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________________ २२ छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ६, २२. कुदो ? सजोगीणमजोगिभावेण परिणदाणं पुणो सजोगिभावेण परिणमणाभावा । एवमोघाणुगमो समत्तो । आदेसेण गदियाणुवादेण णिरयगदीए णेरइएसु मिच्छादिट्ठिअसंजदसम्मादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णस्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ २१ ॥ कुदो ? मिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीहि विरहिदपुढवीणं सम्बद्धमणुवलंभा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहत्तं ॥ २२ ॥ मिच्छादिहिस्स उच्चदे- एक्को मिच्छादिट्ठी दिट्ठमग्गो परिणामपच्चएण सम्मामिच्छत्तं वा सम्मत्तं वा पडिवजिय सव्वजहण्णमंतोमुहुत्तमच्छिय पुणो मिच्छादिट्ठी जादो । लद्धमतोमुहुत्तमंतरं । सम्मादिदि पि मिच्छत्तं णेदूण सधजहण्णेणंतोमुहुत्तेण सम्मत्तं पडिवजाविय असंजदसम्मादिहिस्स जहण्णंतरं वत्तव्यं । क्योंकि, अयोगिकेवलीरूपसे परिणत हुए सयोगिकवलियोंका पुनः सयोगिकेवलीरूपसे परिणमन नहीं होता है । इस प्रकारसे ओघानुगंम समाप्त हुआ। आदेशकी अपेक्षा गतिमार्गणाके अनुवादसे नरकगतिमें, नारकियोंमें मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ २१ ॥ क्योंकि, मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंसे रहित रत्नप्रभादि पृथिवियां किसी भी कालमें नहीं पायी जाती हैं। एक जीवकी अपेक्षा उक्त दोनों गुणस्थानोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ २२॥ इनमेंसे पहले मिथ्यादृष्टिका जघन्य अन्तर कहते हैं- देखा है मार्गको जिसने ऐसा एक मिथ्यादृष्टि जीव परिणामोंके निमित्तसे सम्यग्मिथ्यात्वको अथवा सम्यक्त्वको प्राप्त होकर, सर्वजघन्य अन्तर्मुहूर्तकाल रहकर, पुनः मिथ्यादृष्टि होगया । इस प्रकारसे अन्तर्मुहूर्तप्रमाण जघन्य अन्तरकाल लब्ध हुआ । इसी प्रकार किसी एक असंयतसम्यग्दृष्टि नारकीको मिथ्यात्व गुणस्थानमें ले जाकर सर्वजघन्य अन्तर्मुहूर्तकाल द्वारा पुनः सम्यक्त्वको प्राप्त कराकर असंयतसम्यग्दृष्टि जीवका जघन्य अन्तर कहना चाहिए। १ विशेषेण गत्यनुवादेन नरकगतौ नारकाणां सप्तसु पृथिवीसु मिथ्यादृष्टयसंयतसम्यग्दृष्टयो नाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । स. सि. १,८. २ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहर्तः। स. सि. १,८. Jain Education International For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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