे, और सम्यग्मिथ्यात्वके सर्वघाती स्पर्धकोंके उदयसे सम्यग्मिथ्यात्वभाव होता है, इसलिए उसके क्षायोपशमिकता कहते हैं। किन्तु उनका यह कथन घटित नहीं होता है, क्योंकि, उक्त लक्षण सव्यभिचारी है। व्यभिचार पहले प्ररूपण किया जा चुका है, (देखो पृ. १९९) इसलिए यहां नहीं कहते हैं। नारकी असंयतसम्यग्दृष्टि यह कौनसा भाव है ? औपशमिक भाव भी है, क्षायिकभाव भी है और क्षायोपशामिक भाव भी है ॥ १३ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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