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________________ अंतराणुग मे सजोगिकेवलि - अंतर परूवणं १, ६, २०. ] सगुणद्वाणाणं वि' अंतरमेगसमयो वत्तव्यो । उक्कस्सेण छम्मासं ॥ १७ ॥ तं जधा - सत्तट्ठ जणा अङ्कुत्तरसदं वा अपुव्वकरणखवगा अणियट्टिखवगा जादा । अंतरिदमपुव्त्रखवगगुणट्ठाणं उक्कस्सेण जाव छम्मासा त्ति । तदो सत्तट्ठ जणा अत्तरसदं वा अप्पमत्ता अपुव्यखवगा जादा । लद्धं छम्मासुक्कस्संतरं । एवं सेसगुणट्ठाणाणं प छम्मासुक्कस्संतरं वत्तव्यं । एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ १८ ॥ कुदो ? खवगाणं पद्णाभावा । सजोगिकेवलीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीव पडुच णत्थि अंतरं णिरंतरं ॥ १९ ॥ कुदो ? सजोगिकेवलिविरहिदकालाभावा । एगजीवं पहुच णत्थि अंतरं निरंतरं ॥ २० ॥ " अन्तरकाल एक समय प्रमाण कहना चाहिए । चारों क्षपक और अयोगिकेवलीका नाना जीवोंकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तरकाल छह मास है ॥ १७ ॥ जैसे - सात आठ जन, अथवा एक सौ आठ अपूर्वकरणक्षपक जीव अनिवृत्तिकरण क्षपक हुए । अतः अपूर्वकरणक्षपक गुणस्थान उत्कर्षसे छह मास के लिए अन्तरको प्राप्त होगया । तत्पश्चात् सात आठ जन, अथवा एक सौ आठ अप्रमत्तसंयत जीव अपूर्वकरणक्षपक हुए । इस प्रकारसे छह मांस उत्कृष्ट अन्तरकाल उपलब्ध होगया । इसी प्रकारसे शेष गुणस्थानोंका भी छह मासका उत्कृष्ट अन्तरकाल कहना चाहिए । एक जीवकी अपेक्षा उक्त चारों क्षपकोंका और अयोगिकेवलीका अन्तर नहीं होता है, निरंतर है ॥ १८ ॥ क्योंकि, क्षपक श्रेणीवाले जीवोंके पतनका अभाव है । सयोगिकेवलियोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं होता है, निरन्तर है ॥ १९ ॥ क्योंकि, सयोगिकेवली जिनोंसे विरहित कालका अभाव है । उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ २० ॥ २ उत्कर्षेण षण्मासाः । स. सि. १, ८. Jain Education International [ २१ १ प्रतिपु ' हि ' इति पाठः । ३ एक्जीवं प्रति नास्त्यन्तरम् । स. सि. १, ८. ४ सयोगकेवलिनां नानाजीवापेक्षया एकजीवापेक्षया च नास्त्यन्तरम् । स. सि. २,८० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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