SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 157
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १, ६, ११०.] अंत राणुगमे एइंदिय-अंतरपरूवणं [६७ तं जधा- एक्को बारेइंदिओ सुहुमेइंदियादिसु उप्पज्जिय असंखेज्जलोगमेत्तकालमंतरिय पुणो बादरेइंदिएसु उववण्णो । लद्धमसंखेज्जलोगमत्तं बादरेइंदियाणमंतरं । एवं बादरेइंदियपज्जत्त-अपज्जत्ताणं ॥ १०७॥ कुदो ? बादरेइंदिएहितो सवपयारेण एदेसिमंतरस्स भेदाभावा । सुहुमेइंदिय-सुहुमेइंदियपज्जत-अपजत्ताणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ १०८ ॥ सुगममेदं सुत्तं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ १०९ ॥ कुदो ? सुहुमेइंदियस्स अणप्पिदअपज्जत्तएसु उप्पज्जिय सव्वत्थोवेण कालेण तीसु वि सुहुमेइंदिएसु आगंतूणुप्पण्णस्स खुद्दाभवग्गहणमेत्तरुवलंभा । उक्कस्सेण अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो असंखेज्जासंखेज्जाओ ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीओ ॥ ११० ॥ जैसे- एक बादर एकेन्द्रिय जीव, सूक्ष्म एकेन्द्रियादिकोंमें उत्पन्न हो वहां पर असंख्यात लोकप्रमाण काल तक अन्तरको प्राप्त होकर पुनः बादर एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न हुआ। इस प्रकार असंख्यात लोकप्रमाण बादरएकेन्द्रियोंका अन्तर लब्ध हुआ। ___इसी प्रकारसे बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तक और बादर एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकोंका अन्तर जानना चाहिए ॥१०७॥ क्योंकि, बादर एकेन्द्रियोंकी अपेक्षा सर्व प्रकारसे इन पर्याप्त और लब्ध्यपर्याप्तक बादर एकेन्द्रियोंके अन्तरमें कोई भेद नहीं है।। सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रियपर्याप्त और सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ १०८॥ यह सूत्र सुगम है। उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण है ॥१०९॥ क्योंकि, किसी सूक्ष्म एकेन्द्रियका अविवक्षित लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंमें उत्पन्न होकर सर्व स्तोककालसे तीनों ही प्रकारके सूक्ष्म एकेन्द्रियों में आकर उत्पन्न हुए जीवके क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण अन्तर पाया जाता है। . उक्त सूक्ष्मत्रिकोंका उत्कृष्ट अन्तर अंगुलके असंख्यातवें भाग असंख्यातासंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालप्रमाण है ॥ ११० ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy