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________________ ६८ ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ६, १११. तं जहा- एक्को सुमेदिओ पज्जतो अपज्जत्तो च बादरेईदिएसु उबवण्णो । तसकाइए बादरेइंदिएसु च असंखेज्जासंखेज्जा ओसपिणि उस्सप्पिणीपमाणमंगुलस्स असंखेज्जदिभागं परिभमिय पुणो तिस सुहुमेईदिएस आगंतूण उववण्णो । लद्धमंतरं बादरेइंदियतसकाइयाणमुक्कस्सट्ठिदी । बीइंदिय-ती इंदिय-चदुरिंदिय-तस्सेव पज्जत्त अपज्जत्ताणमंतरं चिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ १११ ॥ सुगममेदं सुतं । एगजीवं पडुच्च जहणेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ ११२ ॥ कुदो ? अणप्पिदअपज्जत्तरसु उपज्जिय सव्त्रत्थोवेण कालेन पुणेो णवसु विग - लिदिए आगंतूण उप्पण्णस्स खुद्दाभवग्गहणमेत्तं तरुवलभा । उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियङ्कं ॥ ११३ ॥ जैसे - एक सूक्ष्म एकेन्द्रियपर्याप्तक, अथवा लब्ध्यपर्याप्तक जीव बादर एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न हुआ। वह त्रसकायिकोंमें, और बादर एकेन्द्रियोंमें अंगुलके असंख्यातवें भाग असंख्यातासंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालप्रमाण परिभ्रमण कर पुनः उक्त तीनों प्रकारके सूक्ष्म एकेन्द्रियोंमें आकर उत्पन्न हुआ । इस प्रकार बादर एकेन्द्रियों और कायिकों की उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण सूक्ष्मत्रिकका उत्कृष्ट अन्तर उपलब्ध हुआ । द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और उन्हींके पर्याप्तक तथा लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ १११ ॥ यह सूत्र सुगम है। उक्त द्वीन्द्रियादि जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण है ।। ११२ ।। नौ क्योंकि, अविवक्षित लब्ध्यपर्याप्तकोंमें उत्पन्न होकर सर्वस्तोक कालसे 'पुनः प्रकारके विकलेन्द्रियोंमें आकर उत्पन्न होनेवाले जीवके क्षुद्रभवग्रहणमात्र अन्तरकाल पाया जाता है । उन्हीं विकलेन्द्रियोंका उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकालात्मक असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन है ॥ ११३ ॥ १ विकलेन्द्रियाणां नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । स. सि. १, ८. २ एकजीवापेक्षया जघन्येन क्षुद्रभवग्रहणम् । स. सि. १८. ३ उत्कर्षेणानन्तः कालोऽसंख्येयाः पुद्गलपरिवर्ताः । स. सि. १, ८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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