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________________ छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ६, १०४. ६६ ] मग्गणमछंडंतेण अंतरपरूवणा कादव्या, अण्णहा अव्यवस्थावत्तदो । एइंदियं तसकाइएस उप्पादिय अंतरे भण्णमाणे मग्गणाए विणासो किण्ण होदीदि चे होदि, किंतु जीए मग्गणाए बहुगुणट्ठाणाणि अत्थि तीए तं मग्गणमछंडिय अण्णगुणेहि अंतराविय अंतरपरूवणा कादव्वा । जीए पुण मग्गणाए एकं चेव गुणट्ठाणं तत्थ अण्णमग्गणाए अंतरात्रिय अंतरपरूवणा कादव्वा इदि एसो सुत्ताभिप्पाओ । ण च एइंदिएस गुणड्डाण - बहुत्तमत्थि, तेण तसकाइएस उप्पादिय अंतरपरूवणा कदा | बादरेइंदियाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ १०४ ॥ सुगममेदं सुतं । एगजीवं पडुच्च जहणेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ १०५ ॥ दो ? बादरेइंदियस्स अण्णअपज्जत्तेमु उपज्जिय सव्वत्थोवेण कालेन पुणो बादरेइंदियं गदस्त खुद्दाभवग्गहणमेत्तं तरुवलंभा । उक्कस्सेण असंखेज्जा लोगा ॥ १०६ ॥ मार्गणाके अभावका प्रसंग प्राप्त होगा । विवक्षित मार्गणाको नहीं छोड़ते हुए अन्तरप्ररूपणा करना चाहिए, अन्यथा अव्यवस्थापनकी प्राप्ति होगी । शंका - एकेन्द्रिय जीवको त्रसकायिक जीवोंमें उत्पन्न कराकर अन्तर कहने पर फिर यहां मार्गणाका विनाश क्यों नहीं होता है ? समाधान - मार्गणाका विनाश होता है, किन्तु जिस मार्गणामें बहुत गुणस्थान होते हैं उसमें उस मार्गणाको नहीं छोड़कर अन्य गुणस्थानोंसे अन्तर कराकर अन्तरप्ररूपणा करना चाहिए। परन्तु जिस मार्गणामें एक ही गुणस्थान होता है, वहां पर अन्य मार्गणा में अन्तर करा करके अन्तरप्ररूपणा करना चाहिए । इस प्रकारका यहांपर सूत्रका अभिप्राय है । और एकेन्द्रियोंमें अनेक गुणस्थान होते नहीं हैं, इसलिए त्रसकायिकोंमें उत्पन्न कराकर अन्तरप्ररूपणा की गई है । बादर एकेन्द्रियोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ १०४ ॥ यह सूत्र सुगम है । उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण है । । १०५॥ क्योंकि, बादरएकेन्द्रिय जीवका अन्य अपर्याप्तक जीवोंमें उत्पन्न होकर सर्व स्तोककालसे पुनः बादर एकेन्द्रियपर्यायको गये हुए जीवके क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण अन्तर पाया जाता है। उक्त जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है ॥ १०६ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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