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________________ १, ८, १८५.] अप्पाबहुगाणुगमे णqसयवेदि-अप्पाबहुगपरूवणं [ ३०९ असंजदसम्मादिट्ठि-संजदासंजदट्ठाणे सम्मत्तप्पाबहुअमोघं ॥ १८४॥ असंजदसम्मादिट्ठीणं ताव उच्चदे- सव्वत्थोवा उवसमसम्मादिट्ठी । खइयसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो। कुदो ? पढमपुढवीखइयसम्मादिट्ठीणं पहाणत्तब्भुवगमादो । वेदगसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो।। संजदासजदाणं-सव्वत्थोवा खइयसम्मादिट्ठी। कुदो ? मणुसपज्जत्तणउंसयवेदे मोत्तूण तेसिमण्णत्थाभावा । उवसमसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो, असंखेज्जाणि पलिदोवमपढमवग्गमूलाणि । वेदगसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? आवलियाए असंखेजदिभागो।। पमत्त-अपमत्तसंजदहाणे सव्वत्थोवा खइयसम्मादिट्ठी॥१८५॥ नपुंसकवेदियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत गुणस्थानमें सम्यक्त्वसम्बन्धी अल्पबहुत्व ओघके समान है ।। १८४ ॥ इनमेंसे पहले असंयतसम्यग्दृष्टि नपुंसकवेदी जीवोंका अल्पबहुत्व कहते हैंनपुंसकवेदी उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं । उनसे नपुंसकवेदी क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं । गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है, क्योंकि, यहांपर प्रथम पृथिवीके क्षायिकसम्यग्दृष्टि नारकी जीवोंकी प्रधानता स्वीकार की गई है । नपुंसकवेदी क्षायिकसम्यग्दृष्टियों से नपुंसकवेदी वेदकसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं । गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है । संयतासंयत नपुंसकवेदी जीवोंका अल्पबहुत्व कहते हैं- नपुंसकवेदी संयतासंयत क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं, क्योंकि, मनुष्य-पर्याप्तक नपुंसकवेदी जीवोंको छोड़कर उनका अन्यत्र अभाव है। नपुंसकवेदी संयतासंयत क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंसे उपशमसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं। गुणकार क्या है ? पल्योपमका असंख्यातवां भाग गुणकार है, जो पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण है। नपुंसकवेदी संयतासंयत उपशमसम्यग्दृष्टियोंसे वेदकसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं। गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है। नपुंसकवेदियोंमें प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानमें क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं ॥ १८५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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