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________________ ६४] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ६, ९८. सासणसम्मादिद्वि-सम्मामिच्छादिट्ठीणं सत्थाणमोघं ॥ ९८ ॥ कुदो ? णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो; एगजीवं पडुच्च जहण्णेण (पलिदोवमस्स) असंखेज्जदिभागो, अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण बेहि समएहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणाओ अप्पप्पणो उक्कस्सद्विदीओ अंतरं होदि, एदेहि भेदाभावा । अणुदिसादि जाव सव्वट्ठसिद्धिविमाणवासियदेवेसु असंजदसम्मादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च (पत्थि) अंतरं, णिरंतरं ॥ ९९॥ सुगममेदं सुत्तं । एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ १०० ॥ एगगुणत्तादो अण्णगुणगमणाभावा । __एवं गदिमग्गणा समत्ता । उक्त आनतादि तेरह भुवनवासी सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि देवोंका अन्तर स्वस्थान ओघके समान है ॥ ९८ ॥ क्योंकि, नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय, उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण अन्तर है; एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे पल्योपमका असंख्यातवां भाग और अन्तर्मुहूर्त है, उत्कर्षसे दो समय और अन्तर्मुहूर्त कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण अन्तर होता है; इस प्रकार ओघके साथ इनका कोई भेद नहीं है। __अनुदिशको आदि लेकर सर्वार्थसिद्धि विमानवासी देवोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ ९९ ॥ यह सूत्र सुगम है। उक्त देवोंमें एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ १० ॥ उक्त अनुदिश आदि देवोंमें एक ही असंयतगुणस्थान होनेसे अन्य गुणस्थानमें जानेका अभाव है। इस प्रकार गतिमार्गणा समाप्त हुई। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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