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________________ १, ६, १०३. ] अंतरागमे एइंदि - अंतरपरूवणं [ ६५ इंदिया व देण एइंदियाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं निरंतरं ॥ १०१ ॥ सुगमेदं सुतं । एगजीवं पडुच्च जहणेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ १०२ ॥ दो ? एइंदियस्स तसकाइयापज्जत्तसु उप्पजिय सव्वलहुएण कालेण पुणे एइंदियमागदस्स खुद्दाभवग्गहणमेत्तं तरुवलंभा । उक्कस्सेण वे सागरोवमसहस्साणि पुव्वकोडिपुधत्तेण भहियाणि ॥ १०३ ॥ तं जहा - एइंदिओ तसकाइएस उववज्जिय अंतरिदो पुव्वाकोडीपुधत्ते णन्भहियवेसागरोवमसहस्समेत्तं तसट्ठिदिं परिभमिय एइंदियं गदो । लद्धमेइंदियाणमुक्कस्संतरं तसहिदिमेत्तं । देवमिच्छादिट्टिमे दिए पवेसिय असंखेज्जपोग्गलपरियट्टी तत्थ भमाडिय पच्छा देवेसुप्पाइय देवाणमंतरं किण्ण परूविदं ? ण, निरुद्धदेव गदिमग्गणाए अभावप्पसंगा । इन्द्रियमार्गणाके अनुवादसे एकेन्द्रियोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ १०१ ॥ यह सूत्र सुगम है । १०२ ॥ एक जीवकी अपेक्षा एकेन्द्रियोंका जघन्य अन्तर क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण है ॥ १० क्योंकि, एकेन्द्रियके सकायिक अपर्याप्तकोंमें उत्पन्न होकर सर्वलघु कालसे पुनः एकेन्द्रियपर्यायको प्राप्त हुए जीवके क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण अन्तर पाया जाता है । एकेन्द्रियों का एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अंतर पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक दो हजार सागरोपम है ।। १०३ ॥ जैसे - कोई एक एकेन्द्रिय जीव सकायिकोंमें उत्पन्न होकर अन्तरको प्राप्त हुआ और पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक दो हजार सागरोपमप्रमित त्रसकाय स्थितिप्रमाण परिभ्रमण कर पुनः एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न हुआ । इस प्रकार एकेन्द्रियोंका उत्कृष्ट अन्तर त्रस स्थितिप्रमाण लब्ध हुआ । शंका - - देव मिथ्यादृष्टियों को एकेन्द्रियोंमें प्रवेश करा, असंख्यात पुलपरिवर्तन उनमें परिभ्रमण कराके पीछे देवोंमें उत्पन्न कराकर देवोंका अन्तर क्यों नहीं कहा ? समाधान— नहीं, क्योंकि, वैसा करनेपर प्ररूपणा की जानेवाली देवगति १ इन्द्रियानुवादेन एकेन्द्रियाणां नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । स. सि. १, ८. २ एकजीवापेक्षया जघन्येन क्षुद्रभवग्रहणम् । स. सि. १, ८. ३ उत्कर्षेण द्वे सागरोपमसहस्रे पूर्व कोटीपृथक्त्वैरभ्यधिके । स. सि. १, ८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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